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पाण्डवपुराण
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सर्वया ३१ जीवा जीव प्रादि तत्व सम्यक निरूप अर्थ
देह भव भोगन मांहि वर्ण निरवेद कौं । दान पूजा सील तप देस विसतार करि
बंध मोख हेतु फल भिन्न भने भेद कौ । स्थात प्रस्ति मादि नय सात जे विख्यात
मरु भास्न प्रान दया हित हिंसा के उच्छंद को। अंगी सरवंग संग त्यागै होइ सिद्ध अंग
सत्य कथा कथा एई नास भव खेद कौं ॥८६।।
रोहा
रिषि वशिष्ट सुक व्यास भरु, दीपायन इन मावि । तिन करिभाषित कथन जो, सो विकथा बकवादि | द्रव्य क्षेत्र रु तीर्थ मृभ. कान भास फल भोर : प्रकृत सप्त ए अंग हैं, मुख्य कथा की ठौर ।।९ ऐसी विधि यह बरन के, कहियत है अब सोछ । जो पुरान पावन पुरुष, भारत नामा जोइ ॥२॥ महावीर भगवान का जीवन
चौपाई जंबूद्वीप अनूपम लसे, पंडित जन बह जाम बस । भरत खेत प्रति सोभित मही, प्रारम खंड सुमंसिप्त यही ॥३॥ देस विदेह विराज जहां, सुर सम नर बहु उपजै तहाँ । सिद्धारथ नामा तहाँ भूप, नाथ वंस अवतार अनूप ||६|| सरच अयं की जा सिद्धि, बरत नौ निधि पाठौ रिधि । त्रिसला रानी ताके गेह. रूपसील बहु सुन्दर देह ।।१५।। चेटक भूधर गिरि सम जान, तहाँ उपजी सुरसरित समान । सौ सिद्धारथ सागर मिली, प्रीति कारिनी गुन सौं रली ।।६।। प्रथमाहि जाके तट छह मास, सेव करी सुर कन्या तास । रतन वृष्टि जाकै घर भई, पनद देव ने पापुन ठई ॥६॥