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कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
दुरजोधन के सनमुखें, जयो पार्थ परबीन । रूप्य सामही नेमिरथ, धर्मज सेना तीन ॥१४६।।
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तब परस्पर सूर लगे हकारि के। करत चूरणं गज हय रथ प्रायुष मारि । सूरवीर संबद्ध भये रन सामही । चले भाजि मुख मोरि सुकायर धाम हो ॥१४७।। सूरन के तन प्रायुष ज्यों ज्यों वर्ष ही । नारदादि सुरगन कर नाचत हर्ष ही। भनस पार्थ प्रति यौं दुरजोष हकारि के। कर्यो भस्म में तोहि हुतासन जारि के ॥१४॥ रे निलज्ज नर गर्व वृषा ही क्या करें । तोहि लाज नहिं प्रावत सनमुख खर।। यही बात सुनि अर्जुन पनु टंकोरीयो । प्रलय काल को मनौं धनाधन पोरीयो ।।१४६ छोष्टि बान संघात सुकौरव छाइयो। दुई मषि जालंधर तोलौं पाइयो ।। धनुष पार्थ को छेद्यौ रण में भावते । कर्यो जुद्ध फुनि दुदंर सरगन छावः ।।१५०।। तबहिं पार्थ सौं बोल्यों रूप्यकुमार यौं । वृथा पक्ष अन्याय करत भविषार क्यों ।। वासुदेव पर कन्याहार कहै सही। अरु परस्व अभिलाषी तस्कर भीवही ।। १५१।। यह बात सुनि अर्जुन बोल्यो रे वृथा । गजि गजि किम भाषत तू दादुर जया ॥