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वचन-कोश
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माग दई तब कन्यां बांहि । कर गहि प्रगर ले गए ताहि ।। साके मृत अष्टादश भए । गर्ग प्रादि सुतमें वरनए ।।३४।। तिनिको बंश बघौ घसराल । ते सब कहिये अगरवाल ।। उनि के सब अष्टादश गोत । भए रिषि सुत नाम के उदोत 1॥३५ तिनिके सुन्यों एक प्रायो भुनी ! पुरु के निकट वह उतरनो गुनी ॥ भिक्षुक जांनि सकल जन नाए । भोजन हेत धिन यवत भए ॥३६।। तव मुनि कहं सुनी धरि प्रीश। हन तारमीन कोरीति ।। जो कोऊ श्रावक घमं कराइ । मिश्यामत जाकौं न सुहाइ ।।३७।। सो पपने घरि आदर करें । ले करि जाय दशा तब घरै ।।
और नेह नहीं प्राहार । यह हम रीति सुनी निर्धार ॥३८।। तब पुर जन जिय विसभय भई । यह करा। मुनि यायो दई ।। जो न देइ हम जाहिं पाहार । तो प्रावै हमरे पन हार ।।६।। कछुक लांग तब जैनी भए । श्री मुनिराज चरन प्राट् नए || धर्म समझि लेहि गुरु उपदेश । तब गुरु जुः क्रियो नगर प्रवेश ॥४०॥ दयौ भली विधि मुनि थाहार । ग्रानंद उछव करें अपार ।। यह चिन्नि प्रतिनीधे विरूपात । श्री मुनी अगरवाल सौ सात ।।४१॥ तब जिन भवन रच्या बहु चंग । रची काष्ट प्रतिमा मन रंग ।। पूजा पाठ बनाए और । गुरु विरोधि हित कीनि दोर ॥४२।। चली बात चलि पाई तहां । उमा स्वामि भट्टारक जहाँ । मुनि जिम चिन्ता भई अगाध । करी काठ की नई उपाधि ।।४३६५ भली भई परमत किये जैन । सुनत बात उपज्यो उर चैन ।। चलि पाये तहां श्री मुनिराइ । नंदीपुर बर जैनसमाइ ॥४४॥ प्रावत सुनी श्री निज गुफ भले । प्राय हों न प्राचारज चले ॥ जीने सकल नबर जन संग । वाजत अनि बाजे मन रंग ।।४।। निरिखि मुनी तब पकरे पाह । ग्रानंद बढयो म अंग समाइ १३ तब मुनिराज दई प्रासीस । लयो उटाइ चरन ते सीस ॥४६॥ तब पुरजन सब बंदन करें । उमास्वामि घमं वृद्धि उच्चरें ।। भगोनी करि लाए गांम । राजतु हैं जहाँ जिनवर धाम ।।४।।