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कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज हा सुत संगर के विर्ष, किन हु न राख्यो तोहि । हा वरमातम धर्मसुत, क्यों न रख्यो तुम सोहि ॥२०६।। भीम मूर्ति हा भीम भट, हा हा अर्जुन राई । सुम तेषा का है, मोगा सुन साइ ।।२१०॥ तब जुधिस्थिर राइ न, करी प्रतिग्या धोर । सत्रहमें दिन भाज ते, हति ही सल्यहि ठौर ।।२११।। जो नहिं मारे तो तर्क, अंपा पातहिं मंडि । सब के निरखत मांन तचि, जरौं प्रगनि के कुड ॥२१२।। खंडक सत्रु सिखंडियों, बोल्यो बचन प्रचंड । नवमें बासर प्राज ते, करौ भीष्म के खं ।।२१३॥ यही प्रतिज्ञा हम करी, पूरन व जो नाहि । अपने तन को होम ती, करौ हुतासन मांहि ।।२१४।। अष्टद्युम्न फुनि यों कही, मो निहचं यह ठीक । सेनांनी को मारि हौं, माम मांहि पलीक ।।२१।।
सोरठा उदय भयो दिन साज, तौलौं दिनकर हरत तम । भनु देसन के काज, कारज भारत भटन कौं ।। २१६।। लखे महत हथियार, मार मार करतें सुनें । भयो सूर भव भार, तात कंपत ऊदयो ।।२१७।।
अखिल भये भौर तब जोधा दोऊ और के। महा जुद्ध भारंभत पाये छोरि के ।। तीछन शस्त्र सौं देह परस्पर संच हो । हस्ति हस्ति ौ रथ रथ य हय प्रचंड हो ।। २१८।। पत्ति पत्ति के सनमुख धावत जुद्ध को । मारि मारि मुख मास्त्रि बढावत ऋद्ध कौं ।।