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कविवर बुलाखीचन्द
देव गरुनि को पूजे सदा, निसि भोजन यांक नही कदा ।
शुभ ध्यानी लेश्या कापोत, बंध मनुष्य प्रामु को होत ॥५०/१०८॥ इस प्रकार कवि ने दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक वसान भगवान ऋषभदेव के ज्ञान कल्याणक के अन्तर्गत किया है । निर्वाण कल्याणक वर्णन में कवि ने दान की उपयोगिता पर विस्तृत प्रकाश डाला है । दान भी पात्र कुपात्र देख कर दिया जाना चाहिये । कुपात्र को दिया हुआ दान निष्फल जाता है । कवि के अनुसार साधु को दिया हुमा भोजन (माहार) उत्तम दान है । साधरी जनों को दिया हया दान मध्यम दाना है हिंसक जनों को दिया हुआ दान तो एक दम व्यर्थ है । जिस प्रकार किसान भूमि की उपज देख कर उसमें बीज डालता है उसी प्रकार दान देते समय पात्र कुपात्र का ध्यान रखा जाना चाहिौ ।
जो किसान खेती के हेत, कल्लर भूमि रही पित देत ।
दान जु पात्र तर्ने अनुसार, पात्र समान फरन है बहुसार ।। ७८ ॥ ११३ सम्राट भरत ने ब्राह्मण वर्ग की स्थापना की थी । कवि ने उनमें पाये जाने वाले ६ प्रकार के गुणों का वर्णन किया है । उनमें से पाठयां एवं नयां गुण निम्न प्रकार है
अल्पाहारी चित संतोषी, दुष्ट वचन सुनि नहि जिय रोष । प्राशीर्वाद परायन जानि, अष्टम गुण द्विज को यह जांनि ॥१३॥ शुभोपयोगी विद्यावान, प्रातम अनुभव करण प्रधान ।
परम ब्रह्म को ध्यान कराइ, ए ब्राह्मण के नव गुण कहिवाई ।।१४:११४ जब तक भरत रहे तब तक के इन गुणों से युक्त रहे लेकिन बाद में उनमें भी शिथिलता प्राती गयी ।
पत्ति के चौदह रत्न कषि ने चौदह प्रकार के रस्नों के नाम गिनाये हैं । जो निम्न प्रकार हैं
सेनापति अरु स्थपित बखान, हमंपती अरु गज अश्व प्रधान । नारी चर्म चक्र काकिनी, छत्र परोहित मनि तहां गनी ॥३॥