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________________ २३४ कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज प्रसन विविधि विजन सहित, तन पोषित थिर जानि । दुरजन जन की प्रीति ज्यों है दर्गाी निदानि ।।१२।। दिये न दान सुपत्त को किये न व्रत उरि धारि । भायी मूठो बाषि के जासी हाथ पसारि ॥ १३ ॥ जो नर जीवन जांनिया श्रर जानि न रख्या कौन । विद्ध समं मुखि लालसो, नरभव पांणी दीन || १४ || सज्जन फुनि लघु पद लहै, दुर्जन के संग साथि यसन को मदिरा कहै. क्षीर कुलालनि हामि ।। १५ ।। गज पतंग मृग मीन अलि भये भ्रष्य बसि नास । जाऊं पांच बसि नहीं, ताकी फंसी प्रा ।। १६ ।। लाभ पलाभादिक विष, सोबत जागत मांहि । सुद्धातम अनुभौ सदा, तजे सुधीजन नांहि ॥१७॥ कोटि जनम लौं तप तर्फे, मन बच काय समेत सुद्धातम धनुभो बिना, क्यों पार्व सिब खेत ||१८|| बजी श्रापदा संपदा, पूरव करम समान । देखि अधिक पर को विभो, काहे कुढत प्रज्ञान ॥१६॥ जब लौं बिभी तलाव जल, जुस्यो पुनि संजोग ते, दस विधि बिसी बिलास पुनि घटत घटि जाइगो, गिनत मुंढ थिर तास ॥२०॥ घटेन खरक्त बीर । तब लौं पूरब पुन्ति की, मिर्ट नहीं तलसीर ॥२१॥ जोन भोग हिस्या करम करत न बंधत जीव । रागादिक संजोग ते, वरन्यो बंध सदीव ||२२|| लागि लागि मांगत फिरत, भुक्षत सोहि कहां सौ देहिगे राम दोष जार्क नहीं, तासु देव की सेव सो, दीन कुदेव । मूढ करत तू सेव || २३ || निसप्रंही निरदंद | कर्ट करम के फंद ।। २४ ।। ठौर ठौर सोबत फिरत, काहे तेरे ही रूट में बसे, सदा च प्रवेव । निरंजन देव ॥२५॥
SR No.090254
Book TitleKavivar Bulakhichand Bulakidas Evan Hemraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1983
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
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