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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
बोहरा मसरण वस्तु जु परिणमन, सरण सहाई न कोइ। मपनी अपनी सक्ति के, सबै विलासी जोइ ॥१२॥
प्रोपई मरण समें कासगी ।म के गानगी । पुष्पनाल कुम्हलाई देव । करितु फिर सबही के सेव ।।१३॥ राखि सके नहीं कोक साहिं । सरणक नोहें वपु माहिं ।। ताके सरगत के मुनिराक । इह प्रसरण भावना कहावं ॥१॥ परहंतो मसलीमत्वो तारण लोया। इदीह संसारे ममगई। देसाई कुसुलाइ, जे तरंति तेम मालमाई ॥१५॥
दोहा संसार रूप कोक नहीं, भेद भाव भरयान ।। स्यांन दृष्टि करि देखिये, सब मिय सिद्ध समान ॥१६॥
चौपई परग्रहण जहां प्रीति बहु होइ । भांति भाति के दुख सुख जोइ ।। भारौं गति में हिंस्तु फिरें । स्वांग लाख चौरासी घरै ।।१७॥ को स्वछन्द वरते त्रय काल । ता स्वभाव दीजें हग चाल । गरि द सब पुदमल रीति । तब संसार मावना प्रीति ॥१८॥
वोहा एक दिसा मानिजु देखि के, मापा लेहु पिछान ।। नाना रूप विकसपना, सोतो परकी जोनि । १६॥ गोलत डोलत सोक्सा, थिर माने जग भांति ।। पाप स्वभाव पाप मुनि, जिस सित भनु पनाति ॥२०॥
चौपई फरि जन्म घरची मरहे कौंन । दिन में बिनसि जाइ ज्यों लौन ।। स्वर्ग नरक दुख सुख को सहें । मुक्ति सिसा पर जाइ जु रहे ॥२१॥