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कविवर बलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
बानन सौ हों छिन्न ह्रमर्यो सरन तुम पाइ । तुम प्रसाद या भव विौं, लहि हो फल सुखदाइ ।।२७३॥ यो सुनि करि बोले मुनी, सुनौह भव्य गांगेय । सिद्धन को चित सुमिरिक नमन करी बहु मेथ ।। २७४।।
पावडी छंद
सुभ चारि प्रारराधन चित पाराधि । घर धीरय वीर्य तन वचन साधि ।। कर तस्त्र प्ररथ श्रद्धान रूप । यह दर्श माराधन लहि अनूप ।। २७५॥ नव पदार्थ जहाँ ज्ञान होइ । नय प्रमान निज उक्ति जोइ ।। तहां ज्ञान प्राराधन होई सछ । फनि निह प्रातम ग्यान तछ ।।२७६।। चरीए मुचरण जहां विधि विचार । तेरह प्रकार प्रहार टार शार ।। खलु प्रवृत्त चिद्रूप मद्धि 1
चारित्र माराधन एहु विधि ॥२७७।। द्वादश सरूप विवहार बुद्ध, चिद्रूप रूप निहवय विशुद्ध । सप नाग अराधन एम राइ, चित धारि पाराधी सुगतिदाई ।। २७८।। तपीए जुदेह तप जुगम भौति, सुभ संजम मम गुन मूल पोति । अनशन प्रमुख तप बाह्य जानि, रागादि त्याग मंतर सुमांनि ।।२७६।। विधि अराधन इम प्रकाशि, मुनि चारन कीनी गति प्राकासि । गुणवंत संत गांगेय सार, चारी सृ अराधन हृदय धारि ।।२८०॥ त्यागौ ममत्त माहार देह, छिम भाव सबन सौं धारि एह । पद पंच इन्ट चित जपत धीर, सुभ ध्यान धरत तजि असु शरीर ।।२८॥ उपन्धी सुजाइ दिवि ब्रह्म मद्धि, वर ब्रह्मदेव लहि परम रिद्धि । मनति सुख भुगतै सुभोग, सुख होत सहज जिन धर्म जोग ।।२८२।।