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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
कापत देखें सलिल मैं, गड्यौं थंभ जल तीर ! त्यो परजाप बिनास ते, मानत दृष्य प्रपोर ।।४।। सौण समूरत साथि सब, करत काज संसार । मूढन समुझ भेव यह, सुधरं सुधरन हार ॥४१॥ दुरजन नर मठ प्रगनि को, जानह एक सुझाव 1 जाही गहर बासि है, ताही देत अगद। ४२॥ करत प्रगट दुरजन सदा, दोष करत उपगार । मधुर सचिक्करण पोष त, करत मार ज्यो मार ।,४३॥ लागि विर्ष सुख के विष, लख न प्रातम रूप । दह कहबति साची करी, पर्यो दीप लें कूए ||४|| सुजस बड़ाई कारण. तजे मोक्ष सुख कोइ । लोह कौल के न को, ढाहत देवल सोइ ।।४५।। तब लो विर्ष सुहावनौं, लागत चेतन तोहि । जब लौ सुमति बयू कहे, नही पिलानत मोहि ।।४६।। ज्यौं धंतर मांतो लसं, मांटी कनक समान । त्यों सुख मानत विषय सौं, संगति कुमति मग्यान [1४७।। पाप हरन जिन पाप करि, करुना कर न बिनास । किते न लागे तीर तरि, तजि तजि प्रासापास ।।४।। हर हर सुद्धरत हरि, कर्म कम से कम्मं । सेय चरन सिव सुख करन, इहो यहाँ जागि धर्म ।।४६॥ विर्ष प्रास पासा बंध्यो, प्रास पास जग जीव । ताही विर्ष बिलास को, उद्यम करत सदीव ।।५।। करत पुन्य सौ हेत जो, तजि के पापारंभ सो न जीति है मोह कौं, गड्यौ जगत रपयंभ ।।५।। षट बिधि त्रस थावर बसै, स्वर्ग मध्य पाताल । सबही जीव प्रनादि के, परे मोह गल जाल ॥१२॥ उपजे द्रव्य सुकष्ट ते, स्वरबत कष्ट बखानि | काट कष्ट करि राखिम, द्रव्य कम्ट की जानि । ५३५