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बोसको प्रभाव
प्रथ अनंत जिन स्तुति
दोहा
भव अनंत यह जलनिधी, ताको है वर सेतु । जिन अनंत गुण अंत नहिं, बंदी पिशव सुख हेतु ॥१॥ एक समय बिरकत बिदूर, भये विषय सुख माहि । छिन मंगुर संसार में, जान्यो थिर कछु नाहि ।।२।। विदुर चतुर चितवत, (चित) पिग संपय धिग राज । घिग प्रभुता सिंग भोगए, सब अनर्थ के काज ॥३॥ जाक कारन जनक को, हत पुत्र धरि क्रोष । कईक सुत की मारई, पिता पाह दुरबोध ॥४॥ हनत मित्र को मित्र ही, बंधु बंधु को मारि । भव सुख कारन जीवए, करत काज मविचार ।।५।। ए कौरव प्रति दुरमती, महा करम चंडाल । इन को मरते रण विष, लख्यो न चाहूं हाल ॥६॥ यों विद्यारि कौरवन सौ, कहि करि वन मैं जाइ। विश्वकीति को नमन फरि, सुनत धर्म परि भाइ ॥७॥ भए दिगम्बर संजमी, अंबर तन ते स्यागि। मायाम्यंतर तप चरम, परम तत्व चित लागि ।।८। एक समै कोइक महा, सार्यवाह परवीन । राजमही पुरि ईसकी, भेदि रतन बहु कीन ॥६