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कविवर बुलाखोचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज निशित बांन के छल से पसि भट गातहीं । मनो दंत जम के नर मांसरि खातही ।।१८१।। छेदि सीस पर हति काल' की। गिलत सृष्टि कौं मानौं रसना काल की ।। परत गुर्ण की मार मनी जम मुष्टि ही। इतहिं कुत करि तांत सनी मनु जष्टि ही ।।१८२।। मनु कि नाक को लात गदा के रूप हो । मारि माःि घमसान करे बहु भूप ही । खड़ग खड़ग से लागि झरा झरी व परं । प्रचन अग्नि के जोर फुलिगे अनुसरै ।। १८३।। कुत भनत गज के फम विदारहीं। करुन वणं तहां निकसत सोणित धार ही ।। अंतरंग मनु को पानल ज्वाला जगी । सत्रु दारु मति दारुन मारन कौं लगी ।।१८।। ताल पत्र सम गज के कर्ण सुहा नहीं । शस्त्र अग्नि की मांनी घौंकि प्रजालही ।। हस्ति हस्ति के सन मुख धावत प्रति भिरें। प्रलय पौनत पर्वत मनु लुइतें फिरै ॥१८५।। जुद्ध माहि बहु दोर तुरंग अनूप हौं । मनी चित्त प्रसवारन के हर रूप ही ।। मनिल लाग से हालत रथ पंकति धुजा। किंधों शत्रु के रहिं बुलावन की भुजा ॥१८६।। रद्ध केस को पारुण सल पतिहीं । मनी काल के किंकर गरजत मत्तही ।। घोर वीर संग्राम करत यो पूरही। स्वामि कार्य पारयन परितन चूरही ।।१८।।