________________
प्रवचनसार भाषा (पद्य)
२४३
निहचे पारित धरम साम्य है एक हो । मग ५
मा पाही रस
दोहा यह परिणामी भातमा ऋणवत धारित रूप । ता समय चारित्र सों, तनमय एक सरूप ॥१४॥ जैसे गुटिका लोह कू, होत अगनि संजोग । ता समय प्रबलोकि ही, अग्नि रूप सब लोग ॥११॥ जैसे इंघण जोग , प्रमानि इषनाकार । तैसे परमातम भयो, पारित जोग प्रषार ॥१६॥ जीव शुभाशुभ सुर सों, प्रणवत तन्मय होय । सा समय अवलोफिये, वह एकता सोय ।।१७।।
कवित्त विषय कषाय असुभ रागादिक पूजा दान भगति सुभ भाष । चारित शुद्ध शुस परिणामी, जहाँ न भन संजोग कहाय ॥ यह तीन उपयोग लहे जिह तिह तसी विषि कर लखाय । सो चारित्र घरत परमातम, चारित रूप एवं शिवराय ॥१८॥
दोहा रक्तादिक संजोग ते, फटिक बरम घन होत । त्यों उपयोगी प्रातमा, बहुविधि करन उद्योत ॥१६॥ जैसे करनी माघरे तैसो कथन कहाय । करनी त्यागत मातमा निह शुद्ध सुभाव ॥२०॥
सर्वया बिना परिणाम प्रस्ति रूप ने द्रष्य को। कोक बिना प्रथ्य परिणाम पस्ति न पखानिये ॥ दव्य गुन पर्याय येक छोर होस तव । वस्तु भस्ति रूप सदा काल परवानिए ।