________________
कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
रैन पाछिली सोवत सही, सोलह सुपन देखे नहीं । गज गो हरि श्री माला दोइ, चंद सूर झष जुग प्रय लोह ।।६८! फूभ जुगम सरवर सुभ जानि, सागर प्रक सिंघासन मानि । व्योम जान ग्रह पृथिवी तना, मणि रासागनि घूमें बिना IIREL ए सुपने सुभ देखत भई, जागि उठी तब प्रमु पै गई । हाथ जोरि फल पूछयौ जब, उत्तर सब नृप भाल्यो तवं ॥१०॥ पुष्पोत्तर ते रह के देव, ताक गर्भजु तिष्ठयो एव । सुदि प्रसाळ छठि गज नछत्र, कीनी गर्म कल्यानक तत्र ॥१०१।। बत त्रयोदसिसुदि के दिना, जनम कल्यानक सुरपति ठना । वर्तमान यह प्रगटयो नाम, न्याप्त जाकै जग मैं धाम ।।१०२!! तीस बरष के भये कुमार, सुभ तरुनापी घारौ सार । किंचित कारन तब ही पाय, चित वराग धर्यो प्रषिकाय ॥१३॥ सब कुटंग ** पो नाही, पो. हिनश्वर सही। लोकातिक सुर तो लों नये, थुति करि के सुलोंकहिं गये ।।१०४॥ तब सुरपति सुरगन सह भाइ, जिन पद वंदे मस्तक नाइ । पुनि न्हयाय भूषन पहिराय, मुरगन भगति करी अधिकाय ॥१०५।। चंदप्रभा सिरिका सु भनूप. चित्र विचित्रित नाना रूप । साप पढि पुर बाहिर गये, परिगह त्यागि दिगंबर भये ।।१०६|| हस्तरिक्ष मृगसिर यदि दसैं, साझ समैं जिन दीक्षा लस । पष्टम थाप्पी मन को सोध, मनपर्यय तब उपज्यो बोध ॥१०७॥ पारन पाइ फिरे भू माहि, मौंन रहे जिन मोले नाहि । बारह बरष बितीते सर्व, जूभक ग्राम पहुँचे तबै ॥१०८।। तहाँ रजूकूला सरिता तीर, साल वृछ तल वैठे धीर । श्रेणी क्षपक चढ़े जिनराय, घाति करम घासे प्रधिकाय ।।१०६।। तन ही केवल उपज्योंतास, सकल लोक प्रति भासत जास । सोभित समोवसरन जिन राय, गिरि वैभार पहुंचे प्राय ।।११०॥ तरु पसोक पुनि दिव्य वखान, छत्र सिंघासन चामर जान । पुहप वृष्टि भामंडल सज, घन सम पोर सुदुंदुभि बम ॥११॥ सुरपति प्रापुन ल्याये जिस, गौतमादि ते गनधर लसै । मगध देस तहां सोभावंत, निवस सुरसम नर जहाँ संत ।।११२।।