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पाण्डवपुराण
सिली घान तै हरि ने छेद्यौ छिन विर्ष । तबहि कृष्ण परिसार्यो परवत ह्र वर्षे ।।१३८।। मसनि घांन त मिरि भी हरि नै नासीयो। गयो भाजि तब खेचर हरि ते त्रासीयौ ।। तहि विष्णु की नर सुर पर संसौं घनौ । बहरि प्राइ तिन खग ने नुत कर्यो भन्यों ।।१३६॥ भो नरेन्द्र जब सौ खग दूजो माह के। केतु छत्र रथ तेरे सुदन न धाइ के । का जुद से जाना को बध । मौर भांति रए मांहि परी सौं हारीए ।।१४०।। प्रही कृष्ण बिन कारन रन क्यों करते है। सिद्धि नाहि का या में अघ अनुसरतु है ॥ सुनहु चक्र ते मस्तक मागध को महा । जनक विरथा ही मारे 4 कहा ।।१४।। सुनत बात यह क्रोधित मापक यौं भने । हन्यौ नाथ किम जाइ बरा को दिन हने । यही बात फहि हरि नै असि नंदन करै । कर्यो बेट है टूफ पर्यो सो भू परै ।३१४२।। जीधिवंत हरि को अखि सुरगन गगन तें। पुष्प वृष्टि बहु कीनी निधन सुरन ते ।। को कृष्ण तब बल प्रति को विषि ठानीमे । घका व्यूह प्रक्ति दुर्जर जासों हानीये ।। १४३।।
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दोहा शाह विष्णु रण मैं सबै, तीनि सूर लै संग । चका म्यूह गिरि प्रसन ज्यौं करो छिनक में भंग ।।१४४।। जरासंघ तब ऋद्ध ह्र, अरिमन मारन करब ।। दुरजोधादिक तीनि भट पठए प्रायुध साजि ।।१४५।।