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उपदेश दोहा शतक
हाड मांस विष्टा दिथे, भरी कोपरी घाम । ताहि कुषि धनं न करें, चंद मुखी कहि नाम ।।१।। सुद्धातम अमृत प्रच, भए सात मुनि सूरि । तिमहिन बनत की, मु द.पान- .....२ मूंद विणे सौं सुख कहै, विशे न सुख को हेत ।। स्वाम स्यादि निज रुधिर को, कहै हाइ रस देत ।।८३॥ मूढ प्रपुनपी देह सौं, कहै इह सुख खोनि । सो तो सुर गीत हु विणे, महाकष्ट की दानि ॥४॥ रतन अय संपति मख, ताहि न लख गवार । भूमि विकार विलोकि के, मानप्त संपति सार || नरक नरक जान को, उर को उपजे पास । सो काहे को सेव हो, बहु विधि विणे बिलास ॥६॥ गर्न न दुख परलोक को, संयत विणे गेबार ।। सब ही हर को लोपि के, ज्यो पय पिवक्त मजार १८७) शानी को तप तुबहू, कर मोक्ष सुख कार। ज्यों थोरै प्रक्षर सुकवि, ठान अरव प्रपार ।।८।। मोह बधक भव बनि बसे, वाम बागुरा जानि । रहे पटकि छूट नही, मग नर मूतु वखानि III तो विराग करवाल करि, भव पनि बस निसंक । जोति समै अप बसि किये, मोहादिक प्ररि रंक १०|| न्यौं वरिषा रिति जेवरी, बिन ही जल बल हीन । स्यों विषई वनिता निरखि, चित्त वक्र गति लीन ||१|| पिसुन प्रेम धौसर वचन, ह्र उतंग घटि जाहि । सूषि थाह जुग जाम सम, बढे सु छिन २ मांहि ||१२|| चंदन सेपादिक कर, सीतल बनत भमंग । मिटै न प्रीषम उपमा, विनु सज्जन के संग ॥९३|| करक खात पावत कनक, मद को कर सुन्याय । इह प्रपुण्व मद कामिनी, चितवत चित बौराय ॥४॥