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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज जम्बू स्वामी भयो निरपान । पाई पंचमगति भगवान ॥ जेसका रो-हिर गयो :म | कारज गाम गोत परनए । इह विधि ओसाल बरनए ।। उपरोतिया गोत छतीस । तिरोंतिया गनि छह चालीस ॥७५।।
दोहरा जसवाल कुल बरनयो, जिहि विधि उतपति तास ॥ अब कवि अपने नाम को, कर बिवर परगास ।।७।।
कषि प्रशस्ति
चौपई समिः लिनि में एक नाति । गमन सुन्न जानि ।। रामाखेरा को चउघरी । अर्गलपु : की प्रानु जु बरी १७६॥ ताके पांच पुत्र मभिराम । अनुज लालमब तसु नाम ।। ता सुत हीय प्रीति जिनचन्द । सब कोऊ कहै बुलाखीचन्द ७७।। तासु हिरदे उपजी यह प्रांनि । कीजे क्यों जिन कथा बखान ।। वृन्दावन सागरमल मित्र । जिनधर्मी ग्रह परम पवित्र ७८|| तिनिकी की प्राज्ञा ले सिर धरी । बचनकोग की रचना करी ।। भाषा ग्रन्थ भयो प्रति मलो। वचनकोश नाम जु उजलो ।।७।। बिमस तासु पढ़त मिथ्यात । सांची लगे न परमत बात ।। क्षयोपशम को कारण यही । वचन कोस प्रगटयो यह महीं ।।८।। श्रवन करें रूचिसो नर नारि । लक्ष्मी होइ सुभग निरधार ॥ लक्ष्मी होइन राम पाकुली । याकै पहें होह मति भलो ॥५॥ जिनवानी की कीरति घनी । कहाँ लौ वरनि सके नहीं मुनि ॥ सुनें तासु न पावें पार : मॉनि सकति जु बुधि बल सार ।।२।।
बोहरा संवत सत्रह से बरस, ऊपरि सप्त रु तीस । गंगास अंधेरी मष्टमी, बार वरनक नीस ||३||