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पाथरवपुराण
अल्प बुदि तिनकै भयो, वूलचंद सुख सानि । तहि अनुतबे यो पहे, ज्यों प्रानी निज प्रान ।। ४३ ।। मन्नोदक संबंध से, प्राइ इन्द्रपथ थांन । मात पुष तिष्ठे सही, भने सुनै जिन बांनि ।। ४४ ।। महम रतन पंडित सहा, शास्त्र कना परबीन । सूलचंद सिस हेस सौं, ज्ञान अंस का लीन ।। ४५ ।। कल्पलता माता सही, मल करमा गर । दुख हरता सौ यो महा ज्यो तम सविता प्रसु ।। ४६ ।। सब सुख दै तिन यों कही, सुनो पुत्र मो वात । सुभ कारज सं जग विष, सुजस होइ विख्यात ।। ४७ ।। महापुरिष गुन गाइये, ताही तं यह जानि । दोइ लोक सुखदाय है, सुमति सुकीरति यान || ४८ ।। मुनि तुम्वन् प्रनील है, कॉन अभं गंभीर । जो पुरान पांडव महा, प्रगट पंडित धीर : ४६ || ता को अरष बिचारि के, भारत भाषा नाम । कथा पाण्टु सुत पंच की, कोज्यो बहू मभिराम ।। ५० ।। सुगम अर्थ धावक सबै, भने भनावं जाहि । ऐसो रश्चिक प्रथम ही, मोहि सुनावी ताहि ।। ५१ ।। जननी के ए वचन सुनि, लीने सीस चढाइ । रचिवे को उद्दिम कोयी, धरि के मन वष काई ।। ५२ ।। यह पुरान सागर कहा, मै बालक मति भाय । तरिवे को साहस धरौ, सो सब हासमहाय ॥ ५३ ।।
चौपई जे कवीस मह जिनसेनादि, घंटे पर तिनके हम प्रादि । लह्मो पुन्य तहां तासो कथा, रचि हौं जिनवर भाषित मथा ।। ५४ ।। ज्यौं नर मूको वोल्यो चहै, सव जन ताकी हासी बहैं। स्यों यह ग्रंथ करत परवान, भाजन मोहि हसन को जान ।। ५५ ।। चढ्यो मेरु पं पंगुल बहे सब जग में वह हासी सहै। यह पुरान प्रारंभत प्रवे, तसे मोहि हसगे स॥ ५६ ।।