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पाण्डवपुराण
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बोहरा गंगासुत तारण विष, पनिच धाप सौं तांन । सनमुखहीं अभिमन्यु के, घायो धरि मभिमान ॥१८॥
अखिल तब कुमार ने प्रथमहिं बान चलाइ के । धुजा भीष्म की छेदी क्रोध बढाइ के ।। मन उदत्वता साद शोर न गी । करी नास रण मांहि सु सोभा धरण की ।।१८६॥ घुजा और पारोपि सुनिज रथ के विष । . गंगपुत्र नै दस सर मारे ह्र रुष ।। धुजा कुमार की छेदी जब गांगेयं ही । तब कुमार ने मारे सर बहु भये ही ॥१६०। रयीबाह धुज छेदे गंगा सनूज के । नसत बचत जेम कंगुरे बुरज के ।। सकल सूर सुरवानी तब से भनी । बली धन्य अभिमन्यु धनुर्घर है गुनी ।। १६१।। मनौं पार्थ मह दुजो है साक्षात ही। भयो भूमि में सुस्थिर बर विख्यात हो || बनिन ते इन नासें सत्रु अनेक ही। हनल नाग निर प्रफुसि जिम हय भेक ही ॥१६.२।। पार्थ सारथी उत्तर नामा रण विषै । तिन खुलाइ के लीन्यौं भीषम सनमुखें ।। परयो प्राइ भरि तोन्नों सल्य सुनाम ही। महाघोर रण मार्यो उत्तर सांम ही ।।१६३।। कुत खडग धन धारै सल्य सुऋद्ध तें। कृत्यो सारथी उत्तर शुद्ध विरुद्ध ते॥