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वचन कोश
भरत राय को लियो बुलाइ सोध्यौ राज भार समुझाइ ।। सकल देश बांटस तब भए । बाहुबलि पोदनपुर गए || ६ | और सूतनि जो जो चाह्यौं ठोर । बाटि दीयों स्वामी सिरमोर || इतनें अंतर धौर जु देश । चायें प्रभुनें अपर नरेश ||८|| भरय तनी सेवा मनि परे । अशा मंगन कोऊ करी ॥
प्रथम ही चक्रवत भरतेश । सा
बंड छहूनि के देश || ६ || इहि विधि सबकी करि सनमान जोगारूढ होत भगवान || सविकार चित्र विचित्र मानियो । चैत यदि नौमी को जानियों ॥ १० ॥
तामें बैठा श्री जिनचंद | नाभि नरेश घरे निजु कंद ॥
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सात पेंड लौं वे बले । भाव सहित मन श्रति उजले ||११|| सुन सकल अभिरमि से गए नंदन वन प्रभिराम ॥ इंद्रनि कयौ प्रति उद्यव सबै जय जयकार उच्चरे जब || १२०० बट तरवर यहां परम पुनीत । तातरि रिद्धि तजि भए प्रतीत || नमः सिद्धमुख लें उच्चरयो । पंचमुष्ठि लोंच तब करी ।।१३।। मंडे पंच महावत घोर । स्थागी सक्ल परिग्रह जोर ।। मणिमय भाजन में भरि केस 1 क्षीर समुद्र में कार भयौ ।।१४।। पुष्करार्द्ध पर पहुँच्यो जब मोहर गए करते कच सबै ।। भाव द्रव्य ले मघवा गर्यो । पीर समुद्र में डारत भयो ।।१५।। नाषि चिहुरसो तिन पद जाय । संजम वल प्रभु अधिकाय || संजम तें मनपर्यय ज्ञान । प्रभु के हृदय भयौ सुख वांनि ।। १६ ।। मन सहित लघु करत दयाल | तहां वीथी तब किंचित काल ।। प्रगट भई भाप बसु रिद्धि । श्री जिनवर की परम प्रसिद्धि ||१७| अब सुनि पृथक पृथक गुण तास होइ सफल मिष्यामत नास ॥ बुद्धि प्रौषधी बल तप चार रस विक्रिय क्षेत्र किया सार ||१८|| बद्धि प्रौषधी बल ऋद्धि
वामें प्रथम बुद्धि ही रिद्धि । श्रटारह नामें लहों प्रसिद्ध ॥ केवल अवधि जानियो दोय । मनपरजय तीजी मलोय ॥१६॥
बीज चतुर्थम पंचम गोष्ठ । षष्टम संभिन्न श्रोष्टता सोष्ट ॥ सप्तम पादार सारिणी बुद्धि । दूरस परसन अष्टम शुद्ध ||२०||