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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
संपति खरमत डरत सळ, मत संपति घटि जाय । इह संपति सुभ दान दी, विलसत बढत सवाइ ।।६।। छंद मत्त पर प्ररथ की, जहां प्रसुषता होइ । वहां सुकवि अवलोकि के, करहु सुत सब कोइ |७|| उतनी सांगानेरि को, अब कामां गढ वास। तहां हेम दोहां रखे, स्वपर बुषि परकास ॥१८॥ कामा गढ़ सू बस पहा, संत सिंष नरेस । अपने खग बलि बसि किए, दुर्जन जितेक देस IIREn सतहौर पचीस को. बरते संवत सार । कातिम सुदि तिथि पंचमी, पूरन भयो विचार ॥१०॥ एक प्रागरे एक सौ, कीये दोहा छंद । जो हित है बांगे पह, ता उरि बड़े प्रनंद ।।१०।।
· ।। इति हेमराज कृत उपदेश दोहा शप्तक संपूर्ण ।।