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कविवर बुलाखो चन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
के समवसरण का जैसलमेर में आने का उल्लेख करने वाला संभवतः एलाखी. बन्द प्रयभ विद्वान है । उमने लिखा है कि नहावीर जमलमेर भाये और जैसवालों को दिगम्बर जैन घमं में दीक्षित करने के पश्चात् पून: राजगृही चले गये । मार्ग में कहीं बिहार नहीं किया । इस घटना की सत्यता को सिद्ध करने वाले दूसरे प्रमाण नहीं मिलते और न किसी दूसरे विद्वान ने भगवान महावीर के समवसरण सहित जैसलमेर पाने का उल्लेख किया है फिर भी कधि के जो विवरण प्रस्तुत किया है: उस पर गम्भीरता पूर्वक विचार की आवश्यकता है । इतना तो इस वर्णन में सत्य प्रतीत होता है कि जैसघास जैन जाति की उत्पत्ति जैसलमेर से हुई थी।
अन्तिम केवली जम्बू स्वामी का कैवल्य एवं निर्वाण दोनों का मथुरा नगर के उद्यान में होना तो ऐतिहासिक सत्य है । यद्यपि कुछ विद्वान जम्बूस्वामी के निर्वाण स्थल में मतभेद रखते हैं लेकिन निर्वाणकांड गाथा में अतिशय क्षेत्रों के सम्बन्ध में नो महरम्य लिखा है उनमें मथुरा से ही जम्बूस्वामी का निर्वाण होना माना है। संवत १७३७ में रचित प्रस्तुत वचन कोश में इसी मत का समर्थन किया है यही नहीं मथुरा कंकाली टोले से जो जैन पुरातत्व की विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है वह भी इसी बात का द्योत्तक है कि मधुरा कभी जैन संस्कृति का महान् केन्द्र था । जम्बूस्वामी के पूर्व ही यह क्षेत्र जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बन चुका था । अहिंसक वातावरण एवं श्रमण धर्म का केन्द्र होने के कारण जम्बूस्वामी भो स्वयं राजगृही से विहार कर मथुरा पधारे थे और यहीं उन्हें कंवल्य हुमा था। यही नहीं उस समय बिहार से राजस्थान तक का यह मार्ग जैन साधुओं के लिए सुरक्षित बन चुका था इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान महावीर का धर्म उस समय तक यहां लोकप्रिय बन चुका था पीर उनके अनुयायी पर्याप्त संख्या में मिलने लगे थे।
कोश में जैसवाल जन जाति के समान ही अग्रवाल जैन जाति की उत्पत्ति का इतिहास भी दिया हुआ है। लोहाचार्य ने अग्रोहा के निवासियों को जैनधर्म में दीक्षित किया जो बाद में अग्रवाल जैन कहलाने लगे । कवि ने इसे समंद ७६. (सन् ७०३) की घटना माना है । अप्रवाल जैन जाति का दिगम्बर जैन जातियों में अपना विशेष स्थान है । इसलिए उसका इतिहास जानना प्रावश्यक है । अग्रवाल जैन जाति के इतिहास के साथ ही काष्ठा संघ की उत्पत्ति का जो रोचक इतिहास प्रस्तुत किया है वह भी कवि की ऐतिहासिक मनोवृत्ति का ही परिणाम है।