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कविवर बुलाखीचन्द
कवि ने सभी २४ तीर्धकरों की स्तुति करते हुए लिखा है जो व्यक्ति उनकी मन वचन काप से प्रातः एवं सायं स्तुति करते हैं उनके मिभ्यास्त्र रूपी अन्धकार स्वयं दूर हो जाता है ।
५ वापस जियकर, I', बोने ससुम i
जो मन बच संझा प्रात, सुमिरै फटे तिमिर मिथ्यात ।। चौबीस तीर्थकरों की स्तुति के पश्चात् कवि ने मध्यलोक एवं उखं लोक के सभी जिन चैत्यालयों की वन्दना की है जो सभी प्रकृत्रिम हैं शाश्वत हैं एवं जिनकी वदना मंगलकारी है । मंगलाचरण के अन्त में सरस्वती की वन्दना की है जो श्वेत वस्त्रधारी है । वीणा से सुशोभित है। वास्तव में तीर्थकर मुख से निकली हुई वाणी ही सरस्वती है । बद्दी कवियों की जननी है।।
मगलाचरसा के पश्चात् कवि जैसवाल जाति की उत्पत्ति का इतिहास कहना प्रारम्भ करता है और उसके प्रसंग में तीनों लोकों का वर्णन करता है । लेकिन कवि ने तीनों लोकों का बणन करने के साथ एपनी लघुता प्रकट की है साथ में यह भी कहा है कि यदि विस्तार से इनका कथन समझना चाहें तो बड़े ग्रंथों को देखना चाहिये ।
मध्य लोक में प्रसंख्यात द्वीप समुद्र है इसमें प्रढाई द्वीप में जबुटीप है जो एक लाख योजन विस्तार वाला है । उसके मध्य में सुदर्शन मेरु पर्वत है उसके उत्तर दक्षिण भाग पर भरत ऐरावत क्षेत्र है मानुषोत्तर पर्वत के वर्णन के पश्चात् असंख्यात अनन्त का गणित भेद, योजन गणित भेद, पल्यायु भेद, पल्यसागर भेद
१. श्वेत वस्त्र करि बीना लसें, सुमति रजाह कुमति सब नसें ।
मुख जिन उद्भव मंगल रूप, कवि जननी और परम अनुप ।। २. नमिता चरण सकल दुख दहौं, असवाल उतपति सब कहीं।
अधो मधि है लोकाकाश, पुरुषाकार बखाने तास ॥६।। अल्य बुद्धि सुक्षम मम ग्यान, पढाई द्वीप सनों बखान । करयो संक्षेप पन विस्तार, व्योरौ कहत ग्रंथ अधिकार ॥ बाकी सब व्यौरे की बाह, बड़े मय देखो भयमाह ।।२९।।