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पाण्डवपुराण
सोरठा उमगि चले रन खेत, बुई प्रोर के सूर यों।
गाकि क के ऐन, निन माय लैं ।।१०।। करत धौर संग्राम, तजि सनेह निज देह को । बिसरि भाम सुख धाम, सुमरि सूरपन सूरही ।।११०॥
अलि
असि निकासि ललकारि, चले निज कोस ते। देत सत्रु . सिर माहि, भटाभट रोस हैं। धन कुदाल ते जैसे, दली भेविये ।
त महाते तों, परि माया छेदिये ।।११॥ घन समान भट केइक, मति ही मजि के। गुजं घात ते मारत, परि कौं तजि है ।। रकत धार निकसी, गज कुभ विवारि ते । भई लाल दस दिसि, मनु कम विदारि से ॥११२॥ हनत अश्व प्रसवार, सुह्य प्रसवार ही। धाइ धाइ रथ सारथ रहिं हकार हीं । मत्त मत गजराज के, सनमुख प्रावहीं । कुभ कुभ त, दंतहि दंत भिरावहीं ॥११॥ बान बान ते छेदि, घनूर सूरहीं । संचि बैंपि पाकणंहि, अंबर पूरही ।। परस परस हैं, वाड हि दण्ड सुखंड हो । करत जुर परचण्ड, महाबाल बंड ही ।। ११४।। चक्रि सैन ते हरिदस, भाज्यो ता समैं । जल प्रबाह ज्यों, दावानल ज्वाला दमैं ।। कुवर सबू तब निज जन धीरज धार तो। मुडयों जुड़ को, उद्धत परिगन मारतौ ।।११।।