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उपदश दोहा शतक
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देव ग्रंथ गुरु मंत्र मुनि, तीरथ परत विधान । जाकी जैसी भावना, तैसी सिद्धि निदान ।।५४।। मिलि के कनक कुधातु सौं, भयो बहुत विधि बान । त्यो पुदगल संजोग सौं, जीव भेद परबान ॥१५॥ स्याम रंग से स्पामत, मा पम्नान नही। त्यो चेतन जब जोग से. जाइता लहै न कोइ ।।५६॥ खीर नीर ज्यों मिलि रहे.' ज्यौं कंचन पाखान । त्यों अनादि संजोग भनि, 'पुदगल जीव प्रवान ।।१७।। सिव सुख कारनि करत सह, अप तप बरत बिधान ! कर्म निर्जरा करन को, लोहं सबद प्रमान ॥५॥ तज मर्ष संपप्ति लख, परखं विर्ष मजांन । ज्यों गजमोती तजि गहै, गुंजा भील निदाम ॥५६।। दुर्जन संगति संपदा, देत न सुख दुख मूल | कर प्रधिक उर जगत मैं, ज्यों प्रकाल के फल 1.!! सज्जन लहे न सोभ की, दुर्जन संगति सेत ।
ज्यों कुंजर दर्पन विर्ष, हीन दिखाई देत ॥६॥ सोरठा- इहै जलधि संसार, पठि मुनि ध्यान जिहान पर ।
तत छिन पंहुचे पार, प्रपल पवन तप सपत ह ॥६२।।
दोहा
सज्जन संगति दुर्जन के दोष भयोष लहोत । ज्यों रजनी ससि संग तं, सबै स्यामत खोत ।।१४। जाहि जगत त्यागी कहत, ता सम किरपन कौन । सांची पूरब जनम को, मरत करत हू गौन ॥६॥ खाइ न खरचै लाछि कौं, कहै कृपन जग जांहि । बड़ो पानि वह मरस ही, छोरि चल्यो सब ताहि ॥६५॥ सिव साध परिगह सहित, विषय करत वैराग। उरम सेइ पाहत प्रमी, उत्तमता मुखि काम ॥६क्षा