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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
भक्तामर टीका सदा, पढ सुने जो कोह हेमराज सिथ सुख लहे तर मन बदित होई ||
४ चौरासी बोल
हेमराज ने प्रस्तुत कृति में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदाय जो मतभेद हैं उनको बहुत ही अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है। वे भेद चौरासी हैं जिन्हें चौरासी बोल का नाम दिया गया है । कवि ने इसकी रचना फोरपाल की प्रेरणा से की थी। इसका दूसरा नाम "सित पट चौरासी बोल" भी मिलता है ।
तदमाग
में वसे, कारपाल सम्यान
तिस निमिश कवि हेम ने कियो कवित्त अशाम ।
कविवर हेमराज ने इसे संवत् १७०६ में लिखकर समाप्त किया था।
चौरासी बोल एक सुन्दर रचना है जो भाषा एवं शैली की दृष्टि से अनूठी कृति है। चौरासी बोल का प्रारम्भ निम्न प्रकार है
सुनय पोष हत योष मोक्ष मुख शिव पव वापक
गुन मनि कोष सुघोष शेष हर तोष विधायक | एक अनंत स्वरूप संत वंदित अभिनंवित
निज सुभाव परभाव भाव भरसेय मंदित | प्रविदित चरित्र विलसित प्रमित सवं मिलित प्रविलिप्त तन । प्रविश्वलित कलित निज रस ललित जय जिंनंवि दलित कलित घन ॥१॥
सर्वाइकतीसा - नाथ हिम भूधर तँ निकसि गनेश चित्त सुपरि विधारी शिव सागर लाई है। परमत वाघ मरजाद कूल उनमूलि अनकूल मारिग सुभाय हरिभाई है। बुद्ध हंस से पायमल को विध्वंस कर सरवंश सुमति विकासि रवाई है। सपत अभंग भंग उवह तरंग जानें सो बानी गंग सरयंग अंग
गाई है || २ ||