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वचनकोश
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श्रुत मावरमपी कर्म प्रधान । ताफे छय उपशम तें जानि ।। अन्तर महू रत विष समयं । द्वादशांग बानी को अर्थ ।।२।। तिनके मतमें करें विलास । यह कहिये मन बल परकास ॥ द्वादशांग वानी अध्ययन । करत महासुख उपज चैन ।।३।। तिनको कष्ट न होइ लगार । मंग वाक्य बल के अनुसार ।। बानी पठत देह बम नाहीं । पढा मंत्र महरत माहीं ।।४॥ काय प्रखंडित बल की करें। प्रग काम बल यह गुण धरै ॥ प्रतुल प्रखंड बली बलवीर । सौहै जिनको सुभग शरीर ||५|
बोहरा यह बल रिद्धि गंभीर गुरण, प्रगट बस्तांनी देव ! उदय होइ तप जोग तें, यह जिनयानी भेव ॥६॥
अति बल ऋधि वर्णन
सप ऋद्धि वर्णन
चौपई सुनो भव्य प्रब तप ऋद्धि सार । तामें सात अंग निरधार ।। घोर महत औ उग्र बनंत । दीप्त गुण घोर भनत ॥१॥ सागसम ब्रह्मा घोर बलांन । प्रअ तिनके गुण सुनी सुजान ।। महानसान भूति पनि होइ । जोग घर पचि सौं मुनि जोह ।।२।। सबै उपसर्ग धुरघर घोर । याही सें कहिये तप पोर ।। सिंधनि क्रीडित प्रादि उपवास । तिनको करैं सदा अभ्यास ॥३॥ मौन अन्तराय सौ यह पाल । इह कहिये ताप मतिरमाल || बेद काय बसु द्वादश मास । इत्यादिक जे प्रो उपवास ॥४॥ करें निर्वाह योग प्रारूढ । यह तप उम्र तनो गुण मूत ।। करत उपवास घोर बहु भांति । पटै नही देही की कान्ति ॥५॥