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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज है । जैन दर्शन कर्म प्रधान दर्शन है । जैसा यह जीव कम करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, भायु, नाम, गोत्र मोर अन्तराय के भेद से आठ प्रकार के एवं प्रकृतियों सहित १४ भेद है । इसके पश्चात् प्रकृतियों के गुणों का विस्तृत वर्णन मिलता है जिसमें कवि में अगाघ सैद्धान्तिक ज्ञान होने का प्रमाण मिलता है । प्रथला दर्शनावरण प्रकृति का लक्षण देखिये
प्राणी जहाँ नींद बसि भाइ, महा चंचल हाथरू पाइ । नेत्र गान सब नैक्रिय होइ, मानों भार सिर धोइ ।।७।। करें नींद जब महि विशेष, तब द्रग रेत भरे से देखि ।
मुद्रित मुकुलित प्रार्थे प्राध, प्रचला दरशनावरण अगाध ॥४/२०॥ प्रकृति गुणों के विस्तृत वर्णन के पश्चात् कवि ने चौदह गुणस्थानों की प्रकृति भेदों का वर्णन किया है।
सात सत्वों का स्वरूप
सात तत्वों में जीव, मजीव, प्रास्त्रव, बंध संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्व गिने जाते हैं । जीय, अजीव सस्य का तो पहिले विस्तृत वर्णन किया जा चुका है इसलिये कवि ने प्रास्त्रव तत्व का विभिल दृष्टियों से व्याख्या की हैं। हास्य प्रकृति माश्रव के निम्न क्रियानों के कारण होता है
धर्मी जन अरु दीन निहार, सारी दे तहां से गंवार । मदन हास्य अरु करै प्रलाप, धर्म जज लखि लोचनराय ॥२५॥ इन से हास्य प्रकृति जुबंधाइ, कही प्रगट श्री गौतमराय ।
बैठे देखे नर तिय संग, मिथ्याचार लगावे नंग ।।२६/१.७।। मनुष्य जीवन कब किसे मिलता है यह एक विचारणीय प्रश्न है जिसका कवि ने निम्न प्रकार समाधान दिया है -
स्वल्पारंभ परिग्रह जोन, भद्र प्रकृतियो चारि मानि । करुणा धनी प्रार्य परिणाम, धुलि रेख सम दीसे ताम ||४६॥ पर दोषी न कुकर्म हि करें, मधुर वचन मुख ते उचरें । कानन सून्यो होइ जो दोष, भूलनि कबहू भाषे दोष ।।४।।