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प्रवचनसार भाषा (पद्य)
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छप्पय शानी ज्ञान स्वभाव प्रवर जड रूप ज्ञेय सबु । माप प्राप गुन रक्त परसपर मिल तन को कयु । नयन विषय ज्यों नयन देखिये विवधि वस्तु बहू । बिना किये परवेस जानि कर गए मरम सहू । निहले स्वरुप सब भिन्न भनि कपन एक व्यवहार मत्त । गड ज्ञान जय सनमंध है दुरनिवार तिरकाल गत ॥७६॥
सवय्या ३१ जैसे नीलमणि को प्रसंग पाय स्वेत पीर । नील रंग न न नीर रगर है जैसे नैन बस्तु को बिलोकि व्यापि रहे सत्र यद्यपि तथापि भिन्न पंकन ज्यों नीर है। मानों ज्ञेय भाषको उखारि ज्ञान गिलि गयो प्रेसी ही विचित्रता प्रखंडित सधीर है ॥७॥ देखन जानन की शक्ति ज्ञान नैन मैं होत । तात व्यापत जेय सौं, निह भिन्न उझोत ॥७॥ जैसे दर्पण दरसि है घट पटादि माकार ।। निहर्च घट पट रूप सों, दर्पण है प्रविकार १७६
बेसरी छंब . जहाँ न जय ज्ञान में प्राव, तहाँ न केवलज्ञान कहा। जो केवल सब ज्ञेय प्रकासी, तो सब शेष ज्ञान मैं भासी । जब घट पर दर्पण मैं भासे, तब दर्पण सब नाम प्रकासे । घद पट प्रतिबियत नहि होई, दर्पण नाम न भासे कोई ।।
घट पट चर्पण मैं भरा, दर्पण घट पट नांहि। शान ज्ञान में रम रसो, मेय ज्ञान के माहि ॥५२॥
सोरठा शेय ज्ञान सनमंध, हे काहू उपचार करि । निहर्च सबै पबंध, माप माप रस में ममन ८३||