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कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
तब सत्य खग षायी भट प्रति विष्णु को । कहत एम सिर छेदों श्रब में कृष्ण करें ॥१३१३ नभ खगेश में छायो वामन सौ तबै । परत दृष्टि नहि केशव रथ सारथि सबै ॥ मन मद्धि सर पंजर घेरे भानि कै ।
लखें सूर सब जीवित संसय
जानि के ॥ १३२॥
कंपमान रुधिरारुरण नर एक और हीं । भाइ कृष्ण प्रति बोल्यो तिस रा ठौर हीं 11
भो मुरारि किम करत वृथा तुम जुद्ध ही । हते पांडवा पांची रण मे क्रुद्ध ही ।। १३३ ।।
फुनि दशार्ह से बलघर जोधा और जे । जरासंघ ने मारे रण में ठोर से नगर द्वारिका सिंधु विजय नृप जोर है : जुद्ध मांहि सो अरि ने भेज्यों जम ग्रहै ॥। १३४ ।। लई सत्रु नै निहुचे द्वारावति पुरी | श्रबहि नाथ क्यों मरत वृषा तुम हे हरी ॥। भाजि जाहु तुम रण ते जो वांछों सुखें । मायामय बच सुनि इम हरि बोल्यो वषै ।। १३५।।
परे दुष्ट मो जीवत जादव नृपन क । को समर्थ नर जग में इन के हसन कौं ।
बचन कृष्ण के सुनि सो माज्यों दुष्ट ही । reat विष्णु भरि ऊपरि धनु गहि रुष्ट ही ॥१३६॥२
के पिशाच खग सोलों कोइक प्रा के कधी कृष्ण प्रति ऐसे झूठ बनाइ कं ॥ भो गुपाल तुम देख नभ की ओर ही । हत्यो भूष वसुदेवहि
अरि ने ठोर हृीं ॥१३७॥ यौ त्यागि रन लगगनता बिन भय रत्यो ।
यही बात कहि वृछ विशेष हरि पे हृत्य |