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कविवर जुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
तुम सौं कौरव यों कहस, सुनीये नाथ विचार | अब मैं जिसने ख तुमहि, दमे महा भमकार ।।१६१ ।। तिन को रम मैं सुमरि के, क्यों नहि श्रावत दोरि | जीवत मुर्खों तुमहिं करी नीर
न
न समर्थं ।
गेहू ।
जाइ कही सब
एह ॥ १६४ ॥
यह सुन बोले पांडु सुत, उत्तर दें तेरी प्रभु उदित भयो, जमपुर जानें श्रर्थ ।।१६३ ।। जरासंध के साथ हो, पठवेंगे जम सुनि के दूत सुकौरवहि, दोलों रवि मन उदयगिरि, श्रायो देखन हेत । न लगे कुरु खेस ।। १६५ । । मार मार करि ते उठे धनु सर कर सि लेत । सोबत जागि परे मन, सृष्टि हतन को प्रेत ॥ १६६ ॥
सुन
सोरठा
सुरनि में सिरमौर, रथ बैठे परम नृपति । महासरन की ठौर, प्रश्न करत सारथि ते १६९ ॥
कहाँ सुल तुम द, केतु श्रभ्य लखिन सहित । जे नृप नांम विपद्य,
सिन को वर्णन कीजिये ।। १६८ ।।
दोहरा
ऐसी सुनि के सारथी भिन्न भिन्न लचन सहित रथ सोभित जिस स्याम हय, सुर सरिता सुत भरिन को सौस सप्स साजित सुरभ, रण में सुभटन की थुजा,
निरखत अरि की सैन 1 भाषत उत्तर वैन १६६ ।। धुजा बिराजत भाल । हय भयो मनु काल ॥ १७० ॥ कलस केतु यह दोसा ।
धनुर्वेद को भौन ।। १७१ ।।