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हेमराज
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सोहा- पुण्य पाप को एकता, मानतु नाहि जु कोय ।
सो अपार संसारमाह, भ्रमत मोह सस सोय ॥२४॥ जाहस शुभ अरु प्रसुभमद, निहलय मेव न होय । स्यों ही पुन्यरु पापमद, निहक्य भेद न कोय ।।२८५।। बेडी लोहा कनक को, बंषप्त दुवई समान ।
त्योंही पुग्यक्ष पापमई, बंधत मोह निवान ।।२८६॥ उक्त उदाहरण से यह जाना जा सकता है कि हेमराज गोदीका ने गाथा में निरुपित विषय को कितना स्पष्ट करके समझाया है। भाषा भी एकदम पारिमाजित है तथा साथ में सरल एवं बोधगम्य है।
उक्त पद्य रूपान्तरण हेमराज गोदीका ने अपने पूर्ववर्ती पाण्डे हेम राज अग्रवाल प्रागरा निवासी के प्रवचनसार भाषा (गय) के अध्ययन के पश्चात् किया था ।
उक्त ग्रंथ की दो पांजुलिपियाँ जयपुर के दि. जैन तेरापंथी बड़ा मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। जिसमें एक पाण्डुलिपि कामा नगर में लिखी हुई है जो संवत् १७४६ की है।
२ उपवेश बोहा शतक उपदेश दोहाशतक हेमराज मोदीका खण्डेलवाल की रचना है। इसके पूर्व उसने प्रवचनसार भाषा (पद्य की रचना की थी। हेमराज ने शतक में प्रपना जो परिचय दिया है वह निम्न प्रकार है
उपनो सांगानेरि को, मर कामगड पास । तहां हेम दोहा रखे, स्वपर दृषि परकास ।।१८।। कामगिर सूपस जहाँ, कीरतिसिष नरेश । अपने खग बलि बसि किये, कुण्जन जितेक देस IItell सत्रहसैर पम्चीस को, बरत संवत सार ।
कातिग सुदि तिथि पंचमी, पूरन भयो विवारि ॥१०० । उक्त संक्षिप्त परिचय से इतना ही पता चलता है कि हेमराज सांगानेर में पैदा हुये थे तथा फिर कामांगढ़ में जाकर रहने लगे थे। उपदेश दोहा घातक की