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कविवर बलावीचन्द्र, तुस लीदास रन हेसहार,
छीन पुन्य गर हारत सब की साखि हीं । पुत्र मित्र अरु भ्राता कोइन राख ही ।। गंगपुत्र को कबत्र सिखंडी में तहां । तीछन बान करि हतं भेद्यो दिन महा ॥२५५५ । मेष पारत जैसें तर बरषा ममैं । पर टूटि व छीन सुथिरता नहि पमैं ।। वांन दृष्टि तें तैसे कवच सुफीद के। परयो भीष्म को रन मैं तन मौ कटि के ।। २५६।। फुनि सिखंडी ने तीन सरगन छोडाए । हते अश्व जुग सारथि रष धुज तोचए ।। प्रति अकंप रथ रहित सु गंगासुल रज्यो । कर कृपान करि परि के हतिवे की चल्यों ।। २५७।। द्रुपद पुत्र नै तबहिं तीछन सरन ते । खडग छीन करि डार्यो अरि के करन ते ॥ पुरक बनि रौं हृदय विदार्यो लीन है । पर्यो भूमि परि तबहि पितामह छीन है ।।२५८।।
दोहरा
कंठ प्रात तब जानि के, लीन्यौं सुभ सन्यास । धर्म ध्यान हिरदै गह्यो, घाँ चीर्य गुनरास ॥२५६।। अनुप्रेक्षा चित राखि के, सुमरि पंच पद इष्ट । तन भोजन ममता तजी, गहि सल्लेखन सिष्ट ॥२६०।। सबहीं रन तजि सकल नप, प्राइ ठए तिहितीर । पांडव तिस पद नमन करि, रुदन करत इम वीर ॥२६१।। ब्रह्मचरज प्राजन्म तुम, प्रति उन्नत व्रतपाल । पही पितामह पूज्य मह, सकल गुमन की माल ।।२६२।। धर्म तनुज तब यों कहत, भो उत्तम व्रतधार । हम को क्यों नहि मृश्य प्रब, आई दुख्न दातार ।।२६॥