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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
पे । उनमें से दरिद्री कोई नहीं था । जैन परिवार पच्छी संख्या में ये जो जप, तप पूजा एवं दान मारों ही क्रियायें करने वाले थे। इन्ही जनों में साहु अमरसी ये यो वैश्य वंश में उत्पन्न हुए थे जिसे प्रथम तीर्थकर पुरुदेव ने स्थापित किया था । वे अग्रवाल थे गोयल का गोत्र था । तया कसावर' उनका न्यौंक था। अमरसो धर्मात्मा थे तथा जिनके घर में लक्ष्मी का वास था । तत्कालीन राजा महाराजा भी साह अमरसी का सम्मान करते थे । विशाल वैभव सम्पन्न होते हुए भी जिनेन्द्र भगवान के वे दृढ़ भक्त थे ।
साह अमरको के पुत्र का नाम पेमचन्द था। वह सुपुत्र था तथा अनेक गुणों की खान था। उसका जीवन पूर्णत: धार्मिक था । पेमचन्च के पुत्र श्रवनदास थे । भवनदास अपने पूर्वजों का नगर बयाना छोड़कर भागरा प्राकर रहने लगे। अपनी जन्मभूमि छोड़ने का मुख्य कारण प्राजीविका उपाजन था इसलिए बुलाकीदास मे "अन्नपान संयोग है" निसागरबसने के साथ ही उन्होंने यहां अपना मकान ( सदन ) भी बना लिया था। श्रवमनास बुद्धिमान थे तथा भगवान जिनेन्द्र देव के भक्त थे । वे पूर्णतः रात्य भाषी थे इसलिए सभी ऋद्धियां उनके घर में व्याप्त थी । उनकी पत्नि जिभका नाम प्रनन्दी या प्रत्याधिक मुन्दर तो थी ही साथ में शील की खान ची। उन दोनों के पुत्र का नाम मरवलाल था जो गुगों का मानों समह ही था । कुछ बडा होने पर माता पिता ने उसे पढ़ने चटसाल भेज दिया । वहां उसने सभी विद्याए पढ ली ।
उसी अागरा नगर में पंडित हेमगज रहते थे। वे गर्ग गोत्रीय अग्रवाल जन थे। सारा नगर उनके चरणों का दास था । हेमराज ने उस समय तक 'प्रवचनसार एवं "पंचास्तिकाय' जैसे कठिन ग्रन्थों का हिन्दी भाषानुवाद कर दिया था । उसके घर में एक पुत्री सैनी ने जन्म लिया जो रूप एवं झील की खान भी । जनी को उसके पिता हेमराज ने खुब पळाया और प्रत्यधिक व्युत्पन्न कर दिया। हेमराज ने नन्दलाल को उचित वर जान कर उसके साथ अपनी पुत्री जैनी का विवाह कर दिया । दोनों समान वय के थे । फिर क्या था चारों और प्रसन्नता छा गयी और जब जैनी ने वधू के रूप में अपने श्वसुर धवनदास के घर में प्रवेश किया तो उसकी परिन (सास) ने मोतियों का चौक पूरा। गृहप्रवेश के अवसर पर उसका नाम जैनुलदे रखा गया ।