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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज रूप में रवाना लिखी है। उसने अपनी रचना में अपने दो मित्रों के नामों के अतिरिक्त अपने पूर्ववर्ती अथवा समकलीन कवियों का नामोल्लेख तक नहीं किया। इससे वह स्पष्ट लगता है कि कवि भन्म अवियों नाम में नहीं थे हाथा स्वयं ही मपनी ही धुन में काव्य रचना किया करते थे।
__ बधनकोश निसी सर्ग अथवा प्रध्याय में विभक्त नहीं है लेकिन जब किसी का वर्णन समाप्त होता है तो उस विषय की समाप्ति लिख दी गयी है । यही उसकी विभाजन रेखा है। वैसे कवि ने तो विषय का इस प्रकार प्रतिपादन किया है कि उससे बिना सर्य प्रथवा अध्याय के भी काम चल जाता है। बचनकोश का अध्ययन
वचनकोश का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया गया है। जिसमें पंचपरमेष्ठी रूपी समयसार के चरणों की वन्दना की गयी है । पंच परमेष्टियों में सिद्ध परमेष्ठी को देव शब्द से अभिहित किया गया है तथा प्ररहन्त, प्राचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधु को गुरु के रूप में स्मरण किया गया है । सिद्ध परमेष्ठी पंच मान के धारी हैं। वे घर्ष, गंध एवं शरीर से रहित हैं। भविनाशी है, विकार रहित हैं तथा सघु गुरण रहित हैं। महंत परमेष्टी अनन्त गुणो के धारक हैं, परम गुरु है तथा तीनों लोकों के इन्द्रों द्वारा पूजित है। इसी तरह प्राचार्य, उपाध्याय एवं साषु परमेष्टी का गुणानवाद किया है ऋषभदेव की स्तुति
पंचपरमेष्टी को नमन करने के पश्चात् कवि ने २४ तीर्य करों की स्तुति की है। प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव थे जिनके नाभिराय एवं मरुदेवी पिता एवं माता थे । उनका शरीर पोचसी योजना था। उनका देह स्वर्ण के समान पा 1 वे इश्वाकु वंश में उत्पन्न हुये थे । पत्र कृष्णा नवमी जिनकी जन्म तिथि है
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समय
समयसार के पय नम, एक देव गुरु च्यारि । परमेष्टि सिनिस्यों कहें, पंचमान गुरण पार ॥ १॥ वरण गंध काया महीं, अविनाशी अविकार। गुरु लघु गुण विनु देव पह, नमों सिद्ध वतार ॥ २ ।। भी जिमराज मनात गुण, बगत परम गुरु एव । प्रब कर मषि लोक के, ना करे शत सेव ।। ३ ।।
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