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________________ पाण्डवपुराण ११३ जुगम सिंध मनु जुद्ध करत बन के विष । धन पन्न धुनि गगन सरा सरगम अखें ।। धृष्टद्य म्न मै भाइ सिखंडी भोगैमौ । भो सिखंडि हम देख्यो जोर न तुम कीयौ ।।२४८।। जुख माहि गंगा सुत प्रबलौं ह रुष । घन समान भति गरजति है तो सनमुखं ।। फनि सुतास को रथ भी दिल खहरात है। अरु उत्तंग भति ताल धुजा फहात है ॥२४६।। पौर पार्थ भी पूरस है तो पृष्टि को। फूनि सहाड बैराट करत तुम इष्ट कों॥ यही बात सुन स सिखंड, घरायो । पनिच संधि भाकरनहिं घनु टंकोरीयो।।२५० ।। द्र पद पुत्र नै मंगासुत के सन विर्ष । सहस एक सर साधि हते पाते व रुर्षे ।। मेघ कर्ष ज्यों छावत मंडल गगन ही। लयो छाई गंगासृत तसे शरन ही ।।२५१।। कौरव को बल तौलों फरि संधान हो । द्रपद पुत्र पं छोड़न लाग्यो बांन ही ।। सन के सर ताके तन नहि लगत ही। मनु सिखंडि ते नास व भगवंत ही ।।२५२।। अष्टद्य म्न के कर लें छूटत मान जे । लगत सत्र के उर में बना समान ते ।। गंगपुत्र के सर जे नाटत तीछना । ते प्रसून ह्र जाहि सिखंडी के तना ॥२५३।। होंहि दुख्य सुख रूप सु पूरव पुन्य ते । सुख्य पुख्य ह परने सकल अपुण्य ते ।। गंगपुत्र धनु जो जो धारत कर विर्ष । पुष्टद्युम्न तिस छेदत्त सरतें है रु ।।२५४।।
SR No.090254
Book TitleKavivar Bulakhichand Bulakidas Evan Hemraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1983
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & History
File Size4 MB
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