________________
१५४
कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
उपज्यो ताके उदर है
मंगलाल गुन हृद |
दिन दिन सन मात पिता सो
चातुर्यता, व दोज क्यों चंद ।। ३३ ।। पढन को भेज दियो बटसाल |
सीखि के धारी
उर गुन माल ॥ ३४ ॥
सब विद्या तिन हेमराज पंडित
वसं
तिसी
मागरे ठाइ |
प्रवचनसार ।
गरम गोत गुन भागलो, सब पूजे जिस पाय ।। ३५ ।। जिन ग्रागम अनुसार तं, भाषा पंच अस्ति काया अपर, कोनें सुगम उपजी तार्क बेहजा, जैनी नाम सील रूप गुनी दीनो विद्या जनक में कोनी श्रति पंडित जाये सीख लें, घरनी
तल
सर्वच्या
सुगुन की खानि किषों सुकृत की सुभ कीरति की दानि अप स्वारथ विधानि परमारथ की राजधानि । रमाहू की रानी किषो जंनी घरम परिनि भव नरम हरनि ।
विचार ।। ३६ ।।
विख्यात |
हेम लौं उपनि सील सागर रसनि । अनि दुरित दर्शन सुर सरिता
दोहा
मैं
पाति ॥ ३७ ॥
वितपन्न |
वानि |
कीरति कृपान है ।
सुलोचना
धन्न ॥ ३८ ॥
जिनवान हैं ।
किथौ असरन सरनि कि जन निज हान है ।
समान है ।। ३६ ।
हेमराज तहां जानि के, नंदलाल गुन खानि ।
वय समान वर देखि दी, पानिग्रहह्न विधि ठानि ॥ ४० ॥
चौक
पुराय ।
इहि माय ।। ४१ ।।
तव सासू ने प्रीति सौं मोती लीनी गृह सूत्र नाम घरि, जंनुलवे नारि पुरुष सौ सौ रमे, घारै पूरव पुन्य फल भोग के जैय
अन्तर पेम |
जैम ।। ४२ ।।