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पाण्डवपुराण
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कालसंबरहि बोषिकर्यो निज रथ विर्ष, मल्यखेट नब गायो 'पा के मनमुते ।। १२३।। तबहिं मारनै छोडे सर बह तीछना, छदि सल्य को संवन कीनो जीरना । सल्य और रथ चढि के रण प्रति ही कर्मा, सिम्ममान को या मनसों दानुसरो ।।१२४।। हस्यो मार फौं सरत मूछित कर दीयो, बहरि यांन गन तजि के रष णित कीयो । गिर्यो स्वामि अरु देख्यो रथ टूट्यो जबे, भयो सारथी अति ही भय पीड़ित तबै ।।१२५।। ह्र सचेत उठि बैठ्यो तोलौं काम ही, सुथिर चित्त हबोल्यो गुरु गणा धाम ही । पहो सारथी हिरवं भय नहिं धारिये, भये भीत रण मांहि परिसों हारिये ॥१२६।।
दोहरा
रण सनमुख काइर भये, सुर नर सभा मझार । खेटन मैं पाहब नमैं, ल जीए पावत हार ।।१२७१। फुनि दशाई बस कृष्णा मैं, आवै हम को लाज । सात या तन प्रसुषि ते, ह है कौन सुकाज ।।१२८।। कीजै पुष्ट शरीर कौं, करके सरस महार । को गुण तासौं बुद्ध मैं, जो भाजे भय धार ||१२६।। यो कहि मनमय अन्य रय, जति सारथि थिर कीन । सिस्सुपाल के अनुज सौं, बहुरि भयो रण लीन ।।१३०॥
अडिल्ल सगे जुद्ध को दोऊ रण कौबिद महा । दुहू मनि तिन के मामो हरि तहां ।।