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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जहाँ चतुईया पूरब पढे । ग्यारह अग बिना श्रम बढ़े ॥ बुद्धि चतुर्दश पूरब एह । सोहैं रिर्वत की देह ||४|| संजम भी चरित्र विधान । बिनु उपदेशनि दुनि के पांम ।। दया दमन इन्द्री तप घोर । इह प्रस्मेक बुद्धि को जोर ।।५।। इन्द्र प्रादि को विद्यावान । प्राव बाद करण धरि मान ।। उत्तर प्रथम रहैं सब मनी । इह बल बादि बुद्धि के धनी ॥५१॥ तस्त्व पदारथ संजम संतु । तिनिके सूक्ष्म भेद अनन्त ।। द्वादशांग बानी विनु कहै । प्रग्या बुद्धि होइ गुण लहै ।।२।।
वोहरा
अन्तरीक्ष भीमंग सुर व्यंजन लछिन छिन्न । स्वपन मिलें जब देखिये, माट निमत्तम अन्न |॥५३॥
चौपई
शूर सोम ग्रह नक्षत्र प्रशस्त । तिनिको ग्रहन प्रम न उदय स ।। शुभ प्ररु अशुभ जानत फल तास । प्रतीत अनागत सकल प्रकास ।।४।। वर्तमान जैसो कछु होय । अन्तरीक्ष को वर्णन सोइ ।। निमिस मग पहिलो यह भन्नौ । अन्तरिक्ष कहिये मिर्मलो ॥५५॥ छिपी वस्तु जो भूमि मझार । द्रव्य प्र.दि नाना परकार ।। जथा जुगति सौं देय बताइ । स्वयं बुद्धि पर कौन सहाय ॥५६।। भूमिका फल बरतें जेम । सब विधि वरण सुनावं तेम ।। भूमि भेद कछु गोप्य न रहैं । भूमि ऐसी गुण कहैं ॥५७।। नर सिरपंच अंग प्रत्यंग । तिनिके दरसय परस प्रभंग ।। दुख सुख सब ककन जानह । वैद्यक सामुद्रिक मानइ ॥५॥ करुणाजुत भाष उपचार । सब जग पर उनिको उपगार ॥ लक्षण प्रगट कोप ग्यान । प्रग नाम ऐसो मुरूम जान ।।५।।