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कवियर बुलाखीचन्द
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ऋषभदेव को तीर्थंकर के रूप में जन्म लेने के लिये ११ भवों तक साधना करनी पड़ी थी । चैत्र सुदी को नवमी को उन्होंने गृह त्याग किया था। साघु अवस्था में सर्व प्रथम उन्हें एक वर्ष तक निराहार रहना पड़ा और फिर हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस के यहां सर्व प्रथम इक्षु रस का आहार लिया था । वट वृक्ष के नीचे उन्होंने केश लोंच किया तथा फागुण बुदी रस के दिन प्रातः उन्हें केवल हो गया । उनका समवसरण १२] योजन विस्तार वाला था जिसकी रचना इन्हों ने की थी । ऋषभदेव के ८४ गर थे । अन्त में माघ सुदी १४ को पद्मासन से उन्हें निर्धारण की प्राप्ति हुई और सदा सदा के लिये जन्म मरण के बन्धन से मुक्ति प्राप्त की। कवि ने अन्त में यह भी कहा है कि जो व्यक्ति इस दिन का उपवास करता है उसे पुनः मनुष्य भव की प्राप्ति होकर अन्त में निर्धारण पद प्राप्त हो सकता है । क्रमदेव की पूरी स्तुति १० पचों में समाप्त होती है ।
२ अजित नाथ की स्तुति
अजितनाथ दूसरे तीर्थंकर थे जो ऋषभदेव के लाखों वर्ष पश्चात् हुए थे । अयोध्या उनका जन्म स्थान था। राजा जितरिपु उनके पिता एवं विजया उनकी माता थी । हाथी उनका लोचन था। वे भी इश्वाकु वंश में पैदा हुये थे | मात्र सुदी नवमी उनका जन्म दिन था । चैत्र शुक्ला पंचमी को उन्होंने गृह स्थान कर साधु दीक्षा ली। तीन दिन निराहार रहने के पश्चात् ब्रह्मदत्त के दुग्ध का उनका आहार हुआ। जम्बु वृक्ष के नीचे उन्होंने किया । और अन्त में मात्र शुक्ता दवानी के दिन संध्या समय । उन्होंने सम्मेदशिखर पर खड़े रहकर तपः साधना की पर्वत से पोष सुदी एकम के दिन उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया । 1
राजा के यहाँ गाय तप करना प्रारम्भ
उन्हें कंवल्य प्राप्त
और अन्त में उसी
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सागर लाख करोरि पचास, वीते भक्तिनाथ परगास | जितरिपु राजा विजया मात, राज लांछन हाटक समगात || १ || पुरी अजोध्या जनम कल्याण, तीनि भवांतर ते भयो जान । धनक चारिसे साठे काय, लाख बहतर पूरव श्रायु || २ || वंश इषा नवे गिनि घार, तीन दिवस मंतर माहार | धेनु खीर पीयो मुनि दे, ब्रह्मदत्त तुप वनिता गेह ||३||
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