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पांडवपुराण
का प्रकार शामीद
सर्वया जालौं रहें तारागन सदन सुरईस को सागर, सुभूमि रहे रहे दुति भान की। भूमिवासी गौंनकासी गिरि गिरि ईस दासी, बस सि र जोति औलों संसि के विमान की ॥ गंगा प्रादि नदीनद कर्म भूमि कल्पतरू है, प्रान जौलो जग वीतराग ग्यान की । भारत सुत माहि नौलौ सुविकास लहो, भारत विलास भाषा पांडव पुरान की ॥६॥
प्रथ ग्रन्थ पाठक आशीर्वाद जे नर भव्य भनाइ भने भनि भाबन सौ ग्रह भारत भाषा । प्रादर वारि लिपाइ लिहौं लिषि देहि सुनाइ सुनै मुनि भाषा ।। सोषि सुधारि सुधारिहि सत्य सुधारस के बुध चाषा । ते नरिद महापद पावह ह है तिनकी सिव के अभिलाषा ॥६॥
अय सरस्वती स्तुति ॥बोहा॥ जिन बदनीं सदनी सुमति, अबसरनी शिव सीउ । जस जननी जैनी भनी, हरनी कुमति सीउ ।।१३।।
सवैया वीरानन सरनी हरनी दुष दोषन की भरनी रस अनुभौं देनी शिव मानी है । गोतम गुरु बरनी रमनी है चेतन की कुमति की करनी पैनी परवानी है ।। दुरित ते उपरनी धरनीधर धर्म की तरनी भौसागर की छनी भै हानी है । सुमति सूर किरनी रजनी रजनीकर बदनी हमारी जग जैनी सुषदानी है ।। ४।।
दोहा इहि विधि भाषा भारती, सुनी जिनुल दे माई । धन्य धन्य मुत सौं कही, धर्म सनेह बढ़ाई ।।६।। जननि जिनुल दे धन्य है, जिन रचाइ सु पुरान । सुगम कर्यो भाषा मई, समझ सकल सुजान ।। ६६।।
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