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उपदेश दोहा शतक
(हेमराज गोबीका) विरचित
दिव्य हिष्टि परफासि जिहि जान्यो जगत बसेस । निसनेही निरदुंद निति, बदो त्रिविषि गनेस || १ || कुपन उयरि थापत सुपथ, निसप्रेही निरगंथ । से गुरु दिनकर सरिस, प्रगट करत सिदर्पण ॥१॥ गनप्रति ह्रिदय विलासिनी, पार न लहै सुरेश सारद पत्र नमि के कहो, दोहा हितोपदेश ||३|| मातम सरिता सलिल जह, संजम सोल बखानितो करहि मंजन सुधी पहुंचे पद निरबाणि ॥४॥ सिव साधन को जानिये, अनुभो वही इलाज |
मूढ सलिल मंजन करत, सरत न एको काज || ५|| ज्यौं इन्द्री त्यों मन चलें, तो सब क्रिया कथि तात ईन्द्री दमन को, मन मरकट करि हथि || ६ || तंत्र मंत मणि मोहरा करें उपाय श्रनेक | होणहार कबहु न मिटे घडो महूरत एक ॥७॥ पढ़ें ग्रंथ ईद्रो दवे, करे जु बरत विधान । घापा पर समझे नही, क्यो पावे निरबाण ||८||
तज्यो न परिगह सौ ममत, मटयोन वि विलास 1 मरे मूढ सिर मुडि कैं, क्यो छाड्यो घर बास ॥६॥ पहली मनसा हाथि करि, पाछे और इलाज । काज सिद्धि की बाधीए, पानी पहली पान ||१०|| ब्रह्मचर्य पाल्यो चहै, घट्ट न तिय स्योम | एक म्यांन मैं द्वं खरग कही समाव केम ॥। ११ ॥