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पाण्डवपुराण
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लगे पार्थ दुरजोपन दोउ जुद्ध कौं । घरप्त ऋद्ध मद इज बढाइ बिरुद्ध कौ ।।२०१॥ खडग खाय ते भारत कुत सुत ही । मान बान ते छेदत धनुष घुनंत ही ।। दंड दंड सौं संडत प्रप्ति अल बंड ही। घोर वीर संग्राम मंड्यो परचंड ही ।।२०२।। नुप विराट के नंदन तौलौं रण विषै । करत जुद्ध परि ऋद्ध पितामह सनमुखें ।। चाप छत्र धृज छेटी भीपम के तहाँ ! हत्त्यो घात फुनि तास उरस्थल में महा ।।२०३।। सिथल होइ के गिरन लम्मो तन भार हीं। कौरव सेन भयो तब हा हा कार हो ।। भयी दिव्य धुनि तहि सुरन की गगन तैं। प्रही भीष्म मत होउ सुकाइर लरन ते 11२०४।। प्रही बीर रन माहि सजि के धीरता । तोहि मारने बैरी तजि के भीरुता ।। यही बात सुनि फुनि पिर प्रायुध होइ की । सावधान ह रथ पं धनु संजोइ के ।।२०५।। सांधि लछि सर छाडि सुमार्यो स्वेत ही । साद घाव हद सो जु पर्यो रन खेत ही ॥ सुमरि पंच पद इष्ट गयो सुरलोक सौ। लहत सर्व सुख सुमिरत जिन तजि सोक सौ ॥२०६।।
दोहरा तोलौं भई निसीथिनी, मरत लखे जोधार । मानौं रण को बर्जती, आई कारणा सार ।। २०७।। सूर छिप हरि प्रादि सब, प्रामे निज निज थान । सुत को बघ वैराट सुनि, रुदन भयो दुल खानि ।।२०।।