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कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
चित रहित चिनमष चिद्रूप, इन्द्रिय बर्जित निर्मल रूप । गंध विवजित ग्यायक गंध, वेत्ता रूप अनूप मबंध ।। १२४ ॥ नीरस अद्भुत रस उन्यो, तुम तहनायें रति पनि त्यो । बालक क्रीड़ा कीनी जहां, देव नाग श्राये तहां ।। १२५ ।। तिनक जीति प्रति अभिराम, बीरनाथ यह पायो नाम । वाल खेल तुम करते नहीं, मुनि जुग नभते भाये सही ।। १२६ ।। तुम देखत तिन संसद, सनमति नाम तुम्हारी ब ग्यानादिक गुण बढ़ते रहे, वर्द्धमान तुम ताते कहे ।। १२७||
महावीर को विश्वनि
ऐसे श्रुति करि बैंठौ राय, सभा मोहि नर को ठाय । तोलों बानी जिनवर तनी, होन लभी बहुगुन सौं सनी ॥१२८ ।। लालु घर गल हालै नांहि और अनछर गुन जिस मांहि ।
धर्म विषै मति घारी भूप, द्वं विधि सो करता रस कूप ।। १२६ ।। तजि गोचर प्रय श्रावक सना, आदि धर्म निरगंये ठंमा | स्थान गुन जप तप की थोन, ऐसो पद निरग्रंथ जानि १४१३० ।। गृह गोचर सुनि जो धर्म, दान सील तप सार्धं कर्म । नाक तनं सुख सोई नई सील सहित बावक बल गर्दै ।।१३१। श्राहारादि चतुविध वान, विविध सुपतहि देहि सुजान । भोगभूमि फल यास वहै, फुनि जिन भावस भावन रहे ।। १३२|| निज स्वरूप विद्रूप विचार, हृदय शुद्ध करि भावें बार यही भावना जान सही, जति श्रावक दोनों को कही ।। १३३ ।।
दोहा
ऐसी विधि सौ धर्म सब सुनिक मेनिक राय ।
गमन कीमो निज सदन को, बंदे जिनवर पाय ॥ १३४ ॥
चीपई
नृप न करि सो सेवित महा, पहुंचयों पुर भूप मंदिर जहां
महि सुरानी लिन संग ज्यो रति साथ रमत क ॥१३५ ।।
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