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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
क्या था तथा उनका बचपन एवं युवावस्था किस प्रकार व्यतीत हुई इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती । लोक ना अमरप है। आगरा से विशेष सम्बन्ध होने के कारण कवि को अच्छी शिक्षा मिली होगी । प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा का उन्हें अच्छा ज्ञान था तथा काव्य रचना में उनकी कचि थी। उनका कवि हृदय था।
संवत् १७३७ के पूर्व उनके हृदय में एक ऐसे ग्रंथ निर्माण करने का भाव पाया जिसमें जिन कथा दी हुई हो । कवि के वृन्दावन एवं सागरमल ये दो मित्र थे । जब कवि को काव्य रचना की इच्छा हुई तो उसने अपने इन दोनों मित्रों से चर्चा की घोर उन दोनों की आज्ञा लेकर बरनकोश को रचना कर डाली।। दोनों मित्र जिनधर्मी एवं परम पवित्र थे । सभी उनका सम्मान करते थे। दोनों को जनधर्म का पच्छा ज्ञान था । ग्रंथ पूरा होने पर उसका नाम बचनकोश रखा गया । कवि ने लिखा है कि बचनकोश नाम ही अत्यधिक उज्वल माना गया।
रचना काल एवं रचना स्थान
बच्चनकोश की रपना संवत् १७३५ वर्ष में वैशाख सुदी अष्टमी के शुभ दिन समाप्त हुई थी । उस दिन सोमवार था । कवि ने सोमवार का 'नीम' नाम दिया है। रचना स्थान बनपुर था जो उस समय एक सुन्दर नगर था तथा वहां के निवासियों में अपनी बुद्धि पर गर्द था।
संवत सत्रहरी वरस ऊपरि सप्त धक तीस । बैशाख अंधेरी अष्टमो, बार बरनज नीम ॥ ८३ ॥ भानपुर नगरी सुभग, तहाँ मुद्धि को जोस । रच्यो बुलाली धन्द ने, भाषा वचन शुकोसा ।। ४ ।।
१. तासु हिरदे उपजी वह प्रोनि, कीजे श्यों जिन कणा बखान ।
वृन्दावन सागरमल मित्र जिमघरमी प्रक परम पवित्र ।। ७८ ।। २. तिनकी प्राशा से सिर परी, बचनकोश की रचना करो।
भाषा ग्रंथ भयो अति भलो, मचनकोश नाम जु उजलो ॥ ७९ ॥