Book Title: Katantra Roopmala
Author(s): Sharvavarma Acharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पुष्प ने० ८३ श्रीमद् शर्ववर्मआचार्य प्रणीत कातन्त्र-रूपमाला संस्कृत टीकाकार श्रीमद् भावसेनाचार्य विद्य हिन्दी अनुवादक/ गणिनी आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी Feat TUTERFARY INSTITUTEIN समरजना सस्थान लोक शो शाधम प्रकाशक दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर (मेरठ) उ० प्र० मूल्य :१००.०० रु० द्वितीय संस्करण ११०० १९ नवंबर १९९२ मगसिर कृष्णा १० वी० नि० सं० २५१९ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची २३७ २ १७ २४० २४२ २४३ विषय मंगलाचरण संज्ञा सन्धि स्वर सन्धि प्रकृति भाव सन्धि व्यंजन सन्धि विसर्जनीय सन्धि स्वरान्त पुल्लिग स्वरान्त स्त्रीलिंग स्वरान्त नपुंसकलिंग व्यञ्जनान्त पुल्लिग व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग व्यञ्जनान्त नपुंसकलिंग व्यञ्जनान्त अलिंग अव्यय प्रत्यय २४७ २८२ ५९ २८५ स्वादिगण तुदादिगण रुधादिगण तनादिगण यादिगण चुरादिगण असार्वधातुक अद्यतनी में कुछ विशेष सनादिप्रत्ययान्तधातु चेक्रीयितप्रत्ययान्त धातु कृदन्त प्रकरण हिन्दी अनुवादकों की प्रशस्ति परिशिष्ट-भ्वादिगण के क्रम से धातु अनुक्रमणिका परिशिष्ट-अकारादि क्रम से कातन्त्ररूपमाला की सूत्रावली परिशिष्ट-कातन्त्ररूपमाला में प्रयुक्त कतिपय परिभाषाओं की सूची परिशिष्ट- कातन्त्ररूपमाला के श्लोकों की अकारादि क्रम से सूची एकाक्षरीकोश: २९२ ३१० ३६७ ११५ १२३ १२७ ३६८ ३७९ कारक ४०५ समास तद्धित तिङन्त प्रकरण अदादिगण जुहोत्यादिगण दिवादिगण १९५ २१४ २२८ २३५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् श्री शर्ववर्म कृत कलाप व्याकरण की टीका के रूप में "कातन्त्ररूपमाला" की रचना "वादिपर्वत वन" श्रीमद् भावसेन विद्य के द्वारा हुई । उन्होंने यह रचना "कातन्त्ररूप मालेयं बालबोधाय कथ्यते" इस प्रतिज्ञा वाक्य के अनुसार बाल-व्याकरणानभिज्ञ जनों को शब्द शास्त्र का ज्ञान कराने के लिये की थी । “कुईर्षत् तत्रं व्याकरण” व्युत्पत्ति के अनुसार यह संक्षिप्त एवं सरल व्याकरण है। ग्रन्थ पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध के भेद से दो भागों में विभक्त है। पूर्वार्द्ध में ५७४ सूत्रों के द्वारा सन्धि, नाम-प्रातिपदिक, समास और तद्धित रूपों की सिद्धि की गई है और उत्तरार्द्ध में ८०९ सूत्रों के द्वारा तिङन्त और कृदन्त रूपों की सिद्धि की गई है। १४८३ सूत्रों के इस ग्रन्थ में सरलता से बालकों को संस्कृत व्याकरण का ज्ञान कराया गया है। सुबोध शैली में लिखे जाने के कारण इसका प्रचार न केवल भारतवर्ष में, अपितु विदेशों में भी था। जैन हितैषी अंक ४ वीर निर्वाण संवत् २४४१ में प्रकाशित 'कातन्त्र व्याकरण का विदेशों में प्रचार' शीर्षक लेख से अवगत है कि मध्य एशिया में भूखनन से प्राप्त कुबा नामक राज्य का पता लगा है उसमें जो प्राचीन साहित्य मिला है उससे विदित हुआ है कि उस समय वहाँ बौद्ध धर्म के अनेक मठ थे और उनने संस्कृत पढ़ाई के लिः काकरण का प्रयोग होता था। इससे समझा जा सकता है कि कातन्त्र व्याकरण की प्रसिद्धि कितनी और कहाँ तक थी। कथा सरित्सागर में निबद्ध एक कथा के आधार पर विदित हुआ है कि महाराजा शालिवाहन (शक) को पढ़ाने के लिये उनके मन्त्री शर्ववर्मा ने कलाप व्याकरण की रचना की थी। कातन्त्ररूपमाला उसी की टीका है। पाणिनीय व्याकरण लोक और वेद दोनों को लिये हुए है तथा प्रत्याहार पद्धति से लिखित होने के कारण दुरूह हो गया है अत: अवैदिक परम्परा बौद्धों, जैनों तथा विदेशीय अन्य लोगों में कातन्त्ररूपमाला की ओर जनता की अभिरुचि होना स्वाभाविक है। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी तथा अन्यान्य विश्वविद्यालयों के परीक्षा पाठ्यक्रम में निर्धारित होने से सम्प्रति पाणिनीय व्याकरण का अच्छा प्रचार हो रहा है। पाणिनीय व्याकरण तथा कातन्त्ररूपमाला का तलनात्मक अध्ययन करने से सहज ही अवगत हो जाता है कि कातन्त्ररूपमाला में सरलता से शब्द सिद्धि की गई है। यही नहीं, लघु सिद्धान्त कौमुदी की अपेक्षा इसमें अन्य अनेक रूपों की सिद्धि अधिक की गई है कारक तथा समास के प्रकरण लघु सिद्धान्त कौमुदी की अपेक्षा अधिक विस्तृत हैं। ____ मनोयोगपूर्वक कातन्त्ररूपमाला का अध्ययन अध्यापन करने वालों के ज्ञान में कोई न्यूनता दृष्टिगोचर नहीं होती । दिवंगत आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज के संघ में संस्कृत का अध्ययन कातत्ररूपमाला के अध्ययन से ही होता था और उस समय उसके माध्यम से जिन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया था ऐसे स्व० आचार्य ज्ञानसागरजी १०८ मुनि अजित सागरजी आचार्य श्री १०८ विद्यासागरजी तथा गणिनी आर्यिकाशिरोमणि श्रीज्ञानमती माताजी, जिनमती, सुपार्श्वमति तथा विशुद्धमति आदि माताओं के संस्कृत विषयक ज्ञान में न्यूनता नहीं दिखाई देती । कुछ दिन पूर्व आचार्य ज्ञानसागरजी के द्वारा जयोदय काव्य के उत्तरार्द्ध का अनुवाद और सम्पादन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तब ऐसा प्रतीत हुआ कि यह काव्य संस्कृत भाषा के अन्यान्य महाकाव्यों से अत्यधिक श्रेष्ठ है। मात्र कातन्त्ररूपमाला के अध्ययन से संस्कृत का इतना विकसित ज्ञान हो सकता है यह विश्वसनीय है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकर्ता शर्ववर्माचार्य कब और किप्स परम्परा में हुए इसका मुझे परिज्ञान नहीं है । कातंत्ररूपमाला के कर्ता आचार्य भावसेन हैं जो दक्षिण प्रांतीय थे । जैन आचार्यों में शब्दागम-व्याकरण तर्कागमन्याय शास्त्र और परमागम-सिद्धान्त, इन तीन विद्याओं में निपुण आचार्य को वैविध उपाधि से अलंकृत किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि आचार्य भावसेन इन तीनों विद्याओं के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इस ग्रन्थ के अन्त में दी हुई प्रशस्ति से स्पष्ट है कि आचार्य भावसेन मूलसंघ सेनगण के आचार्य थे । सेनगण की पट्टावली में भी इनका उल्लेख मिलता है। “परम शब्द ब्रह्म स्वरूप त्रिविद्याधिप-परवादि पर्वत वन दण्ड श्री भावसेन भट्टारकाणाम् “वादिगिरिवज्जदण्ड" वादिपर्वतवज्र और वादि गिरिसुरेश्वर आदि विशेषणों से स्पष्ट है कि यह शास्वार्थी विद्वान् थे। तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा के लेखक स्व० डा० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य आरा ने तृतीय भाग में ऊहापोह कर इनका समय तेरहवीं शताब्दी का मध्य भाग निर्धारित किया है। इनके द्वारा लिखित निम्न ग्रन्थ उपलब्ध हैं। (१) प्रमाण प्रमेय (२) कथाविचार (३) शाकटायन व्याकरण टोका (४) कातन्त्ररूपमाला (५) न्याय सूर्यावलि (६) भुक्ति मुक्ति विचार (७) सिद्धान्त सार (८) न्याय दीपिका (९) सप्त पदार्थी टीका और (१०) विश्व तत्त्व प्रकाश। इन ग्रन्थों का विवरण तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा तृतीय भाग पृष्ठ २५६ से २६४ पर द्रष्टव्य है । डा० नेमिचन्द्रजी द्वारा लिखित यह ४ भागों में विभक्त महान प्रकाखिल भार्गव दिगम्बर जैः विद्वत् परिषद् के द्वारा भगवान् महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित हैं तथा तत्कालीन साहित्य में श्रेष्ठतम माना गया है। कातन्त्र-रूपमाला की यह हिन्दी टीका गणिनी, आर्यिकाशिरोमणि श्री १०५ ज्ञानमती माताजी के द्वारा निर्मित है। ज्ञानमती माताजी सम्प्रति बहुश्रुत विदुषी हैं। न्याय, सिद्धान्त आधार तथा व्याकरणादि सभी विषयों में इनका अच्छा प्रवेश है। हिन्दी और संस्कृत की सुन्दर एवं निदोष कविता करती हैं। आधनिक शैली से अपने प्रथमानयोग की अनेक कथाओं को रूपान्तरित किया है। इनका विशिष्ट परिचय किसी ग्रन्थ में अन्यत्र दिया गया हैं कातंत्र-रूपमाला की इस हिन्दी टीका पाटिलपि का मैंने आद्यन्त अवलोकन किया। इस हिन्दी टीका के माध्यम से कातन्यरूपमाला के अध्ययन अध्यापन में विशेष सुविधा होगी ऐसी आशा है। अ० भा० वर्षीय दि० जैन विद्वत् परिषद, शास्त्री परिषद एवं अन्य बौद्धिक संगठन यदि प्रयास करे तो इसका सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी एवं रोवा विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में लघुसिद्धान्तकौमुदी के विकल्प में निर्धारण हो सकता है और जब इसके प्रचार में चहुंमुखी प्रगति होगी। अन्त में माताजी के वैदुष्य के प्रति समादर प्रकट करता हुआ उनके दीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ । समयाभाव के कारण पाणिनीय व्याकरण और कानावरूपमाला के विशिष्ट स्थलों का विश्लेषण नहीं कर सका इसका खेद है। डा० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द जैनाचार्य ज्ञान-विज्ञान के चलते-फिरते कोश रहे हैं। उनकी सतत स्वाध्याय की प्रवृत्ति ने नये-नये प्रन्थों को जन्म दिया। यही कारण है कि भारतीय साहित्य की प्रत्येक विधा पर उनके पचासों ग्रन्थ मिलते हैं। यद्यपि कुछ ग्रन्थ तो हमारी लापरवाही एवं उपेक्षावृत्ति से लुप्तप्राय हो गये लेकिन जो अवशिष्ट हैं. वह भी इतना महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है किसी भी भारतीय को उस पर गर्व हो सकता है। हमारे आचार्यों एवं विद्वानों की कृतियों का यदि दर्शन करना चाहते हैं तो आप किसी भी जैन शास्त्र भण्डार चले जाइये वहाँ प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी भाषा के विविध विषयों पर निबद्ध ग्रन्थों के सहज ही दर्शन हो सकते हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं में व्याकरण का प्रमुख स्थान है। व्याकरण से भाषा सुसंस्कारित होती है और उसका अंग भंग नहीं किया जा सकता। व्याकरण शास्त्र भाषा के लिए लगाम का काम करता है । व्याकरण की उत्पत्ति का इतिहास भी उतना ही पुराना है जितना भाषा विशेष का । भगवान् ऋषभदेव द्वारा अक्षर एवं अक विद्या का आविर्भाव अपनी पुत्री बाह्मी एवं सुन्दरी को पढ़ाने के लिए हुआ। व्याकरण साहित्य के क्षेत्र में जैनाचार्यों का उल्लेखनीय योगदान रहा है । आचार्य पूज्यपाद प्रथम वैयाकरण माने जाते है जिन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण जैसी महान् कृत्ति प्रदान की। इसके सूत्रों के दो पाठ मिलते हैं। प्रथम पाठ में ३००० सूत्र एवं दूसरे पाट में ३७०० सूत्र मिलते हैं। प्रथम पाठ पर दो महावृत्तियों मिलती हैं। प्रथम अभयनन्दि की महावृत्ति एवं दूसरी श्रुतकीर्ति की पंचवस्तु उल्लेखनीय है। इसी तरह दूसरे पाठ पर भी सोमदेव (११वी शताब्दी) द्वारा शब्दार्णवचन्द्रिका एवं गुणनन्दि द्वारा प्रक्रिया लिखी गयी । पं० नाथूराम प्रेमी के अनुसार पूज्यपाद की वही जैनेन्द्र व्याकरण है जिस पर अभयनन्दि ने वृत्ति लिखी थी। शाकटायन दूसरे जैन वैयाकरण हैं जिन्होंने स्वोपज्ञ अमोधवृत्ति सहित शाकटायन शब्दानुशासन की रचना करने का श्रेय प्राप्त किया। ये ९वीं शताब्दी के माने जाते हैं। शाकटायन, पाणिनि एवं जैनेन्द्र व्याकरण की शैली पर लिखा हुआ व्याकरण है । इसमे ३२०० सूत्र हैं। श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्ध हेमशब्दानुशासन लिखकर व्याकरण जगत् को एक और कृति भेंट की। स्वयं हेमचंद्राचार्य ने अपने शब्दानुशासन पर लधुवृत्ति एवं बृहबृत्ति नाम से दो टीकायें लिखी । इसी व्याकरण पर और भी कितनी ही टीकायें मिलती हैं। लेकिन वर्तमान में कातन्त्र व्याकरण सबसे सरल एवं सुबोध मानी जाती है। इस व्याकरण के रचयिता हैं शर्ववर्मन्" जो जैन विद्वान थे। ये गुणाढ्य के समकालीन थे और इन्होंने प्रस्तुत व्याकरण सातवाहन राजा को पढ़ाने के लिए लिखी थी। इसका प्रथम मूत्र "सिद्धोवर्णसमाम्नाय' है। जो प्राचीन • तदा स्वायंभुव नाम पदशास्वमभून महत् । यत्तत्परशताध्यायैरतिगंभीरमधिवत् ॥११२॥ आदिए. पर्व १६ । उस समय स्वायंभुव नाम का अथवा स्वयंभू भागवान वृषभदेव का बनाया एक बड़ा भारी व्याकरण शास्त्र प्रसिद्ध हुआ था इसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गम्भीर था। १. देवदेवं प्रमणम्यादौ सर्वनं सर्वदर्शितं । कातन्त्रस्य भवक्ष्यामि व्याख्यानं शर्ववमिकं ॥१॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल में राजस्थान की छोटी-छोटी चटशालाओं के पंडितों को याद था और वे छात्रों को कातन्त्र व्याकरण के सूत्रों को पढ़ाया करते थे । कातंत्र व्याकरण दो भागों में विभक्त है। पूर्वार्द्ध में ५७४ सूत्र हैं तथा उत्तरार्द्ध में ८०९ सूत्र है । व्याकरण का सन्धि, लिंग, कारक, समास एवं तद्धित भाग पूर्वार्द्ध में आता है तथा तिङन्त एवं कृदन्त भाग व्याकरण का उत्तरार्द्ध भाग है। कातन्त्ररूपमाला यह नाम भावसेन द्वारा दिया हुआ है । भावसेन ने ही इस व्याकरण के सूत्रों पर टीका लिखी है। वैसे इसका मूल नाम कलाप अथवा कौमार व्याकरण है' लिखी है २. मन्दबुद्धिमबोधार्थ भावसेनमुनीश्वरः । कातन्त्ररूपमालाख्यां वृत्तिं व्यररचत्सुधीः ॥ २ ॥ राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में कातन्त्ररूपमाला की कितनी ही पाण्डुलिपियाँ मिलती हैं जो इस व्याकरण के पठन-पाठन में काम आने की द्योतक हैं। इन पाण्डुलिपियों में भावसेन के अतिरिक्त दौसिंह की वृत्ति भी मिलती है। जयपुर के भण्डार में एक पाण्डुलिपि कातन्त्र विभ्रमानचूरि के नाम से भी उपलब्ध होती है जिसका लेखन काल संवत् १६६९ कार्तिक सुदी ५ हैं। राजस्थान के जैन ग्रन्थागारों में अब तक उपलब्ध कातन्त्र व्याकरण से सम्बन्धित कुछ प्रमुख पाण्डुलिपियों का परिचय निम्न प्रकार से है १. ३. ४. भावसेन त्रिविद्येन वादिपर्वतवज्रिणा । कृतायां रूपमालायां कृदन्तः पर्यपूर्यतः ।। १ ।। भावसेन ने यह भी लिखा है कि उसने मन्दबुद्धि वाले पाठकों के लिए इस व्याकरण पर टीका ५. ६. I आमेर शास्त्र भण्डार में जो वर्तमान में जैन विद्या संस्थान के नाम से जाना जाता है इसकी तीन पाण्डुलिपियाँ संगृहीत हैं लेकिन ये तीनों ही सूत्र मात्र हैं। जयपुर के श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर तेरह पंथियान के शास्त्र भण्डार में दुर्गसिंह की टीका वाली प्रति है जिसकी पत्र संख्या ५२१ हैं । कातन्त्र रूपमाला टीका- दौर्ग्यसिंह - पत्र संख्या ३६४ । ले० काल संवत् १९३७ । बाबा दुलीचंद शास्त्र भंडार, जयपुर | कातन्त्ररूपमाला वृत्ति | पत्र संख्या १४ से ८९ । लेखन काल संवत् १५२४ कार्तिक सुदी ५ | लिपि स्थान - टोकनगर (राजस्थान), प्राप्ति स्थान जैन विद्या संस्थान श्रीमहावीरजी । जयपुर के छोटे दीवान जी के मंदिर के शास्त्र भण्डार में इसकी दो पाण्डुलिपियों हैं जिनमें ७७ एवं ३५ पत्र हैं। दोनों ही अपूर्ण प्रतियाँ हैं । डूंगरपुर (राजस्थान) के शास्त्र भंडार में दौर्ग्यसिंह की टीकी वाली पाण्डुलिपि संगृहीत है जिसकी पत्र संख्या ७३ है । १. तेन ब्राह्म्यै कुमायें च कथितं पाठहेतवे । कालापकं तत्कौमारं नाम्ना शब्दानुशासनम् ॥ २ ॥ ( १२ ) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में भावसेन वाली पाण्डुलिपि उपलब्ध होती है जिसकी पत्र संख्या ६९ है। ८. उदयपुर के संभवनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में भावसेनवाली टीका की दो पांडुलिपियाँ संगृहीत हैं। जिनकी पत्र संख्या क्रमश: ११७ व १३८ है तथा जिनका लेखन काल संवत् १५५५ एवं संवत् १६३७ है। दोनों ही पाण्डुलिपियाँ शुद्ध एवं सुन्दर अक्षरों वाली हैं।। ९. नागौर (राजस्थान) के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में कातन्त्र व्याकरण की ४ प्रतियाँ संगृहीत हैं। इनमें एक पाण्डुलिपि संवत् १५२४ कार्तिक सुदी ७ सोमवार की है। उक्त पाण्डुलिपियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजस्थान में कातन्त्र व्याकरण के पठनपाठन का खूब अच्छा प्रचार था। माताजी द्वारा सम्पादन यह अत्यधिक प्रसन्नता की बात है कि पूज्य आर्यिकाशिरोमणि ज्ञानमतीजी माताजी ने कातन्त्र व्याकरण का हिन्दी अनुवाद करके सम्पादन किया है। यह संभवत: प्रथम अवसर है जब कि किसी व्याकरण का हिन्दी अनुवाद किया गया है। इससे प्रस्तुत व्याकरण के पठन-पाठन में अत्यधिक सुविधा मिलेगी। माताजी का वैदुष्य, सिद्धान्त ग्रन्थों का गम्भीर ज्ञान, उनका अनुवाद एवं सम्पादन देश एवं समाज को गौरवान्वित करने वाला है। अब तक उनके द्वारा लिखित, अनूदित एवं सम्पादित ग्रन्थो की संख्या इतनी अधिक है कि उनको सहज में याद रखना भी कठिन है। स्वास्थ्य खराब होने पर भी वे सतत साहित्य साधना में लगी रहती हैं जिस पर हम सबको गर्व है । आशा है पूज्य माताजी द्वारा इसी प्रकार साहित्य की अजस्त्र धारा बहती रहेगी। पूज्य माताजी द्वारा सम्पादित ग्रन्थ पर दो शब्द लिखते हुए मुझे अतीव प्रसन्नता है और इसके लिए मैं माताजी के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ। ८६७ अमृत कलश डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल बरकत नगर, किसान मार्ग निदेशक एवं प्रधान संपादक टोंक फाटक, जयपुर-१५ श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर १ देखिये-नागौर शास्त्र भण्डार की ग्रंथ सूची डॉ० पी० सी० बैन । पृष्ठ संख्या १७१. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी बात सन् १९६७ में पूज्य आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी का संघ सहित सनावद आगमन हुआ। आगमन के बाद ही माताजी की ज्ञान गंगा प्रवाहित होने लगी। शिष्यों का शिक्षण एवं नगर के आबाल वृद्ध सभी के लिए शिविर की कक्षाएं चलने लगीं। साथ ही साथ नूतन स्तुतियों का सृजन भी हो रहा था। जब शिक्षण चलता तो मुझे कुछ भी समझ में नहीं आता। मैं पढ़ने से बहुत मना भी करता, किन्तु माताजी सदैव एक ही सूत्र कह देती “पठितत्त्वं खलु पठितव्यं अग्रे अग्रे स्पष्टं भविष्यति" । मैं भी माताजी की आज्ञा को शिरोधार्य करके पढ़ता चला गया। मुझ जैसे शिष्यों पर अनुकम्पा करके माताजी ने कई ग्रन्थों का हिन्दी टीकानुवाद करना प्रारम्भ करके भावी पीढ़ी के लिए ज्ञान अर्जन का मार्ग सुलभ कर दिया, उन्हीं में से एक यह है "कातन्त्रव्याकरण" । पूज्य माताजी के असीम ज्ञान उपलब्धि का कोई मूलभूत बीज हैं तो कातन्त्र व्याकरण ही है। जिस कातन्त्र व्याकरण को अन्य विद्यार्थी दो वर्ष में पढ़ते हैं उसे पूज्य माताजी ने सन् १९५४ में जयपुर में केवल दो माह में कंठस्थ कर लिया । व्याकरण के बाद छंद, अलंकार आदि का भी ज्ञान शिष्यों को पढ़ाकर अर्जित कर लिया। आचार्यरल श्री देशभूषणजी महाराज ने बताया कि जब माताजी को कातंत्र व्याकरण पढ़ने की भूख जाग्रत हुई तब अनेक पंडितों को क्रम से पढ़ाने के लिए बुलाया गया, किन्तु वे अगले दिन एढ़ाने आने के लिए इसलिए मना कर जाते कि जितनी शीघ्रता से ये पढ़ना चाहती हैं उतना पढ़ा पाने में हम असमर्थ हैं। बड़ी कठिनाई में एक ब्राह्मगा लिदान पंडित मिले । उन्होंने इस शर्त पर अधिक पढ़ाना स्वीकार किया कि मैं जितना एक दिन में पढ़ा + उतना ये अगले दिन मौखिक सुना दें। माताजी ने शर्त स्वीकार कर ली। अगले दिन की तो बात दूर रही माताजी ने पढ़ने के तत्काल बाद ही उसे सुना दिया। पढ़ाने वाले विद्वान् बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने परिश्रम करके दो माह के अति अल्प समय में पूरी व्याकरण को पढ़ा दिया व माताजी ने कंठस्थ कर लिया। इसके बाद तो अन्य व्याकरण जैसे जैनेन्द्रप्रक्रिया, शब्दार्णवचन्द्रिका, जैनेन्द्रमहावृत्ति जैसी दुरूह व्याकरणों को अपने शिष्यों तथा मुनियों को पढ़ाकर हृदयंगम कर लिया। प्राचीन धर्म ग्रन्थों का रसास्वादन प्राप्त करने के लिए व्याकरण ज्ञान अति आवश्यक है । इसी दृष्टि से पूज्य माताजी ने अपने सभी शिष्यों को सर्वप्रथम इस कातंत्र व्याकरण को ही पढ़ाया। इसी बीच जम्बूद्वीप रचना निर्माण की भी चर्चा चलती रही। मुझे प्रारम्भ से ही जम्बूद्वीप रचना निर्माण को रुचि रही और मैंने पूज्य माताजी को वचन दिया कि रचना निर्माण में आपके संयम में किसी भी प्रकार से बाधा नहीं आने देंगे। मात्र आपका आशीवांद आवश्यक है। रचना निर्माण को मूर्तरूप प्रदान करने में अथक परिश्रम करने के बावजूद भी पूज्य माताजी को सहायता के प्रतिफल स्वरूप ही उस परिश्रम से कभी थकान का अनुभव नहीं हुआ। बल्कि उत्साह निरन्तर वृद्धिंगत होता गया । इसी मध्य माताजी जो साहित्य सृजन का कार्य कर रही थी उसको भी प्रकाशित करने का सम्यक अवसर प्राप्त हुआ। सन् १९७२ में पूज्य माताजी के संघ के साथ दिल्ली आगमन हुआ। दिल्ली आने से पहले पूज्य माताजी से शिक्षण प्राप्त कर शास्त्री एवं न्यायतीर्थ की परीक्षाएँ मैंने तथा पृज्य माताजी के अन्य शिष्यों ने उत्तीर्ण कर ली थीं। (१४) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली आकर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना की। सम्पूर्ण गतिविधियों में दिल्लीवासियों का भरपूर सहयोग मिला। जिसमें सर्वप्रथम पूज्य माताजी की प्रेरणा से जम्बूद्वीप रचना के लिए मैंने पच्चीस हजार रुपये की दान राशि घोषित की। और उक्त राशि भेजने के लिए पिताजी को पत्र दिया। मेरे मन में तो भय था, किन्तु पिताजी ने यह राशि बड़े प्रेमपूर्वक भेजकर मेरा उत्साह द्विगुणित कर दिया। आगे भी विपुल धनराशि जम्बूद्वीप रचना के लिए प्रदान करते रहे । इसे मैं अपना सौभाग्य ही समझता हूँ | साहित्य प्रकाशन के साथ ही सन् १९७४ में सम्यग्ज्ञान हिन्दी मासिक का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। जिसमें अब तक के सम्यग्ज्ञान अंकों की प्रकाशन संख्या ९ लाख एवं साहित्य प्रकाशन की संख्या १० लाख तक पहुँच चुकी है। सन् १९७४ में भगवान महावीर का पच्चीस सौवाँ निर्माण महोत्सव के पावन प्रसंग पर हस्तिनापुर आकर जम्बूद्वीप रचना निर्माण के लिए नसिया मार्ग पर किसान से भूमि क्रय की । कई बार अनेक कठिनाइयाँ आने से मेरा उत्साह भंग होने लगता तो पूज्य माताजी धैर्य व साहस प्रदान करती। भूमि क्रय करके वापस दिल्ली पहुँचे । निर्वाण महोत्सव सम्पत्र होने के पश्चात् पुन: हस्तिनापुर आये । जम्बूद्वीप रचना निर्माण की गतिविधियाँ प्रारम्भ हो गईं । जहाँ अनेक धर्म स्नेही महानुभावों का सहयोग मिलता रहा। वहीं कुछ अपने ही लोगो से रुकावट के दुष्प्रयास भी चलते रहे । किन्तु सदैव सत्य की जीत होती रही । कार्य धीमी-तेज गति से चलता रहा । शूल फूल बनकर मार्ग प्रशस्त करते रहे। सर्वप्रथम १९७५ में जम्बूद्वीप स्थल पर भगवान् महावीर की ९ फुट उत्तुङ्ग प्रतिमा पंचकल्याणक प्रतिष्ठापूर्वक विराजमान हुई । सन् १९७९ में २१ अप्रैल से ३ मई तक सुदर्शन मेरु जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा निर्विघ्न एवं सानन्द सम्पत्र हुई। इस प्रकार ८४ फुट ऊँचे सुदर्शनमेझ निर्माण के साथ प्रथम चरण महान् सफलता एवं प्रभावनापूर्वक सम्पन्न हुआ। पुन: उल्लासपूर्ण वातावरण में दूसरे चरण का कार्य चलाने को योजनाबद्ध किया गया। ४ जून १९८२ को स्व० प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के कर-कमलों से जम्बूद्वीप ज्ञान-ज्योति का प्रवर्तन लाल किला मैदान दिल्ली से हुआ। मुझे पूज्य माताजी के कृपा प्रसाद से एक स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ । ज्ञानज्योति के साथ नगर-नगर, डगर-डगर भ्रमण करने का, हजारों जिनमन्दिरों के दर्शन, लाखों धर्म श्रद्धालुओं से भेंट एवं करोड़ों नर-नारियों तक भगवान् महावीर के पावन सिद्धान्तों को पहुँचाने का। उधर ज्योति प्रवर्तन चल रहा था इधर द्रुत गति से निर्माण, और आ गया अप्रैल १९८५, जम्बूद्वीप जिनविम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का मंगल अवसर । इधर धूमधाम से प्रतिष्ठा प्रारम्भ होने जा रही थी और उधर से १०४५ दिनों का महाभ्रमण करके २८ अप्रैल को हस्तिनापुर आ पहुँची ज्ञानज्योति, जिसकी अगवानी के लिए आये थे भारत सरकार के तत्कालीन रक्षामन्त्री श्री पी० वी० नरसिंह राव । श्रवणबेलगोला के महामस्तकाभिषेक महोत्सव के अतिरिक्त यह पहली पंचकल्याणक प्रतिष्ठा थी जिसमे देश भर के सम्पूर्ण प्रदेशो से नर नारी अपूर्व उल्लास को लेकर आये थे। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नारायण दत्त तिवारी ने स्वयं दो बार जम्बूद्वीप स्थल पर पधार कर महोत्सव को सफल बनाने में अभूतपूर्व प्रशासनिक सहयोग प्रदान किया यह प्रतिष्ठा भी २ मई को विविध उपलब्धियों के साथ सम्पन्न हुई। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछ ही समय बीता था कि पूज्य माताजी का स्वास्थ्य एकदम कमजोर हो गया। एक वर्ष में दो बार ऐसी भी स्थिति आई जब उनका बच पाना कठिन प्रतीत होने लगा था । किन्तु आयु कर्म शेष होने से एवं हम सबके पुण्योदय से वह कठिन समय व्यतीत हो गया। माताजी को मानो नया जीवन ही प्राप्त हुआ। पुन: लग गई ज्ञानध्यान में, नूतन साहित्य निर्माण में। पुनः इन्दौर में गोमटगिरि प्रतिष्ठा के अवसर पर मैंने पूज्य माताजी के समक्ष अपने दीक्षा लेने के भाव प्रकट किये और उन्होंने क्षण मात्र विचार कर स्वीकृति प्रदान का, किन्तु उन्होंने यह मनोभावना व्यक्त की कि दीक्षा हस्तिनापुर में होगी। अगले ही दिन भाई रवीन्द्र एवं श्री जिनेन्द्र प्रसाद ठेकेदार इन्दौर गये एवं आचार्यप्रवर श्री विमलसागरजी महाराज से हस्तिनापुर पधारने का निवेदन किया। आचार्य श्री ने निर्णय दिया फिरोजाबाद चातुर्मास के बाद वे आवेंगे। और इस प्रकार दीक्षा के भावों को लिए हुए मेरा पूरा वर्ष व्यतीत हो गया। पूज्य माताजी की आज्ञा एवं आशीर्वाद से मैं श्री राजेन्द्र प्रसादजी कम्मोजी श्री जिनेन्द्र प्रसादजी ठेकेदार एवं श्री सुरेशचन्दजी गोटे वालों के साथ फिरोजाबाद पहुँचकर कुँवार सुदी १० वीर नि सं २५१२ (विजया दशमी-दशहरे) के दिन पूज्य आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज के चरणों में हस्तिनापुर पधार कर क्षुल्लक दीक्षा प्रदान करने के लिए श्रीफल चढ़ाया। जिस पर आचार्य श्री ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। आचार्य श्री ने संसघ हस्तिनापुर पधारकर मुझे ८ मार्च १९८७ को क्षुल्लक दीक्षा देकर "मोतीसागर" नाम प्रदान किया। इस कातन्त्र की हिन्दी टीका सहित प्रकाशन की कई वर्षों से आवश्यकता प्रतीत हो रही थी। माताजी को अनुवाद किये भी १४ वर्ष व्यतीत हो गये थे। इस बीच माताजी द्वारा लिखी गई पुस्तकों में से ८१ ग्रन्थ लाखों की संख्या में प्रकाशित हो चुके थे। तब मार्च १९८७ में इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ। पुन: यह दूसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है। आशा है इस हिन्दी टीका सहित प्रकाशन से और भी अनेकानेक विद्यार्थियों को संस्कृत के पठनपाठन में सहायता मिलेगी। जिससे माताजी की तरह ज्ञान अर्जित करके जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में अग्रसर हो सकेंगे। ११ अक्टूबर १९९२ पीठाधीश, क्षुल्लक मोतीसागर जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाक्षरीकोश: एकाक्षरीकोशः अकारो वासुदेवः स्यादाकारस्तु पितामहः । पूजायां चापि मांगल्ये आकारः परिकीर्तितः ॥ १ ॥ इकार उच्यते कामो लक्ष्मीरीकार उच्यते । उकार: शंकरः प्रोक्त ऊकारश्चापि लक्षणम् ॥ २ ॥ रक्षणे चार्थ ऊकार ऊकारो ब्रह्मणि स्मृतः । ऋकारो देवमाता स्यादृकारो दनुजप्रसू: ।। ३ ।। लकारो देवजातीनां माता सद्भिः प्रकीर्तितः । लुकारो-स्मर्यते दैत्यजननी शब्द कोविदैः ॥ ४ ॥ एकार उच्यते विष्णुरैकार: स्यान्महेश्वर । ओकारस्तु भवेद् ब्रह्मा औकारोऽनन्त उच्यते ॥ ५ ॥ अं स्यच्च परमं ब्रह्म अ: स्याच्चैव महेश्वरः । कः प्रजापति रुद्दिष्टः कोऽर्कवाटवनलेषु च ॥ ६ ॥ कश्चात्मनि मयूरो च क; प्रकाश उदाहृतः । कं शिरो जलमाख्यातं कं सुखे च प्रकीर्तितः ।। ७ ।। पृथिव्यां कु: समाख्यात: कुः पापेऽपि प्रकीर्तितः । खमिंद्रिये खमाकारो ख: स्वर्गेऽपि प्रकीर्तितः ॥ ८ ॥ सामान्ये च तथा शून्ये खशब्दः प्रकीर्तितः । गो गवेश: समुद्दिष्टो गंधवोंगः प्रकीर्तितः ॥ ९ ॥ मं गीत गा च गाथा स्याद्गाश्च धेनुः सरस्वतो । धा अष्टाय समाख्याता भी धन प्रकीर्तितः ।। १० ॥ घो घष्टाहननेऽधर्मे घूघोर्णाघुर्ध्वनावपि । डकारो भैरव: ख्यातो डकारो विषयस्पृहा ॥ ११ ॥ चश्चंद्रमा: समाख्यातो भास्करो तस्करे मतः । निर्मलं छं समाख्यातं तरले छ: प्रकीर्तितः ।। १२ ।। छेदके छ: समारख्यातो विद्भिः शब्दकोविदैः । जकारो गायने प्रोक्तो जयने जः प्रकीर्तितः ॥ १३ ।। जेता जश्च प्रकथितः सृरिभिः शब्दशासने । खो झकार: कथितो नष्टे झचोच्यते बुधैः ।। १४ ।। इकारण तथा वायौ नेपथ्ये समुदाहृतः । जकारो गायने प्रोक्तो जकारो झर्झरध्वजौ ।। १५ ॥ ये धीत्र्यां च करके रो ध्वजौ च प्रकीर्तितः । उकारो जनतायां स्याट्ठो ध्वनौ च शटेऽपि ।। १६ ।। ठो महेशः समाख्यातष्ठ: शून्य: प्रकीर्तितः । बृहद्भानौ च ठः प्रोक्तस्तथा चंद्रस्य मंडले ॥ १७ ॥ डकार: शंकरे वासे ध्वनौ भीमे निरुच्यते । ढकार: कीर्तितो इक्का निर्गुणे निधन मत: ।। १८ ॥ णकारः सूकरे ज्ञाने निश्चयेते निर्णयेऽपि च । तकार: कीर्तितश्लोरे क्रीड पुच्छे प्रकीर्तितः ॥ १९ ॥ शिलोचये थकार: स्थाल्यकारो नयरक्षणे । दकारोऽभ्रे कलत्रे च च्छेदे दाने व दातरि ॥ २० ॥ धं धने सघने ध: स्याद्विधातार मनावय। धीषणा धी: समख्याता धशैवं भारवित्तयोः ।। २१ ॥ नेता नच समारत्र्यात स्तरणौ न प्रकीर्तितः । नकार: सौगते बुद्धौ स्तुतौ वृक्षे प्रकीर्तितः ।। २२ ।। न शब्दः स्वागते बन्धी वृक्षे सूर्य च कीर्तितः . प: कुवर: समारठ्यात: पश्चिमेषः प्रकीर्तितः ॥ २३ ।। पवने प: समाख्यातः प: स्यात्याने च पारि । कफे वाते फकार: स्यात्तथाऽऽह्याने प्रकीर्तितः ।। २४ ॥ फूत्कारोऽपि च फ: प्रोक्तस्तथा निफिलभाषणे। बकारो वरुणः प्रोक्ती बलजेन फलेऽपि च ।। २५ । वक्ष: स्थले च बः प्रोक्तो गदायां समुदाहृतः । नक्षत्रे भं बुधाः प्राहुर्भत्रने भः प्रकीर्तित: ।। २६ ।। दीप्तिर्भा स्यान्न भूर्भूमिभीर्भयं कथितं बुधैः । म: शिवशंद्रमा वेथाः महालक्ष्मीशकीर्तिता ॥ २७ ।। मा च मातरि माने च बंधने मः प्रकीर्तितः । यशो यः कथित: प्राज्ञैर्या वायुरिति शब्दित: ।। २८ ।। याने मातरि यस्त्यागे कथित: शन्दवादिभिः । रश्शारोमेऽनिले ब्रह्मौ भूमावपिंधनेऽपि च ॥ २९ ।। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला इंद्रिये धनरोधे च रुर्भये च प्रकीर्तितः । लो दीप्तौ घालश्च भूमौभये चाह्लादनेऽपि च ।। ३० ॥ लो वाते लवणे च स्याल्लो दाने च प्रकीर्तितः । ल: श्लेषे चाशये चैव प्रलये साधनेऽपि लः ॥ ३१ ॥ मानसे वरुणे चैव लकार: सांत्वनेऽपि च । विश्न पक्षी निगदितो गमने वि: प्रकीर्तितः ॥ ३२ ॥ शं सुखं शंकर श्रेय: शश सोरी निगद्यते । शयने श: समाख्यातो हिंसायां शो निगद्यते ॥ ३३ ॥ ष: कीर्तितो युधैः श्रेष्ठे षश्च गंभीर लोचने । उपसगें परोक्षे च षकारः परिकीर्तितः ।। ३४ ॥ स: कोपे वरुणे स: स्यात्तथा शूलिनिकीर्तितः । सा च लक्ष्मीर्बुधैः प्रोक्ता गौरी सा च सः ईश्वर ॥ ३५ ॥ ह: कोषे वारणे हश्व तथा शूली प्रकीर्तितः । हि: पद्यपूरणे प्रोक्तो हि: स्यात्विवधारणे ॥ ३६ ॥ क्ष: शेने वक्षति गोलो तुझे ग मदशाहो । क्षि: क्षेत्रे क्षेत्ररक्षे च नृसिंहे च प्रकीर्तितः ।। ३७ ॥ आगमेभ्योऽभिधानेभ्यो धातुभ्यः शब्दशासनात् । एवमेकाक्षरं नामाभिधानं सुकृतं मया ।। ३८ ।। ॥इति पुरुषोत्तमकृत एकाक्षरीकोश: ।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नम: सिद्धेभ्यः श्रीशर्ववर्मकृत-कलापव्याकरणस्य वादिपर्वतवज्रश्रीमद्भाक्सेनत्रैविद्यकताटीका कातन्त्ररूपमाला मङ्गलम् 'वीरं प्रणम्य सर्वज्ञ, विनष्टाशेषदोषकम् । कातन्त्ररूपमालेयं, बालबोधाय कथ्यते ॥१॥ नमस्तस्यै सरस्वत्यै, विमलज्ञानमूर्तये। विचित्रालोकयात्रेयं, यत्प्रसादात्प्रवर्तते ॥२॥ मंगलाचरण का अर्थ जिन्होंने सम्पूर्ण दोषों को नष्ट कर दिया है और जो संपूर्ण चराचर जगत् को जान लेने से सर्वज्ञ हो चुके हैं ऐसे वीर भगवान को नमस्कार करके बालकों को व्याकरण का ज्ञान कराने के लिये इस छोटी-सी कातंत्ररूपमाला नाम की व्याकरण को मैं कहता हूँ ॥१॥ भावार्थ-कु-ईषत् तंत्र-व्याकरणं । थोड़े से सूत्र जिसमें हैं उसे कातंत्र कहते हैं। इस कातंत्र व्याकरण में भी बहुत ही थोड़े सूत्रों के द्वारा व्याकरण के सारे ही नियम बता दिये गये हैं। इसमें संज्ञायें भी बहुत ही सरल हैं अत: इसका "कातंत्र" यह नाम सार्थक है। विमलज्ञान-द्वादशांग ज्ञान की मूर्तिस्वरूप उस सरस्वती माता को मेरा नमस्कार है कि जिसके प्रसाद से एक स्थान में बैठे-बैठे ही सारे तीन लोक की विचित्र यात्रा का आनंद आ जाता है ।।२।। १.वि विशिष्टाई लक्ष्मी राति ददातीति वीरः । अथवा विशेषेण ईते सर्वान् सकलपदार्थान् जानातीति वीरः । वि विशिष्टा इरा वाक् दिव्यध्वनिर्यस्यासौ वीरः । अथवा वि विशिष्टा इरा अष्टमपृथ्वी यस्यासौ वीरः। अथवा वीरयतीति वीरः कामराजयमराजमोहराजान् निराकरोतीति वीरः। वि विशिष्टा ईरा गगनगमनं यस्यासौ वीरः तं प्रणमनं पूर्व पश्चात्किचिदिति प्रणम्य || सर्व जानातीति सर्वशः सर्वान् सकलपदार्थान क्रमकरणव्यवधानराहित्येन युगपत् बानातीति सर्वज्ञः । नश्यतिस्म नष्टाः। वि विशेषेण नष्टा विनष्टाः। अशेषाश्च ते दोघाश्य अशेषदोषा। विनष्टाः अशेषदोषा येनासौं विनष्टाशेषदोषकः तम् । कु ईषत्तन्त्रं कातन्त्र, रूपाणां माला रूपमाला, कातन्बस्य रूपमाला कातन्त्ररूपमाला ॥ २. सरः प्रसरणं सर्वज्ञानमया मूर्तिरस्या अस्तीति सरस्वती तस्यै । विगत मलं यस्मात्तद्विमल । ज्ञायतेऽनेन इति ज्ञाने विमल च तत् ज्ञाने च विमलज्ञान | विमलज्ञानमेव मूर्तिर्यस्याः सा विमलज्ञानमूर्तिः तस्यै ।। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कातन्त्ररूपमाला नमो वृषभसेनादि - गौतमान्त्यगणेशिने । मूलोत्तरगुणाढ्याय, सर्वस्मै मुनये नमः ॥३ ॥ गुरुभक्त्या वयं सादर्द्धद्वीपद्वितयवर्त्तिनः । वन्दामहे त्रिसङ्ख्योन - नवकोटिमुनीश्वरान् ॥४ ॥ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥५ ॥ अथ संज्ञासन्धिः सिद्धो वर्णसमाम्नायः ॥ १ ॥ भावार्थ -- सरस्वती के माहात्म्य से--प्रन्थों के पठन-पाठन रूप स्वाध्याय के प्रभाव से मनुष्य तीन लोक में स्थित जीव, अजीव आदि संपूर्ण तत्त्वों को, ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक आदि संपूर्ण जगत् के स्वरूप को जान लेता है। आप्तमीमांसा में भी कहा है कि स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेद: साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्य समं भवेत् ॥ स्याद्वाद – आगम और केवलज्ञान दोनों ही संपूर्ण तत्त्व को प्रकाशित करने वाले हैं अंतर केवल इतना ही है कि केवलज्ञान साक्षात् संपूर्ण पदार्थों का ज्ञान करा देता है और श्रुतज्ञान परोक्ष रूप से कुछ-कुछ पर्यायों सहित छहों द्रव्यों का ज्ञान करा देता है। मानस मतिज्ञान और दिव्य श्रुतज्ञान के द्वारा यह जीव परोक्ष रूप से सारे जगत् के स्वरूप को जान लेता है। वृषभसेन को प्रमुख करके अंतिम गणधर श्री गौतम स्वामीपर्यंत चौदह सौ बावन गणधर देवों को मेरा नमस्कार होवे एवं मूल और उत्तर गुणों से सहित सभी मुनियों को मेरा नमस्कार होवे ॥ ३ ॥ अर्थात् वृषभदेव के चौरासी गणधर हैं उनमें प्रमुख गणधर वृषभसेन हैं एवं महावीर स्वामी के १४ गणधरों में प्रथम गणधर गौतम स्वामी हैं। इनमें मध्य बाईस तीर्थकरों के सभी गणधरों की संख्या चौदह सौ बावन मानी गई है। ढाई द्वीप संबंधी तीन कम नव करोण मुनिराजों को हम गुरुभक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं ॥४ ॥ अर्थात् जंबूद्वीप, धातकीखंड ये दो द्वीप और पुष्करद्वीप के बीच में मानुषोत्तर पर्वत के निमित्त 'इधर के आधे पुष्कर द्वीप में ही मनुष्य लोक है अतः आधा पुष्कर द्वीप ऐसे ढाई द्वीपों में एक सौ सत्तर कर्मभूमियाँ है । इन कर्मभूमियों में अधिक से अधिक तीन कम नव करोड़ मुनिराज एक साथ हो सकते हैं यहाँ उन सभी को नमस्कार किया गया है। ज्ञानरूपी अंजन की शलाका से अज्ञान रूपी अंधकार से अंधे हुये प्राणियों के ज्ञानरूपी नेत्रों को जिन्होंने खोल दिया है उन श्री गुरुओं को मेरा नमस्कार होवे ॥५ ॥ अथ संज्ञा संधि वर्णों का समुदाय अनादि काल से सिद्ध है ॥१ ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञासन्धिः क सिद्धः खलु वर्णानां 'समाम्नायो वेदितव्यः । ते के, -अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल ल ए ऐ ओ औ। प: । चाइब रसद · द ध न प फ ब भ म । य र ल व श ष स ह इति । तत्र चतुर्दशादौ स्वराः ॥२॥ तस्मिन् वर्णसमाम्नाये आदौ ये चतुर्दश वर्णास्ते स्वरसंज्ञा भवन्ति । ते के, अ आ इ ई उ ऊक ऋ ल ल ए ऐ ओ औ इति । दश समानाः ॥३॥ तस्मिन् वर्णसमाम्नाये आदौ ये दश वर्णास्ते समानसंज्ञा भवन्ति । ते के --अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लट् इति। तेषां द्वौ द्वावन्योऽन्यस्य सवौं ॥४॥ तेषां समानानां मध्ये द्वौ द्वौ वर्णावन्योऽन्यस्य परस्परं सवर्णसंज्ञौ भवत: अआ इई। उऊ ऋऋ लुल् । तेषां ग्रहणं किमर्थ ? द्वयोर्हस्वयोर्द्वयोर्दीर्घयोश्च सवर्णसंज्ञार्थम् । श्लोकः क्रमेण वैपरीत्येन, लघूनां लघुभिः सह । गुरूणां गुरुभिः सार्थ, चतुर्थेति सवर्णता ॥१॥ इन वर्गों के समूह को आज तक न किसी ने बनाया है और न कोई नष्ट ही कर सकते हैं ये वर्ण अनादि निधन हैं । उनको जानना चाहिये । वे कौन हैं ? अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ । क ख ग घ ङ । च छ ज झ ब। ट ठ ड ढ ण । त थ द ध न । प फ ब भ म य र ल व । श ष स ह । ये सैंतालीस वर्ण कहलाते हैं। इनमें आदि के चौदह अक्षर स्वर कहलाते हैं ॥२॥ इन वर्गों के समुदायों में आदि के जो चौदह अक्षर हैं, वे स्वर संज्ञक हैं। वे कौन-कौन हैं ? अ आ इ ई ऊ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ । ये चौदह स्वर हैं। दश समान संज्ञक हैं ॥३॥ इन स्वरों में आदि के जो दश वर्ण हैं उनकी “समान" यह संज्ञा है। वे कौन है ? अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल लू। इनमें दो-दो वर्ण आपस में सवर्णी हैं ॥४॥ इस समान संज्ञक स्वरों में दो-दो वर्ण आपस में सवर्ण संज्ञक हैं । अ आ, इ ई, उ ऊ ऋ ऋल लू । सूत्र में “तेषां" शब्द का ग्रहण क्यों किया है ? दो ह्रस्व वर्ण एवं दो दीर्घ वर्ण भी आपस में सवर्ण संज्ञक हैं इस बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्र में "तेषां" पद सार्थक है । अर्थात् चार प्रकार से सवर्णता मानी गई है। श्लोकार्थ—क्रम से अर्थात् ह्रस्व ह्रस्व का दीर्घ दीर्घ का दीर्घ ह्रस्व का और ह्रस्व दीर्घ का यह चार भेद हैं। १. अनादिकालेन प्रवृत्त इत्यर्थः । सिद्धशब्द: अनित्यार्थो वा निष्पन्नाथों का प्रसिदार्थो वा । कापिल्ये सिद्धस्थित इत्यत्र सिद्धशब्दोऽनादिमङ्गलवाची। २. सम्यगाम्नायन्ते अभ्यस्यन्ते इति समाम्नायाः। श्लोकः। व्यञ्जनानि क्यस्त्रिंशत्स्वराश्चैव चतुर्दश। अनुस्वारो विसर्गश्च जिह्वामूलीय एव च || गजकुम्भाकृतिर्वर्णः प्लुतश्च परिकीर्तितः। एवं वर्णास्त्रिपञ्चाशमातृकाया उदाहताः ॥२ ॥ ३. स्वयं राजन्त इति स्वराः ।। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला ऋकारलकारौ च ॥५॥ ऋकारलकारौ च परस्परं सवर्णसंज्ञौ भवत: । ऋल । पूर्वो ह्रस्वः ॥६॥ तयोः सवर्णसंज्ञयोर्मध्ये पूर्वो वर्णो हस्वसंज्ञो भवति । अ इ उ ऋ ल॥ परो दीर्घः ॥७॥ तयोः सवर्णयोर्मध्ये परो वर्णो दीर्घसंज्ञो भवति । आ ई ऊ ऋ लू ।। स्वरोऽवर्णवजों नामि॥८॥ अवर्णवर्जः स्वरो नामिसंज्ञो भवति । इई उऊ ऋऋ लल् एऐ ओऔ ॥ वर्णग्रहणे सवर्णग्रहणं । कारग्रहणे केवलग्रहणम् । एकारादीनि सन्ध्यक्षराणि ॥९॥ एकारादीनि स्वरनामानि सन्ध्यक्षरसंज्ञानि भवन्ति । तानि कानि। ए ऐ ओ औ ।। नित्यं सन्ध्यक्षराणि दीर्घाणि ॥१०॥ सन्ध्यक्षराणि नित्यं दीर्घाणि पशि कादीनि व्यञ्जनानि ॥११ ।। ऋकार और लकार भी परस्पर सवर्ण हैं ॥५ ॥ प्रकार और लकार भी परस्पर में सवर्ण संज्ञक हैं, जैसे—ऋ लु। पूर्व के वर्ण ह्रस्व हैं ॥६॥ इन सवर्ण संज्ञक स्वरों में पूर्व-पूर्व पाँच स्वर ह्रस्व संज्ञक हैं। अ इ उ ऋ ल । अंत के स्वर दीर्घ संज्ञक हैं ॥७॥ इन सवर्ण संज्ञक दश स्वरों में अंत-अंत के पाँच स्वर दीर्घ संज्ञक हैं। आ ई ऊ ऋ । अवर्ण को छोड़कर शेष स्वर नामि संज्ञक हैं ॥८॥ अवर्ण को छोड़कर शेष बारह स्वरों की 'नामि' यह संज्ञा है। इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ । वर्ण के ग्रहण करने से सवर्ण का अर्थात् दोनों स्वरों का ग्रहण हो जाता है और 'कार' शब्द से ग्रहण करने से केवल एक स्वर का ही ग्रहण होता है जैसे अवर्ण कहने से अ आ दोनों ही आ गये एवं अकार कहने से मात्र 'अ' शब्द ही आता है। यह नियम सर्वत्र व्याकरण में समझना चाहिये । __ एकार आदि स्वर संध्यक्षर कहलाते हैं ॥९॥ एकार आदि स्वर, संध्यक्षर संज्ञक होते हैं। वे कौन हैं ? ए ऐ ओ औ। ये संध्याक्षर हमेशा ही दीर्घ रहते हैं ॥१०॥ • 'क' आदि वर्ण व्यंजन कहलाते हैं ॥११॥ १. हस्यते एकमात्रतया उच्चार्यते इति हस्थः। २. दृणाति विदारयति द्विमात्रतया मुखबिलमिति दीर्घः। ३. व्यज्यन्ते अकारादिभिः पथविक्रयन्ते इति व्यञ्जनानि अथवा विगतः अननः स्वरलेपो येश्य इति व्यसनानि । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 संज्ञासन्धिः • . ककारादीनि हकारपर्यन्तान्यक्षराणि व्यञ्जनसंज्ञानि भवन्ति । क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ । ट तद ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह ' ॥ ते वर्गाः पञ्च पञ्च पञ्च ॥ १२ ॥ ते ककारादयो मावसाना वर्णाः पञ्च पञ्च भूत्वा पश्चैव वर्गसंज्ञा भवन्ति । क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म ॥ २ वर्गाणां प्रथमद्वितीयाः शषसाश्चाघोषाः ॥ १३ ॥ वर्गाणां प्रथमद्वितीया वर्णाः शषसाश्चाघोषसंज्ञा भवन्ति । कख चछ टठ तथ पफ श ष स ।। घोषवन्तोऽन्ये ।। १४ ।। अघोषेभ्योन्ये तृतीयचतुर्थपञ्चमा वर्णा यरलवहाश्च घोषवत्संज्ञा भवन्ति । गघङ जझञ डढण दधन बम यरलवह इति ॥ ५ अनुनासिका saणनमाः ॥ १५ ॥ अनु पश्चान्नासिकास्थानमुच्चारणं येषां ते अनुनासिकाः । इजणनमा वर्णा अनुनासिकसंज्ञा भवन्ति । डञणनम इति ॥ अन्तःस्था यरलवाः ॥ १६ ॥ वर्गाणां ऊष्मणांच अन्तः तिष्ठन्तीत्यन्तः स्था: । यरलवा इत्येते वर्णा अन्तःस्थसंज्ञा भवन्ति । यरलव ॥ ककार से लेकर हकार पयंत अक्षर व्यजन संज्ञक है। ये ३३ है । क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व । श ष स ह । उनमें पाँच-पाँच के पाँच वर्ग होते हैं ॥ १२ ॥ ये ककारादि से 'म' पर्यंत पाँच-पाँच वर्ण मिलकर पाँच ही वर्ग होते हैं। क ख ग घ ङ ये कवर्ग संज्ञक हैं । कवर्ग कहने से ये पाँचों ही अक्षर आ जाते हैं उसी प्रकार से चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग होते हैं। इन वर्गों में प्रथम द्वितीय अक्षर और श ष स अक्षर अघोष कहलाते हैं ॥ १३ ॥ जैसे- - कख, चछ, टठ, तथ, पफ, श ष स । ये तेरह अक्षर । बचे हुये अक्षर घोषवान हैं ॥ १४ ॥ अघोष अक्षर से बचे हुये शेष तृतीय, चतुर्थ, पंचम अक्षर और य र ल व ह ये घोषवान संज्ञक I जैसे - ग घ ड ज झ ञ, ड ढ ण, द ध न, ब भ म य र ल व ह। ये २० अक्षर घोष हैं । ङ, ञ, ण, न, म ये अनुनासिक संज्ञक हैं ॥ १५ ॥ अनु-पश्चात् नासिका स्थान से जिनका उच्चारण होता है वे अनुनासिक कहलाते हैं । अर्थात् इन ङ, ञ, ण, न और म के उच्चारण में कुछ-कुछ ध्वनि नाक से भी निकलती है इसलिये ये अनुनासिक कहलाते हैं। य र ल व अक्षर अंतस्थ संज्ञक हैं ॥ १६ ॥ जो ओष्ठ आदि स्थानों के अंत में रहते हैं उन्हें अंतस्थ कहते हैं । १. ककारादीनामकार उच्चारणार्थः । २. घोषो ध्वनिर्न विद्यते येषां ते अघोषाः । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला ऊष्माणः शषसहाः ॥१७॥ ऊष्म उष्णं धर्ममुत्पादयन्तीति ऊष्माणः । शपसहा इत्येते वर्णा ऊष्मसंज्ञा भवन्ति । शषसह । अः इति विसर्जनीयः ॥१८॥ येन विना यदुच्चारयितुं न शक्यते स उच्चारणार्थो भवति । अकार इहोच्चारणार्थः । यथा कादिषु । कुमारीस्तनयुगलाकृतिवर्णो विसर्जनीयसंज्ञो भवति । शृङ्गवद्वालवत्सस्य कुमारीस्तनयुग्मवत् । नेत्रवत्कृष्णसर्पस्य विसर्गोऽयमिति स्मृतः ॥९॥ क इति जिह्वामूलीयः ॥१९॥ ककार इहोच्चारणार्थ: वज्राकृतिवों जिह्वामूलीयसंज्ञो भवति । के। 4 इत्युपध्मानीयः ॥२०॥ पकार इहोच्चारणार्थ: । गजकुम्भाकृतिवर्ण उपध्मानीयसंज्ञो भवति । ५।। श, ष, स, ह अक्षर ऊष्म संज्ञक हैं ॥१७॥ उष्ण धर्म को उत्पन्न करने वाले को 'ऊष्म' कहते हैं अर्थात् इनके उच्चारण काल में मुख से कुछ उष्ण वायु निकलती है। अ:" यह विसर्ग कहलाता है ॥१८ ॥ जिसके बिना उच्चारण न किया जा सके वह उच्चारण के लिये होता है । यहाँ विसर्ग को बतलाने के लिये 'अकार' शब्द उच्चारण के लिये है। जैसे कः आदि में 'क' शब्द उच्चारण के लिये रहता है। यह विसर्ग सभी स्वर और व्यंजन में लगाया जाता है । कुमारी कन्या के स्तन युगल की आकृति वाला जो वर्ण है वह विसर्ग संज्ञक है। श्लोकार्थ-बाल बछड़े के छोटे-छोटे सींग के समान, कुमारी कन्या के स्तन युगल के समान और काले सर्प की दोनों आँखों के समान यह विसर्ग माना गया है। 'क' यह वर्ण जिह्वामूलीय कहलाता है ॥१९ ॥ यहाँ ककार उच्चारण के लिये है मतलब वज्राकृति वर्ण जिह्वामूलीय संज्ञक होता है। 'क 'प' यह उपध्मानीय संज्ञक है ॥२०॥ यहाँ 'प' शब्द उच्चारण के लिये है मतलब गजकुंभाकृति वर्ण को उपध्मानीय संज्ञा है। १. विसृज्यते विरम्यते येन स विसर्गः । २. जिह्वामूले भवो जिकामूलीयः । ३. उप समोपे ष्मायते शब्दायते इति उपध्मानीयः। 1. क के पीछे अर्थ चन्द्राकार जैसे, क - करोति । 2. प से पहले गज कुम्भाकृति जैसे क ) ( पठति । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरसन्धिः अं इत्यनुस्वारः ॥२१॥ अकार इहोच्चारणार्थ: । बिन्दुमात्रो वणोंऽनुस्वारसंज्ञो' भवति ॥अं । लोकोपचाराद्ग्रहणसिद्धिः ॥२२॥ लोकानामुपचारो व्यवहारः । तस्मादिहानुक्तस्यापि ग्रहणस्य शब्दस्य सिद्धिः प्रवृत्तिवेदितव्या । तत्कथं ? त्वया ग्रामो गम्यते इत्युक्तेस्त्वं ग्रामाय गच्छसीत्यर्थः । इति संज्ञासन्धिः ॥१॥ अथस्वरसन्धिरुच्यते कः सन्धिः । पूर्वोत्तरवर्णानामव्यवधानेन परस्परेण सन्धान संश्लेष: 'सन्धिः ॥ तव अभ्युदयः । कान्ता आगता । दधि इदम् । नदी ईहते । वसु उभयोः । वधू ऊढा। पितृ ऋषभ: । मातृ ऋकारेण । कृ ऋकारः ॥ कृ ऋकारेण । इति स्थिते। अनतिक्रमयन्विश्लेषयेत्॥२३॥ 'अं' यह वर्ण अनुस्वार संज्ञक है ॥२१ ।। यहाँ भी अकार मात्र उच्चारण के लिये है। मतलब बिंदु मात्र वर्ण अनुस्वार संज्ञक है ऐसा समझना चाहिये। लोकोपचार से शब्द ग्रहण की सिद्धि होती है ॥२२ ।। लोक के उपचार को व्यवहार कहते है। इसलिये यहीं नहीं कहे गये भी ग्रहण शब्दों की सिद्धि-प्रवृत्ति समझ लेना चाहिये। प्रश्न वह कैसे ? उत्तर-जैसे तुम्हारे द्वारा गाँव को जाया जाता है ऐसा वाक्य बनाने पर 'तुम गाँव को जाते हो' ऐसा अर्थ समझना चाहिये। भावार्थ-जिसका दूसरा नाम है वाक्य या वृद्ध ज्ञानी जनका व्यवहार उससे तथा प्रसिद्ध पद के संयोग से निश्चय होता है। 'सहकारे पिको विरोति', यहाँ पिक-कोयल के संयोग से सहकारआन का निश्चय होता है। संज्ञा सन्धि समाप्त हुई। अथ स्वर संधि संधि किसे कहते हैं ? पूर्व और उत्तर वर्णों का-दो पदों या अनेक पदों का व्यवधानअंतराल के बिना परस्पर में संश्लेष हो जाना संधि कहलाती है। जैसेतव+ अभ्युदय, कान्ता + आगता, दधि+ इदम्, नदी + ईहते आदि दो-दो पद हैं। . क्रम का उल्लंघन न करते हुये विश्लेषण करे ॥२३॥ १: अन्तमनुस्त्य संलीन उच्चार्यते स्वयंत इति अनुस्वारः । २. व्यवहारो नाम शब्दप्रयोगः। ३. कालकारक संख्यासाधनोपग्रह भेदाद भित्रमर्थ शयतीति शब्दः। ४. पूर्वोत्तरवर्णानामविरामणोच्चारणं सन्धानमिति च पुस्तकान्तरे॥ __ 1. उन दोनों में रूपांतर होकर जो परिवर्तन होता है उसे संधि कार्य कहते हैं। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला संघटितान्वर्णान् अनतिक्रमयन् विश्लेषयेत् इति विश्लेष्यः ॥ समानः सवर्णे दीर्धीभवति परश्च लोयम् ॥२४॥ समानसंज्ञको वर्णो दीर्घाभवति सवर्णे परे परश्च लोपमापद्यते । सर्वत्र ह्रस्वो दीर्घः । स्वभावतो इस्वाभावे परलोषः । उक्तं च अदीघों दीर्घतो याति नास्ति दीर्घस्य दीर्धता।। पूर्व दीर्घस्वरं दृष्ट्वा परलोपणे विधीयते ॥१॥ व्यञ्जनमस्वरं परवर्णं नयेत् ॥२५॥ अस्वर व्यञ्जनं परवर्ण नयेत । तवाभ्युदयः । कान्तागता । दधोदम् । नदीहते । वसूभयोः । वधूढा । पिपमः । मातृकारण । कृकारेण । इति सिद्धं पदम् । एव होतृकार: । होतृ ऋकारः इति विग्रहः । अत्र समान: सवणे दीघीभवति इत्यादिना दीर्घत्वम् । होत ऋकार इति स्थिते । ऋति तोलोपो वा ॥२६॥ ऋति परे ऋतोलोपो वा भवति होतृकारः ॥ देव इन्द्रः । कान्ता इयम् । इति स्थिते । मिले हुये वर्गों में से क्रम का उल्लंघन न करते हुये पृथक्-पृथक् विश्लेषण करना चाहिये। जैसे तव्+अ+ अभ्युदयः। कान्त्+आ+आगता। दध् + इ+ इदम्। नद्+ई+ईहते। वसु+ उभयोः वधू+उढा, पितृ + ऋषभः, मातृ +ऋकारेण, कृ+ऋकारः कृ+ऋकारेण इत्यादि । अब सूत्र लगता हैसवर्ण के आने पर समान सवर्ण दीर्घ हो जाता है और पर का लोप हो जाता है ॥२४ ॥ समान संज्ञा वाले वर्ण, आगे सवर्ण-उसी समान वर्ण के आने पर दीर्घ हो जाते हैं और आगे वाले स्वर का लोप हो जाता है । सभी जगह हस्व तो दीर्घ हो जाता है और स्वभाव से ह्रस्व का अभाव होने पर (अर्थात् दीर्घ होने पर) आगे के स्वर का लोप हो जाता है। श्लोकार्थ जो हस्व है वह दीर्घ हो जाता है और जो पूर्व में दीर्घ है वह दीर्घ ही रहता है। पूर्व के दीर्घ स्वर को देखकर आगे के स्वर का लोप हो जाता है। जैसे तत् आ+ भ्युदय, कान्त् आ+गता , दध ई+दम्, नई+हते. इत्यादि। इसके बाद स्वर रहित व्यंजन अगले स्वर को प्राप्त कर लेते हैं ॥२५॥ तो-तवाभ्युदय, कांतागता, दधीदम्, नदीहते, वसूभयो: वधूढा, पितृषभः, मातृकारेण, कृकार:, कृकारेण । इस प्रकार संधि हो जाने से ये पद सिद्ध हो गये। आमे होत +ऋकार: यह विग्रह है-- इसमें 'समानः सवणे दीघी भवति परश्च लोपम्' इस सूत्र से एक बार दीर्घ होकर “होतृकारः” बन गया है । पुन: ऋकार के आने पर ऋकार का लोप विकल्प से होता है ॥२६ ॥ ऋकार के आने पर पूर्व के ऋकार को दीर्घ विकल्प से होता है और अगले ऋकार का लोप होता ही होता है। जैसे___ होत +ऋकारः = होतृकारः भी बना है। देव+ इन्द्रः कान्ता + इदम् ये शब्द स्थित हैं 1. इसका नाम संधि-विच्छेद है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरसन्धिः अवर्ण, इवर्णे ए ॥ २७ ॥ इवर्णे परे अवर्ण ए भवति परश्च लोपमापद्यते । वर्णग्रहणे सवर्णग्रहणम् । देवेन्द्रः । कान्तेयम् । हल ईषा । लाङ्गल ईषा । इति स्थिते । हललाङ्गलयोरीषायामस्य लोपः ॥ २८ ॥ हललाङ्गलयोरस्य लोपो भवति ईषायां परत: । हलीषा । लाङ्गलीषा | मनस् ईषा । इति स्थिते । मनसः सस्य च ॥ २९ ॥ मनसोऽस्य सस्य च लोपो भवति ईषायां परत: । मनीषा ॥ गन्ध उदकम् । माला ऊढा । इति स्थिते । वर्णे ओ ॥ ३० ॥ वर्णे परे अवर्ण ओ भवति परश्च लोपमापद्यते । गन्धोदकम् । मालोढा । तव ऋकारः । सा ऋकारेण । इति स्थिते । ऋवर्णे अर् ॥३१ ॥ ऋवर्णे परे अवर्ण अर् भवति परश्च लोपमापद्यते । पूर्वव्यञ्जनमुपरिं परव्यञ्जनमधः ।। रेफाक्रान्तस्य द्वित्वमशिटो वा ॥ ३२ ॥ रेफाक्रान्तस्य वर्णस्य द्वित्वं भवत्यशिटो वा । इवर्ण के आने पर अब को 'ए' से अगले स्वर का लोप हो जाता है ॥२७ ॥ यहाँ सूत्र में वर्ण के ग्रहण करने से सवर्ण का ग्रहण हुआ समझना चाहिये । अतः देव् अ + इन्द्रः = देव् ए + न्द्रः = देवेन्द्रः । कान्त् आ + इयं = कान्त् ए + यं कान्तेयम् । हल + ईषा, लांगल + ईषा । ईषा के आने पर हल और लाङ्गल के 'अकार' का लोप हो जाता है ॥ २८ ॥ हल् + ईषा = हलीषा, लाङ्गल + ईषा लाङ्गलीषा । मनस् + ईषा । 'अस्' का लोप हो जाता है ॥ २९ ॥ भन् अस् + ईषा मनीषा गंध + उदकम्, माला + ऊढा । ईषा के आने पर 'मनस्' के I वर्ण के आने पर अवर्ण को 'ओ' हो जाता है ॥ ३० ॥ अर्थात् आगे उवर्ण के आने पर पूर्व के अवर्ण को 'ओ' होकर अगले उवर्ण का लोप हो जाता है। जैसे- गंधू ओ दकम् = गंधोदकम् माल् ओ ढा मालोढा । तव + ऋकारः, सा + ऋकारेण । ॠवर्ण के परे अवर्ण को अर् हो जाता है ॥ ३१ ॥ अवर्ण से परे ॠवर्ण के आने पर 'अवर्ण' को 'अर्' हो जाता है और ॠवर्ण का लोप हो जाता है तब तव अर् कारः = 'तवर्कार:' बन जाता है पुनः यह अर्थ रकार यदि व्यञ्जन से पूर्व में रहता है तो ऊपर चला जाता है और यदि व्यञ्जन से आगे रहता है तो नीचे लग जाता है। शिद के न होने पर रेफ से सहित अक्षर को विकल्प से द्वित्व हो जाता है ॥ ३२ ॥ शिद किसे कहते हैं ? Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला तुंबुरुं तणकाष्ठं च तैलं जस्लमुपागतम्। स्वभावादूर्ध्वमायाति रेफस्यैतादृशी गति: ॥१॥ इति जलतुम्बिकान्यायेन रेफस्योर्ध्वगमनं । शिडिति शादयः॥३३ ।। शषसहा वर्णाः शिट्संज्ञा भवन्ति । तवारः। सक्करिण। ऋण ऋणम्। प्र ऋणम् । वसन ऋणम् । वत्सतर ऋणम् । कम्बल ऋणम् । दश ऋणम् । इति स्थिते । ऋणप्रवसनवत्सतरकम्बलदशानामणेऽरो दीर्घः ॥३४ ।। ___ ऋणादीनां अरो दीर्घो भवति ऋण परे । एकदेशविकृतमनन्यवत् । गार्णम् । प्राणम् । वसनार्णम् । वत्सतरार्णम् । कम्बलार्णम् । दशार्णम् ॥ शीत ऋतः । दुःख ऋत: । इति स्थिते । ऋते च तृतीयासमासे ॥३५॥ तृतीयासमासे अरो दीघों भवति ऋते च परे । शीतेन ऋत: शीतार्त: । दुःखेन ऋत: दुःखार्तः । तृतीयासमास इति किम् ? परमश्चासौ ऋतश्च परमर्त: ।। तव लकार: । सा लकारेण । इति स्थिते । श्लोकार्थ-तुंबरु, तृण, लकड़ी और तेल ये जल में पड़ने के बाद स्वभाव से ही ऊपर आ जाते हैं उसी प्रकार रेफ की भी यही अवस्था है। इस प्रकार 'जल तुम्बिका' न्याय से रेफ वर्ण के मस्तक पर चढ़ जाता है जैसेतवारः, प र अ कार: = प्रकार: । पुन: इस तवार: में एक सूत्र लगता है श, ष, स, ह इन चार वर्षों की 'शिद' संज्ञा है ॥३३ ॥ तवारः स् अर् क्कारेण = सक्करिण बन गया। ऋण +ऋणम्, प+ऋणम् इत्यादि सूत्र लगा 'ऋग्वणे अर्' इस सूत्र से प्राण अर् + णम् आदि बन गये। पुन: ३४वां सूत्र लगा। ऋण से परे ऋण और प्र, वसन, वत्सतर, कम्बल और दश इनके अर् को दीर्घ हो जाता है ॥३४॥ तब-ऋण आर् ऋणम् = ऋणार्णम्, प्र आर् + णम् = प्रार्णम्, बसन् आर् + णम् = वसनार्णम्, वत्सतरार्णम, कम्बलार्णम्, दशार्णम् । शीत + ऋत: दुःख + ऋतः । इसमें समास का प्रकरण है तो इनका विग्रह-शीतेन ऋतः। शीत टा स्थित है समास के प्रकरण में “तत्स्थालोप्या विभक्तयः" सूत्र से 'टा' विभक्ति का लोप होकर 'शीत + ऋतः' स्थित है। "ऋवणे अर्" इस सूत्र से शीत अर् + त; बन गया। पुन: सूत्र लगातृतीया समास के प्रकरण में ऋश्वर्ण के आने पर अर् को दीर्घ हो जाता है ।।३५ । । तब शीतात: दुःखात: बना।। यहाँ 'तृतीया समास में ऐसा क्यों कहा ? कर्मधारय समास में अर को दीर्घ नहीं होता है जैसे--परमश्चासौ ऋतश्च । परम+ ऋत: = परमर्त: बन गया। तव+लकारः, सा+लकारेण । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरसन्धिः लवणे अल् ॥३६ ॥ लवणे परे अवर्ण अल् भवति परश्च लोपमापद्यते। तवल्कारः। सल्कारेण ॥ तव एषा। सा ऐन्द्री। इति स्थिते। एकारे ऐ ऐकारे च ॥३७ ।। एकारे ऐकारे च परे अवर्ण ऐर्भवति परश्च लोपमापद्यते। तवैधा। सैन्द्री ॥ स्व ईरम् । स्व ईरिणी। स्व ईरी इति स्थिते। स्वस्येरेरिणीरिषु ॥३८॥ स्वस्याकारस्य ऐत्वं भवति ईरईरिणीईरियु परत: परश्च लोपमापद्यते । स्वैरम् । स्वैरिणी ! स्वैरी । अद्य एव 1 इह एवे चानियोगे नित्यम् ॥३९॥ अनियोगेऽवर्णस्य नित्यं लोपो भवति एवे च परे । अद्यैव । इहेव । नियोगे तु अद्यैव गच्छ । इहैव तिष्ठ । तव ओदनम् । सा औपगढी । इति स्थिते । ओकारे औ औकारे ॥४०॥ ओकारे औकारे च परे अवर्ण और्भवति परश्च लोपमापद्यते। तवौदनम्। सौपंगवी ।। "चकाराधिकारादुपसर्गावर्णलोपो धातोरेदोतो: । प्र एलयति प्रेलयति । परा ओखति परोखति । इणेधत्योन । उप एति। उपैति । उप एधते उपैधते ॥ नामधातोर्वा। उप एलकीयति उपेलकीयति ।। उपैलकीयति । प्र ओषधीयति प्रोषधीयति प्रौषधीयति । अद्य ओम् । सा ओम् । इति स्थिते । लवर्ण के आने पर अवर्ण को अल् हो जाता है ॥३६ ॥ और अगले लवर्ण का लोप हो जाता है। तत् अल् + कारः = तवल्कार: स् अल् + कारेण = सल्कारेण बन गया। तव + एषा, सा+ऐन्द्री। आगे ए.ऐ के आने पर अवर्ण को 'ऐ' हो जाता है ।।३७ ।। और अगले स्वर का लोप हो जाता है। तद् ऐ+षा= तवैषा, स् ऐ+न्द्री = सैन्द्री। स्व + ईरम्, स्व + ईरिणी, स्व + ईरी 1 इसमें 'अवर्ण इवणे ए' सूत्र लग रहा था किन्तु इसको बाधित करके आगे सूत्र लगता हैंईर. ईरिणी और ईरी के आने पर 'स्व' के 'अकार' को 'ऐ' हो जाता है ॥३८ ॥ अगले ईवर्ण का लोप हो जाता है। स्व ऐ+रम् = स्वैरम्, स्व ऐ + रिणी - स्वैरिणी, स्व ऐ+री= स्वैरी । अद्य + एत्र, इह + एव । इसमें भी 'एकारे ऐ ऐकारे च' सूत्र से 'अद्यैव 'इहैव' बनने वाला था किंतु अगले सूत्र से विकल्प हो गया। अनियोगअर्थ में आगे 'एव' शब्द के आने पर नियम से अवर्ण कालोप हो जाता है ॥३९॥ तब—अद्य् + एव = अद्येव, इत् + एव = इहेव बन गया। इसका अर्थ आज्ञा एवं प्रेरणा नहीं है जैसे कि कोई किसी को कह रहा है कि 'अद्येव गच्छ' आज ही जाना चाहिये। जाबो या न जावो जबर्दस्ती नहीं है किन्तु पूर्ववत् सन्धि में नियोग अर्थ--आज्ञा या प्रेरणा अर्थ विशेष होता है जैसे “अद्यैव गच्छ” आज ही जाबो । इत्यादि-तव+ ओदनम्, सा+ औपगवी। ओ औ के आने पर अवर्ण को 'औ' हो जाता है ॥४०॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला ओमि च ॥४१ ।। अवर्णस्य नित्यं लोपो भवति ओमि च परे । अद्योम् सोमित्यवोचत् ।। बिम्ब ओष्ठः । स्थूल ओतुः । इति स्थिते। ओष्ठौत्वोः समासे था ।।४२॥ अवर्णस्य लोपो वा भवति ओष्ठौत्वोः परत: समासविषये । बिम्बमिव ओष्ठौ यस्यासौ बिम्बोष्ठः । बिम्बौष्ठः । स्थूलोतुः । स्थूलौतुः । असमासे तु हे पुत्रौष्ठं पश्य । अद्यौतुं पश्य ॥ अक्ष ऊहिनी । इति स्थिते । अक्षस्य ऊहिन्याम्॥४३॥ अक्षस्यौत्वं भवति ऊहिन्यां परत: परश्च लोपमापद्यते । अक्षौहिणी सेना । प्रस्योडोक्योश्च ॥ प्र ऊढ: प्रौढः । प्रऊढि: प्रौतिः ।। एवैष्ययोरैत्वं । प्र एष: प्रैष: । प्र एथ्य; प्रैष्यः ॥ दधि अत्र । नदी एषा । इति स्थिते । और पीछे ओ औ वर्ण का लोप हो जाता है। तव औ+दनम् = तवौदनम, स औ+ पगवी = सौपगवी बन गया। 'ओकारे औ औकारे च' इस सूत्र में 'च' शब्द है इसका यह अर्थ होता है कि उपसर्ग से परे ए और ओ है आदि में जिसके ऐसी धातुओं के आने पर उपसर्ग के 'अ' का लोप हो जाता है। अ+ एलयांत= प्रेलयति, पर आ + ओखति = परोखति । इण् और ए४ धातु से एति और एधते क्रियायें बनती हैं यद्यपि इन दोनों क्रियाओं में आदि में "एकार' है फिर भी 'इणेधत्योर्न' इस नियम के अनुसार इन धातुओं के आने पर पूर्व के उपसर्ग के अकार का लोप नहीं होता है। तो पूर्व के 'एकारे ऐ ऐकारे च' सूत्र से अवर्ण को 'ऐ' होकर अगले स्वर का लोप हो जाता है। , उप+ एति, उप ए+ति = उपैति, उप+ एधते उए ऐ + धते = उपैधते । जो नामवाची शब्द से धातु बनकर क्रिया बने हैं उनमें विकल्प है अर्थात् 'अ' का लोप भी होता है और पूर्ववत् संधि हो जाती है जैसे उप+ एलकीयति, ठप्+एलकीयति = उपेलकीयति अथवा उप ऐ+ लकीयति= उपैलकीयति । प्र+ओषधयति + ओषधीयति = प्रोषधीयति, पू औषधीयति = प्रौषधीयति बन जाता है। अद्य+ ओम्, सा+ओम्। ओम् शब्द के आने पर नित्य ही अवर्ण का लोप हो जाता है ॥४१ ॥ अद्य् अ ओम्, अद्य+ओम् = अधोम्, स् आ + ओम्, स्+ओम् = सोम् बन गया। बिम्ब+ ओष्ठ, स्थूल + ओतु: समास के विषय में ओष्ठ और ओतु शब्द के आने पर विकल्प से अवर्ण का लोप होता है ॥४२ ।। बिम्ब के समान है ओष्ठ जिसका ऐसा बिम्ब अ+ ओष्ठः 'अ' का लोप होने पर बिम्बोष्ठ: और संधि होने पर बिम्बौष्ठः । स्थूल अ+ओतुः = स्थूलोतुः स्थूलौतुः । जब समास का प्रकरण नहीं है तब अवर्ण का लोप नहीं होगा। जैसे—हे पुत्र ! ओष्ठं पश्य, पुत्र + ओष्ठं = पुत्रौष्ठं बन गया। अक्ष + ऊहिनी ऊहिनी-सेना शब्द के आने पर अक्ष के 'अ' को औ होकर पर का लोप हो जाता है ॥४३॥ :- -- Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरसन्धिः sai यमसवर्णे न च परो लोप्यः ॥ ४४ ॥ वर्णो मापद्यते असवर्णे परे न च परो लोप्यः । दध्यत्र । नद्येषा ॥ मधु अत्र । वधू आसनम् । इति स्थिते । १३ मुवर्णः ॥४५ ॥ वर्णो वमापद्यते असवर्णे परे न च पसे लोप्यः । मध्वत्र । वध्वासनम् ॥ पितृ अर्थः । मातृ अर्थः । इति स्थिते । मुवर्णः ||४६ || ऋण रमापद्यते असवर्णे परे न च परो लोप्यः । पित्रर्थः । मात्रर्थः ॥ लृ अनुबन्धः । लू आकृतिः । इति स्थिते । लम्लुवर्णः ॥ ४७ ॥ अर्थात् 'ठवर्णे ओ' से 'ओ' होना चाहिये था किन्तु इस स्वतंत्र सूत्र से औ हो गया तोअक्षू औ + हिनी = अक्षौहिनी बना पुनः 'रषृवर्णेभ्यो' इत्यादि सूत्र से 'न' को 'ण' होकर अक्षौहिणी हो गया । प्र से परे ऊठः और ऊढिः शब्द के प्रू औ+ठः = प्रौढ, प्रू औ + ढिः प्र से परे एषः और एष्यः के आने पर 'अ' को 'ऐ' होकर पर का लोप हो गया । = = प्रू अ + एषः, श्र् ऐ + षः प्रैषः, प्रू ऐ + ष्यः प्रैष्यः बना । दधि + अत्र, नदी + एषा । इवर्ण से परे आगे असवर्ण वर्ण के आने पर इवर्ण को 'य्' होता है और पर का लोप नहीं होता है ॥४४॥ आने पर 'अ' को 'औ' होकर 'ऊ' का लोप हो जाता प्रौढिः । हैं १. प्र + उन्हः इत्यादि में भी ओ की प्राप्ति थी । I दध् इ + अत्र, दध् य् + अत्र 'व्यञ्जनमस्वरं परवर्ण नयेत्' इस सूत्र से स्वर रहित व्यंजन अगले स्वर में मिल जाते हैं तो दध्यत्र बन जाता है । नद् य् + एषा = नद्येषा मधु + अत्र, वधू + आसनम् । उवर्ण को 'व्' हो जाता है ॥४५ ॥ यदि आगे उवर्ण न होकर असवर्ण स्वर हों तो उवर्ण को 'व्' होकर अगले स्वर का लोप नहीं होता है जैसे— मध् उ + अत्र, मध् व् + अत्र = मध्वत्र, वध् ऊ + आसनम् = वध्वासनम् । पितृ + अर्थ, मातृ + अर्थः । ॠवर्ण को 'र्' हो जाता है ॥ ४६ ॥ असवर्ण स्वर के आने पर पित् ऋ + अर्थ पित् र् + अर्थ: = पित्रर्थः, मात् र् + अर्थः = मात्रर्थः । लृ + अनुबंध, लृ + आकृतिः । असवर्ण स्वर के आने पर वर्ण को 'ल' हो जाता है ॥ ४७ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला लवणों लमापद्यते असवणे परे न च परो लोप्य: । लनुबन्धः । लाकृतिः । ने अनम्। चे अनम् । इति स्थिते। ए अय् ॥४८॥ एकारो अय् भवति असवणे परे न च परो लोप्य: । नयनम् । चयनम् ।। नै अक: । चै अकः । इति स्थिते । हे आ ॥ ऐकार आय् भवत्यसवर्णे परे न च परो लोप्यः । नायकः । चायक: । लो अनम् । पो अनम् । इति स्थिते। ओ अव ॥५०॥ ओकारो अव् भवति असवणे परे न च परो लोप्य: । लवनम् । पवनम् ॥ लो अकः । पौ अक: । इति स्थिते। औ आव् ॥५१॥ औकार आव् भवत्यसवणे परे न च परो लोप्य: । लावक: । पावकः ॥ गो अजिनम् । इति स्थिते । गोर इति वा प्रकृतिः ॥५२॥ गोशब्दस्य वा प्रकृतिर्भवत्यकारे परे । गो अजिनम् गोऽजिनम् । गवाजिनम् ॥ गो अश्वौ । गो ईहा । गो उष्ट्रौ । यो एलको । इति स्थिते। एवं पर का लोप नहीं होता है। ल+ अनुबंध: = लनुबंध, ल् + आकृति: = लाकृति: । ने+अनम्, चे+ अनम्। आगे स्वर के आने पर एकार को अय् हो जाता है ॥४८ ॥ एवं पर का लोप नहीं होता है। न् ए+अनम्, न अ + अनम् = नयनम्, च् अ य+अनम् = चयनम् । नै+अकः, चै+ अक:। ऐ को 'आय' हो जाता है ॥४९ ॥ और पर का लोप नहीं होता है। न् ऐ+ अकः, न् आय् + अक: = नायक; च् आय् + अकः = चायक: । लो+अनम्, पो+ अनम्। ओ को अव् हो जाता है ।।५० ॥ और आगे का लोप नहीं होता है। ल ओ+अनम, ल अव्+अनम् = लवनम्, प् ओ+अनम्, प् अव् + अनम् = पवनम्। लो+अकः, पो+अकः । स्वर के आने पर औ को आव हो जाता है ॥५१ ॥ एवं पर का लोप नहीं होता है। ल औ+ अक: ल आव् + अक: = लावक; ए आव् + अक: = पावकः । गो + अजिनम् । अकार के आने पर 'गो' शब्द की विकल्प से संधि नहीं भी होती है ॥५२ ॥ गो अजिनम् बा। आगे के ५७वें 'एदोत्पर: पदांते लोपमकार:' सूत्र से 'अकार' का लोप हो जाता तो गोऽजिनम बना। और अगले ५३वें सत्र से गो के ओको अव आदेश होकर 'समान:: इत्यादि से दीर्घ होकर ग् अव+ अजिनम् = गवाजिनम् हो गया। गो+अश्वौ, गो+ईहा, गो+ उष्ट्रौ, गो + एलको । मान: सवणे दोधों Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरसन्धिः अवः स्वरे ॥५३ ।। गोशब्दस्य अवादेशो वा भवति स्वरे परे । गो अश्यौ । गवाश्वौ गोश्वौ। गवेहा। गवीहा । गवोष्ट्रौ । गवुष्ट्रौ । गवेलको । गवैलकौ ॥ गो' अक्षः । गो इन्द्रः । इति स्थिते। अक्षेन्द्रयोर्नित्यम् ।।५४॥ गोशब्दस्य नित्यमवादेशो भवति अक्षेन्द्रयो: परतः । गवाक्ष: । गवेन्द्रः ।। ते आहुः । तस्मै आसनम् । पटो इह । असौ इन्दुः । इति स्थिते । __ अयादीनां यवलोपः पदान्ते न वा लोपे तु प्रकृतिः ॥५५॥ पदान्ते वर्तमानानां अय् इत्येवमादीनां यत्रयोलोपो भवति न वा लोपे तु प्रकृतिश्च भवति । त आहुः । तयाहुः । तस्माआसनम् तरमायासनम् । पट इह पटविह। असाइन्दुः असाविन्दुः ।। नै क अदः । रै उ अण; । मैं उत: । ओ 3 इन्दुः 1 रिपु इ उदय: । इति स्थिते ।। गो शब्द को 'अव' आदेश हो जाता है ॥५३ ।। स्वर के आने पर विकल्प से । जैसे-एक बार ५२वें सूत्र से प्रकृति ही रहता है तो 'गो अश्वौ' 'एदोत्परः' इत्यादि सूत्र से “अ” का लोप होकर गोश्वौ, और ओ को 'अव' होने से 'गवोश्वौ' बन गया। वैसे ग अव+ ईहा- 'अवणे इतणे ए' से गवेहा । ओ अन्' सूत्र से ग् अव+ ईहा = गवीहा । ग् अव+उष्ट्री 'उवणे ओ' से गवोष्ट्री एवं 'गो अव्' से गव् + उष्ट्र = गवुष्टौ बना । ग् अव+ एलको = गलको, ग् अव् + एलको = गवेलको बना। गो+ अक्ष:, गो + इन्द्रः । अक्ष और इन्द्र के आने पर नियम से गो के ओ को 'अव' आदेश हो जाता है ||५४ ।। ग् अव + अक्ष: 'समान: सवर्णे' इत्यादि सूत्र से दीर्घ होकर गवाक्ष, ग् अव+इन्द्र: ‘अवणे इवणे ए' से संधि होकर गव + इन्द्र:- गवेन्द्रः । ते + आहुः, तस्मै + आसनम्, पटो + इह, असो + 'इन्दुः ।। पहले इनमें “ए अय्, ऐ आय, ओ अव, औ आव्" सूत्रों से संधि कर लीजिए। तय् + आहुः तस्माय्+आसनम्, पटव् + इह, असा + इंदुः । पद के अंत में विद्यमान अय् अव् आदि के ‘य ' का विकल्प से लोप हो जाता है और लोप होने पर संधि नहीं होती है ।।५५ ॥ तय् + आहुः य का लोप होने पर त आहुः; लोप नहीं होने पर तयाहुः, लोप होने पर तस्मा आसनम्, नहीं होने पर तस्मायासनम्, पट इह, पटविह, असा इन्दुः, असाबिंदुः। नै+ +अदः, +3+ अण: मै+ + उत्त:, ओ+उ+ इंदुः, रिपु+ इ + उदयः । पहले ऐ आय्' सूत्र से नाय् + + अदः, सय् + उ + अणः, माय् + ऋ+ उत:, 'ओ अव्' से अव् +3+ इंदुः ‘वमुवर्ण:' से रिप् व् ++ उदय: है। पुन: 'रमृवर्णः' और 'वमुवर्णः' से क को र्, उ को व् "इवर्ण: समसवणे" इत्यादि से इ को य् हुआ तो नाय+र+अदः, राय++ अण, माय+र+उतः, अव्+व् + इंदु, रिप् + य् + उदय: । पुन: सूत्र लगा। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कातन्त्ररूपमाला स्वरजौ यवकारावनादिस्थौ लोप्यौ व्यञ्जने ॥५६॥ अनादिस्थौ स्वरजी यवकारौ लोप्यौ भवतो व्यञ्जने परे । नारदः । रावणः, मारुत: । अविन्दुः । रिप्युदयः ॥ ते अत्र । पटो अत्र । इति स्थिते । एदोत्परः पदान्ते लोपमकारः ।।५७ ॥ एदोड्या पदान्ते वर्तमानाभ्यां परोऽकारो लापमापद्यते । तेऽत्र । पटोऽत्र । देवी गृहम् । पटु हस्तः ।। मातृ मुखम् । जले पद्मम् । रै धृतिः । गो गति: । नौ यानम्। न व्यञ्जने स्वराः सन्धेयाः ।।५८॥ व्यञ्जने परे स्वरा: सन्धानीया न भवन्ति ॥ पितृ यम् । भ्रातृ यम् । मातृ यम् । इति स्थिते । र ऋतस्तद्धिते ये ॥५९॥ ऋतो रो भवति तद्धिते ये परे। पितुरिंदम् पित्र्यम् । एवं भ्रात्र्यम् । मात्र्यम् ।। गो यूति: इति स्थिते ॥ गव्यूतिरध्वमाने ६० ।। जो स्वर से उत्पन्न हुए 'य् व्' हैं और आदि में स्थित नहीं हैं, आगे व्यंजन के आने पर उन य् व् का लोप हो जाता है ॥५६ ॥ यहाँ विकल्प नहीं है अतः नाय+र+ अदः- य् का लोप होकर = नारदः, राय् + अण: य का लोप होकर = रावणः, माय्+र+उतः = य् का लोप = मारुत: । अव् + + इंदुः= व् का लोप = अविन्दुः रिप् + य+ उदयः = का लोप-रिप्युदयः । ये शब्द सिद्ध हो गये। ते+ अत्र, पटो+अत्र ।। पद के अंत में ए ओ के होने पर उससे परे 'अ' का लोप हो जाता है ॥५७ ॥ यहाँ एत् ओत् में जो तकार है उससे ऐसा समझना कि मात्र 'ए ओ' का ही नियम है 'ऐ औ' नहीं लिये जा सकेंगे। कार और त् के लगा देने से मात्र उसी अक्षर का बोध होता है जैसे अकार या अत् शब्द से मात्र 'अ' ही ग्रहण किया जाता है। अत: 'अ' का लोप होकर तेत्र, पटो+ = पटोत्र बना । इस संधि में अ को समझने के लिये खंडाकार चिह्न भी दिया जाता है। जैसे तेऽत्र, पटोऽत्र । देवी + गृहम्, पटु + हस्त:, मातृ + मुखम्, जले + पाम्, रै + धृतिः गो + गतिः, नौ+यानम् । आगे व्यंजन के आने पर पूर्व के स्वरों की संधि नहीं होती है ॥५८ ॥ अत: उपर्युक्त पद ज्यों के त्यों रह गये तो देवीगृहम्, पदुहस्त: आदि ही रहे। पितृ + यम्, भ्रातृ + यम्, मातृ + यम्। आगे तद्धित के यकार के आने पर 'ऋ' को र हो जाता है ॥५९ ॥ यहाँ व्यञ्जन के आने पर भी तद्धित के प्रत्यय यकार के लिये एवं 'ऋ' को र के लिये ही यह संधि हुई है। तोपित् + यम् = पित्र्यम्, भ्रात् +यम् = भ्रात्र्यम्, मात् + यम् = मात्र्यम् । गो+यूतिः । मार्ग के माप अर्थ में गव्यूति शब्द निपात से सिद्ध हो जाता है ॥६० ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिभावसामः अध्वमाने गव्यूतिरिति निपात्यते । गवां यूति: गव्यूति: ।। इति स्वरसन्धिः ।। अथ प्रकृतिभावसन्धिः अथ तेषां स्वराणामेव सन्धिकाय्ये प्राप्ते क्वचित्पूर्ववत् प्रकृतिभाव उच्यते । अहो आश्चर्यम् । नो एहि । अ अपेहि । इ इन्द्रं पश्य । उ उत्तिष्ठ । आ एवम् । इति स्थिते ।। ओदन्ता अइउआ निपाताः स्वरे प्रकृत्या ॥६१ ।। ओदन्ता निपाता अ इ उ आश्च केवला निपाता: स्वरे परे प्रकृत्या तिष्ठन्ति । यल्लक्षणेनानुत्पत्रं तत्सर्वं निपातनासिद्धं । ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिविधौ च यः । आडअनुबन्धो विज्ञेयो वाक्यस्मरणयोर्न तु॥१॥ ईषदर्थे --आ उग्णं-ओष्णं। क्रियायोगे-आ इहि एहि । मर्यादायां—आ उदकान्तात् । ओदकान्तात् । अभिविधौ-आ आर्येभ्यः । आर्येभ्यो यशो गतमकलंकस्वामिनः । वाक्ये-आ एवं किल मन्यसे। स्मरणे—आ एवं किल तत् ।अन्तग्रहणमकारादीनां केवलार्थम् ।। कवी ऐतौ। माले इमे। इति स्थिते। गवां + यूति:-ग् अव् + यूति: = गव्यूति: बन गया। जिसमें सूत्र का नियम लगकर संधि आदि कार्य न होवें उसे 'निपात' कहते हैं। इस प्रकार से स्वर संधि समाप्त हुई । अथ प्रकृतिभाव सन्धि प्रकृतिभाव संधि किसे कहते हैं ? इन्हीं स्वरों में संधि कार्य के प्राप्त होने पर किन्हीं-किन्हीं में सन्धि नहीं होती है—पूर्ववत् ही पद रह जाते हैं उसे प्रकृतिभाव संधि कहते हैं प्रकृति का अर्थ है जैसा का वैसा बना रहना या स्वाभाविक रहना। अहो + आश्चर्यम्, नो+एहि, अ+ अपेहि, इ+इन्द्रं, उ+ उत्तिष्ठ, आ + एवम्। ओ जिसके अन्त में है ऐसे शब्द और अ, इ, उ, आ इन निपात शब्दों से परे यदि स्वर आते हैं तो संधि नहीं होती है ॥६१ ॥ जो व्याकरण के किसी नियम से नहीं बनते हैं वे सभी निपात से सिद्ध हुए कहे जाते हैं । अत: ये उपर्युक्त शब्द ज्यों के त्यों ही रह गये जैसे अहो आश्चर्यम् इत्यादि। किन्हीं-किन्हीं में संधि हो भी जाती है उसी को श्लोक द्वारा स्पष्ट करते हैं श्लोकार्थ-किंचित् के अर्थ में, क्रिया के योग में, मर्यादा के अर्थ में एवं अभिविधि-व्याप्ति के अर्थ में 'आ' अव्यय को आङ् रूप समझना चाहिये इसमें ड्का अनुबन्ध लोप हो जाता है; अत: इनमें 'आ' शब्द के साथ संधि हो जाती है तथा वाक्य और स्मरण अर्थ में 'आ' शब्द मात्र है उसमें संधि नहीं होती है। १. अही आहो उताहो च भोहोहेहो अथो इमे। ५ नोयुक्ताश ओदन्ता निपाता अष्टधा स्मृताः॥ २. लोकप्रसिद्धशब्दमादाय स्वरूपेण कथनं निपाताः निश्चयेन पतन्त्येनकेष्वर्थेष्विति निपाताः ॥ ३. पूर्वापरीभूता साध्यमान रूपा प्रवृत्तिः क्रिया। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ कातन्त्ररूपमाला अनभूतं द्विवचनं स्वरे परे प्रकृत्या तिष्ठति ॥ मणीवादीनां वा ॥ ६३ ॥ मणीवादीनां वा सन्धिर्भवति । मणी इत्र मणीव जम्पती इव जम्पतीव अमुके अत्र तिष्ठतः । इति 1 स्थिते । ईषत् अर्थ में क्रिया योग में मर्यादा अर्थ में अभिविधि अर्थ में व्याप्त है द्विवचनमन ॥६२॥ न साकोऽदसः || ६४ ॥ साक: अदसः परमनौभूतं द्विवचनं स्वरे परे प्रकृत्या न तिष्ठति । अमुकेऽत्र तिष्ठतः ॥ अमी अश्वाः || अमी एडकाः । अमी उष्ट्राः । अमी आदित्यरश्मयः । इति स्थिते । बहुवचनममी ॥६५ ॥ 1 आ + उष्णं ओष्णं किंचित् गरम | = आ + इहि = एहि आओ। आ + उदकांतात् = ओदकांतात् = ओदकांत् — जल के पहले तक । आ + आर्येभ्यः = आर्येभ्यः - सभी आर्य पुरुषों तक श्री स्वामी का यश आ + एवं आ एवं आ: तुम इस प्रकार से मानते हो । वाक्य अर्थ में स्मरण अर्थ में आ एवं - हाँ ! इसी प्रकार से वह हैं। सूत्र में 'ओदंता' पद में जो अन्त शब्द ग्रहण किया गया है वह ओ, अ आदि सभी को एक-एक को ही सूचित करता है। कवी + एतौ, माले + इमे औ को छोड़कर यदि अन्य स्वर वाले द्विवचन' पूर्व में हैं और आगे स्वर है तो संधि नहीं होती है ॥ ६२ ॥ अर्थात् औकार को छोड़कर जो अन्य रूप को प्राप्त हो गये हैं ऐसे द्विवचन स्वर से परे संधि नहीं होती है। कवी- एतों, माले-इमे ही रह गया। मणी + इव, जंपती + इव । मणि आदि शब्दों के द्विवचन से परे इव शब्द के आने पर विकल्प से प्रकृतिभाव होता है ॥६३॥ मणी + इव संधि होकर मणीव, अन्यथा मणी इव, जम्पतीव, जम्पती इव दोनों बन गये । अमुके + अत्र । अदस् शब्द में यदि 'अक' का आगम हुआ है तो द्विवचन में औ न होते हुए भी संधि हो जाती है ॥६४॥ अमुके + अत्र = अमुकेऽत्र बना । अमी + अश्वाः, अमी + एडका अभी + उष्ट्रा; अमी + आदित्यरश्मयः । बहुवचन के अमी शब्द से परे स्वर के आने पर संधि नहीं होती है ॥६५॥ १. औकार रूपं परित्यज्य रूपान्तरं प्राप्तमित्यर्थः । २. द्विवचनांत । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनसन्धिः १९ बहुवचनान्तममीरूपं स्वरे परे प्रकृत्या तिष्ठति । आगच्छ भो देवदत्त ३ अत्र । उत्तिष्ठ भो यज्ञदत्त ३ इह । आयाहि भो विष्णुमित्र ३ इह । इति स्थिते । अनुपदिष्टाश्च ॥ ६६ ॥ अक्षरसमाम्नायेऽनुपदिष्टाः प्लुताः स्वरे परे प्रकृत्था तिष्ठन्ति ।। सुश्लोक ३ इति । इति स्थिते । देशी ६७ ।। प्लुतस्य इतिशब्दे परे सन्धिकार्य्यनिषेधो न भवति । अहो सुश्लोकेति । दूरादाह्वाने गाने रोदने च प्लुतास्ते लोकतः सिद्धाः । उक्तं च एकमात्रो भवेद्यस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते । त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनं चार्द्धमात्रकम् ॥१ ॥ ॥ इति प्रकृतिभावसन्धिः ॥ अथ व्यञ्जनसन्धिरुच्यते वाक् अत्र । वाक् जयति । अच् अत्र अन् गच्छति । षट् अत्र । षट् गच्छन्ति । तत् अन्न । तत् गच्छति । ककुप् आसते । ककुप् जयति । इति स्थिते । अभी अश्वा: आदि ऐसे ही रह गये । आगच्छ भो देवदत्त ! अत्र उत्तिष्ठ भो यज्ञदत्त ! इह, आयाहि भो विष्णुभित्र इह ! अनुपदिष्ट से परे स्वर के आने पर भी संधि नहीं होती है ॥ ६६ ॥ अक्षरों के समुदाय में नहीं कहे गये जो प्लुत स्वर हैं उनसे परे स्वर के आने पर संधि नहीं होती है । अत: उपर्युक्त वाक्य वैसे ही रह गये । श्लोक ३ इति प्लुत से परे इति शब्द के आने पर संधि हो जाती है ॥ ६७ ॥ अत: अहो ! सुश्लोक + इति = सुश्लोकेति — हे अच्छे ' श्लोक ! इस प्रकार से — प्लुत किसे कहते हैं ? दूर से बुलाने में संबोधन में, गाने में और रोने में प्लुत संज्ञा होती हैं और प्लुत में तीन मात्रायें मानी जाती हैं। इसी को श्लोक में स्पष्ट किया है श्लोकार्थ - जिसमें एक मात्रा है उसे ह्रस्व कहते हैं। जिसमें दो मात्रायें हैं उसे दीर्घ कहते हैं । जिसमें तीन मात्रायें हैं उसे प्लुत कहते हैं एवं जिसमें अर्द्ध मात्रा हो उसे व्यंजन कहते हैं । || इस प्रकार से प्रकृतिभाव संधि पूर्ण हुई || अथ व्यंजन संधि U व्यंजन संधि किसे कहते हैं ? व्यंजन के साथ स्वर या व्यंजन, के संश्लेष होने में जो व्यंजन में परिवर्तन होता है उसे व्यंजन संधि कहते हैं। १. कीर्तिवाला । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला वर्गप्रथमाः पदान्ताः स्वरघोषवत्सु तृतीयान् ॥६८॥ # पदान्ता वर्गप्रथमाः स्वरेषु घोषवत्सु च परेषु स्ववर्गतृतीयानापद्यन्ते । वर्गप्रथमातिक्रमे कारणाभावात् । वागत्र । वाग्जयति । अज अज्गत पडत्र षड्वच्छन्ति । तदच्छति । ककुबास्ते । ककुब्जयति । प्रकृतिप्रत्यययोः पदयोर्विभागे सन्धिस्वरात्प्रतिषेधश्च प्रकृतिप्रत्यययोर्विभागो यत्र तत्र नित्यं सन्धिकार्यं भवति । यत्र पदयोर्विभागस्तत्र विकल्पेन सन्धिकार्यं भवति । इति सिद्धम् ॥ वाकू मती । अच् मात्रम् | षट् मुखानि । तत् नयनम् । त्रिष्टुप् मिनोति । इति द्विः स्थिते । २० पञ्चमे पञ्चमस्तृतीयान्नवा ॥ ६९ ॥ पदान्ता वर्गप्रथमाः पञ्चमे परे स्ववर्गपञ्चमानापद्यन्ते तृतीयान वा वाङ्मती वाग्मती । अञ्मात्रम् । अज्मात्रम् । षण्मुखानि । षड्मुखानि । तन्नयनम् । तद्नयनम् । त्रिष्टुम्मिनोति । त्रिष्टुमिनोति ॥ प्रत्यये पञ्चमे पञ्चमान्नित्यम् ॥ ७० ॥ पदान्ता वर्गप्रथमा नित्यं स्ववर्गपञ्चमानापद्यन्ते प्रत्ययपञ्चमे परे । वाङ्मात्रम् | अज्मात्रम् । षण्मात्रम् । तन्मयम् । ककुम्मात्रम् ॥ वाक् शूरः । अच् शेषः । षट् श्यामाः । तत् श्वेतम् । त्रिष्टुप् श्रुतम् । इति स्थिते । वाक् + अत्र, वाक् + जयति, अच् + अत्र अच् + गच्छति, षट् + अत्र, षट् + गच्छन्ति, तत् + अत्र, तत् + गच्छति, ककुप् + आस्ते, ककुप् + जयति । इस प्रकार से दो-दो शब्द हैं। स्वर और घोषवान् व्यंजनों के आने पर वर्ग का प्रथम अक्षर यदि पद के अन्त में है तो वह अपने वर्ग का तृतीय अक्षर हो जाता है ॥ ६८ ॥ वाग् + अत्र 'व्यंजनमस्वरं परवर्ण नयेत्' इस सूत्र से स्वर रहित व्यंजन, स्वर में मिल जाता है । अतः वागत्र, वाग्जयति, अज् + अत्र = अजत्र, अज्गच्छति, षडत्र, षड्गच्छन्ति, तदत्र, तद्गच्छति, ककुबास्ते, ककुब्जयति । वाक् + मती, अच् + मात्रम्, षट् + मुखानि, तत् + नयनम् त्रिष्टुप् + मिनोति । पंचम अक्षर के आने पर प्रथम अक्षर के स्थान में पंचम या तृतीय अक्षर वैकल्पिक हैं ॥६९ ॥ पंचम अक्षर के आने पर पदांत वर्ग का प्रथम अक्षर अपने वर्ग का पंचम अक्षर या तृतीय अक्षर हो जाता है। वाक् + मती = वाङ्मती या वाग्मती अञ्मात्रं अज्मात्रं षण्मुखानि षड्मुखानि तन्नयनम्, तनयनम् । त्रिष्टुम्मिनोति, त्रिष्टुमिनोति । वाक् + मात्रम्, अच् + मात्रम्, षट् + मात्रम, तत् + भयम्, ककुप् + मात्रम् । प्रत्यय सम्बन्धी पंचम अक्षर के आने पर नियम से पंचम ही होता है ॥७०॥ पदांत प्रथम अक्षर को स्ववर्ग का पंचम अक्षर ही होता है। प्रत्यय का पंचम अक्षर आने पर । वाङ्मात्रम्, अञ्मात्रम्, षण्मात्रम्, तन्मयम् ककुम्मात्रम् । वाक् + शूरः अच् + शेषः, षट् + श्यामाः, तत् + श्वेतम्, त्रिष्टुप् + श्रुतम् । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनसंधि वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वस्यवरपरश्छकार न पदान्तेभ्यो वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारमापद्यते न वा । वाक्छूरः । वाक् शूरः । अच्छेषः। अच्शेषः । षट्छ्यामाः । षट्श्यामाः । तच्छ्वेतम् । तच्श्वेतम् । त्रिष्टुप्छ्रुतम् । त्रिष्टुप्श्रुतम् ॥ तत् श्लक्ष्णम् । तत् श्मशानम् । इति स्थिते । न वा ग्रहणेन । २१ लानुनासिकेष्वपीच्छन्त्यन्ये ॥ ७२ ॥ लानुनासिकेषु परतः शकारश्छकार मापद्यते न वा । तच्छ्लक्ष्णं तच्श्लक्ष्णं । तचश्मशानंतश्मशानं - इति सिद्धम् || वाक् हीनः । अच् हलौ । षट् हलानिं । तत् हितम् । ककुप् हासः । इति द्विः स्थिते । तेभ्य एव हकारः पूर्वचतुर्थं न वा ॥ ७३ ॥ तेभ्यः पदान्तेभ्यो वर्गप्रथमेभ्यः परो हकारः पूर्वचतुर्थमापद्यते न वा । वाग्धीनः । वारहीनः । अज्झलौ अहलौ । षडुलानि षड्लानि । तद्धितम् तद् हितम् । ककुब्भासः ककुव्हासः । तेभ्यो ग्रहणं स्वरयवरनिवृत्त्यर्थम् । तेन बालादयति । एवेति ग्रहणं तृतीयमतव्यवच्छेदार्थम् । पुनरपि न वा ग्रहणमुत्तरत्रयविकल्पनिवृत्त्यर्थम् । तत् लुनाति । तत् चरति । तत् छादयति । तत् जयति । तत् झघयति । तत् कारेण । तत् टीकते । तत् ठकारेण तत् डीनम् । तत् ढौकते । तत् णकारेण । इति स्थिते । पदांत में वर्ग के प्रथम अक्षर से परे शकार हो और यदि उस शकार से परे स्वर, य, व, र, होवें तो शकार को विकल्प से छकार हो जाता है ॥ ७१ ॥ वाक् + श् ऊरः = वाक्हूर, वाक्शूर अच् + श् एषः = अच्छेष:, अच्शेषः । षट् + श्यामाः = षट्छ्यामाः, षट्श्यामाः | तत् + श्वेतम् = तत्छ्वेतम् बना। इसमें 'चं शे' इस ७८वें सूत्र से तकार को चकार हो गया हो तश्वेतम् बना और जब शकार को छकार हुआ है तब 'परंरूपं तकारों लचटवर्गेषु'इस ७४वें सूत्र से पररूप होकर ७६ वें सूत्र से क्षुद को प्रथम अक्षर होकर तच्छ्वेतम् बना । तछ् + छ्वेतम् = तच्छ्वेतम् । त्रिष्टुप्लुतं त्रिष्टुप्लुतं । तत् + श्लक्ष्णम्, तत् + श्मशानम् । ल और अनुनासिक के आने पर शकार को छकार विकल्प से होता है ऐसा कोई आचार्य मानते हैं ॥७२॥ एवं तकार को ७४वें सूत्र से पररूप होकर "पदांते धुटां प्रथमः " सूत्र से चकार हो जाता है । तब तच्छ्रलक्ष्णम्, बना । अन्यथा 'चं शे' सूत्र से तकार को नकार होकर तच्श्लक्ष्णम् हैं। तच्छ्मशानं, तश्मशानं । ये पद सिद्ध हुए। वाक् + हीन, अच् + हलौ षट् + हलानि, तत् + हितम्, ककुप् + हास: । वर्ग के प्रथम अक्षर से परे हकार को पूर्व वर्ग का चतुर्थ अक्षर विकल्प से हो जाता है ॥७३॥ एवं वर्ग के प्रथम अक्षर को " वर्गप्रथमा: पदांता:" इत्यादि ६८ वें सूत्र से तृतीय अक्षर हो जाता है । वाग् + घीनः = वाग्घीन, बारहीनः । अज्झलौ, अज्हलौ । षड्डलानि षड्हलानि । तद्धितम् तदहितम् । ककुब्भासः ककुब्हासः । सूत्र में जो 'तेभ्यो' पद है उससे स्वर और य, व, र की निवृत्ति हो जाती हैं इससे वाक् + ह्लादयति नाग्घ्लादयति यह रूप बन गया। सूत्र में जो 'एव' शब्द का ग्रहण है वह तीसरे मत का निराकरण करने के लिये है। पुनरपि जो 'न वा' शब्द का ग्रहण है वह आगे तीन विकल्पों दूर करने के लिये है । = को Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ कातन्त्ररूपमाला पररूपं तकारो लचटवर्गेषु ॥ ७४ ॥ I पदान्तस्तकारो लचटवर्गेषु परेषु पररूपमापद्यते । तल्लुनाति । तच्चरति । धुड् व्यञ्जनमनन्तस्थानुनासिकम् ॥७५ ॥ ★ अन्तस्थानुनासिकवर्जितं व्यञ्जनं धुट्संज्ञं भवति । पदान्ते घुटां प्रथमः ॥ ७६ ॥ पदान्ते वर्त्तमानानां घुटामन्तरतमः प्रथमो भवति ॥ घुटां तृतीयश्चतुर्थेषु ॥ ७७ ॥ तृषु । कादयति । तज्जयति । तज्झषयति । तञ्चकारेण । तट्टीकते । कारेण 1 तड्डीनम् । तौकते । तण्णकारेण । तत् शेते । तत् शयनम् । इति स्थिते । चं शे ॥ ७८ ॥ पदान्तस्तकारश्चकारमापद्यते शकारे परे ।। चं शे व्यर्थमिदं सूत्रं यदुक्ते शर्ववर्मणा तस्योत्तरपदं ब्रूहि यदि वेत्सि कलापकम् ॥१ ॥ तत् + लुनाति, तत् + चरति तत् + छादयति, तत् + जयति, तत् + झषयति, तत् + ञकारेण, तत् + टीकते, तत् + ठकारेण तत् + डीनम्, तत् + ढौकते, तत् + णकारेण । ल, चवर्ग और टवर्ग के आने पर पूर्व के तकार को पररूप हो जाता है ॥ ७४ ॥ तल्लुनाति, तच्चरति, तच्छादयति बना। द्वितीय और चतुर्थ अक्षर को प्रथम और तृतीय करने के लिये आगे सूत्र बताते हैं । अंतस्थ, अनुनासिक को छोड़कर बाकी व्यंजन धुट् संज्ञक हैं ॥ ७५ ॥ पद के अंत में धुट् को प्रथम अक्षर हो जाता है ॥७६ ॥ इस नियम से तछ्र + छादयति में छ् धुट् संज्ञक है उसको प्रथम अक्षर हो गया तो तच्छादयति बना । तज्जयति, तझ + झषयति । चतुर्थ अक्षर के आने पर पदांत छुट् को तृतीय अक्षर हो जाता है ॥ ७७ ॥ तज्ज्ञाषयति बना । तञ्जकारेण । तट्टीकते, तद् + ठुकारेण ७६ वें सूत्र से तट्टकारण, तड्डीनम्, तद् + टोकते 1 ७७वें सूत्र से तडीकते, तण्णकारेण ये पद सिद्ध हो गये । तत् + शेते, तत् + शयनम् । शकार के आने पर पदांत तकार को चकार हो जाता है ॥ ७८ ॥ तशेते, तच् शयनम् बन गये । श्लोकार्थ कोई शिष्य प्रश्न करता है कि श्री शर्मवर्म आचार्य ने जो यह 'चं शे' सूत्र कहा है वह व्यर्थ है यदि आप कलाप व्याकरण जानते हैं तो इसका उत्तर दीजिये ॥ १ ॥ १. श्लोक : - पररूपं हि कर्त्तव्यं व्यञ्जनं स्वरवर्जितम् ॥ सस्वरं तु परं दृष्ट्वा विस्वरं क्रियते बुधैः ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनसंधि मूढधीस्त्वं न जानासि छत्वं किल विभाषया। अच्छत्वपक्षे वचनं नूनं चं शे व्यवस्थितम् ।।२।। तच शेते । तच शयनम् ।। क्रुङ् आस्ते । सुगण अत्र । पचन् इह । कृषन् आसते । इति स्थिते । अन्त्यात्पूर्व उपधा ।।७९ ॥ धातुलिंगयोरन्त्यवर्णात्पूर्वो वर्ण उपधासंज्ञो भवति । जना हास्योपधाः स्वरे द्विः ।।८।। हस्वोपधाः पदान्ता ङणना: स्वरे परे धिर्भवन्ति । क्रुजास्ते । सुगण्णत्र । पचत्रिह । कृषत्रास्ते । अत्र रघुवर्णेभ्य इत्यादिना णत्वे प्राप्ते [असिद्ध बहिरंगमन्तरंगे] अन्तरंगे कार्ये कृते सति बहिरंग कार्यमसिद्ध भवंति । इति णत्वे सति द्वित्वनिषेधः । पूर्वं णत्वे कृते पश्चाद् द्वित्वे प्राप्ते सति । सकृद् बाधितो विधिर्बाधित एवं सत्पुरुषवत् ॥ भवान् चरति । भवान् छादयति । इति स्थिते। नोऽन्तश्चछयोः शकारमनुस्वारपूर्वम्॥८१ ।। पदान्तो नकारश्चछयो: परयो; शकारमापद्यते अनुस्वारपूर्वम् । भवांश्चरति । भवांश्छादयति ।। भवान् टीकते। भवान् ठकारेण । इति स्थिते। इस प्रश्न पर श्री भावसेन आचार्य अपनी प्रक्रिया टीका में कहते हैं कि हे मूद बुद्धे ! तू नहीं जानता कि शकार को छकार नहीं होता है तब यह सूत्र अपना कार्य करता है अर्थात् तकार को चकार कर देता है ॥२॥ क्रुङ् + आस्ते, सुगण + अत्र, पचन् + इह, कृषन् + आस्ते। अन्त्य से पूर्व को 'उपधा' संज्ञा है ॥७९॥ धातु और लिंग के अंतिम शब्द से पूर्व वर्ण को–स्वर को 'उपधा' संज्ञा है । यहाँ क्रुङ् में ङ् से पूर्व उ को , सुगण में ण् से पूर्व अ को उपधा संज्ञा समझना। पदांत ङ् ण न की ह्रस्व उपधा से परे स्वर के आने पर ङ्ण न् दो हो जाते हैं ॥८० ॥ ___ क्रुङ् + आस्ते = क्रुडास्ते, सुग अ ण् ण् + अ = सुगण्णत्र, पच् अन् न् + इह = पनिह, कृष् अन् न् + आस्ते = कृषत्रास्ते। ___ यहाँ 'कृषन्नास्ते' में न को 'रघुवर्णे' इत्यादि सूत्र से णकार प्राप्त था किन्तु अंतरंग कार्य के हो जाने पर बहिरंग कार्य असिद्ध होता है इस नियम के अनुसार णकार कर देने पर द्वित्व का निषेध हो जाता है एवं पहले णकार करके पश्चात् द्वित्व के प्राप्त होने पर भी द्वित्व नहीं हो सकेगा क्योंकि असत् पुरुष के समान एक बार बाधित विधि बाधित ही समझना चाहिए । भवान् + चरति, भवान् + छादयति । च, छ के आने पर पदांत नकार अनुस्वारपूर्वक शकार हो जाता है ॥८१ ।। भवांश्चरति, भवांश्छादयति । भवान् + टीकते, भवान् + ठकारेण । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला टठयोः षकारम ॥८२ ॥ पदान्तो नकार; टठयो; परयोः षकारमपहले स्वारपतम्। भटांट्रीनाले । भसकाकारेग। भला तरति । भवान् थुडति । इति स्थिते। तथयोः सकारम्॥८३ ।। पदान्तो नकारस्तथयो: परयोः सकारमापद्यतेऽनुस्वारपूर्वम् । भवांस्तरति । भवास्थुडति । नृन् पाहि । इति स्थिते । नृनः पे वा ॥८४॥ नृन्शब्दस्य पदान्तो नकारोऽनुस्वारपूर्व सकारं वाऽऽपद्यते पकारे परे । नृस्पाहि । नृपाहि ।। प्रशान: शादीन् ।।८५ ।। प्रशानो नकार: शादीन्न प्राप्नोति। प्रशान् चरति । प्रशान्छादयति । प्रशान्टीकते । प्रशान्ठकारेण । प्रशान् तरति । प्रशान् थुडति ।। भवान् लुनाति । भवान् लिखति । इति स्थिते। ले लम्॥८६ ।। . पदान्तो नकारो लकारमापद्यते लकारे परे। अनुस्वारहीनम् ।।८७ ।। अधिकारस्येष्टत्वात् शकारादीनां हीनत्वादनुस्वारो नास्ति । भवाल्लुनाति । भवाल्लिखति ।। भवान् जयति । भवान् झषयति । भवान् अकारेण । भवान् शेते । इति स्थिते। ट् ट के आने पर षकार हो जाता है |८२ ।। पद के अंत का नकार अनुस्वारपूर्वक षकार हो जाता है ट ठ के परे होने पर। भवांष्टीकते, भवांष्ठकारण। भवान् + तरति, भवान् + थुइति । तथ के परे सकार हो जाता है ॥८३॥ पदांत नकार अनुस्वारपूर्वक सकार हो जाता है त, थ के आने पर । भवांस्तरति, भवास्थुडति। नृन्+पाहि नृन् शब्द का पदांत नकार अनुस्वारपूर्वक सकार विकल्प से होता है। पकार के आने पर ॥८४॥ नॅस्पाहि, नृन्याहि । प्रशान् + चरति इत्यादि । प्रशान् का नकार च, छ, ट आदि के आने पर श, ष आदि नहीं बनता है ॥८५ ॥ प्रशान् चरति, प्रशान् छादयति, प्रशान्टीकते, प्रशान्ठकारेण, प्रशान्तरति, प्रशान् थुति । भवान् + लुनाति, भवान्+लिखति। लकार के आने पर पदांत नकार 'ल' हो जाता है ॥८६ ॥ और यह लकार अनुस्वार ही होता है ॥८७ ॥ यद्यपि यहाँ अनस्वार का अधिकार इष्ट है—चला आ रहा है फिर भी यहाँ नकार, श, ष स नहीं प्राप्त करता है अत: अनुस्वार भी नहीं होता है । इसीलिए सूत्र पृथक् बनाया है। भवाल्लुनाति, भवाल्लिखति ।। भवान् + जयति, भवान् + झषयति, भवान् + बकारेण, भवान् + शेते । r aind अनुस्वार का अधिकार नहीं प्राप्त Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनसंधि जझञशकारेषु अकारम् ॥८८ ॥ पदान्तो नकारो जझञशकारेषु परेषु ञकारमापद्यते । भवाञ्जयति । भवाञ्झषयति । भवाञ्चकारेण । भवाशे ॥ कुर्वन् शूरः । उभयविकल्पे त्रैरूप्यम् । इति स्थिते । शिन्तौ वा ॥ ८९ ॥ पदान्तो नकारो वौ वा प्राप्नोति शकारे परे । तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गों । इति पञ्चमः स्यात् । कुर्वशूरः कुर्वञ्छूरः कुर्वशूरः ॥ भवान् डीनः । भवान् ढौकते । भवान् णकारेण । इति स्थिते । saणेषु णम् ॥ ९० ॥ अत्र वा स्मर्यते । पदान्तो नकारो णकारमापद्यते डढणेषु परतः । भवाण्डीनः । भवाण्ढौकते । भवाण्णकारेण || त्वम् लुनासि । त्वम् रमसे । त्वम् यासि । त्वम् यससि । इति स्थिते । मोऽनुस्वारं व्यञ्जने ॥९१ ।। I पदान्तो मकारो ऽनुस्वारमापद्यते व्यञ्जने परे । त्वं लुनासि । त्वं रमसे। त्वं यासि । त्वं वससि । (सम्राट् संज्ञायाम् ) सम्पूर्वात् राजतेच क्विप्यनुस्वाराभावो निपात्यते । सम् राजते सम्राट् ॥ ज, झ, ञ और श के आने पर पदांत नकार अकार हो जाता है ॥८८॥ भवाञ्जयति, भवाञ्झषयति, भवाञ्ञकारेण, भवाञ्शेते । कुर्वन् + शूरः । दो प्रकार से विकल्प होने से इसके तीन रूप बनेंगे । आगे शकार के आने पर पदांत नकार विकल्प से 'न् च्' हो जाता है ॥८९ ॥ अर्थात् न् के पास च् का आगम हो जाता है। अतः कुर्वन् च् + शूरः बना पुनः "तवर्गचटवर्गयोगे चटव” इस २९२ वें सूत्र से पदांत तवर्ग, चवर्ग और टवर्ग के योग में चवर्ग, टवर्ग बन जाता है अर्थात् यदि चवर्ग का योग है तो तवर्ग भी चवर्ग हो जाता है और यदि आगे टवर्ग है तो पदांत तवर्ग भी टवर्ग हो जाता है तथा पूर्व में जो अक्षर है उसी के समान होता है जैसे यहाँ न् तवर्ग का अंतिम अक्षर है तो उसे चवर्ग का अंतिम अक्षर 'ञ्' करेंगे। इस नियम से एक रूप - " -'कुर्वञ्च्शूरः' बना। 'वर्गप्रथमेभ्यः' इत्यादि ७१ वें सूत्र से शकार को विकल्प से छकार होकर दूसर रूप- " -'कुर्वञ्च्छूर: ' 1 उपर्युक्त ८८वें सूत्र से 'कुर्वशूर: ' ऐसे तीन रूप बन गये । भवान् + डीनः भवान् + ढौकते । २५ ढण के आने पर पदांत नकार को णकार हो जाता है ॥ ९० ॥ भवाण्डीन, भवाण्डौकते, भवाष्णकारेण 1 त्वम् + लुनासि इत्यादि । व्यंजन के आने पर पदांत मकार को अनुस्वार हो जाता हैं ॥९१ ॥ त्वं लुनासि, त्वम् + यासि = त्वंयासि त्वम् + रमसे = त्वं रमसे, त्वम् + वससि = त्वं क्ससि | सम्राट् इस नाम वाचक शब्द में अनुस्वार नहीं होता है। अर्थात् सम उपसर्गपूर्वक राजते धातु है । क्विप् प्रत्यय के होने पर कृदंत प्रकरण में यह सम्राट् शब्द बना है अत: क्विप् प्रत्यय के निमित्त अनुस्वार का न होना निपात से सिद्ध है अतः सं राजते इति 'सम्राट्' में अनुस्वार नहीं हुआ। देवानाम् इत्यादि । A - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला विरामे वा ।।१२।। ___पदान्तो मकारोऽनुस्वारमापद्यते न वा विरामे। देवानां, देवानाम् । पुरुषाणां, पुरुषाणाम्। देव, देवम् ॥ त्वम् करोषि । त्वम् चरसि । त्वम् टीकसे । त्वम् तरसि । त्वम् पचसि । इति स्थिते । वर्गे तद्वर्गपञ्चमं वा॥९३ ।। पदान्तो मकारो वर्गे परे तद्वर्गपञ्चममापद्यते न वा । त्वङ्करोषि, त्वं करोषि । त्वञ्चरसि । त्वं चरसि । त्वण्टीकसे, त्वं टीकसे । त्वन्तरसि, त्वं तरसि । त्वम्पचसि, त्वं पचसि ॥ त्वम् यासि । त्वम् वरसि । त्वम् लोकसे। इति स्थिते। यवलेषु वा ।।९४ ।। पदान्तोमकारः पररूपमापद्यते वा यवलेषु परत: । त्वय्यासि, त्वं यासि । त्वव्वरसि, त्वं वरसि। त्वैल्लोकसे, त्वं लोकसे ।। ॥इति व्यञ्जनसंधिः॥ अथ विसर्जनीयसन्धिरुच्यते क: चरति । क: छादयति । इति स्थिते । विराम में पदांत मकार का अनस्वार विकल्प से होता है ॥२२॥ जिस पद के आगे दूसर पद न हो उस विराम कहते हैं। जैसे देवानाम् में म् विराम-भर में स्वार हुआ तो देवानां अथवा देवानाम् । पुरुषाणा, पुरुषाणाम । देवं. देवम । विशेष—यह वैकल्पिक नियम इस कातंत्र व्याकरण के अतिरिक्त अन्यत्र किसी भी व्याकरण में नहीं है, सर्वत्र विराम में अनस्वार न करने का विधान है अतः इसी व्याकरण में यह विशेष नियम है। त्वम् +करोषि, त्वम् + चरसि इत्यादि। आगे वर्ग के परे पदांत मकार को उसी वर्ग का पंचम अक्षर विकल्प से हो जाता त्वङ्करोषि, विकल्प में ९१३ सूत्र से अनुस्वार होकर त्वं करोषि बना । तथैव त्वञ्चरसि, त्वं चरसि । त्वम् + टीकसे = त्वण्टीकसे, त्वं टीकसे। त्वम् + तरसि = त्वन्तरसि, त्वं तरसि । त्वम् + पचसि= त्वम्पचसि, त्वं पचसि । त्वम् + यासि । य, व, ल के आने पर पदांत मकार विकल्प से पर रूप हो जाता है ॥९४ ॥ त्वम् + यासि = त्वय्यासि, त्वं यासि। त्वम् + वरसि = त्वव्वरसि, त्वं वरसि। त्वम् + लोकसे = वल्लोकसे, त्वं लोकसे।। इस प्रकार से व्यंजन संधि पूर्ण हुई । अथ विसर्ग संधि विसर्ग संधि किसे कहते हैं ? विसर्ग से परे व्यंजन या स्वर के आने पर जो सम्बन्ध या परिवर्तन होता है उसे विसर्ग संधि कहते हैं। कः + चरति । १.सन्निधानात्सानुनासिकस्य मस्य स्थाने सानुनासिका एवं यवलाः। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसर्जनीयसंधि विसर्जनीयचे छे वा शम् ॥१५॥ चे वा छे वा परे विसर्जनीय: शमापद्यते । कश्चरति । कश्छादयति । इति सिद्धम् ॥ क: टीकते । क: ठकारेण । इति स्थिते । टे ठे वा षम्॥९६ ॥ टे वा ठे वा परे विसर्जनीय: षकारमापद्यते । कष्टोकते । कष्ठकारेण ॥ कः तरति । कः थुद्धति । इति स्थिते। ते थे वा सम्॥९७॥ ते वा थे वा परे विसर्जनीय: समापद्यते । कस्तरति । कस्थुडति ॥ कः करोति । क; खगति । इति दिः स्थिते। कखयोर्जिह्वामूलीयं न वा ॥१८॥ कखयो: परयोर्विसनीया जिह्वामूलायमापद्यत न । जिह्वामूलीयोपध्मानीयौ च ॥९९ ॥ जिह्वामूलीयमुपध्मानीयं च परं वर्णं नयेत् । क करोति, क: करोति । क खनैति, कः खनति ॥ क: पचति । कः फलति । इति स्थिते। पफयोरुपध्मानीयं न था॥१०० ।। • पफयोः परयोविसर्जनीय उपध्मानीयमापद्यते न वा । के पचति, क; पचति । के फलति, कः फलति ।। क: शावित्याचष्टे । क: पावित्याचष्टे । पुरुष: त्सरुक: । यत: क्षम: 1 तत: प्साति । इति स्थिते । न शादीन् शषसस्थे॥१०१॥ च अथवा छ के परे पदांत विसर्ग को 'श' हो जाता है ॥२५॥ कश्मरति, क;+ छादयति = कश्छादयति । क: टोकते, क: + ठकारेण । ट अथवा ठ के रहते पदांत विसर्ग को षकार होता है ॥९६ ।। कष्टीकते, कष्ठकारेण। त अथवा थ के आने पर पदांत विसर्ग 'स्' हो जाता है ॥९७ ॥ कः+ तरति = कस्तरति, कस्थुडति । कः + खनति । क और ख के परे रहने पर पदांत विसर्ग विकल्प से जिह्वामूलीय बन जाता है ॥९८ ॥ जिह्वामूलीय और उपध्मानीय पर वर्ण को प्राप्त हो जाते हैं ॥९९ ॥ क+करोति = क करोति, क: करोति । कः + खनति = क खनति कः खनति । ऊपरवज्राकार चिह्न जिह्वामूलीय है। का पति, क: फलति । प और फ के आने पर पदांत विसर्ग विकल्प से उपध्मानीय हो जाता है ॥१०० ॥ क + पचति =के पचति, क: पचति। क: + फलति- के फलति कः + शोवित्याचष्टे, कः + क्षावित्याचष्टे, पुरुषः + त्सरुकः ततः + प्साति । यदि आगे च, ट, त, प ये वर्ण श, ष, स में स्थित हैं-मिले हुए हैं तो विसर्ग को श ष से नहीं होता है ॥१०१ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला विसर्जनीय: शादीन् न प्राप्नोति शषसत्थे निमित्ते परे । क: श्च्योतति । क: ष्ठीवति । क; स्तौति । इति स्थिते। अघोषस्थेषु शषसेषु वा लोपम् ।।१०२ ॥ अघोषस्थेषु शषसेषु परतो विसर्जनीयो लोपमापद्यते वा। उभयविकल्पे त्रिरूपम्। कश्च्योतति, कश्श्च्यतति, काश्च्योतति । कष्ठीवति, कण्ठीवति, क: ष्ठीवति । कस्तौति, कस्स्तौति, क: स्तौति ।। क: शेते । कः षण्डः । कः साधुः । इति स्थिते । शे षे से वा वा पररूपम्॥१०३॥ शे या षे वा से वा परे विसर्जनीय: पररूपमापद्यते न वा । कश्शेते, क: शेते । कप्पण्डः, क षण्डः । कस्साधुः कः साधुः । कः अर्थः । कः अत्र । इति स्थिते । उमकारयोर्मध्ये ॥१०४॥ द्वयोरकारयोर्मध्ये विसर्जनीय उमापद्यते । कोऽर्थः ॥ कोऽत्र ॥ क: गच्छति । क: धावति । इति स्थिते । अघोषवतोश्च ॥१०५ ॥ अकारघोषवतोर्मध्ये विसर्जनीय उमापद्यते । को गच्छति । को धावति ।। क: इह । क: उपरि 1 क; एष: । इति स्थिते। अपरो लोप्योऽन्यस्वरे यं वा ॥१०६ ।। अत: क: च्शावित्याचष्टे इत्यादि ज्यों के त्यों रह गये, संधि नहीं हुई। क+श्च्योतति अघोष में स्थित ऐसे श ष स के आने पर विसर्ग का लोप विकल्प से होता है ॥१०२ ॥ यहाँ दो बार विकल्प होने से तीन रूप बन जाते हैं। एक बार विसर्ग का लोप, दूसरी बार १०१वें सूत्र के नियम से संधि का अभाव और तीसरी बार ९५वें सूत्र से विसर्ग का शकार क+श्च्योतति-कश्च्योतति, क:+श्च्योतति = कश्श्च्योतति, कः+ष्ठीवति । क:+स्तौति = कस्तौति । क: स्तौति, कस्स्तौति । क+शेते श ष और स के आने पर विसर्ग को पर रूप विकल्प से होता है ॥१०३ ॥ क+शेते = कश्शेते, कः शेते । क: + षण्डः = कष्षण्ड, कः षण्डः । क:+ साधुः = कस्साधु: कः साधुः, क: + अर्थ: । दो अकार के मध्य में स्थित विसर्ग को 'उ' हो जाता है॥१०४ ।। क+अर्थ:क + अर्थः 'उवणे ओ' इस सूत्र से संधि होकर को + अर्थ:, पुन: 'एदोत्परः' इत्यादि ५७वें सूत्र से 'अ' का लोप होकर कोऽर्थः बना । क: + अत्र, क उ+ अत्र—को अत्र = कोऽत्र । कः गच्छति अकार से परे घोषवान् अक्षर के रहने परं मध्य में स्थित विसर्ग को 'उ' हो जाता है ॥१०५ ॥ क उ+ गच्छति 'उ वणे ओ' से को+गच्छति = को गच्छति । क: धावति = को धावति । क:+ इह अकार से परे विसर्ग का लोप हो जाता है अथवा 'य' हो जाता है अकार से भिन्न अन्य कोई स्वर आने से ॥१०६ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसर्जनीयसंधि अकारात्परो विसर्जनीयो लोप्यो भवति यं वाऽऽपद्यते अन्यस्वरे परे । वाशब्दोऽत्र समुच्चयार्थः । न च विकल्पार्थः ।। विसर्जनीयलोपे पुनः सन्धिः ॥१०७ ॥ विसर्जनीयलोपे कृते पुन: सन्धिर्न भवति । क इह, कयिह । क उपरि, कयुपरि । क एषः, कयेषः । देवा: आहुः । भोः अत्र । इति स्थिते। आभोभ्यामेवमेव स्वरे ॥१०८ ।। आकारभोशब्दाभ्यां परो विसर्जनीय एवमेव भवति (लोपं यं वाऽपद्यते) स्वरे परे । देवा आहुः देवायाहुः । भो अत्र, भोयत्र ।। भगो: अत्र । अघो: अत्र । इति स्थिते । भगोअघोभ्यां वा ॥१०९॥ भगोअघोभ्यां विसर्जनीय एवमेव भवति (लोपं यं वाऽपद्यते) स्वरे परे । भगो अत्र, भगोयत्र । अघो अत्र, अघोयन्त्र ॥ देवा: गताः । भोः यासि । भगा: वश । अधो. यज । इस स्थिते। घोषवति लोपम् ॥११०।। आकारभोभगोअघोशब्देभ्य: परो विसर्जनीयो लोपमापद्यने घोषवति परे । देवा गताः । भो यासि । भगो वज । अघो यज । लोपग्रहणं य वेति (एवमेवेति) निवृत्त्यर्थम् ।। सुपिः । सुतुः । इति स्थिते। यहाँ 'का' शब्द समुच्चय के लिये है विकल्प के लिये नहीं। विसर्ग के लोप होने पर पुन: संधि नहीं होती है ॥१०७ ॥ कः + इह = क इह, क य् + इह = कयिह । क: + उपरि = क उपरि, क य+ उपरि - कयुपरि । कः + एषः = क एषः, क य् + एष:= कयेषः । देवा: + आहुः। आगे स्वर के आने पर आकार और भो शब्द से परे विसर्ग का लोप हो जाता है अथवा यकार हो जाता है ॥१०८॥ देवा: + आहुः = देवा आहुः, देवा य+ आहुः = देवायाहुः । भो: +अत्र = भो अत्र, भो य+ अत्र = भोयत्र । भगो: + अत्र, अघो: + अत्र । भगो, अधो से परे विसर्ग का लोप हो जाता है अथवा यकार हो जाता है आगे स्वर के आने पर ॥१०१ ॥ भगोः + अत्र = भगो अत्र, भगोयत्र । अघोः + अत्र = अघो अत्र, अघोयत्र । देवा: + गताः घोषवान के आने पर आकार और भो, भगो और अघो इनसे परे विसर्ग का लोप नित्य हो जाता है ॥११०॥ देवा:+गता: =देवागताः, भो:+ यासि = भो यासि, भगो:+ वज= भगोवज, अधो: + यज = अघो यज । यहाँ पर सूत्र में लोप शब्द का ग्रहण विकल्प से यकार की निवृत्ति के लिये किया गया है। सुपिः, सुतुः १. न तदः पादपूणे चेत् । तदो विसर्जनीयलोपेपुनस्सन्धिकार्यनिषेधो न भवति पादपूणे चेत् ॥ श्लोकः। सैष दाशरथी रामः सैष राजा युधिष्ठिरः। सैष कर्णो महात्यागी सैष पार्थो धनुर्धरः ।। २. लोपग्रहणं एवमेवेति निवृत्यर्थम् । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला नामिपरो रम् ॥ १११ ॥ नामिनः परो विसर्जनीयो रमापद्यते निरपेक्षः । ईरूरर्थं वचनम् । इरुरोरीरूरौ ॥११२ ॥ अत्र धातोरिरुरोरीरूरौ भवतो विरामे व्यञ्जनादौ च रेफसोर्विसर्जनीयः । सुपी सुतूः ॥ अग्निः गच्छति । अग्निः अत्र । रविः गच्छति । रविः अत्र मुनिः आयाति मुनिः गच्छति । पटुः वदति । पटुः अत्र । इति स्थिते । ३० घोषवत्स्वरेषु ॥ ११३ ॥ नामिनः परो विसर्जनीयो रमाऽपद्यते घोषवत्स्वरेषु। अग्निर्गच्छति । अग्निरत्र । रविर्गच्छति । रविरत्र | मुनिरायाति । मुनिर्गच्छति । पटुर्वदति । पटुरत्र ।। पितः याहि ॥ पितः अत्र । पुनः गच्छति । पुन: अत्र । इति स्थिते । प्रकृतिरनामिपरोऽपि ॥ ११४ ॥ रेफप्रकृतिर्विसर्जनीयो नामिपरोऽप्यनामिपरोऽपि रमापद्यते घोषवत्स्वरेषु परतः । पितर्याहि । पितरत्र | पुनर्गच्छति । पुनरत्र || अहः गणः । अहः अत्र अहः जयति । अहः आयाति । अहः हसति । अहः अपि । इति स्थिते । अह्नो रे ।।११५ ।। नामि स्वर से परे विसर्ग को 'र' हो जाता है ॥ १११ ॥ अर्थात् अवर्ण को छोड़कर शेष किसी भी स्वर से परे विसर्ग को रकार हो जाता है और यह किसी की अपेक्षा नहीं रखता है मतलब आगे किसी स्वर व्यंजन की अपेक्षा नहीं रहती है। सुपिर, सुतुर् हर और उर् को ईर और कर हो जाता है ॥११२ ॥ अर्थात् विराम और व्यंजन के आने पर धातु के इर् उर् को दीर्घ ईर् ऊर् हो जाता है। सुपीर, सुतूर्— 'रेफसोर्विसर्जनीय:' इस १३० वें सूत्र से र् का विसर्ग हो जाता है अतः सुपो, सुतूः बन जाता है। अग्निः + गच्छति स्वर और घोषवान् के आने पर नाम से परे विसर्ग को रकार हो जाता है ॥ ११३ ॥ अग्निः + गच्छति = अग्निर्गच्छति । अग्निः + अ = अग्निरत्र । रविः + गच्छति = रवि र्गच्छति । रविः + अ = रविरत्र । मुनिः + आयाति = मुनिरायाति । मुनिः + गच्छति = मुनिर्गच्छति । पटुः + वदति पटुर्वदति । पटुः + अ = पटुत्र | = घोषवान् और स्वर के आने पर रेफ से बना हुआ विसर्ग चाहे नामि से परे हो चाहे अनाम से फिर भी 'र' हो जाता है ॥ ११४ ॥ पितः + याहि = पितर्याहि पितः + अत्र पितरत्र पुनः + गच्छति = पुनर्गच्छति, पुनः + अत्र पुनरत्र । अहः + गणः । रेफ रहित घोषवान् व्यञ्जन और स्वर के आने पर अहम् के विसर्ग का रकार हो जाता है ॥११५ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसर्जनीयसंधि ३१ अहो विसर्जनीयो रमापद्यते अरेफे घोषवति च स्वरे परे। अहर्गणः। अहरत्र। अहर्जयति अहरायाति । अहहसति । अहरपि । रेफे तु अहो राजते। अहो रात्रम् । अहो रूपम् ॥ अहः भ्याम् । अहः भिः । इति स्थिते ।। न स्यादिभे ।।११६ ॥ अहो विसर्जनीयो न रमापद्यते स्यादिभे परे । अहोभ्याम् । अहोभिः । स्यादिभे इति किम् । अहर्भुक्तिः । अहर्भवति ।। अह: पति: । इति स्थिते। अहरादीनां पत्यादिषु ॥११७॥ अहरादीना मसजनाचा जा रमापंधो पत्यादिषु परत: । अहर्पति: अहः पतिः । इत्यादि ।। एषः करोति । सः गच्छति । इति स्थिते । ___ एषसपरो व्यञ्जने लोप्यः ।।११८॥ एषसाभ्याम् परो विसर्जनीयो लोप्यो भवति व्यञ्जने परे । एष करोति । स गच्छति । अग्नि: रथेन । पुनः रात्रि: । इति स्थिते। रो रे लोपं स्वरश्च पूर्वो दीर्घः ॥११९॥ रे परे रो लोपमापद्यते पूर्वस्वरश्च दी| भवति । अग्नीरथेन । पुनारात्रिः । । वट छाया । कवि छन्दः । तनु छवि: । इति स्थिते । अर्थात् दिनवाची अहन् के न के विसर्ग का यह नियम है जबकि आगे रकार नहीं होना चाहिये। अहः + गण: = अहर्गणः, अहः + अत्र = अहरत्र । अह: + जयत्ति = अहर्जयति । अहः + आयाति = अहरायाति, अहः + हसति = अहर्हसति । अहः + अपि = अहरपि । यदि आगे रेफ है तो विसर्ग को 'उ' होकर संधि हो जाती है। अहः + राजते = अह उन राजते = अहोराजते । अह: रात्रम् = अह उ+ रात्रम् = अहोरात्रम् । अहः + रूपम् = अहोरूपम् । अहः + भ्याम् । सि आदि विभक्ति के भ्याम, भिस् के आने पर विसर्ग का रकार नहीं होता है ॥११६ ॥ __अहः + भ्याम् = अहोभ्याम्, अह: + भिस् = अहोभि: । सि आदि विभक्ति के भ्याम् भिस् के नहीं आने पर रकार हो जायेगा जैसे अहः + भुक्तिः = अह(क्तिः । अहः + भवति = अहर्भवति । अहः + पतिः । पति आदि शब्दों के आने पर अहः के विसर्ग को विकल्प से रकार हो जाता है ॥११७॥ अहः + पति: = अहतिः, अहःपतिः । एष: + करोति । व्यंजन के आने पर एष और स के विसर्ग का लोप हो जाता है ॥११८ ॥ एष: + करोति = एष करोति, स: + गच्छति = स गच्छति। अग्नि:+स्थेन 'नामि परो रम्' इस सूत्र से विसर्ग को रकार होकर पुनःरकार के आने पर पूर्व के रकार का लोप होकर पूर्व को दीर्य हो जाता है ॥११९ ॥ अग्नि र + रथेन = अग्नी रथेन, पुनर् + रात्रि = पुनारात्रि: । वट+छाया Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला द्विर्भावं स्वरपरश्छकारः ।।१२० ॥ स्वरात्परश्छकारो द्विर्भावमापद्यते । अघोषे प्रथमः ॥१२१॥ अघोषे परे धुटां प्रथमो भवति । वटच्छाया। कविच्छन्दः । तनुच्छवि: ॥ बाला छादयति । वेला छादयति । इति स्थिते। दीर्घात्पदान्ताद्वा ।।१२२॥ पदान्ताद्दीर्घात्परश्छकारो वा द्विवमापद्यते । बालाच्छादयति, बाला छादयति । वेलाच्छादयति, वेलाछादयति । इति सिद्धम् ॥ आ छादयति । मा छिदत् । इति स्थिते। आङ्माभ्यां नित्यम् ॥१२३ ।। ___ आमाझ्या परश्छकारो नित्यं द्विर्भावमापद्यते । आच्छादयति । माच्छिदत् । इति सिद्धम् । दध्यत्र इति स्थिते । अस्वरे ॥१२४॥ व्यञ्जनं द्विर्भवति व्यञ्जने परे । दड्यंत्र ।। इति विसर्जनीयसन्धिः स्वर से परे छकार के आने पर वह छकार को द्वित्व हो जाता है ॥१२० ॥ वट छ् + छाया अघोष से परे धुट को प्रथम अक्षर हो जाता है ॥१२१ ॥ वटच्छाया, कवि+ छन्दः = कवि+छ् छन्दः = कविच्छन्दः तनु + छवि: = तनुच्छविः । बाला+छादयति दीर्घ पद से परे छकार विकल्प से होता है ॥१२२ ॥ बाला+छ छादयति 'अघोषे प्रथमः' इस सूत्र से पूर्व छ को प्रथम अक्षर होकर बालाच्छादयति, दूसरा रूप—बाला छादयति । बेला + छादयति = बेलाच्छादयति । बेला छादयति । आ+ छादयति, मा+ छिदत् आङ् माङ् से परे छकार के आने पर नित्य ही छकार द्वित्व होता है ॥१२३ ॥ आ+ छ् छादयति = आच्छादयति, मा+छ् छिदत् = माच्छिदत् । दध्यत्र व्यंजन के परे व्यंजन को द्वित्व हो जाता है ॥१२४ ॥ दुध्ध् यत्र 'धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु' इस ७७वें सूत्र से चतुर्थ अक्षर को तृतीय हो गया । दङ्ख्यत्र बना। इस प्रकार से विसर्गसंधि पूर्ण हुई ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ताः पुल्लिङ्गाः अथ लिङ्गाद्विभक्तय उच्यन्ते सर्वज्ञं तमहं वन्दे परं ज्योतिस्तमोपहम्। प्रवृत्ता यन्मुखाहेवी सर्वभाषा सरस्वती ॥१॥ किं लिङ्गम् ? धातधिभक्तिवर्जमर्थवाल्लङ्गम् ॥१२५॥ ___ अर्थोभिधेयः ।। धातुविभक्तिवर्जमर्थवच्छब्दरूपं लिङ्गसंज्ञ भवति । तच्च लिङ्गं द्विविधम् । स्वसन्त व्यज्जनान्तं चेति। तत्पुनः प्रत्येकं त्रिविधिम् । पुल्लिङ्गं स्त्रीलिङ्गं नपुंसकलिङ्ग चेति । तत्रादावकारान्तात्पुल्लिङ्गात्पुरुषशब्दाद्विभक्तयो योज्यन्ते । लोकोपचारात्स्यादीनां विभक्तिसंज्ञायां पुरुष इति स्थिते ।। तस्मात्परा विभक्तयः ॥१२६ ।।। अथ लिंग प्रकरण अब लिंग से विभक्तियाँ कही जाती हैं। परं ज्योति-सर्वोत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप, मोह और अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करने वाले उन सर्वज्ञ भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ कि जिनके मुखारविंद से सर्वभाषामय सरस्वती प्रकट हुई है ॥१॥ भावार्थ---मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने के बाद ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों का नाश हो जाता है तब इस आत्मा में सम्पूर्ण लोकालोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान प्रकट हो जाता है और यह आत्मा 'सर्वं जानाति इति सर्वज्ञः' इस सार्थक नाम से सर्वज्ञ कही जाती है उस समय इन्द्र की आज्ञा से कुबेर दिव्य समवशरण की रचना करता है। उस समवशरण में १२ सभाओं में असंख्य देवगण, मनुष्य और तिर्यंच भी उपदेश सुनते हैं। भगवान् की दिव्यध्वनि सात सौ लघुभाषाओं और अठारह महाभाषाओं, इस तरह सात सौ अठारह भाषाओं में खिरती है अथवा संपूर्ण श्रोताओं के कान में पहुँचकर उन-उनकी भाषा रूप परिणत होकर सर्वभाषामय हो जाती है। लिंग किसे कहते हैं ? धातु और विभक्ति से रहित अर्थवान् शब्द लिंग कहलाते हैं ॥१२५ ॥ अर्थ किसे कहते हैं ? वाच्य–कहने योग्य विषय को अर्थ कहते हैं। धातु और विक्तियों को छोड़कर जो अपने वाच्य अर्थ को कहने वाले शब्द हैं उनकी यहाँ लिंग संज्ञा है। जैनेन्द्र व्याकरण में इसे ही "मृत" संज्ञा है। उस लिंग के दो भेद हैं—स्वर है अंत में जिनके ऐसे स्वरांत और व्यंजन है अंत में जिनके ऐसे व्यंजनांत । स्वरांत और व्यंजनांत के भी पुल्लिग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग के भेद से तीन-तीन भेद हैं। स्वरांत में भी अकारांतपर्यंत शब्द माने गये हैं और व्यंजनांत में ककारांत से लेकर हकारांतपर्यंत शब्द आते हैं। __ अब यहाँ स्वरांत पुल्लिंग का प्रकरण पहले आवेगा। उसमें भी सर्वप्रथम अकारांत पुल्लिंग शब्द से विभक्तियाँ लगाई जावेंगी।। लोक व्यवहार में सि आदि की विभक्ति संज्ञा होने पर 'पुरुष' यह शब्द स्थित है। इससे परे विभक्तियों आती हैं ॥१२६ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ कातन्त्ररूपमाला सि औ जस्। अम् औ शस् । टा भ्याम् भिस् । डे भ्याम् भ्यस् । इसि भ्याम् भ्यस् । उस्स् आम् । ङि ओस् सुप् । तस्मादर्शवतो लिङ्गात्पराः स्यादयो विभक्तयो भवन्ति । ताः पुनः सप्त । सि औ ज इति प्रथमा । अम् औं शस् इति द्वितीया । टा भ्याम् भिस् इति तृतीया । ङे भ्याम् भ्यस् इति चतुर्थी । इस भ्याम्भ्यस इति पश्चमी । ङस् ओम् आम् इति षष्ठी । ङि ओम् सुप् इति सप्तमी । एवं युगपत् सर्वप्रत्ययप्रसङ्गे वक्तुर्विवक्षया शब्दार्थप्रतिपत्तिरिति लिङ्गार्थविवक्षायाम् । प्रथमा विभक्तिर्लिनने ।। १२७ ।। लिङ्गार्थवचने प्रथमा विभक्तिर्भवति । इति लिङ्गार्थे प्रथमा । तत्रापि युगपदेकवचनादियाप्ती । एकं द्वौ बहून् ।। १२८ । अर्थान् वक्तीति, एकस्मिन्नर्थे एकवचनं द्वयोरर्थयोर्द्विवचनं बहुष्वर्थेषु बहुवचनं भवति । इति लिङ्गार्थैकविवक्षायां प्रथमैकवचनं सि । पुरुष सि इति स्थिते । योऽनुबन्धोऽप्रयोगी ॥ १२९ ॥ यः अनुबन्धः स अप्रयोगी भवति । अनुबन्धः कः 'इंजेशरपा विभक्तिष्वनुबन्धाः । वा विरामे इति वर्तमाने । सि औ जस्--- ये प्रथमा विभक्तियाँ हैं । अम् औं शस्ये द्वितीया विभक्तियाँ हैं। टा भ्याम् भिस्ये तृतीया विभक्तियाँ हैं। ङेभ्याम्भ्यस् — ये चतुर्थी विभक्तियाँ हैं। ङसि भ्याम् भ्यस् — ये पंचमी विभक्तियाँ हैं। डओ आम्— ये पष्ठी विभक्तियाँ हैं। 1 ङि ओस् सुप्---ये सप्तमी विभक्तियाँ हैं । इस प्रकार से पुरुष शब्द से एक साथ संपूर्ण विभक्तियों के लगने का प्रसंग प्राप्त हो गया तो वक्ता की विवक्षा से शब्द के अर्थ का ज्ञान होता है इसलिये लिंग — शब्दमात्र के अर्थ की विवक्षा के होने पर अगला सूत्र लगता है I लिंग के अर्थ को कहने में प्रथमा विभक्ति होती है ॥ १२७ ॥ इसलिये शब्दमात्र के अर्थ में प्रथम विभक्ति आ गई। उसमें भी एक साथ हो एकवचन आदि सभी प्राप्त हो गये तब -- एक दो और बहुवचन होते हैं ॥ १२८ ॥ अर्थ को कहता है वह लिंग है इस नियम के अनुसार एक के अर्थ में एकवचन, दो में द्विवचन और तीन आदि में बहुत के अर्थ में बहुवचन होता है। इस प्रकार से यहाँ शब्द के अर्थ में एक ही विवक्षा होने पर प्रथमा विभक्ति का एकवचन 'सि' आया तो पुरुष + सि ऐसी स्थिति हुई। जो अनुबंध है वह अप्रयोगी है ॥ १२९ ॥ अनुबंध किसे कहते हैं ? इन सातों ही विभक्तियों में इ ज् श् ट् ड् और प् ये अनुबंध संज्ञक हैं। इससे सि के इ का लोप होकर पुरुष + सु रहा। • "वा विरामे " यह सूत्र सूत्र के क्रम में चला आ रहा है। अर्थात् सूत्रकार सूत्रों को क्रम से लिखते हैं। और टीकाकार अपने अपने प्रकरणों से सूत्रों को आगे-पीछे कर लेते हैं । सूत्रकार के सूत्रों के क्रम से जो सूत्र होता है वह अनुवृत्ति में चला आता है उसी प्रकार से यहाँ पर 'वा विरामे' यह सूत्र अनुवृत्ति में है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गाः ३५ रेफसोर्विसर्जनीयः ।।१३०॥ विरामे व्यञ्जनादौ च रेफसकारयोविसर्जनीयो भवति । पूरवर्णाभावो विराम: । अथवा ,यदनन्तरं वर्णान्तरं नोच्यते स विरामः । पुरुषः इति सिद्धं पदम् । तथैव लिङ्गार्थ द्वित्वविवक्षायां द्विवचन औं । सन्धिः । पुरुषौ । तथैव लिङ्गार्थे बहुत्वविवक्षायां बहुवचनं जस् । अनुबन्धलोप: । पुरुष अस् इति स्थिते । अकारे लोपमिति प्राप्ते तत्प्रतिषेधः । अकारो दोध योषवतीति परो । सर्वविधिभ्यो लोपविधिर्बलवान् । लोपस्वरादेशयोः स्वरादेशो विधिर्बलवान् । जसि ॥१३१॥ लिङ्गान्तोऽकारो दीर्घमापद्यते जसि परे । (एकदेशविकृतमनन्यवत्) । यथा कर्णपुच्छादिस्वाङ्गेषु भिन्नेषु सत्सु श्वा न गर्दभः किंतु श्वा श्वैव । पुन: सवर्णे दीर्घ: । सस्य विसर्जनीयः। पुरुषा: ॥ तथैवामंत्रणार्थविवक्षायाम्। आमन्त्रणे च ॥१३२ ।। दूरस्थानाभभिमुखीकरणमामंत्रणम् । तत्र प्रथमा विभक्तिर्भवति। रेफ और सकार को विसर्ग हो जाता है ॥१३० ।। विराम और व्यंजन आदि के आने पर रेफ और सकार को विसर्ग हो जाता है। यहाँ टीकाकार ने अनवृत्ति के 'वा विरामे' सूत्र से विराम शब्द को टीका में लिया है। विराम किसे कहते हैं ? पर वर्ण के अभाव को विराम कहते हैं। अथवा जिसके बाद दूसरा वर्ण न कहा जावे उसे विराम कहते हैं। पुरुष + स् यहाँ स् को विसर्ग होकर पुरुषः बन गया। उसी प्रकार लिंग के अर्थ दो वचन की विवक्षा होने पर द्विवचन 'औ' विभक्ति आई। पुरुष + औं 'ओकारे औ औकारे च' इस सूत्र से संधि होकर पुरुषों बना । पुनः लिंग के अर्थ में बहुत को विवक्षा में विभक्ति आई जस् । इसमें ज का अनुबंध लोप हो गया तो पुरुष + अस्- यहाँ 'अकारे लोपम्' इस सूत्र से अकार का लोप प्राप्त था, किन्तु 'अकारो दीर्घ घोषवति' सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। 'सभी विधि में लोप विधि बलवान् होती है। इस नियम से लोप विधि बलवान् हो रही थी कि लोप और स्वर आदेश इन दोनों में स्वर आदेश विधि बलवान् जस् के आने पर लिंगांत अकार दीर्घ हो जाता है ॥१३१ ॥ जस् के ज् का अनुबंध लोप हो जाने के बाद अस् रहा पुन: 'जसि' इस सूत्र में जस् के आने पर ऐसा क्यों कहा ? क्योंकि अब यहाँ जस् है ही नहीं । “एक देश विकृतमनन्यवत्" इस नियम के अनुसार ज् का अनुबंध लोप होने पर भी यह जस् ही माना जावेगा जैसे कुत्ते के कान या पूँछ आदि अंगों के छिन्न कर देने पर भी कुत्ता कुत्ता ही कहलाता है। अत: पुरुष+ अस् । सवर्ण को दीर्घ करके स् को विसर्ग करके पुरुषा; बना। उसी प्रकार से आमंत्रण के अर्थ की विवक्षा होने पर आमंत्रण में भी प्रथमा विभक्ति होती है ॥१३२ ॥ आमंत्रण किसे कहते हैं ? दूर में स्थित जनों को अपने अभिमुख करना, बुलाना आमंत्रण कहलाता है। पुरुष + सि। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ कातन्त्ररूपमाला - - . आमन्त्रणे सि: सम्बुद्धिः ।।१३३ ।। आमंत्रणार्थे विहित: सि: सम्बुद्धिसंज्ञो भवति ॥ हस्वनदीश्रद्धाभ्यः सिर्लोपम् ।।१३४ ।। ह्रस्वनदोश्रद्धाभ्य: पर: संबुद्धिसंज्ञक: सिलोपमापद्यते । कैश्चिदामन्त्रणाभिव्यक्तये अहो हे भी शब्दा: प्राक्प्रयोज्यन्ते । हे पुरुष । द्विवचनबहुवचनयोः पूर्ववत् । हे पुरुषौ । हे पुरुषाः । तथैव कर्मविवक्षायाम् ।। शेषाः कर्मकरणसंप्रदानापादानस्वाम्यायधिकरणेषु ।।१३५ ।। शेषा द्वितीयाद्या: षड् विभक्तयः कर्मादिषु षट्सु कारकेषु यथासंख्यं भवन्ति । इति कर्मणि द्वितीया । पुरुष अम् इति स्थिते। अकारे लोपम् ।।१३६ ॥ लिङ्गान्तोऽकारो लोपमापद्यते सामान्ये अकारे परे 1 पुरुषम् । द्विवचने सन्धिः । पुरुषौ । बहुत्वे-पुरुष अस इति स्थिते। शशि सस्य च नः ॥१३७॥ शसि परे लिङ्गान्तोऽकारो दीर्घमापद्यते सस्य च नो गवति । पुन: सवणे दीर्घः । पुरुषान् । तथैव करणविवक्षायाम् ॥ शेषा: कमेत्यादिना करणे तृतीया । पुरुष टा इति स्थिते । इन टा॥१३८॥ आमंत्रण में 'सि' की संबुद्धि संज्ञा है ॥१३३ ॥ ह्रस्व स्वर नदी और श्रद्धा से परे 'सि' विभक्ति का लोप हो जाता है ॥१३४ ॥ ह्रस्व स्वर से परे नदी संज्ञक एवं श्रद्धा संज्ञक शब्दों से परे 'सि' विभक्ति का लोप हो जाता है। कोई-कोई जना आमंत्रण अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों से पहले अहो, हे, भो शब्दों का प्रयोग करते हैं। अत:-हे पुरुष ! द्विवचन और बहुवचन पूर्ववत् ही होते हैं। हे पुरुषो, हे पुरुषाः । कर्म की विवक्षा होने पर शेष छहों विभक्तियाँ क्रम से कर्म, करण, संप्रदान, अपादान स्वामी आदि और अधिकरण अथों में होती हैं ॥१३५ ॥ शेष द्वितीया आदि छहों विभक्तियाँ कर्म आदि छह कारकों में होती हैं। इस प्रकार से कर्म अर्थ में द्वितीया विभक्ति आई। पुरुष + अम्। __ अकार के आने पर लोप हो जाता है ॥१३६ ॥ सामान्य अकार के आने पर लिंगांत अकार का लोप हो जाता है। पुरुष+ अम् = पुरुषम् । द्विवचन में सन्धि-पुरुषौ । पुरुष + शस् हैं । 'शानुबंध होकर पुरुष + अस् है । बहुवचन में शस् के आने पर अकार दीर्घ होकर स् को न हो जाता है ॥१३७ ।। पुरुषा+ अन् सवर्ण को दीर्घ होकर पुरुषान् । करण अर्थ की विवक्षा में-तृतीया विभक्ति आई तो पुरुष + टा अकारान्त लिंग से परे 'टा' को 'इन' आदेश हो जाता है ॥१३८ ॥ १. शब्दान्त इत्यर्थः। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गाः अकारान्ताल्लिङ्गात्परष्टा इनो भवति । सन्धिः । रवर्णेभ्यो नो णमनन्त्यः स्वरहयवकवर्गपवर्गान्तरोऽपि ॥१३९ ।। रेफषकारऋवर्णेभ्य: परोऽनन्त्यो नकार; मापद्यते स्वरहयवकवर्गपवर्गान्तरोऽपि शब्दान्तरोऽपि । स्वरान्तरस्तावत् । पुरुषेण । द्विवचने । अकारो दीर्घ घोषवति ।।१४०॥ लिङ्गान्तोऽकारो दीर्घमापद्यते घोषवति परे । पुरुषाभ्याम् । भिसैस्वा ।।१४१ ।। अकारान्ताल्लिङ्गात्परो भिस् ऐस् वा भवति । सन्धिः । पुरुषैः । तथैव सम्प्रदामविवक्षायाम् । शेषा: कर्मेत्यादिना सम्प्रदाने चतुर्थी। डेयः ॥१४२ ॥ अकारान्ताल्लिङ्गात्परो डेयों भवति। घोषवति दीर्घः । पुरुषाय । द्वित्वे पूर्ववत् । पुरुषाभ्याम् । बहुत्वे। पुरुष + इन—'अवर्ण इवणे ए' से संधि होकर पुरुषेन बना । पुन: रेफ, षकार और ऋवर्ण से परे यदि णकार अंत में नहीं है और वह स्वर ह, य, व कवर्ग और पवर्ग के अनतर है तो वह नकार णकार हो जाता है ॥१३९॥ __ अर्थात् यदि स्वर ह, य, व आदि उस नकार के अनंतर है तो नकार णकार हो जाता है । अत: 'पुरुषेण' बना द्विवचन में--पुरुष + भ्याम् है। . घोषवान् के आने पर लिंगांत अकार दीर्घ हो जाता है ॥१४० ॥ तो पुरुषाभ्याम् बना। बहुवचन में पुरुष + भिस् है। भिस् को ऐस् हो जाता है ॥१४१ ॥ लिंगांत अकार से परे—पुरुष + ऐस् 'एकारे ऐ ऐकारे च' सूत्र से संधि हुई तो पुरुषैस् । पुनः 'रेफसोर्विसर्जनीयः' से विसर्ग होकर पुरुषैः बना।। सम्प्रदान की विवक्षा के होने पर 'शेषा: कर्मकरण' इत्यादि सूत्र से चतुर्थी विभक्ति आती है। पुरुष + डे। डे को 'य' हो जाता है ।१४२ ॥ लिंगांत अकार से परे डे को य आदेश हो जाता है और 'अकारो दीर्घ घोषवति' से दीर्घ होकर पुरुषाय बन जाता है। द्विवचन में पूर्ववत् पुरुषाभ्याम् । बहुवचन में पुरुष म्यस् है । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ कातन्त्ररूपमाला धुड् व्यञ्जनमनन्तःस्थानुनासिकम् ।।७५ ।। * अन्त:स्थानुनासिकवर्जितं व्यञ्जनं धुसंज्ञं भवति । क ख ग घ । च छ ज झ। ट ठ ड ढ । त थ द ध । प फ ब भ । श ष स ह इति । भादि महत्वे त्वे॥१४३॥ लिङ्गान्तोऽकार ए भवति बहुत्वे ध्रुटि परे । पुरुषेभ्यः । तथैव अपादानविवक्षायां शेषाः कमेंत्यादिना अपादाने पञ्चपी। सिरात् ।।१४४॥ अकारान्ताल्लिङ्गात्परो सिराद्भवति । पुरुषात् । द्वित्वबहुत्वयोः पूर्ववत् । दीर्घोच्चारणं किमर्थम् । अकारे लोपे प्राप्ते सति तन्निमित्तम् । पुरुषाभ्यां । पुरुषेभ्यः । तथैव स्वाभ्यादिविवक्षायां शेषा: कर्मेत्यादिना स्वाम्यादौ षष्ठी। ङस् स्यः ।।१४५ ॥ अकारान्ताल्लिङ्गात्परो उस् स्यो भवति । पुरुषस्य । द्वित्वे, धुटि बहुत्वे त्वे इति वर्तते । ओसि च ।।१४६ ॥ बहुवचन में धुट् के आने पर लिंगांत अकार को 'ए' हो जाता है ॥१४३ ॥ पुरुषे + भ्यस्—'स' का विसर्ग होकर पुरुषेभ्यः बना। यहाँ ७५३ सूत्र के नियम से अंतस्थ और अनुनासिक को छोड़कर बाकी व्यंजन को धुद संज्ञा अपादान अर्थ की विवक्षा में 'शेषाः कर्म' इत्यादि सूत्र से पंचमी विभक्ति आती है। पुरुष + ङसि । ङ और इ का अनुबंध लोप हो जाता है। सि को आत हो जाता है ॥१४४ ।। लिंगांत अकार से परे ङसि विभक्ति को आत् आदेश हो जाता है । तो पुरुष + आत्- पुरुषात् बन जाता है। यहाँ आत् में दीर्घ 'आ' किसलिए है ? यदि अकार का लोप प्राप्त हो तो उसके लिए दीर्घ आकार है । द्विवचन और बहुवचन पूर्ववत् बनते हैं-पुरुषाभ्याम्, पुरुषेभ्यः । स्वामी आदि की विवक्षा के होने पर 'शेषाः' इत्यादि सूत्र से षष्ठी विभक्ति आती है। पुरुष+ ङस् डस् को 'स्य' होता है ॥१४५ ॥ लिंगांत अकार से परे ङस् को स्य आदेश होकर पुरुषस्य बन जाता है। पुरुष+ ओस् 'धुटिबहुत्वेत्त्वे' सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। ओस् के आने पर लिंगांत अकार 'ए' हो जाता है ॥१४६ ॥ १. ह्रस्वोऽकार: सुतरामेव, तस्य सवर्ण दौर्षे कृते रूपसिद्धिर्भवति, तथापि दीर्घविधेर्वाधक वचनं अकारे लोपमिति, तद् बाधकं भा भूदिति, दीर्घोच्चारणं कृतमित्यर्थः । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गः लिङ्गान्तोऽकार ए भवति ओसि च परे। सन्धिः। ए अय् । रेफसोर्विसर्जनीयः । पुरुषयोः । बहुत्वे-पुरुष आम् इति स्थिते । ह्रस्वनदीश्रद्धाभ्य इति वर्तते । आमि च नुः॥१४७॥ हस्वमदीश्रद्धाशन्देभ्य: परो नुरागमो भवति आमि परे । तृतीयादौ तु परादिः ॥१४८ ।। उदनबन्ध आगम: परादिर्भवति तृतीयादौ विभक्तौ । दोघमामि सनी॥१४९ ।। हस्वान्तं लिङ्ग दीर्घमापद्यते सनावामि परे । रपवणेत्यादिना णत्वं घोषवति दीर्घः । पुरुषाणाम् ।। तथैव अधिकरणे सप्तमी । अनुबन्धलोप: । सन्धिः । पुरुषे । द्विवचने पूर्ववत् । पुरुषयोः । बहुत्वे-धुटि एत्वं च ।। नामिकरपरः प्रत्ययविकारागमस्थ: सिः षं नुविसर्जनीयषान्तरोऽपि ॥१५० ॥ पुरुषे + ओस् 'ए अय्' से संधि होकर पुरुष अय् + ओस्-पुरुषयोस् । स् को विसर्ग होकर पुरुषयो: बन गया। बहुवचन में—पुरुष + आम्। 'ह्रस्वनदोश्रद्धाभ्यः सिलौपम्' सूत्र, अनुवृत्ति से चला आ रहा है। आम् विभक्ति के आने पर 'नु' का आगम हो जाता है ॥१४७ ।। हस्व स्वर, नदी संज्ञक और श्रद्धा संज्ञक स्वर से परे आम् विभक्ति के आने पर 'नु' का आगम हो जाता है। और इसमें 'उ' का अनुबंध लोप हो जाता है। जिसमें 'उ' का अनुबंध लोप हुआ है ऐसा आगम पर की आदि में होता है तृतीयादि विभक्ति के आने पर ॥१४८ ॥ तो पुरुष+न् आम् बना। आम् विभक्ति में स् और न् का आगम होने पर ह्रस्वांत लिंग दीर्घ हो जाता है ॥१४९ ॥ तो पुरुषानाम् बना । पुन: ‘रवणेभ्यो' इत्यादि सूत्र से न् को ण् होकरपुरुषाणाम् बन जाता हैं। अधिकरण अर्थ में सप्तमी विभक्ति आती है। पुरुष + डि द का अनुबंध लोप होकर पुरुष + इ रहा । अवर्ण इवणे ए से संधि होकर पुरुष बना। द्विवचन में पूर्ववत् पुरुषयो: बना । एवं बहुवचन में पुरुष + सुप् प् का अनुबंध का लोप होकर । धुटि बहुत्वे त्वे सूत्र से ए होकर पुरुष + सु बना । । ___ नामि, क, र, से परे प्रत्यय का विकार और आगम में स्थित स् को ष हो जाता है एवं न विसर्ग और प से अन्तरित स् को भी ष् हो जाता है ॥१५० ॥ १. श्रद्धासंज्ञा आकारान्तस्त्रीलिङ्गस्य नदीसंज्ञा व ईकारान्चस्त्रीलिङ्गस्य अप्रे वक्ष्यते । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला नामिकरेण्यः परः प्रत्ययविकारागमस्थः सि: षमापद्यते नुविसर्जनीयषान्तरोऽपि पुरुषेषु । नीतक:पुरुषः पुरुषौ, पुरुषा: । हे पुरुष, हे पुरुषौ, हे पुरुषाः । पुरुषम्, पुरुषो, पुरुषान् । पुरुषेण, पुरुषाभ्याम्, पुरुषैः । पुरुषाय, पुरुषाभ्याम्, पुरुषेभ्यः । पुरुषात्, पुरुषाभ्याम, पुरुषेभ्यः । पुरुषस्य, पुरुषयो: पुरुषाणाम् । पुरुष, पुरुषयोः, पुरुषेषु ।। एवं धर्म वीर वेद वृक्ष सूर्य सागर स्तम्भ वाण मृग दन्त राघव मास पक्ष शिव शैल गुह्यक वात गण्ड कट कपाट नाग शङ्कर घट पटादयः ।। पूर्वपरयोरर्थोपलब्धौ पदम् ॥१५१॥ पूर्वपरयोरिति कोऽर्थः । प्रकृतिविभक्त्योरित्यर्थः । प्रकृतयः का: । पुरुषादिशब्दा भूप्रभृतयो धातवश्चक सयो भवन्ति । विराय: का. । स्यादिस्थापि लियो; प्रकृतिविभक्त्योरर्थोपलब्धौ सत्यां समुदायस्य ज. पदसंज्ञा भवति । एवं विभक्त्यन्तानां सर्वत्र पदसंज्ञा भवति । सर्वशब्दस्य क्वचिद्विशेषः । सर्वः । सवौं । जसि—सर्वनाम इति वर्तते । पुरुषयोः जः सर्व इः ॥१५२॥ । अकारान्तात्सर्वनाम्नः परो जस सर्व इर्भवति । सर्वे । हे सर्व । हे सवौं । हे सर्वे । सर्व । सौं । सर्वान् । सर्वेण । सर्वाभ्यां । सवैः ।। इयि । यहाँ नामि से परे स् होने पर ए हो गया तो पुरुषेषु बन गया। अन्न पुरुष का पूरा रूप चलाइए-.. पुरुषः पुरुषों पुरुषाः । पुरुषाय पुरुषाभ्याम् परुषेभ्यः हे पुरुष । हे पुरुपौ ! हे पुरुषाः ! | पुरुषात् पुरुषाभ्याम् पुरुषेभ्यः पुरुषम् पुरुषौ पुरुषान् । पुरुषस्य पुरुषयोः पुरुषाणाम् पुरुषेण पुरुषाभ्याम् पुरुषैः । पुरुष पुरुषेषु इसी प्रकार से धर्म, वीर, वेद, वृक्ष, सूर्य, सागर, स्तंभ, वाण, मृग, राघव, मास, पक्ष, शिव, शैल, गुह्मक, त्रास, गण्डक, कट, पाट, नाग, शंकर, घट और पट आदि शब्दों के रूप चलते हैं। पूर्व और पर के मिलने से अर्थ की उपलब्धि होने पर उसे 'पद' संज्ञा होती है ॥१५१ ॥ - पूर्व और पर का क्या अर्थ है ? प्रकृति और विभक्ति को पूर्व और पर कहते हैं। प्रकृति किसे कहते हैं ? वृक्षादि शब्द और भू आदि धातु प्रकृति कहलाते हैं । विभक्ति किसे कहते हैं ? सि आदि विभक्तियाँ और ति, तस् आदि प्रत्यय विभक्ति कहलाते हैं। इन प्रकृति और विभक्ति के मिलने पर जो रूप बनता है उससे अर्थ का बोध होता है । अत: इस समुदाय का नाम 'पद' है जैसे यहाँ 'पुरुष' यह पद है। इस प्रकार से सर्वत्र विभक्ति हैं अन्त में जिनके ऐसे शब्दों को पद संज्ञा होती है। अर्थात् पुरुष शब्द को लिंग संज्ञा थी जब उसमें विभक्तियों लग गई तब उन्हें पद संज्ञा हो गई। सर्वशब्द सर्वनाम संज्ञक है अत: उसमें कुछ विशेषता है। सर्व + सि= सर्व; सर्व + औ = सर्वो। सर्व + जस् है—'जसि सर्वनाम्नः' यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। यहाँ सूत्र लगा ज: सर्व इ: अकारांत सर्वनाम से परे जस् को 'इ' हो जाता है ॥१५२ ॥ सर्व + इ-संधि होकर = सर्वे बना । सम्बोधन में—हे सर्व हे सत्रौं, हे सर्वे । द्वितीया. तृतीया में भी अन्तर नहीं है। सर्व+हे हैं। -- . ..१.जस-शब्दस्य प्रथमेकवचनम । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गाः । स्मै सर्वनाम्नः ॥१५३ ॥ अकारान्तात्सर्वनाम्नः परो डे स्मै भवति । सर्वस्मै । सर्वाभ्यां । सर्वेभ्यः ॥ सौ । असिः स्मात् ।।१५४॥ अकारान्तात्सर्वनाम: परोडसि स्माद् भवति । सर्वस्मात् । सर्वाभ्याम् ।सर्वेभ्यः । सर्वस्य । सर्वयोः । सुरामि सर्वतः ।।१५५॥ सर्वनाम्नः परः सुरागमो भवत्यामि परे । धुटि एत्वम् । नामिकरपरेत्यादिना षत्वम् । सर्वेषाम् । ॐ। कि: स्मिन् ॥१५६॥ अकारान्तात्सर्वनाम्न: परो डिस्मिन् भवति । सर्वस्मिन् । सर्वयोः । सर्वेषु । । नीतकः-सर्व; सी, सर्वे। हे सर्व, हे सवौं, हे सर्वे । सर्वम्, सौं, सर्वान् । सर्वेण सर्वाभ्याम्, सर्वैः । सर्वस्मै, सर्वाभ्याम् सर्वेयः । सर्वस्मात्, सर्वाच्या सत्राः । सर्वस्य, सक्योः, सर्वेषाम् । सर्वस्मिन्, सर्वयोः, सर्वेषु । किं तत्सर्वनाम् । सर्व विश्व उभ उभय अन्य अन्यतर इतर इतम कतर कतम यतर यतम ततर ततम एकतर एकतम (एते डतरडतमप्रत्ययान्ताः । वृत्' ।) त्व नेम सम सिम पूर्व पर अवर दक्षिण उत्तर अपर अधर स्व अन्तर (वृत् ।) त्यद् तद् यद् अदस् इदम् एतद् किम् एक द्वि (वृत्) युष्मद् अस्मद् भवत् इति सर्वादि भदः । अल्पः । अल्पौ। जसि। अकारांत सर्वनाम से परे डे को 'स्मै' हो जाता है ॥१५३ ।। सब सर्वस्मै बना। सर्वाभ्याम्, सर्वेभ्यः । सर्व+इसि डसि को स्मात् होता है ॥१५४॥ अकारांत सर्वनाम से परे डसि को स्मात् हो जाता है। तो सर्वस्मात् ... सर्वयोः । सर्व+ आम् सर्वनाम से परे आम् विभक्ति के आने पर 'सु' का आगम होता है ॥१५५ ॥ 'धुटि बहुत्वे त्वे' से ए होकर सर्वे + साम् बना “नामिकरपरः” इत्यादि से स् को ष् होकर सर्वेषाम् बन गया। सर्व+डि डिको स्मिन् होता है ॥१५६ ॥ अकारांत सर्वनाम से परे डि को स्मिन् आदेश हो जाता है। तो सर्वस्मिन् बना। अब इसका पूरा रूप देखियेसर्वः सर्वी सवें । सर्वाच्याम् सर्वेभ्यः हे सर्व । हे सर्वी ! हे सर्वे ।। . सर्वस्मात् सर्वाभ्याम् सर्वेभ्यः सर्वम् सयौं सर्वान सर्वस्य सर्वयोः सर्वेषाम् सर्वेण सर्वाभ्याम सर्वैः । सर्वस्मिन् सर्वयोः सर्वेषु ये सर्वनाम कौन-कौन हैं ? सर्व, विश्व, उभ, उभय, अन्य, अन्यतर, इतर, इतम्, कतर, कतम, यतर, यतम, ततर, ततम एकतर, एकतम । इनमें अन्यतर से लेकर एकतम तक शब्द उतर, उतम प्रत्यय से बने हैं। त्व, नेम, अम, सिम, सर्वस्मै Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कातन्त्ररूपमाला अल्पादेवा ॥१५७ ॥ अल्पादेर्मणात्परो जस् सर्व इर्भवति वा । अल्पे, अल्पा: । अन्यत्र पुरुषशब्दवत् । कोऽल्पादिर्गणः । अल्प प्रथम चरम त्रितय द्वितय द्वय त्रय (ऐते तयअयप्रत्ययान्ताः) कतिपय नेम अर्द्ध पूर्व पर अवर दक्षिण उत्तर अपर अधर एव अन्तर (वृत्) इति अल्पादिः । पूर्वशब्दस्य तु भेदः । पूर्व: । पूर्वी । पूर्वे । पूर्वाः । हे पूर्व । हे पूर्वी । हे पूर्वे, हे पूर्वाः । पूर्वम् । पूर्वी । पूर्वान् । पूर्वेण । पूर्वाभ्याम् । पूर्वे: । पूर्वस्मै । पूर्वाभ्याम् । पूर्वेभ्य: । डसियो: विभाष्येते पूर्वादः ॥१५८॥ पूदिर्गणात्परयोर्डसिड्यो: 'स्मास्मिनौ विभाष्येते। पूर्वस्मात, पूर्वान, पूर्वाभ्याम्1 पूर्वेभ्यः । पूर्वस्य । पूर्वयोः। पूर्वेषाम् । डौ तथैव विकल्प: । पूर्वस्मिन्, पूर्वे । पूर्वयोः । पूर्वेषु । कः पूर्वादिः । प्रागेवोक्त: । इत्यकारान्ताः । आकारान्तः पुल्लिङ्गः क्षीरपाशब्दः । ततः स्याद्युत्पत्ति: । सौ । क्षीरपा: । क्षीरपौ क्षीरपा: । सम्बुद्धावविशेषः । क्षीरपाम् । क्षीरपौ। शसादौ तु विशेषः । पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर, स्व, अंतर, त्यद, तद्, अदस्, इदम्, एतद, किम् एक द्वि युष्मद् अस्मद् भवत् । ये सब सर्वनाम कहलाते हैं। अल्प शब्द में कुछ भेद हैं- अल्प: अल्पौ--अल्प + जस है। अल्प आदि गण से परे जस को 'इ' विकल्प से होता है ॥१५७ ॥ अल्पे बना और एक बार 'जसि' सूत्र से अकार को दीर्घ होकर और संधि की एवं स् को विसर्ग होकर अल्पा: बना। बाकी सभी रूप पुरुष के समान हैं। अल्पादि गण में कौन-कौन-से आते हैं ? अल्प, प्रथम, चरम, त्रितय, द्वितय, द्वय, वय ये चार रूप तय और अय प्रत्यय से बनते हैं । कतिपय, नेम, अर्द्ध, पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर, स्व और अंतर ये अल्पादि गण हैं। पूर्व शब्द में भी भेद हैं। इसमें भी जस् में दो रूप बनते हैं। ये पूर्वादि शब्द सर्वनाम में हैं। जिनमें अंतर है उनके रूप-- पूर्व + ङसि, पूर्व + डि पूर्व आदि गण से परे उसि और डि को विकल्प से स्मात् और स्मिन् आदेश होता है ॥१५८ ॥ पूर्वस्मात्, पूर्वात, पूर्वस्मिन् पूर्वे! पूर्वः पूर्वी पूर्वे, पूर्वाः । पूर्वस्मै पूर्वाभ्याम् पूर्वेभ्यः हे पूर्व ! हे पूर्वी ! हे पूर्वे, पूर्वाः : पूर्वस्मात्, पूर्वात् पूर्वाभ्याम् पूर्वेभ्यः __ पूर्वी पूर्वान् । पूर्वस्य पूर्वयोः पूर्वेषाम् पूर्वेण पूर्वाभ्याम् पूर्वैः । पूर्वस्मिन, पूर्वे पूर्वयोः पूर्वादिगण क्या है ? पहले ही बता दिया है अर्थात् पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर, स्व और अंतर। इस प्रकार से अकारांत शब्दों का प्रकरण हुआ। अब आकारांत पुल्लिग शब्दों में क्षीरपा शब्द आता है। और क्षीरपा से परे सि आदि विभक्तियाँ आती हैं। क्षीरपा+सि = क्षीरपा., क्षीरपा+ औ- क्षीरपौ, क्षीरपा+जस् = क्षीरपाः । संबोधन में भी ये ही रूप बनेंगे। शस् आदि विभक्ति के आने पर कुछ विशेषता है । क्षीरपा+शस्। १. समाप्तिद्योतको वृच्छब्द इति ।। २. अस स्मात्' 'डि. स्मिन्' इति सूत्रद्वयमनुवर्तते । पूर्वम् Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गाः पञ्चादौ घुट ॥१५९॥ स्यादीनामादौ पञ्चवचनानि घुट्संज्ञानि भवन्ति ।। आधातोरघुट्स्वरे ॥१६०॥ धातोराकारस्य लोपो भवति अघुट्स्वरे परे । धातोरिति किम् । शन्तृङन्तक्किबन्तौ धातुत्वं न त्यजत इति । एतद्पलक्षणम् । उपलक्षणं कि। स्वस्य स्वसदशस्य च ग्राहकमुपलक्षणं । तेन विजन्तमपि धातुत्वं न जहाति । क्षीरपः । क्षीरपा। क्षीरपाभ्याम् । क्षीरपाभिः । क्षीरपे । क्षीरपाभ्याम् 1 क्षीरपाभ्यः । क्षीरपः । क्षीरपाभ्याम् ।क्षीरपाभ्यः । क्षीरप: । क्षीरपो: । क्षीरपाम् । क्षीरपि । क्षीरपो: । क्षीरपासु । एवं सोमपा सीधुपा कीलालपा सौवीरपा मण्डपा अग्रेगा विवस्वा अब्जजा उदधिका 'हाहा पुरोगादयः । इत्याकारान्ताः । इकारान्त: पुलिङ्गो मुनिशब्दः । ततः स्याद्युत्पत्ति: । सौ । मुनिः । द्वित्वे । इदुदग्निः ॥१६१ ।। सि आदि विभक्तियों में आदि की पाँच विभक्तियाँ 'घुट' संज्ञक हैं ॥१५९ ॥ इस सूत्र से सि औं जस् अम् औ को घुट संज्ञा हो गई। बाकी सब अघुट हैं। इन अघुट में शस, टा, डे, डसि, डस, ओस, आम, डि, ओस् ये नव विभक्तियाँ स्वर वाली हैं। एवं भ्याम् भिस् भ्याम् 'भ्यस् भ्याम् भ्यस् और सुप् ये ७ विभक्तियाँ व्यंजन वाली हैं। अघुट् स्वर वाली विभक्तियों के आने पर धातु के आकार का लोप हो जाता है ॥१६० ॥ यहाँ धातु के आकार ऐसा क्यों कहा ? यहाँ क्षीरं पिबतीति क्षीरपा इस प्रकार से क्षीर शब्द से पा धातु आकर कृदंत में क्विप् प्रत्यय हुआ है और विवप् का सर्वापहारी लोप हो गया है, फिर भी शतृङ् प्रत्यय जिसके अंत में है एवं विवप् जिनमें अंत में है ऐसे शब्द लिंग संज्ञक हो गये हैं फिर भी अपने धातुपने को नहीं छोड़ते हैं। यह कथन यहाँ उपलक्षण मात्र है । उपलक्षण किसे कहते हैं ? अपने और अपने सदृश को ग्रहण करने वाले को उपलक्षण कहते हैं। उससे 'विच्' प्रत्यय भी जिनके अंत में है ऐसे शब्द भी थातुपने को नहीं छोड़ते हैं ऐसा समझना चाहिए। अब यहाँ क्षीरपा+ अस् में क्षीरपा के आ का लोप होकर क्षीरप् + अस् = क्षीरप: बन गया। क्षीरपा+टा, क्षीरप् + आ = क्षीरपा, क्षीरपाभ्याम्, क्षीरपा + डे, क्षारप्+ = क्षीरपे। क्षीरपा+डसि = क्षीरपः क्षीरपा+ङस् = क्षीरपः, क्षीरपा+ओस् = क्षीरपोः, क्षीरपा+आम्= क्षीरपाम्, क्षीरपा+ङि== क्षीरपि इत्यादि व्यंजन वाली विभक्तियों के आने पर कुछ भी अंतर नहीं होता है । शीरपाः धीरपौ क्षीरपाः । क्षीरपे क्षीरपाभ्याम् क्षीरपाभ्यः हे क्षीरपा: ! हे क्षीरपौ । हे क्षीरपाः ।। क्षीरपः क्षीरपाभ्याम् क्षीरपाभ्यः क्षीरपाम् क्षीरपौ क्षीरपः क्षीरपः क्षीरपोः क्षीरपाम् क्षीरपा क्षौरपाभ्याम् क्षीरपाभिः । क्षीरपि क्षीरपोः क्षीरपासु इसी प्रकार से आकारांत सोमपा, सीधुपा, कोलालपा, सौवीरपा, मंडपा, अग्रेगा, विषस्वा अब्जजा उदधिका, हाहा, पुरोगा आदि शब्द क्षीरपावत् ही चलते हैं। इस प्रकार से आकारांत शब्दों के रूप हुए। अब इकारांत मुनि शब्द से सि आदि विभक्तियाँ आती हैं। मुनि + सि = मुनिः । द्विवचन में—मुनि + औं इकारांत और उकारांत लिंग को अग्नि संज्ञा हो जाती है ॥१६१ ॥ १. जहतीति हाहा इति दयुत्पत्तिपक्षे, न तु गन्धर्ववाचीति पर्छ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला इकारान्तमुकारान्तञ्च लिङ्गं अग्निसंज्ञं भवति । तपरकरणम सन्देहार्थं । औकारः पूर्व ।। १६२ ॥ अग्निसंज्ञकात्पर औकारः पूर्वस्वररूपमापद्यते । सन्धिः । मुनी । जसि । हरेद्रोज्जसि ।। १६३ !! अग्निसंज्ञकस्य इः एद्भवति उः ओद्भवति जसि परे । मुनयः । सम्बुद्धौ च ।। १६४ ।। अग्निसंज्ञकस्य इः एद्भवति उ: ओद्भवति सम्बुद्धौ परतः । प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणमिति न्यायात् । हे मुने हे मुनी हे मुनयः । ४४ $ अग्नेरमोकारः ।।१६५ ।। अग्निसंज्ञकात्परस्य अमोऽकारो लोपमापद्यते । मुनिम् । मुनी । शसादौं । शसोऽकारः सच नोऽस्त्रियाम् ॥ १६६ ॥ अग्निसंज्ञकात्परस्य सोऽकारः पूर्वस्वररूपमापद्यते सर्वत्र सस्य च नो भवत्यस्त्रियाम् । मुनीन् । सूत्र में इत् उत् में तू का प्रयोग क्यों किया है ? इस तकार का प्रयोग संदेह को दूर करने के लिए किया गया है। इ और उ से इवर्ण उवर्ण भी लिये जाते हैं और तकार से केवल ह्रस्व इकार और उकार ही लिए जाते हैं। अतः हस्व इकारांत उकारांत ही अग्नि संज्ञक अग्निसंज्ञक से परे औ विभक्ति पूर्व स्वर रूप हो जाती है ॥१६२ ॥ I मुनि + इ संधि होकर मुनी बन गया। मुनि + जस् । जस् के आने पर अग्नि संज्ञक इ को ए और उ को 'ओ' हो जाता है ॥१६३ ॥ मुन् ए + अस् । 'ए अय्' से संधि होकर मुनयः बन गया । संबोधन में मुनि + सि' ह्रस्व नदी' इत्यादि सूत्र से सि का लोप हो गया। संबुद्धि संज्ञक सि से परे इ को ए और उ को ओ हो जाता है ॥ १६४ ॥ हे मुने ! बना । मुनि + अम् अग्नि संज्ञक से परे अम् के अकार का लोप हो जाता है ॥ १६५ ॥ मुनिम् मुनौ । मुनि + शस् शस् के अकार को पूर्व स्वर रूप और अस्त्रीलिंग में स् को न् हो जाता है ॥ १६६ ॥ अग्नि संज्ञक से परे शस् का 'अ' पूर्व स्वर रूप हो जाता है और स्त्रीलिंग को छोड़कर पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में श् को न् हो जाता है। तो मुनि + इन्= मुनीन् बन गया। मुनि + टा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ताः पुल्लिङ्गाः अस्त्रियां टा ना ॥ १६७ ॥ अग्निसंज्ञकात्परस्य टाना भवत्यस्त्रियाम् । मुनिना । मुनिभ्यां । मुनिभिः । इयि । ङे ।। १६८ ।। अग्निसंज्ञकस्य इः एद्भवति उः ओद्भवति ङयि परे । मुनये। मुनिभ्यां । मुनिभ्यः । ङसिङसोरलोपश्च ॥ १६९ ॥ अग्निसंज्ञकस्य इः एद्भवति टः ओद्भवति ङसिङसोः परतः तयोरकारच लोप्यो भवति । मुनेः । मुनिभ्याम् । मुनिभ्यः । मुनेः । मुन्योः आमि नुरागमः । दीर्घमामि सनौ ॥ १७० ॥ नाम्यन्तं लिङ्गं दीर्घमापद्यते सनावामि परे । मुनीनाम् । -142 ४५ डिरौ सपूर्वः ॥ १७१ ॥ अग्निसंज्ञकात्परो डि: पूर्वस्वरेण सह और्भवति । मुनौ । मुन्योः । मुनिषु । एवमग्नि गिरि रवि ऋषि यति कवि विधि राशि शीतरश्मि शालि दानवारि दैत्यारि सौरि सूरि विघ्नारि हेमाद्रि अद्रि हरि सारि शकुनि पाकशासन धूमधानि पद्मयोनि अपापति अतिथि ग्रन्थि पदाति मैत्रि बलि ध्वनि पाणि कपि अलि मणि जलधि अब्धि पयोधि निधि उपाधि नीरधि व्याधि शेवध्यादयः । द्विशब्दस्य तु भेदः । तस्य द्वयर्थवाचित्वात् द्विवचनमेव भवति । द्वि और अति स्थिते । अग्नि संज्ञक से परे स्त्रीलिंग के सिवाय बाकी में टा विभक्ति को 'ना' आदेश हो है ॥१६७॥ जाता तो मुनिना बना। मुनि + भ्याम् = मुनिभ्याम् । मुनि + भिस्= मुनिभिः । मुनि + डे अग्निसंज्ञक से परे हे विभक्ति के आने पर इ को ए और उ को ओ हो जाता है ॥ १६८ ॥ 'मुन् ए + ए 'ए अय्' सूत्र से संधि होकर मुनय् + ए = मुनये बना । मुनि + डसि, मुनि + ङस् इस स् विभक्ति के आने पर अग्नि संज्ञक इ को ए और उ को ओ हो जाता है और इस इस के अकार का लोप हो जाता है ॥१६९ ॥ तब मुने + स् । स् को विसर्ग होकर मुने: बन गया। मुनि + ओस् 'इवर्णो यम् सवर्णे' इस - ४४वें सूत्र से संधि होकर मुन्योस्, स् का विसर्ग होकर मुन्योः बना । मुनि + आम् "आमि च नुः” सूत्र से नु का आगम होकर मुनि + नाम् बना पुनः स् न् सहित आम् विभक्ति के आने पर नाम्यंत लिंग दीर्घ हो जाता है ॥ १७० ॥ तो मुनीनाम् बना । मुनि + ङि अग्नि संज्ञक से परे 'ङि' विभक्ति पूर्व स्वर के साथ ही 'औ' हो जाती है ॥ १७१ ॥ मुन् इ + ङि मुन् औ मुनौ बन गया। पुनः मुन्योः और नामिकरपरः इत्यादि सूत्र से नाम से परे स् को '' करके मुनिषु बन गया । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ कातन्त्ररूपमाला त्यदादीनामविभक्तौ ।।१७२।। त्यदादीनामन्त: अकारो भवति विभक्तौ परतः । सन्धिः । द्वौ । द्वौ । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वयोः । द्वयोः ॥ त्रिशब्दस्य तु भेदः । तस्य बह्वर्थवाचित्वात् बहुवचनमेव भवति । त्रयः । हे त्रयः । बीन् । त्रिभिः । त्रिभ्यः । त्रिभ्यः । आमि। त्रेतयश्च ॥१७३॥ त्रिशब्दस्य त्रयादेशो भवति नुरागमञ्चामि परे । त्रयाणाम् । त्रिषु । कतिशब्दस्य तु भेदः । तस्यापि बहुवचनमेव भवति। कतेश्च जस्शसोलुंक् ॥१७४ ॥ मुनिः मुनिभ्यः मुनी मुनयः । मुनये मुनिभ्याम् मुनिभ्यः हे मुने । हे मुनी ! हे मुनयः । | मुनेः मुनिभ्याम् मुनिम् मनी मनीन । मुनेः मुन्योः मुनीनाम् मनिना मुनिध्याम मुनिभिः । मनौ मुन्योः मुनिषु इसी प्रकार से अग्नि, गिरि, रवि आदि उपर्युक्त शेवधिपर्यन्त इकारांत शब्द मुनिवत् ही चलते हैं। द्विशब्द में कुछ भेद हैं और वह द्विवचन में ही चलता है। अत:द्वि+ औं है। त्यद् आदि शब्दों के अन्त व्यंजन या स्वर को अकार हो जाता है, विभक्ति के आने पर ॥१७२ ॥ तब द्वि को द्व होकर दू+औ संधि होकर = द्वौ बन गया। द्वि+भ्याम् है। सर्वत्र द्वि को दू किया जाता है । पुन: “अकारो दीर्घ घोषवति" सूत्र से दीर्घ होकर द्वाभ्याम् ३ बन गया । द्वि+ ओस् में भी द्व+ ओस् 'ओसि च' सूत्र से ए होकर संधि होकर द्वयोः २ बन गया। तोद्वौ। द्वौ। द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वयोः । द्वयोः । त्रिशब्द में भी कुछ भेद हैं तीन संख्या बहु अर्थवाची ही है अत: विभक्ति भी बहुवचन की ही आती है तो त्रि+ जस् हैं—सूत्र से अग्नि संज्ञा होकर "इरेदुरोज्जसि'-सूत्र से ए होकर संधि होकर त्रय: बना। त्रि+शस् है मुनिवत् सब सूत्र लगकर त्रीन् बना। त्रिभिः इत्यादि। त्रि+ आम्। आमि च नुः से नु का आगम होकर नु और आम् विभक्ति से परे 'त्रि' को त्रय आदेश हो जाता है ॥१७३ ॥ त्रय+नाम् दीर्धमामिसनौ से दीर्घ होकर न् को ण् होकर त्रयाणाम् बन जाता है। वि + सु स् को होकर त्रिषु बन गया। त्रय: । त्रीन् । त्रिभिः । त्रिभ्य: । त्रिभ्य: । त्रयाणाम् । त्रिषु । कति शब्द में भेद है यह कति शब्द भी बहुवचन में ही चलता है। कति अर्थात् कितने। कति+ जस् संख्यावाची शब्द से परे षकारांत नकारांत से परे और कति शब्द से परे जस् शस् विभक्ति को लुक् हो जाता है ॥१७४ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ताः पुल्लिङ्गाः संख्याया: ष्णान्ताया: कतेश्च परयोर्जस्शसोलुंग्भवति । (सर्वविधिभ्यो लोपविधिर्बलवान्) प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणमिति प्राप्ते सति । लुग्लोपे न प्रत्ययकृतम्॥१७५ ।। लुगिति लोपे सति प्रत्ययलोपे परे यत्कृतं कार्य प्रकृतेस्तन्न भवति । इरेदुरोज्जसीत्येत्वं न भवति । कति । कति । कतिभिः । कतिभ्यः । कतिभ्यः । कतीनाम् । कतिषु । सखिशब्दस्य तु भेदः । सावनन्त: इति वर्तते। सख्युश्च ॥१७६ ॥ सख्युरन्तोऽन् भवति असम्बुद्धौ सौ परे । घुटि चासम्बुद्धौ ॥१७७॥ नान्तस्य चोपधाया दी| भवति असम्बुद्धौ घुटि परे । व्यञ्जनाश्च ॥१७८॥ व्यजनाच्च पर: सिलोपमापद्यते। लिङ्गान्तनकारस्य ॥१७९।। लिङ्गान्तनकारस्य लोपां भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । सखi । [सभी विधि में लोप विधि बलवान् है। यहाँ “प्रत्यय लोपे प्रत्यय लक्षाणं" इस सूत्र से कुछ कार्य जिसमें गुण शस् में दीर्घ प्राप्त था उसे बाधित करने के लिए सूत्र लगता है। लुक् इस शब्द से प्रत्यय के लोप करने पर प्रत्यय के निमित्त से प्रकृति का जो कार्य होता था वह नहीं होगा ॥१७५ ।। जैसे 'इसेदुरोज्जसि' सूत्र से यहाँ इ को ए प्राप्त था वह नहीं होगा क्योंकि लुक् शब्द से जस् शस् का लोप किया गया है। अत: जस् शस् का लोप होकर कति + जस् कति ही रहा। कति । कति । कतिभिः । कतिभ्यः । कतिभ्यः । कतीनाम् । कतिषु । सखि शब्द में कुछ भेद हैं। 'सावनंत' यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। सखि+सि है। संबोधन से रहित 'सि' विभक्ति के आने पर सखि शब्द के अंत 'इ' को अन् आदेश हो जाता है ॥१७६ ॥ तब सखन्+सि हो गया। असंबुद्धि घुट सि विभक्ति के आने पर नकार की उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥१७७ ॥ तब सखान् + सि व्यंजन से परे सि विभक्ति का लोप हो जाता है ॥१७८ ॥ विराम और व्यंजन के आने पर लिंगांत नकार का लोप हो जाता है ॥१७९ ।। अत: सखा बना। सखि + औ है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6८ कातन्त्ररूपमाला घुटि त्वैः ॥१८॥ सख्युरन्त: ऐर्भवति असंबुद्धौ धुटि परे । सखायौ । सखायः। संबुद्धौ मुनिशब्दवत् । हे सखे । हे सखायौ । हे सखायः । सखायम् ॥ सखायौं । शसि मुनिशब्दवत् । सखीन् । टादौ । न सखिष्टादावग्निः ॥१८१॥ सखिशब्दष्टादौ स्वरे परे नाग्निर्भवति । सख्या। सखिभ्याम् । सखिभिः । सख्ये । सखिभ्याम् । सखिभ्यः ॥ उसिङसोरुमः ॥१८२ ॥ सखिपतिभ्यां परयोर्डसिडसोरकारः उमापद्यते। सख्युः। सखिभ्याम् । सखिभ्यः। सख्युः । सख्योः । सखीनाम् ।। सखिपत्योर्डिः॥१८३ ।। सखिपतिभ्यां परो डिरेव और्भवति । पुनडिग्रहणं किमर्थं । सपूर्वस्वरनिवृत्त्यर्थं । सख्यौ । सख्योः । सखिषु । एवं सुसखि अतिसखि असखि प्रभृतयः । पतिशब्दस्य तु भेदः । पति: । पती। पतयः । हे पते। हे पती । हे पतयः । पतिम् । पती । पतीन् । टादौ । घुट विभक्ति के आने पर सखि शब्द के इ को 'ऐ हो जाता है ॥१८० ॥ सखि के अंत इ को ऐ हो जाता है असंबुद्धि स्वर वाली घुट् विभक्ति के आने पर । तब सखै + औ 'ऐ आय' से संधि होकर सखायौ, सखायः बना । संबोधन में मुनि शब्द के समान इ को ए होकर हे सखे बना। सखि+ शस् मुनिवत् अ को पूर्व स्वर और स् को न होकर । संधि होकर सखीन् बन गया। सखि+टा टा आदि स्वर वाली विभक्तियों के आने पर सखि शब्द को अग्नि संज्ञा नहीं होती है ॥१८१ ॥ तब "इवणों यम सवर्णे" इत्यादि सूत्र से संधि होकर 'सख्या' बना। सखि +३= सख्ये बना। सखि + ङसि सखि + डस् सखि और पति से परे उसि और डस् के अकार को उकार हो जाता है ॥१८२ ॥ तब सखि + उस् संधि होकर सख्युः बना। सखि + ङि । सखि और पति से परे डि को 'औ' हो जाता है ।।१८३ ॥ सूत्र में पुन: डि शब्द क्यों ग्रहण किया ? सूत्र में पूर्व स्वर सहित डि को औ होता था। यहाँ मात्र डि को ही औ होता है इस बात को स्पष्ट करने के लिए ही यहाँ पुन: 'डि' शब्द को ग्रहण किया है । सखि+ औ= सख्यौ बना।। सखा सखायो सखायः । सख्ये सखिभ्याम् सखिभ्यः हे सखे ! हे सखायौ ! हे सखायः ।। सख्युः सखिभ्याम् सखिभ्यः सखायम् सखायौ सखीन् सख्युः सख्योः सखीनाम् सख्या सखियाम सखिभिः सख्यो सखिषु पति शब्द में टा आदि विभक्ति के आने पर कुछ भेद है। पति+टा सख्योः Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ताः पुल्लिङ्गाः पतिरसमासे ।।१८४ ।। पतिशब्दोऽसमासे टादौ स्वरे परे नाग्निर्भवति । पत्या। पतिभ्याम् । पतिभिः । पत्ये । पतिभ्याम् । पतिभ्यः । पत्युः । पतिभ्याम्। पतिभ्यः । पत्युः। पत्योः। पतीनाम् । पत्यौ । पत्योः। पतिषु । भूपत्यादिशब्दानां समासत्वान्मुनिशब्दवत् । पन्थिशब्दस्य तु भेदः । पन्धि स् इति स्थिते । अम्शसोरा इति वर्तते। पन्थिमन्थिऋभक्षीणां सौ ॥१८५ ।। पन्थ्यादीनामन्त आकारो भवति सौ परे । पन्थाः । अनन्तो घुटि ॥९८६ ॥ पन्थ्यादीनामन्तोऽन् भवति घुटि परे । पन्थानौ । पन्थानः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । हे पन्थाः। हे पन्थानौ। हे पन्थान:। अग्नेरमोकार इति प्राप्ते। अन्तरङ्गबहिरङ्गयोरन्तरङ्गो विधिबलवान् । अल्पाश्रितमन्तरङ्गम् । बह्याश्रित बहिरङ्गम् । पन्थानम् । पन्थानौ। पती पतीनाम पत्या समान से रहित पति शब्द को टा आदि स्वर वाली विभक्ति के आने पर अग्नि संज्ञा नहीं होती है ॥१८४॥ अर्थात् घुट् विभक्ति में पति को अग्नि संज्ञा होकर मुनिवत् रूप बने हैं पुन:संधि होकर पत्या, पति+डे = पत्त्ये बना । पति+डसि। पूर्वोक्त १८२ सूत्र से सि डस् के अ को उ होकर पत्यु: बन गया। पतिः पती पतयः । पत्ये पतिभ्याम् पतिभ्यः हे पते ! हे पती । हे पतयः ।। पत्युः पतिभ्याम् पतिभ्यः पतिम पतीन पत्युः पत्योः पतिभ्याम् पतिभिः पत्योः पतिषु सूत्र में असमासे क्यों कहा? यहाँ पति शब्द अकेला है तो उपर्युक्त प्रकार से चलेगा और यदि भू, धन आदि शब्दों का पति के साथ समास हो जाए तो भूपति, धनपति आदि शब्द मुनि के समान चलते हैं। पन्थि शब्द में कुछ भेद है। पन्थि+ सि 'अम् शसोरा' यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। पन्थि आदि शब्दों के अंत 'इ' को 'आ' हो जाता है सि विभक्ति के आने पर ॥१८५ ॥ पंथा + सि, स्. का विसर्ग होकर पन्थाः बना। पन्थि + औ। पन्थि आदि शब्दों के अन्त को 'अन्' हो जाता है घुट् स्वर विभक्ति के आने पर ॥१८६॥ तब पन्थन् + औ बना 'घुटि चा संबुद्धौ' १७७वें सूत्र से न् की उपधा को दीर्घ होकर पन्थानौ बना । संबोधन में भी इसी प्रकार से है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० कातन्त्ररूपमाला अघुट्स्वरे लोपम्॥१८७ ।।। पन्थ्यादीनामन्तो लोपमापद्यते अघुट्स्वरे परे। व्यञ्जने चैषां निः॥१८८॥ पन्थ्यादीनां नकारो लोपमापद्यते व्यञ्जने चाघुट्स्वरे परे । पथः । पथा । पथिभ्याम् । पथिभिः । पथे। पथिभ्याम् । पथिभ्यः । पथ: । पथिभ्याम् । पथिभ्यः । पथ: । पथोः । पथाम् । पथि । पथो: । पथिषु । एवं मन्थि ऋभुक्षि शब्दौ । इति इकारान्ताः । ईकारान्त: पुल्लिङ्गो यवक्री शब्दः । तत: स्याद्युत्पत्ति: । सौ-- यवक्री: । स्वरादौ । आधातोरिति वर्तमाने । ईदतोरियुवौ स्वरे ॥१८९॥ पन्थान् + अम् “अग्नेरमोकारः" इस सूत्र से अम् के अकार का लोप प्राप्त था, किंतु (अंतरंग और बहिरंग में अंतरंग विधि बलवान होती है) इस नियम से यहाँ अंतरंग विधि बलवान् हो गई। अत: 'अ' का लोप नहीं हुआ। यहाँ अल्प के आश्रित को अंतरंग और बहुत के आश्रित को बहिरंग कहते हैं। अतः पन्थानम् बन गया। पन्थि+शस् है। अघुट् स्वर विभक्ति के आने पर पन्थि आदि के अंत 'इ' का लोप हो जाता है ॥१८७ ॥ पन्थ् + असू रहा। व्यंजन और अघुट् स्वर वाली विभक्तियों के आने पर पन्थ् आदि के नकार का लोप हो जाता है ॥१८८॥ पथ् + अस् विसर्ग होकर पथ: बना। पन्थि + भ्याम् १८८वें सूत्र से न का लोप होकर पथिभ्याम् बना।। पन्थि +टा १८७वें सूत्र से 'इ' का लोप एवं १८८३ सूत्र से 'न' का लोए होकर पथा बना। पन्थाः पन्थानौ पन्थानः । पथे पथिभ्याम पथिभिः हे पन्थाः ! हे पन्धानौ । हे पन्थानः ! | पथः पथिभ्याम् पथिभ्यः पन्थानम् पन्थानौ पथः पथः पथिभ्याम् पथिभिः । पथि पथोः पथिषु इसी प्रकार से मन्थि और ऋभुक्षि के रूप चलते है जैसेमन्थाः मन्थानी मन्थानः ऋभुषाः ऋभुक्षाणौ ऋभुक्षाणः इस प्रकार से इकारांत शब्द पूर्ण हुए। अब दीर्घ ईकारांत शब्द चलेंगे। यवक्री+सि = यवक्रीः। यवक्री + औ है। 'आधातो: यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। स्वर वाली विभक्ति के आने पर धातु से ईत्, ऊत् को इय् उव् आदेश हो जाता है ॥१८९ ॥ पथोः पथाम पथा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ताः पुल्लिङ्गाः ५१ धातोरीदूतोरियुवौ भवतो विभक्तिस्वरे परे । पुनः स्वरग्रहणं किमर्थम् । अघुट्स्वरनिवृत्त्यर्थम् । यवक्रियौ । यवक्रियः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । यवक्रियम्। यवक्रियौ यवक्रियः । यवक्रिया । यवक्रीभ्याम् । यवक्रीभिः । इत्यादि । एवं सुश्रीनीप्रभृतयः । सेनानीशब्दस्य तु भेदः । सौ — सेनानीः । स्वरादावीदूतोरिति प्राप्ते । अनेकाक्षरयोस्त्वसंयोगाद् खौ ॥ १९० ॥ अनेकाक्षरयोर्लिङ्गयोत्संयोगात्परयोरीदूताव भवतो विभक्तिस्वरे परे । सेनान्यौ । सेनान्यः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । सेनान्यम् । सेनान्यौ । सेनान्यः । सेनान्या । सेनानीभ्याम् । सेनानीभिः। सेनान्ये | सेनाभ्याम् । सेनानीः सेनायाम्। सेनानीभ्यः । सेनान्यः । सेनान्यो । सेनान्याम् ॥ अनेकाक्षरयोरिति किं । नियौ । नियः । लुवी । लुवः 1 असंयोगादिति किं । यवक्रियौ । कक्प्रुवौ । डौं।. नियो डिराम् ॥ १९९ ॥ I 1 नियः परो ङिराम् भवति । सेनान्याम् । सैनान्यो । सेनानीषु । एवमग्रणीग्रामणीप्रभृतयः । सुधीशब्दस्य तु भेदः । सौ - सुधीः । स्वरादावने काक्षारयोरिति यत्वे प्राप्ते । ईदूतोरियुवा स्वरे इति वर्त्तते । I ' यहाँ सूत्र में स्वर शब्द को पुनः क्यों ग्रहण किया है ? अघुट् स्वर की निवृत्ति के लिए पुनः स्वर का ग्रहण किया है क्योंकि घुट् अघुट् दोनों ही विभक्तियों के स्वरों में यह सूत्र लागू होता है यवक्री + औ - यवक् इय् + औ = यवक्रियाँ यवक्रियः बना । संबोधन में भी इसी प्रकार से है । यवक्रीः यवक्रियों यवक्रियः यवक्रीभ्याम् यवक्रीभ्यः हे यवक्रीः ! हे यवक्रियौ ! हे यवक्रियः यवक्रियौ यवक्रियः 'यवक्रीभ्यः यवक्रीभ्याम् यवक्रीभिः इसी प्रकार से सुश्री और नी शब्द के रूप चलेंगे । 'सेनानी शब्द में कुछ भेद है— सेनानी + सि= सेनानी: सेनानी + औ यवक्रियम् यवक्रिया यवक्रिये यवक्रियः यवक्रियः यवक्रियि यवक्रीभ्याम् यवक्रियोः यवक्रियोः यवक्रियाम् यवक्रीषु यहाँ पूर्व सूत्र से ई, ऊ को इय् उव् प्राप्त था किंतु उसे बाधित कर आगे का सूत्र लगता हैयदि अनेक अक्षर वाले ईकारांत, उकारांत शब्द हैं और संयुक्ताक्षर वाले नहीं हैं तब ई, ऊ, को य् व् आदेश होता है स्वर वाली विभक्ति के आने पर ॥ १९० ॥ सेनान् ई + औ सेनान्य् + औ सेनान्यौ बना । संबोधन में भी इसी प्रकार है। नी से परे ङि को आम् आदेश हो जाता है ॥ १९९ ॥ सेनानी + आम् = सेनान्याम् बना । अनेक अक्षर वाले हों ऐसा क्यों कहा ? तों नी + औ में नियौ, ल् + औ = लुवौ बनेगा। संयुक्ताक्षर न हो ऐसा क्यों कहा ? यवक्री में संयुक्त अक्षर है अतः यवक्रियों बनेगा । क + औ = कट बनेगा 1 सेनानी + ङि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला सुधीः ॥१९२ ।। सुधीशब्द इयं प्राप्नोति विभक्तिस्वरे परे । सुधियौ। सुधियः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । सुधियम् । सधियो। सधियः । सधिया। सधीभ्याम । सधीभिः। सधिये। सधीभ्याम। सधीभ्यः। सधियः । सधीभ्याम । सधीभ्यः । सधियः । सधियोः । सधियाम । सधियि । सधियोः । सधीष ।। इति ईकारान्ताः । उकारान्त: पुल्लिङ्गो भानुशब्द: ।। स च मुनिशब्दवत् । अयं भेद:-उत ओत्वमवादेशश्च । भानु: । भानू। भानय: । हे भानो । हे भानू । हे भानवः । भानुम् । भानू । भानून् । भानुना । भानुभ्याम् । भानुभिः । भानवे। भानुभ्याम् । भानुभ्यः । भानोः । भान्बो:। भानूनाम् । भानौ भान्वोः। भानुषु । एवमृतु मेरु गुरु तरु धातु सेतु बाहु वायु बहुप्रभृतयः : इत्युगान्ता: । रूमान पुगिना सन्दः । म र यवक्रीशब्दवत् । उवादेशोऽत्र भेदः । कटयूः । कटघुवौ । कटघुवः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । कटघुवम्। कटप्रुवौ । कटगुवः । कटपूवा । कटप्रूभ्याम् । कटप्रूभिः । इत्यादि । खलपू शरलू काण्डलू प्रभृतौनां सेनानीशब्दवत् । वत्वं भेदः । प्रतिभूशब्दस्य तु भेदः । सौप्रतिभूः । स्वरादौ-- सेनानीः सेनान्यो सेनान्यः । सेनान्ये सेनानीभ्याम सेनानीभ्यः हे सेनानी ! हे सेनान्यो ! हे सेनान्यः । । सेनान्यः सेनानीभ्याम् सेनानीभ्यः सेनान्यम् सेनान्यो सेनान्यः सेनान्य: सेनान्योः सेनान्याम् सेनान्या सेनानीभ्याम् सेनानीभिः । सेनान्याम् सेनान्योः सेनानीषु इसी प्रकार से ग्रामणी और अग्रणी शब्द चलेंगे। सुधी+सि= सुधीः । सुधी+ औ उपर्युक्त १९०वें सूत्र से अनेक अक्षर होने से स्वर वाली विभक्ति के आने पर ई को य प्राप्त था कि उसे बाधित करके आगे का सूत्र लगता है सुधी शब्द के ई को इय् आदेश होता है ॥१९२ ॥ स्वर वाली विभक्ति के आने पर। सुधियो बना। संबोधन में तथैव है। सुधीः सुधियों सुधियः । सुधिये सुधीभ्याम् सुधीभ्यः हे सुधीः ! हे सुधियो ! हे सुधियः । | सुधिय: सुधीभ्याम् सुधीभ्यः सुधियम् सुधियो सुधियः सुधियः सुधियोः सुधियाम् सुपिया सुधीभ्याम् सुधीभिः । सुधियि सुधियोः सुधीषु इस प्रकार से ईकारान्त शब्द पूर्ण हुए। अब उकारांत भानु शब्द आता है। भानु+सि= भानुः बना। मुनि के समान 'इदुदग्निः ' इस १६१वें सूत्र से अग्नि संज्ञा हो गई, यह पूरा रूप मुनि के समान चलेगा अंतर इतना ही है कि उसमें 'इ' को 'ए' हुआ. था और उसमें 'उ' को 'ओ होगा। और 'ओ' को अव् आदेश होगा। सूत्र सभी वे ही लगेंगे। यथा-- भानुः पानू भानवः । मानवे भानुभ्याम् भानुभ्यः हे मानो | हे भानू । हे भानवः ! भानो: भानुभ्याम् भानुभ्यः भानू भानून भानोः भान्वोः भानूनाम् भानुना भानुभ्याम् भानुभिः । पान्त्रोः इसी प्रकार से ऋतु, मेरु, गुरु, धातु, सेतु, बाहु, वायु, बहु आदि रूप चलेंगे। भानुम भानों भानुषु Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गाः भूरवर्षाभूरपुनर्भूः ।।१९३ ॥ भूरुवं प्राप्नोति विभक्तिस्वरे परे वर्षाभूपुनवौं वर्जयित्वा । प्रतिभुवौ। प्रतिभुवः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । एवं स्वयंभू मित्रभू आत्मभू अग्निभू मनोभू प्रभृतयः । वर्षाभू पुनर्भू सेनानीवत् । वत्वं भेदः । इत्यूकारान्ता: 1 ऋकारान्त: पुल्लिङ्गः पितृशब्दः । सौ कटप्रूप खलवे उकारांत शब्द पूर्ण हुए। अब ऊकारांत शब्द चलेंगे। कटप्रू+सि है यह यवक्री के समान चलेगा अन्तर इतना ही है कि यहाँ 'ऊ' को उव् हो जाएगा। कटपूः कटवौ कटगुवः । कटघुवे कटप्रूभ्याम् कटप्रूभ्यः हे कटपूः । हे कटपुत्रौ । हे करघुवः । कटघुवः कटप्रूभ्याम् कटघूभ्यः करघुवम् कटघुवौ करघुवः कटावः कटम॒वोः कटपुवाम् कटवा कटप्रूभ्याम् कटप्रूभिः । कटघुवि कटप्वोः आगे खलपू, शरलू, काण्डलू शब्द सेनानी के समान चलेंगे। मात्र यहाँ 'ऊ' को 'उव' न होकर व् हो जाएगा । यथाखलपू: खलप्वौ खलप्वः खलपूभ्याम खलपूभ्यः हे खलपूः ! हे खलप्वौ । हे खलप्नः ! | खलप्दः खलपूभ्याम् खलपूभ्यः खलप्वम् खलप्वौ खलप्वः खलनः खलप्वोः खलप्वाम् खलप्वा खसपूभ्याम् खलपूभिः । खलम्धि खलप्वोः खलपूषु प्रतिभू शब्द में कुछ भेद है। प्रतिभू + सि: + प्रतिभूः, प्रतिभू + औं है । वर्षाभू: और पुन : को छोड़कर स्वर वाली विभक्ति के आने पर भू को उ आदेश हो जाता है ॥१९३ ॥ प्रतिभुत् + औ= प्रतिभुवौ बना। संबोधन में भी इसी प्रकार है। यथास्वयंभूः स्वयंभुवौ स्वयंभुवः । स्वयंभुवे स्वयंभूभ्याम् स्वयंभूभ्यः हे स्वयंभूः । हे स्वयंभुवौ ! हे स्वयंभुवः | स्वयंभुनः स्वयंभूम्याम् स्वयंभूभ्यः स्वयंभुवम् स्वयंभुवो स्वयंभुवः स्वयंभुवः स्वयंभुदोः स्वयंभुवाम स्वयंभुवा स्वयंभूभ्याम् स्वयंभूभिः | स्वयंभुवि स्वयंभुवोः स्वयंभूष इसी प्रकार से मित्र भू आदि उपर्युक्त मनोभू पर्यन्त रूप चलेंगे। वर्षाभू पुन छोड़कर सूत्र में ऐसा क्यों कहा ? इन दोनों के रूप सेनानी के समान चलेंगे। अर्थात् ऊ को व् होकर वर्षा भवौ आदि रूप बनेंगे। यथा वर्षाभू: (मेढक) वर्षापूः वर्षाभ्यौ वर्षावः । वर्षाध्वे वर्षाभूभ्याम् वर्षाभूभ्यः हे वर्षाभूः ! हे वर्षा नौ । हे वर्षाभ्वः ।। वर्षाम्चः वर्षाभूभ्याम् वर्षाभूभ्यः वर्षाभ्वम् वर्षावौ वर्षावः वर्षाचः वर्षावोः वर्षाभ्वाम वर्षाम्चा वर्षाधूभ्याम् वर्षापूभिः । वर्षाम्वि वर्षाभ्वोः वर्षाभूषु Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातत्ररूपमाला आ सौ सिलोपश्च ॥१९४ ॥ ऋदन्तस्य लिङ्गस्य आ भवति सौ परे सिलोपश्च । पिता। घुटि च ॥१९५ ॥ ऋदन्तस्य अर् भवति घुटि परे । पितरौ। पितरः । सम्बुद्धौ च । आ च न सम्बुद्धौ ।।१९६॥ दन्तस्य आर् आ च न भवति सम्बुद्धौ परत: । अपि तु घुटि चेत्यति । हे पित: । हे पितरौ । हे पितरः । पितरम् । पितरौ । अग्निवच्छसि ॥१९७ ।। ऋदन्तस्य अग्निवत्कार्यं भवति शसि परे। पितॄन्। पित्रा। पितृभ्याम् । पितृभिः । पित्रे । पितृभ्याम् । पितृभ्यः । इसिङसोः । ऋदन्तात्सपूर्वः ॥१९८ ॥ इस प्रकार से ऊकारांत शब्द पूर्ण हुए। अब ऋकारांत शब्द चलेंगे। पितृ + सिसि के आने पर लिंगात ऋकार को 'आ' होकर 'सि' का लोप हो जाता हैं ॥१९४ । । अत: पिता बना। पितृ + औ घट स्वर के आने पर ऋकार को अर हो जाता है ।।१९५ ॥ पित् अर् + औ = पितरौ, पितर: संबोधन में पितृ + सिसंबोधन में सि के आने पर ऋकार को आर एवं आ नहीं होता है ॥१९६ ॥ अपि च 'घुटि च' इस १९५वें सूत्र से अर् हो जाता है तो पितर् + स् ए 'व्यंजनाच्च' सूत्र से -- व्यंजन से परे सि का लोप होकर रेफसोर्विसर्जनीयः” से रकार को विसर्ग हो गया । तो हे पित: ! बना । द्विवचन, बहुवचन पूर्ववत् हैं। पितृ + शस् शस् के आने पर ऋदंत को अग्निवत् कार्य हो जाता है ॥१९७ ॥ अर्थात् अग्नि संज्ञा होकर 'शसोऽकार: सञ्चनोऽस्त्रियाम्' १६६वें सूत्र से अकार को पूर्व स्वर रूप एवं स् को न हो गया तो। पितृ + ऋन् संधि होकर पितृन बन गया। पितृ +टा 'रमृवर्ण:' ४६वें सूत्र से ऋ को र होकर पित्रा बना । व्यंजन वाली विभक्ति में कुछ भी नहीं होगा तो पितृ + भ्याम् = पितृभ्याम् । पितृ + ङसि, पितृ + ङस् । ऋकार से परे ङसि डस् को अकार पूर्व स्वर क्र के साथ 'उ' हो जाता है ॥१९८ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ताः पुल्लिङ्गाः ऋदन्तात्परथोङसिङसोरकारः पूर्वस्वरेण सह उमापद्यते । पितुः । पितृभ्याम् । पितृभ्यः । पितुः । पित्रोः । पितॄणाम् । अर्डों ॥। १९९ ।। ऋदन्तस्य च भवति छौं परेषु भ्रातृजामातृ सवितृ प्रभृतयः । कर्तृशब्दस्य तु भेदः । सौ-कर्ता घुटि । धातोस्तृशब्दस्यार् ॥ २०० ॥ । I धातोर्विहितस्य तृशब्दस्य ऋत आर्भवति घुटि परे । कर्तारौ । कर्तारः । हे कर्त्तः । हे कर्त्तारौ । हे कर्त्तारः । कर्त्तारम् । कर्त्तारौ कर्तृन् । अन्यत्र पितृशब्दवत् । धातोर्विहितस्य किं ? मातरौ । मातरः । यती प्रयत्ने । यतेः ऋत् दीर्घश्च उणादिप्रत्ययः । तृशब्दस्येति किं ? ननान्दरौ । ननान्दरः । एवं धातृ भतृ ज्ञातु वे श्रोतृ नेतृ पक्त भोक्तृ पक् प्रभृतयः । क्रोष्टुशब्दस्य तु भेदः । क्रोष्टा । क्रोष्टारौ । क्रोष्टारः । सम्बुद्धौ । और स् को विसर्ग होकर पित् + उ = पितुः बना। पितृ + ओस्—संधि होकर पित्रो: । पितृ + आम् नु का आगम, पूर्व स्वर को दीर्घ, एवं न् को ण् होकर पितॄणाम् बना । पितृ + ङि ङि के आने पर ऋ को अर् हो जाता है ॥१९९ ॥ पितर् + इ = पितरि + पित्रोः पितृषु । पितरौ पितरः हे पितरौ ! हे पितः । पितरौ पितृभ्याम् इसी प्रकार से भ्रातृ, जामातृ और सवितृ के रूप चलते हैं। 1 कर्तृ शब्द में कुछ भेद हैं। पित हे पितः ! पितरम् पित्रा पितॄन् पितृभिः पित्रे पितुः पितुः पितरि पितृभ्याम् पितृभ्याम् ५५ पित्रोः पित्रोः . पितृभ्यः पितृभ्यः पितॄणाम् पितृपु कर्तृ+सि " आसौ सिर्लोपश्च " सूत्र से कर्ता बना कर्त्तृ + औ धातु में कहे गये 'तृ' शब्द के ऋ को आरू हो जाता है घुट् स्वर के आने पर ॥ २०० ॥ कर्त् आर् + औ कर्त्तारौ, कर्त्तारः । संबोधन में पूर्ववत् - हे कर्त्तः इत्यादि । रेफ से आक्रांत वर्ण को कही कहीं द्वित्व होने से कर्ता बन जाता है 1 शंस से सुप् तक बाकी सब रूप पितृवत् चलते हैं । यहाँ सूत्र में ' धातु से तू' प्रत्यय ऐसा क्यों कहा ? यती धातु प्रयत्न अर्थ में है उणादि प्रत्यय के गण में यत् के य को दीर्घ और ऋ प्रत्यय हुआ है। तो यहाँ धातु से तृ प्रत्यय नहीं हैं अतः आर् न होकर पितृवत् अर् ही हुआ तो यातरों बना। तृ शब्द को ऋ का आर् हो ऐसा क्यों कहा ? तो ननान्द शब्द हैं इसमें तृ नहीं है अतः इसमें दीर्घ आर र होकर अर् ही होगा । दरौ बनेगा। इस कर्त्ता के समान ही घुट् स्वर में आर होकर ही ऊपर मूल में लिखे धातृ से लेकर वप्तृ आदि रूप चलते हैं। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला कत्रों क्रोष्टः ऋत उत्सम्बुद्धौ शसि व्यञ्जने नपुंसके च ।।२०१॥ ___क्रोष्टशब्दस्य ऋत उर्भवति। सम्बुद्धौ शसि व्यञ्जने नपुंसके च परे। अग्निसंज्ञां विधाय भानुवत्कुर्यात् । हे क्रोष्टा । हे क्रोष्टारौ । हे क्रोष्टारः । क्रोष्टारम् । क्रोष्टारौ । क्रोष्ट्रन् । टादौ स्वरे वा ।।२०२॥ क्रोष्टशब्दस्य अन्त उर्वा भवति टादौ स्वरे परे । कोष्टा, क्रोष्टुना। क्रोष्टुभ्याम् । क्रोष्टुभिः । क्रोष्टे, क्रोष्ट्वे । क्रोष्टुभ्याम् । क्रोष्टुभ्यः । क्रोष्टुः क्रोष्टो: । क्रोष्टुभ्याम् । क्रोष्टुभ्यः । क्रोष्टुः क्रोष्टो: । क्रोष्ट्रोः । क्रोष्ट्वोः । क्रोटणाम, क्रोष्टूनाम् । क्रोष्टरि, क्रोष्टौ । क्रोष्ट्रोः, क्रोष्ट्वोः । क्रोष्टुषु । स्वसृशब्दस्य तु भेदः । सौ-स्वसा । घुटि । स्वस्त्रादीनां च ॥२०३॥ जैसे कर्तारौ कर्तारः । करें कर्तृभ्याम कर्तृभ्यः हे की हे ! कत! | कर्तुः कर्तृभ्याम् कर्तृभ्यः करिम् कर्तारौ कम कर्तृणाम् का कर्तृभ्याम् कीभः । करि कत्रों कर्तृषु क्रोष्ट्र (शृगाल) शब्द में कुछ पेट है। क्रोष्ट + सि—कर्तवत् क्रोष्टा क्रोष्टारौ क्रोष्टार; संबोधन में क्रोष्ट + सि– क्रोष्ट्र शब्द के ऋकार को संबुद्धि संज्ञकसि, शस् व्यंजन वाली विभक्ति एवं नपुंसकलिंग के आने पर उकार हो जाता है ॥२०१॥ __जब 'उ' हो जाता है तब अग्नि संज्ञा करके भानु के समान रूप चलाना अत: क्रोष्ट + सि= हे क्रोष्टो ! क्रोष्ट + शस् उकार होकर क्रोष्टु + शस् अ को उ एवं स् को न होकर क्रोष्टून् बना। क्रोष्ट+दा टा आदि स्वर वाली विभक्ति के आने पर क्रोष्ट शब्द के क्र को उ विकल्प से होता है ॥२०२ ॥ 'रमृवर्ण:' से संधि होकर क्रोष्ट्रा बना ऋ को उ होकर अग्नि संज्ञा में क्रोष्टुना बना। यह सर्वत्र ध्यान रखना कि 'उ' होने के बाद अग्नि संज्ञा होकर भानुवत् रूप बनते हैं। अन्यथा पितृवत् बनते हैं। व्यंजन वाली विभक्ति में भी क्रोष्टु + भ्याम् =क्रोष्टुभ्याम् बना। देखिएक्रोष्टा क्रोष्टारौं क्रोष्टारः । क्रोष्टे, क्रोष्ट्वे क्रोष्टुभ्याम् क्रोष्टुभ्यः हे क्रोष्टो ! हे कोष्टारौ ! हे क्रोष्टारः ।। क्रोष्टः, क्रोष्टोः क्रोष्टुभ्याम् क्रोष्टुभ्यः कोष्टारम् क्रोष्टारों क्रोष्ट्न् । क्रोष्टः, क्रोष्टोः क्रोष्ट्रोः, क्रोष्ट्वोः क्रोष्ट्रणाम, क्रोष्टूनाम् क्रोष्ट्रा, क्रोष्टुना क्रोष्टुभ्याम् क्रोटुभिः ] क्रोटरि, प्रोष्टौ क्रोष्टोः, क्रोष्ट्योः क्रोष्टुषु स्वस शब्द में कुछ भेद है-- स्वस + सि='आसौ सिौंपश्च' सूत्र से ऋ को आ और सि का लोप होकर स्वसा बना। स्वस + औघुट् स्वर के आने पर स्वसृ आदि शब्दों के ऋ को आर् हो जाता है ॥२०३ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गः ५७ स्वस्रादीनां च ऋत आर्भवति घुटि परे। स्वसारौ । स्वसार: । हे स्वसः । इत्यादि । अन्यत्र पितृशब्दवत् । के स्वस्रादयः ? स्वसा नप्ता च नेष्टा च स्वष्टा क्षत्ता तथैव च। होता पोता प्रशास्ता घेत्यष्टौ स्वस्रादयः स्मृताः॥१॥ नृशब्दस्य तु भेदः । नृशब्दस्यामि विशेष: । ना। नरौ । नरः । हे न: । है नरौ । हे नरः । नरम् । नरौ । नृन्। त्रा। नृभ्याम् । नृभिः । त्रे । नृभ्याम् । नृभ्यः । नुः । नृभ्याम् । नृभ्यः । नुः । नोः । न नामि दीर्घमिति वर्तते। नृया०४॥ नृशब्दो वा दीर्घ प्राप्नोति सनावामि परे । नृणाम्, नृणाम् । नरि। नोः । नृषु ॥ इति ऋदन्ताः । ऋकारलृकारलूकारकारान्ता अप्रसिद्धाः । ऐकारान्तः । पुल्लिङ्गो रैशब्दः । आत्वं व्यञ्जनादौ इति वर्तते । रैः॥२०५॥ स्वस् आर् + औ= स्वसारौ स्वसारः। हे स्वस:, स्वस + शस् में स् को न नहीं होगा क्योंकि 'शसोऽकार: सश्चनोऽस्त्रियाम्' सूत्र में स्त्रीलिंग में स् को न का निषेध किया है और यह स्वसावहन का वाचक स्त्रीलिंग है। अत: स् को विसर्ग होकर स्वसृ: बनेगा। बाकी शब्द पितृवत् चलेंगे। सूत्र में स्वस्त्रादि शब्द है तो आदि से कौन कौन लेना ? श्लोकार्थ-स्वस, नप्त, नेष्ट्र, त्वष्ट, क्षत्तु, होत्त, पोत, प्रशास्तृ ये आठ शब्द आदि शब्द से लिए जाते हैं। इनके रूप भी स्वस के समान ही चलते हैं। अंतर यही है कि ये शब्द पुल्लिग हैं अत: स को न होकर पितृन् शब्द के समान रूप बनते हैं। जैसे नप्तन, नेष्टन इत्यादि। नृ शब्द में आम विभक्ति के आने पर ही अंतर है बाकी सब रूप पितृ के समान ही हैं। न+आम् “न नामि दीर्घ" यह सूत्र अनुवृत्ति से आ रहा है। आम् के आने पर नृ शब्द के क्र को दीर्घ विकल्प से होता है ॥२०४॥ . नृ+नु आम् = नृणाम, दीर्घ होकर, नृणाम् बना । ना नरौ नर: । त्रे नृभ्याम् हे नः । हे नरौ हे नरः | नुः नृभ्याम् नृभ्यः नरम् नरौ नरौ नृन् नृन् । नृणाम्, नृणाम् नृभ्याम् नभिः षु इस प्रकार से प्रकारांत शब्द हुये दीर्घ ऋकारान्त, लकारांत और लकारांत और एकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। अब ऐकारांत पुल्लिंग "," शब्द है। । नरि रै+सि “आत्वं व्यंजनादौ" यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर रै शब्द आकारांत हो जाता है ॥२०५ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला रैशब्दस्य आद् भवति व्यञ्जनादौ परत: । स: 1 रायौं । राय: । हे सः । हे रायौ। हे राय: । रायम् । रायौ । राय: । राया 1 राभ्याम् । राभिः । राये । राभ्याम् । राभ्यः । राय: । राभ्याम् । राभ्यः । रायः । रायोः । रायाम् । रायि । रायो: । रासु । इत्यैकारान्तः ।। ओकारान्त: पुल्लिङ्गो गो शब्दः । गोरौ घुटि॥२०६ ।। गोशब्दस्यान्त और्भवति धुटि परे । गौ: । गावौ । गावः । हे गौ: । हे गावौ । हे गावः । अम्शसोरा ।।२०७॥ गोशब्दस्यान्त आ भवति अम्शसो: परत: । गाम् । गावौ । गाः । गवा। गोभ्याम् । गोभिः । गवे। गोभ्याम् । गोभ्य: । ङसिङसोरलोपत्रेति वर्तते । गोश्च ॥२०८॥ गोशब्दात्परयोङसिङसोरकारो लोपमापद्यते। गो: । गोभ्याम् । गोभ्यः । गो: । गवोः । गवाम् । गवि। गवोः । गोषु । इत्योकारान्त: । औकारान्तः पुल्लिङ्गो ग्लौशब्दः । ग्लौः। ग्लावौ। म्लावः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । ग्लावम् । ग्लावौ । ग्लाव: ग्लावा । ग्लौभ्याम् । ग्लौभिः । इत्यादि । इत्यौकारान्तः । इति स्वरान्ता: पुल्लिङ्गाः रा+स–विसर्ग होकर रा, रै+औ-'ऐ आय' से आय रायौ, राय: बन जाता है। सर्वत्र व्यंजनवाली विभक्ति के आने पर आकार होकर राभ्याम्, राभिः आदि बनता है। ऐकारांत शब्द हुये । अब ओकारांत पुल्लिग गो शब्द है। गो+सि गो शब्द के अंत के ओ को औ हो जाता है घुट विभक्ति के परे रहने पर ॥२०६ ॥ गौ+ सि = गौः, गौ + औ 'औ आव' सूत्र से आव होकर गावी, गाव: बना । संबोधन में भी इसी प्रकार है। गो+ अम, गो + औ, गो+शस्। अम् और शस् के आने पर गो शब्द के अन्त के ओ को 'आ' हो जाता है ॥२०७ ॥ गा+ अम् = गाम्, गावौ, गा+ अस् = गावः । गो + टाओ अव' से संधि होकर गवा बना । गो+ भ्याम् = गोभ्याम्, गोभिः । गो + उ = गवे। गो+सि, गो+ इस् । गो शब्द से परे असि और उस के अकार का लोप हो जाता है ॥२०८ ॥ गो+स् विसर्ग होकर गो: बना। गो+ ओस् 'ओ अब' से संधि होकर गवो: बना। 'गौः गावी गानः। । गवे गोभ्याम् गोध्यः। हे गौः हे गावी हे गानः। । गोध्याम गोभ्यः। गबोः गवाम्। गवा गोभिः। गवि गांषु । इस प्रकार ओकारांत शब्द हुआ। अब औकारांत ग्लौ शब्द है। ग्लो + सि = ग्लौः ग्लौ+ औ ग्लावौ । ग्लौ+ अस् = ग्लाव: । ग्लौ+ भ्याम् = ग्लौभ्याम् । इसी प्रकार से औकारांत शब्द हुए। |इस प्रकार से स्वरांत पुल्लिग प्रकरण पूर्ण हुआ। गाम् गावा गोभ्याम् गवोः Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ताः स्त्रीलिङ्गाः अथ स्वरान्ताः स्त्रीलिङ्गा उच्यन्ते अकारान्त स्त्रीलिङ्गोऽप्रसिद्धः । आकारान्तः स्त्रीलिङ्गी रम्भाशब्दः । सौ । आ श्रद्धा ॥ २०९ ॥ आकारान्तः स्त्र्याख्यः श्रद्धासंज्ञो भवति । श्रद्धायाः सिर्लोपम् ।। २१० ॥ श्रद्धायाः परः सिर्लोएमा : औरिम् ॥ २११ ॥ श्रद्धायाः पर औरिमापद्यते । रम्भे । रम्भाः । सम्बुद्धौ च ॥ २९२ ॥ श्रद्धाया एत्वं भवति सम्बुद्धौ परे । हे रम्भे । हे रम्भे । हे रम्भाः । रम्भां रम्भे । रम्भाः । टौसोरे ॥ २१३ ।। श्रद्धाया एत्वं भवति टौसोः परतः । रम्भया । रम्भाभ्याम् । रम्भाभिः । ङवत्सु । डयन्ति यैयास्यास्याम् ||२९४ ।। अथ स्वरांत स्त्रीलिंग प्रकरण अब स्वरांत स्त्रीलिंग प्रकरण कहा जाता है । अकारांत स्त्रीलिंग अप्रसिद्ध है। आकारांत स्त्रीलिंग 'रम्भा' शब्द है । रम्भा + सिं आकारांत स्त्रीलिंग शब्दों की श्रद्धा संज्ञा हो जाती है ॥ २०९ ॥ श्रद्धा संज्ञक से परे सि का लोप हो जाता है ॥२१० ॥ अतः रम्भा बनी | रम्भा + आँ श्रद्धा संज्ञक से परे औ विभक्ति को 'इ' आदेश हो जाता है | २११ ॥ रम्भा + इ 'अवर्णे इवर्णे ए' से संधि होकर रम्भे बना । जस् में रम्भाः बना । संबोधन मेंरम्भा + सि संबुद्धिसंज्ञक सि के आने पर श्रद्धा संज्ञक आ को 'ए' हो जाता है ॥ २१२ ॥ और 'श्रद्धायाः सिर्लोपम्' से सि का लोप होकर हे रम्भे ! बना हे रम्भे ! हे रम्भाः ! रम्भा +टा टा और ओस के परे श्रद्धा संज्ञक को 'ए' हो जाता है ॥२१३ ॥ रम्भे + आ 'ए अय' से संधि होकर रम्भया बना । रम्भाभ्याम्, रम्भाभि: ५९ रम्भा + डे, रम्भा + ङसि रम्भा + ङस् रम्भा + डि श्रद्धा संज्ञक से ङवंति अर्थात् डे, डसि, डस्, डि के आने पर क्रम से यै, यास, बास्, याम् आदेश हो जाता है ॥२१४ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----- AA D ६० ६ I श्रद्धायाः पराणि इवांस वचनानि यास् यास याम् भवन्ति यथासंख्यम् । रम्भाभ्याम् । रम्भाभ्यः । रम्भायाः । रम्भाभ्याम् । रम्भाभ्यः । रम्भायाः । रम्भयोः । रम्भाणाम् । रम्भायाम् । रम्भयोः । रम्भासु । एवं शाला माला दोला भार्या कान्ता अङ्गना वनिता जाया माया प्रभृतयः । सर्वनाम्नस्त्रिलिङ्गत्वात्स्त्रीलिङ्गे । स्त्रियामादा ।। २१५ ॥ 1 स्त्रियां वर्तमानादकारान्तादाप्रत्ययो भवति विभक्तिपरे । सर्वा । सर्वे सर्वा: । हे सर्वे हे सर्वे हे सर्वाः । सर्वाम् । सर्वे । सर्वा: । सर्वया । सर्वाभ्याम् । सर्वाभिः । डवत्सु । I कातन्त्ररूपमाला सर्वनाम्नस्तु ससवो ह्रस्वपूर्वाश्च ॥ २१६ ॥ सर्वनाम्नः श्रद्धायाः पराणि डवन्ति वचनानि यै यास् याम् भवन्ति यथासंख्यं सह सुना ह्रस्वपूर्वाश्च । सर्वस्यै । सर्वाभ्याम् । सर्वाभ्य: । सर्वस्याः । सर्वाभ्याम् । सर्वाभ्यः । सर्वस्याः । सर्वयोः । आमि। सुरामि सर्वतः । सर्वासाम् । सर्वस्याम् । सर्वयोः । सर्वासु । एवं विश्वादीनामेकशब्दपर्यन्तानां रूपं ज्ञेयम् । अल्पादीनां तु सप्तानां रम्माशब्दवत् । अल्प प्रथम चरम तय अय कतिपय अर्य एते सप्त द्वितीयाशब्दस्य तु भेदः । द्वितीया । द्वितीये । द्वितीयाः । हे द्वितीये हे द्वितीये हे द्वितीयाः । द्वितीयाम् । द्वितीये । द्वितीया: । द्वितीययाः । द्वितीयाभ्याम् । द्वितीयाभिः । वत्सु । रम्भा + यै = रम्भायें, रम्भायाः, रम्भायाः, रम्भाभ्याम् । रम्भा + ओस् 'टौसोरे' सूत्र से आ को ए होकर संधि होकर रम्भयोः बना । रम्भे हेरम्भे ! रम्भे रम्भा हे ! सर्वाम् सर्वयां रम्भा: हे रम्भाः ! रम्भायै रम्भायाः रम्भायाः रम्भाभ्याम् रम्भाभ्याम् रम्भयोः रम्भयोः रम्भाम् रम्भा: रम्भया रम्भाभ्याम् रम्भाभिः रम्भायाम् इस प्रकार से ऊपर लिखे हुआ शाला आदि शब्द चलते हैं। सर्वनाम तीनों लिंगों में चलते है अतः स्त्रीलिंग में 'सर्व' शब्द आया । स्त्रीलिंग में वर्तमान अकारांत शब्द को 'आ' प्रत्यय हो जाता है विभक्ति के आने पर ॥ २१५ ॥ सर्व + आ = सर्वा + सि श्रद्धा संज्ञा करके 'श्रद्धायाः सिर्लोपम्' से सि का लोप होकर सर्वा बना । ड्वान – डे, ङसि, ङस् ङि इन चार विभक्तियों को डवान् कहते हैं इनके आने पर कुछ अंतर है । सर्वा + डे, सर्वा + ङसि सर्वा + डस्, सर्वा + ङि । सर्वनाम श्रद्धासंज्ञक से परे जो डवान् वचन को यै, यास्, यास्, याम् आदेश हुआ है उसमें क्रम से विभक्ति के पूर्व में सकार एवं पूर्व स्वर को ह्रस्व आदेश हो जाता है ॥ २१६ ॥ सर्व + स्यै = सर्वस्यै, सर्वस्याः, सर्वस्याः सर्वस्याम् । सर्वा + आम् 'सुरामि सर्वतः १५५ वे सूत्र से सु का आगम होकर सर्वासाम् बना। सर्वा सर्वे सर्वाः सर्वस्यै सर्वाभ्याम हे सर्वे ! हेस ! हे सर्वाः ! सर्वस्याः सर्वे सत्र: सर्वस्थाः सर्वाभ्याम् सर्वाभिः सर्वस्याम् इसी प्रकार से विश्वा, उभा, उभया, अन्या, अन्यतरा, इतरा, इतमा, कतरा, कतमा, यत्तरा, यतमा ततरा, ततभा, एकतरा, एकतमा त्वा, नेमा, समा, सिमा, पूर्वा, परा, अवरा, दक्षिणा, उत्तरा, अपरा, अधरा, स्वा अंतरा, त्या, ता, या इत्यादि एक पर्यंत रूप सर्वा के समान ही चलेंगे। रम्भाभ्यः रम्भाभ्यः रम्भाणीम् मासु सर्वाभ्याम् सर्वयोः सर्वयोः सर्वाभ्य: सर्वाभ्यः सर्वासाम् सर्वासु Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: स्त्रीलिङ्गाः द्वितीयातृतीयाभ्यां वा ।।२९७ ॥ द्वितीयातृतीयाभ्यां पराणि डवन्ति वचनानि यै यास् यास् याम् भवन्ति यथासंख्यं सह सुना इस्वपूर्वाश्च वा। द्वितीयस्यै, द्वितीयायै। द्वितीयाभ्याम्। द्वितीयाभ्यः। द्वितीयस्या:, द्वितीयाया: । द्वितीयाभ्याम, द्वितीयाभ्यः। द्वितीयस्याः द्वितीयाया: । द्वितीययोः । सर्वादौ अपठितत्वात् न सुरागमः । द्वितीयानाम् । द्वितीयस्याम, द्वितीयायाम्। द्वितीययोः । द्वितीयासु। एवं तृतीयाशब्दोऽपि। अन्यत्र रम्भाशब्दवत् । जराशब्दस्य तु भेदः । व्यञ्जने रम्भाशब्दवत् । जरा जरः स्वरे वा ॥२१८॥ जराशब्दो जरस् वा भवति विभक्तिस्वरे परे । जरे, जरसौ। जराः, जरस: । हे जरे। हे जरे, हे जरसौ । हे जरा:, हे जरस: । जरां, जरस । जरे, जरसौं । जराः, जरस: । जरसा, जरया । जराभ्याम् । जराभिः । जराय, जरसे। जराभ्याम् । जराभ्य: । जराया:, जरसः। जराभ्यां, जराभ्यः । जरायाः, जरस: । जरयो, जरसो: । जराणाभ, जरसाम् । जरायो, जरसि । जरयोः, जरसो: । जरासु। ये सभी शब्द अकारांत हैं इनमें 'स्त्रियामादा' इस २१५वें सूत्र से स्त्रीलिंग बनाने के लिये 'आ' प्रत्यय करना होता है। सर्वत्र अकारांत को स्त्रीलिंग में 'अद' प्रत्यय करना ही होगा। __ अल्पा, प्रथमा, बरमा, कतिपया शब्द और जिसमें तय, अय प्रत्यय लगे हैं ऐसे शब्द राम्भा के समान चलते हैं। द्वितीया शब्द में कुछ भेद हैं। द्वितीया + सि= द्वितीया इत्यादि। द्वितीया+डे द्वितीया और तृतीया से परे ङ वान् को क्रम से यै, यास्, यास्. याम् विकल्प से होता है ॥२१७ ॥ ___ अर्थात् एक बार स् सहित यै, यास, यास्, याम् होकर पूर्व को हस्व हो जाता है अत: इन चार विभक्तियों के दो रूप बनते हैं यथा द्वितीया + डे = द्वितीयाय, द्वितीयस्य, द्वितीयाया:, द्वितीयस्याः इत्यादि। ये द्वितीया, तृतीया शब्द सर्वादि गण में कहे नहीं गये हैं। अत: आम के आने पर सु का आगम न होकर नु का आगम हुआ। तब द्वितीयानाम् बना। शेष सभी रूप रंभा के समान हैं। द्वितीया द्वितीये द्वितीयाः । द्वितीयायै, द्वितीयस्य द्वितीयाभ्याम् द्वितीयाभ्यः हे द्वितीये । हे द्वितीये ! हे द्वितीयाः ।। द्वितीयायाः, द्वितीयस्याः द्वितीयाभ्याम् द्वितीयाभ्यः द्वितीयाम् द्वितीये द्वितीयाः द्वितीयायाः, द्वितीयस्याः द्वितीययोः द्वितीयानाम् द्वितीयया द्वितीयाभ्याम् द्वितीयाभिः | द्वितीयायाम, द्वितीयस्याम द्वितीययोः । जरा शब्द में स्वर के आने पर भेद हैं व्यंजन में रम्भावत् ही है। जरा+सि = जरा, जरा+ औ स्वर वाली विभक्ति के आने पर जरा शब्द को जरस् आदेश विकल्प से हो जाता है ॥२१८ ॥ अर्थात् एक बार रंभावत् जरे बना । दूसरी बार जरस् + औ = जरसौ जरा + जस् = जरा:, जरस: बना। जरा जरे, जरसी जराः, जरसः |जराय, जरसे जराभ्याम जसभ्यः हे जरे । हे जरे !, हे जरसी ! हे जरा: ! हे अरसः जरायाः, जरसः जराभ्याम् जराभ्यः जराम, जरसम् बरे, जरसौ जराः, जरसः जरायाः जरसः जरयोः जरसोः जराणाम, जरसाम् जरया, जरसा जराभ्याम् जराभिः जरायाम.जरसि जरयोः जरसोः जराम द्वितीयासु Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करा-बरमाला ह्रस्वोऽम्बार्थानाम् ।।२१९॥ अम्बार्थानां द्विस्वराणां श्रद्धासंज्ञकानां सम्बुद्धौ हस्वो भवति । हे अम्ब । हे अक्क । हे अल्ल । हे अत्त । एवमादयोऽम्बार्थाः । अन्यत्र रम्भाशब्दवत् । न बहुस्वराणाम् ।।२२० ॥ बहुस्वराणामम्बार्थानां श्रद्धासंज्ञकानां हस्वो न भवति सम्बुद्धौ सौ परे । हे अम्बाडे । हे आबाले । हे अम्बिके । इत्याकारान्ता: । इकारान्तः स्त्रीलिङ्गो रुचिशब्दः । रुचिः । रुची । रुचयः । हे रुचे। हे रुची। हे रुचय: । रुचिम् । रुची। स्त्रीलिङ्गत्वात्सस्य नत्वाभावः । रुवीः । तृतीयैकवचनेऽपि तस्मानत्वाभावः । रुच्या 1 रुचिभ्याम् । रुचिभिः । वत्सु। हस्वश्च इवति ।।२२१॥ स्त्र्याख्यावियुवौ स्थानिनौ च ह्रस्वश्च डवति परे नदीसंज्ञौ वा भवतः । यत्र नदीसंज्ञा तत्र । माता अर्थ के वाचक दो स्वर वाले श्रद्धासंज्ञक शब्दों को संबुद्धि में ह्रस्व हो जाता है ॥२१९॥ हे अम्बा +सि-हे अम्ब ! हे अक्क ! हे अल्ल ! हे अत: ! सम्बोधन में माता अर्थ के वाचक शब्दों में ही यह नियम है। बाकी सभी विभक्तियों में इनके रूप रम्भावत् चलेंगे। जैसेअम्बा अम्बे अम्बाः । अम्बायैः अम्बाभ्याम् अम्बाभ्यः हे अम्ब ! हे अम्बे ! हे अम्बाः !] अम्बायाः अम्बाभ्याम् अम्बाभ्यः अम्बाम् अम्बे अम्बाः अम्बायाः अम्बयोः अम्बानाम् अम्बया अम्बाभ्याम् अम्बाभिः । अम्बायाम् अम्बयोः अम्बासु बहुत स्वर वाले माता के वाचक, श्रद्धा संज्ञक शब्दों को संबोधन में हस्व.नहीं होता है ।।२२०॥ जैसे—अम्बाडा + सि = हे अम्बाडे ! हे अम्बाले ! हे अम्बिके ! इस प्रकार से आकारांत शब्द हुये। अब इकारान्त स्त्रीलिंग रुचि शब्द है। रुधि+सि= रुचि., रुचि+ औ 'औरिम्' इस २११वें सूत्र से 'इ' होकर रुची 1 रुचि+जस् अग्नि संज्ञा करके 'इरेदुरोज्जसि' सूत्र से ए होकर रुचय बना। रुचि + शस् स्त्रीलिंग में स् को न् नहीं होने से विसर्ग होकर रुची; बना । अर्थात् 'शसोऽकार: सश्च नोऽस्त्रियाम्' इस १६६वें सूत्र से शस् के अकार को पूर्व स्वर रूप होकर स् को विसर्ग हुआ और समान सवर्ण को दीर्घ होकर रुची: बना। रुचि+टा, टा के द् का अनुबंध लोप होकर रुचिं + आ 'अस्त्रियां टा ना' इस १६७वे सूत्र से स्त्रीलिंग में टा को ना का निषेध होने से संधि हो गई तो रुच्या बना । रुचि + भ्याम् = रुचिभ्याम्।। रुचि+ डे आदि चारों वचन हैं। डे आदि विभक्ति के आने पर स्त्रीलिंग में वाची इय् उव् स्थानीय और ह्रस्व इकारान्त उकारान्त स्त्रीलिंग वाचक शब्द वह विकल्प से नदीसंज्ञक भी हो जाते हैं ॥२२१ ।। अर्थात् आगे आने वाले २२६वें सूत्र से दीर्घ ई ऊ को स्त्रीलिंग में नदी संज्ञा होती है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: स्त्रीलिङ्गाः नद्या ऐआसासाम्॥२२२ ।। नदीसंज्ञकात्पराणि डन्ति वचनानि ऐ आस् आस् आम् भवन्ति यथासंख्यम्। नदीसंज्ञाभावे मुनिशब्दवत् । रुच्यै, रुचये । रुचीभ्याम् । रुचिभ्यः । रुच्या, रुचे: । रुचिभ्याम् । रुचिभ्यः । रुच्या;, रुचेः । रुच्योः । रुचीनाम् । रुच्याम्, रुचौं । सच्योः । रुचिषु । एवं बुद्धि वृद्धि कीर्ति कान्ति कृति युक्ति श्रेणि पङ्क्ति प्रभृतयः । द्विशब्दस्य तु भेदः । त्यदादित्वात् अ आदेश आ प्रत्ययश्च । द्वे । हे द्वे । द्वे । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वयोः । द्वयोः । त्रिशब्दस्य तु भेद: ।। त्रिचतुरोः स्त्रियां तिसूचतस विभक्तौ ॥२२३ ।। स्त्रियां वर्तमानयोस्त्रिचत्वार्शब्दयोः तिसृ चतस आदेशौ भवत: विभक्तो परत: । धुटि चेत्यरि प्राप्ते बाधकबाधनार्थोऽयं योगः। तौ र स्वरे ॥२२४॥ नदी संज्ञक से परे डे आदि के आने पर क्रम से चारों को ऐ, आस्, आस्, आम् आदेश होते हैं ॥२२२ ॥ और जब नदी संज्ञा नहीं हुई तब मुनि शब्द के समान रूप चलेंगे। उ आदि चार विक्तियों में ही दो-दो रूप हैं। रुचि+३= मुनिवत् में 'डे' इस सत्र से इको ए होकर संधि हुई तो रुचये, नदीसंज्ञक में ऐ होकर रुचि+ऐ = रुच्य बना तथैव रुचि+ ङसि अग्नि संज्ञक मे 'इसिङसोरलोपश्च' १६९वें सूत्र से इ को अ का लोप होकर रुचे: बना । और नदी संज्ञा होकर डसि को आस् आदेश होकर रुच्या: बना। रुचि+ डि-अग्नि संज्ञा में रुचौ, नदी संज्ञा में रुच्याम्। रुचिः रुची रुचयः । रुच्य, रुचये रुचिभ्याम् रुचिभ्यः हे रुचे ! हे रुची ! हे रुचय: 1 | रुचे, रुच्याः रुचिभ्याम् रुचिभ्यः रुचिम् रुची रुचीः । रुचे, रुच्याः रुच्यो: रुचीनाम् रुच्या रुचिभ्याम् रुचिपिः | रुचौ,रुच्याम्रु च्योः रुचिषु इसी प्रकार से ऊपर लिखे हुये बुद्धि, वृद्धि, आदि रूप चलते हैं। द्वि शब्द में कुछ भेद हैंद्वि+ औ 'त्यदादीनाम् विभक्ती' इस १७२वें सूत्र से 'अ' आदेश होकर 'द्' 'स्त्रियामादा' सूत्र से आ होकर द्वा बना 'औरिम्' से औ को 'इ' होकर द्वे बना । द्वा+ भ्याम् = द्वाभ्याम् । द्वा+ओस् 'टौ सो रे' २१३वें सूत्र से ए होकर द्वयोः बना। त्रि शब्द में कुछ भेद हैं। त्रि+जस स्त्रीलिंग में वर्तमान त्रि और चत्वार शब्द विभक्ति के आने पर तिसू, चतसृ आदेश हो जाता है ॥२२३ । तिसृ+ अस् यहाँ 'घुटि च' १९५३ सूत्र से त्रर को अर प्राप्त था किंतु इसे बाधित करने के लिये आगे के सूत्र का योग है। स्वर वाली विभक्ति के आने पर तिस्, चतसृ के ऋ को र आदेश हो जाता है ॥२२४ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला तौ तिसृ चतस आदेशौ रं प्राप्नुतो विभक्तौ स्वरे परे। तिस्त्र: । हे तिस्रः । तिस्रः । तिसृभिः । तिसृभ्यः । सिंह। न नामि दीर्घम्॥२२५ ॥ तौ तिसृ चतस् आदेशौ दीर्घत्वं न प्राप्नुवत: सनावामि परे । तिसृणाम् । तिसुषु । इति इकारान्तः । ईकारान्त: स्त्रीलिङ्गो नदीशब्दः । ईदूतो स्त्र्याख्यौ नदी ॥२२६ ॥ स्त्र्याख्यावीदूतौ नदीसंज्ञौ भवतः । ईकारान्तात्सिः ॥२२७ ॥ नदीसंज्ञकादीकारान्तात्परः सिर्लोपमापद्यते। नदीसंज्ञादन्तग्रहणाधिक्यान्नदाद्यञ्चीत्यादिना विहितादीकारात्पर: सिल्र्लोपमापद्यते । नदी। नद्यौ । नद्यः । संबुद्धौ ह्रस्वः ॥२२८ ॥ नद्याः संबुद्धौ हरवो भवति । हे नदि । हे नद्यौ । हे नद्यः । अम्शसोरादिलोपम् ।।२२९॥ नदीसंज्ञकात्परयोः अम्शसोरादिलोपमापद्यते । नदीम् । नद्यौ । नदी: । नद्या । नदीभ्याम् । नदीभिः । ङवत्सु । नद्या ऐआसासामित्यादयः । नद्यै । नदीभ्याम् । नदीभ्यः । नद्याः । नदीभ्याम् । नदीभ्यः । नद्याः । नद्यो: । नदीनाम्। नद्याम् । नद्योः । नदीषु । एवं गौरी गान्धारी वाणी भारती गायत्री सावित्री सरस्वती गोमती गोमिनी भामिनि क्राष्ट्री महिषी मही प्लवी सौरभेयी प्रभृतयः ।। तिस + अस् = तिस्रः, चतस्रः । तिस + शस्- तिस्रः । तिस + भि: = तिसृभिः । तिस + आम् नु का आगमन को ण् हुआ। सु नु आम् विभक्ति के आने पर तिसू, चतसृ आदेश को दीर्घ नहीं हुआ ॥२२५ ॥ तो तिसृणाम् बना। इस प्रकार से इंकारांत शब्द हुये। अब ईकारांत स्वीलिंग नदी शब्द है। स्त्रीलिंग के ईकारांत और ऊकारांत शब्दों को 'नदी' यह संज्ञा हो जाती है ॥२२६ ॥ नदी + सि नदी संज्ञक ईकारांत से परे 'सि' का लोप हो जाता है ॥२२७ ॥ नदी संज्ञक से और अंत ग्रहण की अधिकता से 'नदाद्यञ्ची' इत्यादि सूत्र से किये गये ईकार प्रत्यय से परे सिकालोप हो जाता है। नदी, नदी+औ 'इवर्णो यमसवणे' इत्यादि सूत्र से संधि होकर नद्यौ बना । सम्बोधन में नदी + सि संबद्धि सि के आने पर नदी संज्ञक को ह्रस्व हो जाता है ॥२२८ ।। पुन: ‘ह्रस्व नदी श्रद्धाभ्यः सिौपम्' सूत्र से नदी संज्ञक से संबोधन में सि का लोप हो गया। हे गदि ! हे नद्यौ ! हे नद्यः ! नदी+ अम्, नदी+ शस नदी संज्ञक से परे अम् और शस् के आदि के 'अ' का लोप हो जाता है ॥२२९ ।। नदीम, नदी:। नदी+टा संधि होकर नद्या बना । नदीभ्याम्, नदीभि: नदी +डे आदि चार विभक्तियाँ हैं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: स्त्रीलिङ्गाः मही मन्दाकिनी गौरी सखी भागीरथी नदी। पुरी नारी पुरन्धी च सैरन्धी सुरसुन्दरी ॥१॥ मृगी वनचरी देवी शर्वरी वरवर्णिनी।। सिंही हैमवती धात्री धरित्रीत्येवमादयः ।।२।। स्त्रीशब्दस्य तु भेद: । सौ स्त्री नदीवत्॥२३०।। स्त्रीशब्दो नदीवद्भवति विभक्तौ परत: । स्त्रीशब्दस्य पृथक्नदीसंज्ञाकरणं किमर्थ ? ह्रस्वश्च डवति वा इति सूत्रोक्तविकल्पनिषेधार्थम् । स्त्री। स्त्री च ॥२३१॥ स्त्रीशब्दौ धातुबद्भवति विभक्तिस्वरे परे । स्त्रियौ । स्त्रिय: । हे स्वि । हे स्त्रियौ । हे स्त्रियः । वाम्शसौः ॥२३२॥ 'नद्या ऐ आसासाम्' इस २२२वें सूत्र से ढ़े को ऐ सि को आस, डस् को आस् और डि को आम् आदेश हो जाता है पुन: 'इवों यमसवणे' इत्यादि से संधि होकर नद्यै, नद्याः, नद्या, नद्याम् बना। नदी नधो नद्यः । नद्यै नदीभ्याम् नदीभ्यः हे नदि ! हे नधौ ! हे नधः । । नद्याः नदीभ्याम् नदीभ्यः नदीम् नद्यौ नदीः उद्योः नदीनाम् नद्या नदीभ्याम् नदीभिः । नद्याम् नयोः नदीषु इसी प्रकार से गौरी, गांधारी आदि शब्दों के रूप चलेंगे। श्लोकार्थ-मही, मंदाकिनी, गौरी, सखी, भागीरथी, नदी, पुरी, नारी, पुरन्ध्री, सैरन्ध्री, सुरसुन्दरी मृगी, बनेचरी, देवी, शर्वरी, वरवर्णिनी, सिंही, हैमवती, धात्री, धरित्री इन शब्दों को आदि में लेकर बहुत से शब्द हैं जो नदीसंज्ञक हैं और नींवत् चलते हैं ॥१-२॥ स्त्री शब्द में कुछ भेद है। स्त्री+ सि विभक्तियों के आने पर स्त्री शब्द नदीवत् हो जाता है ॥२३०॥ स्त्री शब्द को नदी संज्ञा पृथक् रूप से क्यों की ? "हस्वश्च इवति वा' २२१वें सूत्र में कहे गये विकल्प का निषेध करने के लिये । स्त्री+सि-सि का लोप होकर स्वी। स्त्री+औ स्वर वाली विभक्ति के आने पर स्त्री शब्द धातुवत् हो जाता है ॥२३१ ।। स्त्री शब्द को धातुवत् कर लेने के बाद 'ईदूतोरियुवौ स्वरे' इस १८९३ सूत्र से धातु के ईकार ऊकार को इय् उव् आदेश हो जाता है । अत: स्त्रिय् + औ= स्त्रियौ, स्त्रियः बन गया। । संबोधन में हस्व होकर हे स्त्रिं ! आदि । स्त्री + अम्, स्त्री + शस् अम् शस् विभक्ति के आने पर स्त्री शब्द धातुवत् विकल्प से होता है ॥२३२ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ कातन्त्ररूपमाला स्त्रीशब्दो वा धातुवद्भवति अम्शसो: परत: । स्त्रीम्, स्त्रियम् । स्त्रियौ । स्त्री: स्त्रिय: । स्त्रिया । स्त्रीभ्याम् । स्त्रीभिः । स्त्रियै । स्त्रीभ्याम् । स्त्रीभ्यः । स्त्रिया: । स्त्रीभ्याम् । स्त्रीभ्यः । स्त्रिया: । स्त्रियोः । स्त्रीणाम् । स्त्रियां । है। स्त्रीष ॥ श्रीशब्दस्य त भेदः । श्रीः । ईदतोरियवौ स्वरे इति स्वरादावियादेशः । श्रियौ। श्रियः। अनित्यनदीत्वात्संबुद्धौ हस्त्रो नास्ति । हे श्री: । हे श्रियौ। हे श्रियः । श्रियम् । श्रियौ। श्रियः । श्रिया । श्रीभ्याम् । श्रीभि: । ङवत्सु नद्या ऐआसासाम् । पश्चादीदूतोरियुवौ स्वरे । नदीपक्षे ऐआसादयः । श्रियै, श्रिये । श्रीभ्याम् । श्रीभ्यः । श्रिया; श्रियः । श्रीभ्याम् । श्रीभ्य: । श्रिया:, श्रिय: । श्रियो; । आमि। स्थ्याख्यावियवौ वामि ॥२३३ ।। स्त्र्याख्यावियुवस्थानिनौ आमि परे वा नदीसंज्ञौ भवत: । सिद्धे सत्यारम्भो नियमाय । कि नदीवत्कार्य आमि च नः इति नुरागम: । अन्यत्र "ईदूतोरियुवौ स्वरे" इति इय् उन् । श्रीणाम, श्रियाम् । श्रियाम, श्रियि । श्रियोः । श्रीषु । लक्ष्मीशब्दस्य तु भेद: । लक्ष दर्शनाङ्कनयोः। धमा होने से शिमा और विय: स. मानसीसंज्ञक में 'अम् शसोरादिलॊपम्' से 'अ' का लोप होकर स्त्रीम, स्त्री: बना। स्त्री+ टा=खिया । स्त्री + डे, डसि आदि । 'हस्वच ङवति' इस सूत्र से डे आदि के आने पर विकल्प से नदी संज्ञा होती थी किन्तु इस विकल्प को ही बाधित करने के लिये 'स्त्री नदीवत्' यह २३० वाँ सूत्र लगा था अत: यहाँ विकल्प का निषेध होने से स्त्री शब्द में वे आदि के आने पर धातुवत् कार्य होकर इय् भी हुआ और नदी संज्ञा होने से विभक्तियों को ऐ आस् आस् आम् भी हुआ तो स्त्रिय+ऐ= स्त्रियै स्त्रिय+आस= स्त्रिया:, स्त्रिया:, स्त्रियाम् बन गया। सर्वत्र स्वर वाली विभक्ति के आने पर ई को इय् हुआ है। स्त्री स्त्रियों स्त्रिय स्त्रीभ्याम स्त्रीभ्यः हे नि ! हे लियः! स्त्रियाः स्त्रीभ्याम स्वीभ्यः स्वीम् , स्त्रियम् स्त्रियो स्त्रीः स्त्रियः खियाः स्त्रियोः स्त्रिया स्वीभ्याम् स्वीभिः । स्त्रियाम् स्त्रियोः स्त्रीषु श्री शब्द में कुछ भेद है। श्री+सि= श्री: श्री+औ 'ईदूतोरियुवौ स्वरे' इस सूत्र से इय् आदेश होकर श्रियों, श्रियः आदि । संबोधन में –श्री+ सि श्री शब्द की नदी संज्ञा अनित्य है। अत: संबोधन में ह्रस्व नहीं होगा अतः हे श्री: ! बना। श्री +डे, इसि आदि। नदी संज्ञा होने पर ऐ, आस्, आस्, आम् आदेश होकर इय् आदेश हो जाता है । तब 'श्रियै' और जब नदी संज्ञा नहीं हुई इय होकर श्रिये बना । श्री+आम् आम विभक्ति के आने पर स्त्रीलिंग में इय उव् स्थानीय शब्दों की नदी संज्ञा विकल्प से होती है ॥२३३॥ किसी कार्य के सिद्ध होने पर भी जो पुन: सूत्र का आरंभ होता है वह नियम के लिये होता है। नदीवत् कार्य क्या है ? 'आमि च नः' इस सूत्र से नु का आगम होकर न को ग् होकर श्रीणाम् बना, अन्यत्र इय् आगम होकर श्रियाम् बना । श्री+हिनदी संज्ञा होने पर श्रियाम, अन्यत्र श्रियि बनेगा। त्रियो श्रियः । श्रिय,श्रिये श्रीभ्याम् श्रीभ्यः हे श्रीः ! हे श्रियो । हे श्रियः ।। श्रियाः श्रियः श्रीभ्याम् श्रीभ्यः श्रियम् श्रियों श्रियः श्रियाः, श्रियः श्रियोः श्रीणाम, श्रियाम श्रीभ्याम् श्रीभिः । श्रियाम श्रियि थियोः स्त्रियः स्त्रीप्याम् श्रिया श्रीषु । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: स्त्रीलिङ्गः ६७ लक्षेरीमोऽन्तश्च ॥२३४॥ लक्षयातोरीप्रत्ययो भवति मोऽन्तश्च ।। ईकारोऽन्ते यस्य लिङ्गस्येति वचनात् ईकासन्तात्सिरिति सेलोपो न भवति। L अवीलक्ष्मीतरीतन्त्री-हीथीश्रीणामुणादितः । अपि स्त्रीलिङ्गजातीनां सिलोपो न कदाचन ॥१॥ लक्ष्मी: । लक्ष्यौ । लक्ष्म्यः । अन्यत्र नदीशब्दवत् । इति ईकारान्ताः । उकारान्त: स्त्रीलिङ्गश्चञ्चुशब्दः । स च रुचिशब्दवत् । विशेषस्तु उत ओत्वमवादेशश्च । चञ्चुः । चञ्चू । चञ्चव: । हे चञ्चो । हे चञ्चू । हे चञ्चवः । चञ्चम् । चञ्चू । चयू: । चञ्च्वा । चक्षुभ्याम् । चक्षुभिः । ह्रस्वश्च डवतीति वा नदीवद्भावादैआसादय: । पक्षे भानशब्दवत् । चञ्च्चै, चञ्चवे । चञ्चभ्याम् । चञ्चभ्यः । चञ्चा: चञ्चोः। चञ्चभ्याम्। चञ्चभ्यः । चञ्च्चा, चश्चोः । चळ्वोः । चञ्चूणाम् । चञ्वाम, चञ्चौ । चञ्च्चो: । चक्षुषु । एवं उडु तनु प्रियङ्ग स्नायु ऊरु करेणु धेनुप्रभृतयः । इत्युकारान्ता: ।। ऊकारान्त: स्त्रीलिङ्गो वधूशब्दः । सौ-अनीकारान्तत्वात् ईकारान्तात्सिरिति सेलोपो न भवति । वधूः । वध्वौ । वध्वः । संबुद्धौ ह्रस्व: । हे वधु । हे वध्वौ । हे वध्वः । अन्यत्र नदीवत् । एवं अलाबू कच्छू यवागू चमू तण्डू कमण्डलू कद्रू कण्डू कासूप्रभृतयः भ्रूशब्दस्य तु भेद: । सौ-भूः।। लक्ष्मी लक्ष्मी शब्द में कुछ भेद है। 'लक्ष' धातु देखने और गिनती करने अर्थ में है। लक्ष धातु से 'ई' प्रत्यय होकर अंत में म् का आगम हो जाता है ॥२३४ ॥ इस नियम से लक्ष्मी बना। ईकारांत शब्द से सि विभक्ति के आने पर 'ईकारांतात्सिः' इस सूत्र से सि का लोप होता था सो नहीं हुआ है अत: लक्ष्मी: बना। श्लोकार्थ-अवी, लक्ष्मी, तरी, तन्त्री, ही, धी, श्री शब्दों में उणादि गण के स्त्रीलिंग वाची शब्दों में कदाचित् भी सि का लोप नहीं होता है। लक्ष्मीः लक्ष्यो लक्ष्यः । लक्ष्म्यै लक्ष्मीच्या लक्ष्मीभ्यः हे लक्ष्मि ! हे लक्ष्म्यौ ! हे लक्ष्म्यः ! लक्ष्याः लक्ष्मीभ्याम् लक्ष्मीभ्यः लक्ष्मीम् लक्ष्यों लक्ष्याः लक्षयोः लक्ष्मीणाम् लक्ष्म्या लक्ष्मीभ्यां लक्ष्मीभिः | लक्ष्याम् लक्ष्योः लक्ष्मीषु र ष के बाद पवर्ग का अन्तर होने पर भी न को ण होता है । ईकारांत शब्द पूर्ण हुये। अब उकारांत स्वीलिंग चञ्च शब्द है। चञ्चु + सि । चक्षुः चञ्चु, चञ्चवः । __ यह शब्द रुचि शब्द के समान चलेगा। विशेष इतना है कि 'उ' को 'ओ' और 'ओ' को पुन: अव् आदेश हो जाता है अत: हे चश्चो ! बनेगा। बञ्जु + डे, इसि आदि 'ह्रस्वश्च डवति' सूत्र से नदी संज्ञावत् कार्य करने से ऐ आस् आस् आम् हो जाता है अन्यथा भानु शब्दवत् रूप चलता है । चञ्चुः चक्षू चावः । चञ्च्दै, चश्चवे चञ्चध्याम् चक्षुभ्यः हे चञ्चो ! हे च । हे चक्रवः चज्याः, चचोः चक्षुभ्याम् चचुभ्यः चश्चम च चश्नः चच्चाः, चोः चवोः चयूनाम् चच्चा चञ्चुभ्याम् चञ्चभिः । चञ्वाम्, चञ्चौ चञ्चोः Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૮ कातन्त्ररूपमाला भूर्धातुवत् ।।२३५ ॥ भ्रूशब्दो धातुवद्भवति विभक्तिस्वरे परे । ध्रुवौ । ध्रुव: । सम्बोधनेऽप्यनित्यनदीत्वात् संबुद्धौ ह्रस्वो नाति । अव यौवत् । हे भ्रूः । है ध्रुवौ । हे ध्रुवः । ध्रुवम् । ध्रुवौ भुव: । ध्रुवा। भ्रूभ्याम् । भूभिः । ध्रुवे, भुवै । भूभ्याम् । भ्रूभ्य; । भ्रुवाः, भ्रवः । भ्रूभ्याम् । भ्रूभ्य: । ध्रुवाः, ध्रुव: । ध्रुवोः । भ्रूणाम् । ध्रुवि, ध्रुवाम्। ध्रुवोः । भ्रूषु ॥ इत्यूकारान्ता: ।। सकारान्तः स्त्रीलिङ्गो मातृशब्दः । माता । मातारौं । मातरः । हे मातः । हे मातरौ । हे मातरः । मातरम्। मातरौं । मातुः । स्त्रीलिङ्गत्वात्सस्य नत्वाभावः । इत्यादि । अन्यत्र पितृशब्दवत् । एवं दुहित नमान्दृप्रभृतयः । स्वस्रादीनां च पूर्ववत् । स्वस्रादय: के ? वधूषु ___ इसी प्रकार से उडु, तनु, प्रियंगु, स्नायु, करू, करेणु, धेनु आदि शब्द चलते हैं। इस प्रकार उकारांत शब्द हुये। सकारांत स्त्रीलिंग वधू शब्द है। वधू +सि, ईकारांत न होने से 'ईकारांतात्सिः' इस सूत्र से सि का लोप न होने से वधूः बना । संबोधन में हस्व होकर हे वधु ! अन्यत्र नदीवत् । वधूः वष्यौ वध्यः । वन वधूभ्याम् वधूभ्यः हे वधु ! हे वध्वौ । हे वनः ! | वध्वाः वधूभ्याम् वधूभ्यः वषम वध्वौ वधूः वध्या : वध्वोः वधूनाम् वध्या वधूभ्याम् वधूभिः । वध्वाम् बच्चोः इसी प्रकार से अलाबू आदि शब्द चलेंगे। 5+ सि= भूः । भ्रू+औ स्वर वाली विभक्ति के आने पर 5 शब्द धातुवत् हो जाता है ।।२३५ ॥ ध्रुवौ, ध्रुवः । भू शब्द की भी नदी संज्ञा अनित्य है अत: संबोधन में हस्व नहीं होता है अत: हे भूः ! हे ध्रुवौ ! हे ध्रुवः ! नदी संज्ञा के पक्ष में डे आदि विभक्ति को क्रमश: ऐ आस् आस् आम् होकर ऊ को उव् होगा। अत: वो भुवः । भुवै, ध्रुवे भूम्याम् धूभ्यः हे । हे भूवौ ! हे पुवः ।। भुवाः, ध्रुवः भ्रूभ्याम् अवम् ध्रुवौ ध्रुवः अवाः, ध्रुवः धुलोः ब्रुवाम, भ्रूणाम युवा धूम्याम् भूपिः । ध्रुवाम्, भूवि ध्रुवोः इस प्रकार से उकारांत शब्द हो गये। ऋकारांत स्त्रीलिंग मातृ शब्द है। मातृ + सि 'आसौ सिर्लोपश्च' इस सूत्र से ऋ को आ होकर सि का लोप हो गया तो माता बना। यह शब्द पितृ शब्द के समान ही चलता है केवल शस् में स् को न नहीं होता है अत: मातृ: बना । माता मातरौं मातरः । मात्रे मातृभ्याम् मातृभ्यः हे मातः ! हे मातरौ ! हे मातरः !| मातुः मातृभ्याम् मातृभ्यः मातरम् पातरौं मातः मात्रोः मातृणाम् मात्रा मातृभ्याम् मातृभिः । मातरि मात्रोः मातृषु इसी प्रकार से दुहित, ननान्द आदि शब्द चलते हैं। स्वसू आदि शब्द भी पूर्ववत् चलते हैं । स्वसृ आदि शब्द भी पूर्ववत् चलते हैं । स्वस आदि में आदि शब्द से कितने रूप आवेंगे ? मातुः Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: नपुंसकलिङ्गाः स्वसा तिरुश्चतरुक्ष ननान्दा दुहिता तथा। याता मातेति सप्तैते स्वस्त्रादिष्वध्यगीषत ॥१॥ शसादौ मातृशब्दवत् । इति प्रकारान्ताः । ऋकार लकार लकार एकारान्ता अप्रसिद्धाः । एकारान्तः स्त्रीलिङ्ो सुरैशब्दः । स च रैशब्दवत् । सुरा: सुसयौ सुरायः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । सुरायम् सुरायौ सुरायः । सुराया सुराभ्याम् सुराभिः । सुराये सुराभ्याम् सुराभ्यः । सुराय: सुराभ्याम् सुराभ्यः । सुरायः सुरायो: सुरायाम् । सुरायि सुरायोः सुरासु । इत्यैकारान्ता: । ओकारान्तः स्त्रीलिङ्गो गोशब्द: । स च पूर्ववत् । औकारान्त: स्त्रीलिङ्गो नौशब्दः । स च ग्लौशब्दवत् । इत्यौकारान्ताः । इति स्वरान्ता: स्त्रीलिङ्गाः अथ स्वरान्ता नपुंसकलिङ्गा उच्यन्ते अकारान्तो नपुंसकलिङ्गः कुलशब्दः । सौ--- अकारादसम्बुद्धौ मुश्च ॥२३६ ॥ अकारान्तान्नपुंसकलिङ्गात्परयो: स्यमोर्लोपो भवति मुरागमश्चासम्बुद्धौ । कुलं । श्लोकार्थ-स्वस, तिसृ, चतसृ, ननान्द, दुहित, यातू, मातृ ये सात शब्द यहाँ आदि शब्द से लिये गये हैं। इनमें भी शस् विभक्ति में मातृ शब्दवत् रूप बनते हैं। इस प्रकार से ऋकारांत शब्द हुए। ऋकारांत, लकारांत और लूकारांत और एकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। अब ऐकारांत स्त्रीलिंग 'सुरै' सुरै+सि है । रै.' इस सूत्र से व्यंजनवाली विभक्ति के आने पर ऐ को आ हो जाता है तब रा:' बना । सुराः सुरायो सुरायः । सुराये सुराभ्याम् सुराभ्यः हे सुराः । हे सुरायौ ! हे सुरायः ! | सुरायः सुराभ्याम् सुराभ्यः सुरायम् । सुरायों सुरायः । सुरायः सुरायोः सुरायाम् सुराया सुराभ्याम् सुराभिः । सुरायि सुरायोः सुरासु इस प्रकार से ऐकारांत शब्द हुए। अब ओकारांत यो शब्द है जो कि पूर्ववत् चलता है। औकारांत स्त्रीलिंग 'नौ' शब्द है। यह ग्लौ शब्दवत् चलता है। इस प्रकार से औकारांत शब्द हुये। स्वरांत स्वीलिंग प्रकरण पूर्ण हुआ। अब स्वरांत नपुंसकलिंग प्रकरण कहा जाता है। अकारांत नपुंसकलिंग कुल शब्द है। कुल+सिं, कुल + अम् अकारांत नपुंसकलिंग से परे संबुद्धि को छोड़कर सि, अम् विभक्ति का लोप हो जाता है और मु का आगम हो जाता है ॥२३६ ॥ ___ एक को हटाकर उसी स्थान पर दूसरे प्रत्यय के आने पर उसे आदेश कहते हैं एवं पृथक् रूप से किसी प्रत्यय के आने को आगम कहते हैं। आदेश शत्रुवत् माना गया है एवं आगम मित्रवत् माना गया है। कुल+भु 'उ' का अनुबंध लोप होकर कुलम् बना । कुल+औ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० कातन्त्ररूपमाला औरीम्॥२३७॥ नपुंसकलिङ्गात्पर: औरीमापद्यते । कुले।। जस्शसौ नपुंसके ।।२३८॥ जस्शसौ नपुंसकलिङ्गे घुसंज्ञौ भवतः । जस्शसोः शिः ॥२३९ ।। सर्वनपुंसकलिङ्गात्परयोर्जस्शसो: शिर्भवति । शकारः सवदिशार्थः । धुट्स्वराघुटि नुः ।।२४० ॥ ___ धुटः पूर्वः स्वरात्परश्च नपुंसकलिङ्गै घुटिं परे नुरागमो भवति । घुटि चासम्बुद्धौ इति दीर्घः । कुलानि । हे कुल । हे कुले । हे कुलानि । पुनरपि । कुलम् । कुले । कुलानि । कुलेन । कुलाभ्याम् । कुलै: । अतः परं पुरुषशब्दवत् ॥ एवं दान धन धान्य मित्र वस्त्र वसन वदन नयन पुण्य पाप सुख दुःखादय: । सर्वनाम्नः प्रथमाद्वितीययो: कुलशब्दवत् । सर्वम् । सर्वे । सर्वाणि । पुनरपि । अन्यत्र पुंलिङ्गवत् । अन्यशब्दस्य तु भेदः । नपुंसक लिंग से परे औ को 'ई' हो जाता है ॥२३७ ॥ कुल+ ई = कुले बना। __ कुल+जस्, कुल + शस् नपुंसक लिंग में जस् शस् को घुट संज्ञा हो जाती है ॥२३८ ।। नपुंसक लिंग से परे जस् शसू को शि आदेश हो जाता है ॥२३९॥ यहाँ शकार सर्वादेश के लिये है अर्थात् श का अनुबन्ध लोप हो जाता है एवं श के निमित्त से यह आदेश संपूर्ण विभक्ति को हो जाता है उसके एक अंश को नहीं अत: कुल+ पूर्व के धुट् से परे नपुंसक लिंग की घुट् विभक्ति के आने पर 'नु' का आगम हो जाता है ॥२४० ।। तब कुल न् इ हुआ पुन: 'घुटि चासंबुद्धौ' इस १७७वे सूत्र से अ को दीर्घ होकर कुलानि बना। संबोधन में कुल+सि 'हस्वनदीश्रद्धाभ्यः' इत्यादि सूत्र से सि का लोप होकर हे कुल ! बना । आगे पुरुषवत् समझना । कुलम् कुले कुलानि । कुलाय कुलाभ्याम् कुलेम्यः हे कुल । हे कुले ! हे कुलानि | | कुलान् कुलाभ्याम् कुलेभ्यः कुलम् कुले कुलानि कुलस्य कुलयोः कुलानाम् कुलेन कुलाभ्याम् कुलैः | कले कुलयोः कुलेषु इसी प्रकार से दान आदि उपर्युक्त शब्द नपुंसकलिंग में चलते हैं। सर्वनाम संज्ञक शब्दों में भी प्रथमा द्वितीया विभक्ति में कुल शब्द के समान एवं तृतीया से सभी पुल्लिग सर्वनाम के ही समान समझना। जैसेसर्वम् सर्वे स र्वाणि । सर्वस्मै सर्वाभ्याम सर्वेभ्यः हे सर्व , हे सर्वे । हे सर्वाणि | | सर्वस्मात् सर्वाभ्याम् सत्रेभ्यः सर्वम् सर्वाणि सर्वस्य सर्वयोः सर्वेषाम् सर्वेण सर्वाभ्याम् सर्वेः सर्वस्मिन् सर्वयोः सर्वेषु अन्य शब्द में कुछ भेद है। अन्य+सि, अन्य+अम् सर्वे Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: नपुंसकलिङ्गाः अन्यादेस्तु तुः ॥२४१ ।। _ अन्यादेर्नपुसंकलिङ्गात्परयोः स्यमोलोंपो भवति तुरागमश्च । द्वितीयस्तुशब्द: किमर्थम् ? असम्बुद्धयधिकारनिवृत्त्यर्थम् । वा विराम ॥२४२॥ विरामे धुटां प्रथमस्तृतीयो वा भवति । अन्यत्, अन्यद् । अन्ये । अन्यानि । हे अन्यद, हे अन्यत् । हे अन्ये । हे अन्यानि ॥ शेषं पुंवत् । एवमेकतरं वर्जयित्वान्यतरप्रभृतयः । स्य॥२४३॥ एकतरशब्दस्य नपुंसकलिङ्गे तुरागमो न भवति । एकतरम् । एकतरे । एकतराणि । हे एकतर । हे एकतरे। हे एकतराणि। पुनरपि । अन्यत्र सर्वशब्दवत् । इत्यकारान्ता: । आकारान्तो नपुंसकलिंग: सोमपाशब्दः। स्वरे ह्रस्वो नपुंसके ॥२४४ ॥ नपुंसक लिंग में अन्य आदि से परे सि और अम् का लोप होकर 'तु' का आगम हो जाता है ॥२४१ ॥ उ का अनुबन्ध लोप होकर अन्यत् बना। सूत्र में दूसरा तु शब्द किसलिये है ? असम्बुद्धि अधिकार की निवृत्ति के लिये है। विराम में धुद को तृतीय अक्षर विकल्प से होता है ॥२४२ ।। अन्यत्, अन्य अन्ये अन्यानि | अन्यस्मै अन्याभ्याम् अन्येभ्यः हे अन्यत् ! हे अन्यद् ! हे अन्ये । अन्यानि ! अन्यस्मात्, अन्याभ्याम् अन्येभ्यः अन्यत्, अन्यद अन्ये अन्यानि अन्यस्य अन्ययोः अन्येषाम् अन्येन अन्याभ्याम् अन्यैः अन्यस्मिन् अन्ययोः अन्येषु इस प्रकार से एकतर को छोड़कर अन्यतर आदि शब्द चलते हैं । एकतर + सि, एकतर + अम् एकतर शब्द से परे सि, अम् विभक्ति के आने पर तु का आगम नहीं होता है ॥२४३ ॥ अत: मु का आगम होकर एकतरम् एकतरे एकतराणि। अकारांत शब्द हुये । अब आकारांत नपुंसकलिंग 'सोमपा' शब्द है । नपुंसक लिंग में वर्तमान स्वर ह्रस्व हो जाता है ॥२४४॥ अत: सोमप+सि है। 'अकारादसंबुद्धौ मुश्च' २३६वें सूत्र से अकारांत नपुंसक लिंग से परे 'सि, अम्' का लोप होकर 'मु' का आगम हो गया तब सोमपम् बना। सोमपम् सोमपे सोमपानि । । सोमपाय सोमपाध्याम् सोमपेभ्यः हे सोमप ! हे सोमपे ! हे सोपपानि !| सोमपात्, सोमपाभ्याम् सोमपेभ्यः सोमपम सोमपे सोमपानि सोमपस्य सोमपयोः सोमपानाम् सोमपेन सोमपाध्याम सोमपैः सोमपे सोमपयोः सोमपेषु १. पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्तया हस्वस्यापि ह्रस्वः। काण्डे कुण्ड्ये काण्डीभूतं कुलमित्यत्र नपुंसके इति लिङ्गोपादानान भवति । युगवरत्राय युगवस्वार्थमित्यत्रासिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे इति र भवति । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला नपुंसकलिङ्गे वर्तमानः स्वरो ह्रस्वो भवति । सोमपम् । सोमपे । सोमपानि । हे सोमप । हे सोमपे ! हे सोमपानि । पुनरपि । सोमपं । सोमपे । सोमपानि । शेषं पुल्लिङ्गवत् । इत्याकारान्ताः । इकारान्तो नपुंसकलिङ्गो वारिशब्दः । सौ- I ७२ नपुंसकात्स्यमोर्लोपो न च तदुक्तं ॥ २४५ ॥ नपुंसकात्परयोः स्यमोर्लोपो भवति तदुक्तं कार्यं न भवति । वारि । नामिनः स्वरे || २४६ ॥ नाक हो । औरीमिति ईत्त्वं णत्त्वञ्च । वारिणी । जसि पूर्ववत् । नुरागमः । सामान्यविशेषयोर्विशेषो विधिर्बलवान् इति न्यायात् । उक्तञ्च । सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् । परेण पूर्वबाधो वा प्रायशो दृश्यतामिह ॥ १ ॥ धुस्वरादघुटि नुः इत्यनेन सूत्रेण नुरागमो भवतीत्यर्थः ॥ इन्हन्पूषार्यम्णां शौ च ॥ २४७ ॥ इन् हन् पूषन् अर्यमन् इत्येतेषामुपधाया दीर्घो भवति नपुंसकलिङ्गे जस्शसोरादेशे शौ चासम्बुद्धौ सौ च परे । वारीणि । इस प्रकार से आकारांत शब्द हुये। अब इकारांत नपुंसक लिंग वारि शब्द है । वारि + सिं, वारि + अम् नामि है अन्त में जिनके ऐसे शब्दों में नपुंसकलिंग से परे सि, अम् का लोप होकर 'मु' तु का आगम नहीं होता है ॥ २४५ ॥ अतः वारि, वारि बना । वारि + औ नाभ्यंत नपुंसक लिंग से परे नु का आगम हो जाता है स्वर वाली विभक्ति के आने पर ॥ २४६ ॥ अतः 'औरीम्' सूत्र से औ को 'ई' एवं रघुवर्णेभ्यः इत्यादि सूत्र के निमित्त से न् को ण् होकर वारिणी बना । जस विभक्ति के आने पर पूर्ववत् जस् को 'इ' और नु का आगम तथा 'घुटि चासंबुद्धी' से दीर्घ प्राप्त था । यद्यपि यहाँ 'नामिनः स्वरे' सूत्र से नु का आगम हो सकता था फिर भी सामान्य और विशेष में विशेष विधि बलवान होती है इस न्याय से 'धुट् स्वराद् घुटि नः २४० वें सूत्र से जस्, शस् के आने पर नु का आगम हुआ है। इसी बात को श्लोक में भी कहा है--- श्लोकार्थ — सामान्य शास्त्र की अपेक्षा से निश्चित ही विशेष शास्त्र बलवान् होता है अथवा प्राय: करके व्याकरण में पर सूत्र की अपेक्षा पूर्व सूत्र बाधित हो जाया करते हैं। I इन् हन् पूषन् अर्यमन् इन शब्दों की उपधा को दीर्घ हो जाता है नपुंसक लिंग में जस् शस् को शि आदेश होने पर एवं असंबुद्धि सि के आने पर ॥ २४७ ॥ अतः 'वारि न् इ' इसमें न् की उपधा को दीर्घ हो गया पश्चात् 'रष्टवर्णेभ्यः' इत्यादि सूत्र से न् को ण् होकर वारीणि बना । संबोधन में वारि + सि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता: नपुंसकलिङ्गाः नाम्यन्तचतुरां वा ॥२४८ ॥ नाम्यन्तस्य नपुंसकलिंगस्य चत्वार् शब्दस्य च यदुक्तं कार्यं तद् वा भवति सम्बुद्धौ परे । प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणं न याति इति न्यायात, हे वारि, हे वारे । हे वारिणी । हे वारीणि। पुनरपिवारि । वारिणी। वारीणि । वारिणा 1 वारिभ्याम् । वारिभिः । वारिणे । वारिभ्याम् । वारिभ्यः । वारिणः । इत्यादि । आमि । 'नामिनः स्वरे' प्राप्ते सति सामान्यविशेषयोर्विशेषो विधिर्बलवान् इति न्यायात् आमि च नुरिति नुरागमो भवति । दीर्धमामि सनौ। वारीणाम्। वारिणि । वारिणो;। वारिषु ।। अस्थि दधि सक्थि अक्षिशब्दानां प्रथमाद्वितीययोर्वारिंशब्दवत् । अस्थि । अस्थिनी । अस्थीनि । पुनरपि-अस्थि। अस्थिनी । अस्थोनि । टादौ--- अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामनन्तष्टादौ ॥२४९ ।। नपुंसकलिंगानामस्थ्यादीनामन्तोऽन् भवति टादौ स्वरे परे । अवमसंयोगादनोऽलोपोऽलुप्तवच्च पूर्वविधौ ।।२५० ।। वारि वारिणी ___ नपुंसक लिंग में नाम्यन्त और चत्वार् शब्द से परे जो कार्य कहा गया है वह विकल्प से होता है ।।२४८॥ सम्बोधन में—अत: सि का लोप होकर हे वारि बना इसमें सि प्रत्यय का लोप होने से प्रत्यय लक्षण कोई कार्य नहीं होता है इस न्याय से एक बार हे वारि ! पुन: 'संबुद्धौ च' सूत्र से इ को ए हो गया। वारि + आम् 'नामिनः स्वरे' से नु का आगम प्राप्त था किन्तु सामान्य और विशेष में विशेष विधि ही बलवान होती है । इस न्याय से 'आमि च नः' सूत्र से नु का आगम होकर 'दीर्घ होकर वारीणाम् बना। वारि बारिणी पारीणि । वारिणे वारिभ्याम् वारिम्यः हे पारि,वारे ! हे वारिणी ! हे वारीणि ।। वारिण: वारिभ्याम् वारिभ्यः वारीणि वारिणः वारिणोः वारीणाम् बारिणा वारिभ्याम् वारिभिः वारिणि वारिणोः बारिषु आगे अस्थि, सक्थि और अक्षि शन्दों में प्रथमा और द्वितीया विभक्तियों में वारि शब्द के समान है टा आदि विभक्तियों में कुछ भेद है। टा आदि स्वर वाली विभक्ति के आने पर नपुंसक लिंग में अस्थि आदि के अन्तिम 'इ' को अन् आदेश हो जाता है ।२४९ ॥ अत: अस्थन् + आ है। जिसमें व, म संयुक्त नहीं है ऐसे अस्थन् आदि के अकार का लोप हो जाता है अघुट स्वर के आने पर और अलुप्तवत् होता है। पूर्ववर्ण की विधि होने पर ॥२५० ॥ १. तदुक्तं च कार्य किं ? हे वारे इत्यत्र "संबुसौ च" इति सूत्रेण एत्वं विकल्पेन भवति ॥ २. संयोगादेधुंट इति सस्य लोपो भवति तस्मात्कारणात् अलुप्तबदिति वचनं । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ कातन्त्ररूपमाला अवमसंयोगात्परस्य अनोऽकारस्य लोपो भवति अघुटिं स्वरे परे स चालुप्तवद्भवति पूर्वस्य वर्णस्य विधौ कर्तव्ये । अस्मा | अस्थिभ्याम् । अस्थिभिः । अस्मे । अस्थिभ्याम् । अस्थिभ्यः । अस्थनः । अस्थिभ्याम् | अस्थिभ्यः । अस्थ्थः । अस्थ्नो: । अस्नाम् । ईयोर्वा ॥ २५९ ॥ अवमसंयोगात्परस्य अनोऽकारस्य लोपो भवति वा ईड्योः नपुंसकलिंगे औकारादेशे ईकारे सप्तम्येकवचने परतः स चालुप्तवद्भवति पूर्वस्य वर्णस्य विधौ कर्तव्ये । अस्थिन, अस्थनि । अस्नोः । अस्थिषु । एवं दधि सक्थि अक्षिशब्दा: । शुचिशब्दस्य प्रथमाद्वितीययोर्वारिशब्दवत् । शुचि । शुचिनी । शुचीनि । सम्बुद्धावविशेषः । पुनरपि — शुद्धि शुचिनी । शुचीनि । दादौ भाषितपुंस्कं पुंवद्वा ॥ २५२ ॥ नाम्यन्तं भाषितपुंस्कं नपुंसकलिङ्ग टादौ स्वरे वा पुंवद्भवति । अस्थन् + आ = अस्थ्ना, अस्थिभ्याम् आदि । अस्थन् + डि ई और ङि के आने पर अन् के अकार का लोप विकल्प से होता है ॥२५१ ॥ जिसमें व, म संयुक्त नहीं है ऐसे शब्दों से परे औं के ई आदेश वाली ङि विभक्ति के आने पर अन् के अकार का लोप विकल्प से होता है। तब अस्थ् + इ अस्थि, अस्थनि । अस्थिनी अस्थीनि अस्ने हे अस्थे । हे अस्थि । हे अस्थिनी ! हे अस्थीनि ! अस्थनः अस्थि अस्थिनी अस्थिभ्याम् अस्थि अस्थिभ्याम् अस्थिभ्याम् अस्थीनि अस्थिभिः अस्थिभ्यः अस्थिभ्यः अस्थनः अस्नोः अस्थ्ना अस्नि, अस्थनि अस्थ्थोः इसी प्रकार से दधि, सक्थि और अक्षि शब्दों के रूप चलते हैं। यथाअक्षि अक्षिणी हे अक्षे, हे अक्षि । हे अक्षिणी ! अक्षीणि अक्ष्णे अक्षण: हे अक्षीणि ! अक्षीणि अक्षि अक्षिणी अक्ष्णः अक्ष्णा अचिभ्याम् अश्विभिः अक्ष्णि, अक्षणि अक्ष्णोः शुचि शब्द के रूप प्रथमा द्वितीया में अक्षिवत् ही चलेंगे। टा आदि विभक्ति के आने पर शुचि शब्द के रूपों में कुछ भेद हैं। शुचि + आ टा आदि स्वर वाली विभक्ति के आने पर नाम्यंत भाषितपुंस्क शब्द नपुंसक लिंग में विकल्प से पुरुष लिंगवत् हो जाते हैं ॥ २५२ ॥ भाषितपुंस्क किसे कहते हैं ? १. एक एव हि यः शब्दस्त्रिषु लिंगेषु वर्त्तते । एकमेवार्थमाख्याति तद्धि भाषितपुंसकं । अस्नाम् अस्थिषु अक्षिभ्याम् अक्षिभ्यः अक्षिभ्याम् अचिभ्यः अक्ष्णोः अक्ष्णाम् अक्षिषु Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ताः नपुंसकलिङ्गाः १ यन्निमित्तमुपादाय पुंसि लिङ्गे प्रवर्त्तते । क्लबवृत्तौ तदेव स्यात्तद्धि भाषितपुंसकम् ॥१ ॥ शुचि भूमिगतं सोपं शुचिनारी पतिप्रसा शुचिर्धर्मपरो राजा ब्रह्मचारी सदा शुचिः ॥ २ ॥ I ' I शुच्या, शुचिना । शुचिभ्यां । शुचिभिः । शुचिने, शुचये । शुचिभ्याम् | शुचिभ्यः । इत्यादि । द्विशब्दस्य तु भेदः । त्यदाद्यत्वं औरीमिति ईत्वं च । द्वे । हे द्वे द्वे । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वयोः । द्वयोः । त्रिशब्दस्य जस्शसोर्वारिशब्दवत् । त्रीणि त्रीणि। त्रिभिः । अन्यत्र पुंलिङ्गवत् इति इकारान्ताः । ईकारान्तो नपुंसकलिङ्गो ग्रामणीशब्दः । तस्य स्वरो ह्रस्वो नपुंसके इति ह्रस्वत्वे शुचिशब्दवत् । टादौ भाषितपुंस्कं पुंवद्भावो भवति विकल्पेन । ग्रामणि । ग्रामणिनी। ग्रामणीनि । पुनरपि - ग्रामणि । ग्रामणिनी। ग्रामणीनि । ग्रामणिना । अनेकाक्षरयोस्त्वसंयोगाद् वौ इति यत्त्वम् । ग्रामण्या | ग्रामणिभ्याम् । ग्रामणिभिः । ग्रामणिने । ग्रामणिभ्याम् । ग्रामणिभ्यः । इत्यादि । आमिनुरागमः । दीर्घमामि सनौ इति दीर्घः । ग्रामणीनाम् । पुंवद्भावे । ग्रामण्याम् । ग्रामणिनि । पुंवति — नियो डिराम् इति आम् । यत्वं पूर्ववत् । ग्रामण्याम् । ग्रामणिनोः, ग्रामण्योः । ग्रामणिषु । सम्बोधने - नाम्यन्तचतुरं वा । है ग्रामणे, हे ग्रामणि । हे ग्रामणिनी । हे ग्रामणीनि । एवमग्रणी सेनानीप्रभृतयः ॥ इति ईकारान्ता । उकारान्तो नपुंसकलिङ्गो वस्तुशब्दः । स च वारिशब्दवत् । वस्तु । वस्तुनी वस्तूनि । सम्बोधने - हे वस्तु, हे वस्तो । वस्तुनी । हे वस्तूनि । पुनरपि । टादौ स्वरे परे नित्यं नपुंसकं। आमि परे-आमि च नुः । दीर्घमामि सनौ इति दीर्घः । वस्तूनां । वस्तुनि । वस्तुनोः । वस्तुषु । मृदुशब्दस्य प्रथमाद्वितीययोर्वारिंशब्दवत् । मृदु । श्लोकार्थ जो शब्द जिस निमित्त को लेकर के पुरुष लिंग में प्रवृत्ति करता है और वही नपुंसक लिंग में भी चल जाता है उसे भाषित पुंस्क कहते हैं ॥ अर्थात् जो शब्द स्वयं में पुल्लिंग हैं, किन्तु निमित्त से नपुंसक लिंग में भी चल जाता है वह भाषितपुंस्क है। उदाहरण के लिए देखिये । श्लोकार्थ – भूमिगत जल पवित्र है, पतिव्रता स्त्री पवित्र है, धर्म में तत्पर राजा पवित्र है एवं ब्रह्मचारी जन सदा पवित्र हैं । इस श्लोक में एक शुचि शब्द तीन के निमित्त या विशेषण से तीन लिंगों में बदल गया । जैसे—तोय शब्द नपुंसक का विशेषण 'शुचि' शब्द नपुंसक लिंग हो गया। पतिव्रता नारी का विशेषण 'शुचिः' शब्द स्त्रीलिंग हो गया और राजा का विशेषण 'शुचि: ' शब्द पुल्लिंग में चल गया हैं। शुचि + टा एक बार पुल्लिंगवत् में 'अस्त्रियां टा ना' सूत्र से 'ना' हुआ दूसरी बार 'नामिनः स्वरे' से न् होकर शुचिना बना । शुचि + डे पुल्लिंग में 'डे' सूत्र से इ को ए होकर शुचये अन्यथा शुचिने बना । शुचिनी शुचीनि शुचि शुचये, शुचिने शुचेः शुचिन: हे शुचे, शुचि ! हे शुचिनी ! शुचिभ्याम् शुचिभ्याम् शुचि शुचेः शुचिन: शुचौ शुचिनि शुचिभ्यः शुचिभ्यः शुच्योः शुचिनोः शुचीनाम् शुच्योः शुचिनोः शुचिषु शुचिना शुचिनी शुचिभ्याम् शुचीन ७५ शुचीनि शुचिभि: १. अत्र । त्रिषु लिंगेषु वर्तते । एकमेवार्थमाख्याति तद्धि भाषितपुंसकं । इति पाठोस्ति । उत्तरपद्यस्थोदाहरणैरयमेव समीचीनो भाति । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ मृदुनी । मृदूनि । पुनरपि । दादौ स्वरे परे भाषितपुंस्कं पुंवद्वा इति विकल्पेन पुंवद्भावः । शुचियत् । मृदुना २ । मृदुभ्यां । मृदुभिः । इत्यादि । एवं पटु लघु गुरु प्रभृतयः । इत्युकारान्ताः । उकारान्त नपुंसकलिङ्गः खलपूशब्दः । तस्य स्वरो ह्रस्वो नपुंसके इति ह्रस्वत्वे सेनानीशब्दवत् । खलपु। खलपुनी। खलपूनि । पुनरपि । टादौ भाषितपुंस्कमिति विकल्पेन यत्र पुंवद्भावस्तत्र सेनानीशब्दवत् । खलपुना, खलप्वा । खलपूभ्यां । खलपूभिः । इत्यादि । एवं सरलू । काण्डलू प्रभृतयः । इत्यूकारान्ता । ऋकारान्त नपुंसकलिङ्ग कर्तृशब्दः । तस्य प्रथमाद्वितीययोर्वारिशब्दवत् । कर्तृ । कर्तृणी । कर्तृणि। पुनरपि । टादौ पुंवद्भावात्पुल्लिङ्ग द्वि + औ 'त्यदादीनाम् विभक्तौ' इस १७२वें सूत्र से 'अ' प्रत्यय होकर टू 'औरम्' से ई होकर संधि होकर द्व द्वे बना । कातन्त्ररूपमाला द्वे द्वे । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वयोः । द्वयोः । I त्रि शब्द जस् शस् में वारि शब्दवत् है । यथा — त्रि + जस्, त्रि + शस् 'जशसो शि:' इस सूत्र से 'शि' आदेश होकर 'धुट् स्वराद् घुटि नु:' इस २४० वें सूत्र से नु का आगम 'इन् हन् पूषार्यम्णां शौच इस २४७वें सूत्र से दीर्घ न् को ण् होकर त्रीणि बना। त्रीणि त्रीणि । त्रिभिः । त्रिभ्यः । त्रिभ्यः । त्रयाणाम् । त्रिषु । इस प्रकार से इकारांत नपुंसक लिंग हुये। अब ईकारांत नपुंसक लिंग में ग्रामणी शब्द है—ग्रामणी + सि 'स्वरो ह्रस्वो नपुंसके' इस २४४वें सूत्र से ह्रस्व होकर ग्रामणि + सि हैं। 'नपुंसकात्स्यमोलोपो न च तदुक्तं' इस २४५ वें सूत्र से ह्रस्व होकर सि अम् का लोप होकर और कुछ कार्य नहीं होने से 'ग्रामणि' शब्द बना। टा आदि विभक्ति के आने पर 'टादौ भाषितपुंस्कंपुंवद्वा' इस २५२ वें सूत्र से विकल्प से पुंवत् होने से एक बार वारिवत् एक बार 'अनेकाक्षरयोस्त्वसंयोगाद्य्वौ' १९० वें सूत्र से ई को य् होकर रूप चलेंगे। आम् विभक्ति के आने पर 'आमि च नुः' से नु का आगम 'दीर्घमा मिसन' से दीर्घ होकर 'ग्रामणीनाम्' पुंवद् भाव में ग्रामण्याम् बना । ग्रामणि + ङि में ग्रामणिनि पुल्लिंग में 'नियोडिराम्' १९१ वें सूत्र से आए होकर ग्रामण्याम् बना । संबोधन में 'नाम्यंतचतुरां वा' से हे ग्रामणि, हे ग्रामणे ! बना । ग्रहमणि प्रामणिनी हे ग्रामणि हे ग्रामणे ! हे प्रामणिनी ! आमणि ग्रामणिना, मामण्या प्रामणिने, ग्रामण्ये मामणिनः, मामण्यः प्रामणिनः, ग्रामण्यः प्रामणिनि, प्रामण्याम् ग्रामणिनी प्रामणिभ्याम् ग्रामणिभ्याम् ग्रामणिभ्याम् ग्रामणिनोः, ग्रामण्यो : ग्रामणिनोः, ग्रामण्योः मामणीनि हे ग्रामणौनि ! ग्रामणीनि ग्रामणिभिः प्रामणिभ्यः प्रामणिभ्यः ग्रामणीनाम् ग्रामण्याम् ग्रामणिषु इसी प्रकार से अग्रणी, सेनानी शब्द के रूप चलेंगे । इस प्रकार ईकारांत नपुंसक लिंग शब्द हुये अब उकारांत नपुंसक लिंग वस्तु शब्द है वह वारि शब्द के समान चलता है। यह वस्तु टा आदि स्वर वाली विभक्तियों के आने पर 'आमि च नुः' से नु का आगम होकर 'दीर्घमामिसनौ' से दीर्घ होकर वस्तूनाम् बनता है । यथा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ स्वरान्ता: नपुंसकलिङ्गाः वद्वा। कर्ता, कर्तृणा । कर्तृभ्यां । कर्तृभिः । करें, कर्तृणे । कर्तृभ्यां । कर्तृभ्यः । कर्तु, कर्तृणः । कर्तृभ्यां । कर्तृभ्यः । कर्तुः, कर्तृणः । कर्तृभ्यां । कर्तृभ्यः । कर्तुः, कर्तृण: । कों, कर्तृणो: 1 आमि परे नुरागमः । कर्तृणाम् । कर्तृणि, कर्तरि । कत्रों: कर्तृणोः । कर्तृषु । सम्बोधने हे कर्तृ, हे कर्त: । हे कर्तृणी । हे कर्तृणि। बहुक्रोष्टशब्दस्य तु भेदः । क्रोष्टुः ऋत उत्सम्बुद्धौ इत्यादिना उर्भवति । शसि व्यञ्जने नपुंसके च इति ऋत उकार: । बहुक्रोष्टु । बहक्रोष्टनी । बहुक्रोष्ट्रनि । पुनरपि । टादौ स्वरे भाषितर्पस्कं पुत्रद्वा इति विकल्पेन पुंवद्धाव: अयमेकविकल्पः ।। वस्तु वस्तु वस्तुनी वस्तूनि । वस्तुने वस्तुभ्याम् वस्तुभ्यः हे वस्तु । हे वस्तो । हे वस्तुनी । हे वस्तूनि ! | वस्तुनः वस्तुभ्याम् वस्तुभ्यः वस्तुनी वस्तूनि वस्तुनः वस्तुनोः वस्तूनाम् वस्तुना वस्तुभ्याम् वस्तुभिः वस्तुनि वस्तुनोः वस्तु 'मृदु' शब्द प्रथमा द्वितीया में वारि शब्द के समान चलता है एवं टा आदि स्वर वाली विभक्तियों के आने पर "टादौ भाषित पुंस्क पुंवद्वा" २५२वें सूत्र से विकल्प से पुल्लिग में चल जाता है। तन्त्र पुल्लिंग में शुचिवत् हो जाता है । यथा--- मृदु मृदुनी मृदनि । मृदुने, मृदवे मृदुभ्याम् मृदुभ्यः हे मृदु ! हे मृदो । हे मृदुनी ! हे मृदूनि ! मृदुनः, मृदोः मृदुभ्याम् मृदुभ्यः मृदु मदुनी मृदूनि | मृदुनः मृदोः मृदुनोः मृद्वोः मृदूनाम् मृदुना, मृदुना मृदुभ्याम् मृदुभिः | मृदुनि, मृदौ मृदुनोः, मृबोः मृदुषु इसी प्रकार से लघु गुरु आदि शब्दों के रूप चलते हैं। उकारांत शब्द पूर्ण हुये। अब ऊकारांत नपुंसक लिंग में खलयू शब्द है। खलपू+सि 'स्वरो ह्रस्वे नपुंसके' सूत्र से ह्रस्व होकर सेनानी के समान चलेगा। टा आदि स्वरवाली विक्तियों के आने पर भाषित पुंस्क होने से विकल्प से पुंवद् हो जावेगा। खलपु खलपुनी खलपूनि हे खलपु ! हे खलपो ! हे खलपुनी । हे खलपूनि ! खलपु खलपुनी खलपूनि खलपुना, खलप्वा खलपुभ्याम् खलपुभिः खलपुने, खलप्वे खलपुभ्याम् खलपुभ्यः खलपुनः खलप्वः खलपुभ्याम् खलपुभ्यः खलपुनः,खलप्वः खलपुनोः, खलप्वोः खलपूनाम, खलप्वाम् खलपुनि, खलवि खलपुनोः, खलप्योः खलपुषु इसी प्रकार से सरलू, काण्डलू आदि शब्द नपुंसक लिंग में चलते हैं। ऊकारांत शब्द हुये। अब क्रकारांत नपुंसक लिंग कर्तृ शब्द है। यह शब्द प्रथमा, द्वितीया में वारि शब्दवत् चलता है और टा आदि स्वर वाली विभक्तियों के आने पर पुंवद्भाव होने से विकल्प से पुल्लिग में भी चलता है। कर्तृ कर्तृणी कर्तणि । को, कर्तृणे कर्तृभ्याम् कर्तृभ्यः हे कर्तृ । हे कर्तः ! हे कर्तृणी ! हे कर्तणि । | कर्तुः, कर्तृणः कर्तृभ्याम् कर्तृभ्यः कर्तणी कर्तुः, कर्तृणः कों:, कर्तृणोः कर्तृणाम् कर्ता, कर्तृणा कर्तृभ्याम् कीथः । कर्तरि, कर्तृणि कोः कर्तृणोः कर्तृषु Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला *टादौ स्वरे वा ॥२०२॥ क्रोष्टशब्दस्य ऋत उर्वा भवति टादौ स्वरे परे । इति द्वितीयविकल्प: । इति उभयविकल्पे रूप्यं । बहुक्रोष्टुना, बहुक्रोष्टवा, बहुक्रोष्ट्रा । बहुक्रोष्टुभ्यां । बहुक्रोष्टुभिः । इत्यादि । सम्बोधने । हे बहुक्रोष्टु हे बहुक्रोष्टो। हे बहुक्रोष्टुनी । हे बहुक्रोष्ट्रनि । इत्यादि । ऋकार लकार लूकारान्ता एकारान्ताश्चाप्रसिद्धाः ।। ऐकारान्ता नपुंसकलिङ्गो अतिरैशब्दः । तस्य हस्वत्वे सन्ध्यक्षराणामिदतौ हस्वादेशे ॥२५३॥ सन्ध्यक्षराणां ह्रस्वादेशे सति इदुतौ भवतः । तपरकरणमसन्देहाथ । इति एकारस्यैकारस्य च ह्रस्व इकार: । ओकारस्यौकारस्य च ह्रस्व उकार:। अतिरि । नामिनः स्वरे इति नुरागमः। अतिरिणी । अतिरीणि । पुनरपि । टादौ स्वरे भाषितपुंस्कं पुंवा इति विकल्पेन पुंवद्धावः। यत्र पुंवद्रावस्तत्र सुरैशब्दवत् । अतिरिणा, अतिराया। व्यञ्जनादौ प्रत्यये परे रैरिति आत्वं । कुत: ? एकदेशविकृतमनन्यवत् इति न्यायात् । अतिराभ्यां । अतिराभिः । अतिरिणे. अतिराये। अतिराभ्यां । अतिराभ्यः । इत्यादि । इति ऐकारान्ता: । ओकारान्तो नपुंसकलिङ्गचित्रगोशब्दः । तत्र ओकारस्य हस्व उकार: । मृदुशब्दवत् । चित्रगु । बहु क्रोष्ट शब्द है। “क्रोष्टुः ऋत उत्. संबुद्धौ शसि व्यञ्जने नपुंसके च” इस २०१वें सूत्र से नपुंसक लिंग में, क्रोष्ट के ऋकार को उकार हो जाता है अतः । बहु क्रोष्टु बहुक्रोष्टुनी बहुक्रोष्ट्रनि "टादौ भाषितपुंस्कं पुंवद्वा" इस २५२वें सूत्र से टा आदि स्वर वाली विभक्ति के आने पर विकल्प से पुंवद्भाव हुआ। इस एक विकल्प से पुंबद्भाव हुआ । इस एक विकल्प से दो रूप बनेंगे। पुन: *टा आदि स्वरवाली विभक्ति के आने पर क्रोष्ट शब्द के ऋकार को विकल्प से उकार हो जाता है ॥२०२॥ यह दूसरा विकल्प हुआ । इस प्रकार से दो विकल्प से तीन रूप बनेंगे अर्थात् एक बार उकारांत शब्द को पुल्लिंगवत् करने से भानु के समान रूप चलेंगे। दूसरी बार 'खलपु' के समान, तीसरी बार पितृवत् रूप चलेंगे। यथा ऋकारान्त, लकारांत, लकारांन एवं एकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। ऐकारांत नपुंसक लिंग अतिरै शब्द है । 'स्वरो हस्वो नपुंसके' इस २४४वें सूत्र से ह्रस्व प्राप्त था— संध्यक्षर को ह्रस्व आदेश करने पर ह्रस्व इकार और उकार हो जाता है ॥२५३ ॥ इत् उत् में त् शब्द से हस्व ही लेना । इसमें सन्देह को दूर करने के लिये हो त् शब्द है इसलिये ए ऐ को ह्रस्व इकार और ओ और को हस्व उकार हो गया। अत: अतिरि बना । यह अतिरि शब्द वारिवत् चलेगा। अत: 'नामिन: स्वरे' से नु का आगम हो जावेगा और टा आदि विभक्ति के आने पर "टादौ स्वरे भाषितपुंस्कं पुंवद्वा” इस सूत्र से विकल्प से पुंवद् भाव होने से 'रे' शब्दवत् रूप चलेंगे। यंजन वाली विभक्ति के आने पर '' सूत्र से आकार हो जाता है। प्रश्न यह होता है कि जब अतिरि शब्द में नहीं है तब यह सूत्र कैसे लगा ? तो “एकदेशविकृतमनन्यवत्" इस न्याय से एक देश विकृत होने से कुछ अन्तर नहीं पड़ता है अत: x यह सूत्र पहले आ चुका है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ स्वरान्ता: नपुंसकलिङ्गाः चित्रगुणी। चित्राणि । पुनरपि । टादौ स्वरे भाषितपुंस्कं पुंवद्रा इति विकल्प: । चित्रगुणा, चित्रगवा इत्यादि । इति ओकारान्ता: । औकारान्तो नपुंसकलिङ्गोऽतिनौशब्दः । तत्रापि औकारस्य ह्रस्व उकारः । तस्य प्रथमाद्वितीययोारिशब्दवत् । अतिनु । अतिनुनी। अतिनूनि । पुनरपि । दादौ स्वरे भाषितपुंस्कं पुंवद्वा इति विकल्प: । अतिनुना, अतिनावा । इत्यादि । इत्यौकारान्ताः ॥ इति स्वरान्ता नपुंसकलिङ्गाः अतिरासु चित्रगुभ्याम् अतिरि अतिरिणी अतिरीणि हे अतिरि ! हे अतिरिणी । हे अतिरीणि ! अतिरि अतिरिणी अतिरीणि अतिरिणा, अतिराया अधिमा अरोरा अतिरिणे, अतिराये अतिराभ्याम् अतिराभ्यः अतिरिणः अतिरायः अतिराभ्याम् अतिराभ्यः अतिरिणः, अतिरायः अतिरिणोः, अतिरायोः अतिरीणाम्, अतिरायाम् अतिरिणि, अतिरायि अतिरिणोः, अतिगयोः ऐकारांत शब्द हुये अब ओकारांत चित्र गो शब्द है । उपर्युक्त सूत्र २५३वें से ओकार को ह्रस्व उकार होकर चित्र ग बना इसके रूप मद शब्दवत् चलेंगे। टा आदि विभक्तियों में 'भाषित पुंस्कं होने से विकल्प से पुंवत् होने से चित्रगवा बन जाता है । चित्रा चित्रगुणी चित्राणि हे चित्रगु ! हे चित्रगो ! हे चित्रगुणी । हे चित्राणि ! चित्रगु चित्रगुणी चित्रगुणि चित्रगुणा, चित्रगवा चित्रगुभिः चित्रगुणे, चित्रगवे चित्रगुभ्याम् चित्रगुभ्यः चित्रगुणः, चित्रगोः चित्रगुभ्याम् चित्रगुभ्यः चित्रगुणः चित्रगोः चित्रगुणोः, चित्रगतोः चित्रगुणाम, चित्रगवाम् चित्रगुणि, चित्रगवि चित्रगुणोः, चित्रगवोः इस प्रकार से ओकारांत शब्द हुये। अब औकारांत नपुंसक लिंग अतिनौ शब्द है। सूत्र २५३से औं को ह्रस्व होकर उकार हो जाता है अत: 'अतिनु' बना आगे भाषित पुंस्कं होने से विकल्प से पुंवद् होने से दो रूप बनेंगे। अतिनु अतिनुनी अतिनूनि है अतिनु, अतिनो । हे अतिनुनी । हे अतिनूनि ! अतिनु अतिनुनी अतिननि अतिनुना, अतिनावा अतिनुभ्याम् अतिनुभिः अतिनुने, अतिनावे अतिनुभ्याम् अतिनुभ्यः अतिनुनः, अतिनावः अतिनुभ्याम् अतिनुभ्यः अतिनुनः, अतिनावः अतिनुनोः, अतिनावोः अतिननाम्, अतिनावाम अतिनुनि, अतिनावि अतिनुनोः, अतिनावोः अतिनुषु इस प्रकार से औकारांत शब्द हुये। स्वरांत नपुंसकलिंग प्रकरण समाप्त हुआ। १. अत्र अग्रे च अतिनावादिषु मतान्तरमन्यतो दृष्टव्यम् । चित्रगुषु Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 J 1.0 कातन्त्ररुणमाला अथ व्यञ्जनान्ताः पुल्लिङ्गशब्दा यथाक्रमेणोच्यन्ते कवर्गान्ता: पुल्लिङ्गशब्दा अप्रसिद्धाः । चकारान्तः पुल्लिङ्गः सुवाच्शब्दः । सौ— व्यञ्जनाच्चेति सिलोपः । दादेर्हस्य ग इत्यनुवर्तते । चवर्गद्गादीनां च ॥ २५४ ॥ चवर्गान्तस्य दृश् इत्येवमादीनां च गो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । १ पदान्ते धुर्य प्रथमः ॥ ७६ ॥ पदान्ते वर्तमानानां धुटां वर्णानां प्रथमो भवति अघोषे । प्रथम इत्यनुवर्तते । १ वा विरामे ॥ २४२ ॥ विरामे घुटां प्रथमस्तृतीयश्च वा भवति । सुवाक् सुवाग्, सुवाचौ। सुवाच । एवं सम्बुद्धौ । सुवाचं । सुवाच । सुवाच । सुवाचा सुवाग्भ्यां । सुवाग्भिः । सुवाचे । सुवाग्भ्यां । सुवारभ्यः । सुवाचः । सुवाचोः । सुवाचां । सुवाचि सुवाचोः । सुपि । गत्वं । अघोषे प्रथमः ।। २५५ ।। अघोषे परे धुटां प्रथमो भवति । इति कत्वं । नामिकरेत्यादिना सस्य षत्वं । कषयोगे क्षः || २५६ ॥ सुवाच् = सुवाग् बना । अथ व्यंजनांत शब्दों में क्रम से प्रथम व्यञ्जनांत पुल्लिंग शब्द चलेंगे। कवर्गांत पुल्लिंग शब्द अप्रसिद्ध है। चकारांत पुल्लिंग सुवाच् शब्द है। सुवाच् + सि 'व्यञ्जनाच्च' १७८ वे सूत्र से सि का लोप हो गया 'दादेर्हस्यगः' यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है । वर्गान्त और दृश् के अंत को विराम या व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर ग् हो जाता है ॥ २५४ ॥ पद के अन्त में धुद को प्रथम अक्षर हो जाता है' ||७६ ॥ 'अघोषे प्रथमः' यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है । त्रिराम् में धुट् को प्रथम अथवा तृतीय अक्षर हो जाता है ' ॥ २४२ ॥ इस सूत्र से सुवाक् + सुप् 'चवर्गद्गादीनां च' इस २५४वें सूत्र से च् को ग् हुआ पुनः अघोष के आने पर धुट् को प्रथम अक्षर होता है ॥२५५ ॥ इस सूत्र से कू हो गया 'नामिकरपरः' इत्यादि १५० वें सूत्र से क् से स् को घ् हो गया तब सुवाक् + षु रहा। ककार और षकार का योग होने पर क्ष हो जाता है ॥ २५६ ॥ १. यह सूत्र पहले आ चुका है। २. यह सूत्र पहले आ चुका है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः ककारषकारयायांमे क्षो भवति सुवाक्षु। कवर्गप्रथमः शषसेषु द्वितीयो वा॥२५७ ॥ कवर्गप्रथमस्य द्वितीयो भवति शषसेषु परतो वा । सुवाख्सु । प्रत्यञ्शब्दस्य तु भेदः । चवर्गदगादीनां चेत्यत्र चवर्गग्रहणबलादञ्च युज् क्रुचा प्रागेव गत्वं । मनोरनुस्वारो धुटि ॥२५८ ॥ अनन्त्ययोर्मकारनकारयोरनुस्वारो भवति धुटि परे । वर्गे वर्गान्तः ॥२५९ ।। अनुस्वारो वर्गे परे वर्गान्तो भवति। संयोगान्तस्य लोपः ॥२६॥ पदस्य संयोगान्तस्य लोपो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । प्रत्यङ् । प्रत्यञ्चौ । प्रत्यञ्चः । प्रत्यक्षं । प्रत्यञ्चौ। व्यञ्जनान्नोऽनुषङ्गः ॥२६१ ॥ सुवाचः सुवाचौ सुवाभिः सुवाचि सुवाचो इससे सुवाक्षु बना। श् ष स् के आने पर क वर्ग का प्रथम अक्षर विकल्प से द्वितीय अक्षर हो जाता है ॥२५७ ॥ अत: सुवाख्सु बन गया। सुवाक्, सुवाग सुवाचौं सुवाचः सुवाग्भ्याम् सुवाभ्यः सुवाचम् सुवाचः सुवाचः सुवायोः सुवाचाम् सुवाचा सुवाग्भ्याम् सुवाक्षु, सुवासु सुवाचे सुवाग्भ्याम् सुवाग्भ्यः प्रत्यञ्च् शब्द में कुछ भेद हैं। 'चवर्गदृगादीनां च' इस सूत्र से च को ग् हो गया तब प्रत्यन् ग् + सि 'व्यञ्जनाच्च' इस सूत्र से सि का लोप हो गया। यहाँ च के निमित से न् को ज् हुआ था अत: च् को ग् करने पर ञ् मूल न् के रूप में आ गया। धुट के आने पर अंत में न हो ऐसे मकार और नकार अनुस्वार हो जाता है ॥२५८ ॥ आगे वर्ग के आने पर अनुस्वार उसी वर्ग का अंतिम अक्षर हो जाता है ॥२५९ ॥ अत: प्रत्यङ् ग् रहा। विराम और व्यंजनादि विभक्ति के आने पर अन्त के संयोगी अक्षर का लोप हो जाता है ।।२६०॥ अत: प्रत्यङ् बना । प्रत्यञ्च् + औ= प्रत्यञ्चौ आदि । प्रत्यञ्च् + शस् धातु और लिंग के अंतिम व्यंजन से पूर्व में जो नकार है वह 'अनुषंग' संज्ञक हो जाता है ॥२६१ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ कातन्त्ररूपमाला धातुलिङ्गयोरन्त्याद्व्यञ्जनाय: पूर्वो नकार: सोऽनुषड्गसंज्ञो भवति । अधुट् स्वरे लोपमित्यनुवर्तते । व्यञ्जने चैषां निरति च । अनुषङ्गशालुञ्चत्॥२६२॥ अक्रुश्चेरिदनुबन्धवर्जितस्यानुषङ्गो लोपमापद्यते अघुस्वरे व्यञ्जने च परे । अञ्जेरलोपः पूर्वस्य च दीर्घः ॥२३॥ अञ्चरलोपो भवति पूर्वस्य च दीघों भवति अघुद स्वरादौ। प्रतीचः। प्रतीचा। प्रत्याभ्यां । प्रत्यग्भिः । इत्यादि । एवं प्राञ्च सम्यञ्च् प्रभृतयः । अक्रुश्चेरिति किं ? क्रुङ् । क्रुश्चौ । क्रुञ्च: । क्रुझं । क्रुञ्चौ । क्रुमः । क्रुश्चा क्रुभ्यां । क्रुभिः । सप्तम्यां तु.--- डात् ॥२६४ ॥ डारपरस्य सस्य षो भवति । क्रुक्षु । इत्यादिः । इदनुबन्धवर्जितस्येति किं ? सुकन्स्शब्दः । कसि गतिशासनयोः । अत एव वर्जनादिदनुबन्धानां धातूनां नुरागमोऽस्तीति । सूपूर्वकः सुष्टु कंस्ते क्विम् । इस सूत्र से प्रत्यञ्च् के न् को अनुषंग संज्ञा हो गई । 'अघुट स्वरे लोपम्' एवं 'व्यंजने चैषां नि:' ये सूत्र अनुवृत्ति में चले आ रहे हैं। __क्रुञ्च् और इकार अनुबंध वाले शब्दों को छोड़कर आगे अघुट् स्वर और व्यंजन के आने पर अनुषंग का लोप हो जाता है ॥२६२ ॥ अत: प्रति + अच् + अस् रहा। अघुट् स्वर वाली विभक्तियों के आने पर अञ्च के 'अ' का लोप होकर पूर्व के स्वर को दीर्घ हो जाता है ॥२६३ ॥ तब प्रतीच् + अस् = प्रतीच: बना । प्रत्य + भ्याम् २५४वें सूत्र से च को ग्। २६१वें सूत्र से न् को अनुषंग संज्ञा होकर २६२३ सूत्र से अनुषंग का लोप हुआ और प्रत्यग्भ्याम् बन गया। संबोधन में भी यही रूप बनते हैं। प्रत्यङ् प्रत्यचौ प्रत्यक्षः प्रतीचः प्रत्यग्भ्याम् प्रत्याभ्यः प्रत्यक्षम् प्रत्यको प्रतीचः प्रतीचः प्रतीचोः प्रतीचाम प्रतीचा प्रत्यग्भ्याम् प्रत्यग्भिः प्रतीचि प्रतीचोः प्रत्यक्षु प्रतीचे प्रत्याभ्याम् प्रत्यग्भ्यः इसी प्रकार से प्राञ्च एवं सम्यञ्च शब्द भी चलते हैं। सूत्र में क्रुञ्च को छोड़कर ऐसा क्यों कहा? तो इस क्रुश्च में अघुट् स्वर और व्यंजन के आने पर अनुषंग का लोप नहीं होता। क्रुङ्+सु से परे सकार को षकार हो जाता है ॥२६४ ॥ अतः क्रुक्षु बना। क्रुभ्याम् क्रुभ्यः क्रुश्चम् क्रुश्चों . क्रुश्वः कुचाम् कुष्याम् क्रुभिः क्रुक्षु क्रुझ्याम् क्रुझ्यः . कुशोः क्रुञ्चोः कुचि Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः क्विप् सर्वापहारिलोपः। कृतद्धितसमासाश्चेति लिङ्गसंज्ञा। प्रथमैकवचन सि । व्यञ्जनाच्चेति सेलोपः । मनोरनुस्वारे धुटि इति नकारस्यानुस्वारे प्राप्ते सर्वविधिभ्यो लोपविधिर्बलवानिति न्यायात् संयोगान्तस्य जोप इति रिलमालोग । मकन । स्वरें परे मनोरनुस्वारो धुटि इति अनुस्वारः । महत्साहचर्याद्धातादीघों न स्यात् । सुकंसौ । सुकंस: । सुकंसं । सुकंसौ । सुकंस: । सुकंसा। सुकन्भ्यां : सुकन्भिः । इत्यादि। सम्बोधनेऽपि तद्वत् । नाञ्चः पूजायां ॥२६५ ।। पूजार्थे वर्तमानस्य अञ्चेरनुषङ्गस्य लोपो न भवति अघुट्स्वरे व्यञ्जने च परे । प्राङ् । प्राञ्चौं । प्राश्च: । हे प्राङ् । हे प्राञ्चौ । हे प्राश्नः । प्राझं । प्राञ्चौ। प्राञ्चः । प्राचा। प्राङ्भ्याम् । प्राभिः । इत्यादि । सुषि विशेषः । डात्परस्य सस्य षो भवति। प्रार्छ । अञ्च गतिपूजनयोः। प्रपूर्वक: प्राचतीति क्विप् २६२वें सूत्र में कहा कि इकार अनुबंध जिसमें हुआ है ऐसे शब्दों के अनुषंग का लोप नहीं होगा सो ऐसा क्यों कहा ? सुकन्स् शब्द है यह कैसे बना सो देखिये ! 'कसि धातु गमन और शासन अर्थ में है इसमें इकार का अनुबंध लोप हआ है अत: इकार अनुबंध धात में कृदन्त में न का आगम होता है सु उपसर्गपूर्वक अर्थात् अच्छी तरह से गमन या शासन करता है इस अर्थ में क्विप् प्रत्यय हुआ तो सु क नु स= सुकन्स् बना क्योंकि विवप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोए हो जाता है। पुन: 'कृत्तद्धितसमासाश्च' इस ४२३वें सूत्र से लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्तियाँ आ गईं। सुकन्स्+सि 'व्यंजनाच्च' इस सूत्र से सि का लोप'मनोरनुस्वारोधुटि' इस २५८वें सूत्र से नकार को अनुस्वार प्राप्त था किन्तु सर्वविधि से लोप विधि बलवान होती है इस नियम से 'संयोगांतस्य लोप:' इस १६३वें सूत्र से संयुक्त के अन्त सकार का लोप होकर 'सुकन्' बना । सुकन्स् + औ 'मनोरनुस्वारो धुटि' से न को अनुस्वार होकर 'सुकंसौ' बना । यहाँ महत् के साहचर्य से धातु को दीर्घ नहीं हुआ। सुकन्स्+भ्याम् ‘संयोगांतस्य लोपः' से स् का लोप होकर सुकन्भ्याम् बना । सुकन् सुकन्सौ सुकंसः । सुकंसे सुकन्भ्याम् सुकन्भ्यः हे सुकन् हे सुकन्सौ हे सुकंसः | सुकंस: सुकन्भ्याम् सुकन्यः सुकंसम् सुकन्सों सुकंसः सुकंसोः सुकंसाम सुकंसा सुकन्भ्याम् सुकन्भिः । सुकंसि सुकसोः सुकन्सु प्राञ्च+सि पूजा अर्थ में वर्तमान अञ्च् के अनुषंग का लोप नहीं होता है ॥२६५ ॥ अघट स्वर और व्यंजन वाली विभक्तियों के आने पर अञ के नकार का लोप नहीं होता है पजा अर्थ में विद्यमान रहने पर । अत: प्राञ्च+ शस् = प्राश्नः । प्राञ्च् + भ्याम् च को ग् ञ् को अनुस्वार होकर डकार हुआ। संयुक्त के अंत का लोप होकर प्राभ्याम् । प्राञ्च+सु= प्राङ्सु 'झत्' २६४वें सूत्र से स् को प् होकर प्राषु बन गया। प्राङ् प्राञ्चौ प्राशः प्राचे प्राभ्याम् प्राभ्यः हे प्राङ् ! हे प्राञ्चौ ! हे प्राञ्चः ! | प्राभ्याम् प्राभ्यः प्राश्वम् प्रायः प्राचः प्राश्चोः प्राश्चाम् प्राचा प्राभ्याम प्राभिः । प्राचि प्राञ्चोः प्राइषु प्राङ्क्ष अञ्जु धातु गति और पूजा अर्थ में है। सुकंसः प्राञ्चौ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ कातन्त्ररूपमाला सर्वापहारिलोपः । कृतद्धितसमासाश्चेति लिङ्गसंज्ञा । यत्र गत्यर्थस्तत्र अनुषङ्गश्चाक्रुश्चेत् इत्यनुषङ्गलोप: । यत्र पूजार्थस्तव नाचेः पूजायामिति अधुट्स्वरे व्यञ्जने अनुषगलोपो न भवति । अदद्र्यशब्दस्य तु भेदः । अछ अदस्पूर्व:-अमुमञ्चतीति स्विप् चेति क्विप् प्रत्ययः । क्विपि सति विष्वग्देवयोश्चान्त्यस्वरादेरद्रयचतौ क्वौ ।।२६६ ॥ विष्वग्देवयोः सर्वनाम्नश्चान्त्यस्वरादेरवयवश्चाश्चतौ क्विबन्ते परेऽद्रिरादेशो भवति । इति सकारसहितस्य अकारस्य अदिरादेश: । इवों थत्वं । अदव्यञ्च इति स्थिते सति अदव्यञ्चो दस्य बहलं ॥२६७॥ अपश्चो दकारस्य बहुलं मकारो भवति, मात् परस्य रस्य उत्वं च। अदमुयङ्। अदमुयश्चौ । अदमुयश्चः । एवं सम्बुद्धौं । अदमुयनं । अदमुयञ्चौ । " उपसर्गपूर्वक अश्वति है. क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से लिंग संज्ञा होकर प्राश्च बना। जब इस प्राञ्चका गति अर्थ लेंगे तब शसादि विभक्ति के आने पर 'अनुषंगश्चाक्रुशेत्' सूत्र से अघुट् स्वर और व्यञ्जनादि विभक्तियों के आने पर अनुषंग का लोप होगा। अत: उपर्युक्त प्रकार से दो तरह से रूप चलते हैं। अदयश्च शब्द में कुछ भेद हैंयहाँ भी अञ्च धातु गति और पूजन अर्थ में है। अदस् शब्दपूर्वक अक्षु धातु से अनुम् असि इ . से 'किस' इ ६५६वे सूत्र से विवप् प्रत्यय हुआ एवं क्विप् प्रत्यय के होने पर आगे का सूत्र लगता है। अञ्च् धातु से क्विप् प्रत्यय के आने पर विष्वक्, देव और सर्वनाम के अन्त्य स्वर की आदि के अवयव को 'अद्रि' आदेश हो जाता है ॥२६६ ॥ ___ यहाँ पर अदस् शब्द सर्वनाम है अत: इसके अवयव--सकार सहित दकार के अकार को 'अद्रि' आदेश हो गया तब अदद्रि + अञ्च् । ___ इ वर्ण को य् होकर 'अदधू' बन गया। अदञ्च् के दकार को बहुलता से मकार हो जाता है ॥२६७ ॥ और मकार से परे रकार को उकार हो जाता है तब अदमु इकार को य् होकर अञ्च मिलकर अदमुय बना । अर्थात् अद द्रि+ अङ्ग् है । द्रि में तीन अक्षर हैं। द् को 'म्' र को 'उ' और इ को 'य' आदेश हो गया। अदमुय् + अञ्- अदमुय बना । इसी विषय में आगे के श्लोक का अर्थ देखिये । श्लोकार्थ-कोई आचार्य पर के दकार को मकार एवं कोई आवार्य पूर्व के दकार को मकार करते हैं एवं कोई आचार्य दोनों ही दकार को मकार स्वीकार करते हैं तथा कोई आचार्य दोनों ही दकारों को मकार नहीं मानते हैं अत: इस अदस् शब्द से अञ्च् धातु के आने पर चार प्रकार के रूप बन जाते हैं। प्रथम पर के दकार को मकार करने पर अदमुयञ्च् द्वितीय-पूर्व के दकार को मकार करने पर अमुञ्च। तृतीय में दोनों ही दकारों को मकार करने पर 'अमुमुयञ्च' चतुर्थ में दोनों ही दकारों को मकार न करने पर 'अदन्' ऐसे चार रूप बने हैं अब 'कृत्तद्धित समासाश्च' से लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्तियाँ आकर क्रम से एक-एक के रूप चलेंगे। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः नोतो वः॥२६८॥ अदयश्च इत्येतस्य उतो वत्वं च भवति । अनुषङ्गश्चाक्रुश्चेत् इति नलोप: । अझेरलोप: पूर्वस्य च दीर्घ इति अकारलोप: पूर्वस्य च दीघों भवति । अदमुईच: । अदमुईचा। अनुषगचाक्रुञ्चेत् नलोपः । चवर्गदृगादीनां च गत्वं । अदमुयग्भ्यां । अदमुग्धिः । पूर्ववत् अनुषगलोपो गत्वं च । अघोषे प्रथम: । क् । नामिकरेत्यादिना पन्नं ! अदमुयक्ष । मुह । माताओं अमुद्दाश: । अमुचं । अमुयश्चौ । अमुद्रीचः । अमुद्रीचा। अमुः भ्यां । अमुग्भिः । अमुक्षु । अमुमुयङ्। अमुमुयश्चौ । अमुमुयञ्चः । अमुमुयशं । अममयचौं। अममईच: । अममईचा। अममयग्भ्यां । अमंमयग्भिः । अममयक्ष । अदाङ । अदद्यचौ। अदयशः । अदयाझं । अदबूञ्चौं । अदद्रीच: । अदद्रीचा । अदाभ्यां । अदयग्भिः । अदक्षु । पहले 'अदम्यञ्च' शब्द चलाया है। जो कि प्रत्यञ्च के समान है। अदमुयन् + शस् 'अनुषंगश्चाक्रुश्चेत् से - का लोप हो गया। 'अञ्चेरलोप: पूर्वस्य च दीर्घः' इस २६३३ सूत्र से अदमुइ+ अञ्च के 'अ' का लोप होकर पूर्व के स्वर 'इ' को दीर्घ हुआ एवं अदमुईच: बना। अदम्यञ्च के उकार को 'व' नहीं होता है ॥२६८ ॥ अदमुयञ्च् + भ्याम् 'अनुषंगश्चानुशेत्' से अनुषंग का लोप होकर 'चवर्गद्गादीनां च सूत्र से च् को ग होकर 'अदमुयग्भ्याम्' बना। सुप् में अदमुयग् + सु 'अघोघे प्रथम:' से ग को क् एवं 'नामिकरपरः' इत्यादि सूत्र से स् को रु होकर 'कषयोगे क्ष:' से क्ष् होकर अदमुयक्षु बना। दूसरा शब्द अमुञ्च् है । पाँच रूप बनने के बाद अमुञ्च् + शस् अनुषंग का लोप। अञ्च के अ का लोप होकर पूर्व को दीर्घ-अमुद्रि अ + शस् = अमुद्रीच: बना । अमुञ्च् + भ्याम् अनुषंग का लोप एवं च को ग् होकर 'अमुभ्याम्' बना । अमुञ्च् + सुप्- अमुयक्षु बना तीसरा-अमुमुयन् । पाँच रूप बनने के बाद अमुमुयञ्च् + शस् अमुमुइ अञ्च् + शस् अनुषंग का लोप, अ का लोप पूर्व की इ को दीर्घ होकर अमुमुईच: बना। अमुमुयच् + भ्याम् अनुषंग का लोप च् को ग् होकर अमुमुयग्भ्याम् बना। अमुमुयश्च+सु । अनुषंग का लोप होकर च को ग् एवं क् तथा सु को षु होकर 'कषयोगे क्ष: से क्षु होकर अमुमुयक्षु बना। चौथा अदच् है । पाँच रूप बनने के पश्चात् अदाच् + शस् अदद्रि अञ्च् + शस् अनुषंग का लोप 'अ' का लोप होकर पर्व स्वर को दीर्घ हआ तो अदद्रीच: बना।। अदयञ्च् + भ्याम् अनुषंग का लोप एवं च को ग् होकर अदग्भ्याम् । अदञ्च् + सु अनुषंग का लोप च को ग् एवं क् तथा सु को यु होकर अदक्षु बना। क्रमश: अदमुयङ् अदमुयश्चौं अदमुयश्चः अदमुईचे अदमुयग्भ्याम् अदमुयाभ्यः हे अदमुयङ् ! हे अदमुयश्चौ ! हे अदमुयञ्चः ।। अदमुईचः अदमुयग्भ्याम् अदमुयग्भ्यः अदमुयञ्चम् अदमुयौ अदमुईचः अदमुईचः अदमुईच अदमुईचाम् अदमुईचा अदमुयग्भ्याम् अदमुग्भिः | अदमुईचि अदमुईचोः अदमुयक्षु अमुङ् अमुची अमुब्वः अमुग्भ्याम् अमुधुग्भ्यः , हे अमुधुक ! हे अमुघचौ ! हे अमुश्चः । | अमुद्रीयः अमुद्याभ्याम् अमुघुग्भ्यः अमुघुश्चम् अमुधुश्चौ अमुद्रीन: अमुद्रीचः अमुद्रीचोः अमुद्रीचाम् अमुद्रीचा अमुग्भ्याम् अमुधुग्भिः | अमुद्रीचि अमुद्रीचोः अमुक्षु अमुद्रीचे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ( परतः केचिदिच्छन्ति केचिदिच्छन्ति पूर्वतः । उभयो: केचिदिच्छन्ति केचिनेच्छन्ति चोभयोः ॥ १ ॥ उदञ्चशब्दस्य तु भेदः । उदङ् । उदचौ । उदचः । उदचं । उदञ्चौ । शसादौ— उदङ् उदीचिः ॥ २६९ ॥ उदङ् उदीचिर्भवति । अघुट्स्वरादौ । उदीचः । उदीचा । उदग्भ्यां । उदग्भिः । इत्यादि । तिर्यञ्च् शब्दस्य तु भेदः । तिर्यङ् । तिर्यञ्च । तिर्यञ्चः । तिर्यनं । तिर्यञ्चौ । शसादौ तिर्यङ् तिरश्चिः ॥ २७० ॥1 तिर्यङ्शब्दः तिरश्चिर्भवति अघुदस्वरादौ । तिरश्चः । तिरश्चा। तिर्यग्भ्यां । तिर्यग्भिः । इत्यादि । छकारान्तः पुल्लिङ्गः प्राच्छ्रशब्दः । सौ-विरामे व्यञ्जनादिविति वर्तते । अमुमुयड् हे अय अमुमुयश्चम् अमुमुईंचा अमुमुयचौ अमुमुयचः । हे अमुमुयश्चौ ! हे अमुमुयश्चः अमुमुचौ अमुमुयाभ्याम् अदधुञ्चौ हे अदचौ ! अदञ्चौ अदद्युग्भ्याम् उदञ्च शब्द में कुछ भेद हैं। घुट् पर्यंत पाँच रूप तो पूर्ववत् ही हैं। उदच् + शस् अघुट स्वर के आने पर उदच को उदीच् आदेश हो जाता है ॥ २६९ ॥ अत: उदीचः बना । उदञ्च ू + भ्याम् अनुषंग का लोप एवं च् को ग् होकर उदग्भ्याम् बना । उद + सु अनुषंग का लोप च् को ग् और ग् को क् होकर सु को 'नामिकरपरः' इत्यादि सूत्र १५० वें से षु हो गया पुनच 'कषयोगे क्ष:' इस सूत्र से क्ष होकर उदक्षु बना । उदचः उदीचे उदड् हे उदङ् ! उदीच हे उदय ! उदीचः उदीचः उदग्भ्याम् उदग्धिः उदीच तिर्यच शब्द है । घुट् विभक्ति के आने पर पूर्ववत् है । तिर्यञ्च् + शस् अदङ् अङ् । अचम् अदीचा कातन्त्ररूपमाला उदश्चम् उदीचा उदञ्चौ हे उदयौ ! उदयौ तिर्यञ्चौ तिर्यग्भ्याम् अमुमुईचः अमुमुयग्भिः अदभूचः हे अदद्युचः ! अदद्रीच: अदद्यूग्भिः अमुमुचे अमुमुचः अमुमुचः अमुमईचि हे तिर्यञ्चः ! तिरख: तिर्यग्भिः अट्टीचे अदद्रीचः अदद्रीचः अदद्रीचि अमुमुयाभ्याम् अमुमुयग्भ्यः अमुमुयग्भ्यः अमुमुयग्भ्याम् अमुमुईचो अमुमुईचाम् अमुमुईचो: अमुमुक्षु कहत अन् अदद्युग्भ्याम् अदद्रीचो: अदद्रीचोः अघुट् स्वर के आने पर तिर्यञ्च को तिर आदेश हो जाता है ॥ २७० ॥ तिरच् + अस्=1 = तिरश्च: तिर्यञ्चः तिरचे तिर्यग्भ्याम् तिर्यञ्च + भ्याम् अनुषंग का लोप होकर च् को ग् हुआ। तिर्यग्भ्याम् बना । तिर्यङ तिर्यश्ची हे तिर्यङ् ! हे तिर्यौ ! तिर्यञ्चम् तिरखा तिर्यग्भ्याम् इस प्रकार से चकारांत पुल्लिंग शब्द हुए। अब छकारांत प्राच्छ् शब्द है । प्राच्छ् + सि " सौ विरामे व्यञ्जनादिषु" यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। निरन तिरख: तिरधि उदग्भ्याम् उदग्भ्याम् उदीचो: उदीचोः दः अदध्राभ्यः अदद्रीचाम् अदधूक्षु तिर्यक्षोः तिरथो: उदग्भ्यः उदग्भ्यः उदीचाम् उदक्षु तिर्यग्भ्यः तिर्यग्भ्यः तिरश्चाम् तिर्यक्षु Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः हशषछान्तेजादीनां ङः ।।२७१ ॥ हशषछान्तानां यजादीनां च डो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । प्राट् प्राड् । द्विर्भावं स्वरपरश्छकारः । प्राच्छौं । प्राच्छः । संबोधनेऽपि तद्वत् । प्राच्छं । प्राच्छौ । प्राच्छः । प्राच्छा । प्राभ्यां । प्राभिः । इत्यादि । इति । छकारान्ता: । जकारान्त: पुल्लिङ्गो युज्शन्दः । युजेरसमासे नुर्पुटि ॥२७२ ।। युज्शब्दस्य असमासे नुरागमो भवति घुटि परे। आगम उदनुबन्धः स्वरादन्त्यात्परः ।।२७३ ।। उदनुबन्ध आगमोऽन्त्यात्स्वरात् परो भवति । मित्रवदागमः । अथवा प्रकृतिप्रत्यययोरनुपघाती आगम उच्यते । शत्रुवदादेशः । युङ् । युऔ । युञ्जः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । युझं । युझौ । युजः । युजा । युग्भ्यां । पादि। अश्वयजादीनां समासत्वान्नरागमो नास्ति। अश्वयग, अश्वयक। अश्वयजौ । अश्वयुजः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । इत्यादि । एवं ऋत्विज गुणभाज् प्रभृतयः । साधुमस्ज् शब्दस्य तु भेदः । प्राच्छोः ह श् ष् छ् है अंत में जिसके वे शब्द और यज् आदि शब्द के अंत में इ हो जाता है ॥२७१ ॥ विराम और व्यञ्जन वाली विभक्ति के आने पर । अतः प्राड+सि 'व्यंजनाच्च' इस सब से सि का लोप होकर 'वा विरामे' इस सूत्र से विकल्प के प्रथम अक्षर हो जाता है अत: प्राट्, प्राइ बना । प्राट्, प्राड़ पाच्छौ प्राच्छः । प्राच्छे प्राभ्याम् प्राइभ्यः हे प्राट्, प्राड़ | हे प्राच्छौ ।। हे प्राच्छः ! प्राच्छः प्राइभ्याम् प्राड्भ्यः प्राम प्राच्छौं प्राच्छ: प्राच्छाम् प्राच्छा प्राइभ्याम् प्राभिः प्राच्छि प्राच्छोः प्राट्षु जकारांत पुल्लिंग युज् शब्द हैं। युज्+सि असमास में घुट विभक्ति के आने पर युज शब्द को नु का आगम अंतिम स्वर से परे होता है ॥२७२ ॥ उकार अनुबंध वाला आगम अंतिम स्वर से परे होता है ॥२७३ ॥ आगम किसे कहते हैं ? जो मित्रवत् हो उसे आगम कहते हैं अथवा प्रकृति और प्रत्यय का उपघात (क्षति) न करने वाला आगम कहलाता है। आदेश शत्रुवत् होता है। अर्थात् वह किसी को हटाकर उसके स्थान पर होता है अत: शत्रुवत् कहलाता है। युन् + सि 'व्यंजनाच्च' इस सूत्र से सि का लोप होकर युज् बन गया। ज् को ग एवं न को अनुस्वार होकर वर्ग का अंतिम अक्षर ङ् हुआ पुनश्च 'संयोग्रांतस्य लोप: से ग् का लोप होकर यु बना। युज् + भ्याम् 'चवर्गदृगादीनां च' से ज् को ग् होकर युग्भ्याम् बना। युङ युओं युग्भ्याम् युभ्यः हे युङ् ! है युझौ ! हे गुञ्जः ! ! युजः युग्भ्याम् युग्भ्यः युअम् युजः युजः युजाम् युजा युग्भ्याम् युभिः युजोः युक्षु अश्त्रयुज आदि शब्दों में समास के होने से नु का आगम नहीं हुआ है। युजोः युजि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ कातन्त्ररूपमाला । संयोगादेर्युटः ॥२७४॥ संयोगादेधुटो लोपो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च। व्यञ्जनाच्च सिलोपश्चवर्गद्गादीनां च गकारककारौ । साधुमक् साधुमम्। धुटां तृतीयः ।।२७५ ।। धुटां तृतीयो भवति घोषवति सामान्ये । इति सस्य ततीयत्वे प्राप्ते लवर्णतवर्गलसा दन्त्या इति न्यायात् सकारस्य दकारः । तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवौं इति दकारस्य जकारः। साधुमज्जो इत्यादि । देवेज्शब्दस्य तु भेदः । सौ-शषछान्ते इत्यादिना डत्वं । देवेट, देवेड् । देवेजो। देवेजः । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । देवेजम् । देवेजौ । देवेजः । देवेजा। देवेड्भ्यां । देवेभिः । अश्वयुक् अश्वयुग अश्वयुजौ अश्वयुजः हे अश्वयुक्, अश्वयुग । हे अश्वयुजौ । हे अश्वयुजः । अश्वयुजम् अश्वयुजौ अश्वयुजः अश्वयुजा अश्वयुग्भ्याम अश्वयुग्भिः अश्वयुजे अश्वयुग्भ्याम् अश्वयुाभ्यः अश्वयुजः अश्वयुग्भ्याम् अश्वयुग्भ्यः अश्वगुजः अश्वयुजोः अश्वयुजाम • अश्वयुजि अश्वयुजोः अश्वयुक्षु इसी प्रकार से ऋत्विज् और गुणभाज् शब्द भी चलते हैं। साधुमस्ञ् शब्द में कुछ भेद है। साधुमस्+सि 'व्यंजनाच' सूत्र से सि का लोप हुआ। विराम और व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर संयोग की आदि के धुद का लोप हो जाता है ।।२७४॥ इससे स् का लोप हुआ। अत: साधुमज रहा 'चवर्गदृगादीनां च' इस सूत्र से ज् को ग् होकर पुनः ‘वा विरामे' से क् होकर साधुमक्, साधुमग बना। साधुमस्+औ सामान्य घोषवान् के आने पर धुद को तृतीय अक्षर हो जाता है ॥२७५ ॥ इस सत्र से स को ततीय अक्षर प्राप्त होने पर "लवर्ण तवर्गल और स ये दंतस्थानीय हैं" इस न्याय से सकार को दकार हुआ पुन: “तवर्ग को चवर्ग और दवर्ग के योग में चवर्ग, टवर्ग हो जाता है इस नियम से तवर्ग के दकार को चवर्ग का जकार हो गया तो 'साधुमज्जौ' बना । साधुमक, साघुमग साथुमज्जो साधुमज्जः । साधुमज्जे साधुमाभ्याम् साघुमायः हे साधुमक्, साधुमण । हे साधुमज्जौ । हे साधुमच; ! | साधुमजः साधुमाप्याम् साधुमग्भ्यः साधुमज्जम् साधुमज्जो साधुमज्ज: | साधुमज्जः साधुमञ्चोः साधुमजाम साधुमज्जा साधुमाभ्याम् साधुमभिः साधुमज्जि साधुमज्जोः साधुमक्षु देवेज् शब्द में भेद है। देवे+सि 'व्यंजनाच्च' से सि का लोप एवं “हशषछान्तेजादी डः" इस सूत्र से ज् को ड् होकर देवेड् प्रथम अक्षर होकर देवेट बना। देवेट्+सु Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः टात् सुप्तादिर्वा ॥२७६ ॥ टकारात्पर: सुप् तादिर्वा भवति । तेन देवेद्त्सु, देवेट्सु । एवं सम्राजाभृतयः । झजटवर्गान्ता अप्रसिद्धाः। तकारान्त: पुल्लिङ्गो मरुत्शन्दः । मरुत्, मरुन् । मरुतौ । मरुतः । संबोधनेऽपि तद्बत् । मरुतं । मरुतौ । मरुतः । मरुता । धुटां तृतीय इत्यनेन दत्वे मरुद्भ्याम् इत्यादि । उदनुबन्धस्य भवन्दशब्दस्य तु भेदः । दीर्घमामिमौ इति वर्तने ! अन्त्वसन्तस्य चाधातोस्सौ ॥२७७ ॥ - अन्तु अस् इत्येवमन्तस्याधातोरस्य दीधों सौ असम्बुद्धौ। लिङ्गान्तनकारस्य इति नकारस्य लोपे प्राप्ते। नसंयोगान्तावलुप्तवच्च पूर्वविधौ ।।२७८ ॥ देवेजः देवेड्भ्यः टकार से परे सु की आदि में त् का आगम विकल्प से होता है ॥२७६ ॥ अत: देवेट्त्सु, देवेट्सु बना । इसी प्रकार सम्राज् शब्द के रूप भी चलेंगे। देवेड, देवेट् देवेजों देवेजः देवेड्भ्याम् देवेड्भ्यः देवेजम् देवेजो देवेजः देवेजः देवेजोः देवेजाम् देवेजा देवेड्भ्याम् देवेभिः देवेजि देवेजोः देवेटत्सु, देवेट्सु देवेजे देवेड्भ्याम् सम्राट्, सम्राड् समाजो सम्राजः सम्राड्भ्याम् समाइभ्यः हे सम्राट, सम्राड् ! हे सम्राजौ । हे सम्राजः ! सम्राजः सम्राभ्याम् सम्राड्भ्यः सम्राजम् सम्राजी सम्राजः सम्राजः सम्राजोः सम्राजा सम्राइभ्याम् सम्राभिः । सम्राजि समाजोः सम्राट्त्सु, सम्राट्सु झकारांत प्रकारांत और टवर्गात शब्द अप्रसिद्ध हैं अब तकारांत पुल्लिग मरुत् शब्द है। मरुत+सि 'व्यंजनाच' इस सूत्र से सि का लोप एवं विकल्प से तृतीय होकर मरुत्, मरुद् शब्द समाजे समाजाम् मरुते मरुतः मरुतोः मरुत् +भ्याम् 'धुटा तृतीयः' से तृतीय अक्षर होकर मरुद्भ्याम् बना। मरुत्त मरुट ! मरुतो मरुतः मरुद्भ्याम् मरुद्भ्यः हे मरुत्, हे मरुट् ! हे मरुता ! हे मरुतः ! मरुतः मरुद्भ्याम् मरुद्भ्यः मरुतम मरुतौ मरुतः मरुताम् मरुता मरुभ्याम् मरुभिः मरति मरुतोः मरुत्सु उकार अनुबंध वाले भवन्त् शब्द में कुछ भेद है। भवन्त्+सि 'दीर्घमामिसनौ' सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। अन्तु और अंस् है अंत में जिसके ऐसे धातु के अकार को दीर्घ हो जाता है असंबुद्ध सि के आने पर ॥२७७ ॥ सि का लोप होकर भवान्त बना 1 'संयोगांतस्यलोप: से त् का लोप होकर 'लिंगांत नकारस्य' इस सूत्र से नकार का लोप प्राप्त था किन्तु आगे सूत्र लगा लुप्त हुए नकार और संयोगांत अलुप्तवत् होते हैं पूर्वविधि में दीर्घ आदि के करने पर ।।२७८ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० कातन्त्ररूपमाला कारसंयोगान्ती लुप्तावप्यलुप्तवद्भवतः पूर्वविधौ दीर्घादिके कर्तव्ये । नकारग्रहणं राजन्शब्दार्थम् । भवान् । भवन्तौ । भवन्तः । भवतो वादेरुत्वं सम्बुद्धौ ॥ २७९ ॥ उदनुबन्धस्य भवन्त्शब्दस्य वादेरुत्वं भवति वा सम्बुद्धौ । हे भोः । सन्निपातलक्षणविधिरनिमित्तं तद्विघातस्य । यो यमाश्रित्य समुत्पन्नः स तं प्रति सन्निपातः । हे भवन् । हे भवन्तौ । हे भवन्तः । भवन्तं । भवन्तौ । भवतः । भवता । भवद्भ्यां । भवद्भिः । इत्यादि । एवं भगवन्त् अघवन्त् शब्दौ । सम्बुद्धि विना गोमन्त् धनवन्त् यावन्तु तावन्त् एतावन्तु इयन्तु कियन्त् प्रभृतयः । एते शब्दाः केन प्रकारेण सिद्धाः । भगं ज्ञानं । भगमस्यास्तीति भगवान्। अयं पापमस्यास्तीति अघवान् । गावोऽस्य सन्तीति गोमान् । धनमस्यास्तीति धनवान् । तदस्यास्तीति मंत्वंत्विन् इति वन्तुप्रत्ययः । यहाँ लुप्त हुए नकार का ग्रहण राजन् शब्द के लिये किया गया है अर्थात् राजन् शब्द में नकार का लोप हो जाता है। अतः यहाँ नकार का लोप न होकर भवान् बना । भवन्त् + औ = भवन्तौ, भवन्तः । संबोधन में- भवन्त् + सि उकार अनुबंध सहित भवन्त् शब्द के 'व' को संबोधन में विकल्प से 'उ' हो जाता है ॥ २७९ ॥ इसमें 'संयोगांतस्य लोप:' से तू का लोप 'लिंगांतनकारस्य' से न का लोप होकर संधि और सि का विसर्ग होकर हे भो बना, विकल्प से हे भवन् बना । सन्निपात लक्षण विधि बिना निमित्त के ही उसके विघात के लिये हो जाती हैं। जो जिसका आश्रय लेकर उत्पन्न हुआ है वह उसके प्रति सत्रिपात कहलाता है। मतलब यहाँ हे भोः में नकार तकार का लोप बिना निमित्त के ही हुआ अतः वह सत्रिपात विधि हैं। भवन्त् + शस्, भवन्त् + भ्याम् 'व्यंजने चैषां निः' सूत्र से नकार का लोप हुआ । भवतः भवद्भ्याम् बना । भवान् भवन्तौ हे भोः, हे भवन् । हे भवन्तौ । भवन्तम् भवन्तौ भवन्तः भवते हे भवन्तः ! भवतः भवतः भवतः भवता भवद्भ्याम् भवद्भिः भवति इसी प्रकार से भगवन्तु और अधवन्तु शब्द चलते हैं । भगवान् भगवन्तौ हे भगोः ! हे भगवान् ! हे भगवन्तौ ! भगवन्तम् भगवन्तौ भगवन्तः भगवते हे भगवन्तः 1 भवद्भ्याम् भवद्भ्याम् भवतो: भवतोः भगवद्भ्याम् भगवद्भ्यः भगवतः भगवद्भ्याम् भगवद्भ्यः भगवतः भगवतो: भगवताम् भगवता भगवद्भ्याम् भगवति भगवतो: भगवत्सु सम्बोधन के बिना गोमन्त्, धनवन्तु यावन्तु तावन्तु एतावन्तु इयन्त् और कियन्त् आदि शब्द चलते हैं । भगवतः भगवद्भिः भवद्भ्यः भवदुद्भ्यः भवताम् भवत्सु प्रश्न – ये शब्द किस प्रकार से सिद्ध हुए हैं ? उत्तर -- भग- ज्ञान, ऐसा भग जिसमें हैं वह भगवान् कहलाता है। अघ- पाप, अघ जिसमें है वह अघवान् है। गायें जिसके हैं वह गोमान् हैं। धन इसमें है वह धनवान् है । एतद् – यह इसके हैं वह एतावान् आदि। इन शब्दों में 'मत्वत्विन्' से वन्तु प्रत्यय हुआ है। १. यः संक्रुद्धेः सकारमाश्रित्योत्पन्नः स उकारस्तं संबुद्धेः सकारं प्रति सत्रिपातः अयं सन्निपातलक्षणविधिः । तद्विघातस्य संबुद्धिसिलोपस्य अनिमित्तं हेतुर्न भवतीत्यर्थः । वाम्शसोरिति सूत्राद्वा इति वर्तते ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः यत्तदेतेभ्यो डावन्तुः ।।२८०॥ यद् तद् एतद् इत्येतेभ्य: परतो डावन्तुः प्रत्ययो भवति परिमाणेऽर्थे । डकार अनुबन्धः । डानुबन्धेऽन्त्यस्वरादेलोपः ।।२८१ ।। डकार इति अन्त्यस्वरादेलोपार्थः 1 उकार उच्चारणार्थ: । यत्परिमाणमस्य यावान् । तत्परिमाणमस्य तावान् । एतत्परिमाणमस्य एतावान् । इदमो डियन्तुः ।।२८२।। इदमः परो डियन्तु प्रत्ययो भवति परिमाणेऽर्थे । डकारउकारी पूर्ववत् । इदं परिमाणमस्य इयान् । यावान् परिमाण अर्थ में यत् तद् और एतद् शब्दों से परे डावन्तु प्रत्यय होता है ॥२८० ॥ इस प्रत्यय में ड् का अनुबंध एवं उकार का अनुबंध लोप हो जाता है । 'ड्' का अनुबंध अन्तिम स्वर को आदि में लेकर व्यंजन के लोप करने के लिये है ॥२८१ ॥ इकार का अनुबंध उच्चारण के लिये है । अत: यत् से डावन्तु प्रत्यय होकर य् + आवन्न् = यावन्त् बना। ये तद्धित के प्रत्यय हैं अत: “कत्तद्धितसमासाच" सत्र से लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्तियाँ आकर रूप चलेंगे। इसका अर्थ है कि 'जो परिमाण है इसका' अर्थात् 'जितना' यह अर्थ होता है। ऐसे 'वह परिमाण है इसका। तत् + डावन्तु त् + आवन्तु बना। अर्थात् 'उतना' 'यह परिमाण है जिसका' एतत् + डावन्तुएत्+आवन्त् = एतावत् बना । अर्थात् 'इतना' यावन्त, तावन्त, एतावन्न् । यावन्त—जितना यावन्तो यावन्तः । यावते यावद्भ्याम् यावद्भ्यः हे यावन् ! हे यावन्तौ । हे यावन्तः ! | थावतः यावश्याम यावद्भ्यः यावन्तम् यावन्तौ यावतः यावतः यावतोः यावताम्. यावता यावद्भ्याम् यावद्भिः | यावति यावतोः यावत्सु तावन्त-उतना तावान् तावन्तौ तावन्तः तावद्भ्याम् तावद्भ्यः हे तावन् । हे तावन्तौ । हे तावन्तः । तावतः तावद्भ्याम् तावद्भ्यः तावन्तम् तावन्तो तावत: तावतः तावतोः तावताम् तावता तावद्भ्याम् तावद्धिः । तावति नावतोः तावत्सु एतावन्त-इतना एतावान् एतावन्तों एतावन्तः एतावते एतावद्भ्याम् एतावद्भ्यः हे एतावन् । हे एतावन्तौ । हे एतावन्तः ।। एतावत: एतावदूच्याम् एतावद्भ्यः एतावन्तम् एतावन्तौ एतावत: । एतावत: एतावतोः एतावताम् एतावता एतावद्भ्याम् एतावद्भिः । एतावति एतावतोः एतावत्सु 'यह परिमाण है इसका इस अर्थ में इदं शब्द से डियन्तु प्रत्यय होता है ।।२८२ ॥ परिमाण अर्थ में--अत: डियन्तु में डकार का अनुबंध । “तत्रेदमि:" सूत्र से इदं को इ आदेश एवं 'इवर्णावर्णयोर्लोप:" इस सूत्र से इ का लोप होकर प्रत्यय मात्र से रूप बन गया । 'इयन्त्' लिंग संज्ञा होकर विभक्तियाँ आकर इयान् बना। तावते Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला किमो डियन्तुः ।।२८३ ॥ किम: शब्दात्परो डियन्तुः प्रत्ययो भवति परिमाणेऽर्थे । डकारउकारौ पूर्ववत् । किम्परिमाणमस्य कियान् । पूर्वमन्त्यस्वरादेलोएं कृत्वा पश्चादेकदेशविकृतमनन्यवदिति न्यायात् । तत्रेदमिरिति इ आदेश: । इवर्णावर्णयोलोप इत्यादिना इकारलोप: । अनेन प्रकारेण सिद्धा भवन्ति । नीतकम् । भगवान् । भगवन्तौ । भगवन्तः। भगवन्तं । भगवन्तौ । भगवत: । भगवता । भगवद्भ्यां । भगवद्भिः । सुपि-भगवत्सु । एवं सर्वत्र । सम्बोधने भगवदघवतोश्च ।।२८४॥ भगवदघवतोश्च वादेरवयवस्य उल हा भवति सम्हौ सौ परे । एवं गंतद्धि विना गोमन्न धनवन्त् यावन्त तावन्त् एतावन्त इयन्त् प्रभृतयः । यत्प्रमाणमस्य यावन्त् । हे भगो, हे भगवन् । हे अघो, हे अघवन् । अन्यत्र हे गोमन् । हे धनवन् । हे यावन् । हे तावन् । हे एतावन् । हे इयन् । हे कियन् । शन्तृन्तक्विबन्ता धातुत्वं न त्यजन्ति । शन्तृङन्तस्य क्विबन्तानां च । भवन्शब्दस्य धातुत्वात् सौ दी? न भवति । भवन् । भवन्तौ । भवन्तः । इत्यादि । एवं पचन् पठन् प्रभृतयः । ददनशब्दस्य तु भेद: । युजेरसमासे नुर्पुटि इत्यनुवर्तते। इयन्तौ किम् शब्द से परे डियन्तु प्रत्यय होता है ॥२८३ ॥ परिमाण अर्थ में—'क्या परिमाण है इसका किम् + डियन्तु । इस डियन्तु प्रत्यय से अनुबंध से इम् का लोप होकर कियन्त् बना।। इयन्त्-इतना इस प्रकार से ये रूप सिद्ध हुए हैं। इयान् इयन्ती इयन्तः इयते इयभ्याम् इयदभ्यः हे इयन ! हे इयन्तो ! हे इयन्तः ! | इयतः इयद्भ्याम् इयभ्यः इयन्तम् इयतः इयतः इयतोः इयताम् इयता इयद्भ्याम् इयदिभः इयति इयतोः इयत्सु कियान् कियन्तो कियन्तः कियते कियदभ्याम् कियट्यः हे कियन् ! हे कियन्तो ! हे कियन्तः ! | कियतः कियद्भ्याम् कियट्यः कियन्तम् कियन्तौ कियतः कियतः कियतो: कियताम् कियता कियभ्याम् कियदिभः । कियत्ति कियतोः कियत्सु संबोधन में-भगवन्त+सि अघवन्त + सि भगवत् और अघवत् के 'व' के आदि के अवयव को विकल्प से उकार हो जाता है संबोधन की सि के आने पर ॥२८४ ॥ अत: हे भगो ! हे अघो ! बन गया। भवन्त् शब्द है इसमें शतृङ् प्रत्यय हुआ है इसका अर्थ है होते हुए। शन्तृङ् है अंत में जिसके एवं विवप हुआ है अंत में जिसके ऐसे शब्द धातुपने को नहीं छोड़ते हैं अत: यहाँ शन्तृङत भवन्त् शब्द है धातु रूप होने से विभक्ति के आने पर दीर्घ नहीं हुआ। भवन्त्+सि, सि का लोप होकर भवन बन गया । बाकी रूप पूर्ववत् चलेंगे। यथा-- भवन् भवन्ती भवन्तः । भवन्तम् भवन्तौ भवतः हे भवन् ! हे भवन्तौ ! हे भवन्तः ! | भवता भवदभ्याम् भवभिः Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः अभ्यस्तादन्तिरनकारः ॥२८५ ।। अभ्यस्तात्परोऽन्तिरनकारो भवति घुटि परे । ददत, ददद् । ददतौ। ददत: । इत्यादि । एवं दधन्त् बक्षन्त् जाग्रन्थ प्रभृतयः । महन्शब्दस्य तु भेदः । दीर्घमामि सनौ, घुटि चासम्बुद्धौ इति वर्तते । सान्तमहतो!पधायाः ।।२८६ ॥ सान्त् महन्त् इत्येतयो कारस्योपधाया दीपो भवति असम्बुद्धौ धुटि परे। महान् । महान्तौ । महान्त: । हे महन् । हे महान्तौ । हे महान्तः । महान्तं । महान्तौ । महत: । महता। महद्भ्यां । महद्भिः । इत्यादि । इति मकान। थतासन्तोऽस्लिम सन्दः । अग्निगत अम्निमद् । अग्निमथौ। अग्निमथः। . भवत्सु भवते भवदभ्याम् भवद्भ्यः । भवत: भवतोः भवताम् भवतः भवद्भ्याम् भवभ्यः भवति भवतोः इसी प्रकार से पठन्त् पचन्त् गच्छन्त् आदि के रूप चलेंगे। ददन्त् शब्द में कुछ भेद हैं। ददन्तु + सि अभ्यस्त संज्ञक से परे घुट् विभक्ति के आने पर अन्त के नकार का लोप हो जाता पुन: ‘वा विरामे' से विकल्प से प्रथम अक्षर होकर ददत, ददद् ऐसे दो रूप बने। ददत्, ददद ददतौ ददतः । । ददते ददद्भ्याम् ददभ्यः हे ददत् ! हे ददतौ ! हे ददतः । | ददतः ददद्भ्याम ददद्भ्यः ददतम् ददतौ ददतः । ददत: ददतोः ददताम् ददता ददश्याम दददिभः । ददति ददतोः ददत्सु इसी प्रकार से दधन्त, जक्षन्त, जाग्रन्त् आदि के रूप चलते हैं। महन्त् शब्द में कुछ भेद है। 'दीर्घमामिसनौ' 'घुटि चा सम्बुद्धौ' सूत्र अनुवृत्ति में चले आ रहे हैं। महन्त् + सि असंबुद्ध और घुट विभक्ति के आने पर सकारांत और महन्त् शब्द के नकार की उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥२८६ ॥ महान्त् + सि सि और संयुक्त त् का लोप होकर महान् बना । महन्त-बड़ा-श्रेष्ठ महान् महान्तो महान्तः । महते महद्भ्याम् महद्भ्यः हे महन् । हे महान्तौ । हे महान्तः ! | · महत: महद्भ्याम् महद्भ्यः महान्तम् महान्तौ महतः महतः महतोः महताम् महता महद्भ्याम् महद्भिः । महति महतोः इस प्रकार से तकारांत शब्द पूर्ण हुए अब थकारांत अग्निमथ शब्द है। अग्निपथ् + सि 'धुटा तृतीयः' से तृतीय अक्षर एवं 'वा विरामे' प्रथम अक्षर होकर अग्निमत, अग्निमद् शब्द बना। १. वा विरामे धुटा तृतीय इति थकारस्य दकारः। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ कातन्त्ररूपमाला संबोधनेऽपि तद्वत्। अग्निमथं । अग्निमथौ। अग्निमथः । अग्निमथा। अग्निमया । अग्निमन्द्रिः । इत्यादि । इति थकारान्ताः । दकारान्त: पुल्लिङ्गस्तत्त्वविदशब्दः । तत्त्ववित, तत्त्वविद् । तत्त्वविदौ । तत्त्वविदः इत्यादि । द्विपाद्शब्दस्य तु भेदः । द्विपाद, द्विपादौ । द्विपाद: । सम्बोधनेऽपि तद्वत् । द्विपादं । द्विपादौ । शसादौ पात्पदं समासान्तः ॥२८७॥ समासान्त: पाच्छब्दः पदमापद्यते अत्रुटि स्वरे परे। द्विपद: द्विपदा। द्विपाझ्यामित्यादि । एवं चतुष्पाद् व्याघ्रपाद् प्रभृतयः । त्यद्शब्दस्य तु भेदः । सौ अग्निमत, अग्निमद् अग्निमथौ अग्निमथः हे अग्निमा, अग्नि हे अग्निमयः । अग्निमथम् अग्निमथौ अग्निमथः अग्निमथा अग्निमदभ्याम् अग्निमभिः अग्निमथे अनिमद्भ्याम् अग्निमदभ्यः अग्निमथः अग्निमद्भ्याम् अग्निपदभ्यः अग्निमथः अग्निमथोः अग्निमधाम अग्निमथि अग्निमथोः अग्निमत्सु थकारांत शब्द हुए। अब दकारांत तत्त्वविद् शब्द है। तत्त्वविद् + सि, सि का लोप एवं विकल्प से प्रथम अक्षर करके रूप चलेगा। तत्वविद्--तत्त्वों का जानने वाला तत्त्ववित, तत्वविद् तत्त्वविदों तत्वविदः हे तत्त्ववित्, तत्त्वविद् । हे तत्वविदौ ! हे तत्त्वविदः । तत्त्वविदम तत्वविदो तत्वविदः तत्त्वविदा तत्वविदभ्याम तत्त्वविदिभः तत्त्वविदे तत्त्वविद्भ्याम् तत्त्वविद्भ्यः तत्त्वविदः तत्त्वविदभ्याम् तत्त्वरिभ्यः तत्त्वविदः तत्त्वविदोः तत्त्वविदाम् तत्त्वविदि तत्त्वविदोः तत्त्ववित्सु द्विपाद् शब्द में कुछ भेद है घुट् विभक्तियों तक कुछ भेद नहीं है । द्विपाद् + शस् समासांत पाद् शब्द अघुट् स्वर और व्यंजन के आने पर पद् हो जाता है ॥२८७ ॥ द्विपाद्+शस्= द्विपद् + शस्= द्विपदः बना । द्विपाद द्विपादो द्विपादः | "द्विपदे द्विपादभ्याम् द्विपाभ्यः हे द्विपाद ! हे द्विपादौ ! हे द्विपादः ! | द्विपदः द्विपायाम द्विपाद्ध्यः द्विपादम् द्विपादौ हिपदः द्विपदः द्विपादोः द्विपदाम द्विपदाद्विपायाम द्विपाभिः । द्विपदि द्विपादोः हिपात्सु इसी प्रकार से चतुष्पाद् व्याघ्रपाद् आदि शब्द चलते हैं। त्यद् शब्द में कुछ भेद हैं । त्यद + सि "त्यदादीनाम् विभक्तों" से अकारांत 'त्य' रहा पुन: Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य च ।। २८८ ॥ । त्यदादीनां तकारस्य सकारो भवति सौ परे । स्यः | त्यौ । त्ये । अन्यत्र सर्वशब्दवत् । एवं एतत् तद् शब्दों । एषः । एतौ । एते । इत्यादि । सः । तौ । । इत्यादि । एतस्य चान्वादेशे द्वितीयायां चैनः ॥ २८९ ॥ एतस्य इदमक्ष टौसोर्द्वितीयायां च एनादेशो भवति कथितस्यानुकथनविषये । एनं । एनौ । एनान् । एनेन । एनयो: । इति दकारान्ताः । धकारान्तः पुल्लिङ्गस्तत्त्वबुधशब्दः । विरामव्यञ्जनादिष्विति वर्त्तते । सि विभक्ति के आने पर स् का विसर्ग होकर स्यः बना । त्यद् + औ अकारांत होकर त्यौ बना । त्यद् = जस् सर्वनामवत् त्ये बना । है त्यदादीनामों इस सूत्र यः यम् येन यस्मै यद् एतत् तू को भी सकार होकर यद् का यः तद्--सः एतद् एषः बना । यद् — जो त्यदादि के तकार को सकार हो जाता है ॥२८८॥ सः तम् तेन तस्मै एषः एतम् एनम् एतेन एनेन एतस्मै श्रौ यौ व्यञ्जनान्ताः पुल्लिङ्गाः याभ्याम् याभ्याम् तौ 农呢 तौ एतौ एतौ नौ ये यान् यैः येभ्यः तद् - वह ते तान् ताभ्याम् तैः ताभ्याम् तेभ्यः एतद् और इदम् शब्द से परे टा, ओस और द्वितीया विभक्ति के आने पर 'एन' आदेश हो जाता है अन्वादेश के अर्थ में || २८९ ॥ कहे गये शब्द को पुन: कहने को अन्वादेश कहते हैं । अतः एन् + अम् = एनम् एन् + औ = एनौ, एन + शस्= एनान् एन + टा = एनेन, एन + ओस = एनयो: एतद् — यह एते एतान् एनान् एतैः एतेभ्यः · अन्त तद् के त् को सकार एतद् के यस्मात् यस्य यस्मिन् तस्मात् तस्य तस्मिन् एतस्मात् एतस्य एतस्मिन् एताभ्याम् एताभ्याम् दकारांत शब्द हुए। अब धकारांत पुल्लिंग 'तत्त्वबुध्' शब्द तत्त्वबुध + सि 'विरामव्यंजनादिषु' अनुवृत्ति में चला आ रहा I याभ्याम् ययोः ययोः F ताभ्याम् तयो: तयोः ९५ येभ्यः येषाम् येषु एताभ्याम् एतयोः एनयो: एतयोः एनयो: तेभ्यः तेषाम् तेषु एतेभ्यः एतेषाम् एतेषु Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ हचतुर्थान्तस्य धातोस्तृतीयादेरादि चतुर्थत्वमकृतवत् ॥ २९० ॥ हचतुर्थान्तस्य तृतीयादेर्धातोरादि चतुर्थत्वं भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । स चाकृतवत् । तत्त्वभूत्, तत्त्वद् | तत्त्वबुधौ | तत्त्वबुधः । संबोधनेऽपि तद्वत् । तत्त्वबुधा । तत्त्वभुद्भ्यां । तत्त्वद्भिः । इत्यादि । इति धकारान्ताः । नकाराऽन्तः गुल्लिङ्गः राजन् शब्दः त्रुटि चावरी दीर्घ । विरस्मेति नकारलोपः । राजा । राजानौ । राजानः । न सम्बुद्धौ ॥२९१ ॥ जभयोगे झः सूत्र मुनिसुि लिङ्गान्तनकारस्य लोपो न भवति सम्बुद्धौ । हे राजन् । राजानं । राजानों (अघुट्स्वरे अवमसंयोगादनो इत्यादिना लोपः) कातन्त्ररूपमाला तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गों ॥ २९२ ॥ अनन्त्यस्तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गों प्राप्नोति आन्तरतम्यात् । राज्ञः । राज्ञा । व्यञ्जनादौ नलोपः । अकारो दीर्घं घोषवतीति दीर्घे प्राप्ते नसंयोगान्तावलुप्तवच्च पूर्वविधौ इति नकारो ऽलुप्तवद्भवति । हकारांत और चतुर्थांत धातु के शब्द के ह अथवा चतुर्थ अक्षर को तृतीय अक्षर एवं चतुर्थ की आदि में तृतीय को अपने वर्ग का चतुर्थ अक्षर हो जाता है ॥ २९० ॥ विराम और व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर पुन: 'वा विरामे' से प्रथम अक्षर होकर तत्त्वबुध को तत्त्वभुत्, तत्त्वभुद् बना । तत्त्वभुत्, तत्रभुद् हे तत्त्वभुत, तत्त्वद् ! तत्त्वबुधम् तत्त्वबुधा तत्त्वबुधे तत्वबुधः तत्त्वबुधः तत्त्वबुधि तत्वबुधू -- तत्त्वों को जानने वाला तत्त्वबुधौ हे तत्त्वबुध ! तत्त्वबुधौ तत्वबुधः हे तत्त्वबुधः ! तत्त्वबुधः तस्त्रधुभिः तत्त्वभुद्भ्यः तत्त्वभुद्भ्यः तत्त्वबुधाम् तत्त्वभुत्सु धकारान्त शब्द हुए अब नकारांत पुल्लिंग राजन् शब्द है। राजन् + सि "घुटि चासंबुद्धौ” से दीर्घ "व्यंजराच्च" से सि का लोग "लिंगांतनकारस्य" से न का लोप राजा बना। राजन् + औ राजानौ । संबोधन में - राजन् + सि संबोधन में लिंगांत नकार का लोप नहीं होता है ॥२९१ ॥ तत्त्वभुद्भ्याम् तत्रभुद्भ्याम् तत्त्वभुदुद्भ्याम् तत्त्वबुधोः तत्त्वबुधोः अतः सि का लोप होकर हे राजन् ! बना । राजन् + शस् 'अघुट् स्वरे अवमसंयोगादनी' इस सूत्र से अनू के 'अ' का लोप तब राजन् + अस् रहा। वर्ग को चवर्ग और टवर्ग के योग में चवर्ग और टवर्ग हो जाता है ॥ २९२ ॥ अर्थात् तवर्ग के अंत में नहीं हो तब चवर्ग और टवर्ग के आने पर उसी क्रम से चवर्ग और टवर्ग हो जाता है। यहाँ नकार तबर्ग का अंतिम अक्षर है उसे ज् के निमित्त से चवर्ग: का अंतिम अक्षर ञकार हुआ। 'जञेोज्ञ:' इस नियम से ज और ञ के मिलने पर ज़ होकर 'राज्ञ:' बन गया। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ताः पुल्लिङ्गाः ९७ राजभ्यां । राजभिः । राज्ञे । राजभ्यां राजभ्यः । डौं। ईड्योर्वेति अलोपो वा भवति। राज्ञि, राजनि । राज्ञोः । गजसु । एवं तन मन् प्रभुः । आत्मशब्दस्य तु भेदः । आत्मा । आत्मानौ । आत्मानः । हे आत्मन् । इत्यादि । आत्मानं आत्मानौ । अघुट्स्वरेअवमसंयोगादिति प्रतिषेधादनोऽलोपो नास्ति । आत्मन: । आत्मना । इत्यादि । एवं सुवर्वन् सुशर्मन ब्रह्मन् कृतवर्मन् प्रभृतयः । करिन् शब्दस्य तु भेदः । सौ — इन्हन् इत्यादिना दीर्घः । करी । करिणौ । करिणः । हे करिन् । इत्यादि । एवं दण्डिन् हस्तिन् गोमिन् राजन् + भ्याम् व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर न् का लोप हो जाता है पुनः "अकारो दीर्घ घोषवति' सूत्र से अ को दीर्घ प्राप्त था किन्तु पहले सूत्र आया है कि नकार और संयुक्त अक्षर का लोप करने पर अन्य विधि नहीं होने से दीर्घ नहीं हुआ अतः राजभ्याम् बना । राजन + डि 'यो' इस सूत्र से ङि के आने पर अन् के अकार का लोप विकल्प से होता है अतः राशि, राजनि बना । संबोधन में नकार का लोप नहीं हुआ है। राजा हे राजन् । राजानम् 'राज्ञा राजानी हे राजानौ । राजानी ब्रह्मा है घसत् ! ब्रह्माणम् प्रचण राजनू - --- राजा जान: हे राजानः । पाणी है ब्रह्माणी । बाणी आत्मानौ आत्मन् जीव आमान: है आस्मानी । है आत्मानः | आत्मानौ राज्ञः राजभिः शब्द भी चलते हैं। यथा मूर्धानः हे मूर्धानः । रात्रे राशः राजभ्याम् इसी प्रकार से तक्षन् और मूर्धन् मूर्धा मूर्धानी हे पूर्णानौ । से मूर्धन् । मूर्धानम् मूर्धानी पूर्णः मूर्ध्वोः मूर्ध्ना मूर्षभ्याम् मूर्षभिः मूर्ध्नि, मूर्धनि मुमौः भूर्भसु आत्मन् शब्द में कुछ भेद है। शस् आदि विभक्तियों के आने पर अन् के अकार का लोप नहीं होता क्योंकि 'अवमसंयोगः' सूत्र में घम का संयोग न हो जभी अकार का लोप माना है और इस आत्मन् शब्द में 'म' का संयोग है अत:---- आमनः आभ: राज्ञः राशि, राजनि ब्रह्माणा है बह्माणः । ब्रह्मणा पद्मभिः ब्रह्मभ्याम् करि शब्द में भेद है । फेरि + सूत्र से व् को उपधा को दोध होकर 'लिंगांतन आत्मा आत्मने हे आत्मन् । आत्मनः आस्मानम् आत्मनः আলনা आलभ्याम् आत्मान इसी प्रकार से सुपर्वन्न, सुशर्मन् ब्रह्मन् कृतवर्मन् शब्दों के रूप चलेंगे। ब्रह्मन् — ब्रह्मा मूर्ध्न मूर्ध्वः मूर्ध्वः पुणे ब्रह्मणः राजभ्याम् राजभ्याम् राज्ञोः एशो lage Lis ब्रह्मणि मुभ्याम् मूर्धभ्याम् भात्मभ्याम् आलभ्याम् आत्मनोः आत्मनोः राजभ्यः राजभः ब्रह्मभ्याम् पद्मभ्याम् पण ब्रह्मणो राज्ञान राजसु मूर्धभ्यः मूर्धभ्यः मूर्ध्नाम् भलभ्यः आलभ्यः आलनाम् आप ब्रह्मभ्य पद्मभ्यः गान पशु "" इस सूत्र से सि का लोप "इन् हन् पूवम् इत्यादि" इस सूत्र से व् का लोप होकर 'क' बना। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला तपस्विन् प्रभृतयः । वृत्रहन् शब्दस्य तु भेदः । वृत्रहा । वृत्रहणां । वृत्रहणः । हे वृत्रहन् । वृत्रहणं । वृत्रहणौ । अघुट्स्वरे लोपे कृते । इन्हन् इत्यादिना दीर्घः । अस्मादेव हन उपधायाः सावेव दीर्घः क्विपि न दीर्घः । हनेर्धिरुपधालोपे ॥ २९३ ॥ हनेरुपधाया लोपे कृते हे स्थाने धिर्भवति । घत्वे नस्य णत्वाभावः । वृत्रघ्नः । वृत्रघ्ना । वृत्रहभ्यां । वृत्रहभिः । इत्यादि । एवं ब्रह्मन् भ्रूणहन् ऋणहन् एते शब्दा: । पूषन् शब्दस्य तु भेदः । सौ दीर्घः । पूषा । पूषणौ । पूषणः । हे पूषन् । पूषणं । पूषणी । ९८ हृन्मासदोषपुषां शसादौ स्वरे वा ॥ २९४ ॥ हृन् मास दोष पूषन् इत्येतेषां उपधाया उत्तरस्य लोपो वा भवति शसादौ स्वरे परे । पृषः पूष्णः । पूषा, पूष्णः । पूषभ्यां । पूषभिः । इत्यादि । एवं अर्यमन् शब्दः । अर्वन्शब्दस्य तु भेदः । सौ-अर्वा । करौ करिणौ करिणः करिणे हे करिणः ! करिणः हे करिन् ! करिणम् हे करिणौ ! करण करिणः करिणः करिणोः करिणा करिभ्याम् करिभिः करिणि करिणोः इसी प्रकार से दण्डिन् हस्तिन्, गोमिन् और तपस्विन् के रूप चलते हैं । वृत्रहन् शब्द में कुछ भेद हैं। 1 करिन् — हाथी वृत्रहन् + शस् 'अघुट् स्वरे लोपम्' से स्वर का लोप प्राप्त था और 'इन् हन् पूषन्' इत्यादि सूत्र से दीर्घ प्राप्त था। इसी सूत्र से ही हन् की उपधा को सि के आने पर ही दीर्घ होगा क्विप् प्रत्यय के आने पर दीर्घ नहीं होगा । वृत्रहा हन् की उपधा का लोप करने पर ह् के स्थान में घ् का आदेश हो जाता है ॥ २९३ ॥ ह् को घ् होने पर न् को ण् नहीं होता है। वृत्रहन् + अस् हे वृत्रहन् ! वृत्रहणौ वृत्रने वृत्रहभ्याम् वृत्रहभ्यः हे वृत्रहणौ । वृत्रघ्नः वृत्रहभ्याम् वृत्रहभ्यः वृत्रहणम् वृत्रहणी वृत्रघ्नः वृत्रष्नोः वृत्रष्नाम् वृत्रघ्ना वृत्रहभ्याम् वृत्रनि वृत्रहणि वृत्रघ्नोः नृत्रहसु इसी प्रकार से ब्रह्मन्, भ्रूणहन, ऋणहन् आदि शब्दों के रूप चलते हैं पूषन् शब्द में कुछ भेद करिभ्याम् करिभ्याम् वृत्रहण: हे वृत्रहणः । करिभ्यः करिष्यः वृत्रघ्नः वृत्रहभ: करिणाम् करिषु . पूषन् + सिं इत्यादि त्रुट् विभक्ति में पूर्ववत् पूषा आदि रूप ही बनेंगे। पूषन् + शस् । शसादि स्वर वाली विभक्ति के आने पर हन् मास् दोष और पूषन् इनकी उपधा के उत्तर अक्षर का लोप विकल्प से हो जाता है ॥ २९४ ॥ जब उपधा के उत्तर नकार का लोप हुआ और 'अवमसंयोगा' इत्यादि सूत्र से अन् के अकार का लोप होकर पूषः बना। और नकार का लोप नहीं होने पर पूष्णः बना । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः अर्वन्नर्वन्तिरसावनञ् ॥२९५ ।। अर्व-शब्दोऽर्वन्तिर्भवति असावनपरश्चेति । अर्वन्तौ । अर्वन्त: । हे अर्वन् । हे अर्वन्तौ । हे अर्वन्तः । अर्वन्तम् । अर्वन्तौ। अर्वतः । अर्वता। अर्वद्भ्याम् । अर्वद्धिः । इत्यादि । नपरश्चेत् आत्मनशब्दवत् । अनर्वा । अनर्वाणौ अनर्वाण: । इत्यादि । श्वन् शब्दस्य तु भेदः । सौ-श्वा । श्वानौ । श्वान: । हे श्वन् । श्वानं । श्वानौ । अघुट्स्वरादौ सेट्कस्याप्यनुवर्तते । पूषः पूष्णः पूषणम् पक्षण पूषन्—सूर्य पूषा पूषणौ पूषणः । पूर्व, पूष्णे पूषभ्याम् हे पूषन ! हे पक्षणौ । हे पक्षणः । | पूषः, पूष्णः पूषभ्याम् पूषभ्यः पूषः, पूष्णः पूषः, पूष्णः पूषोः पूष्णोः पूषाम्, पूष्णाम् पूषा, पूष्णा पूषभ्याम् पूषभिः । पूषि, पूष्णि पूषोः पूष्णोः पूषसु अर्यमन्–सूर्य अर्यमा अर्यमणौ अर्यमणः । अर्यम्णे अर्यमभ्याम अर्यमभ्यः हे अर्यमन् । हे अर्यमणौ । हे अर्यमणः । | अर्यम्णः अर्यमध्याम अर्थमन्यः अर्यमणम् अर्यमणो अर्यमणः । अर्यम्णः अर्यम्योः अर्यम्णाम् अर्यमणा अर्यमभ्याम् अर्थमभिः । अर्थमणि अम्णि, अर्यम्णोः अर्यमसु अर्वन शब्द में कछ भेद है। सि विभक्ति और नञ् समास के बिना अर्वन् शब्द को अर्वन्त आदेश हो जाता है ।।२९५ ॥ अर्वन+सि पर्वक्त अर्वा बना। अर्वन् + औ—अर्वन्त+ औ= अर्वन्तौ । अर्वन्त+शस, अर्वन्त् + भ्याम् • "व्यंजने चैषां नि: सूत्र से शस् आदि स्वर और व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर नकार का लोप हो जाता है अत: अर्वत: अर्वद्भ्याम् बना 1 अर्वन-घोड़ा अर्वा अर्वन्तौ अर्वन्तः । अर्वते अर्वद्भ्याम् अर्वद्भ्यः हे अर्वन् ! हे अर्वन्तौ । हे अर्वन्तः ! | अर्वतः अर्वद्भ्याम् अर्वद्भ्यः अर्वन्तम् अर्वन्तो अर्वतः | अर्वतः अर्वतोः अर्वताम अर्वता अर्वद्ध्याम अभिः । अर्वति अर्वतोः अर्वत्सु जब नञ् समास हो गया तब अनर्वन् शब्द के रूप आत्मन् शब्द के समान चलेंगे। क्योंकि इसमें व का संयोग होने से अन् के अकार का लोप नहीं होगा। अनर्वा अनर्वाणौ अनर्वाण: अनर्वणः अनभ्याम् अनर्वभ्यः अनर्वाणम् अनर्वाणौ अनर्वणः अनर्वणः अनर्वणोः अनर्वणाम अनर्वणा अनर्वभ्याम् अनर्वभिः अनर्वणि अनर्वणोः अनर्वषु अनवणे अनर्वघ्याम अनर्वभ्यः श्वन शब्द में कुछ भेद है। श्वन् + सि = श्वा आदि पाँच घुद संज्ञक विभक्ति के रूप पूर्ववत् । श्व + शस् Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्वयुवमघोनां च ।। २९६ ।। श्वन् युवन् मघवन् एषां वशब्दस्योत्वं भवति अघुट्स्वरे परे । शुनः। शुना । श्वभ्यां । श्वभिः इत्यादि । एवं युवन्शब्दः । युवा । युवानौ युवानः । हे युवन् । युवानं । युवानी। यूनः । यूना। युवभ्यां । युवभिः । इत्यादि । मघवन्शब्दस्य तु भेदः । सी अर्वन्नर्वन्तिरित्यनुवर्तते । सौ च मघवान्मघवा वा ॥ २९७ ॥ विभक्तौ सौ च परे मघवन् शब्दो मधवन्त् भवति वा । अन्त्वसन्तस्येति दीर्घे प्राप्ति निपातनाद्दीर्घः । मघवान् । मघवन्तौ । मघवन्तः । संबोधनेऽपि तद्वत्। मघवन्तं । मघवन्तौ । मघवतः । मघवता । मघवद्भ्यां । मघवद्भिः । इत्यादि । पक्षे । मघवा । मघवानौ । मघवानः । मघवानं । मघवानौ । मघोनः । मघोना मषवभ्यां । मघवभिः । इत्यादि । वानमाचष्टे । तत्करोति तदाचट्टे इन् । इनि लिङ्गस्यानेकाक्षरस्येत्यादिना अस्पस्वरादेर्लोपे प्राप्ते । 'अघुट् स्वरादौ सेट्कस्यापि' सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। श्वन्, युवन् और मघवन् इनके व् को अघुद स्वर के आने पर उकार हो जाता है ॥ २९६ ॥ श्वन् + शस्, श् उ न् + अस्= शुन् + अस्= शुनः । इसी प्रकार से युवन् + अस्यु उ न्+अस्युनः बना । स्वा हे स्वन् । श्वानम् शुना कातन्त्ररूपमाला युवा हे बुवन् । युवानम् Feat हे श्वानौ । श्वानों श्वभ्याम् युवानौ हे सुवानौ । भुवानी श्वन्— कुत्ता श्वानः हे श्वानः । शुनः श्वभिः युवन् - जवानी युवानः युवानः यूनः युधभिः TE यूने यूनः यूनि एवभ्याम् शुनोः शुनोः युवभ्याम् युवभ्याम् यूनोः सूनोः स्वभ्यः स्वध्यः शुनाम श्वसु युवभ्यः युवभ्यः यूनाम् युषसु यूना युषभ्याम् मघवन् शब्द में कुछ भेद है। भगवन् + सि 'अर्वमर्वन्तिरसाधनम्' सूत्र अनुवृति में चला आ रहा है। सि विभक्ति और विभक्तियों के आने पर मघवन् शब्द को विकल्प से मघवन्त् आदेश हो जाता है ।। २९७ ॥ I सिज अम् पाँच जगह आदेश है । 'अन्नवसन्तस्य' इत्यादि सूत्र से न् की उपधा को दीर्घ प्राप्त था, किन्तु यहाँ निशत में दीर्घं हुआ तो मघवान् त् + सि सि और तू का लोप होकर मघवान् बना। इसके रूप भगवान् के समान चलेंगे। द्वितीय पक्ष में पानी आप के समान बन गये । मध्वम् + शस् २९६४ सूत्र से व को उ होकर संधि होकर मघोनः बना । श्वान जैसी चेष्टा करता है या कहता है । इस अर्थ में "तत्करोति तथाच इन्" इस सूत्र से इन् प्रत्यय होकर 'हनि लिंगस्थान का शरस्य" इत्यादि सूत्र से अंत स्थर की आदि का लोप प्राप्त भात सूत्र लगा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः न शुनः ।।२९८॥ चन् इत्येतस्य अन्त्यस्वरादेलोपो न भवति इनि परे । श्वानयति । मघवानमाचष्टे मघवयति । स्थूलदूरयुवक्षिप्रक्षुद्राणामन्तस्थादेलोपो गुणश्च नामिनाम्॥२९९ ॥ स्थूलदूरयुवक्षिप्रक्षुद्र इत्येतेषामन्तस्थादेलोंपो भवति नामिनां गुणश्च इनि परे। स्थूलमाचष्टे स्थवयति । दूरमाचष्टे दवयति । युवानमाचष्टे यवयति । क्षिप्रमाचष्टे क्षेपयति । क्षुद्रमाचष्टे क्षोदयति । इनि लिङ्गस्यानेकाक्षरस्येत्यादिना अन्त्यस्वरादेलोपः । अनि च विकरणे गुण: सर्वत्र । पञ्चन् शब्दस्य तु भेदः । तस्य बहुवचनमेव। कतेश्च जश्शसोर्लुक् । पञ्च । पञ्च । पञ्चभिः । पञ्चभ्यः । पश्चभ्य: । आमि च नुरित्यनुवर्तते। संख्यायाः ष्णान्तायाः ॥३००। मघवने पन्ना श्वन इसके अन्त्य के आदि स्वर का लोप नहीं होता इन के आने पर ॥२९८ ॥ पुन: इस सूत्र से इन् का लोप न होने से 'श्वानयति' बन गया । ऐसे ही मघवानमाचरे 'मघवयति' बना है। स्थूल, दूर, युव, क्षिप्र और क्षुद्र इनके अंतस्थ की आदि का लोप और नामि को गुण हो जाता है इन के आने पर ॥२९९ ॥ स्थूलं आचष्टे-स्थवयति । दूरमाचष्टे दवति । युवानमाचष्टे यवयति । क्षिप्रमावष्टे क्षेपयति । क्षुद्रमाचष्टे क्षोदयति । “इनि लिंगस्यानेकाक्षरस्य" इस सूत्र से यहाँ अन्त्य स्वर का लोप होकर “अनि च विकरणे" से गुण हो गया है। मघवन्इन्द्र मघवान् मघवन्तौ मघवन्तः मघवद्भ्याम् मघवदयः हे मघवन् । हे मघवन्तौ । हे मघवन्तः ! | मघवतः मघवद्भ्याम् मघवघ्यः मघवन्तम् मघवन्तौ मधवतः मषवतः मघवतोः मधदताम् मघवता मघवद्भ्याम् मघवदिमः मघवति मघवतोः मघवत्सु द्वितीय पक्ष मेंमघवा मधवानौ मधवानः मनवभ्यः हे मघवन् । हे मघवानौ ! हे मघवानः | | मघोनः मघवभ्याम पद्यत्रयः मघवानम् मघवानौ मघोनः मघोनः मघोनोः मघोनाम मघोना मषवभ्याम् मघवभिः । मधोनि मघोनोः मघवन्म पञ्चन् शब्द में कुछ भेद है। पंचन् आदि शब्द बहुवचन में ही चलते हैं। पञ्चन्+ जस्, पञ्चन् + शस् 'कतेच जश्शसोलुंक्' से जस् शस् का लोप होकर लिंगांत नकार का लोप होने पर पञ्च, पञ्च बना। पञ्चन् + भिस् 'लिगांतनकारस्य' का लोप होकर पंचभि: बना। पञ्चन् + आम् षकारांत और नकारांत संख्यावाची शब्द से परे आम के आने पर नु का आगम हो जाता है ॥३०॥ 'दीर्घमामिसनौ' अनुवृत्ति में आ रहा है। मघोने मथवभ्याम् THERE Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ कातन्त्ररूपमाला धकारनकारान्ताया: संख्याया नुरागमो भवति आमि परे । दीर्घमामि सनौ इति अनुवर्तते । नान्तस्य चोपधायाः ॥३०१॥ नान्तस्य चोपधाया दीर्घो भवति सनावामि परे । पश्चानाम् । पञ्चसु। एवं सप्तन् नवम् दशन् प्रभृतयः । अष्ट-शब्दस्य तु भेद: । तस्यापि बहुवचनमेव । अष्टन: सर्वासु ॥३०२॥ अष्ट-शब्दान्तस्य आ भवति सर्वासु विभक्तिः । येन विधिस्तदन्तस्य इति नकारस्य आकारः। सवर्णे दीर्घः । औ तस्माज्जस्शसोः ॥३०३ ।।। तस्मादष्टनः कृताकारात्परयोर्जश्शसो: स्थाने और्भवति । अष्टौ । अष्टौ । तस्मादग्रहणं किमर्थम्। आत्वस्यानित्यार्थं । तेन औत्वाभावे जश्शसोर्लुक् इत्यनेन जश्शसोलोप: । अष्ट । अष्ट । अष्टाभिः, अष्टाभिः । अष्टाभ्यः, अष्टभ्यः। अष्टाभ्यः, अष्टभ्यः। आमि आत्वं संख्यायाः ष्णान्ताया इति, अत्र अन्तग्रहणाधिक्यात् भूतपूर्वनान्ताया अपि आमि नुरागमः । अष्टानाम् । अष्टसु, अष्टासु । इति नकारान्ताः । पफबभान्ता अप्रसिद्धाः । मकारान्त पुल्लिङ्गः किम् शब्दः । नय सुनु और आम के आने पर नांत की उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥३०१ ॥ और न का लोप हो जाता है । पञ्चानाम् बना। पञ्च । पञ्च । पञ्चभिः । पञ्चभ्यः । पञ्चभ्यः । पञ्चानाम् । पञ्चसु । इसी प्रकार से सप्तन, नवन और दशन् के रूप चलते हैं। यथासप्त सप्तभ्यः नवनवध्यः दश दशभ्यः सप्त सप्तानाम् नवानाम् दश दशानाम सप्तभिः सप्तसु नवभिः नवस दशभिः दशसु सप्तभ्यः नवभ्यः अष्टन् शब्द में कुछ भेद है। यह भी बहुवचन में ही चलता है। सभी विभक्तियों के आने पर अष्टन के अन्त को 'आ' हो जाता है ॥३०२ ॥ जिससे विधि हुई है वह अंत को हुई है अत: नकार को आकार हुआ। अष्टा+बस् अष्टा+शस् अष्टन् शब्द को आकारांत करने के बाद जस् शस् के स्थान में औ आदेश हो जाता है ॥३०३ ॥ अष्टा+ औ= अष्टौ बना। सूत्र में तस्माद् शब्द का ग्रहण क्यों किया है ? नकार को आकार किया गया है वह अनित्य है इस बात को सूचित करने के लिये ही तस्माद् पद का ग्रहण किया गया है । इसलिये जब जस् शस् को औ नहीं होगा तब 'जश्शसोलुंक' से जस् शस् का लोप एवं "लिंगांत नकारस्य” से नकार का लोप होकर अष्ट, अष्ट बना । न को 'आ' होने से अष्टाभि: अष्टाभ्यः । अष्टा + आम् “संख्यायाष्णान्तायाः" सूत्र से नु का आगम होकर अष्टानाम् बना। क्योंकि इस सूत्र में भी नकारांत पद से नु का आगम करने का विधान है अत: भूतपूर्व नकारांत होने से नु का आगम हुआ है। पुन: अष्टन् + आम् नु का आगम होकर अष्टानाम् बना। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः १०३ कि कः ॥३०४॥ किशब्द: को भवति विभक्तो परत: । कः । की। के। कं। कौ। कान् । केन । काभ्यां । कैः। इत्यादि । इदम् शब्दस्य तु भेदः । इदमियमयं पुंसि ।।३०५॥ इदम् शब्दस्य इयं भवति स्त्रियामयं पुंसि इदं च नपुंसके सौ परे । अयम् । अन्यत्र त्यदाद्यत्वम् । दोऽद्वेर्मः ।।३०६ ॥ त्यदादीनां दकारस्य मो भवति अद्वेर्विभक्तौ । इमौ । इमे । इमं । इमौ । इमान्। टौसोरनः ॥३०७ ।।। अग्वर्जितस्य इदंशब्दस्य अनादेशो भवति शैसोः परत: । अनेन । अष्टो अष्टौ कम् कस्य कस्मै अष्टाभ्यः अष्ट अष्टभ्यः अष्टानाम् अष्ट अष्टानाम अष्टाभिः अष्टासु अष्टभिः अष्टसु अष्टाभ्यः HEM इस प्रकार से नकारांत शब्द हुए। प फ ब और भकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। अन्न मकारांत पुल्लिंग किम् शब्द है। किम् + सि पुल्लिंग में विभक्तियों के आने पर किम् को 'क' आदेश होता है ॥३०४ ॥ अब 'क' शब्द से सारी विभक्तियाँ आने पर सर्वनाम के समान रूप चलेंगे। यथा कस्मात् काभ्याम् केभ्यः कान् कयोः केषाम् केन काभ्याम् कस्मिन् कयोः काभ्याम् केभ्यः इदम शब्द में कुछ भेद है। इदम् शब्द को पुल्लिंग में 'अयं' स्त्रीलिंग में 'इयम्' और नपुंसक लिंग में 'इदम्' आदेश होता है ॥३०५॥ अत: इदग + सि.सि का लोप होकर इदम् को 'अयम्' आदेश हुआ । 'अयम्' बना । इदम् + औ “त्यदादीनाम् विभक्ती” से अकारांत होकर 'इद' बना। इद + औं। द्वि शब्द को छोड़कर विक्तियों के आने पर त्यदादि गण के दकार को मकार होता है ॥३०६ ॥ इम+ औ = इमो, इम+ जस् "ज: सर्व इ." से इ होकर इम + इ = इमे इत्यादि । इदम + टा। टा और ओस् के आने पर अग् वर्जित इदम् शब्द को अन आदेश हो जाता है ॥३०७ ॥ पुनः ‘इन टा' इस १३८वे सूत्र से टा को 'इन' आदेश होकर अन+इन = अनेन । इदम् + याम। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला अद् व्यञ्जनेऽनक् ॥३०८॥ अग्वर्जितस्य इदं शब्दस्य अद्भवति व्यञ्जनादौ विभक्ती परत: । आभ्याम् । तस्माबिस भिर् ॥३०९॥ तस्मात्कृताकारादिदमः परो भिस् भिर् भवति । एभिः। अस्मै। आभ्याम् । एभ्यः । अस्मात् । आभ्याम् । एभ्य: । अस्य। अनयोः । एषाम् । अस्मिन् । अनयोः । एषु । अन्वादेशे पूर्ववत् । इति मकारान्ताः । यकारान्तोऽप्रसिद्धः । रेफान्त: पुल्लिङ्गश्चत्वारशब्दः । तस्य बहुवचनमेव । चत्वारः । चतुरो वाशब्दस्योत्वम् ॥३१०॥ चत्वार् इत्येतस्य वाशब्दस्य उत्वं भवति अघुट्स्वरे व्यञ्जने च परे । चतुरः । न रेफस्य घोषवति ॥३११॥ रेफस्य घोषवति परे विसर्जनीयो न भवति । चतुर्भिः । चतुर्थ्य: । चतुर्व्यः । आमि चतुरः ॥३१२॥ चत्वार् शब्दस्य नुरागमो भवति आमि परे । चतुर्णा । विसर्जनीये प्राप्ते । मो इमे अग्वर्जित इदम् शब्द को व्यंजन आदि विक्ति के आने पर 'अ' हो जाता है ॥३०८ ॥ 'अकारो दीर्घ घोषवति' आभ्याम् बना। इदम् + भिस् ‘अद् व्यंजनेऽनक्' सूत्र से इदम् को 'अ' होकर 'धुटि बहुत्वे त्वे' १४३वें सूत्र से बहुवचन में 'ए' होकर इदम् शब्द को अकार करने पर भिस् को भिर् हो जाता है ॥३०९ ॥ ए+भिर् = एभिः । इदम् + हे स्मै सर्वनाम्न:' १५३वे सूत्र से डे को स्मै होकर ३०८वें सूत्र से 'अ' होकर अस्मै बना। इदम्-यह अयम् अस्मात् आभ्याम् इमम्, एनम् इमो, एनौ इमान, एलान् | अस्य अनयोः, एनयोः एषाम् अनेन, एनेन आभ्याम् एभिः अस्मिन् अनयो, एनयोः एषु आध्याम एभ्यः मकारांत शब्द हुए। यकारांत शब्द अप्रसिद्ध है। अब रकारांत चत्वार शब्द है। वह बहुवचन में ही चलता है। चत्वार + जस् = चत्वारः __ चत्वार इस शब्द के वा को उकार हो जाता है ॥३१० ॥ अघुट् स्वर और व्यंजन के आने पर । चत्वार् + शस् = चतुरः । चत्वार् + भिस् । घोषवान् के आने पर रेफ को विसर्ग नहीं होता है ॥३११ ॥ अत: चतुर्भिः । चत्वार् + आम् आम के आने पर चत्वार से नु का आगम होता है ॥३१२ ॥ चतुर्णाम् बना। चतुर् + सु ५. इदं सूत्रमैमबाधनार्थ । अस्मै Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः र: सपि ॥३१३ ।। रो रकारस्य विसर्जनीय: सुपि परे न भवति । इति निषेधः। चतुषु । इति रेफान्ताः । लकारान्तोऽप्रसिद्धः । वकारान्त: पुल्लिङ्गः सुदिष्शब्दः । सौ औ सौ ॥३१४॥ दिवो वकारस्य औ भवति सौ परे । सुधौः । सुदिवौ । सुदिवः । वाम्याः ।।३१५॥ दिवो वकारस्य वा आकारो भवति अमि परे । सुद्यां, सुदिवं । सुदिवौ । सुदिव: । सुदिया । दिव उव्यञ्जने ॥३१६ ॥ दिवो वकारस्य उत् भवति व्यञ्जने परे । सुधुभ्यां । सुधुभिः । इत्यादि । इति वकारान्ता: । शकारान्त: सुप् के आने पर रकार का विसर्ग नहीं होता है ॥३१३ ॥ अत: चतुर्पु बना। रकारांत शब्द हुए लकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। अब वकारांत सुदिव् शब्द है । सुदिक् + सि सि के आने पर दिव के वकार को औ हो जाता है ॥३१४ ।। 'इवों यमसवर्णे' इत्यादि सूत्र से संधि होकर 'सुद्यौः' बना। सुदिक् + अम् अम् विभक्ति के आने पर दिव के वकार को विकल्प से आकार हो जाता है । ।३१५ ॥ सुदि आ + अम् संधि होकर = सुद्याम् । सुदिक् + भ्याम् व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर दिव के वकार को उकार हो जाता है ॥३१६ ॥ अत: सुधुभ्याम् बना। सुदिक्-अच्छा आकाश सुद्यौः सुदिवौ सुदिवः । सुदिवे सुद्युम्याम सुधुप्यः हे सुद्यौः ! हे सुदिनौ ! हे सुदिवः ! | सुदिवः सुधुभ्याम् सुधुभ्यः सुद्याम्, सुदिवं सुदिवौ. सुदिवः । सुदिवः सुदिवाम् सुदिवा सुधुभ्याम् सुधुभिः । सुदिवि सुदिवोः सुधुषु इस प्रकार से वकारांत शब्द हुए । अब शकारांत पुल्लिग विश् शब्द है । विश+सि 'हशसछान्तेजादीनां डः' २७१वें सूत्र से स् को ड् होकर सि का लोप और प्रथम अक्षर होकर विट् विड् बना। विश्-वैश्य विट, विड् विशौ विशः । विशे विंडभ्याम् विद्भ्यः हे विट, विड़ ! हे विशौ ! हे विशः । | विशः बिड्याम् विड्भ्यः विशम् विशौ विशः .विशः विशोः विशाम् विशा विड्भ्याम् विभिः विशि विशोः विट्सु सुदिवोः Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला पुल्लिङ्गो विश् शब्दः । हशषछान्त इत्यादिना डत्वम् । विद, विड् । विशौ । विश: । संबोधनेऽपि तद्वत् । इत्यादि । तादृश् शब्दस्य तु भेदः । चवर्गदृगादीनां चेति गत्वम्, । तादृक् तादृग् । तादृशौ । तादृशः । एवं सदृश् यादृश् एतादृश् कीदृश् ईदृश् अमूदृश् प्रभृतयः । इति शकारान्ताः । षकारान्त: पुल्लिङ्गो रलमुष् शब्दः। रत्नमुद, रत्नमुड्। रलमुषौ । रलमुषः । रत्नमुषं । रलमुषौ । रलमुष: । रत्नमुषा । रलमुभ्यां । रलमुभिः । इत्यादि । साधुतक्ष् शब्दस्य तु भेदः ! संयोगादे(टः ।।२७४ ॥* संयोगादेथुटो लोपो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । व्यञ्जनाच्च सेलोपः । हशषछान्तेजादीनां ॥२७१ ॥ तादृशम् तादृशी तादृशो तादृशः । तादृशः तादृशोः तादृशाम तादृश् शब्द में कुछ भेद है। तादृश् + सि 'चवर्गदृगादीनां च' इस २५४वें सूत्र से च को ग एवं क् होकर तादृग, तादृक् बना । तादृश्-वैसा तादक, तादृग् तादृशो तादृशः तादृशः तादाभ्याम् तादग्भ्यः तादृशम तादृशः तादृशः तादशोः तादृशाम् तादृशा तादाभ्याम् ताग्भिः ताशि तादृशोः तादृक्षु तादृशे तादाभ्याम् तादाभ्यः इसी प्रकार से सदृश, यादृश, एतादृश, कीदृश, ईदृश्. अमूदृश् आदि शब्द चलते हैं। शकारांत शब्द हुए। अब षकारांत रत्नमुष् शब्द है। रलमुष् + सि 'ह श ष छान्तेजादीनां डः' सूत्र से ष् को इ होकर प्रथम अक्षर होकर रत्नमुद्, रत्नमुड् बना। रलमुष-रत्नों का चोर रत्नमुद्रलमुड़ रत्नमुघौ रत्नमुषः हे रत्नमुन हे रत्नमुड़ ! हे रत्नमुषो । हे स्लमुषः । रत्नमुषम् रत्नमुषों रत्नमुषः रत्नमुडभ्याम् रत्नमुभिः रलमुषे रलमुड्भ्याम् रत्नमुडभ्यः रलमुषः रलमुभ्याम् रत्नमुड्भ्यः रत्नमुषः रत्नभुषाम रत्नमुषि रत्नमुषोः रलमुट्स्, रत्नमुत्सु साधुतक्ष + सि *संयोग की आदि में यदि धुर् अक्षर है एवं विराम और व्यंजन वाली विभक्तियाँ आयी हैं तो धुट् का लोप हो जाता है ॥२७४ ॥ . 'व्यंजनाच' सूत्र से सि का लोप हो जाता है। अत: साधु-त क् ष् + सि क का लोप हुआ। *ह श ष और छकारांत शब्द एवं यजादि को विराम और व्यंजन के आने पर 'ड्' हो जाता है ॥२७१॥ अत: ५ को ड् होकर साधु तड् बना। एक बार प्रथम अक्षर होकर साधुतट बना। १. सेन दृश्यत इति ताटक ॥ *ये दो सूत्र पहले आ चुके हैं। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • व्यञ्जनान्ताः पुल्लिङ्गाः हशषछान्तानां यजादीनां च डो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । इति इत्वं । साधुतद्, साधुतड् । साधुक्षौ । साधुतक्षः । संबोधनेऽपि तद्वत् । साधुतक्षं । साधुतक्षौ । साधुतक्षः । साधुतक्षा | साधुभ्यां । साधुतभिः इत्यादि । षष्शब्दस्य तु भेदः । तस्य बहुवचनमेव जश्शलोर्लुक् । षट् षड् । षड्भिः । षड्भ्यः । आमि नुरागमो डत्वं च । पडी णो मे ।।३१७ ।। संख्यायाः ष्णान्ताया: षड़ा णो भवति विभक्तौ ने परे । षण्णां । षट्त्सु षट्सु इत्यादि । सकारान्तः पुल्लिङ्गः सुवचस् शब्दः । सौ अन्त्वसन्तस्येत्यादिना दीर्घः । सुवचाः । सुवचसौ सुवचसः हे सुवचः । हे सुवचसी । हे सुवचसः । सुवचसं । सुवचसौ । सुवचसः । सुवचसा । सुवचोभ्यां । सुवचोभिः । इत्यादि । एवं चन्द्रमस् पीतवासस् स्थूलशिरस् हिरण्यरेतस् सुश्रोतस् प्रभृतयः । उशनस् शब्दस्य तु भेदः । साधुवड, साधुत हे साधुत, हे साधुत ! साघुतक्षम् साधुतक्षा साधुतक्षः साधुतचः साधुतक्षि साधुतस् - साधुक्षौ हे साधुक्षौ ! साधुक्षौ साधुतड्याम् साधुतड्भ्याम् साधुतड्भ्याम् साधुक्षोः साधुतक्षोः सुवचसी हेच ! सुवचसौ सुवचोभ्याम् साधुतक्षः हे साधुतश्व: सुवचसः हे सुवचसः साधुतक्ष: साधुभिः षष् + जस्, षष् + शस् 'जश्शसोलुक' सूत्र से जस्, शस् का लुक् शब्द से लोप करके “हशषछान्तेजादीनां ङः" सूत्र से घ् को ड् होकर पुनश्च विकल्प से प्रथम अक्षर होकर षट् षड् बना । षष् आम् नु का न होकर न् को ण् हो गया पुनः आगे कार विभक्ति के आने पर संख्यावाची षट् शब्द के टू को ण् हो जाता है ॥ ३१७ ॥ सुखचसे सुवचसः सुवचसः सुवचसि भुवचसः सुवचोभिः १०७ साधुतड्भ्यः साधुतड्भ्यः अतः षण्णाम् बना | षष् + सु २७१ वें सूत्र से ष् को टू होकर षट्सु एवं " टात् सुप्तादिर्वा" इस २७६ वें सूत्र से 'तू' का आगम होकर षट्त्सु बना । सहभुतक्षाम साघुतद्सु, साधुतत्सु षट् षड् । षट्, षड् । षड्भिः । षड्भ्यः षड्भ्यः षण्णाम् षट्सु षट्त्सु अब सकारांत पुल्लिंग सुवचस् शब्द है । सुवचस् + सि सि विभक्ति का लोप होकर "अन्त्वसन्तस्य चाधातोस्सौ" २७७वें सूत्र से असंबुद्धि सि के आने पर असू के 'अ' को दीर्घ होकर स् को विसर्ग होकर सुवचाः बना । सुवचस्— अच्छे वचन बोलने वाला । सुवचाः हे सुवचः ! सुवचसम् सुवचसा सुवचोभ्याम् सुवचोभ्याम् सुत्रचसो: सुवचसाम् सुवचसो: सुवचःसु इसी प्रकार से चन्द्रमस्, पीतवासस्, स्थूनशिरस्, हिरण्यरेतस्, सुश्रोतस् आदि के रूप चलते हैं । उशनस् शब्द में कुछ भेद है । उशनस् + सि १. ते के यजादयः यज्-स्वज् मृज्-भाज्- राज् परिव्राज् इति यजादयः ॥ सुवचोभ्यः सुवचोभ्यः Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कातन्त्ररूपमाला उशनस्पुरुदसोऽनेहसां सावनन्तः ॥३९८ ।। उशनस् पुरुदंशस् अनेहस् इत्येतेषामन्तोऽन् भवति सौ परे असम्बुद्धौ । उशना। उशनसौ । उशनसः । ना निर्दिष्टमनित्यम्। सम्बोधने तूशनसखिरूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तम् । श्रीव्याघ्रभूतिप्रतितन्त्रमेपन्नायि निर्दिष्टमनित्यमेव ॥१॥ हे उशनः, हे उशनन, हे उशन । हे उशनसौ । हे उशनस: । उशनसं । उशनसौ । उशनसः । उशनसा । उशनोभ्यां । उशनोभिः । इत्यादि । एवं पुरुदंशस् अनेहस् शब्दौ सम्बुद्धि विना । विन्स् शब्दस्य तु भेदः । सौ-सान्तमहतोनोंपधाया इति दीर्घ: । विद्वान् । विद्वांसौ । विद्वांसः । हे विद्वन् । हे विद्वांसौ । हे विद्वांसः । विद्वांसं । विद्वांसौ। असंबुद्ध 'सि' विभक्ति के आने पर उशनस्, पुरुदंशस् और अनेहस् शब्दों के अंत को 'अन्' हो जाता है ॥३१८ ॥ अत: उशनन् + सि हुआ। पुनः 'घुटि चासंबुद्धौ' इस १७७वें सूत्र से न् की उपधा को दीर्घ होकर “लिंगान्त नकारस्य” सूत्र से 'न्' का लोप होकर 'ठशना' बना । उशनस्+ औउशनसौ, उशनस: । नब् समास से निर्दिष्ट होने से यह वैकल्पिक है और श्लोकार्थ—संबोधन में उशनस् शब्द के तीन रूप बनते हैं, सकारांत, नकारान्त एवं अकारांत। ऐसा श्री व्याघ्र भूति महोदय ने स्वीकार किया है क्योंकि यह नब् समास के द्वारा कहा गया होने से अनित्य ही है। अत: उशनस् + सि, सि का लोप एवं स् का विसर्ग होकर हे उशन: ! अन् आदेश होकर हे उशनन् ! एवं अकारांत होकर हे उशन ! ऐसे तीन रूप बन गये। तथाहि उशनस् उशना उशनसौ उशनसः हे उशन: !हे उशनन् ! हे उशन् । हे उशनसौ ! हे उशनसः ! उशनसम् उशनसौ उशनसः उशनसा उशनोभ्याम् उशनोभिः उशनसे उशनोभ्याम् उशनोभ्यः उशनसः उशनोभ्याम् उशनोभ्यः उशनसः उशनसोः उशनसाम् उशनसि उशनसोः उशनासु उशनस्सु । संबोधन के सिवाय पुरुदंशस् और अनेहस् के रूप इसी प्रकार से चलते हैं। विद्वन्स् शब्द में कुछ भेद है। विद्वन्स +सि “सान्तमहतोनोंपधायाः" इस २८६वें सूत्र से 'न' की उपधा को दीर्घ होकर “संयोगान्तस्य लोप:" सूत्र २६०वें से स् का लोप होकर एवं व्यञ्जनाच्च सूत्र से सिका लोप होकर 'विद्वान' बना । तत्रैव घट विभक्ति तक न की उपधा को दीर्घ एवं घुरि" इस २५८वें सूत्र से नकार को अनुस्वार होकर विद्वन्स् + औ = विद्वान्सौं बना। १. अकार: किमर्थः ? सख्युरंतः अभवतीत्यत्र अप्रयोजनम् ॥ २. 'शेपे से वा वापररूपम्' से विकल्प से स हो गया है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः १०९ अघटस्वरादौ सेदकस्यापि वन्सेर्वशब्दस्योत्वम् ॥३१९॥ सेट्कस्यापि 'वन्सैर्वशब्दस्योत्वं भवति अघुदस्वरादौ । विदुषः। विदुषा । विरामव्यञ्जनादिष्वनडुन्नहिवन्सीनां च ॥३२० ।। विरामे व्यञ्जनादौ च अनड्वप्नहिवन्सीनामन्तस्य दो भवति । विद्वद्भ्यां । विद्धिः । इत्यादि । पेचिवान्। पेचिवांसौ। पेचिवांसः। पेचिवांस । पेचियांसौ। निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः । इतीडभावः । अघुट्स्वरादौ सेटकस्येति उत्वम् । पेचुषः । पेचुषा। पेचिवट्यो । पेचिवद्धिः । पेषुषे । पेचिवद्भ्यां । पेचिव यः । एवं तेनिवन्स् प्रभृतयः । इत्यादि । उखाश्रस् शब्दस्य तु भेदः । सौ-- श्रसिध्वसोश्च ।।३२१॥ विद्वन्स् + शस्, अब अघुद विभक्ति के आने पर अघुट् स्वर वाली विभक्ति के आने पर इट् सहित एवं इट रहित दोनों प्रकार के शब्दों में भी 'वन्स्' के 'व' को 'उ' हो जाता है ॥३१९ ।। ____ विदुन्म + अस् "पाने वैशा नि." इस १८८वे सूत्र से नकार का लोप होकर एवं 'नामि' से परे स् को न होकर 'विदुषः' बना । अब व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर-विन्स् + भ्याम् ।। विराम एवं व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर अनङ्वाह और वन्स शब्द के अन्त को 'दकार' हो जाता है ॥३२० ॥ अत: 'व्यंजने चेषां नि:' से नकार का लोप होकर 'विदूभ्याम्' बना। विद्वान् विद्वांसी पिसा । विदुषे विद्याम् विद्यः हे विन् । विसौं । हेपिसः | विदुषः विद्भ्याम् पियः विद्वांसमविद्वांसौ विदुषः | विदुषः विदुषोः पिदुपाम् विदुषा बिमाम् विदिमः | विदुषि विदुषोः । पिास पेचिवस्+सि= पेचिवान, बना बुद् विभक्ति तक विद्वान् के समान रूप बनेगे। आये अपुर स्वर वाली विभक्ति के आरे पर कुछ अंतर है। यथा--पेचिव + शस् "निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो जाता है" इस नीति के अनुसार पेचिवन्स् शब्द के इद् का अभाव होकर एवं उपर्युक्त ३१९वे सूत्र से 'ब' को 'उ' होकर 'पेषुषः बना। पेयिवान् पेषिर्णसी पेचिर्वासः । पेषुषे पेभिषयाम् पेविषयः हे पेषिवन् । हे पेधिवासौ । हे पेविषामः | पे पेषिवदभ्याम् पचिवश्यः पेपिचास पेनिवासी पेषुषः पेप: पेचिबभ्याम् पबिबादमा | पेपि पविमान निधन्म शब्द के रूप भी इसी प्रकार से चलते हैं। उखाश्रम शान में कुछ भेद है। मुखाश्रस्+सि विराम और ध्यानादि विभक्ति के आने पर अस अन शब्द के अंत के सकार को दकार हो जाता है ॥३२१ ॥ पेचुवाम पेषुषा . १. बैटकाय खागमेम सहिताय ॥ १, धनीति चिनियाक्षिण्याने सधम् ॥ ३. आगम सहनुबन्धः बरियारपत॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० कातन्त्ररूपमाला श्रसिध्वसोलिङ्गयोरन्तस्य दो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च । उखाश्रत, उखाश्रद् । घुट्स्व रे नुः ॥३२२ ॥ श्रसिध्वसोर्लिङ्गयोर्नुरागमो भवति घुस्वरे परे । उखाअंसौ। उखानंसः। संबोधनेऽपि तद्वत् । उखादंसं । उखाश्रंसौ। उखाश्रस: । उखाश्रसा। उखाश्रद्भ्याम् । उखाश्रद्भिः । उखाश्रत्सु । एवं पर्णध्वस् शब्दः । अदस् शब्दस्य तु भेदः । तदाद्यत्वम् । सौ सः ॥३२३ ।। त्यदादीनां दकारस्य सकारो भवति सौ परे । सावौ सिलोपश्च ॥३२४ ॥ अदसोऽन्तस्य और्भवति स्वरे परे सिलोपश्च । असौ । द्वित्वे अदस: पदे मः ॥३२५ ।। एवं 'सि' का लोप होकर उखावत, उखाश्रद् बन गया। उखाश्रस् + औं घट् स्वर वाली विभक्ति के आने पर अस्, ध्वस् शब्द को 'नु' का आगम हो जाता पुन: नकार का अनुस्वार होकर 'उखादंसौ' बना। संबोधन में भी वैसे ही रूप रहेंगे। उखाश्रस् + भ्याम् उपर्युक्त ३२१वें सूत्र से 'स्' को 'द्' होकर 'उखाश्रद्भ्याम्' बना। उखाश्रत, उखाश्रद उखाश्रेसौ उखाश्रंसः हे उखाश्रत, उखाश्रद हे उखासौ हे उखाश्रंसः उखाभंसम् उखाअंसौ उखानसः उखाश्रसा उखाश्रभ्याम् उखादिमः उखाश्रसे उखाश्रभ्याम् उखाश्रयः उखाश्रसः उखाश्रद्भ्याम् उखाश्रयः उखाश्रस: उखाश्रसोः उखानसाम् उखाश्रसि उखाश्रसोः उखाश्रत्सु इसी प्रकार से पर्णध्वस् शब्द के रूप चलते हैं। अदस् शब्द में कुछ भेद हैं। अदस् + सि "त्यदादीनाम् विभक्तौ" इस १७२वें सूत्र से अदस् को अकारांत 'अद' हुआ। सि विभक्ति के आने पर त्यदादि के दकार को सकार हो जाता है ॥३२३ ॥ अत; अस + सि रहा। अदस् के अंत को 'औ' हो जाता है। एवं 'सि' विभक्ति का लोप हो जाता है ।।३२४ ॥ अत: अस+ औ= असौं बना। अन्न सुप विभक्ति तक अदस् को 'अद' आदेश कर लेना चाहिये । अद+ औ अदस् को पद करने पर 'द' को 'म' हो जाता है ॥३२५ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः अदस: पदे सति दस्य मो भवति । उत्वं मात् ॥२६॥ अदसो मात्परो वर्णमात्रस्योत्वं भवति आन्तरतम्यात् । अमू । जसि एदबहुत्वे त्वी॥३२७॥ अदसो मात्परो बहुत्वे निष्पन्ने एदीर्भवति । अमी । अमुं। अमू । 'अमून् । अदो मुश्च ॥३२८॥ अदसो मुरादेशो भवति टावचनस्य च नादेशोऽस्त्रियाम् । अमुना। अमूभ्याम् । अदस ॥३२९। ___ अदसोऽग्वर्जितात्परो भिस् भिर् भवति । धुट्येत्वम् । अमीभिः । अमुष्मै। अमूभ्याम् । अमीभ्यः । अमुष्णात् । अपूभ्यां । अमीभ्य: । अमुष्य । अमुयो: । अमीषाम् । अमुष्मिन् । अमुयो: । अमीषु ॥ श्रेयन्स् शब्दस्य तु भेदः । श्रेयान् । श्रेयांसौ । श्रेयांस: । हे श्रेयन् । हे श्रेयांसों । हे श्रेयांसः । श्रेयांसं । श्रेयांसौ। श्रेयसः । श्रेयसा। श्रेयोभ्यां । श्रेयोभिः । पुमन्स्शब्दस्य तु भेदः । पुमान् । पुमांसौ । पुमांसः । हे पुमन् । पुमांसं । पुमांसौ। - - - अदस के 'म' से परे 'वर्णमात्र द' के 'अ' सहित विभक्ति मात्र को उकार हो जाता है ॥३२६ ॥ और वह उकार आदेश क्रम से होता है; यथा—ह्रस्व स्वर को ह्रस्व 'उ' एवं दीर्घ स्वर को दीर्घ '' होता है । यहाँ दीर्घ औ है । अत: दीर्घ ऊ होकर–अम् +ऊ= अमू बना । अद+ जर है पूर्वोक्त “अदस: पदे म:” सूत्र से 'द' को 'म' करके "ज: सर्व इ." इस १५२वें सूत्र से जस् को 'इ' और संधि होकर 'अमे' बना । पुन:.-. ___ बहुवचन के 'ए' को 'ई' हो जाता है ॥३२७ ॥ अदम के 'म्' से परे बहुवचन में बने हुए 'ए' को 'ई' होकर 'अमी' बना । अद + अम् है । 'द' को 'म' एवंद के 'अ' सहित अम् के अ को 'उ' होकर 'अमुम्' बना । अद+ शस् है। पहले अदान् बना करके 'द' को 'म' और दीर्घ 'आ' को 'ऊ' करके 'अमून्' बना। अद+टा हैं। स्त्रीलिंग को छोड़कर अदस् को 'अमु' एवं 'टा' को 'ना' आदेश हो जाता है ॥३२८ ॥ ___अत: 'अमुना' बना । अद+ भ्याम् 'अकारो दीर्घ घोषवति' सूत्र से 'अदाभ्याम् करके द् को म् एवं 'आ' को ऊ करने से 'अमूभ्याम्' बना। अद + पिस् है पूर्ववत् 'द' को 'म्' करके आगे सूत्र लगा। अक् वर्जित अदस् से परे 'भिस्' को 'भिर्' आदेश हो जाता है और धुट के आने पर एकार' भी हो जाता है ॥३२९ ॥ अत: 'अमेभिः' बन गया । पुन:—'एबहुत्वे त्वी' सूत्र से बहुवचन के 'ए' को 'ई' करके 'अमीभिः' बना । अद +डे है पूर्ववत् द को 'म' और 'अ' को 'उ' करके "स्मै सर्वनाम्नः" इस १५३वें सूत्र से 'डे' को 'स्मै' करके 'नामि' से परे स् को प करने से 'अमाम' बना। अद+ इसि पूर्ववत् द् को म, अ को 'उ' करके “सि स्मात्" इस १५४वें सूत्र से स्मात् करके स् को प हुआ और 'अमुष्मात्' बना। अद + ओस् है द को 'म' करके 'ओसि न्' १४६वें सूत्र से अ को 'ए' एवं संचि करके 'अमयो:' बना एवं 'उत्वं मात्' से म के 'अ' को '3' करके 'अमुयो:' बन गया। १.शसि सस्य च नः : Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ कातन्त्ररूपमाला पंसोऽन्शब्दलोपः ।।३३० ॥ पुमान्स् इत्येतस्य अन्शब्दस्य लोपो भवति, अधुट्स्वरे व्यञ्जने च परे । पुंसः । पुंसा । स्यादिधुटि पदान्तवत्॥३३१॥ स्यादिधुटि परे पदान्तवत्कार्य भवति । इति न्यायात् । मोऽनुस्वारव्यञ्जने । पुभ्यां । पुभिः । इत्यादि । कोले कारान्त: । हकान्तिः क्लिो मधुमित् शब्दः । मधुलिन, मधुलिड् । मधुलिहौ । मधुलिइः । संबोधनेऽपि तद्वत् । मधुलिट्सु । एवं पुष्पलिहू इत्यादि । गोदुह् शब्दस्य तु भेदः। हचतुर्थान्तस्य धातोरित्यादिना चतुर्थस्वम्। अमू अम अमीषु श्रेयान् अद+डि है पूर्ववत् सारी प्रक्रिया करके 'डि' को 'स्भिन्' करके 'अमुष्मिन्' बना। असौ अमी अमुभात् अमभ्याम् अमीभ्यः अमुम् अमन् । अमुष्य अमुयोः अमीषाम् अमुना अपूभ्याम् अमीभिः । भमुमिन् अमुयोः अमुष्मै अमुण्याम अमीयः श्रेयन्स शब्द में कुछ भेद है-श्रेयस्+सि है “सान्तमहतोनोपभाया:" इस २८६वे सूत्र से स् की उपधा को दीर्घ होकर संयोगांत स् का लोप एवं 'सि' का लोप होकर श्रेयान्' बना । तथैव पुट विभक्ति में दीर्घ होकर श्रेयांसी आदि बनता है। श्रेयन्स् + शस् है 'व्यंजने वैषा नि:' सूत्र १८८ से अषुद् विभक्ति में न् का लोप होकर 'श्रेयस:' बना । श्रेयांसो श्रेयांसः | श्रेयमे योभ्याम् श्रेयोग्यः हे श्रेषन् । हे श्रेयांसी । श्रेयांसः । श्रेयस अयोध्याम श्रेयोभ्यः श्रेयांसम श्रेयांसो श्रेयसः श्रेषसोः प्रेयसाम् श्रेयसा श्रेयोपाम् श्रेयोभिः श्रेयसि श्रेयसोः श्रेयस,मेयम्स पुमन्स् शब्द में कुछ भेद है। पुमन्स् +सि पूर्ववत् घुट विभक्ति में 'न' की उपधा को दीर्म करके 'पुमान्' आदि बना। पुमन्स् +शस् है। पुमन्स् इस शब्द के 'अन्' शब्द का लोप हो जाता है ॥३३० ॥ यह नियम अधुट् विभक्ति के आने पर होता है। अत: पुम्स् + शस् रहा पुन: 'म्' का अनुस्वार होकर 'पुसः' बन गया। पुम्स् + ध्यान है। सि आदि धुद विभक्ति के आने पर पदांतवत् कार्य हो जाता है ॥३३१ ।। इस न्याय से 'संयोगान्तस्य लोपः' सूत्र से स् का लोप होकर 'मोऽनुस्वारो व्यजने' से का अनुस्वार होकर 'पुभ्याम्' बन गया। पुनासो पुमामा सुभासी मुभांस। पुंध्याम धुषसिम पुमांसी एसोः धुनाम खुभिः १. पदान्तवाकाय किं । वा वर्गाममिति विकल्पः । पुंध्याम Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ताः पुल्लिङ्गाः दादेर्हस्य गः ॥ ३३२ ॥ I दादेर्हकारस्य गकारो भवति, विरामे व्यञ्जनादौ च । गोधुक् गोधुग् । गोदुहौ । गोदहः । संबोधनेऽपि तद्वत् | गोदुहं | गोदुहौ | गोदुहः । गोदुहा । गोधुग्भ्यां । गोधुग्भिः । इत्यादि । मुह्-शब्दस्य तु भेदः । मुहादीनां वा ॥ ३३३ ॥ मुहादीनां हकारस्य गकारो भवति वा विरामे व्यञ्जनादौ च । मुक्, मुग, मुड् । मुहौं । मुहः । मुहं । मुहौ । मुहः । मुहा। मुग्भ्यां मुद्भ्यां । मुग्भिः मुड्भिः । इत्यादि । एवं द्रुह् स्नुह स्निह प्रभृतयः । प्रष्ठवाशब्दस्य तु भेदः । प्रष्टवाद, प्रष्ठवाड् । प्रष्ठवाहौ । प्रष्ठवाहः । प्रष्ठवाहं । प्रष्ठवाहौ । इस प्रकार से सकारांत शब्द हुए। अब हकारांत पुल्लिंग मधु लिह शब्द है । मधुलिह् + सि 'हशषछान्तेजादीनां ड:' इस २७१वें सूत्र से 'ह्' को 'ड्' पुनः विकल्प से 'टू' होकर 'मधुलिद, मधुलिड्' बन गया। मधुलिद, मधुलि हे मधुलिट् मधुलिहम् मधुलिहा मधुलिहौ हे मधुलिह मधुलिहौ गोदुहम् गोदुहा मधुलिह— मधु को चाटने वाला मधुलिहः हे मधुलिह मुक मुग मुटु मुद्द हे मधुलिखे मधुलिह: मधुलिहः मधुलिह मधुलिभ्याम् मधुलिभिः मधुलिहि पुष्पलिह आदि के रूप भी इसी प्रकार से चलेंगे। गोदुह शब्द में कुछ भेद है। गोदुह् + सि हैं 'व्यञ्जनाच्च' सूत्र से 'सि' का लोप होकर 'हचतुर्थान्तस्य धातोस्तृतीयादेरादि चतुर्थत्वमकृतवत्' इस २९०वें सूत्र से धातु के तृतीय अक्षर को चतुर्थ अक्षर हो गया तब 'गोधुहू' रहा। पुनः - मुक् मुग मुद मुड़ मुहम् मधुलिभ्याम् मधुलिहुभ्याम् मधुलिहो: मधुलिहो: 'द' है आदि में जिसके ऐसे हकार को 'ग' हो जाता है ॥३३२ ॥ जबकि विराम और व्यञ्जनादि विभक्तियाँ आती हैं । एवं "पदांते घुटां प्रथमः” तृतीय को विकल्प से प्रथम अक्षर होकर 'गोधुक् गोधुग' बना गोद- गाय को दुहने वाला ग्वाला गोदुहः गोदुहे गोदुः गोदुहः गोदुहः गोदुहि गोधुक् गोधुग् गोदुह हे गोधुक, हे गोधुग् हे गोदुहौ गोदुह गोदुः गोधुभ्याम् गोधुभिः मुह शब्द में कुछ भेद है। मुह् + सि विराम और व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर मुह् आदि शब्दों के हकार को 'ग्' विकल्प से होता है ॥ ३३३ ॥ विकल्प से मतलब "हशषछान्तेजादीनां ङः " सूत्र से 'ड्' भी हो जाता है। तथा विकल्प से प्रथम अक्षर होकर चार रूप "मुक् मुग् मुद् मुइ" बन गये । मुहौ हे मुहौ मुहौ गोभ्याम् गोधुग्ध्याम गोदुहो गोदुहो मुहः ११३ हे मधुलिङ्भ्यः मधुनिड्भ्यः मधुलिहाम् मधुलिट्सु मधुलित्सु मुहः मुहः गोधुग्भ्यः गोधुग्भ्यः गोदुहाम् गोक्षु Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कातन्त्ररूपमाला वाहेर्वाशब्दस्यौत्वं ॥३३४ ॥ वाहेर्वाशब्दस्यौत्वं भवति, अघुट्स्वरे परे। प्रष्ठौहः । प्रष्ठौहा। प्रष्ठवाड्भ्यां । प्रष्ठवाड्मिः । प्रष्ठवाट्सु । इत्यादि । अनड्वाह शब्दस्य तु भेदः । सौ सौ नुः ॥३३५ ।। अनड्वाह इत्येतस्य नुरागमो भवति सौ परे । अनड्वान् । अनड्वाही । अनड्वाहः । सम्बुद्धावुभयोर्हस्वः ॥३३६ ।। चतुरनडुहोरुभयो: सम्बुद्धौ ह्रस्वो भवति । हे अनड्वन् ३ । हे अनड्वाहं । अनड्वाहौ। मुग्भ्याम्, मुडभ्याम् मुग्भिः मुभिः मुग्भ्याम, मुड्भ्याम् मुग्भिः, मुभिः मुग्भ्याम्.मुड्भ्याम् मुग्भिः, मुभिः मुहोः मुहाम मुहोः मुटु, मुट्स, मुत्सु स्नुह और स्निह शब्द के रूप भी इसी प्रकार से चलते हैं। प्रष्ठवाह शब्द में कुछ भेद है । प्रष्ठवाद + सि "हशषछान्ते” इत्यादि सूत्र से 'ह' को 'इ' होकर एवं प्रथम अक्षर भी होकर 'प्रष्टवाट, प्रष्ठवाड्' बना। अधुट् स्वर वाली विभक्ति में भेद है । प्रष्ठवाह् + शस् अघुट् स्वर वाली विभक्ति के आने पर वाह के 'वा' शब्द को औ' हो जाता है ॥३३४ ।। अत: प्रष्ठ औह + अस् = संधि होकर "प्रष्ठौह:" बना । प्रष्टवाट, प्रष्ठवाडू प्रष्ठवाही प्रष्ठवाहः हे प्रष्टवाद, प्रष्ठवाड् ! हे प्रष्ठवाही हे प्रष्ठवाहः प्रष्ठवाहम प्रष्ठवाहो प्रष्ठौहः प्रष्ठोहा प्रष्ठवाभ्याम् प्रष्ठवाभिः प्रष्ठौहे प्रष्ठवाड्याम् प्राठवाड्भ्यः प्रष्ठौहः प्रष्ठवाड्भ्याम् प्रष्ठवाड्भ्यः प्रष्ठाहः प्रष्ठौहो: प्रष्ठौहाम् प्रष्ठोहि प्रष्ठोहोः प्राठवाट्सु, प्रष्ठवात्सु अनड्वाह् शब्द में कुछ भेद है। अनड्वाह् + सि सि विभक्ति के आने पर अनड्वाह को 'नु' का आगम हो जाता है ॥३३५ ॥ अत: ‘अनड्वान्ह्' रहा। संयोग के अन्त का लोप होकर 'अनड्वान्' बना। संबोधन में अनड्वाह् +सि चत्वार और अनड्वाह् शब्द के 'वा' को संबुद्धि सि के आने पर ह्रस्व हो जाता है ॥३३६ ॥ अत: हे 'अनड्वन्' बना । अनड्वाह् + शस् Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ताः स्त्रीलिङ्गाः अनडुहश्च ।। ३३७ ॥ अनड्वाह् इत्येतस्य वाशब्दस्योत्वं भवति अघुदस्वरे परे व्यञ्जने च परे । अनडुहः । अनडुहा 1 विरामव्यञ्जनेत्यादिना दत्वं । अनडुद्भ्यां । अनडुद्धिः । अनडुत्सु । इत्यादि । इति हकारान्ताः । प्रियाश्चत्वारो यस्यासौ प्रियचत्वाः । प्रियचत्वारौ। प्रियचत्वारः । हे प्रियचत्वः ३ । प्रियचत्वारं । प्रियचत्वारौ। प्रियचतुरः प्रियचतुरा | प्रियचतुर्भ्यां । प्रियचतुर्भिः । इत्यादि । इति व्यञ्जनान्ताः पुल्लिङ्गाः अथ व्यञ्जनान्ताः स्त्रीलिङ्गा उच्यन्ते कवर्गान्ताः स्त्रीलिङ्गझ अप्रसिद्धाः । चकारान्तः स्त्रीलिङ्गस्त्वच् शब्दः । त्वक् त्वग् । त्वचौ | त्वचः । त्वक्षु । इत्यादि । एवं वाच् शब्दप्रभृतयः । छकारान्तोऽप्रसिद्धः । जकारान्तः स्त्रीलिङ्गः स्रज् शब्दः । स्रक्, अघुट् स्वर एवं व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर अनड्वाट् के “वा" शब्द को 'ड' हो जाता है ॥ ३३७ ॥ अत: 'अनडुहः' बना | अनड्वाह + भ्याम् "विरामव्यञ्जनादिषु" इत्यादि ३२० वें सूत्र से 'हू' को 'द्' होकर 'अनडुद्भ्याम्' बना । बना है अनड्वान् अनड्वाहौ हे अनड्वन् ! हे अनड्वाहौ अनड्वाहम् I अनड्वाह्—बैल् अनड्वाहः हे अनड़वाह अनडुहः अनडुद्भिः अनडुहे अनडुहः अनडुहः अनडुहि प्रियचत्वाः प्रियचत्वारौ प्रियचत्वारः हे प्रियचत्वः । हे प्रियचत्वारौ हे प्रियचत्वारः प्रियचत्वारौ प्रियचतुरः प्रियचतुर्भ्याम् प्रियचतुर्भिः • प्रियचत्वारम् प्रियचतुरा अनडुहा अनवा अनडुद्भ्याम् इस प्रकार से हकारांत शब्द हुए। अब रकारांत प्रियचत्वा शब्द है । प्रिया हैं चार जिसके ऐसे पुरुष को 'प्रियचत्वा:" कहते हैं। ऐसे यहाँ बहुवीहि समास में शब्द ११५ अनडुद्भ्याम् अनडुद्भ्याम् अनडुहो अनहो प्रियचतुरः प्रियचतुरि अब व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग कहा जाता है। प्रियचत्वार् + सि सि का लोप एवं रकार का विसर्ग होकर 'प्रियचत्वा:' बना । संबोधन में ३३६ वें सूत्र से 'वा' को ह्रस्व होकर हे प्रियचत्वः बना प्रियचत्वार् + शस् है ३३७वें सूत्र से " वा " को 'ठ' होकर 'प्रियचतुरः' बना । प्रियचत्वार-चार स्त्री सहित पुरुष । प्रियचतुरे प्रियचतुरः व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग प्रकरण इस प्रकार से व्यञ्जनान्त पुल्लिंग प्रकरण समाप्त हुआ । अनडुद्भ्यः अनडुद्भ्यः प्रियचतुरो: प्रियचतुरोः अनडुहाम् अनडुत्सु प्रियचतुर्भ्याम् प्रियचतुर्भ्यः प्रियचतुर्भ्याम् प्रियचतुर्भ्यः प्रियचतुराम् प्रियचतुर्षु इसमें कवर्गान्त स्त्रीलिंग अप्रसिद्ध है, चकारांत स्त्रीलिंग 'त्वच्' शब्द से प्रकरण शुरू हो रहा | है Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला ११६ स्रम् । स्रजौ । सज: । स्रक्षु । इत्यादि । झटवर्गान्ता अप्रसिद्धाः । तकारान्त: स्त्रीलिङ्गो विद्युच्छब्दः । विद्युत, विद्युत् । विद्युतौ । विद्युतः । इत्यादि । थकारान्तोऽप्रसिद्धः । दकारान्त: स्त्रीलिङ्गः शरद् शब्दः । शरत, शरद् । शरदौ । शरदः । एवं संविद् विषद् परिषद् प्रभृतयः । त्यद्शब्दस्य तु भेदः । त्यदाद्यत्वं । स्त्रियामादेत्यादिना स्रो लजि त्वच्+सि है "चवर्गदृगादीनां च” इस २५४वें सूत्र से विराम और व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर 'च' को 'ग्' हो गया एवं "पदांते धुटां प्रथमः सूत्र से विकल्प से प्रथम अक्षर होकर त्वक् त्वग् बना। त्वच-छाल त्वक, त्वग त्वचौ त्वचः । त्वचे त्वाभ्याम् त्वाभ्यः है त्वक, त्वग् हे त्वचा हे त्वचः । वचः त्वाम्याम् त्वाच्यः त्वचम् त्वची त्वचः त्वचः त्वचोः त्वचाम् त्वचा स्वाभ्याम् त्वग्भिः । त्वचि त्वचोः त्वक्षु 'वाच्' शब्द के रूप भी इसी प्रकार से चलेगे।। छकारान्त शब्द अप्रसिद्ध हैं। अब जकारान्त स्रज् शब्द है। स्रज्+सि = लक् स्रग् । पूर्वोक्त २५४वें सूत्र से ग् होकर रूप बन गया । स्रज्-माला स्रक्, स्रग् स्रजः सम्भ्याम् स्त्रग्भ्यः हे सक, स्लग हे सजौ हे स्त्रजः सग्भ्याम् स्नग्भ्यः खजम् सजो सजः सजोः स्रजाम् सजा सगम्याम् स्रग्भिः स्रजोः झ, ब और टवर्गान्त शब्द स्त्रीलिंग में अप्रसिद्ध हैं.। अब तकारान्त स्त्रीलिंग विद्युत् शब्द है। विद्युत् + सि-विद्युत्, विद्युद् बना 1 'सि' का लोप होकर “वा विरामे” सूत्र से प्रथम अक्षर भी हो गया। विद्युत्-बिजली विद्युत् , विद्युद् विद्युवौ विद्युतः । बिधुते विद्युभ्याम् विधुभ्यः हे विद्युत् विद्युन हे विधुतो हे विद्युतः । विद्युतः विद्युदण्याम् विद्युम्यः विद्युतम् विधुतो विद्युतः | विद्युतः विद्युतोः विद्युताम् विद्युता विद्युभ्याम् विद्युदिः । विद्युति विद्युतोः विद्युत्सु थकारान्त स्त्रीलिंग अप्रसिद्ध है। दकारान्त शरद् शब्द के रूप भी इसी प्रकार से चलेंगे। शरद् शरत् शरद् शरदौ शरदः शरदे शरद्भ्याम् शरदभ्यः हे शरत् शरद हे शरदौ हे शरदः शरदभ्याम् शरद्भ्यः शरदम् शरदो शरदः शरदः शरदोः शरदाम् शरदा शरभ्याम् शरदिः शरदि शरदोः शरत्सु संविद, विपद् और परिषद् आदि के रूप भी इसी प्रकार से चलेंगे। त्यद् शब्द में कुछ भेद है । त्यद् + सि है। f Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . . व्यञ्जनान्ता: स्त्रीलिङ्गाः ११७ आप्रत्यय: । सौ-तस्य चेति सकारः । स्या । त्ये । त्याः । त्यां । त्ये । त्याः । त्यया । त्याभ्यां । त्याभिः । त्यस्यै । त्याभ्यां । त्याभ्यः । त्यस्याः । त्याभ्यां । त्याभ्यः । त्यस्याः । त्ययोः । त्यासां । त्यस्यां । त्ययोः । - - - - त्यया सा ते ताः तयोः 1 111 तासु तस्यै ताभ्यः "त्यदादीनाम् विभक्तौ" सूत्र से अकारान्त 'त्य' बना। पुन: “सियामादा" इस २१५वे सूत्र से मीटिंग में 'अ' मल्यास होका. 'रमा' जन्म । पुन: 'तस्य च' इस २८८वें सूत्र से 'त्' को 'स्' होकर 'स्या' एवं सि विभक्ति का लोप हो गया। अब सभी विभक्तियों में त्या बनाकर स्त्रीलिंग की सर्वनाम विभक्ति लगाना चाहिये । यथा---त्या + औ “औरिम्" सूत्र २११वें से 'इ' होकर संधि होकर 'त्ये' बना। त्यद्-वह त्याः त्यस्याः त्याभ्यां त्याभ्यः त्याम् त्याः त्यस्याः त्ययोः त्यासाम त्याभ्यां त्याभिः त्यस्याम् त्ययोः त्यासु त्यस्यै त्याभ्यां त्याभ्यः इसी प्रकार से तद, यद् और एतद् के रूप चलते हैं। यथा ताः तस्याः ताभ्याम् ताभ्यः वाम् तस्याः तासांम् तया ताभ्याम् ताभिः तस्याम् तयोः ताभ्याम् यद-जो या: । यस्याः याभ्याम् याभ्यः याः । यस्याः यासाम् यया याभ्याम् याभिः यस्याम ययोः यस्यै याभ्याम् याध्यः एतद्-वह एषा एते एताः एतस्याः एताभ्याम् एताभ्यः एताम्, एनाम् एते, एने एताः एनाः एतस्याः एतयोः, एनयोः एतासाम् एतया, एनया एताभ्याम एताभिः एतस्याम एतयोः, एनयोः एतासु एतस्य एताम्याम् एताभ्यः धकारांत स्त्रीलिंग वीरुध् शब्द है । वीरुध् + सि "पदांते धुटा प्रथम:" ७६वें सूत्र से प्रश्चम अक्षर होकर 'वा विरामे' से विकल्प से तृतीया होकर 'वीरुत, वीरुद्' बना। वीरुध्-लता। वीरुत्, वीरुद् वीरुधौ चौरुषः । वीरुधे धीरुभ्याम् वोरुभ्यः हे वीरुत्, वीरुद् हे वीरुधौ हे वीरुधः । वीरुषः वीरुदण्याम वीरुभ्यः वीरुधम् वीरुधौ वीरुधः । वीरुधः बोरुयोः वीरुधाम् वीरुधा वीरुद्भ्याम् वीरुद्धिः । बोरुधि वीरुषोः इसी प्रकार से 'समिध्' शब्द के रूप भी चलते हैं। इस प्रकार से धकारांत शब्द हुए, अब नकारान्त स्त्रीलिंग सीमन् शब्द है । सीमन् + सि या याम् ययोः यासु वीरुत्सु Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ कातन्त्ररूपमाला त्यासु । एवं तद्शब्द: । सा । ते । ता: । इत्यादि त्यदशब्दवद्रूपं । एवं यद् एतद् शब्दौ । धकारान्तः स्त्रीलिङ्गो वीरुध्शब्दः । वीरुत्, वीरुद् । वीरुधी । वोरुधः । इत्यादि । एवं समिध्प्रभृतयः । इति धकारान्ताः । नकारान्त: स्त्रीलिङ्ग सीमनशब्दः । सीमा। सीमानौ । सीमान: । अघुटि । अवमसंयोगेत्यादिना अलोप: । सीम्नः । इत्यादि । एवं पंचन्शब्दादीनां पूर्ववत् । इति नकासन्ता; । पकारान्तः स्त्रीलिङ्गोऽपशब्दः । तस्य बहुवचनमेव । अपश्च ॥३३८ ।। अप् इत्येतस्य उपधाया दीपों भवति असम्बुद्धौ घुटि परे । आप: । अप: । अपां भेदः ।।३३९ ।।। अपां दो भवति विभक्ती भे परे । अन्दिः । अभ्यः । अद्भ्यः । अपां । अप्सु । इति पकारान्तः । फकारबकारान्तावप्रसिद्धौ । भकारान्तः स्त्रीलिङ्गः ककुभशब्दः । ककुप्, ककुन्छ । ककुभौ । ककुभः । इत्यादि । सीने 'घुटि चासंबुद्धौ' सूत्र १७७वें से 'न्' की उपधा दीर्घ होकर एवं नकार का विभक्ति का लोप होकर 'सीमा' बना। अघुट् स्वर वाली विभक्ति में कुछ अन्तर है। सीमन् + शस् “अवमसंयोगादनोऽलोपोऽलुप्तवच्च पूर्वविधौ" इस २५०वें सूत्र से व, म, संयुक्त न होने से 'अन्' के अकार का लोप होकर 'सीम्नः' बना। सीमन्–हद, मर्यादा सीमा सीमानौ सीमानः । सीमध्याम सीमभ्यः हे सीमन् हे सीमानौ हे सीमानः | सौम्नः सीमभ्याम् सीमभ्यः सीमानम् सीमानौ सीम्मः सीम्नः सीम्नोः सीम्नाम् सोम्ना सोमभ्याम् सीमभिः । सीम्नि, सीमनि सीम्नो: सीमसु पञ्चन् आदि शब्दों के रूप स्त्रीलिंग में पूर्ववत् पुल्लिङ्ग के समान ही चलेंगे। पञ्च । पञ्चभ्य: । पञ्च । पञ्चभ्यः । पञ्चभिः । पञ्चानाम् । पञ्चसु । इस प्रकार नकारान्त शब्द हुए, अब पकारान्त स्त्रीलिंग अप् शब्द है। यह अप् शब्द बहुवचन में ही चलता है। अप् + जस् असंबुद्ध घुट के आने पर 'अप' की उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥३३८ ॥ अत: आप् + अस्=आप: बना। अप् + शस् = अप: । अप्+भिस है। ___'भ' विभक्ति के आने पर अप के 'प्' को 'द्' हो जाता है ॥३३९ ॥ अत: 'अद्भिः ' बना। आपः अद्धिः अपाम् अद्भ्यः अद्भ्यः फकारांत, बकारान्त शब्द अप्रसिद्ध हैं। अब भकारान्त स्त्रीलिंग 'ककुभ' शब्द है। ककुभ् + सि सि का लोप होकर ‘पदांते धुटा प्रथम:' सूत्र से प्रथम अक्षर अपः Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ताः स्त्रीलिङ्गाः ११९ इति भकारान्तः । मकारान्तः स्त्रीलिङ्गः किम्शब्दः । तस्य कादेशः । आप्रत्ययः । का। के । काः । कां । के । काः । कया । काभ्यां । काभिः । कस्यै । काभ्यां । काभ्यः । कस्याः । काभ्यां । काभ्यः । कस्याः । कयोः । कासाम् । कस्यां । कयोः 1 कासु । इत्यादि । इदंशब्दस्य तु भेदः । सौ- इयं । अन्यत्र त्यदाद्यत्वं । दादेर्म इति दस्य मत्वं । स्त्रियामादेत्याप्रत्ययः । इमे । इमाः । इमां । इमे इमाः । टौसोरन इति अनादेशः । अनया । अद्वयञ्जनेऽनक् इत्यत्वे । आभ्यां । आभिः । भाविनि भूतवदुपचारः । अस्यै । आभ्यां । आभ्यः । अस्याः । आभ्यां । आभ्यः । अस्याः । अनयोः । आसाम् । अस्यां । अनयोः । आसु । अन्वादेशे पूर्ववत् । एनां । एने । एनाः । एनया । एनयो: । यकारान्तोऽप्रसिद्धः । इत्यादि । रकारान्तः स्त्रीलिङ्गञ्चत्वारशब्दः । तस्य I 'वा विरामे' सूत्र से तृतीय होकर 'ककुप् ककुन्' बना । ककुप् ककुब् ककुभौ ककुभः ककुभे कंकुब्ध्याम् ककुब्भ्यः हे ककुप ककुब हे ककुभौ हे ककुभः ककुभः ककुब्भ्याम् ककुभ्यः ककुभम् ककुभौ ककुभः ककुभः ककुभोः ककुभाम् ककुभा ककुब्भ्याम् ककुब्पिः ककुभि ककुभोः ककुप्सु मकारांत शब्द हुए। अब मकारांत स्त्रीलिंग 'किम्' शब्द है। किम्+ सि । "किं कः” ३०४वें सूत्र से विभक्ति के आने पर 'किम्' को 'क' आदेश होता है एवं 'स्त्रियामादा' २५५ सूत्र से 'आ' प्रत्यय होकर 'का' बन गया। ऐसे ही 'का' शब्द बनाकर प्रत्येक विभक्ति में 'सर्वा' के समान रूप चला लेना चाहिये । का काम कया काभ्याम् काभ्याम् कस्यै इदं शब्द में कुछ भेद है । इदं +सि । " इदमियमयं पुंसि " इस ३०५ वें सूत्र से स्त्रीलिंग में इदं को 'इयं' आदेश' बना । I इयम् इर्मा एनाम् अनया, एनया अस्यै काः काः काभि: इमे इमे एने काभ्यः जाता है। अतः 'इयं' से इदं + औ 'त्यदादीनाम् विभक्तौ' सूत्र से सर्वत्र 'इद' बनेगा एवं "दोऽद्वेर्म:" इस ३०६ वें सूत्र दकार को मकार हुआ एवं 'स्त्रियामादा' सूत्र से आकारांत होकर रूप चलेंगे। अतः द्विवचन में 'इमे' बना । इदं इमा + टा 'टौसोरन: । ३०७वें से 'अन' आदेश 'आ' प्रत्यय हो 'टोंसोरे' २१३ वें सूत्र से 'ए' होकर 'अनया' बना । इदम् + ध्याम् हैं 'अद्व्यञ्जनेऽनक्' ३०८वें सूत्र से 'अ' होकर 'आ' होकर 'आभ्याम्' बना । द्वितीय मेटा और ओस में 'एन' आदेश होकर अन्वादेश अर्थ में 'एनाम्' आदि बना । इदं - यह इमाः इमा:, एनाः आभिः कस्याः कस्याः कस्याम् | अस्याः अस्याः काभ्याम् कयोः कयोः अस्याम् काभ्यः कासाम् कासु आभ्याम् आभ्यः अनयोः एनयोः आसाम् अनयो:,एनयो: आसु आभ्याम् आभ्याम् आभ्यः यकारांत स्त्रीलिंग अप्रसिद्ध है। अब रकारांत स्त्रीलिंग चत्वार् शब्द हैं। यह बहुवचन में ही चलता चत्वार् + जस् Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० बहुवचनमेव । त्रिचतुरोरित्यादिना चतस्त्रादेशः । तौ रं स्वरे इति रत्वं । चतस्त्रः । चतस्त्रः । चतसृभिः । चतसृभ्यः । चतसृभ्यः न नामि दीर्घमिति दीर्घो न भवति । चतसृणां । चतसृषु । इत्यादि । गिशब्दस्य तु भेदः । सौ इरुरोरीस्रूरौ ।।११२ ।। धातोरिरुरोररूरौ भवतो विरामं व्यञ्जनादौ च गो गये I । सम्बोधनेऽयि तद्वत् । गिरं । गिरौं । गिरः । गिरा । गीर्ध्या । गीर्भिः । गिरे। गीर्ध्या । गीर्भ्यः । गिरः । गीर्ध्या । गोर्भ्यः । गिरः । गिरोः । 1 "त्रिचतुरोः स्त्रियां तिसृचत विभक्तौ" २२३वें सूत्र से चत्वार् को 'चतसृ' आदेश 'तौ रं स्वरे' २२४वें सूत्र से ऋ कोर होकर 'चतस्र:' बना । चतसृ + आम् 'न नामि दीर्घं' से दीर्घ नही हुआ तुल 'नु' होकर चतसृणाम् बना । चतस्त्रः । चतस्र: । चतसृभिः । चतसृभ्यः चतसृभ्यः । चतसृणाम् । चतसृषु । गिर शब्द में कुछ भेद है। गिर् + सि "इरुरोररूरौ " ११२ वें सूत्र से 'ईर्' होकर 'सि' का लोप एवं 'र्' को विसर्ग हो गया। तब 'गी: ' कातन्त्ररूपमाला १ बना । गिर् + भ्याम् = गीर्भ्याम्, संपूर्ण व्यंजनादि विभक्ति में दीर्घ होगा। वा का अधिकार होने से व्यंजन विभक्ति में रेफ हो विसर्ग नहीं होगा । गिर्वाणी गीः गिरौ गिर: हे गी हे गिरी हे गिरः गिरम गिरी गिरः गीर्भिः गिरा गोर्भ्याम् इसी प्रकार से पुर धुर् आदि के रूप चलते हैं। रकारान्त शब्द हुए। लकारान्त शब्द अप्रसिद्ध है। वकारांत स्त्रीलिंग 'दिव्' शब्द हैं 1 द्यौः द्यौः दिवम् दिवा दिन दौ दिव् + सि 'औ सौ' सूत्र ३१४वें से सि के आने पर वकार का 'औ' एवं सि का विसर्ग होकर 'द्यौः' बरा । दिव् + भ्याम् है । " दिव् उदद्व्यञ्जने " ३१६ वें सूत्र से 'व्' को ठकार होकर 'ध्याम्' बना । दिव्— स्वर्ग दिवौ गिरे गिरः गिरः गिरि दिवः हे दिव गीर्भ्याम् गीर्भ्याम् गिरोः गिरो: दिवे दिवः दिव: गोर्भ्यः गी गिराम् गीर्षु द्युभ्याम् धुभ्याम् दिवोः दिघो घुभ्यः घुभ्यः दिवाम् दिवः धुभ्याम् दिवि धुषु युभिः वकारांत शब्द हुए। शकारान्त स्त्रीलिंग दृश् शब्द है । दृश् + सि "चवर्गदृगादीनां च" सूत्र से 'ग्' पदांते धुटां प्रथमः से क् होकर 'दृक् दृग्' बना १. यह सूत्र पहले आ चुका है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता; स्त्रीलिङ्गाः १२१ गिरां। गिरि । गिरोः । वाधिकाराद्विभक्तिव्यञ्जने रेफस्य विसों न स्यात् । गीर्षु । एवं पुर् धुर प्रभृतयः । इति रकारान्ताः । लकारान्तोऽप्रसिद्ध ! चकारान्तः सीलिझे दिवशदः ! म च सुदिशब्दवत् 1 द्यौः । दिवौ । दिव: । दिवं । दिवौ। दिव: । दिवा । दिव उद्ध्यञ्जने। द्युभ्यां । धुभिः । इत्यादि। इति वकारान्त: । शकारान्त: स्त्रीलिङ्गो दृश् शब्दः । दृक्, दृग् । दृशौ । दृशः । इत्यादि । इति शकारान्त: । षकारान्त: स्त्रीलिङ्गो विग्रुष्शब्द: 1 विग्रुद, विपुड् । विप्रषौ । विपुषः । इत्यादि । षकारान्ते दधृष्शब्दस्य तु भेदः । चवर्गदृगादीनां च गत्वं । दधृक् दधृग् । दधृक्षु । इत्यादि । सकारान्तः स्त्रीलिङ्गः सुवचस् शब्दः । स च पूर्ववत् । सुवचाः । दृश्-नेत्र दशः विपुषे विपुषः दृक दृग् दशौ दृशः । दशे दृग्भ्याम् दाभ्यः हे दृक्, दृग् हे दशौ हे दृशः दृग्भ्याम् दृग्भ्यः दृशम् दृशौ दृशः दृशः दृशोः दृशाम् दृशा दृग्भ्याम् दधिः । दृशि दृशोः शकारान्त शब्द हुए । अब षकारान्त विप्रुष् शब्द है। विषुप् + सि “हशषछान्ते” इत्यादि सूत्र से 'ड्' होकर 'विठुट, विघुड्' बना। विष् विभुट, विगुड् विघुमौ विशुषः विषुड्भ्याम् विघुझ्यः हे विगुद. हे विगुड हे विभुषों हे दिग्रुषः विभुषः विड्भ्याम् विग्रुष्यः विशुषम् विषुषो विषुषः । विषुपोः विभुषाम् विपुपा विड्भ्याम् विघुभिः । विपि विग्रुषो ष्कारांत् दधृष् शब्द में कुछ भेद है। दधृष् + सि “चवर्गदृगादीनां च" सूत्र से 'ग्' होकर 'दग् दधृक' बना। दधृक,दधा दधृग्भ्याम् दधृभ्यः दधृषम् देवृषः दषोः दधाम् धृषा दाभ्याम दग्भिः दधृषि दधृषोः दधृक्षु दधृषे दधृभ्याम् दग्भ्यः सकारांत स्त्रीलिंग सुवचस शब्द है। सुवचस् + सि यह पूर्ववत् चलेगा अर्थात् “अन्त्वसन्तस्य चाधातोस्सौ” सूत्र २७७वें से स् की उपधा को दीर्घ होकर 'सुवचा:' बना । सुवचाः सुवचसौ सुवचसः । सुवचसे सुवचोभ्याम् सुवचोभ्यः हे सुवचाः हे सुवचसौ हे सुवचसः | सुवचसः सुवचोम्याम् सुवचोम्यः सुन्वचसम् सुवचसौ सुवचसः । सुवचसः सुवचसोः सुवचसाम् सुवचसा सुवचोभ्याम् सुलचोभिः । सुवचसि सुवचसोः सुवचःसु अदस् शब्द में कुछ भेद है। अदस् + सि 'सौ सः' ३२३वें सूत्र से दकार का सकार "सावी सिलोपश्च" सूत्र ३२४वें से अंत को औ होकर 'असौ' बना 1 अन्यत्र विभक्ति में "त्यदादीनाम्" 'अ' पुनः स्त्रीलिंग में 'आ' प्रत्यय करके "अदस; पदे मः" सूत्र से 'द' को 'म' करके एवं वर्णमात्र को उकार करके पूर्ववत् रूप चलेंगे। दधृषः धरः Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सुवचसौ । सुवचसः । इत्यादि । अदस् शब्दस्य तु भेदः । त्यदाद्यत्वं । असौ । अन्यत्र आप्रत्ययः । अदसः पदे म इति मत्वं । उत्वमादीति पूर्ववत् । अमू । अमूः । अमूं । अमूं । अमूः । अमुया । अमूभ्यां । अमूभिः । अमुष्यै । अमूभ्यां । अभ्यः । अमुष्याः । अमूभ्यां । अमूभ्यः । अमुष्याः । अमुयोः । अमूषां । अमुष्यां । अमुयोः । अमूषु । इत्यादि । हकारान्तः स्त्रीलिङ्ग उपानह् शब्दः । विरामव्यञ्जनादिषु हस्य दः । उपानत् उपानद् । उपानहौ । उपानहः । इत्यादि । अनडवाह शब्दस्य तु भेदः । वा स्त्रीकारे ||३४० | अनड्वाह इत्येतस्य वाशब्दस्य उत्वं वा भवति स्वीकारे परे । नदाह्यंच इति ईप्रत्ययः । अनडुही, अनड्वाही । इत्यादि । इति व्यञ्जनान्ताः स्त्रीलिङ्गाः असौ अमूम् अमुया अमुष्यै अमू अमू हे अनडुहि अनडुहीम् कातन्त्ररूपमाला हे अन अमूः अमू अमूभिः अमुभ्याम अमूभ्याम् अपूभ्यः सकारान्त शब्द हुए। अब हकारान्त स्त्रीलिंग उपानह् शब्द हैं। उपानह् + सि "विरामव्यञ्जनादिषु" इत्यादि ३२० वें सूत्र से 'ह' को 'द' होकर 'उपानत्' बना । वा विरामे, सूत्र से विकल्प से दू हुआ है। अनडुधौ उपानह् — जूते उपानत् उपानद् उपानही हे उपानत् उपानद् हे उपानहौं उपानहम् उपानहौ उपानहः उपानहा उपानद्भ्याम् उपानद्भिः अनड्वाह् शब्द में कुछ भेद है। अनड्वाह् + सि अनड्वाह शब्द को स्त्रीलिंग में विकल्प से 'वा' शब्द को उकार होता है ॥ ३४० ॥ पुनः "नदाद्यञ्च वाह्" इत्यादि ३७२वें सूत्र से 'ई' प्रत्यय होकर अनडुही अनड्वाही बन गया। अब इसके रूप स्त्रीलिंग में नदी के समान चलेंगे। अनडुही अनडुह्यौ अनडुह्यः हे अना अनडुही: अनडुहीभिः अमुष्याः अमुष्याः अमुष्याम् उपानह: हे उपानह अनडुहीभ्याम् अनडुह्या इसी प्रकार से अनड्वाही के रूप चलेंगे। उपानहे उपानह: अमुभ्याम् अमूभ्यः अमुयोः अमूषाम् अमुयोः अमूषु उपानह: उपानहि अनडुहो अनडुयाः अनडुह्याः अनडुह्याम् उपानद् ध्याम् उपानदुद्भ्याम् उपानहो: उपानहो: अनडुहीभ्याम् अनडुहीभ्यः अनडुहीभ्याम् अनडुह्यो अनडुह्यो : उपानदुद्भ्यः उपानद् द्भ्यः उपानहाम् उपानत्सु इस प्रकार से व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग प्रकरण पूर्ण हुआ। अनडुहीभ्यः अनडुहीनाम् अनडुहीषु Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जना ता नपुंसकलिङ्गाः अथ व्यञ्जनान्ता नपुंसकलिङ्गा उच्यन्ते कवर्गान्ता अप्रसिद्धा: । चकारान्तो नपुंसकलिङ्गः प्राञ्शब्दः । विरामे व्यञ्जनादायुक्तं नपुंसकात्स्यमोलोपेऽपि ॥३४१ ।। विरामे व्यञ्जनादौ च यदुक्तं नपुंसकलिङ्गात्परयोः स्यमोलोपेपि तद्भवति । इति मत्वं अनुषङ्गश्चाक्रुश्चेत्सर्वत्र । प्राकु, प्राग् । प्राची। प्राची। पुनरप्येवं। प्राचा। प्रारभ्यां । प्राग्भिः । प्राक्षु । अन्यत्र पुल्लिङ्गवत्। एवं प्रत्यञ्च् सम्यञ्च् उदञ्च तिर्य प्रभृतयः। छजझबटवर्गान्ता अप्रसिद्धाः। तकारान्तो नपुंसकलिङ्गः सकृत् शब्दः । सकृत, सकृद् । सकृती । सकृन्ति । पुनरपि । इत्यादि । ददन्त् शब्दस्य तु भेदः । ददत्, ददद् । ददती । व्यञ्जनान्त नपुंसकलिंग प्रकरण अब व्यञ्जनान्त नपुंसकलिंग प्रकरण कहा जाता है। यहाँ नपुंसकलिंग में कवर्गान्त अप्रसिद्ध है चकारांत नपुंसक लिंग प्राञ्च् शब्द है। प्रान्+सि विराम और व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर जो कार्य कहा गया है वह कार्यनपुंसकलिंग से परे 'सि अम्' के लोप होने पर भी हो जाता है ॥३४१ ॥ - इस नियम से 'सि अम्' को लोप होकर "अनुषंगशाक्रुश्चेत्” २६२वें सूत्र से अनुषंग संज्ञक अकार का लोप होकर 'चवर्गदगादीनां च सूत्र से 'च' को 'ग्' होकर विकल्प से प्रथम अक्षर होकर 'प्राक्, प्राग्' बना । ऐसे सर्वत्र अनुषंग का लोप करके व्यंजनादि में च को ग करके रूप बनेंगे । एवं नपुंसकलिंग के सारे नियम लगेंगे। यथा-प्रा+औं '' का लोप, 'औरीम्' से 'औ' का 'ई' होकर 'प्राची' बना। ऐसे ही प्राच्+जस् है। "जश्शसो: शिः" २३९वें सूत्र से 'जस् शस्' को शि आदेश होकर "धुस्वराधुटि नुः" २४०वें सूत्र से "नु' का आगम “धुटि चासंबुद्धी" सूत्र से दीर्घ होकर 'प्राञ्चि' बना । आगे रूप सरल हैं। प्राक्, प्राग् प्राची प्राश्चि । प्राचे प्राम्भ्याम् प्राध्यः हे प्राक, प्राग् हे प्राची हे प्राचि प्राचः प्राभ्याम् प्रारभ्यः प्राक्, प्राण प्राची प्राञ्चि प्राचः प्राचोः प्राचाम प्राचा प्रारभ्याम् प्राभिः प्राचि प्राचीः इसी प्रकार से प्रत्यञ्च सम्य, उदश्च तिर्य आदि के रूप चलेंगे। सम्यक, सम्यग् समीची सम्यञ्चि सम्याभ्याम् सम्यग्भ्यः हे सम्यक्, सम्यग् हे समीची हे सम्यश्चि समीचः सम्यग्भ्याम् सम्यग्भ्यः सम्यक्, सम्यग् समीची सम्यञ्चि समीच: समीचोः समीचाम समीचा सम्याभ्याम् सम्यग्भिः । समौचि समीचोः सम्यक्षु छ, ज, झ, ब और टवर्ग नपुंसकलिंग में अप्रसिद्ध हैं। अब तकारांत नपुंसकलिंग 'सकृत्' शब्द है। सकृत् + सि ‘वा विरामे' सूत्र से 'सकृद्' बनकर रूप चलेगा। सकृत, सकृद् सकृती सन्ति । सकृते सकृद्भ्याम् सकृद्भ्यः हे सकृत, सकृद हे सकृती हे सकृन्ति । सकृतः सकृद्भ्याम् सकृद्भ्यः सकृत, सकृद सकृती सकृन्ति सकृतः संकृतोः सकृताम् सकृता सकृभ्याम् सन्दिः । सकृति सकृतोः सकृत्सु प्राक्षु समीचे Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ वा नपुंसके ॥ ३४२ ॥ I अभ्यस्तात्परोऽन्तिरनकारको वा भवति नपुंसकलिङ्गे घुटि परे । ददति ददन्ति । पुनरपि ददतु ददद् । ददती । ददति ददन्ति । ददता । ददद्द्भ्यां । दददिः । इत्यादि । थकारान्तो प्रसिद्धः । दकारान्तो नपुंसकलिङ्गस्तद् शब्दः । नपुंसकात्स्यमोलोपो न च तदुक्तमिति वचनात् त्यदाद्यत्वं न भवति । तत्, तद् । ते । तानि । पुनरप्येवं । अन्यत्र पुल्लिङ्गवत् । एवं यद् शब्दः । धकारान्तोऽप्रसिद्धः । नकारान्तो नपुंसकलिङ्गः सामन् शब्दः । साम । साम्नी, सामनी सामानि पृथक्करणान्नपुंसकस्य वा । हे साम, हे सामन् । हे साम्नी, हे सामनी । हे सामानि । पुनरप्येवं । इत्यादि । एवं मर्मन् लोमन् भूमन् प्रभृतयः । चर्मन् शब्दस्य तु भेदः । चर्म । चर्मणी । चर्माणि । अन्यत्र पुल्लिङ्गवत् । एवं वर्मन् कर्मन् शर्मन् प्रभृतयः । इत्यादि । अहन् शब्दस्य तु भेदः । सौ ददन्तु + सि 'अभ्यस्तादन्तिरनकारः' २८५वें सूत्र से नकार का लोप होकर 'ददत्' बना । ददन्त् + जस् अभ्यस्त से परे घुट् विभक्ति के आने पर नकार का लोप विकल्प से होता है ॥ ३४२ ॥ ददती ददन्ति ददति ददते ददद्भ्याम् ददद्भ्यः ददत्, ददद् हे ददत् ददद् हे ददती दददृभ्याम् ददती हे ददन्ति ददति ददतः ददन्ति ददति ददद्भिः ददतोः ददतो: कातन्त्ररूपभाला ददत्, ददद् ददता तत्, तद् हे तत्तद् ददतः ददति ददद्भ्याम् अब थकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं. दकारांत 'तद्' शब्द हैं। तद् + सि “नपुंसकात्स्यमोर्लोपो न च तदुक्तं " इस सूत्र से 'सि अम्' का लोप होकर 'त्यदाद्यत्वं' सूत्र से अकारांत नहीं हुआ। अतः 'तद् तत्' बना। तद् + औ 'औरीम्' से ई होकर 'त्यदादीनाम् विभक्तौ' से 'अ' होकर 'ते' बना | तद् + जस् । जस् को 'शि' होकर 'नु' एवं दीर्घ होकर 'तानि' बना आगे पुल्लिंगवत् चलेंगे। तानि तस्मै ताभ्याम् तेभ्यः हे ते हे तानि तस्मात् ताभ्याम् तेभ्यः तस्य तयो: ताभ्याम् तस्मिन् तयोः यद् और एतद् के रूप भी इसी प्रकार चलेंगे । धकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। अब नकारांत 'सामन्' शब्द है। तत्, तद् तेन तानि तै: साम हे साम साम्ने साम्नः साम सामानि साम्नः साम्ना सामभिः साम्नि सामनि सामभ्याम् इसी प्रकार से मर्मन, लोमन् व्योमन्, भूमन् आदि के रूप चलेंगे। सामन् + सि 'लिंगान्तनकारस्य' सूत्र से 'न' का लोप होकर 'साम' बना । सामन् + औ 'ईड्यो' सूत्र से आँकार को 'ई' आदेश होने से विकल्प से 'अन्' के 'अ' का लोप होकर साम्नी बना और " सामनी " भी बना। दददुद्भ्यः ददताम् ददत्सु साम्नी, सामन सामानि हे साम्नी, सामनी हे सामानि साम्नी, सामनी सामभ्याम् सामभ्याम् साम्नोः साम्नोः तेषाम् नेषु सामभ्यः सामभ्यः साम्नाम् सामसु Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्ता नपुंसकलिङ्गाः १२५ अह्नः सः ॥३४३॥ अहन्नित्येतस्य नकारस्य सो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च 1 अहः । ईङ्योर्वा । अह्री, अहनी अहानि । हे अह: ३ 1 पुनरपि । अह्रा । अहोभ्यां । अहोभि: 1 अहःसु । इत्यादि । पफबभान्ता अप्रसिद्धाः । मकारान्तो नपुंसकलिङ्गः किम्शब्दः । किं । के । कानि । अन्यत्र पुल्लिङ्गवत् । इदं शब्दस्य तु भेदः । इदमियमयं पुसि। इदं नपुंसकेऽपि च ॥३४४॥ चर्म चर्मसु चर्मन शब्द के रूप में कुछ अंतर है। चर्मन् +सि नकार का लोप होकर 'चर्म बना। वर्मन् + औ 'औ' को ई होकर न कोण होकर 'चर्मणी' बना। चर्मण् 'घुटि चासंबुद्धौ' से दीर्घ होकर एवं जस् को शि होकर 'चर्माणि' बना । चर्मणीच र्माणि । चर्मणे चर्मभ्याम् चर्मभ्यः हे चर्म हे चर्मणी हे चर्माणि | चर्मण: चर्मभ्याम चम्यः चर्म चर्मणी चर्माणि । वर्मणः चर्मणोः चर्मणाम् चर्मणा चर्मभ्याम् चर्मभिः । चर्मणि चर्मणोः इसी प्रकार वर्मन, कर्मन् और शर्मन् के रूप चलेंगे। अहन शब्द में कुछ भेद हैं। अहन्+सि अहन् शब्द के नकार को विराम और व्यंजनादि विभक्ति के आने पर सकार हो जाता है ॥३४३ ॥ एवं सि विभक्ति का लोप होकर 'अहः' बना। अहन् + औं 'ईयोर्वा' सूत्र से 'अही अहनी' बना । अहन्+ भ्याम् नकार को सकार होकर 'अह: + भ्याम्' पुन: संधि होकर 'अहोभ्याम्' बना।। अहन्—दिन अहः अह्री, अहनी अहानि । अहे अहोभ्याम् हे अहः हे अह्री, अहनी हे अहानि | अहः अहोभ्याम अहोभ्यः अहः अह्री, अहनी अहानि अहः अहाम् अह्वा अहोभ्याम् अहोभिः | अहि, अहनि अहोः अह.सु.अहस्सु प, फ, ब और भांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। अब 'मकारांत' किम् शब्द है। किम् + सि 'नपुंसकात्स्यमोर्लोपो न च तदुक्तं' सूत्र से 'किम्' बना । किम् + औं 'किं कः' सूत्र से 'क' आदेश होकर औं 'को' 'ई' होकर 'के' हुआ। पुन: किम् + जस् है । किम् को 'क' जस् को 'शि' 'नु' का आगम और दीर्घ होकर "कानि' हुआ। कानि कस्मात् काभ्याम् कानि कयोः काभ्याम् कयोः कस्मै काभ्याम् केभ्यः इदं शब्द में कुछ भेद है । इदं + सि नपुंसकलिंग में 'सि अम्' विभक्ति के आने पर इदं शब्द को इदं आदेश ही होता है ॥३४४ ॥ अहोभ्यः अहो क किम किम कस्य केषाम कस्मिन् Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कातन्त्ररूपमाला नपुंसकलिङ्गे स्यमि च परे इदम् शब्दस्य इदमादेशो भवति ! इदं । इमे । इमानि । इदं । इमे। इमानि । पुनरप्येवं । इत्यादि । यकारान्तोऽप्रसिद्धः । रकारान्तो नपुंसकलिङ्गो वार् शब्दः । वा: । वारी । वारि । पुनरप्येवं । इत्यादि । चत्वार् शब्दस्य तु भेदः । जश्शसो: शिः । चत्वारि । इत्यादि । लवशकारान्ता अप्रसिद्धा: । षकारान्तस्य षषशब्दस्य पूर्ववत् । सकारान्तो नपुंसकलिङ्गो यशस् शब्दः । यश: । यशसी । सान्तमहतोरित्यादिना दीर्घ: । यशांसि । पुनरपि । यशसा। यशोभ्यां । यशोभिः । एवं वचस् ओजस् पयस् तपस् वयस् प्रभृतयः । इत्यादि । सर्पिस् शब्दस्य तु भेदः । सर्पिः । सर्पिषी । सीषि । पुनरप्येवं । सर्पिषा । इदं+ औ, इदं को 'त्यदादीनाम् विभक्ती' सूत्र से 'इद' होकर 'द' को 'म' होकर औरीम् से औ को 'ई' होकर 'इमे' बना। इदं + जस् है । जस्, शस् को शि इदं को इम 'धुदस्वराघुटि नुः सूत्र से 'नु' का आगम 'घुटि चासंबुद्धौ' से दीर्घ होकर 'इमानि' बना। इमे इमानि अस्मात् आश्याम जमानि अस्य अनयोः एषाम् अनेन आभ्याम् एभिः अस्मिन अनयोः अस्मै आभ्याम् एग्यः इत्यादि । यकारांत शब्द अप्रसिद्ध है। अब रकारांत वार शब्द है । वार + सि, सि का लोप एवं रकार को विसर्ग करके वाः' बना । वार + औ । औ को 'ई' आदेश होकर 'वारी' बना । वार + जस, जस् को शि होकर 'वारि' बना । 'र: सुपि' से विसर्ग का निषेध होकर वार्ष बनता है। बार-जल वारे वार्ष्याम् वार्य: हे बाः हे वारी हे वारि वार्ष्याम् वार्य: वाः बारी वारि वारो: काराम् वारा वार्ष्याम् वाभिः वार्ष चत्वार् शब्द में कुछ भेद है । चत्वार् + जस् । 'जस् शस्' को शि होकर 'चत्वारि' बना । चतुर्णाम् भी बनता है। चत्वारि । चत्वारि । चतुर्भिः । चतुर्थ्य: । चतुर्य: । चतुर्णाम्, चतुर्णाम् 1 चतुषु । लकारांत, वकारांत, शकारांत शब्द अप्रसिद्ध है। षकारान्त षष् शब्द पूर्ववत् है। अब सकारांत नपुंसकलिंग 'यशस्' शब्द है। यशस्+सि 'सि' का लोप और 'स्' का विसर्ग होकर 'यश:' बना। यशस् + औ। औ को 'ई' होकर 'यशसी' बना।। यशस् + जस् है । 'न' का आगम होकर 'सान्तमहतोनोंपधायाः' सूत्र से दीर्घ होकर 'यशासि' बना। यशः यशसी यशांसि । यशसे यशोभ्याम् यशोभ्यः हे यशः हे यशसी हे यशांसि यशसः यशोभ्याम् यशोभ्यः यश: यशसी यसि यशसः यशसोः यशसाम यशसा यशोभ्याम् यशोभिः । यशसि यशसोः यश:सु, यशस्सु ऐसे ही वचस्, ओजस पयस, तपस् और वयस् आदि के रूप चलते हैं। सर्पिस् शब्द है नामि से परे स् को ष् होकर सर्पिष् बना। सर्पिष् + सि= सर्पिः । सर्पिष् + जस् जस् को 'शि' नु का आगम और स्वर को दीर्घ होकर 'सपीषि' बना। सर्पिस् + भ्याम् याः बारी वारि बारः वारः वारि वारोः Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्तेष्वलिङ्गाः १२७ इसुस्दोषां घोषवति रः॥३४५॥ इसुस् दोष इत्येतेषामन्तो रो भवति घोषवति परे । सर्पिभ्यां । सर्पिःषु, सर्पिष्षु । एवं धनुस् दोस् प्रभृतयः । इत्यादि । अदस् शब्दस्य तु भेदः । अद: । अमू । अमूनि । पुनरप्येवं अन्यत्र पुल्लिङ्गवत् । हकारान्तोऽप्रसिद्धः । इत्यादि। इति व्यञ्जनान्ता नपुंसकलिङ्गाः अथ व्यञ्जनान्तेष्वलिङ्गेषु युष्मदस्मदौ उच्यते युष्मद् सि अस्मद् सि इति स्थिते । - - सर्पिष: धनुषः धनु धनुषी | धनुषि घोषवान् विभक्ति के आने पर इस्, उस् और दोष शब्द के अन्त में 'र' हो जाता है ॥३४५ ॥ इस सूत्र से स् को र होकर 'सर्पिर्ध्याम्' बना। सर्पिः सर्पिषी सपीषि । सर्पिषे सर्पिर्ध्याम् सर्पिये: हे सर्पिः हे सर्पिषी हे सपीषि सर्पिर्ध्याम् सर्पिर्णः सर्पिः सर्पिषी सपीषि सर्पिषः सर्पिषोः सर्पिषाम् सर्पिषा सर्पिर्ध्याम् सपिभिः सर्पिषि सर्पिषोः सर्पिा, सर्पिषु धनुष् धनुः धनुषी धषि | धनुषे धनुर्ध्याम धनुर्यः हे श्वनुषी हे धषि धनुर्ध्याम् धनुर्यः धनषि धनुषः धनुषोः धनुषाम धनुषा धनुर्ध्याम् धनुषोः धनुर्पु, धनुष्टुं दोष-भुजा दोः दोषी दोधि दोषे दोभ्याम् दोर्यः हे दो हे दोषी हे दोषि दोर्ध्याम् दोर्य: दोः दोषी दोषि दोषोः दोषा दोर्ध्याम् दोमिः । दोषि दोषोः दोषु अदस् शब्द में कुछ भेद है । अदस्+सि सि का लोप और स का विसर्ग होकर 'अदः' बना। अदस् + औ है 'त्यदादीनाम् विभक्ती' सूत्र से अदस् को 'अद' होकर 'द' को 'म' हुआ 'औ' को 'उत्वं मात्' से ऊ होकर 'अमू' बना। अदस् + जस्, ‘अद' होकर जस् को 'शि' हुआ, पुन: 'द' को 'म' होकर 'अमानि' बनकर दीर्घ 'आ' को दीर्घ ऊ होकर 'अमूनि' बना। अद: अनि अमुष्मात् अमूभ्याम् अमीभ्यः अमू अमूनि अमुष्य अमुयोः अमीषाम अमुना अमूभ्याम् अमीभिः अमुष्मिन् अमुयोः अमीषु अमुष्मै সমুজা अमीभ्यः दोषः दोषः दोषाम् अमू Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कातन्त्ररूपमाला त्वन्मदोरेकत्वे ॥३४६॥ एकत्वे वर्तमानयोर्युष्मदस्मदो: स्थाने वन्मदौ भवतः । त्वमहं सौ सविभक्त्योः ।।३४७॥ युष्मदस्मदो: सविभक्त्योस्त्वमहमित्येतौ भवत: सौ परे । त्वं । अहं । युवावौ द्विवाचिषु ॥३४८ ॥ युष्मदस्मदो: युदाबौ द्विवाचिषु भवत: । अन्तलोपे सति अमौ चाम्॥३४९ ।। युष्मदादिभ्यः परः अम् औ च आम् भवति । सवर्णदीर्घः । युवां । आवां । यूयं वयं जसि ॥३५० ।। युष्मदस्मदो: सविभक्त्योयूयं वयमित्येतौ भवतो जसि परे। यूयं । वयं । त्वन्मदोरेकत्वे इति त्वत् अम्। मत् अम् इति स्थिते एषां विभक्तावन्तलोपः ॥३५१ ।। एषां युष्मदादीनां अन्तस्य लोपो भवति विभक्तौ परतः । सवर्णे दीर्घ: । त्वां । मां । युवां । आवां । हकारांत शब्द अप्रसिद्ध है। इस प्रकार से व्यञ्जनांत नपुंसकलिंग समाप्त हुआ। अब व्यञ्जनान्त अलिंग युष्मद, अस्मद् शब्द कहे जाते हैं। युष्मद् + सि, अस्मद् +सि हैं। एकवचन में वर्तमान युष्मद् अस्मद, शब्द को 'त्वद, मद्' आदेश हो जाता है ॥३४६ ॥ सि विभक्ति सहित युष्मद, अस्मद् शब्द में 'त्वम् अहं' आदेश हो जाता है ॥३४७ ॥ अत: त्वम्, अहं शब्द बन गये। युष्मद् + औं, अस्मद् + औ युष्मद् अस्मद् को द्विवचन में 'युव, आव' आदेश हो जाता है ॥३४८ ॥ युष्मद् अस्मद् से परे 'अम्' और 'औ' विभक्ति को 'आम्' आदेश हो जाता है ॥३४९ ॥ युव+आम्, आव + आम् सवर्ण को दीर्घ होकर युवाम, आवाम् बना। युष्मद् + जस्, अस्मद् + जस् जस् विभक्ति के आने पर विभक्ति सहित युष्मद् अस्मद् शब्द को यूयम्, वयम् आदेश हो जाता है ॥३५० ॥ अत: “यूयं, बयं," बना। युष्मद् + अम्, अस्मद् + अम् है । “त्वन्मदोरेकत्वे" सूत्र से लत, मत् आदेश होकर “अमौ चाम्" सूत्र से अम् को 'आम्' आदेश हुआ। विभक्ति के आने पर युष्मद्, अस्मद् के अन्त का लोप होता है ॥३५१ ॥ इस सूत्र से त्वत् मत् के, तकार का लोप होकर संधि होकर त्वाम्, माम् बना । युष्मद् + शम्, अस्मद् + शस् हैं । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्तेष्वलिङ्गाः १२९ आन् शसः ॥३५२॥ युष्मदादिभ्यः परस्य शस् आन् भवति । युष्मान् । अस्मान् । एत्वमस्थानिनि ॥३५३॥ मुपदादीनापजाय इन भावगणानिनि अनादेशिनि प्रत्यये परे । त्वया । मया। आत्वं व्यञ्जनादौ ।।३५४॥ युष्मदादीनामन्तस्य आत्वं भवति व्यञ्जनादौ विभक्तो आदेशवर्जिते प्रत्यये परे। युवाभ्यां । आवाभ्यां । युष्माभिः । अस्माभिः । तुभ्यं मह्यं उयि ॥३५५॥ युष्मदस्मदोः सविभक्त्योः तुभ्यं मह्यमित्येतौ भवतो ङयि परे । तुभ्यं मह्यं । युवाभ्यां । आवाभ्यां । भ्यसभ्यम् ।।३५६ ॥ एभ्यो युष्मदादिभ्य: परो भ्यस् अभ्यं भवति । युष्मभ्यं । अस्मभ्यं । युष्मद् आदि से परे शस् को 'आन्' हो जाता है ॥३५२ ॥ पुन: ३५१वें सूत्र से अंत दकार का लोप होकर 'युष्मान, अस्मान्' बना। युष्मद् +टा अस्मद् +टा, ३४६वें सूत्र से त्वत्, मत् हो गया। जिसके स्थान पर कोई आदेश न हो वह अनादेश प्रत्यय कहलाता है। टा-ओस् अनादेश वाले प्रत्यय के आने पर युष्मद, अस्मद् के अन्त को 'ए' हो जाता है ॥३५३ ।। मतलब 'टा' को 'अन' आदेश होता है। एवं सूत्र १३६ से त्व के अ का लोप होकर त्वे 'मे' आदेश होकर त्वे + आ, मे + आ संधि होकर 'त्वया, मया' बन गया। युष्मद् + भ्याम्, अस्मद् + भ्याम् हैं। 'युवावौ द्विवाचिषु' सूत्र से युव, आव करकेआदेश वर्जित व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर युष्मदादि को 'आ' हो जाता है ॥३५४ ॥ अत: 'युवाभ्याम्, आवाभ्याम्' बना। युष्मद् + भिस्, अस्मद् + भिस् है। ३५१वें सूत्र से अंत के द् का लोप एवं ३५४वे सूत्र से 'आकार' होकर 'युष्माभिः, अस्माभिः' बना। युष्मद् + डे, अस्मद् + डे है। ड़े विभक्ति के आने पर विभक्ति सहित युष्मद्, अस्मद् को तुभ्यं, मह्यं आदेश हो जाता है ॥३५५ ॥ अत: तुभ्यं, मह्यं बना। युष्मद् + भ्यसः अस्मद् + भ्यस् युष्मदादि से परे 'भ्यस्' को 'अभ्यं' हो जाता है ॥३५६ ॥ पुन: ३५१३ सूत्र से युष्मद्, अस्मद् के अंत के द् का लोप होकर एवं १३६वें सूत्र से अ का लोप होकर 'युष्मभ्यं, अस्मभ्यं' बना।। युष्मद् + ङसि, अस्मद् +सि है। 'त्वमदोरेकत्वे' सूत्र से त्वत्, मत् आदेश करके Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० कातन्त्ररूपमाला (आदिलोपोऽन्त्यलोपच मध्यलोपस्तथैव च। विभक्तिपदवर्णात दश्यते शावत्रिक ॥१॥ अत् पञ्चम्यद्वित्वे ॥३५७ ।। एभ्यो युष्मदादिभ्यः परा अद्वित्वे वर्तमाना पञ्चम्यद् भवति । त्वत् । मत्। युवाभ्यां । आवाभ्यां । युष्मत् । अस्मत्। तव मम ङसि ॥३५८ ।। युष्मदस्मदोः सविभक्त्योस्तव मम इत्येतौ भवतो इसि परे । तब । मम । युवयोः । आवयोः । सामाकम् ॥३५९ ।। युष्मदादिभ्य: पर: सागमयुक्त आम् आकम् भवति । युष्माकं । अस्माकं । त्वयि । मयि । युवयोः । आवयोः । युष्मासु । अस्मासु । एवं नीतक । त्वं युवां यूयं । त्वां युवा युष्मान् । त्वया युवाभ्यां युष्माभिः । श्लोकार्य-शार्ववर्म आचार्य के व्याकरण में विभक्ति पद के वर्गों में आदि का लोप, अंत का लोप और कभी मध्य का लोप देखा जाता है ॥१॥ . युष्मद् आदि से परे द्विवचन रहित पंचमी विभक्ति को 'अद्' आदेश हो जाता है ॥३५७ ।। अत: स्वत् + अत्, मत् + अत्, रहा। उपर्युक्त श्लोक के आधार से त्वत्, मत् के त् का लोप होकर १३६वे सूत्र से 'त्व म' के अकार का लोप होकर 'त्वत् मत्' बना । ऐसे ही युष्मद् + ध्यस्, अस्मद् + भ्यस् है। भ्यस् को ३५७वे सूत्र से 'अत्' होकर ३५१वें सूत्र से युष्मद् के द् का लोप एवं १३६वें सूत्र से 'अ' का लोप होकर 'युष्मत्, अस्मत्' बना । युष्मद् + ङस्, अस्मद् + ङस् है। डस् विभक्ति के आने पर विभक्ति सहित युष्मद्, अस्मद् को तव, मम आदेश हो जाता है ॥३५८ ॥ अत: 'तव, मम' बना। युष्मद् + ओस्, अस्मद् + ओस है ‘युवावौ द्विवाचिषु' सूत्र से 'युव, आव' आदेश होकर "ओसि च" सूत्र से एकार होकर एवं संधि होकर 'युवयोः, आवयो:' बना । युष्मद् + आम्, अस्मद् + आम् युष्मद् आदि से परे आम् को सकार सहित 'आकम्' आदेश हो जाता है ॥३५९ ।। पुन: ३५१वें सूत्र से दकार का लोप होकर 'युष्माकम्, अस्माकम्' बन गया। युष्मद् + ङि, अस्मद् + डि है। 'त्वन्मदोरेकत्वे' सूत्र से 'त्वत्, मत्' होकर ३५१वें सूत्र से त्वत, मत् के अंत का लोप होकर ३५३वें सूत्र से अंत को एकार होकर संधि होकर त्वे + इ + इ = त्वयि, मयि बना । युष्मद् + सु, अस्मद् +सु ३५१वें सूत्र से दकार का लोप होकर ३५४वें सूत्र से आकार होकर 'युष्मासु, अस्मासु' बना। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्तेष्वलिङ्गाः तुभ्यं युवाभ्यां युष्मभ्यं । त्वत् युवाभ्यां युष्मत् । तव युवयो: युष्माकं । त्वयि युवयो: युष्मासु ।। अहं आवा वयं । मां आवां अस्मान् । मया आवाभ्यां अस्माभिः । मह्यं आवाभ्यां अस्मभ्यं । मत् आवाभ्यां अस्मत् । मम आवयोः अस्माकं । मयि आवयो: अस्मासु । ग्रामो युष्माकं । ग्रामोऽस्माकं । स प्रामो युष्मभ्यं दीयते । ग्रामोऽस्मभ्यं दीयते । ग्रामो युष्मान् रक्षति । ग्रामोऽस्मान् रक्षति । इति स्थिते युष्मदस्मदोः पदं पदात्षष्ठीचतुर्थीद्वितीयासु वसनसौ ॥३६० ॥ पदात्परं यष्मदस्मदो: पदं षष्ठीचतींद्वितीयास बहत्वे निष्पन्नं वस्नसावापद्यते यथासंख्यं । ग्रामो व स्वं । ग्रामो नः स्वं । ग्रामो वो रक्षति । ग्रामोनो रक्षति । इति सिद्ध। ग्रामो यवयोः स्वं । ग्राम आवयोः यवाभ्यां दीयते । ग्राम आवाभ्यां दीयते । ग्रामो यवां रक्षति 1 ग्राम आवां रक्षति । इति स्थिते स्वं युवाभ्याम् त्वम् त्वाम् त्वया तुभ्यम युदयोः युष्मद्-तुम यूयम त्वत् युष्मान् तव युष्माभिः त्वयि युष्मभ्यम् युवाम् युवा युवाभ्याम् युवाभ्याम् युष्मत् युष्माकम् युष्मासु युवयोः माम् अहं आवाम् वयम् । मत् आवाभ्याम् अस्मत् आवाम् अस्मान् । मम आवयोः अस्माकम मया आवाभ्याम् अस्माभिः । मयि आवयोः अस्मासु मा आवाभ्याम् अस्मभ्यम् इन युष्मद, अस्मद् शब्दों की षष्ठी, चतुर्थों और द्वितीया के बहुवचन में वाक्य बनाते समय लघु आदेश भी हो जाते हैं। उन्हें यहाँ बताते हैं। ग्रामो युष्माकं तुम्हारा गाँव। ग्रामोऽस्माकम् हमारा गाँव । स ग्रामो युष्मभ्यम् दीयते—वह गाँव तुम लोगों के लिये दिया जाता है। ग्रामोऽस्मभ्यं दीयते—ग्राम हम लोगों को दिया जाता है। ग्रामो युष्मान् रक्षति— गाँव तुम सबकी रक्षा करता है। ग्रामोऽस्मान् रक्षति—ग्राम हम लोगों की रक्षा करता है। उदाहरण के लिये ये वाक्य दिये गये हैं षष्ठी-युष्माकम् चतुर्थी—युष्मभ्यं द्वितीया–युष्मान् षष्ठी-अस्माकम् चतुर्थी—अस्मभ्यं द्वितीया-अस्मान् पद से परे षष्ठी, चतुर्थी और द्वितीया के बहुवचन में बने हुए युष्मद् अस्मद् पद को क्रम से 'वस्, नस्' आदेश हो जाता है ॥३६० ॥ अर्थात् युष्मद् को वस् और अस्मद् को नस् आदेश हो जाता है। अत: वस, नस् के स् को विसर्ग होकर “व. न' बना । उपर्युक्त वाक्यों में युष्माकम् अस्माकम् आदि के स्थान में इन 'वन;' का प्रयोग कीजिये। यथा-ग्रामो वः स्वं— गाँव तुम लोगों का धन है। 'ग्रामो न: स्वं-गाँव हम लोगों का धन है। ग्रामो वो दीयते--गाँव तुम सबको दिया जाता है । ग्रामो नो दीयते-गाँव हम लोगों को दिया जाता है। ग्रामो वो रक्षति— गाँव तुम लोगों की रक्षा करता है। ग्रामो नो रक्षति---गाँव हम लोगों की रक्षा करता है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला वाग्नौ द्वित्वे ।।३६१ ।। पदात्परं युष्मदस्मदोः पदं षष्ठीचतुर्थीद्वितीयासु द्वित्वे निष्पत्रं वाम्पौ आपद्यते यथासंख्यं । ग्रामो वां स्वं । ग्रामो नौ स्वं । ग्रामो वां दीयते । ग्रामो नौ दीयते । ग्रामो वां रक्षति । ग्रामो नौ रक्षति । ग्रामस्तव स्वं । ग्रामो मम स्वं । ग्रामस्तुभ्यं दीयते । ग्रामो मह्यं दीयते । ग्रामस्त्वां रक्षति । ग्रामो मां रक्षति । इति स्थिते १३२ त्वन्मदोरेकत्वे ते मे त्वा मा तु द्वितीयायां ॥ ३६२ ॥ युष्मदस्मदोरेकत्वे त्वन्मदी भूतयोः पदं पदात्परं षष्ठीचतुर्थीद्वितीयासु एकत्वे निष्पन्नं ते मे आपद्यते त्वामा तु द्वितीयायां । ग्रामस्ते स्वं । ग्रामो मे स्वं । ग्रामस्ते दीयते । ग्रामो मे दीयते । ग्रामस्त्वा रक्षति । ग्रामो मा रक्षति । इति सिद्धं । न पादादौ ।।३६३ || पादस्यादौ वर्तमानानां युष्मदादीनां पदमेतानादेशान्न प्राप्नोति । अब इन्हीं षष्ठी चतुर्थी और द्वितीया के द्विवचन के आदेश को दिखायेंगे। यथा - ग्रामः युवयोः स्वं गाँव तुम दोनों का धन है। ग्राम आवयोः स्वं — गाँव हम लोगों का धन है। ग्रामो युवाभ्यां दीयते--गाँव तुम दोनों को दिया जाता है। ग्राम आवाभ्यां दीयते - गॉव हम दोनों को दिया जाता है। ग्रामो युवां रक्षति --- गाँव तुम दोनों की रक्षा करता है। ग्राम आवां रक्षति — गाँव हम दो की रक्षा करता है । द्वि में 'बा' आदेश हो जाता है । ३६९ ॥ I - पद से परे षष्ठी चतुर्थी और द्वितीया के द्विवचन में निष्पन्न युष्मद् पद को 'वाम्' और अस्मद् को 'नौ' आदेश हो जाता है। अब आदेश हुए पदों का उदाहरण देखिये। ग्रामो वां स्वं-गाँव तुम दोनों का धन है। ग्रामो नौ स्वं — गाँव हम दोनों का धन है। ग्रामो वां दीयते— गाँव तुम दोनों को दिया जाता है ग्रामो नौ दीयते - गाँव हम दोनों को दिया जाता है। ग्रामो वां रक्षति --गाँव तुम दो की रक्षा करता है ग्रामो नौ रक्षति - गाँव हम दोनों की रक्षा करता हैं। अब षष्टी, चतुर्थी और द्वितीया के एकवचन के आदेश को देखिये । पद से परे षष्ठी, चतुर्थी के एकवचन में युष्मद् को 'ते' और अस्मद् को 'मे' तथा द्वितीया के एकवचन में 'त्वा', 'मा' आदेश होता है ॥ ३६२ ॥ यथा - ग्रामस्तव स्वं - ग्रामस्ते स्वं ग्रामो मम स्वं - ग्रामो मे स्वं । ग्रामस्तुभ्यं दीयते— ग्रामो ते दीयते । ग्रामो मह्यं दीयते ग्रामो मे दीयते । ग्रामस्त्वां रक्षति - ग्रामस्त्वा रक्षति । ग्रामो मां रक्षति – ग्रामो मा रक्षति । इस प्रकार से ये उपर्युक्त आदेश सिद्ध हो गये । पाद की आदि में ये आदेश नहीं होते हैं ॥ ३६३ ॥ श्लोकों के पाद की आदि में वर्तमान युष्मद् अस्मद् को ये उपर्युक्त आदेश प्राप्त नहीं होते हैं। यथा वीरो विश्वेश्वरो देवो, युष्माकं कुलदेवता । यहाँ 'युष्माकं पद द्वितीय पाद की आदि में है । अतः इसे वः आदेश नहीं हुआ। उसी प्रकार स एव नाथो भगवान्। अस्माकं पापनाशनः ॥ यहाँ 'अस्माकं ' पद चतुर्थ पाद की आदि में है। अतः उसे 'नः' आदेश नहीं होगा। उसी प्रकार से आगे के श्लोक में द्वितीय चरण की आदि में युष्माकं को 'वः' एवं चतुर्थ चरण की आदि में अस्माकं को 'न' नहीं हुआ । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनान्तेष्वलिङ्गाः १३३ वीरो विश्वेश्वरो देवो युष्माकं कुलदेवता । स एव नाथो भगवानस्माकं पापनाशन: ॥१॥ भगवानीश्वरो भूयाधुष्माकं वरदः प्रभुः ।। सद्यो निराकृता दूरमस्माकं येन विद्विषः ॥२॥ पादादाविति किं ? पान्तु व: पार्वतीनाथमौलिवन्द्रमरीचयः । आमन्त्रणात्॥३६४।। आमन्त्रणात्परं युष्मदादीनां पदमेतानादेशान्न प्राप्नोति । हे पुत्र तव स्वमिदं । हे पुत्र मम स्वमिदं । हे पुत्र त्वां रक्षति। चादियोगे च ॥३६५ ॥ चादीनां योगे युष्मदादीनां पदमेतानादेशात्र प्राप्नोति । पुत्रो युष्माकं च । पुत्रोऽस्माकं च । पुत्रो युष्मभ्यं च दीयते । पुत्रोऽस्मभ्यं च दीयते । पुत्रो युष्मांश्च रक्षति । पुत्रोऽस्मांश्च रक्षति । चादयः कति ? पञ्च । ते के ? च वा ह अह एव इति वादयः । दृश्याथैश्चानालोचने ॥३६६ ॥ अचक्षुरालोचने वर्तमानैदृश्यार्थैर्धातुभियोगे युष्मदस्मत्त्वन्मदादीनां वस्नसादयो न भवन्ति । अनालोचनमिति किम् ? आलोचनं चक्षुर्ज्ञानमनालोचनं मनसा ज्ञानं । ग्रामस्त्वां समीक्षते। ग्रामो मां श्लोकार्थ—विश्व के ईश्वर वीर भगवान् शुम लोगों के कुल देवता हैं। वे ही भगवान् नाथ हैं; हम लोगों के पाप का नाश करने वाले हैं। भगवान ईश्वर तम लोगों के लिये वर देने में: होवें, जिन्होंने तत्काल ही हम लोगों के लिये शत्रुओं को दूर कर दिया है ॥२॥ प्रश्न—पाद की आदि में ये आदेश नहीं होंगे; ऐसा क्यों कहा ? उत्तर-पांतु व: पार्वतीनाथ, मौलिचन्द्र मरीचयः। इस श्लोक में 'व:' आदेश प्रथम पाद की आदि में न होकर आदि में पांतु पद है; अत: यहाँ आदेश हो गया। आमंत्रण से परे भी युष्मद, अस्मद् के पद को उपर्युक्त आदेश नहीं होते हैं ॥३६४ ॥ यथा-हे पुत्र ! तव स्वं इदं-हे पुत्र ! तुम्हारा यह धन है। इसमें संबोधन से परे 'तव' को 'ते' नहीं हुआ ऐसे ही आगे सभी के उदाहरण समझ लेना चाहिये। 'च' आदि के योग में भी आदेश नहीं होता है ॥३६५ ॥ 'च' आदि के योग में युष्मद् अस्मद् के पद को उपर्युक्त आदेश नहीं होता है । जैसे—पुत्रो युष्माकं च—और तुम लोगों का पुत्र है। आगे सभी के उदाहरण समझ लीजिये। चादि शब्द में आदि से कितने लेना ? पाँच लेना । वे कौन हैं ? च, वा, हू, अह और एव पाँच शब्द 'वादि' से लिये गये हैं। इनके योग में स् व: न: आदि आदेश नहीं होते हैं। अचक्षु से देखने अर्थ में दृश्य अर्थ वाले धातु के योग में उपर्युक्त आदेश नहीं होते हैं ॥३६६ ॥ यदि देखने अर्थ वाली धातुओं का अर्थ चक्षु से नहीं देखने अर्थ में विद्यमान हो तो देखने अर्थ वाली धातओं के योग में युष्मद अस्मद को वस नस आदि आदेश नहीं होते हैं। प्रश्न-सूत्र में अनालोचन पद क्यों है ? चक्षु के ज्ञान को यहाँ 'आलोचन' शब्द से कहा है और मन से होने वाले ज्ञान को 'अनालोचन' शब्द से कहा हैं ॥ जैसे ग्रामस्त्वां समीक्षते-— गाँव तुमको देख रहा है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कातन्त्ररूपमाला समीक्षते। ग्रामो युष्मभ्यं दीयमान: समीक्षते । ग्रामोऽस्मभ्यं दीयमान: समीक्षते। ग्रामस्त्वां मनसा विलोकयति । वाञ्छतीत्यर्थ: । मनसेति किं ? ग्रामो वः पश्यति । ग्रामो नः पश्यति । चक्षुषेत्यर्थ: । इत्यलिंगाः अथाव्ययान्युच्यन्ते अव्ययमसंख्यं । तानि कानि ? स्वर प्रातर पुनर अन्तर् बहिर् च, का, ह, अह, एव, प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव्, निर्, दुर, वि, आ न, अति, अपि, आंध, सु, डा, आंभ, प्रांत, परि, उप, इत्यादि प्रादयो विंशतिः । विना, नाना, अन्तर् नो, अथ, अथो, अहो, पृथक्, यावत्, तावत्, मनाक्, वषद, ईषत, हिं, यदि, खलु, ननु, तिर्यक, मिथ्या, किल, हन्त, वै, तु।। अव्ययाच्च ॥३६७॥ अव्ययाच परासां विभक्तीनां लुग्भवति । (सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु । __ वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् ॥१॥ इत्यव्ययानि। यहाँ गाँव चक्षु से नहीं देख रहा है अत: त्वा' आदेश नहीं हुआ। ऐसे ही सभी पदों के उदाहरण समझ लेना। यहाँ 'ग्रामस्त्वां समीक्षते' और 'ग्रामो युष्मभ्यं दीयमान: समीक्षते' वाक्यों का यह अर्थ है कि “यह गाँव तुमको मन से देख रहा है। और यह गाँव तुम्हारे लिये वाच्छा कर रहा है।"प्रश्न--मन से देखता है ऐसा क्यों कहा ? उत्तर--"ग्रामो वः पश्यति' यहाँ व: आदेश हुआ है अत: ग्राम तुमको चक्षु से देखता है । ऐसा अर्थ लेना चाहिये । अर्थात् गाँव के निवासी तुम्हें चक्षु से देख रहे हैं ऐसा अभिप्राय है। यहाँ ये युष्मद् अस्मद् शब्द तीनों लिंगों में समान रूप से चलते हैं इनमें लिंग भेद नहीं है अतएव इन्हें 'अलिंग' कहा है। इस प्रकार से अलिंग प्रकरण पूर्ण हुआ । अथ अव्यय प्रकरण कहा जाता है। अव्यय किसे कहते हैं ? जिनके रूप न चले अर्थात् जिनका किसी भी विभक्ति के आने पर व्यय... परिवर्तन--विनाश न होवे उसे अव्यय कहते हैं । वे अव्यय कितने हैं ? ये अव्यय असंख्य हैं । वे कौन-कौन हैं ? सो बताते हैं। स्वर, प्रातर, पनर, अंतर, बहिर च, वा, है, अह, एव इत्यादि । इसी प्रकार से 'प्र' आदि बीस उपमर्ग माने गये हैं वे भी अव्यय है जैसे—प्र पस, अप, सम, अनु, अव, निर्, दुर्, वि, आङ, नि, अति, अपि, अधि, सु. उत, अभि, प्रति, परि, उप ये बीस उपसर्ग हैं। आगे और भी अव्यय हैं—विना, नाना, अन्तर, नो, अथ, अथो, अहो, पृथक्, यावत्, तावत्, मनाक्, वषट्, ईषत्, हि, यदि, खलु, ननु, तिर्यक्, मिथ्या, किल, हंत, वै, तु । अब-स्वर+सि है अव्यय से परे विभक्तियों का लुक हो जाता है ॥३६७ ॥ इस सूत्र से सि विभक्ति का लोप हुआ पुन: र् का विसर्ग होकर 'स्व:' बना । स्वर् + औ । उपर्युक्त सूत्र से विभक्ति का लोप होकर स्व: बना । इत्यादि। श्लोकार्थ—जो शब्द तीनों लिंगों में, सातों विभक्तियों में एवं एक, द्वि. बहुवचनों में समान ही रहे जिसमें कोई परिवर्तन न हो वह अव्यय कहलाता है । व्यय की प्राप्त न होवें वह अव्यय कहलाता है ।।१।। इस प्रकार से अव्यय प्रकरण समाप्त हुआ। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीप्रत्ययाः १३५ अथ प्रत्यया उच्यन्ते अव्ययसर्वनाम्नः स्वरादन्त्यात्पूर्वोऽक्कः ॥३६८ ॥ अव्ययानां सर्वनाम्नां चान्त्यात्स्वरात्पूर्वोऽक्प्रत्ययो वा भवति कप्रत्ययश्च बहुलं । बहुलमिति कि? क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः, क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधान बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलके वदन्ति ॥१॥ उच्चकैः । उच्चैः । नीचकैः । नीचैः । सर्वः । सर्वकः । विश्वः । विश्वकः । युष्मकाभिः । अस्मकाभिः । एभिः । इमकैः । अमीभिः । अमुकैः । भवन्तः । भवन्तकः । विभक्तेश्च पूर्व इष्यते ॥३६९।। विभक्तेश्च पूर्वोऽक्प्रत्ययो वा इष्यते । त्वया त्वयका । मया मयका। आख्यातस्य चान्त्यस्वरात्॥३७० ॥ आख्यातस्य चान्त्यस्वरात्पूर्वोऽक्प्रत्ययो वा भवति । पचति, पचतकि । भवन्ति भवन्तकि । इत्यादि । कप्रत्ययभ । यावकः । यामकः । मणिकः । वत्सकः । पुत्रकः । अश्वकः । वृक्षकः । देवदत्तक: । इत्यादि । के प्रत्यये स्वीकृताकारपरे पूर्वोऽकार इकारम् ॥३७१ ॥ के प्रत्यये स्वीकृताकारे परे पूर्वोऽकार इकारमापद्यते। सर्विका । विश्विका । उष्ट्रिका । पाचिका। मूषिका । कारिका । पाठिका । इत्यादि । अब प्रत्यय कहे जाते हैं। अव्यय और सर्वनाम के अन्त्य स्वर से पूर्व 'अक्' प्रत्यय हो जाता है अथवा बहुलता से 'क' प्रत्यय भी हो जाता है ॥३६८ ॥ बहुलं किसे कहते हैं ? श्लोकार्थ-कहीं पर प्रवृत्ति होवे, कहीं पर प्रवृत्ति न होवे, कहीं पर विकल्प होवे और कहीं पर अन्य रूप ही हो जावे, इस प्रकार विधि-नियम के विधान को बहुत प्रकार से देखकर 'बहुलता' को चार प्रकार कहते हैं ॥१॥ ___जैसे—उच्चस् अव्यय है अक् प्रत्यय अन्त्य स्वर के पूर्व में होने से उच्चकैस् बना विसर्ग होकर उच्चकै, ऐसे ही नीचे-नीचकैः, सर्वः सर्वकः । युष्पाभि: है अक् प्रत्यय, विभक्ति और अन्त्य स्वर के पूर्व में होने से युष्मकाभिः बना । एभि: को अक् प्रत्यय होकर 'इद' को इम हुआ पुनः अक् प्रत्यय मिलकर भिस् को ऐस् होकर इमकैः बना। 'अमीभिः' में भी अद् को अम् होकर अक् प्रत्यय होकर अमुकैः बना। विभक्ति से पूर्व अक् प्रत्यय विकल्प से होता है ॥३६९ ॥ अत: त्वया, त्वयका दो रूप बनेंगे। आख्यात से अन्त्य स्वर से पूर्व अक् प्रत्यय विकल्प से होता है ॥३७० ॥ अत: पचति और पचतकि दोनों बन गये। 'क' प्रत्यय भी होता है । जैसे—याम: यामक; पुत्रः, पुत्रक: इत्यादि । 'क' प्रत्यय के आने पर स्त्रीलिंग में आकार प्रत्यय करने पर पूर्व के अकार को इकार हो जाता है ||३७१ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ कातन्त्ररूपमाला नदाद्यञ्च् वाह् व्यंसन्तृसखिनान्तेभ्य ई॥३७२ ॥ स्त्रियां वर्तमानेभ्यो नदादि अञ्च वाह् उ इ, अंस् अन्त ऋ सखि नान्तेभ्य ई प्रत्ययो भवति । ईकारे स्त्रीकृतेऽलोप्यः ॥३७३ ॥ स्त्रियां वर्तमाने ईप्रत्यये परे पूर्वोऽकारो लोप्यो भवति । नदी मही भषी प्लवी कुमारी कित्ररी किशोरी प्रभतयः। अन। प्राची प्रतीची समीची उदीची तिरवीत्यादि । वाह । अनडडी (वा स्वीकारे) अनडवाही प्रष्टौही इत्यादि । उ । तन्वी । उवर्वी पृथ्वी । पदवी । इ–दाक्षी। देवदत्ती। धूली । अस् । श्रेयन्स्-श्रेयसी विदुषी प्रेयसी । अन्त् तदभादिभ्य ईकारे ||३७४ ।। तुदादिभ्यो भादिभ्यश्च परो अन्तिरनकारको वा भवति ईप्रत्यये परे । तुदती तुदन्ती स्त्री । भाती भान्ती स्त्री। स्यात् ।।३७५ ॥ स्यात्परोऽन्तिरनकारको वा भापति ईलाये परे । भविपी ममिती : नयनन्भ्यां ॥३७६ ।। यथा-'सर्वा' शब्द है स्त्रीलिंग का आकार प्रत्यय है अतः क प्रत्यय करने पर सर्वका पुन: इस सूत्र से पूर्व के 'अ' को इकार होकर 'सर्विका' बना । वैसे ही मूषिका, कारिका आदि सभी बन जायेंगे । __स्त्रीलिंग में वर्तमान नदादि अञ्च् वाह, उ, इ. अंस, अंत, ऋ सखि और नकारांत शब्दों से परे 'ई' प्रत्यय हो जाता है ॥३७२ ॥ अत: 'नद' शब्द है स्त्रीलिंग में 'ई' प्रत्यय हुआ पुन:स्त्रीलिंग में 'ई' प्रत्यय के होने पर पूर्व के अकार का लोप हो जाता है ॥३७३ ।।। नद के अकार का लोप होकर 'नदी' बना, ऐसे ही कुमार के 'अ' का लोप होकर 'कुमारी' बना । अञ्च धातु से बने हुए शब्दों के रूप—प्राञ्च में 'ई' प्रत्यय होकर अनुषंग का लोप होकर अञ्जेरलोष: पूर्वपदस्य दीर्घ: इस सूत्र से दीर्घ होकर प्राची बना। ऐसे ही प्रतीची, उदीची, तिश्ची बना। वाह–अन्डुही-अनड्वाही ३४०वें सूत्र से विकल्प से वा को उ हुआ है। अत: बना । प्रष्ठौही । उकारांत शब्दों में-तनु उरु से तन्वी, उर्वी बना। पृथु से पृथ्वी, पटु से पदवी आदि। इकारान्त शब्दों में दाक्षि से दाक्षी दैवदत्ति से दैवदत्ती बना । अन्स्–श्रेयसी, विदुषी, प्रेयसी बना। अन्त् से ईकारांत स्त्री प्रत्यय के आने पर तुदादि और भादि से परे अंत के नकार का लोप विकल्प से होता है ॥३७४ ॥ तुदती, तुदन्ती, भाती, भान्ती बना। 'स्य' से परे अंत में नकार का लोप विकल्प से होता है। ई प्रत्यय के आने पर ॥३७५ ॥ भविष्यती, भविष्यन्ती बना।। यन् अन् विकरण से परे स्त्रीलिंग ईकार के आने पर अन्त में नकार का लोप नहीं होता है ॥३७६ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीप्रत्ययाः १३७ . यन् अन् विकरणाभ्यां परोऽन्तिरनकारको न भवति ईकारे परे । दीव्यन्ती सीव्यन्ती पचन्ती गच्छन्ती स्त्री इत्यादि । न यनन्भ्यामिति किं ? सुन्वती तन्वती क्रीणती सती आयुष्मती धनवती इत्यादि । ऋ। कत्रों ही भर्ती क्रोष्ट्री इत्यादि । सखि । सखी 1 इवर्णावर्णयोर्लोपः । नान्तात् स्वीकारे नित्यमवमसंयोगादनोऽलोपोऽलुप्तवच्च पूर्वविधौ ॥३७७ । . __ अवमसंयोगादनोऽलोपो नित्यं भवति स्वीकारे परे । राज्ञी दण्डिनी गोमिनी तपस्विनी यशस्विनी । वरुणेन्द्रमृडभवशर्वरुद्रादान् ।।३७८ ।। एभ्य: परो आन् प्रत्ययो भवति । तेभ्यश्च ई प्रत्यय: । वरुणानी शर्वाणी मृडानी इन्द्राणी भवानी रुद्राणी । नान्तसंख्यास्वस्त्रादिभ्यो न॥३७९ ।। नान्तेभ्य: संख्यादिभ्यः स्वस्रादिभ्यश्च ईप्रत्ययो न भवति । पञ्चदश । तिस्रः । चतस्त्र: । आदि शब्दात् सीमा दामा । बहवो राजानो यस्यां पुर्यां सा बहुराजा। स्वसा माता दुहितेत्यादि । इति प्रत्ययान्ताः अत: दोव्यन्त का दीव्यन्ती, पचन्त का पचन्ती बना। प्रश्न-यन्, अन् विकरण के आने पर 'न' का लोप नहीं होता ऐसा क्यों कहा ? तो सुन्वती, क्रीणन्ती सन्त-सती आदि। धनवन्त्-धनवती बनता है। इसकी सिद्धि के लिये ऋकारान्त-कर्तृ-कत्रों, ही, भीं बना । सखि -सखी बना । नकारांत में-दण्डिन् तपस्विन्–दण्डिनी, तपस्विनी बना । राजन् + ई. स्त्रीलिंग में-- नकारांत से स्त्रीलिंग में प्रत्यय करने पर 'व म', का संयोग न होने से अन् के 'अ' का लोप हो जाता है ॥३७७ ॥ अतः राजन् + ई-राज्ञी बना।। वरुण, इन्द्र, मृड भव, शर्व, रुद्र शब्दों से ई प्रत्यय के आने पर आन् का आगम हो जाता है ॥३७८ ॥ अत: वरुणानी, इन्द्राणी, शर्वाणी आदि बना । नकारांत संख्यावाची शब्द और स्वस आदि से स्त्रीलिंग में 'ई' प्रत्यय नहीं होता है ॥३७९ ॥ पंच, दश, तिस्त्र:, चतस्रः आदि बने । आदि शब्द से सीमन् दामन है तो सीमा, दामा बना। ___ बहुत राजा है जिस पुरी में उसे कहते हैं बहुराजा नगरी । ऐसे ही स्वसा, माता दुहिता आदि शब्दों में स्त्रीलिंग प्रत्यय नहीं होते हैं। इस प्रकार से स्त्रीलिंग प्रत्यय प्रकरण समाप्त हुआ। १.स्वीकारे नित्यं ॥३८३ ॥ अवमसंयोगादनोऽलोपो नित्यं भवति स्वीकारे परे स चालुप्तवद्भवति पूर्वस्थवर्णस्य विधौ कर्तव्ये। राज्ञी । इति समीचीन दश्यते । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कातन्त्ररूपमाला अथ कारकं किञ्चिदुच्यते किं कारकं ? करोति क्रियां निर्वर्तयतीति कारकं । कस्मिन्नर्थे प्रथमा विभक्तिः ? कर्तरि प्रथमा । कः कर्ता ? यः करोति स कतां ॥ ३८० ॥३ यः क्रियां करोति स कर्तृसंज्ञो भवति । देवदत्तः करोति । मुनिरधीते । यज्ञदत्तौ लुनीतः । यती पठतः । विष्णुमित्रा गच्छन्ति | साधवोऽनुतिष्ठन्ति । इत्यादि । कस्मिन्नर्थे द्वितीया ? कर्मणि द्वितीया । किं कर्म ? यत्क्रियते तत्कर्म ॥ ३८१ ॥ I कर्त्रा यत्क्रियते तत्कारकं कर्मसंज्ञं भवति । कुम्भं करोति । काष्ठं छिनत्ति मार्ग रुणद्धि । स्तनौ पिबति । गुरून् वन्दते । इत्यादि । द्वितीयैनेन ॥३८२ ॥ एनप्रत्ययान्तेन योगे लिङ्गाद् द्वितीया भवति । अदूरे एनोऽपञ्चम्या दिग्वाचिनः || ३८३ ॥ अदूरार्थे दिग्वाचिनः पर एनप्रत्ययो भवति अपञ्चम्याः । अपञ्चम्या इति कोऽर्थः ? द्वितीयायाः । गणनया पञ्चमी विभक्तिः षष्ठी । तेन षष्ठ्यर्थे द्वितीया भवति । अदूरवर्तीन्यां पूर्वस्यां द्विशीत्यर्थः ॥ पूर्वेण ग्रामं । उत्तरेण गिरिं । दक्षिणेन नदीं । पश्चिमेन केदारमित्यादि । चकारात्रिकषासमयाहाधिगन्तरान्तरेण संयुक्ताद् लिङ्गाद् द्वितीया भवति । निकषा ग्रामं । समया वनम् | हा देवदत्तम् । धिग् यशदत्तं । अन्तरा गार्हपत्यमाहवनीयं च वेदिः । अन्तरेण पुरुषाकारं न किञ्चिल्लभते । है अथ किंचित् कारक प्रकरण कहा जाता कारक किसे कहते हैं ? जो क्रिया को करता है, बनाता है वह कारक है। किस अर्थ में प्रथमा विभक्ति होती है ? कर्ता अर्थ में प्रथमा विभक्ति होती है । कर्ता किसे कहते हैं ? I जो क्रिया को करता है वह कर्ता कहलाता है ॥ ३८० ॥ जो क्रिया को करता उस की कर्तृ संज्ञा होती है। जैसे 'देवदत्त करता है, मुनि पढ़ते हैं, दो यज्ञदत्त काटते हैं। दो मुनि पढ़ते हैं। विष्णुमित्र जाते हैं। बहुत से साधु पीछे बैठते हैं। इत्यादि । किस अर्थ में द्वितीया विभक्ति होती है ? कर्म अर्थ में द्वितीया होती है। कर्म किसे कहते हैं ? जो किया जाता है वह कर्म है | ३८१ ॥ कर्ता के द्वारा जो किया जाता है वह कारक कर्म संज्ञक हैं। जैसे कुम्भं करोति — घड़े को बनाता है । काष्ठं छिनत्ति --- लकड़ी को काटता है। मार्ग रुणद्धि-मार्ग को रोकता है। स्तनौ पिबति - बालक माता के स्तन पीता हैं । गुरून् वंदते - शिष्य गुरुओं की वंदना करता है । इत्यादि । एन प्रत्यय के योग में द्वितीया होती है ॥ ३८२ ॥ एन प्रत्यय जिसके अन्त में है ऐसे शब्दों के योग में लिंग से द्वितीया विभक्ति हो जाती हैं । अदूर अर्थ में दिग्वाची से परे अपञ्चमी से एन प्रत्यय होता है ॥३८३ ॥ निकटवर्ती अर्थ में दिग्वाची शब्दों से परे पंचमी अर्थ के बिना 'एन' प्रत्यय होता है। 'अपञ्चम्या: ' इस शब्द से क्या अर्थ लेना ? षष्ठी विभक्ति के अर्थ में द्वितीया विभक्ति होती है यह अर्थ लेना । अर्थात् द्वितीया विभक्ति होने पर भी अर्थ षष्ठी का निकलता है। जैसे 'पूर्वेण ग्रामं' यहाँ पूर्वेण में एन प्रत्यय है और दिशावाची शब्द हैं अतएव ग्राम में षष्ठी न होकर द्वितीया हुई है इसका अर्थ है कि 'ग्राम के निकटवर्ती पूर्व दिशा में' ऐसे ही 'उत्तरेण गिरिं पर्वत के निकटवर्ती उत्तर दिशा में । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकाणि सर्वोभयाभिपरिभिस्तसन्तैः ॥२८४ ॥ तसन्तैः सर्वादिभियोगे लिङ्गमाद् द्वितीया भवति । सर्वतो ग्राम वनानि । उभयतो ग्रामं क्रमुकवनानि । अभितो ग्रामं पत्रवनानि । परितो ग्रामं रंभावनानि । कर्मप्रवचनीयैश्च ॥३८५॥ कर्मप्रवचनीयैोंगे लिङ्गाद् द्वितीया भवति । के कर्मप्रवचनीया: ? लक्षणवीत्सेप्थंभूतेऽभिर्भागे च परिप्रती । अनुरेषु सहार्थे च होने चोपच कथ्यते ॥१॥ दक्षिणेन नदी नदी के निकटवर्ती दक्षिण दिशा में। पश्चिमेन केदारम्-खेत के निकटवर्ती पश्चिम दिशा में । इत्यादि। चकार से ऐसा समझना कि निकषा, समया, हा, धिक् अंतरा, अंतरेण इनसे संयुक्त लिंग से भी द्वितीया विभक्ति होती है । यथा--- निकषा ग्राम-ग्राम के निकट । समया वन-वन के पास। हा देवदत्तं-हाय ! देवदत्त को। धिक् यज्ञदत्तं यज्ञदत्त को धिक्कार हो। अंतरा गार्हपत्यमाहवनीयं च वेदि:-गार्हपत्य अग्नि और आहवनीय अग्नि के बीच में वेदी है। अंतरेण पुरुषाकारं न किश्चिद् लभते-पुरुषार्थ के बिना कुछ भी नहीं मिलता है। तस् प्रत्यय जिसके अन्त में है ऐसे सर्व, उभय, अभि और परि के योग में लिंग से द्वितीया होती है ॥३८४ ॥ जैसे-सबतो ग्रामं वनानि -गाँव के चारों तरफ वन है। उभयतो ग्राम क्रमकवनानि--गाँव के दोनों तरफ सुपारी के वन हैं। अभितो ग्राम पत्रवनानि-गाँव के चारों तरफ पत्ते के वन हैं। परितो ग्राम र भावनानि-गाँव के सब तरफ केले के वन हैं। कर्मप्रवचनीय अर्थ के योग में द्वितीया होती है ॥३८५ ॥ कर्म प्रवचनीय कौन-कौन हैं ? श्लोकार्थ-लक्षण, वीप्सा और इत्थंभूत अर्थ में 'अभि' शब्द कर्मप्रवचनीय है। भाग अर्थ में परि और प्रति शब्द कर्म-प्रवचनीय हैं । एवं पूर्वोक्त अर्थ में भी परि प्रति शब्द कर्मप्रवचनीय हैं 1 उपर्युक्त अर्थ में और सह अर्थ में अनुशब्द कर्मप्रवचनीय है। हीन अर्थ में उप शब्द और अनु शब्द कर्म प्रवचनीय होता है ॥१॥ ___ - लक्षण अर्थ में, वीप्सा अर्थ में, इत्थंभूत अर्थ में 'अभि' शब्द कर्मप्रवचनीय है । भाग अर्थ में परि और प्रति शब्द कर्म द कर्मप्रवचनीय है। च शब्द से ऐसा समझना कि लक्षण वीप्सा और इत्थंभत अर्थ में भी 'परि प्रति' शब्द कर्मप्रवचनीय होते हैं । अनु शब्द इन पूर्वोक्त अर्थों में कर्मप्रवचनीय होता है। और सह अर्थ में भी 'अनु' शब्द कर्मप्रवचनीय होता है । यहाँ च शब्द समुच्चय के लिये है। हीन अर्थ में 'उप' शब्द कर्म प्रवचनीय होता है । और चकार से हीन अर्थ में 'अनु' शब्द भी कर्म प्रवचनीय होता है । १. कर्मक्रियां प्रोक्तवन्तः कर्मकारकमभिधीयभाना इत्यर्थः । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० कातन्त्ररूपमाला लक्षणार्थे वोप्सार्थे इत्थंभूतार्थे अभिशब्द: कर्मप्रवचनीयो भवति । भागे च परिप्रती कर्मप्रवचनीयौ भवतः । चशब्दात् लक्षणार्थे वीप्सार्थे इत्थंभूतार्थे परिप्रती कर्मप्रवचनीयौ भवत: । अनुशब्द एघु पूर्वक्तिषु अर्थेषु कर्मप्रवचनीयो भवति । सहार्थे च । चशब्द: समुच्चयार्थ: । होनार्थे उपशब्द: कर्मप्रवचनीयो भवति ॥ चशब्दाद् हीनार्थे अनुशब्दः कर्मप्रवचनीयो भवति । लक्षणार्थे वृक्षमभि विद्योतते विद्युत् । वीप्साङ्के वृक्ष वृक्षमभि तिष्ठति विद्युत् । इत्थंभूतार्थे साधुदेवदत्तो मातरमभि । वृक्षं परि विद्योतते विद्युत् । वृक्षं प्रति तिष्ठति । वृक्षं वृक्षं प्रति तिष्ठति । साधु देवदत्तो मातरं परि । साधु देवदत्तो मातरं प्रति । यदा मां परि स्यात् । तदन मां प्रति स्यात् । वृक्षमनु विद्योतते विद्युत् । वृक्षं वृक्षमनुतिष्ठति । साधु देवदत्तो मातरमनु । यदत्र मामनु स्यात् । पर्वतमनु वसते सेना। अन्वर्जुनं योद्धारः। उपार्जुनादन्ये योद्धारो निकृष्टा इत्यर्थः । गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुथ्यौं चेष्टायामनध्वनि ॥३८६ ॥ चेष्टाक्रियाणां गत्यर्थानां धातूनां प्रयोगेऽध्वनि वर्जिते कर्मणि द्वितीयाचतुथ्यौँ भवतः । ग्रामं गच्छति । ग्रामाय गच्छति । नगरं व्रजति । नगराय वति । इत्यादि । चेष्टायामिति किं ? मनसा मेरुं गच्छति । मनसा स्वर्ग मच्छति । अनध्वनीति किं ? अध्वानं गच्छति । गत्यर्थानामिति किं ? पन्थानं पृच्छति । लक्षण अर्थ में-वृक्षात विद्योतते विद्या- वृक्ष के नारों तरफ बिजली चमकती है। वीप्सा अर्थ में वृक्षं वृक्षमभि तिष्ठति विद्यत्-वृक्षवृक्ष पर बिजली ठहरती है। इत्थंभूत अर्थ में साधुर्देवदत्तो मातरभि—माता के विषय में देवदत्त साधु है। वृक्षं परि विद्योतते विद्युत् वृक्ष के चारों तरफ बिजली चमकती है। वृक्षं प्रति विद्युत् तिष्ठति--वृक्ष के प्रति बिजली ठहरती है। वृक्षं वृक्षं प्रति तिष्ठति वृक्ष वृक्ष पर ठहरती है। साधुदेवदत्तो मातरं परि--माता के प्रति देवदत्त साधु है। साधु देवदत्तो मातरं प्रति—माता के प्रति देवदत्त साधु है । यदत्र मां परिस्यात्-जो यहाँ मेरे हिस्से में होगा। तदत्र मां प्रति स्यात-वो ही वहाँ मेरे हिस्से में होगा। देवदत्तो मातरमनु-देवदत्त माता के पीछे हैं। यदत्र मामनु स्यात् जो वहाँ मेरे हिस्से में होगा। पर्वतमनु बसते सेना–पर्वत के पीछे सेना रहती है। अन्वर्जुन योद्धार:—सभी योद्धा अर्जुन से हीन हैं। उपार्जुनं योद्धार:--सभी योद्धा अर्जुन से हीन हैं। सभी योद्धा अर्जुन से निकृष्ट हैं यहाँ यह अर्थ है। चेष्टा क्रिया में गत्यर्थ धातु के प्रयोग में 'अध्व' छोड़कर कर्म में द्वितीया और चतुर्थी हो जाती है ॥३८६ ॥ जैसे--ग्रामं गच्छति, ग्रामाय गच्छति--गाँव को जाता है। चेष्टा क्रिया में हो ऐसा क्यों कहा ? मनसा मेरुं गच्छति-मन से मेरु पर जाता है। तो यहाँ चलने की क्रिया न होने से चतुर्थी नहीं हुई। कर्म में अध्व न हो ऐसा क्यों कहा ? तो अध्वानं गच्छति-मार्ग में जाता है । यहाँ अध्व शब्द का योग होने से चतुर्थी नहीं हुई। मत्यर्थ धातु हों ऐसा क्यों कहा ? पंथानं पृच्छति-मार्ग को पूछता है । यहाँ चतुर्थी नहीं हुई क्योंकि यहाँ गत्यर्थ धातु न होकर प्रश्नार्थ धातु है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकाणि मन्यकर्मणि चानादरेऽप्राणिनि ॥ ३८७ ॥ अनावरे कि ? प्राणिगणवर्जिते मन्यतेः कर्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यो भवतः अनादरे गम्यमाने । न त्वां तृणं मन्ये न त्वां तृणाय मन्ये । न त्वां बुषं मन्ये, न त्वां शुरू सन्ये । पदं मन्ये । पाषाणं रलं मन्ये । अप्राणिनीति कि ? न त्वां नावं मन्ये । न त्वामन्त्रं मन्ये । न त्वां काकं मन्ये । न त्वां शुकं मन्ये । न त्वां शृगालं मन्ये नौ अन्न काक शुक शृगाला एते प्राणिनो वैयाकरणजनानां । इह स्यादेव - वन त्वां श्वानं मन्ये, न त्वां शुने मन्ये । I कस्मिन्नर्थे तृतीया ? करणे तृतीया । किं करणं ? १४१ येन क्रियते तत्करणम् ३८८ ।। येन क्रियते तत्कारकं करणसंज्ञं भवति । दात्रेण लुनाति । कराभ्यां हन्ति । वाणैर्विध्यति । दिवः कर्म च ।। ३८९ ॥ दिवधातोः प्रयोगे करणे द्वितीया भवति । अक्षान् दीव्यति । अक्षैदव्यतीत्यर्थः । तृतीया सहयोगे || ३९० ।। हार्थेन योगे लिङ्गातृतीया भवति । पुत्रेण सह आगतः । त्यागसत्ताभ्यां सार्धं विराजते । सौर्यगुणैः साकमेधते यशः । इत्यादि । प्राणीगण से वर्जित अनादर अर्थ में मन्य धातु के योग से कर्म अर्थ में द्वितीया और चतुर्थी दोनों हो जाते हैं ॥ ३८७ ॥ जैसे—न त्वां तृणं मन्ये, न त्वां तृणाय मन्ये--- मैं तुमको तृण भी नहीं समझता हूँ । इत्यादि । अनादर अर्थ क्यों कहा ? जैसे 'अश्मानं दृषदं मन्ये' - पाषाणं रलं मन्ये- मैं पत्थर को रत्न समझता हूँ । यहाँ अनादर अर्थ न होने से चतुर्थी नहीं हुई। 'प्राणीगण को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? न त्वां नावं मन्ये – मैं तुमको नाव नहीं मानता हूँ। प्राणीगण में कितने शब्द आते हैं ? नौ अत्र, काक, शुक और शृगाल वैयाकरणों के यहाँ इन पाँच को प्राणीगण से लिया है। मतलब इनके योग में मन्य धातु के प्रयोग में चतुर्थी न होकर द्वितीया ही रहती है। 1 किस अर्थ में तृतीया होती हैं ? करण अर्थ में तृतीया होती है। करण किसे कहते हैं ? जिसके द्वारा क्रिया की जाय वह करण है ॥ ३८८ ॥ जिसके द्वारा क्रिया की जाती हैं वह कारक करण संज्ञक कहलाता है। यथा - दात्रेण लुनाति — दांतिया से काटता है । कराभ्याम् हंति — दोनों हाथों से मारता है। वाणैविध्यति वाणों से वेधन करता है। विधातु के योग में करण अर्थ में द्वितीया हो जाती है ॥ ३८९ ॥ इस सूत्र में च शब्द है अतः सूत्र का अर्थ दिवधातु के योग में द्वितीया और तृतीया दोनों होती है ऐसा अर्थ होना चाहिए । यथा -- अक्षान् दीव्यति - पाशों से खेलता है। इसमें द्वितीया विभक्ति होकर भी अर्थ तृतीया का ही निकलता I सह अर्थ के योग में तृतीया होती है ॥ ३९० ॥ सह के पर्यायवाचक जो शब्द उनके योग में तृतीया होती है ऐसा अर्थ है अतः समम् सार्धम् के योग में भी तृतीया होती है बन्धुना सार्थम् गच्छति । यथा- पुत्रेण सह आगतः पुत्र के साथ आया । त्याग सत्ताभ्याम् सार्धं विराजते- वह त्याग और सत्ता से शोभित होता है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ कातन्त्ररूपमाला हेत्वर्थे ॥३९१ ।। हेत्वर्थे वर्तमानाल्लिङ्गात्तृतीया भवति । अत्रेन सेवते । धनेन कुलं । विद्यया यशः । कुत्सितेऽङ्गे ॥३९२ ॥ कुत्सितेऽड़े वर्तमानाल्लिङ्गात्तृतीया भवति । अक्ष्णा काणः। पादेन खञ्जः । अक्षि काणमस्येति । प्रधानत्वात्प्रथमैव । विशेषणे ।।३९३॥ विशेषणे वर्तमानाल्लिङ्गात्तृतीया भवति । __ शिखया बटुमद्राक्षीत् श्वेतच्छत्रेण भूपतिम् । केशवं शंखचक्राभ्यां विभिनेत्रै: पिनाकिनम् ।। कर्तरि च ॥३९४ ॥ ___ कर्तरि च कारके वर्तमानाल्लिङ्गात्तीया भवति । देवदत्तेन कृतं । यज्ञदत्तेन भुक्तं । छात्रेण हन्यते । सुराभ्यां युध्यते। सुजनैः क्रियते ।। तुल्यार्थे षष्ठी च ३१५ ।। हेतु अर्थ में तृतीया होती है ॥३९१ ॥ यथा-अत्रेन सेवते— अन्न के हेतु सेवा करता है। धनेन कुल-धन के निमित्त से कुल है। विद्यया यश:-विद्या से यश होता है। कुत्सित अंग में वर्तमान लिंग से तृतीया हो जाती है ॥३९२ ॥ यथा---अक्षणा काण:-आँख से काना। पादेन खन:--पैर से लंगड़ा । यहाँ आँख कानी है जिसकी ऐसा बहुवीहि समास होने से काना व्यक्ति प्रधान होने से "काणः' इसमें प्रथमा ही हुई है। विशेषण अर्थ में भी तृतीया होती है ॥३९३ ॥ श्लोकार्थ शिखा से वटु-ब्राह्मण को पहचाना, श्वेतच्छत्र से राजा को, शंख और चक्र से केशव को एवं तीन नेत्रों से महादेव को पहचाना। अत: क्रम से शिखया, श्वेतच्छत्रेण, त्रिनेत्रेण में तृतीया आई । कर्ताकारक में वर्तमान लिंग से तृतीया होती है ॥३९४ ॥ यथा—देवदत्तेन कृतं-देवदत्त ने किया। यज्ञदत्तेन भुक्तं यज्ञदत्त ने खाया। छात्रेण हन्यते -छात्र के द्वारा मारा जाता है। सुराभ्याम् युध्यते-दो देवों द्वारा युद्ध किया जाता है। सुजनैः क्रियते-सज्जनों के द्वारा किया जाता है। तुल्य अर्थ के योग में लिंग से तृतीया और षष्ठी दोनों हो जाती हैं ॥३९५ ॥ १. यहाँ विशेषण का अर्थ है दूसरे से भेद करने वाला। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकाणि तुल्यार्थे योगे लिङ्गात् षष्ठी तृतीया च भवति । देवदत्तस्य तुल्य:, देवदत्तेन तुल्यः । देवदत्तस्य समानः देवदत्तेन समानः । इत्यादि । किं सम्प्रदान ? कस्मिन्नर्थे चतुर्थी ? सम्प्रदानकारके चतुर्थी । यस्मै दित्सा रोचते धारयते वा तत्सम्प्रदानम्॥३९६ ॥ यस्मै दातुमिच्छा यस्मै रोचते यस्मै धारयते वा तत्कारकं सम्प्रदानसंज्ञं भवति । ब्राह्मणाय गां ददाति । देवदत्ताय रोचते मोदकः । यज्ञदत्ताय धारयते शतं । विष्णुमित्रो यतिभ्यो दानं ददाति । देवाय रोचते हविः । मोक्षाय ज्ञानं धारयते । पुण्यार्थे चतुर्थी भवति नान्यत्र । राज्ञो दण्डं ददाति । न त पुण्यं । पुनरागमने षष्ठी रजकस्य वस्त्रं ददाति ।। नमःस्वस्तिस्वाहास्वधालंवषडयोगे चतर्थी ।।३९७।। नम आदिभियोंगे लिङ्गाच्चतुर्थी भवति । नमो देवाय । स्वस्ति जगते । स्वाहा हुताशनाय । स्वधा पितृभ्यः । अलं मल्लान्य प्रतिमल्लः । शक्तो मल्लाय प्रतिमल्ल: । वषडिन्द्राय । स्वाहा स्वधा वषट् दाने । तादये ।।३९८ ॥ तदर्थभावे द्योत्ये लिङ्गाच्चतुर्थी भवति । मोक्षाय तत्त्वज्ञानं । भुक्तिप्रदानाभ्यां धनं । गुणेभ्यः सत्सङ्गतिः । यथा-देवदत्तस्य तुल्य: देवा र तुल्यः --येक दर के - 14- अर्थ दोनों क.. एक ही है । इत्यादि। किस अर्थ में चतुर्थी होती है ? सम्प्रदान कारक में चतुर्थी होती हैं । सम्प्रदान क्या है ? जिसके लिये देने की इच्छा है जिसे रुचता है अथवा जो धारण करता है वह संप्रदान कारक होता है ॥३९६ ॥ जैसे—ब्राह्मणाय गां ददाति-ब्राह्मण को गाय देता है। देवदत्ताय सेचते मोदक:-देवदत्त को लड्डु रुचता है। * यज्ञदत्ताय धारयते शतं यज्ञदत्त के लिये सौ रुपये धारण करता है । इत्यादि । यहाँ पुण्य अर्थ में चतुर्थी होती है अन्यत्र नहीं होती । जैसे-राज्ञो दण्डं ददाति-राजा को दण्ड देता है। यहाँ दण्ड देना 'दानरूप' पुण्य कार्य न होने से उसमें षष्ठी हो गई। पुनरागमन में भी षष्ठी हो जाती है। जैसे-रजकस्य वस्त्रं ददाति-धोबी को कपड़े देता है। यहाँ देकर पुनः वापस लेना है अत: षष्ठी हो गई चतुर्थी नहीं हुई। नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलं और वषट् के योग में चतुर्थी होती है ॥३९७ । । यथा-नमो देवाय-देव को नमस्कार हो। स्वस्ति जगते–जगत् का कल्याण हो । स्वाहा हुताशनाय--अग्नि को स्वाहा स्वधापितृभ्यः-- पितरों के लिये स्वधा। अलं मल्लाय प्रतिमल्ल:-मल्ल के लिये प्रतिमल्ल समर्थ है। वषड् इंद्राय--इन्द्र के लिये। ये स्वाहा, स्वधा और वषट् देने के अर्थ में हैं अर्थात् आहुति, अर्घ्य आदि के समर्पण में ये बोले जाते हैं। तदर्थ भाव को प्रकट करने में चतुर्थी होती है ॥३९८ ॥ जैसे—मोक्षाय ज्ञानं—ज्ञान मोक्ष के लिये है। भुक्ति प्रदानाभ्यां धनंभोग और दान के लिए धन हैं। गुणेभ्य: सत्संगति:- गुणों के लिये सत्संगति होती है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ कातन्त्ररूपमाला संयमाय श्रुतं धत्ते नरो धर्माय संयमम् । धर्म मोक्षाय मेधावी धनं दानाय भुक्तये ।।१।। तुमर्थाच्च भाववाचिनः ॥३९९ ।। तुम: समानार्थाद्धाववाचिप्रत्ययान्ताल्लिाच्चतुर्थी भवति । भाववाचिनश्चेति वक्ष्यति । पाकाय व्रजति । पक्तये व्रजति । पचनाय वति । हुंकामानि इत्यर्थः । कस्मिन्नर्थे पश्चमी ? अपादाने पञ्चमी । किमपादानं ? ध्यतोऽपैति भयमादत्ते तदपादानम् ॥४००।यस्मादपैति यस्माद्भयं भवति यस्मादादते वा तत्कारकमपादानसंज्ञं भवति । वृक्षात्पर्ण पतति । व्याघाबिभेति । उपाध्यायादादत्ते विद्यां । इत्यादि। ईप्सितं च रक्षार्थानाम्।।४०१।। रक्षार्थानां धातूनां प्रयोगे ईप्सितमनीप्सितं च तत्कारकमपादानसंज्ञं भवति । यवेभ्यो गा रक्षति । गौ: यवात् रक्षति । गां निवारयतीत्यर्थः ! पापात्पात् भगवान्। रोगकोपाभ्यां निवारयति मन: । अहिभ्य आत्मानं रक्षति । पर्यपाझ्योगे पंचमी ।।४०२ ॥ श्लोकार्थ-बुद्धिमान् मनुष्य संयम के लिये श्रुत को, धर्म के लिये संयम को, मोक्ष के लिये धर्म को एवं धर को दान और भोग के लिये धारण करते हैं ॥१॥ 'तुम्' अर्थ के समान भाववाची प्रत्यय वाले लिंग से चतुर्थी होती है ॥३९९ ॥ आगे भाववाची को कहेंगे। जैसे-पाकाय वजति-पकाने के लिये जाता है, पक्तये व्रजति, पवनाय व्रजति, तुम् प्रत्यय में-पक्तुं व्रजति-पकाने के लिये जाता है । यहाँ पाकाय, पक्तये, पचनाय इन तीनों का अर्थ पक्तु के समान है। यहाँ पाक पक्ति पचन शब्द भाव प्रत्ययांत हैं। अत: चतुर्थी हुई। किस अर्थ में पंचमी विभक्ति होती है ? अपादान अर्थ में पंचमी होती है। अपादान क्या है ? जिससे दूर होता है, डरता है और ग्रहण करता है वह कारक अपादान संज्ञक है।४०० ॥ यथा-वृक्षात्पर्ण पतति-वृक्ष से पत्ता गिरता है। व्याघ्राद् विभेति--व्याघ्र से डरता है। उपाध्यायादादत्ते विद्या-उपाध्याय से विद्या को ग्रहण करता है। रक्षा अर्थ वाले धातु के प्रयोग में ईप्सित और अनीप्सित को अपादान संज्ञा हो जाती है ॥४०१ ॥ यथा—यवेभ्यो गां रक्षति-जौ से गाय की रक्षा करता है। गौ: यवात् रक्षति- अर्थात् गाय को जो खाने से रोकता है। पापात् पातु भगवान्-भगवान पाप से रक्षा करें। रोगकोपाभ्याम् निवारयति मन:--मन को रोग और क्रोध से रोकता है। अहिंभ्य: आत्मानं रक्षति--सों से अपनी रक्षा करता है। परि, अप और आङ् के योग में पंचमी होती है ॥४०२ ।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकाणि १४५ परि अप आङ् योगे लिङ्गात्पञ्चमी भवति । इहापपरी वर्जने। आङ्मर्यादाभिविध्योः । परि पाटलिपुत्रादृष्टो देवः । अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । आ पाटलिपुत्रावृष्टो देवः । दिगितरतेन्यैश्च ॥४०३।। दिग् इतर ऋते अन्य एभियोगे वर्तमानाल्लिङ्गात्पञ्चमी भवति । पूर्वो ग्रामात् । उत्तरो ग्रामात् । इतरो देवदत्तात् । ऋते धर्मात् कुत: सुखं । अन्यो देवदतात् ।। पृथग्नानाविनाभिस्तृतीया वा ।।४०४ ।। पृथक् नाना विना एभियोगे लिङ्गात्तृतीयापञ्चम्यौ भवत: । पृथम् देवदत्तेन । पृथग् देवदत्तात् । नाना देवदत्तेन । नाना देवदत्तात् । विना देवदत्तेन । विना देवदत्तात् । हेतौ च ॥४०५॥ हेतौ च वर्तमानाल्लिङ्गात्पञ्चमी भवति । कस्माद्धेतो: समागतः। अग्निमानयं धूमवत्वात् । अनित्योऽयं कृतकत्वात् ॥ कस्मिन्नर्थे षष्ठी ? स्वाम्यादौ षष्ठी 1 के स्वाम्यादयः ? स्वामी सम्बन्धः यहाँ अप और परि उपसर्ग वर्जन अर्थ में हैं और आङ् मर्यादा एवं अभिविधि अर्थ में है। परि पाटलिपुत्राद् वृष्टो देव:-पटना को छोड़कर मेघ वर्षा हुई। अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देव:-तीन गड्ढों को छोड़कर वर्षा हुई। आपाटलिपुत्राद् वृष्टो देव:-पटना तक मेघ वर्षा हुई। अथवा अभिविधि अर्थ में पटनापर्यंत मेघ वर्षा दुई दिग् इतर ऋते और अन्य के योग में लिंग से पंचमी होती है ।।४०३ ॥ पूर्वो ग्रामात्-- गाँव से पूर्व । उत्तरो ग्रामात्-गांव से उत्तर । इतरो देवदत्तात्-देवदत्त से भिन्न । ऋते धर्मात् कुत: सुखं—धर्म के बिना सुख कहाँ है ? अन्यो देवदत्तात्-देवदत्त से भिन्न । पृथक्, नाना, बिना के योग में तृतीया और पंचमी दोनों होती हैं ॥४०४॥ पृथक् देवदत्तेन, पृथक् देवदत्तात्-देवदत्त से भिन्न । नाना देवदत्तेन, विना देवदत्तात्-देवदत्त के बिना। हेतु अर्थ में पंचमी होती है ॥४०५ ॥ कस्माद् हेतोः समागत:-किस हेतु से आप आये । अग्निमानयं धूमवत्त्वात्-धूमवाला होने से यह पर्वत अग्निवाला है। अनित्योऽयं कृतकत्वात्—यह अनित्य है क्योंकि कृतक है। किस अर्थ में षष्ठी विभक्ति होती है ? स्वामी आदि के अर्थ में षष्ठी विभक्ति होती है। स्वामी आदि से क्या-क्या लेना ? स्वामी, सम्बंध, समीप, समूह, विकार, अवयव और स्व ये स्वामी आदि कहलाते हैं। या—देवदत्तस्य स्वामी-देवदत्त का मालिक । संबंध अर्थ में देवदत्तस्य वास:-देवदत्त का कपड़ा। समीप अर्थ में--पर्वतस्य समीपं–पर्वत के पास। समूह-हंसानां समूहः-हंसों का समुदाय। विकार-क्षीरस्य विकार:-दूध का विकार । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ कातन्त्ररूपमाला समीप: समूह: विकार: अवयव: स्व इति स्वाम्यादय: । देवदत्तस्य स्वामी । देवदत्तस्य वस्त्रं । पर्वतस्य समीपं । हंसानां समूह: । क्षीरस्य विकारः । देवदत्तस्य बाहू । यज्ञदत्तस्य शिर: । चैत्रस्य स्वं । स्वामीश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूतैः षष्ठी च ॥४०६ ।। स्वाम्यादिभियोग लिङ्गात्वष्ठी सप्तमी च भवति । गवां स्वामी । गोषु स्वामी । गवामीश्वरः । गोष्वीश्वरः । गवामधिपतिः । गोष्वधिपतिः । गवां दायादः । गोषु दायाद: । गवां साक्षी । गोषु साक्षी । गवां प्रतिभूः । गोषु प्रतिभूः । गवां प्रसूतः । गोषु प्रसूतः । निर्धारणे च ॥४०७ ।। निर्धारणे चार्थे लिङ्गात्वष्ठी सप्तमी च भवति । जातिगुणक्रियाभिः समुदायस्य एकदेशपृथक्करणं निर्धारणं । पुरुषाणां क्षत्रियः शूरतम: । पुरुषेषु क्षत्रियः शूरतमः । गवां कृष्णा गौ: सम्पन्नक्षीरा । गोषु कृष्णा गौ: सम्पन्नक्षीरा । गच्छतां धावन्त: शीघ्राः । गच्छत्सु धावन्त: शीघ्राः । इत्यादि । _षष्ठी हेतुप्रयोगे ॥४०८॥ हेतोः प्रयोगे लिङ्गाषष्ठी भवति । अध्यसनम्य हेतोर्वसति । अत्रस्य डेनोसति । अवयव अर्थ में देवदत्तस्य बाहु.--देवदत्त की दोनों भुजाएँ । अवयव अर्थ में यज्ञदत्तस्य शिर:-यज्ञदत्त का मस्तक । स्व अर्थ में-विष्णुमित्रस्य स्वं-विष्णुमित्र का धन। स्वामी, ईश्वर, अधिपति, दायाद, साक्षी, प्रतिभू और प्रसूत अर्थ के योग में षष्ठी और सप्तमी दोनों होती हैं ॥४०६ ॥ गवां स्वामी, गोषु स्वामी-गायों का स्वामी । गवामीश्वरः, गोष्वीश्वर:-गायों का ईश्वर । गवां अधिपति, गोष्यधिपति:-गायों का अधिपति । गवां दायाद., गोषु दायाद:--गायों का भागीदार। गवां साक्षी, गोषु साक्षी–गायों का साक्षीदार । गवां प्रतिभूः, गोषु प्रतिभूः-गायों की जमानत वाला। गवां प्रसूत:, गोषु प्रसूत:-गायों का जन्मा बछड़ा । निर्धारण अर्थ में षष्ठी और सप्तमी होती है ॥४०७ ॥ निर्धारण किसे कहते हैं ? जाति, गुण, क्रियाओं से समुदाय का एक देश पृथक् करना निर्धारण कहलाता है। जैसे पुरुषाणां क्षत्रियः शूरतम:-पुरुषों में क्षत्रिय शूरवीर होता है। वैसे ही पुरुषेषु क्षत्रिय: शूरतमः । गवां कृष्णा गौ: संपन्नक्षीर-गायों में काली गाय अधिक दूध वाली होती हैं। गोषु कृष्णा गौ: संपन्नक्षीरा—गायों में काली गाय अधिक दूध वाली होती है । गच्छता धावन्त: शीघ्राः, गच्छत्सु धावन्त: शीघा:-चलने वालों में दौड़ने वाले शीघगामी हैं। इत्यादि। हेतु के प्रयोग में षष्ठी होती है ॥४०८ ॥ अध्ययनस्य हेतोर्वसति—अध्ययन के हेतु रहता है। अन्नस्य हेतोर्वसति-अन्न के हेतु रहता है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकाणि स्मृत्यर्थकर्मणि ॥ ४०९ ।। स्मरणार्थानां धातूनां प्रयोगे वर्तमानाल्लिङ्गत् कर्मणि षष्ठी भवति । उत्तरत्र नित्यग्रहणादिह विकल्पो लभ्यते । मातुः स्मरति । मातरं स्मरति । पितुरध्येति । पितरमध्येति । इत्यादि । करोतेः प्रतियत् ॥ ४१० ॥ करोतेः प्रतियले गम्यमाने लिङ्गात्कर्मणि षष्ठी भवति । सतो विशेषाधानं प्रतियत्नः । एधो दकस्योपस्कुरुते । एधोदकमुपस्कुरुते । इत्यादि । १४७ हिंसार्थानामज्वर ||४११ ।। हिंसार्थानां ज्वरवर्जितानां धातूनां प्रयोगे कर्मणि षष्ठी भवति । चौरस्य प्रहन्ति । चौरं प्रहन्ति । चौरस्योत्कथयति । चौरमुत्क्राथयति । चौरस्य पिनष्टि । रुजो भङ्गे । चौरस्य रुजति । इत्यादि । अज्वरीति किं ? चौरं ज्वरयति कर्कटी। चौरस्य सन्तापयतीत्यर्थः । कर्तृकर्मणोः कृति नित्यम् ॥४१२ ॥ कर्तृकर्मणोरर्थयोर्नित्यं षष्ठी भवति कृत्प्रत्यययोगे । भवत: आसिका । भवतः शायिका । भुवनस्य स्रष्टा । पर्वतानां भेत्ता । तत्त्वानां ज्ञाता । इत्यादि । स्मृति अर्थ वाले धातु के प्रयोग में षष्ठी होती है ॥ ४०९ ॥ स्मरण अर्थ वाले धातु के प्रयोग में लिंग से कर्म में षष्ठी होती है। आगे सूत्र में नित्य का ग्रहण होने से यहाँ विकल्प का कथन ग्रहण करना चाहिये । अतः द्वितीया भी हो जाती है । यथा - मातुः स्मरति, मातरं स्मरति — माता का स्मरण करता है। पितुरध्येति, पितरमध्येति — पिता को स्मरण करता है । करोति से प्रतियत्न अर्थ गम्यमान होने में कर्म में षष्ठी होती है ॥ ४१० ॥ प्रतियल किसे कहते हैं ? विद्यमान को विशेष करना - संस्कारित करना 'प्रतियल' कहलाता है I एधोदकस्य उपस्कुरुते एधोदकं उपस्कुरुते -- लकड़ी जल के गुण को ग्रहण करती है I हिंसा अर्थ वाले ज्वर वर्जित धातु के प्रयोग में कर्म में षष्ठी होती है |४११ ॥ चौरस्य हति, चौरं हति― चोर को मारता है । चौरस्य उत्क्राथयति, चौरं उत्क्राथयति – चोर को मारता है। चौरस्य पिनष्टि, चौरं पिनष्टि― चोर को दुःख देता है। रुज, धातु भंग अर्थ में है। चौरस्य रुजति, चौरं रुजति — चोर को कष्ट देता है । इत्यादि । सूत्र में ज्वर वर्जित ऐसा क्यों कहा ? चौरं ज्वरयति कर्कटी-ककड़ी चोर को ज्वर लाती हैं चोर को संतापित करती है यह अर्थ हुआ । यहाँ ज्वर् धातु के योग में द्वितीया हुई, षष्ठी नहीं हुई है । कर्ता और कर्म के अर्थ में कृत् प्रत्यय के योग में नित्य ही षष्ठी होती है ॥ ४१२ ॥ कर्ता अर्थ में - भवतः आसिका आपके बैठने का स्थान । 'भवत: शायिका- आपके सोने का स्थान | कर्म अर्थ में — भुवनस्य स्रष्टा – भुवन के स्रष्टा । पर्वतानां भेत्ता - पर्वतों के भेदन करने वाले । तत्त्वानां ज्ञाता-तत्त्वों के जानने वाले । इत्यादि । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ कोतवरूपमाला न निष्ठादिषु ।।४१३॥ कर्तृकर्मणोरर्थयो: षष्ठी न भवति निष्ठादिषु परतः। के निष्ठादयः ? क्त । क्तवत् । शन्तृट् । आनश् । कस् । कान । किं । उदन्त् । क्त्वा । तुम् । भविष्यदर्थे वुण् । आवश्यकाधमर्ण्ययोर्यन् । अव्यय तृन् इत्येवमादयः । देवदत्तेन भुक्तमोदनं । त्वया कृत: कटः । देवदत्त ओदनं भुक्तवान् । देवदत्तः कृतवान् कटं । इत्यादि । कस्मिन्नर्थे सप्तमी ? अधिकरणे । किमधिकरणं ? य आधारस्तदधिकरणम् ॥४१४० य आधारस्तत्कारकमधिकरणसंज्ञं भवति । स आधारस्विविधः। औपश्लेषिको वैषयिकोऽभिव्यापकशेति। कटे आस्ते काकः। औपश्लेषिकोऽयं । करयो: कयणं । दिवि देवाः । वैषयिकोऽयम् । तिलेषु तैलं । अभिव्यापकोऽयं । कालभावयोः सप्तमी ॥४१५ ।। कालभावयोर्वर्तमानाल्लिङ्गात्सप्तमी भवति । काले-शरदि पुष्यन्ति सप्तच्छदाः । भावे गोषु दुह्यमानासु गतः । अधिशीङ्स्थासां कर्म ॥४१६ ।। निष्ठा आदि प्रत्यय के आने पर कर्ता कर्म अर्थ में षष्ठी नहीं होती है ॥४१३ ॥ तष्ठादि से क्या-क्या लेना? क्त, क्तवत, शन्तुङ् आनश क्वंस. कान् कि, कंस् । उदन्त, उक क्वा, तुम् । भविष्यत् अर्थ में वुण् । आवश्यक और अधमर्ण में ण्यन् । ये प्रत्यय कृदन्त में पाये जाते हैं और अव्यय तृन ये इत्यादि निष्ठादि कहलाते हैं । जैसे-देवदत्तेन भुक्तमोदनं-देवदत ने भात खाया। त्वया कटः कृत:- तुमने चटाई बनाई। देवदत्त: ओदनं भुक्तवान्–देवदत्त ने भात खाया। देवदत्तः कटं कृतवान्—देवदत्त ने चटाई बनाई। इत्यादि। किस अर्थ में सप्तमी होती है ? अधिकरण अर्थ में सप्तमी होती है । अधिकरण क्या है ? जो आधार है उस कारक को अधिकरण कहते हैं ॥४१४ ॥ वह आधार तीन प्रकार का है। औपश्लेषिक, वैषयिक और अभिव्यापक । औपश्लेषिक का उदाहरण-कटे आस्ते काकः-चटाई पर कौआ बैठा है। वैषयिक में-करयो: कंकणं-दोनों हाथ में कड़े हैं। दिवि देवा:-स्वर्ग में देवता हैं। अभिव्यापक में—तिलेषु तैलं—तिलों में तेल रहता है। काल और भाव में वर्तमान लिंग से सप्तमी होती है ।४१५ ॥ काल में—शरदि पुष्यंति सप्तच्छदा:-शरद् ऋतु में सप्तच्छद फूलते हैं। भाव में-गोषु दुह्यमानासु गत:-गाय के दुहने वाले समय में गया। अधि पूर्वक शीङ् स्था और आस् धातु के प्रयोग में अधिकरण अर्थ में द्वितीया होती है ॥४१६ ॥ ग्रामम् अधिशेते गाँव में सोता है। १. आधियन्ते क्रिया यस्मिन्नित्याधारः। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकाणि १४९ अधिपूर्वाणां शीङ् स्था आसु इत्येतेषां प्रयोगे अधिकरणे द्वितीया भवति । ग्राममधिशेते । ग्राममधितिष्ठति । ग्राममध्यास्ते । ग्रामे आस्त इत्यर्थः । उपान्वध्यावसः ।।४१७ ।। उप अनु अधि आयूर्वस्य वसु इत्येतस्य धातोः प्रयोगे अधिकरणे द्वितीया भवति । ग्राममुपवसति । ग्राममनुवसति । ग्राममधिवसति । ग्राममावसति । ग्रामे वसतीत्यर्थ:। सति च॥४१८॥ सत्यर्थे वर्तमानाल्लिङ्गात्सप्तमी भवति । दाने सति भोगः । ज्ञाने सति मोक्ष: । इत्यादि । निमित्तात्कर्मणि ॥४१९॥ निमित्तभूताल्लिङ्गात्सप्तमी भवति कर्मणि युक्ते। चर्मणि दीपिनं हन्ति दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम्। केशेषु चमरी हन्ति सीम्नि पुष्कलको हत: ॥१।। मुक्तौ चित्तत्वमव्येति स्वर्मुक्त्योर्जिनमर्चति । गुणेषु गुरुमाप्नोति गोप: पयसि दोग्धि गाम् ।।२।। संप्रदानम्पादाने करणाधारको तथा। कर्म कर्ता कारकाणि षट् संबन्धस्तु सप्तमः ॥३ ।। इति कारकप्रकरणं समाप्तम् । ग्राममधितिष्ठति गाँव में रहता है। ग्राममध्यास्ते गाँव में बैठता है। ग्राम में रहता है ऐसा ही सभी का अर्थ है । उप, अनु, अधि, आङ् पूर्वक वस् धातु के प्रयोग में अधिकरण में द्वितीया होती है ॥४१७ ।। ग्राममुपवसति, अनुवसति, अधिवसति, आवसति-सभी का अर्थ है कि ग्राम में रहता है। सति अर्थ में सप्तमी होती है ॥४१८ ॥ दाने सति भोग:-दान के होने पर भोग होता है, ज्ञाने सति मोक्ष:-ज्ञान के होने पर मोक्ष होता है । इत्यादि। निमित्त भत लिंग से कर्म से सप्तमी होती है ॥४१९॥ श्लोकार्थ-चर्म के लिए दीपि व्याघ्र को मारता है। दो दांत के लिये हाथी को मारता है। केशों के निमित्त चमरी गाय को मारता है और कस्तूरी के लिये पुष्कलक 'गन्धवान् मृग' को मारता है ॥१॥ मुक्ति के लिये चित्त का निरोध रूप ध्यान करता है और स्वर्ग, मोक्ष के लिये जिनेन्द्र भगवान् की अर्चना करता है। गुणों के लिये गुरु को प्राप्त करता है एवं दूध के निमित्त ग्वाला गाया को दुहता है ॥२॥ संप्रदान, अपादान, करण, अधिकरण, कर्म और कर्ता ये छह कारक हैं एवं सातवाँ सम्बन्ध कारक है। इस प्रकार से कारक प्रकरण समाप्त हुआ। १. यह सातवाँ सम्बन्ध मात्र है अतः कारक नहीं है; क्योंकि इसका क्रिया के साथ साक्षात् योग नहीं है और न यह क्रिया का जनक ही है । अतएव कारक षट् ही माने जाते हैं (साक्षात् क्रियाजनकत्वं कारकत्वम्)। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० कातन्त्ररूपमाला अथ समास उच्यते। माह दो टेमिनाया पादपद्मारुणांशवः । यस्य पादौ सपानम्य शीतीभूता जगज्जना: ॥१॥ समास: कः ? (नाम्नां समासो युक्तार्थः ॥४२०॥2 नाम्नां युक्तार्थ: समासो भवति । वस्तुवाचीनि नामानि मिलितं युक्तमुच्यते। समासाख्यं तदेतत्स्यात्तद्धितोत्पत्तिरेव च ॥१।। चकारबहुलो द्वन्द्वः स चासौ कर्मधारयः । यत्र द्वित्वं बहुत्वं च स द्वन्द्व इतरेतरः ॥२॥ पदयोस्तु पदानां वा विभक्तिर्यत्र लुप्यते। स समासस्तु विज्ञेयः पुराणकविषाक्यत: ॥३ ।। अथ समास प्रकरण श्लोकार्थ—जिनके चरण युगल को नमस्कार करके जगत् के प्राणी शांति को प्राप्त हो चुके हैं ऐसे श्री नेमिनाथ भगवान् के चरण कमल की अरुण किरणें हम लोगों की रक्षा करें ॥१॥ समास किसे कहते हैं ? नाम के अनेक पदों का मिला हुआ अर्थ समास कहलाता है ॥४२० ॥. श्लोकार्थ-वस्तुवाची अनेक नामों का मिलना-युक्त होना 'समास' कहलाता है और यह समास तद्धित की उत्पत्ति ही है ॥१॥ • जिसमें चकार बहुल हो उसे 'द्वन्द्व' कहते हैं। जिसमें 'स चासौ' का प्रयोग होता है उसे 'कर्मधारय' कहते हैं। जिसमें दो और बहुत पद होते हैं वह इतरेतर द्वन्द्व है ॥२॥ जिसमें दो पद अथवा बहुत से पदों की विभक्ति का लोप किया जाता है उसे कवियों के द्वारा कथित 'समास' समझना चाहिए ॥३॥ उस समास के चार भेद हैं। तत्पुरुष, बहुव्रीहि, द्वन्द्व और अव्ययीभाव । तत्पुरुष किसे कहते है ? जिसमें उत्तर पद का अर्थ प्रधान हो वह तत्पुरुष कहलाता है। बहुवीहि किसे कहते हैं ? जिसमें अन्य पद का अर्थ प्रधान हो वह बहुव्रीहि समास है। द्वन्द्र किसे कहते हैं ? जिसमें सभी पदों का अर्थ प्रधान हो वह द्वन्द्व है। अव्ययीभाव किसे कहते हैं ? जिसमें पूर्व में अव्यय पद का अर्थ प्रधान हो वह अव्ययीभाव समास है। इस प्रकार से तुल्य रूप से समास के चार भेद हैं। उनका यहाँ क्रम से वर्णन किया जाता है। सुखं प्राप्त:, गुणान् आश्रित: ऐसा विग्रह है। . १. अर्थात् दोनों पदों में च का प्रयोग है जैसे माता च पिता च । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास: १५१ स चतुर्विधः । तत्पुरुषबहुव्रीहिद्वन्द्वाव्ययीभावभेदात् (पुनरुत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषः । अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः । सर्वपदार्थप्रधानो द्वन्द्रः । पूर्वाव्ययपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावः । इति चतुर्विधः । स च यथाक्रमं प्रदर्श्यते । सुखं प्राप्त: । गुणान् आश्रितः । इति स्थिते-- विभक्तयो द्वितीयाद्या नाम्ना परपदेन तु। समस्यन्ते समासो हि ज्ञेयस्तत्पुरुषः स च ॥५॥ द्वितीयादिविभक्त्यन्तं पूर्वपदं नाम्ना परपदेन सह यत्र समस्यते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञको भवति । तत्स्था लोप्या विभक्तयः ॥४२१॥ तस्मिन् समासे स्थिता विभक्तयो लोप्या भवन्ति । प्रकृतिश्च स्वरान्तस्य ।।४२२ ।। लुप्तासु विभक्तिषु स्वरान्तस्य व्यञ्जनान्तस्य च लिङ्गस्य प्रकृतिर्भवति । चकारात्ववचित्सन्धिर्भवति । कृत्तद्धितसमासाश्च ।।४२३॥ कृत्तद्धितसमासाश्च शब्दा लिङ्गसंज्ञा भवन्ति । सुखप्राप्त: । गुणाश्रितः । एवं ग्रामं गत:--ग्रामगतः । एवं स्वर्ग गत:-स्वर्गगतः । तृतीया....दध्ना संसृष्टः-दधिसंसृष्टः । धान्येन अर्थ: । धान्यार्थ: । यत्नेन् कृतं—यत्नकृतं । चतुर्थी--कुबेराय पनि.--.कुवालयूपच वा-यूपदारु। देवाय सुखं—देवसुखं। पञ्चमी-चौराद्भयं-चौर भयं। ग्रामात्रिर्गत:--ग्रामभिर्गतः। षष्ठी–चन्दनस्य गन्धः-चन्दनगन्धः। राज्ञः पुरुष:-राजपुरुषः। फलानां रस:—फलरस:। सप्तमी-व्यवहारे कुशल:-व्यवहारकुशलः। काम्पिल्ये सिद्ध:-काम्पिल्यसिद्धः। धमें नियत:-धर्मनियत: । एवं मोक्षसुखम् । संसारसुखम् । इत्यादि । प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया ।। प्रादय: शब्दा; गताद्यर्थं प्रथमया सह यत्र समस्यंते स समासस्तुत्पुरुषसंज्ञे भवति प्रगत आचार्य: प्राचार्य: अभिगतो मुखं अभिमुखं, प्रतिमतोऽक्ष प्रत्यक्षमित्यादि । विश्वमतिक्रान्तः । इति विग्रहे श्लोकार्थ-लिंग रूप पर पद के साथ द्वितीया आदि विभक्तियों का जो समास किया जाता है, वह समास तत्पुरुष समास कहलाता है। द्वितीयादि विभक्ति है अंत में जिसके ऐसे पूर्वपद का नामवाची पर पद के साथ जो समास किया जाता है वह समास 'तत्पुरुष' संज्ञक है। सुख+ अम्, प्राप्त + सि __उस समास में स्थित विभक्तियों का लोप हो जाता है ॥४२१ ॥ विभक्तियों के लोप हो जाने पर स्वरांत और व्यञ्जनान्त लिंग प्रकृति रूप रहते हैं ॥४२२ ॥ चकार से कहीं संधि हो जाती है । अत: सुखप्राप्त, गुणाश्रित, रहा । कृदन्त, तद्धित और समास शब्द लिंग संज्ञक हो जाते हैं ॥४२३ ।। इस सूत्र से लिंग संज्ञा होने के बाद पुन: क्रम में 'सि' आदि विभक्तियाँ आयेंगी और पूर्ववत् लिंग प्रकरण के समान इनके रूप चलेंगे। यथा सखप्राप्त+सि. गणाश्रित+सि है "रेफसोर्विसर्जनीयः" सूत्र से स् का विसर्ग होकर 'सुखप्राप्त: गुणाश्रित:' बना। इसी प्रकार से 'ग्रामं गतः ग्रामगतः स्वर्ग गत:-स्वर्गगतः' बन गया है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कातन्त्ररूपमाला अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया ।।४२४॥ अत्यादयः शब्दा: क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया सह यत्र समस्यन्ते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । उक्तार्थानामप्रयोग: । अव्ययानां पूर्वनिपातः । अतिविश्व: । कोकिलया अवक्रुष्टं वनमिति विग्रहः । अवादयः कुष्टाधर्थे तृतीयया ॥४२५ ॥ अवादय: शब्दा: क्रुष्टाद्यर्थे तृतीयया सह यत्र समस्यन्ते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञको भवति । स्वरो हस्वो नपुंसके इत्यत्र योगविभागात् तृतीया में-दधा संसृष्टः है, दधि टा, संसृष्ट सि, “तत्स्था लोप्य विभक्तयः" सूत्र से विभक्ति का लोप, “कृत्तद्धितसमासाच" सूत्र से लिंग संज्ञा होकर पुन: दथिसंसृष्ट + सि है विसर्ग होकर 'दधिसंसृष्टः' बना । ऐसे ही धान्येन अर्थ:-~-धान्यार्थ: यलेन कृत-यलकृतं । चतुर्थी में–कुवेराय बलि, कुबेर + डे, बलि+ सि, विभक्ति का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर कुबेरबलि + सि है। विसर्ग होकर 'कुबेरबलिः' बना । उसी प्रकार से यूपाय दारु-यूपदारु देवाय सुखं-देवसुखं । पंचमी में-चौराद् भयं, चौर + इसि, भय+सि है विभक्ति का लोप लिंग संज्ञा पुन: सि विभक्ति आकर "चौरभयं' बना। उसी प्रकार से प्रामानिर्गत:—ग्रामनिर्गत: बना। षष्ठी में चन्दन + डस् गंघ+सि, विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा होकर सिविभक्ति आकर 'चन्दनगंध:' बना । तथैव राज्ञः पुरुषः राजपुरुषः, फलानां रस:-फलरसः । सप्तमी में—व्यवहार + डि, कुशल + सि विभक्ति का लोप लिंग संज्ञा होकर सिविभक्ति आकर 'व्यवहारकुशल:' बना । तथैव-कांपिल्ये सिद्ध-कांपिल्यसिद्धः, धमें नियतः धर्मनियत: मोक्षे सुख-मोक्षसुखं, संसारे सुखं-संसारसुखं, आदि प्रगत: आचार्य: अभिमतो मुखं, प्रतिगतो अक्षं है। प्रादि उपसर्गों का गतादि अर्थ में प्रथमान्त के साथ समास होता है। प्रादि शब्दों का गतादि अर्थ में प्रथमान्त विभक्ति के साथ जहाँ समास होता है वह समास 'तत्पुरुष संज्ञक' है। प्रगत + सि आचार्य + सि ४२१वें सूत्र से विभक्ति का लोप होकर 'उक्तार्थानां अप्रयोगः । इस नियम से 'गत' शब्द अप्रयोगी हो गया पन: लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'प्राचार्य:' बना । वैसे ही अभिगत: मुखं-अभिमुखं । प्रतिगतो अक्ष-प्रत्यक्षं बना है। विश्वम् अतिक्रान्तः, यह विग्रह है। अति आदि शब्दों का क्रांत आदि अर्थ में द्वितीया के साथ समास होता है ॥४२४ ॥ अति आदि शब्दों का क्रान्त आदि अर्थ में जो समास होता है वह समास तत्परुष संज्ञक है। विश्व+ अम् अतिक्रान्त + सि, विभक्तियों का लोप होकर 'उक्तार्थानामप्रयोगः नियम से क्रांत का अप्रयोग होकर 'अव्ययानां पूर्वनिपात:' नियम से अति अव्यय का पूर्व में निपात होकर अतिविश्व रहा, पुन: लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'अतिविश्व:' बना । कोकिलया अवक्रुष्टं वनं यह विग्रह है। अवादि शब्दों का क्रुष्ट आदि अर्थ में तृतीयान्त के साथ समास होता है ॥४२५ ।। वह समास तत्पुरुष संज्ञक है। कोकिला+टा अवक्रुष्ट +सि ४२१३ सूत्र से विभक्ति का लोप, अव्यय का पूर्व में निपात एवं लिंग संज्ञा होकर । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास: १५३ गोरप्रधानस्यान्तस्य स्त्रियामादादीनां च ॥४२६॥ अप्रधानस्यान्तरस्य गोशब्दस्य तथाविधसियामादादीनां ह्रस्वो भवति । इति ह्रस्व: । अवकोकिलं वनं । अवमयूरं । अध्ययनाय परिग्लान इति विग्रहः । पर्यादयो ग्लानाधर्थ चतु...२७ ।। पर्यादयः शब्दा ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्या सह यत्र समस्यन्ते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । पर्यध्ययनः । कौशाम्ब्या निर्गत: । मथुराया निर्गत इति विग्रहे निरादयो निर्गमनाद्यर्थे पञ्चम्या ॥४२८॥ निरादयः शब्दा निर्गमनाद्यर्थे पञ्चम्या सह यत्र समस्यन्ते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति । गोरप्रधानस्यान्तस्य इत्यादिना हस्वः । निष्कौशाम्बिः । एवं निर्भयरः ।। दीर्घश्वारायणः । व्यास: पाराशयः। रामो जामदग्न्यः । क्षेमकरः। शभंकरः। प्रियंकरः। श्रियंमन्यः । भवमन्यः। आम्भसाकतं। तमसाकतं। परस्मैपदं । आत्मनेपदं । स्तोकान्मुक्तः । कृच्छ्रान्मुक्तः। अन्त्यकादागतः। दूरादागतः । वाचोयुक्तिः । दिशोदण्डः । पश्यतोहरः। शुन:पुच्छः । शुनःशेफ: । शुनोलाङ्ग्ल: । सरसिजं। पड़े। स्तंबेरमः । कर्णेजप: । कण्ठेकालः । उरसिलोमा। इत्यत्र समासे कृते विभक्तिलोपे प्राप्ते 'तत्स्था लोप्या विभक्तयः' इत्यत्र स्थग्रहणाधिक्याल्लोषो न भवति ।। अवकोकिला रहा । 'स्वरो ह्रस्वो नपुंसके' इस प्रकार से यहाँ योग चला आ रहा है। अप्रधान है अन्त में गो शब्द जिनके ऐसे और स्त्रीलिंगवाची आकारादि जो शब्द हैं वे ह्रस्व हो जाते हैं ॥४२६ ॥ इस सूत्र से ह्रस्व होकर 'अवकोकिल' रहा पुन: सि विभक्ति आकर नपुंसक लिंग के 'वन' का विशेषण होने से नपुंसक लिंग में 'अवकोकिलं' बना। ___ अवकोकिल वन-कोकिला (कोयलों) से व्याप्त वन । ऐसे ही मयूरेण अवक्रुष्टं वन–'अवमयूरं' बना। अध्ययनाय परिग्लान: इस प्रकार से विग्रह है। परि आदि शब्दों का ग्लान आदि अर्थ में चतुर्थ्यन्त के साथ समास होता है ॥४२७ ।। _वह समास तत्पुरुष संज्ञक है । अध्ययन + डे परिग्लान+सि. ४२१वें सूत्र से विभक्ति का लोप होकर ग्लान का प्रयोग हटाकर अव्यय का पूर्व में निपात हुआ अत: 'पर्यध्ययन' रहा लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'पर्यध्ययन: बना। कौशाम्ब्याः निर्गतः, मथुरायाः निर्गतः, इस प्रकार से विग्रह है। निरादि शब्दों का निर्गमन आदि में पंचम्यन्त के साथ समास होता है ।।४२८ ॥ और वह समास तत्पुरुष संज्ञक है। कौशाम्बी +ङसि निर्गत् + सि, विभक्ति का लोप, निर् का पूर्व में निपात होकर ४२६वें सूत्र से ह्रस्व होकर लिंग संज्ञा होकर नपुंसक लिंग में 'सि' विभक्ति आई। इनका समास करने पर विभक्तियों का लोप प्राप्त था, किन्तु "तत्स्था लोप्या विभक्तयः" सूत्र में 'स्थ ग्रहण की अधिकता होने से कहीं पर लोप नहीं होता है। इस नियम से ऊपर में विभक्तियों का लोप नहीं होने से 'आत्मनेपदं' परस्मैपद आदि रूप जैसे के तैसे रह गये हैं। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ कातन्त्ररूपमाला सप्तम्यास्तत्पुरुषे कृति बहुलम्॥४२९ ।। कृदन्ते परे सप्तम्यास्तत्पुरुषे कृति समासे बहुलमलुग्भवति । गेहेनदी । गेहेक्ष्वेडा । प्रवाहेमूत्रितं । भस्मनिहुतं । क्वचिद्विकल्प: । खेचरः, खचरः। वनेचरः, वनचर: । पङ्केरुह, पङ्करुहं । सरसिज, सरोजं । इत्यादि ॥ विदुषां गमनं । दिवं गतः । इत्यादौ समासे कृते व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः ।।४३०॥ लुप्तासु विभक्तिषु व्यञ्जनान्तस्य सुभोर्यदुक्तं तद्भवति । विद्वद्गमनं । धुगत: । इत्यादि । नीलं च तदुत्पलं च । रक्तं च तदुत्पलं च । च शब्दः समुच्चयद्योतनार्थः । तच्छब्द एकाधिकरणद्योतनार्थः । __ निष्कौशाम्बि + सि=निष्कौशाम्बि, निर्मयूर: । दीर्घश्चारायणः, व्यास: पाराशर्य:, रामो जामदग्न्य: क्षेमकर, शुभंकर: एकाधिकरणद्योतनार्थः । (पदे तुल्याधिकरणे विज्ञेयः कर्मधारयः ॥४३१ ।। यस्मिन् समासे द्वे पदे तुल्याधिकरणे भवत: स कर्मधारयो भवति । भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयो: शब्दयोरेकाधिकरणे समावेशस्तुल्याधिकरणं। उक्तार्थानामप्रयोग इति तत्-च-शब्दनिवृत्तिः । '--..--.----- सप्तमी से तत्पुरुष समास में कृदन्त से समास करने पर बहुधा करके लुक् नहीं होता है ॥४२९॥ तब गेहे, नदी, गेहेनर्दी प्रवाहे मूत्रितं-भस्मनि हुतं । इत्यादि । कहीं पर विकल्प हो जाता है । खेचर: खचर:, वनेचर: वनचर; पंकेरुहं पंकरुई, सरसिज सरोजं आदि । विदुषां गमन, दिवं गतः इत्यादि में समास के करने पर विद्वन्स्+आम, गमन+सि। दिव् + अम्, गत + सि है। विभक्ति का लोप होकर सूत्र लगा विभक्तियों के लोप हो जाने पर व्यञ्जनान्त सुभ्याम् विभक्तियों में जो कार्य कहा है वही हो जाता है ॥४३० ॥ न का लोप एवं स् का 'द' होकर 'विद्वद्गमन' सि विभक्ति आकर 'विद्वद्गमन' बना । उसी प्रकार "अघुट्स्वरादों" आदि ३१९वें सूत्र से व् को 'उ' होकर धुगत विभक्ति आकर 'धुगतः' बना । इत्यादि अब कर्मधारय समास को कहते हैं। नीलं च तदुत्पलं च, रक्तं च तदुत्पलं च । यहाँ चकार शब्द समुच्चय को प्रकट करने के लिये दिया जाता है। और 'तद्' शब्द एकाधिकरण को प्रकट करने के लिये है अर्थात् नील शब्द भी नपुंसकलिंग है अत: तद् शब्द भी नपुंसकलिंग का एकवचन है । इसी तरह कर्मधारय समास में स्त्रीलिंग में सा अथवा असौं, पुल्लिंग में असौं शब्द का प्रयोग होता है एवं एकवचन में एकवचन द्विवचन के साथ 'तो' बहुवचन के साथ 'ते' शब्द का प्रयोग होता है क्योंकि विशेष्य विशेषण का समास है अत: लिंगों में, वचनों में समानता का नियम है। उसी को आगे स्पष्ट करेंगे। जिस समास में दो पद तुल्य अधिकरण वाले होवें वह समास 'कर्मधारय' संज्ञक है ॥४३१ ॥ तुल्याधिकरण किसे कहते हैं ? भिन्न प्रवृत्ति में निमित्तभूत दो शब्दों का एक आधार में समावेश होना तुल्याधिकरण कहलाता है । यहाँ पर भी “उक्तार्थानामप्रयोगः" इस नियम से चकार और तद् शब्दों १. सप्तम्यन्त का कृदन्त के साथ तत्पुरुष समास करने पर सप्तमी विभक्ति का लोप नहीं होता है ||४३५ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास: १५५ विभक्तिलोपः। अत्र नील किमित्यपेक्षते ? उत्पलमपेक्षते । उत्पलं किमित्यपेक्षते ? नीलमपेक्षते। नीलोत्पलं । एवं वीरश्चासौ पुरुषश्च वीरपुरुष: । शुक्लचासौ पटश्च शुक्लपटः । शोभना चासौ भार्या च शोभनभार्या । दीर्घा चासौ माला च दीर्घमाला। कर्मधारयसंज्ञे तु पुंवद्भावो विधीयते ॥४३२॥ इति ह्रस्व: । इत्यादि। ख्यानों द्विगुरिति श्रेयः ।।४३३ 10 स एवं कर्मधारय: संख्यापूर्वश्चेत् द्विगुरिति ज्ञेयः । स च त्रिविध:-उत्तरपदतद्धितार्थसमाहारभेदात् । पञ्चसु कपालेषु संस्कृत ओदन: पञ्चकपाल ओदन: । दशसु गृहेषु प्रविष्टः दशगृहप्रविष्टः । अष्टसु कपालेषु संस्कृत: पुरोडाशः। अष्टन: कपालेषु हविषि ॥४३४॥ का अभाव हो गया अत: 'नीलं उत्पलं' रहे ४२१वें सूत्र से विभक्तियों का लोप होकर 'नील उत्पल' रहे। यहाँ नील किसकी अपेक्षा करता है ? उत्पल की अपेक्षा करता है । उत्पल किसकी अपेक्षा करता है ? नील की अपेक्षा करता है। अत: नीलोत्पल में लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर नपुंसकलिंग में 'नीलोत्पलं' बना। ऐसे ही 'रक्तोत्पलं' बना। इसी प्रकार से पुल्लिग में वीरश्चासौ पुरुषश्च विग्रह है । चकार और असौ का अप्रयोग होकर विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा होकर पुन: सि विभक्ति आकर 'वीरपुरुषः' बना। वैसे ही शुक्लश्चासौ पटश्च-शुक्लपट: । स्रोलिंग में शोभना चासौ भार्या च विग्रह है। पूर्वोक्त नियम से 'शोभनाभार्या' बनकर-- ___ कर्मधारय समास में पुंवद्भाव हो जाता है ॥४३२ ॥ इस सूत्र से ह्रस्व होकर 'शोभनभार्या' बना। वैसे दीर्घा चासौ माला च–दीर्घमाला बना। इत्यादि । अब द्विगु समास का वर्णन करते हैं। संख्यापूर्वक द्विगु समास होता है ॥४३३ ॥ वही कर्मधारय समास यदि संख्या पूर्व में रखकर होता है तब 'द्विगु' कहलाता है। उस द्विगु समास के तीन भेद हैं। उत्तरपद द्विगु, तद्धितार्थ द्विगु और समाहार द्विगु। उत्तरपद द्विगु का उदाहरण—दशसु गृहेषु प्रविष्टः ऐसा विग्रह हुआ। दशन् + सु, गृह + सु. प्रविष्ट + सि “तत्स्था लोप्या विभक्तयः" सूत्र से विभक्ति का लोप होकर, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर दशन् के नकार का लोप होकर 'दशगृहप्रविष्टः' बन गया। पश्चन्+सुप, कपाल+स विभक्तियों का लोप होकर नकार का लोप हुआ पुन: लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर “पञ्चकपाल:” ओदनः । यहाँ संस्कृत शब्द अप्रयोगी है 1 अष्टसु कपालेषु संस्कृत: पुरोडाश:। अष्टन् +सु, कपाल + सु विभक्तियों का लोप होकर कपाल से परे । हवन की सामग्री के वाच्य अर्थ में अष्टन् को आकारान्त हो जाता है ॥४३४ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ कातन्त्ररूपमाला अष्टन् शब्दस्य आत्वं भवति कपाले परे हविष्यभिधेये । अष्टाकपालः पुरोडाशः । अयमुत्तर । पञ्चच 'गावश्च पञ्चगवाः । समासान्तर्गतानां का राजादीनामदन्तता इति । चत्वारश्च ते पन्थानश्च चतुष्पथाः । इति तद्धितपदार्थः । पञ्चानां पूलानां समाहारः पञ्चपूली । एवं त्रिलोकी अकारान्तो द्विगुसमाहारो नदादौ पठ्यते पात्रादिगणं वर्जयित्वा । पात्रादिगण इति किं ? त्रयाणां भुवनानां समाहारस्त्रिभुवनं । समाहारद्विगुरयं । त्रिभुवनेन त्रिभुवनाय त्रिभुवनात् । त्रिभुवनस्य । त्रिभुवने । ( सर्वत्रैकवचनमेव ) पंचसु कपालषेषु संस्कृत: ओदनः तत्पुरुषावुभौ ॥४३५ ॥ उभौ द्विगु कर्मधारय तत्पुरुषौ भवतः । अब्राह्मणः । अनजः । कदश्व इत्यादि । इति कर्मधारयः । इति तत्पुरुषसमासः । आरूढो वानरो यं वृक्षं । ऊढो रथो येन । उपहृतः पशुर्यस्मै । पतितं पूर्णं यस्मात् । चित्रा गावो यस्य । कीराः पुरुषा यस्मिन्देशे । लम्बौ कर्णौ यस्य । दीर्घौ बाहू यस्य । इति स्थिते अतः अष्टाकपालः बना । ये उत्तर द्विगु के उदाहरण हैं । तद्धितार्थं द्विगु — पंच च ते गावश्च ऐसे विग्रह हुआ । पञ्चन् + जस् गो + जस्, विभक्ति का लोप होकर लिंग संज्ञा हुआ, नकार का लोप एवं जस् विभक्ति आकर "पश्चगावः । " चत्वारश्च वे पंथानश्च विग्रह हुआ । पुनः चत्वार् + जसू पंथि + जस् विभक्तियों का शोप होकर "शब्दयो" से होकर "तर्गतानां वा राजादीनामदन्तता" इस सूत्र से पंथि को अकारांत होकर लिंग संज्ञा होकर 'चतुष्पथ' बना । पुनः जस् विभक्ति आकर चतुष्पथाः बना । इस प्रकार से तद्धितार्थ द्विगु हुआ। समाहार द्विगु — पञ्चानां फलानां समाहारः ऐसा विग्रह हुआ । पञ्चन् + आम् फल + आम् विभक्ति का लोप होकर नकार का लोप होकर 'पञ्चफल' रहा पुनः पात्रादिगण के अकारांत द्विगुसमाहार नदादिगण में पढ़े जाते हैं अतः 'नदाद्यश्च । इत्यादि सूत्र से 'ई' प्रत्यय होकर १३६ वें सूत्र से अकार का लोप होकर 'पञ्चफली' बना। अब लिंग संज्ञा करके नदीवत् इसके रूप चला लीजिये। इसी प्रकार से त्रिलोकी शब्द भी बना है। पात्रादिगण को छोड़कर कहा है सो पात्रादिगण में क्या क्या लेना ? त्रयाणां भुवनानां समाहारः 'त्रिभुवनम्' ये पात्रादि गण में हैं अतः ई प्रत्यय नहीं हुआ । ये भी समाहार द्विगु में ही हैं इस त्रिभुवन के रूप सर्वत्र एकवचन में चलते हैं यथात्रिभुवनं, त्रिभुवनेन, त्रिभुवनाय, त्रिभुवनात् त्रिभुवनस्य, त्रिभुवने । द्वि और कर्मधारय दोनों ही तत्पुरुष समास हैं ॥ ४३५॥ तत्पुरुष के कर्मधारय भेद में ही नञ् समास अंतर्भूत है। जैसे न ब्राह्मण:- अब्राह्मणः । न अज:--- अनजः कुत्सित् अश्व:- कदश्वः इत्यादि । ये कर्मधारय और द्विगु समास तत्पुरुष समास में ही अंतर्भूत हो जाते हैं। इस प्रकार से तत्पुरुष समास का प्रकरण पूर्ण हुआ। अथ बहुव्रीहि समास का वर्णन आरूढों वानरो यं वृक्षं सः - जिस वृक्ष पर यह बन्दर चढ़ा हुआ हैं (वह वृक्ष) । ऊढो रथो येन जिसने रथ को खींचा (वह व्यक्ति) । उपहतः पशुः यस्मै — जिसके लिये पशु दिया (वह) | पतितं पर्णं यस्मात् — जिससे पत्ता गिरा ( वह वृक्ष) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास: १५७ स्यातां यदि पदे द्वे तु यदि वा स्युर्बहून्यपि तान्यन्यस्य पदस्यार्थे बहुव्रीहिः ॥४३६ ।। 1 यत्र समासे द्वे पदे यदि वा स्यातां बहूनि वा स्युरन्यपदार्थे समस्यन्ते स समासो बहुव्रीहिर्भवति। आरूढवानरः । ऊढर!: । उपहतपशुः . तित: तिः पीरपुर यो : ' लम्बकर्ण: । दीर्घबाहुः । बहुपदानामपि । बहवो मत्ता मातङ्गा यस्मिन् वने तत् बहुमत्तमातङ्गं वनं । बहूनि रसवन्ति फलानि यस्मिन् वृक्षे स बहरसवत्फलो वृक्षः। व्यञ्जनान्तस्य यत्सभोरिति न्यायात् अनुषङ्गालोपः। उपगता दश येषां ते उपगतदशा: । एवमासन्ना दश येषां ते आसनदशा: । अदूरा दश येषां ते अदूरदशा: । अधिका दश येषां ते अधिकदशा: । पुत्रेण सह आगत: सपुत्र: सहपुत्रः । सहस्य सो बहुव्रीहौ वा ॥४३७ ॥ चित्रा गावो यस्य-चित्रविचित्र हैं गायें जिसकी (ऐसा वह मनुष्य) । वीरा: पुरुषा यस्मिन्-वीर पुरुष हैं जिसमें (ऐसा वह देश) । लम्बौ करें यस्य-लंबे हैं दो कान जिसके (ऐसा वह मनुष्य)। दीपों बाहू यस्य-दीर्घ हैं दोनों भुजायें जिसकी (ऐसा वह मनुष्य)। धीराः पुरुषा यस्मिन्–धीर पुरुष हैं जहाँ पर (ऐसा वह देश ) । इस प्रकार से बहुवीहि समास का विग्रह हुआ। जिस समास में दो पद होवें अथवा बहुत पद होवें और पदों का अन्य पद के अर्थ में समास होवे तो वह समास 'बहुव्रीहि' कहलाता है ।।४३६ ॥ आरूढ़ +सि वानर+सि बाकी यं वृक्षं अप्रयोगी है। विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा, पुन: विभक्ति आकर 'आरूढवानरः' बना। ऊळ+सि रथ+सि 'येन' शब्द अप्रयोगी है अन्य पदार्थ है उसी अर्थ में समास होता है विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा होकर 'ऊढरथ:' बना। ऐसे ही उपर्युक्त पदों से उपहतपशुः । पतितपर्ण: । चित्रगुः । वीरपुरुष: देश: । लम्ब कर्ण: । दीर्घबाहुः । धीरपुरुष: देश: बन गये। यहाँ चित्रगो को 'गोरप्रधानस्य स्रियामादादीनां च ४२६ सूत्र से ह्रस्व करके 'चित्रगुः बनाया है।' बहुत पदों में भी इस समास के उदाहरण-बहवो मत्ता मातंगा: यस्मिन् वने ऐसा विग्रह होकर बहु + जस् मत्त+ जस् मातंग+जस् विभक्तियों का लोप होकर 'बहुमत्तमातंग' बना । पुन: लिंग संज्ञा होकर नपुंसक लिंग में 'सि' विभक्ति से रूप बनकर 'बहुमत्तमातंगं वनं' बना । बहूनि रसवन्ति फलानि यस्मिन् वृक्षे, बहु+जस् रसवन्त् + जस् फल+जस विभक्तियों का लोप होकर "व्यंजनान्तस्य यत्सुभोः” इस ४३०वें सूत्र से अनुषंग का लोप होकर 'बहुरसवत्फल' रहा लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर वृक्ष का विशेषण होने से पुल्लिग में 'बहुरसवत्फल:' बना। ऐसे ही उपगता दश येषां ते । उपगत+ जस् दशन्+जस् विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा, जस् विभक्ति आकर उपगतदशन् बना यहाँ 'समासांतर्गतानां वा राजादीनामदन्तता' सूत्र से दशन् शब्द को अकारांत होकर 'उपगतदशाः' बना है । ऐसे ही आसन्ना दश येषां ते-आसन्ना दशा: । अदूरा दश येषां ते अदूरदशा: । अधिका दश येषां ते-अधिकदशाः। पुत्रेण सह आगत: ऐसा विग्रह है। बहुव्रीहि समास में सह शब्द को विकल्प से सकार हो जाता है ॥४३७ ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ कातन्त्ररूपमाला सहशब्दस्य सो वा भवति बहुव्रीही समासे । एवं सधर्मः । जनकेन सह वर्तते इति सजनकः । जनन्या सह वर्तते इति सजननि: । एवं सवधुः । गोरप्रधानस्येत्यादिना ह्रस्व: । अव्ययानां पूर्वनिपातः । __ युधि क्रियाव्यतिहारे इच् ।।४३८ ॥ ग्रहणप्रहरणबाधके युद्धे क्रियाव्यतिहारे बहुव्रीहिसमासात् इच् भवति । इचि पूर्वपदस्याकारः ॥४३९॥ इचि परे पूर्वपदस्याकारो भवति । दण्डैश दण्डैश्च प्रवृत्तं युद्धं दण्डादण्डि। एवं गदागदि । खड्गाखगि । केशाकेशि । मुष्टामुष्टि । कवाकचि । दक्षिणस्या: पूर्वस्याच दिशोर्यदन्तरालं सा विदिक् । विदिक तथा॥४४० ।। तथा विदिभिधेये बहुव्रीहिशेयः। सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पूर्वपदस्य पुंवद्भाव: । दक्षिणपूर्वा । पश्चिमोत्तरा । दक्षिणपशिमा । उत्तरपूर्वा । इत्यादि। शुकश्च मयूरश्च । धवश्च खदिरश्च पलाशश्च । इति स्थिते पुत्र+टा, सह+सि है । विभक्ति का लोप होकर 'अव्ययाना पूर्वनिपात:' से सह का पूर्व में निपात होकर ‘सहपुत्रः' बना अथवा सह को 'स' होकर 'सपुत्रः' बना । ऐसे ही जनकेन सह वर्तते----'सजनकः', धर्मेण सह वर्तते–'मधर्म:' । जनन्या मह वर्तते ‘मजननी' मना "गोरप्रधानस्य” इत्यादि ४२६वें सूत्र से ह्रस्व होकर 'सजननि:', वध्वा सह वर्तत 'सवधुः' बना। युद्ध क्रिया के व्यतिहार में इच् प्रत्यय होता है ॥४३८ ॥ ग्रहण प्रहरण से बाधा युक्त युद्ध क्रिया में क्रिया व्यतिहार में बहुव्रीहि समास से 'इच्' प्रत्यय होता है। क्रिया व्यतिहार किसे कहते हैं ? परस्पर में प्रहार आदि की क्रिया को क्रिया व्यतिहार कहते हैं। जैसे दण्डैश्च दण्डैश्च प्रवृत्तं युद्ध-दण्ड + भिस् दण्ड + भिस् है विभक्तियों का लोप होकर 'दण्ड-दण्ड' रहा । इच प्रत्यय होकर १३६वें सत्र से 'इवर्णावर्णयोलोप: स्वरे प्रत्यये ये च' सूत्र से अवर्ण का लोप होकर ‘दण्डदण्डि' रहा पुन: इच् प्रत्यय के परे पूर्वपद को आकार हो जाता है ॥४३९ ॥ इस सूत्र से 'दण्डादण्डि' बना, लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर वारिवत् रूप चलने से 'दण्डादण्डि' बन गया। ऐसे ही गदाभिश्च गदाभिश्च प्रवृत्तं युद्धं--गदागदि। . ___ खड्गैश्च खड्गश्च प्रवृत्तं युद्ध-खड्गाखड्गि । इसी प्रकार से केशाकेशि', मुष्टामुष्टि, कचाकचि बन गये। दक्षिणस्या: पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं सा विदिक् ऐसा विग्रह हुआ दक्षिणा + ङस् पूर्वा + ङस् विभक्ति का लोप होकर 'दक्षिणापूर्वा' रहा विदिशा के वाच्य में बहुव्रीहि समास होता है ॥४४० ॥ सर्वनाम के समास में पूर्वपद को पुंवद्धाव हो जाता है। अत: 'दक्षिणपूर्वा' बना पुन: लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर रमावत् रूप चलेंगे। अत: "दक्षिणपूर्वा" बन गया । पश्चिमस्याश्च उत्तरस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं—सा पश्चिमोत्तरा। दक्षिणस्याश्च पश्चिमस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं-दक्षिणपश्चिमा । उत्तरस्याश्च पूर्वस्याच दिशोर्यदन्तरालं-उत्तरपूर्वा । इत्यादि । १. केशेषु केशेषु गृहीत्वा इदं युद्ध प्रवृत्तं ऐसा विग्रह है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास: इन्द्रः समुच्चयो नाम्नोर्बहूनां वाऽपि यो भवेत् ॥ ४४९ ।। नोर्बहूनां वापि समुच्चयो द्वन्द्वो भवेत् । स च इतरेतरयोगः समाहारश्चेति द्विप्रकारः । [ यंत्र द्वित्वं बहुत्वं च स द्वन्द्व इतरेतरः । समाहारो भवेदन्यो यत्रेकत्वनपुंसके ॥ 3 द्वित्वे द्विवचनं । बहुवे बहुवचनं । शुकमयूरौ ॥ धवखदिरपलाशाः । अल्पस्वरतरं तत्र पूर्वम् ॥४४२ ॥ तत्र द्वन्द्वे समासे अल्पस्वरतरं पदं पूर्वं निपात्यते । प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च प्लक्षन्यग्रोधौ । एवं रथपदाती । तरग्रहणं द्विपदनियमार्थम् । अन्यत्र शंखदुंदुभिवीणा: । यच्चार्चितं द्वयोः ||४४३ ॥ तत्र द्वन्द्वे समासे द्वयोर्यदर्चितं तत्पूर्वं निपात्यते । वासुदेवार्जुनौ । शुककाकौ । हंसबलाके। देवदैत्यौ । क्वचिद् व्यभिचरति च । तथा हि न नरनारायणादिषु ॥ ४४४ ॥ १५९ अथ द्वन्द्व समास प्रकरण । शुकश्च मयूरश्च । धत्रश्च खदिरश्च पलाशश्च । ऐसा विग्रह हुआ । दो पदों का अथवा बहुत से पदों का समुच्चय होना द्वंद्व समास कहलाता है ॥४४१ ॥ उस द्वंद्व समास के दो भेद हैं। इतरेर पो द्वंह और समाहारद्वय । | श्लोकार्थ — जहाँ पर दो पदों का और बहुत से पदों का समास होता है वह इतरेतर द्वन्द्व है और दूसरा समाहार द्वन्द्व है। इस समाहार द्वन्द्र में नपुंसक लिंग का एकवचन ही होता है । अर्थात् इतरेतर द्वन्द्व में यदि दो पद हैं तो द्विवचन, यदि बहुत से पद हैं तो बहुवचन होता है, किन्तु समाहार द्वन्द्व में नपुंसक लिंग का एकवचन ही होता है ॥ १ ॥ शुक +सि मयूर + सि विभकति का लोप, लिंग संज्ञा दो पद में द्विवचन में, " शुकमयूरौ " बना तथैव धवखदिरपलाश को बहुवचन में 'धवखदिरपलाशाः' बना । इस द्वन्द्व समास में अल्पस्वरतर वाले पद का पूर्व में निपात होता है ॥४४२ ॥ जैसे— प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च - प्लक्षन्यग्रोधौ बना । एवं रथश्च पदातिश्च रथपदाती। सूत्र में तर शब्द क्यों लिया है ? तर शब्द का ग्रहण के लिये किया गया है। जहाँ बहुत से पद हों वहाँ यह नियम नहीं लगेगा। जैसे शंखश्च दुन्दुभिश्च वीणा च यहाँ तीन पदों में शंख और वीणा दो पद अल्पस्वर वाले हैं यहाँ वह नियम नहीं समझना । अतः शंखदुन्दुभिवीणा:' बन गया । दोनों में जो अर्चित है उसे पूर्व में रखना ||४४३ ॥ इस द्वन्द्व समास में दोनों में जो अर्चित-पूज्य है उसका पूर्व में निपात होता है। जैसे- वासुदेवश्च अर्जुनश्च इसमें अर्जुन में अल्पस्वर है अतः उसका पूर्व में निपात आवश्यक था, किंतु उसे बाधित कर इस सूत्र से अर्चित 'वासुदेव' को पूर्व में लेना है, अतः 'वासुदेवार्जुनौ शुककाकौ, हंसबको, देवदैत्यों ।' कहीं पर व्यभिचार — नियम का उल्लंघन भी देखा जाता है। जैसे— नर और नारायण आदिकों में यह नियम नहीं है ॥ ४४४ ॥ १. जहाँ द्विवचनान्त और बहुवचनान्त प्रयोग में पाये जाये उसे इतरेतर योग जानो । २. जहाँ पर एक वचनान्त होते हुए नपुंसक लिंग हो उसको समाहार द्वंद्व समझो। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला वरनारायणादिषु यदर्चितं पदं तत्पूर्व न निपात्यते । नरश्च नारायणश्च नरनारायणै । उमामहेश्वरौ । काकमयूरौ । इत्यादि। मातः पिनयरश्च ।।४४५ ॥ तत्र द्वन्द्वे समासे पितरि उत्तरपदे मातृशब्दस्य ऋत अरादेशो भवाते चकारादा च। माता च पिता च मातरपितरौ । मातापितरौ । पुत्रे ।।४४६ ॥ पुत्रशब्दे उत्तरपदे द्वन्द्वविषये विद्यायोनिसम्बन्धिन ऋदन्तस्य आत्वं भवति । माता च पुत्रश्च मातापुत्रौ । एवं होतापुत्रौ । इति द्वन्द्वसमास: ॥ कुम्भस्य समीपं । अन्तरायस्य अभावः । (पूर्व वाच्यं भवेद्यस्य सोऽव्ययीभाव इष्यते ।।४४७॥ यस्य समासस्य पूर्वमव्ययं पदं वाच्यं भवेत्सोऽव्ययीभाव इष्यते। अव्ययानां स्वपदविग्रहो नास्तीत्यन्यपदेन विग्रह इति वचनाद् समीपस्य उपादेश: । अभावस्य निरादेशः । समासे कृते अव्ययानां पूर्वनिपातः । स नपुंसकलिङ्गः स्यात्॥४४८ ।। सोऽव्ययीभावसमासो नपुंसकलिङ्ग: स्यात् । अव्ययत्वादलिङ्गे प्राप्ते वचनमिदं । नर नारायण में जो अर्चित हो उसे पूर्व में रखने का नियम नहीं है । नरश्च नारायणश्च-नरनारायणौ, उमा च महेश्वरश-उमामहेश्वरी, काकश्च मयूरश्च-काकमयूरौ इत्यादि। द्वंद्व समास में पितृ शब्द के आगे आने पर मातृ शब्द के ऋ को अर् आदेश हो जाता है ॥४४५ ॥ ___ सूत्र में चकार से 'आ' आदेश भी हो जाता है। अत: माता च पिता च-मातरपितरौ अथवा मातापितरौ बना। पुत्र शब्द के आने पर भी ऋ को आ हो जाता है ॥४४६ ॥ पुत्र शब्द के उत्तरपद में रहने पर द्वंद्व समास में विद्या अथवा योनि का संबंध होने से ऋकार को 'आ' हो जाता है । माता च पुत्रश्च-माता पुत्रौ, होता च पुत्रश्च-होतापुत्रौ बन गया। इस प्रकार से द्वंद्व समास हुआ। अब अव्ययीभाव समास को कहते हैं। कुम्भस्य समीप, अन्तरायस्य अभाव, ऐसा विग्रह है। जिस समास में पूर्व में अव्ययवाचक पद हो वह अव्ययी भाव समास है ॥४४७ ॥ अव्ययों का स्वपद से विग्रह नहीं होता इसलिये अन्य पद से विग्रह किया है इस नियम से यहाँ पर 'समीप' को 'उप' अव्यय आदेश होगा और अभाव को 'निर्' अव्यय आदेश होगा। और समास के करने पर अव्ययों का पूर्व में निपात हो जाता है। अत: कुम्भ + ङस् उप + सि विभक्ति का लोप होकर 'उपकुम्भ' रहा। लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'उपकुम्भ + सि' है। यह अव्ययीभाव समास नपुंसक लिंग ही होगा ।।४४८ ॥ इस समास में अव्यय की प्रधानता होने से अलिंग में प्राप्त था अत: नपुंसक लिंग ही रहा है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासः अव्ययीभावादकारान्ताद्विभक्तीनामपञ्चम्याः ॥ ४४९ ॥ अकारान्तादव्ययीभावाद्विभक्तीनां स्थाने अपञ्चम्या अम् भवति। उपकुम्भं । निरन्तत्यं । एवमुपगृहं । उपगेहं । उपगजं । उपराजं । उपच्छत्रं । उपवनं । उपनगं । उपदेवं । उपभार्यं । उपशालं । वादस्याभावो निर्वाद । मक्षिकाणामभावो निर्मक्षिकं । शीतस्यातिक्रमः अतिशीतं । एवमतिक्रमं । दिनं दिनं प्रति प्रतिदिनं । एवं प्रतिगृहं । प्रतिवृक्षं । प्रतिपुरुषं । प्रतिवनितं प्रतिमासं प्रतिवर्षं । प्रतिग्रामं प्रतितटं । पुरुषस्य अनुगम: अनुपुरुषं । एत्रमनुतटं । ग्रामस्यान्तः अन्तर्ग्रामं । अन्तर्गृहं । ग्रामस्य मध्ये मध्येग्रामं । एवं मध्येवनं । मध्येदिनं । मध्येकूपं । ग्रामस्य बहिर्बहिग्रामं । उपरिपर्वतं । एवं बहिण | अन्तर्वणं । वा तृतीयासप्तम्योः ॥४५० ॥ अकारान्तादव्ययीभावात्परयोस्तृतीयसप्तम्योः स्थाने अन् वा भवति । उपकुम्भं उपकुम्भेन । उपकुम्भं, उपकुम्भाभ्यामित्यादि । निरन्तरायं निरन्तरायेण । उपकुम्भं, उपकुम्भे । उपकुम्भयोः । इत्यादि । निरन्तरायं निरन्तराये । अपश्चम्या इति किं ? उपकुम्भात् । निरन्तरायात् । इत्यादि । स्त्रीष्वधिकृत्य अधिकृत्यस्याधिरादेशः । शक्तिमनतिक्रम्य अनतिक्रम्यस्य यथादेशः । इत्यादिषु समासे कृते । अन्यस्माल्लुक् ।।४५१ ।। १६१ अकारान्त अव्ययीभाव से पंचमी को छोड़कर सभी विभक्तियों को 'अम्' हो जाता है ॥४४९ ॥ अतः 'उपकुम्भं' बना। ऐसे ही अन्तरायस्य अभावः – निरन्तराय, गृहस्य समीपं - उपगृहं गजस्य समीपं-उपगजं । भार्यायाः समीपं उपभार्यः 'स्वरो ह्रस्वो नपुंसके' सूत्र से ह्रस्व हो गया। ऐसे ही वादस्य अभावो निर्वाद, मक्षिकाणाम् अभावो निर्मक्षिकं बना । शीतस्य अतिक्रम:- अतिशीतं, क्रमस्य अतिक्रमः - अतिक्रमं दिनंदिनं प्रति — प्रतिदिनं गृहं गृहं प्रति — प्रतिगृहं आदि ऐसे हो पुरुषस्य अनुगमः अनुपुरुषं अनुत्तरं आदि। ग्रामस्यांत :- अंतर्याम, ग्रामस्य मध्ये—मध्ये ग्रामं, ग्रामस्य बहिः बहिर्ग्रामं, पर्वतस्योपरि उपरिपर्वतं वनस्य बहि: - बहिर्वण अंतर्वर्ण आदि । अकारांत अव्ययीभाव से परे तृतीया और सप्तमी के स्थान में विकल्प से अम् होता है ॥४५० ॥ उपकुंभभ्याम् उपकुम्भयोः निरन्तरायाभ्यां उपकुम्भैः उपकुम्भेषु । निरन्तरायैः उपकुंभं उपकुम्भेन उपकुंभं उपकुम्भ ऐसे ही निरन्तरायं निरन्तरायेण इत्यादि । अपशम्याः ऐसा क्यों कहा ? तो पंचमी में उपकुम्भात्, निरन्तरायात् बनता है । इत्यादि । स्त्रीषु अधिकृत्य, शक्तिमनतिक्रम्य ऐसा विग्रह है। यहाँ अधिकृत्य को 'अधि' एवं अनतिक्रम्य को 'यथा' आदेश हुआ है। स्त्री + सु अधि + स विभक्ति का लोप होकर अव्यय को पूर्व में करक अधिस्त्री, यथाशक्ति बना । गोर प्रधानस्य सूत्र से अधिस्त्री को ह्रस्व करके लिंग संज्ञा होकर विभक्तियाँ आईं। अकारांत से भिन्न अन्य अव्ययीभाव से परे विभक्तियों का लुक् हो जाता है ॥४५१ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ कातन्त्ररूपमाला अकारान्तादन्यस्माद्व्ययीभातात्परासां विभक्तीना लग् भवति । अधिस्त्रि। यथाशक्ति । एवमधिगायत्रि । अधिमरस्वति । अधिभारति । अधिनदि । आत्मनः अधि अध्यात्म । गुरोरनतिक्रमेण यथागुरु । वध्वा अनतिक्रमेण यथावधु । चम्वा अतिक्रमेण यथाचम् । गिरेरनतिक्रमेण यथागिरि । वध्वा अनुगम: अनुवधु । अनुकण्डु । अनुदि । अनुस्त्रि । अनुपटु । अनुवायु । अनुगुरु । अनुपितृ अमातृ अनुकर्तृ । कर्तुः समीपमुपकर्तृ । एवमुपगिरि । उपरवि । उपयति । उपगुरु उपतरु । उपवधु । उपचम् उपनदि । उपस्त्रि । उपगु । उपनु । कर्तुरतिक्रम: अतिकर्तृ । एवमतिरि । अतिग। अतिनु । समं भूमिपदात्योः ॥४५२।। भूमिपदात्योः परयो: समत्वं इत्येतस्य सममित्यादेशो भवति । भूमेः समत्वं समभूमि । पदातीनां समत्वं समंपदाति । सुविनिर्दुर्व्यः स्वपिसूतिसमानाम्॥४५३ ॥ सुविनिर्दुर्य: परस्य स्वपिसूतिसमानां सकारस्य षकारो भवति । सुषमं । विषमं । निष्षम । दुष्पमं । अपरसम इत्यादि। द्वन्द्वैकत्वम्॥४५४॥ समाहारद्वन्द्वस्यैकत्वं नपुंसकलिङ्ग च स्यात् । अर्कश्च अश्वमेधश्च अश्विमेधौ । तयोः समाहार: अश्विमेधं । एव तक्षायस्कार । हसमयूर । मथुरापाटलिपुत्रं । पाणिपादं । बदरामलकं । सुखदुःखं । शुकश्च हंसश्च मयूरश्च कोकिलश शुकहसमयूरकोकिलं । इत्यादि । तथा द्विगोः ॥४५५ ॥ तथा समाहारद्विगोरप्येकत्वं नपुंसकलिङ्ग च स्यात् । अत: अधिस्विं यथाशक्ति अधिगायत्रि, अधिसरस्वति आदि बन गये। ऐसे ही आत्मनः अध्यात्म । आत्मन शब्द को अकारांत होकर नपंसकलिंग में एकवचन हो गया। गरो. अनतिक्रमेण यथा गुरु । वध्वा अनुगम: अनुवधु । कर्तुः समीपं.---उपकतुं गो: समीपं---उपगु । ह्रस्व हो गया। इसी प्रकार से ऊपर में बहुत से शब्द बने हैं देख लेना चाहिये। . भूमे: समत्वं, पदातीनां समत्व है। भूमि पदाति से परे समत्वं को समं आदेश हो जाता है ॥४५२ ॥ समभूमि, समं पदाति । सु, वि, निर दुर् से परे स्वपि, सूति और समान के सकार को षकार हो जाता है ॥४५३ ॥ स्वपि में सुषुप्तः, विषुप्तः निष्षुप्त: दुष्षुप्त: । सूति में-सुपूति: विषूति: नि:पूति: दु पूति । समान में—सुषमं, विषमं, निष्षम, दुष्पमं । इन्ही चारो से परे क्यो कहा ? तो अपरसम में सकार को षकार नहीं हुआ है। इत्यादि। अर्कच अश्वमेधश्न-अश्विमेधौ तयो समाहार:- . समाहार द्वन्द्र में एकत्व एवं नपुंसकलिंग हो जाता है ।।४५४ ॥ अतः अश्विमेधं बना । ऐस ही क्षण अयस्कारश्च तक्षायस्कारौं तयोः समाहार क्षायस्कार' हंसश्न मयुरश्च हंसमयूरौ तयो; समाहार हसमयूर, पाणी च पादौ च पाणि पायौं नयो समाहार पाणिपाट इत्यादि । उसी प्रकार से समाहार द्विगु में भी नपुंसकलिग एकवचन हो जाता है ।।४५५ ॥ यधा- पञ्चाना गवा समाहार: पञ्चगो, चतुर्णा पवां समाहार: चतुष्पणि । अधि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21, 31 7 1 म. .. . 12 . समास: १६३ समासान्तर्गतानां वा राजादीनामदन्तता ॥४५६ ।। समासान्तर्गतानां राजादीनामदन्तता अप्रत्ययो भवति । वा समुच्चये । पश्चानां गवां समाहार: पञ्चगवं । चतुर्णा पश्चा समाहार. चतुष्पथं । न सूत्रे क्वचित् ।।४५७ ॥ क्वचित्सूत्रे द्वन्द्वैकत्वं भवति, नपुसकलिङ्गत्व न स्यात् । विरामव्यञ्जनादौ। एवं पचिवचिसिचिरुचिमुचेश्चात् । इत्यादि । पुंवद्धाषितपुंस्कानूङपूरण्यादिषु स्त्रियां तुल्याधिकरणे ॥४५८ ॥12:२२ स्त्रियां वर्तमानं भाषितपुंस्क अनूङन्तं पूर्वपदभूतं पुंवद्भवति स्त्रिया वर्तमाने तुल्याधिकरणे | पूरण्यादिगणवर्जिते उत्तरपदे परे । शोभना भार्या यरस्यासौं शोभनभार्य: । एवं दीर्घजयभार्यः । इत्यादि। मिति कि ? द्रोणीभार्यः । अनङ इति किम ? ब्रह्मवधभार्य: । अपरण्यादिष्विति कि ? कल्याणी पञ्चमी यासां रात्रीणां ताः कल्याणीपञ्चमा रात्रयः । के पूरण्यादयः ? पूरणी पञ्चमी कल्याणी मनोज्ञा सुभगा दुर्भगा स्वकान्ता कुब्जा वामना। संज्ञापूरणीकोपधास्तु न ॥४५९॥ स्त्रियां वर्तमाना भाषितपुंस्कानूङन्ता: सज्ञापूरणीप्रत्ययान्ता: कोपधा: पूर्वपदभूताः पुंवद्रूपा न भवन्ति समास के अन्तर्गत राजादि शब्द अकारांत. हो जाते हैं ॥४५६ ।। यहाँ सूत्र में 'वा' शब्द समुच्चय के लिये है अत: पञ्चगो से 'अ' प्रत्यय होकर अव् होकर लिग संज्ञा एवं विभक्ति आकर 'पंचगवं' बना। ऐसे ही चतुष्पथि मे "इवर्णावर्णयोलोप: स्वरे प्रत्यये ये च" सूत्र से इकार का लोप, लिंग संज्ञा होकर 'चतुयथं' बना। किसी सूत्र में द्वंद्व में एकल होता है, किन्तु नपुंसकलिंग नही होता है ॥४५७ ।। विराम और व्यंजन का समास करके ङि विभक्ति एकवचनान्त है। किन्तु नपुंसकलिङ्ग नहीं है यदि नपुंसकलिङ्ग होता तो वारि शब्दवत् २ का आगम होकर आदिनि हो जाता न कि आदौ । तुल्याधिकरण में पूरणी आदि गण को छोड़कर स्त्रीलिंग में वर्तमान अकारांत रहित माषितपुंस्क को पुंवद् हो जाता है ॥४५८ ॥ जैसे—शोभना भार्या यस्य सः शोभनभार्या बना । पुन ४३२वें सूत्र से अन्त को अकारांत होकर शोभनभार्य: बना। ऐसे ही दीर्घजंघभार्य: इत्यादि । भाषितपुस्क हो ऐसा क्यों कहा ? भाषितपुस्क नहीं हो तो ह्रस्व नहीं होगा जैसे- द्राणीभार्य: यहाँ द्रोणी शब्द भाषितपुंस्क नहीं है नित्य ही स्त्रीलिंग है। पङ ऐसा क्यों कहा तो ब्रह्मवधभार्य: यहाँ वध शब्द ऊकारात है उसे हस्त नही हआ। पूरणी आदि गण को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? पूरणी आदि गण के शब्दो को भी ह्रस्व नहीं होगा। जैसे-कल्याणी पञ्चमी यासा रात्रीणां ता: कल्याणीपञ्चमा: । रात्रयः । पूरणी आदि गण में कौन-कौन है ? पूरणी, पञ्चमी, कल्याणी, मनोज्ञा, सुभगा, दुर्भगा, स्त्रकान्ता, कुजा, वामना । ये शब्द पूरणी आदि गण मे माने गये है। संज्ञा पूरणी प्रत्ययात 'क' की उपधा वाले पूर्वपदभूत पुवद् रूप नहीं होते हैं ॥४५९ ।। स्त्रीलिंग में वर्तमान तुल्याधिकरण पद मे परणी आदि गण वर्जित उत्तर पद के होने पर सीलिंग में वर्तमान भाषित पुंस्क से अकारात रहित, सज्ञा पूरणी प्रत्ययात वाले एव 'क' की उपधा वाले शब्दों को पूर्वपद में ह्रस्व नहीं होता है । जैसे दत्ता भार्या यस्यासौ दत्ताधाय पञ्चमी भार्या यस्यासौ पचमीभार्यः, Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ कातन्त्ररूपमाला स्त्रियां वर्तमाने तुल्याधिकरणे पदे पूरण्यादिगणवर्जित उत्तरपदे परे । दत्ता भार्या यस्यासौ दत्ताभार्यः । पञ्चमीभार्यः । पाचिकाभार्य: । गोरप्रधानस्येत्यादिना ह्रस्वः । इत्यादि । कर्मधारयसंज्ञे तु पुंवद्भावो विधीयते ॥४६०।। स्त्रियां वर्तमाना भाषितपुंस्का अनूडन्ताः संज्ञापूरणीप्रत्ययान्ता: कोएधा अपि कर्मधारयसमासे तु पुंवद्भवन्ति स्त्रियां वर्तमाने तुल्याधिकरणे पूरण्यादिगणवर्जित उत्तरपदे परे। शोभना चासौ भार्या व शोभनभार्या । एवं दत्तभार्या । पाचकभार्या । पञ्चमभार्या इत्यादि। भाषितपुंस्कमिति किं ? खट्वावृन्दारिका। अनूडिति किं ? ब्रह्मवधूदारिका । आकारो महतः कार्यस्तुल्याधिकरणे पदे ॥४६१ ॥ महत आकार: कार्यस्तुल्याधिकरणे पदे परे । महाशासौ वीरश्च महावीरः । अन्तरङ्गत्वात् व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोरिति न्यायादनुषगलोप: । प्रथमतोऽनुषङ्गस्य लोपे कृते सति पश्चात् येन विधिस्तदन्तस्येति न्यायात् तकारस्याकारः । सर्वत्र सवणे दीर्घः । एवं महापुरुष:। महापर्वतः । महादेशः ।। नस्य तत्पुरुषे लोपः॥४६२।। धारय पाचिकाशार्या यस्यासौ पाचिकाभार्यः । इनमें "गोरप्रधानस्य" इत्यादि सत्र से अन्त को ह्रस्व हुआ है। इस प्रकार से इनमें बहुवीहिसमास में पूर्व को ह्रस्व नहीं हुआ अन्त को ह्रस्व हुआ है। किन्तु आगे कर्मधारय समास में पूर्व को ह्रस्व होगा तथा अन्त को ह्रस्व नहीं होगा। सो ही दिखाते हैं। कर्मधारय समास में पुंवद् भाव हो जाता है ।।४६० ॥ स्त्रीलिंग में वर्तमान तुल्याधिकरण में पूरणी आदि गण वर्जित उत्तर पद में होने पर स्त्रीलिंग में वर्तमान भाषितपस्क ऊकारांत रहित संज्ञा परणी प्रत्ययांत वाले 'क' की उपधा सहित । समास में पंवद हो जाते हैं। शोभना चासौ भार्या च--शोभन-भार्या । दत्ता चासौ भार्या च--दत्तभार्या पाचिका चासौ भार्या च–पाचकभार्या, पंचमी चासौ भार्या च-पंचमभार्या । पाचिका और पंचमी में वद् भाव होने से स्त्री प्रत्यय के निमित्त से हुआ इकार और दीर्घ 'ई' प्रत्यय का लोप हो गया है। इत्यादि । भाषित पुस्क ऐसा क्यों कहा ? जैसे-खट्वा चासौ वृन्दारिका च खट्वा वृन्दारिका, इसमें 'खवा' भाषित पुस्क नहीं है सतत स्त्रीलिंग ही है । ऊकारांत न हो ऐसा क्यों कहा ? ब्रह्म-वधू चासो दारिका च–ब्रह्मवधू दारिका, इसमें ऊकारांत होने से ह्रस्व नहीं हुआ। महाश्चासौ देवक्ष, ऐसा विग्रह हुआ, महन्त + सि. देव + सि विभक्ति का लोप होकर-- तुल्याधिकरण पद के आने पर महत् के अंत को आकार होता है ॥४६१ ॥ यहाँ अन्तरंग विधि होने से "व्यजनान्तस्य यत्सुभोः” ४३०वें सूत्र से अनुषंग का लोप हुआ। पहले अनुषंग का लोप करने पर पश्चात् जिससे विधि होती है वह उसके अंत की होती है इस न्याय से तकार को आकार हुआ है। अत: मह आ देव सर्वत्र सवर्ण को दीर्घ हो जाता है । 'महादेव' रहा । लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'महादेवः' बना, इसी प्रकार से महांश्चासौ पुरुषश्च महापुरुषः, महांश्चासौ पर्वतश्च-महापर्वत, महादेश: इत्यादि। तत्पुरुष के अंतर्गत नञ् समास का कथन है न सवर्णः, न ब्राह्मण: है न संज्ञक तत्पुरुष समास में नकार का लोप हो जाता है ॥४६२ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासः १६५ तत्पुरुषसमासे नस्य नकारमात्रस्य लोपो भवति । न सवर्ण: असवर्णः । न ब्राह्मणः अब्राह्मणः । एतल्लक्षणं तत्पुरुस्यैव, अन्येषां समासानां कथमिदं लक्षणं ? न विद्यते घोषो ध्वनिर्येषां ते अघोषा: ? तथा तत्पुरुष इहोपलक्षणं । उपलक्षणं किम् ? स्वस्य स्वसदृशस्य च ग्राहकमुपलक्षणं । यथा दधि काकेभ्यो रक्षति । - स्वरेऽक्षरविपर्ययः ।।४६३॥ / तत्पुरुष समासे नस्य अक्षरविपर्ययो भवति स्वरे परे । न अजः अनजः । एवमनर्घ्य: । अनर्थ: । अनकार: । अनिन्द्रः । अनुदकमित्यादि। कोः कत्।।४६४॥ कुशब्दस्य कवति तत्पुरुषे स्वरे परे । स्वपदविग्रहो नास्तीत्यन्यपदविग्रहः । कुत्सितश्चासौ अश्वन कदश्वः । कदन्नं । कदुष्टः । तत्पुरुष इति किम् ? कुत्सिता उष्ट्रा यस्मिन्देशे स कूष्ट्रो देशः । का क्वीषदर्थेऽक्षे॥४६५ ।। ३५६ वर्तमानस्य अशा देशको अवनि नहुष समासे अक्षशब्दे च परे । कु ईपल्लवणं कालवणं । काम्लं । कामधुरं । काज्यं । काक्षीरं । कादधि । कु ईषत् तन्वं कातन्त्रम् । काक्षेण वीक्षते। कवचोष्णे।।४६६ ॥ करने वार अत: 'न्' का लोप होकर अकार शेष रहा और असवर्णः, अबाह्मण: बन गया। यह लक्षण तत्पुरुष समास का ही है। अन्य समासों का यह लक्षण कैसे है ? यहाँ इस समास को तत्पुरुष का लक्षण कहना यह उपलक्षण है । उपलक्षण क्यों है ? अपने और अपने सदृश के ग्रहण ो उपलक्षण कहते हैं। जैसे दही की कौवे से रक्षा करता है यहाँ पर अन्य मार्जार कुत्ता आदि उपलक्षण है उनका भी निषेध हुआ समझना चाहिये। न विद्यते घोषो ध्वनिर्येषां ते अघोषाः बन गया। न अजः, न अर्घ्य: है। स्वर के आने पर नकार का अक्षर विपर्यय हो जाता है ।।४६३ ॥ तत्पुरुष समास में अगले स्वर में नकार चला जाता है और अकार शेष रह जाता है। जैसे अनजः, अनर्थ्य: अनर्थ: अनकारः न इन्द्रः अनिन्द्रः, न उदकम्-अनुदकम् । इत्यादि । कुत्सितश्चासौ अश्वश्च ऐसा विग्रह हुआ है। तत्पुरुष समास में स्वर को आने पर 'कु' को 'कत्' हो जाता है ॥४६४ ॥ इसमें भी स्वपद से विग्रह नहीं होता है अत: अन्य पद से विग्रह किया है। कत् + अश्वः = संधि होकर कदश्वः बना। ऐसे ही कुत्सितं च तदनं—कदन्नं, कुत्सितश्चासौ उष्ट्रच-कदुष्ट्रः । तत्पुरुष में ही कु को कत् होता है ऐसा क्यों ? तब तो कुत्सिता उष्ट्रा: यस्मिन् देशे स कूष्ट्रो देशः । यहाँ बहुव्रीहि समास होने से 'कु' ही रहा ‘कत्' नहीं हुआ। ईषत् अर्थ में और अक्ष शब्द के आने पर 'कु' को 'का' आदेश हो जाता है ।।४६५ ॥ तत्पुरुष समास में किंचित् अर्थ में वर्तमान कु शब्द को 'का' आदेश हो जाता है और अक्ष शब्द परे होने पर भी हो जाता है। कु ईषत् लवणं-कालवणं, कु ईषत् आम्लं काम्लं कु मधुरं कामधुरं, काक्षीरं, कादधि, कु ईषत् तंत्र (सूत्र) कातन्त्र, काक्षं । उष्ण शब्द से परे 'कु' को 'कव' हो जाता है ॥४६६ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ कातन्त्ररूपमाला ईषदथें वर्तमानस्य कुशब्दस्य कवादेशो भवति तत्पुरुषे चोष्णशब्दे परे । चकारोऽत्र विकल्पार्थः । कु ईषच्च तत् उष्णं च कवोष्णं ! पक्षे कोष्णं । कदुष्णं । पथि च ।।४६७ ।। तत्पुरुषसमासे कुशब्दस्य कादेशो भवति पथिन्शब्दे च परे। कुत्सितश्चासौ पन्थाश कापथः । समासान्तर्गतेत्यादिना अत्प्रत्ययः। नस्तु क्वचित्रलोपः । इवर्णावर्णयोलोप: स्वरे प्रत्यये ये च। इति इकारलोप.! पुरुषे तु विभाषया ।।४६८ ॥ कुशब्दस्य कादेशो भवति वा तत्पुरुषे पुरुषशब्दे परे । कत्सितश्चासौ पुरुषश्च कापुरुषः । कुपुरुषः । याकारौ स्त्रीकृतौ ह्रस्वौ क्वचित्॥४६९ ।।। ईकारश्च आकारश्च याकारी । याकारौ स्वीकृतौ ह्रस्वौ भवत: समासे क्वचिल्लक्ष्यानुरोधात् । रेवत्या मित्रं रेवतिभित्रं । एवं रोहिणिमित्र । इएकाना चित इष्टकचितं । इषीकाणां तूलं इपीकतूलं । इत्यादि। ह्रस्वस्य दीर्घता ।।४७० ॥ ह्रस्वस्य दीर्घता भवति समासे क्वचिल्लक्ष्यानुरोधात् । दात्राकारौं कर्णी यस्यासी दावाकर्णः । द्विगुणाकर्णः । ईषत् अर्थ में वर्तमान कु शब्द को 'का' आदेश हो जाता है तत्पुरुष समास मे उष्ण शब्द के आने पर । यहाँ सूत्र मे चकार शब्द विकल्प के लिये है। कु ईषच्च तदुष्णं च कव+ उष्णं = कवोष्णं । द्वितीय पक्ष में—कु को 'का' होकर 'कोणं' बना। पथि शब्द के आने पर भी 'का' आदेश हो जाता है ॥४६७ ॥ तत्पुरुष समास मे कु शब्द को 'का' आदेश हो जाता है। कुत्सितश्चासौ पन्थाश्च–कापथ: 'समासांतर्गताना त्रा' इत्यादि सूत्र से पथिको अप्रत्यय हो गया एवं 'नस्तुक्वचित् सूत्र से नकार का लोप 'इवर्णावर्णयोर्लोप:' इत्यादि सूत्र से इकार का लोप, लिंगसंज्ञा, सि विभक्ति आकर 'कापथः' बना। पुरुष शब्द के परे 'का' आदेश विकल्प से होता है ॥४६८ ॥ कुत्सितश्चासौ पुरुषश्च कापुरुषः, कुपुरुषः बना। स्त्रीलिंग के ईकार और आकार क्वचित् ह्रस्व हो जाते हैं ॥४६९ ॥ सूत्र से 'याकारौ' शब्द है वह ईकाराश्च आकारश्च ई को य् होकर याकारी बना है । समास में कहीं पर लक्ष्य के अनुरोध से ईकार, आकार ह्रस्व हो जाते हैं। जैसे—रेवत्याः मित्रं, रेवती + ङस् मित्र सि विभक्ति का लोप होकर ह्रस्व होकर रेवतिमित्र लिग सज्ञा होकर विभक्ति आकर रेवतिमित्र बना। वैसे ही रोहिण्या: मित्रं-रोहिणिमित्रं । इष्टकानां चितं इष्टकचितं, इषीकाणां तूलं इषीकतूलं । इत्यादि । दात्राकारों की ग्रस्य असौ-बहुव्रीहि समारस मेविभक्ति का लोप होकर 'दात्रकर्ण' रहा। समास में कहीं पर हस्व को दीर्घता हो जाती है ॥४७० ॥ लक्ष्य के अनुरोध से कहीं पर ह्रस्व को दीर्ध हो जाता है अत: 'दात्राकर्ण' लिंग संज्ञा, विभक्ति आकर 'दात्रा कर्णः' बना । ऐसे ही द्विगुणाकारौ कर्णी यस्यासौ-द्विगुणाकर्णः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित नहितिवृषिरुचिसहितनिरुहिषु क्विबन्तेषु प्रादिकारकाणाम् ।।४७१ ।। प्रादीनां कारकाणामेषु क्विबन्तेषु दीर्घता भवति नादिषु धातुषु परत: । उपानत् । उपावृत् । प्रावृट् । कर्मावितु । नीरुक । प्रतीषट् । परीतत् । वीरुत् । इत्यादि। अनव्ययविसृष्टस्तु सकारं कपवर्गयोः ॥४७२ ॥ अनव्ययविसृष्टस्तु सकारमापद्यते कपवर्गयोः परतः । अयस्कारः अयस्कल्पः । अयस्पाश: । अयस्काम्यति । अयस्काम इत्यादि । कारकल्पपाशकाम्यकेषु सकारो दृश्यते । बहुव्रीहव्ययीभावी द्वन्द्वतत्पुरुषौ द्विगुः । कर्मधारय इत्येते समासा: षट् प्रकीर्तिताः ॥१।। वर्धमानकुमारेणार्हता पूज्येन वज्रिणा। कौमारे ऋषभेणापि कुमाराणां हितैषिणां ॥१॥ मुष्टिव्याकरणं नाम्ना कातन्त्र वा कुमारकं । कालापकं प्रकाशात्मब्रह्मणापभिधायकं ।।२।। प्रकाशितं शीघ्रबोधसंपदे श्रेयसां पर्द। समासानां प्रकरणं भावसेन इहाभ्यधात् ।।३।। इति समासा। अथ तद्धितं किचिदच्यते कपटोरपत्यं । भृगोरपत्यं । विदेहस्यापत्यं । उपगोरपत्यं । इति स्थिते नहि वृति आदि क्विबन्त वाले धातुओं के आने पर प्र आदि पूर्वपद के स्वर को दीर्घ होता है ॥४७१ ॥ उप आदि उपसर्ग से परे नहि, वृति, वृषि, व्यथि, रुचि, सहि, तनि, रुहि धातुओं से स्विप् प्रत्यय हुआ है पुन: श्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप होकर रूप बन गया है उसमें पूर्व पद को दीर्घ करने के लिये यह सूत्र लगा है। जैसे उप नह दीर्घ होकर 'उपानह बना लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'उपानत' बना। वैसे ही सर्वत्र दीर्घ हुआ है। उपवृत्-उपावृत प्रनृप-यावृट् । कर्माणि विध्यति इति कर्मव्यध् संप्रसारण होकर अर्थात् य को इ होकर कवित् दीर्घ होकर 'कर्मावित्' बना। निरुच्-नीरुक् प्रति सत्-प्रतीषट्परीतन्-परीतत् विरह-वीरुत् बना । कवर्ग पवर्ग के आने पर अव्यय से रहित विसर्ग सकार हो जाता है ॥४७२ ॥ जैसे अय: कार-अयस्कारः, अय: कल्प अयस्कल्प: अयस्माश: अयस्काम्यति अयस्काम: इत्यादि । कार, कल्प, पाश और काम्यक्र में सकार दिख रहा है।' श्लोकार्थ-बहुव्रीहि अव्ययीभाव द्वंद, तत्पुरुष, द्विगु और कर्मधारय इस प्रकार से ये छह समारर कहे गये है ॥१॥ इस प्रकार से समास का प्रकरण समाप्त हुआ। अब किंचित् तद्धित का वर्णन किया जाता है। कपटो: अपत्य-कपटु, का लड़का, भृगो अपत्यं विदेहम्य अपत्य उपगो. अपत्यं । एसा विग्रह हुआ है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कातन्त्ररूपमाला वाणपत्ये ॥४७३॥ षष्ठ्यन्तानाम्नोऽण् प्रत्ययो भवति वा अपत्ये अभिधेये । तत्स्थाइत्यादिना विभक्तिलोपः । वृद्धिरादौ सणे ॥४७४ ॥ स्वराणामादिस्वरस्य वृद्धिर्भवति सणकारानुबन्धे तद्धिते परे । का वृद्धि: ? आरुतारे च पृद्धिः ।।४७५ ॥ अवर्ण ऋवर्ण इवर्ण उवर्णानामा आर उत्तरे--(ऐ औ) च द्वे सन्ध्यक्षरे वृद्धिसंज्ञा भवन्ति । प्रयोगात्-अवर्णस्य आकारो वृद्धिः । ऋवर्णस्य आर् वृद्धिः । इवर्णस्य एकारस्य च ऐकारो वृद्धिः । उवर्णस्य ओवर्णस्य च औकारो वृद्धिः। __उवर्णस्यौत्वमापाद्यं ॥४७६ ।। उवर्णस्य ओत्वमापादनीयं तद्धिते स्वरे ये च परे । कार्याववावावादेशावोकारौकारयोरपि ॥४७७ ।। ओकारेऔकारयोरवावी आदेशौं भवतस्तद्धिते स्वरं ये च परे । काण्टव । भार्गव: । वैदेहः । औषगव: । औपगवौ औपगवा इति । पुरुषशब्दवत् । एवं यास्क: यास्कौ । वेद: वेदौ । आङ्गिरसः । कौत्स: । वासिष्टः । गौतमः । ब्राह्मणः । ऐदम इत्यादि । पञ्चालस्यापत्यं । रूढादण्॥४७८॥ षष्ठ्यंत नाम से पुत्र के अर्थ में 'अण्' प्रत्यय विकल्प से होता है ||४७३ ॥ कपटु + ङस् "तत्स्था लोप्या विभक्तयः" ४२१वें सूत्र से विभक्ति का लोप होकर कपटु अण् रहा। 'ण' का अनुबंध लोप हो गया । यहाँ अपत्य शब्द पुत्र वाचक है और तीनों लिंग में समान चलता है। सकार णकार अनुबन्ध सहित तद्धित प्रत्यय के आने पर स्वरों में आदि के स्वर को वृद्धि हो जाती है ॥४७४ ।। वृद्धि किसे कहते हैं ? अवर्ण, ऋवर्ण, इवर्ण, उवर्ण को क्रम से 'आ' आर ऐ औं वृद्धि होती है ।।४७५ ॥ __ अर्थात् अवर्ण को आकार वृद्धि होती है, ज्वर्ण को आर इवर्ण और एकार को ऐकार, उवर्ण और ओ को औकार वृद्धि होती है । अत: कापटु अ रहा। तद्धित के स्वर और य प्रत्यय के आने पर उवर्ण को 'ओ' हो जाता है ॥४७६ ॥ तद्धित के स्वर और यकार प्रत्यय के आने पर ओ को अव, औ को आव् करना चाहिये ॥४७७ ॥ __ अत: 'कापटव' लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'कापटवः' बना । वैसे ही भृगो: अपत्यभार्गवः, विदेहस्यापत्यं-वैदेहः, उपगोरपत्यं-औपगवः । आगे ये रूप पुरुष शब्दवत् चलंगे। एवं यस्कस्य अपत्यं यास्कः, वेदस्य अपत्यं वैदः, अंगिरस: अपत्यं आंगिरस: कुत्सस्यापत्यं कौत्स:, वमिटस्थापत्य वासिनः गोतमस्यापत्यं—गौतमः, ब्रह्मण: अपत्यं ब्राह्मण: अस्यापत्यं ऐदमः । अपत्य अर्थ में रूढ शब्द से परे अण् प्रत्यय होता है ॥४७८ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धितं देशसमाननामान: क्षत्रिया रूहाः । रूढशब्दात्परो अण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽभिधेये । इवर्णावर्णयोर्लोपः स्वरे प्रत्यये ये च ॥४७९ ॥ इवर्णावर्णयोर्लोपो भवति तद्धिते स्वरे ये च परे । पाञ्चालः । पञ्चालस्यापत्ये पाञ्चालौ । बहुत्वेरूहानां बहुत्वेऽस्त्रियामपत्यप्रत्ययस्य ॥४८० ।। रूढानां बहुत्वे विहितस्योस्त्र्यभिधेयस्य अपत्यप्रत्ययस्य लुग्भवति । निमित्ताभावे नैमित्तिकाभाव इति वृद्धेरपि लोपो भवति । पाञ्चालाः । एवं विदेहाः । मगधाः । अङ्गाः । अस्त्रियामिति किं ? पाश्चाल्यः । वैदेह्यः । मागध्यः । इत्यादि । भृगोरपत्यं । ऋषिभ्योऽण् ॥ ४८१ ॥ ऋषिवाचिभ्यः परोऽण् भवति अपत्येऽर्थे । भार्गवः । भार्गवौ । बहुत्वे भृग्वत्र्यङ्गिरस्कुत्सवसिष्ठगोतमेभ्यश्च ॥४८२ ॥ १६९ पञ्चालस्यापत्यम् । जनपद समय नाम वाले क्षत्रिय रूढ कहलाते हैं। पुत्र के वाच्य अर्थ में रूढ शब्द से अण् प्रत्यय होता है। अतः यहाँ । पचाल + ङस् विभक्ति का लोप, पञ्चाल + अ वृद्धि होकर पाञ्चाल अ, तद्धि के स्वर और यकार प्रत्यय के आने पर इवर्ण और अवर्ण का लोप हो जाता है ॥ ४७९ ॥ तब पाश्चाल् + अ = पाञ्चाल बना पुनः लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'पाश्चालः' बना । द्विवचन में दो पुत्र के वाचक द्विवचन में - पञ्चालस्थापत्ये -- पाञ्चालौ बना बहुवचन में अपत्य प्रत्यय करके पश्चास्यापत्यानि 'पाञ्चाल' बना | रूद शब्दों के बहुवचन में किया गया अपत्य प्रत्यय यदि स्त्रीलिंग में नहीं है तो उस प्रत्यय का लुक् हो जाता है ॥४८० ॥ एवं अपत्य प्रत्यय का लोप होने पर उसके निमित्त से जो पूर्व स्वर को वृद्धि हुई थी उसका भी लोप हो गया क्योंकि 'निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो जाता है' ऐसा नियम है। अतः 'पञ्चाल' रहा। लिंग संज्ञा और जस् विभक्ति आकर 'पञ्चाला:' बना अर्थ वही निकलेगा कि पञ्चाल राजा के बहुत से लड़के। ऐसे बहुवचन में विदेहस्यापत्यानि 'विदेहा: ' मगधस्यापत्यानि मगधाः अंगस्यापत्यानि अंगाः । सूत्र में स्त्रीलिंग को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? तो जैसे पञ्चाल - स्थापत्यं कन्या स्त्रीलिंग (लड़की वाचक) में पाञ्चाली द्विवचन में पाञ्चाल्यौ, बहुवचन में पाञ्चाल्य: बनेगा यहाँ कन्या वाचक प्रत्यय में बहुवचन के प्रत्यय का लोप नहीं होगा। विदेहस्यापत्यानि कन्याः स्त्रीलिंगे 'वैदेह्य:' मगधस्यापत्यानि कन्या: मागध्यः इत्यादि । अर्थात् स्त्रीलिंग वाचक अपत्यप्रत्यय यदि बहुवचन में आता है तो उसका लोप नहीं होता है। . भृगोरपत्यं, हैं । अपत्य अर्थ में ऋषिवाची शब्द से परे अण् प्रत्यय होता है ||४८१ ॥ भार्गव, भार्गव, बहुवचन में भृगु, अत्रि, अंगिरस्, कुत्स, वसिष्ठ गोतम से बहुवचन में किये गये स्त्रीलिंग रहित अपत्य प्रत्यय को 'लुक्' हो जाता है ||४८२ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला भृग्वादिभ्यो बहुत्वे विहितस्यास्यभिधेयस्य अपत्यप्रत्ययस्य लुग्भवति । भृगवः। अत्रय.। अङ्गिरस. । गोतमा इत्यादि । अस्त्रियामिति कि ? भार्गव्यः । णटकारानुबन्धादिति नदादित्वादीप्रत्ययः । गर्गस्यापत्यं इति स्थिते यो गर्गादेः ।।४८३ ।। गर्गादेर्गणाद् ण्यो भवति अपत्येऽभिधेये। डवर्णावर्णयोलोप: स्वरे प्रत्यये ये च ॥४७९ ॥ इवर्णावर्णयोलोपो भवति तद्धिते स्वरे ये च परे । गाय: । गाग्र्यो । वत्सस्यापत्यं वात्स्य: । वात्स्यौ। कौत्स्यः । कौत्स्यौ । बहुत्वे गर्गयस्कविदादीनां च ॥४८४॥ गर्गादीनां यस्कादीनां विवादीनां च बहुत्वे विहितस्य अस्त्र्यभिधेयस्य अपत्यप्रत्ययस्य लुग्भवति । गर्गा: । वत्साः । कुत्साः । उभयत्र ण्यो लुक् । ऊर्वाः । यस्का: । विदा: । अणो लुक् । इत्यादि । कुर्वादेर्यण् ।।४८५ ॥ अनः भगोरपत्यानि राष्ट्र बनाएका हा लोप होकर उसके निमित्त से होने वाली वृद्धि का भी लोप हो गया। अपत्यानि अत्रयः, अंगिरसस्यापत्यानि अंगिरस: गोतमस्यापत्यानि गोतमा: इत्यादि । सूत्र में 'अस्त्रियां' ऐसा क्यों कहा ? भृगोरपत्यानि स्त्रीलिगे वाचके भार्गव्य: बन गया । ण् अनुबंध और टकार का अनुबंध होने से नदादि गण में कहे जाने से स्त्रीलिगवाची 'ई' प्रत्यय हो गया है। गर्गस्यापत्यं ऐमा विग्रह है। ___ गर्गादि गण से अपत्य अर्थ में 'ण्य' प्रत्यय होता है ॥४८३ ॥ गर्ग + ङस विभक्ति का लोप होकर ण्य प्रत्यय में कार का अनुबंध होकर णानुबंध से पूर्व स्वर को वृद्धि हुई 'गार्ग य' रहा। स्वर प्रत्यय और यकार प्रत्यय के आने पर इ वर्ण अ वर्ण का लोप हो जाता है॥४७९ ॥ यहाँ पूर्व के अकार का लोप होकर गार्ग्य बना । लिग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'गाय' द्विवचन में 'गाग्र्यो' बना । वत्सस्यापत्यं वात्स्य: वात्स्यो, कुत्सस्यापत्य कौत्स्य: कौत्स्यौ । बहुवचन में.. . गर्गादि, यस्कादि और विवादि बहुवचन में किये गये स्त्रीलिंग रहित अपत्य प्रत्यय का 'लुक्' हो जाता है ।।४८४ ॥ अपत्य प्रत्यय का लोप होकर गर्गाः, वत्सा:, कुत्सा; बना इन दोनों में 'ण्य' का लोप हुआ है। उर्वाः, यस्का: विदा: यहाँ अण् प्रत्यय का लोप हुआ है। कुरु आदि से यण् प्रत्यय हो जाता है ।।४८५ ॥ कुरु आदि गण से अपत्य अर्थ में यण् प्रत्यय होता है । कुरो: अपत्यं कौरव्य: । लहस्यापत्यं साह्यः ।। १. यह सूत्र पहले आ चुका है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १७१ कुदिर्गणाद् यण्प्रत्ययो भवति अपत्येऽर्थे । कुरोरपत्य कौरव्यः । लहस्यापत्यं लाह्यः । कुञ्जादेरायनः स्मृतः ॥४८६ ॥ कुजादेर्गणात् आयनण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽर्थे तदन्ते ण्यश्च स्मृतः । अस्त्रीनडादिबहुत्वे । कुत एतत् ? स्मृतग्रहणाधिक्यात् । कुञ्जस्यापत्यं कौञ्जायन्य: कौजायन्यौ। एवं बाधायन्य: बाध्नायन्यो । स्त्रियां तु । कौजायनी । नडादेस्तु । नाडायनः । चारायणः । मौञ्जायन: । शाकटायन: । बहुत्वे । कौञ्जायना: कुञ्जस्यापत्यानि । एवं ब्राध्नायना: । स्त्यत्र्यादेरेयण ॥४८७ ।। ___ स्त्रियामादादिभ्योऽत्र्यादेश्च एयण भवति अपत्येऽभिधेये। विनताया अपत्यं वैनतेयः। एवं सौपाय । गौनतेयः : बीजेम ! शमेरपत्यं आनेय आत्रेयौ। बहुत्वे। अग्निसंज्ञायामेत्वमयादेशश्च । अत्रय: भृग्वत्र्यद्भिरेत्यादिना अपत्यप्रत्ययस्य लुक् । सत्यामग्निसंज्ञायां इरेदुरोजसि । इत्येत्वं जति। एवं सौभेयः । गाड़ेयः । भद्रबाहोरपत्यं । कुजस्यापत्यं है। कुञ्ज + ङस् विभक्ति का लोप, अपत्य अर्थ में कुंजादि गण से 'आयनण्' प्रत्यय होता है ॥४८६ ॥ और उसके अंत में 'ण्य' प्रत्यय भी हो जाता है। कुल+आयनण पूर्व स्वर को वृद्धि होकर 'कौजायन' बना । ण्य प्रत्यय होकर 'इवर्णावर्णयोलोप:' सूत्र से न के अ का लोप होकर लिंग संज्ञा, एवं सि विभक्ति आकर कौजायन्य: बना द्विवचन में कौञ्जायन्यौ बना। __ इसी प्रकार से बध्नस्यापत्यं ब्राधायन्य: बना । स्त्रीलिंग में—य प्रत्यय नहीं हुआ है एवं स्त्री वाचक 'ई' प्रत्यय हुआ है अत: 'कौजायनी' बना । नादि गण में 'ण्य' प्रत्यय न होकर केवल मात्र आयनण प्रत्यय होकर नाडायन: बना। चरस्यापत्यं चारायण: मुञ्जस्यापत्यं मौञ्जायन: शकटस्यापत्यं शाकटायन: । बहुवचन में कुजस्यापत्यानि ‘ण्य' प्रत्यय न होकर कौञ्जायनाः ब्राध्नायना: बना । विनताया: अपत्यं है ? सीलिंग वाचक अदादि से और अत्रि आदि से अपत्य अर्थ में 'एयण' प्रत्यय हो जाता है ।।४८७ ॥ विनता + ङस् । एयण् प्रत्यय होने पर विभक्ति का लोप, णानुबंध, ‘इवर्णावर्णयोर्लोप:' सूत्र से आ का लोप होकर पूर्व स्वर को वृद्धि हुई है अत: वैनतेय बना लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'वैनतेयः' बना । ऐसे ही सुपर्णाया: अपत्यं—सौपर्णेयः कुन्त्याः अपत्यं कौन्तेयः, अत्रे:अपत्यं आत्रेय: आत्रेयौ बना । बहुवचन में ४८२वें सूत्र से अत्रि के अपत्य प्रत्यय का लुक् होकर ‘अत्रि' रहा। अग्नि संज्ञा होकर "इरेदुरोज्जसि" १६३वें सूत्र से अत्रे + जस् 'ए अय्' से संधि होकर 'अत्रय:' बना। सुभ्रायाः अपत्यं सौभ्रेयः, मंगाया: अपत्यं गांगेय: सिंहिकाया; अपत्यं सैहिकेयः । भद्रबाहो: अपत्यं है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ कातन्त्ररूपमाला एयेऽकवादिस्त लप्यते ॥४४.. !! एये प्रत्यये परे उवर्णो लुप्यते नतु कद्रूशब्दस्य। भाद्रबाहेय: । कामण्डलेयः । अकवा इति किम् । काद्रवेयः। सर्वनाम्नः संज्ञाविषये स्त्रियां विहितत्त्वात् ।।४८९॥ सर्वनाम्नः परः संज्ञाविषये एयण् भवति अपत्येऽभिधेये । सर्वा काचित् स्वी। सर्वाया अपत्यं सार्वेयः । इत्यादि। इणतः ।।४९० ॥ अकारान्तात्राम्म इण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽभिधेये। दक्षस्यापत्यं दाक्षिः। एवं दाशरथिः । आर्जुनिः । दैवदत्तिः । अस्यापत्यं इ: इत्यादि। कद्रू को छोड़कर उकारांत शब्द से एयण प्रत्यय के आने पर उ वर्ण का लोप हो जाता है ।।४८८॥ ___अतः भाद्रबाह एय लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर भाद्रबाहेयः बना ऐसे कमंडलोरपत्यं-कामण्डलेयः । कद्रू को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? कद्रू के ऊको “उवर्णस्त्वोत्वमाषाद्यः” सूत्र से ओ होकर एयण् प्रत्यय से काद्रवेय: बना। सर्वा नाम की कोई स्त्री है अत: सर्वाया: अपत्य है । सर्वनाम से परे संज्ञा अर्थ में अपत्य वाचक एयण प्रत्यय होता है ॥४८९ ।। सर्वा + ङस् एयण विभक्ति का लोप होकर 'वृद्धिरादौ सणे' सूत्र से वृद्धि होकर “इववर्णयोलोपः" से 'आ' का लोप होकर साय बना लिंग संज्ञा होकर विभक्ति के आने से सार्वेय: बना । इत्यादि। दक्षस्यापत्यं है अकारांत शब्द से अपत्य अर्थ में इण प्रत्यय होता है ॥४९० ।।। अत: दक्ष+ ङस् विभक्ति का लोप होकर, वृद्धि होकर अवर्ण का लोप होकर लिंग संज्ञा हुई और विभक्ति आकर दाक्षि: बना। इसी प्रकार से दशरथस्यापत्यं—दाशरथि: अर्जुनस्थापत्यं आधुनि: देवदत्तस्यापत्यं दैवदत्तिः। _ 'अ' के एकाक्षरी कोश में अनेक अर्थ होते हैं 'अ' के अरहंत, विष्णु आदि 'अ' का रूप पुरुषवत् चलते हैं। जैसे-अ औ आः आत आभ्याम् एभ्यः अम् औ आन् अयोः आनाम एन आभ्याम् ऐ ए। आय आभ्याम् एभ्यः अतः अस्य अपत्यं है। ‘इणत: ४९० से इण् प्रत्यय हुआ। 'वृद्धिरादौ सणे' से अ को वृद्धि होकर 'आ' हुआ । 'इवर्णावर्णयो' सूत्र से आ का लोप होकर 'इ' रहा लिंगसंज्ञा होकर सि विभक्ति आई 'इ' को अग्निसंज्ञा होकर मनिवत रूप चलेंगे। 'इ' बना। इत्यादि। उपबाहोरपत्यं, भद्रबाहोरपत्यं हैं। अस्य अयोः Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धितं १७३ बालादेश्च विधीयते ॥४९१॥ बाह्वादेर्गणादिण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽभिधेये । उपबाहोरपत्यमौपबाहविः । भाद्रबाहविः । नस्तु क्वचित्॥४९२॥ नस्य लोपो भवति क्वचित् लक्ष्यानुरोधात् ।। उडुलोम्नोऽपत्यं औडुलोमिः । एवमारिनशमि: । मनोः षष्यौ ।।४९३॥ षष्ठ्यन्तान्मनुशब्दात्परौ षण्ष्यौ प्रत्ययो भवत: अपत्याथें । मनोरपत्यं मानुषः । मनुष्य: । मानवः । वाणपत्ये इति अण् भवति । कुर्वादेर्यण् ।।४८५ ।। कुर्वादेर्गणात् यण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽर्थे । पक्षे कुरोरपत्य कौरव्यः । वाणपत्ये इति अण् भवति । कौरव: । लहस्यापत्यं लाह्यः । । क्षत्रादियः ।।४९४॥ षष्ट्यन्तात् क्षत्रशब्दात्पर इय: प्रत्ययो भवति अपत्येर्थे । क्षत्रियः । बाह आदि गण से अपत्य अर्थ में इण प्रत्यय होता है ।।४९१ ॥ पूर्ववत् विभक्ति का लोप, वृद्धि 'उ' को ओ, ओ को अव् होकर औपबाहवि लिं। मंज्ञा होकर विभक्ति आकर 'औपबाहवि:' बना, वैसे ही भाद्रबाहवि: बना । उडुलोम्नः अपत्यं, अग्निशर्मण: अपत्यं हैं। 'बाह्वादेश्च विधीयते' सूत्र से इण् प्रत्यय होकर पूर्ववत् सारे कार्य होंगे यथा-उडुलोमन् + ङस् विभक्ति का लोप, वृद्धि हुई। कहीं लक्ष्य के अनुरोध से नकार का लोप हो जाता है ॥४९२ ।। इस सूत्र से नकार का लोप 'इवर्णा' इत्यादि से 'अ' का लोप होकर लिंग संज्ञा एवं विभक्ति आकर 'औडुलोमि:' बना। वैसे ही 'आग्निशर्मि:' बना । --. मनोरपन्यं है -.. - षष्ठ्यंत मनु शब्द से परे अपत्य अर्थ में षण् और ष्य और अण प्रत्यय होते हैं ॥४९३ ।। मनु + इस् षण णानुबंध से पूर्वस्वर को वृद्धि लिंग संज्ञा, विभक्ति आकर 'मानुषः' बना । 'ष्य' प्रत्यय से मनुष्य: । अण प्रत्यय से मानव: बना।। कुरु आदि गण से अपत्य अर्थ में यण् प्रत्यय होता है ॥४८५ ॥ कुरो: अपत्यं कुरु + ङस् यण् “वृद्धिरादौ सणे" ४७४वें सूत्र से वृद्धि होकर एवं उवर्ण को ओ, ओ को अव् होकर लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'कौरव्यः' बना। 'वाणपत्ये' सूत्र ४७३वें से अण: प्रत्यय होकर पूर्ववत् सारी क्रियायें होकर 'कौरवः' बना। लहस्यापत्यं है यण् प्रत्यय से 'लाह्यः' बना। क्षवस्थापत्य है। षष्ठ्यंत क्षत्र शब्द से परे अपत्य अर्थ में 'इय' प्रत्यय हो जाता है ।।४९४ ।। "इवर्णावर्ण" इत्यादि से 'अ' का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'क्षत्रियः' बना । १. यह सूत्र पहले आ चुका है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ कातन्त्ररूपमाला कुलादीनः ॥४९५ ।। कुलशब्दात्परः ईन प्रत्ययो भवति जातार्थे । कुले जात: कुलीनः । इत्यादि । रागानक्षत्रयोगाच्च समूहात्सास्य देवता । तद्वेत्त्यधीते तस्येदमेवमादेरणिष्यते ॥१॥ रागात् अण् । कुसुम्भेन रक्त कौसुम्भं । एवं हारिद्रं वस्त्रं । कौकुमं । माञ्जिष्ठं। काषायं । नक्षत्रयोगात् । पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्तः कालः । पुष्यतिष्ययोर्नक्षत्रे ।।४९६ ॥ नक्षत्रार्थे वर्तमानयो: पुष्यतिध्ययोर्यकारस्य लोपो भवति अणि परे । इति यकारलोप: । मत्स्यस्य यस्य स्वीकारे ईये चागस्त्यसूर्ययोः ।। इति सूत्राद्य इति अनुतन । पौष: कासः । श्रीषो का । पौंग: र:: पौषमहः । एवं तैषी मास: । तैषी रात्रि: । तैषमहः । चित्रया चन्द्रयुक्तया युक्त: काल: चैत्रः । वैशाख: । एवं ज्येष्ठः । आषाढ. । श्रावणः । भाद्रपदः । आश्वयुज: । कार्तिक । मार्गशिरः । माघ: । फाल्गुन: । एवं सर्वत्र । समूहात् । युवतीनां समूहो यौवतं । एवं हास । काकं । क्षात्र । शौद्र । आर्ष । मार्ग । सास्य देवता । जिनो देवता अस्य इति जैन. । एवं शैवः । वैष्णवः । ब्राह्मणः । बौद्धः । कापिल: । सौरः । ऐन्द्रः । तद्वेत्ति । जिन वेत्तीति जैन इत्यादि । छन्दो वेत्यधीते वा छान्दसः । व्याकरणं वेत्त्यधीते वा वैयाकरण: । भारतः । तस्येद । कुल शब्द से जात (जन्म) अर्थ में 'ईन' प्रत्यय होता है ॥४९५ ॥ अत: कुले जात: कुल में उत्पन्न हुआ 'कुलीनः' । यहाँ अकार का लोप हुआ है। इत्यादि । आगे अनेक अर्थों में अण् प्रत्यय होता है उसे श्लोक द्वारा प्रकट करते हैं। श्लोकार्थ राग से, नक्षत्र के योग से, समूह अर्थ से, वह इसका देवता है इस अर्थ से, वह इसको जानता है पढ़ता है इस अर्थ से, यह उसका है इस अर्थ से, इस प्रकार आदि शब्द से और भी अर्थों से 'अण्' प्रत्यय माना गया है ।।१ ।। राग-रंग अर्थ मे अण् के उदाहरण कुसुंभेन रक्तं वलं, कुसुभ + टा अण् विभक्ति का लोप होकर पूर्व स्वर को वृद्धि होकर कौसुंभ 'अ' का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आने से 'कौसंभबना, इसी प्रकार हरिद्रया रक्तं हारिद्रं, कुंकुमेन रक्तं--कौंकुम, मंजिष्ठेन रक्तं मांजिष्ठ, कषायेन रक्तं काषायं बना। नक्षत्र के योग में अण प्रत्यय होने सेपुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्तः काल: ऐसा विग्रह हुआ है। पुष्य+टा अण् विभक्ति का लोप होकर वृद्धि होकर पौष्य अ है। अण् प्रत्यय के आने पर नक्षत्र अर्थ में वर्तमान पुष्य तिष्य के यकार का लोप हो जाता है ॥४९६ ॥ "मत्स्यस्य यस्य स्वीकारे ईये चागस्त्यसूर्ययो:" यह सूत्र अनुवृत्ति मे चला आ रहा है। पौष्य के यकार का लोप होकर अण् का अकार मिल गया और लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'पौषः' बना । स्त्रीलिंग में पौषी और नपुंसकलिंग में पौषं बनेगा । जैसे पौषः कालः, पौषी रात्रि: पौषम् अहः । इसी प्रकार से तिष्य को तैष: बन गया। तीनों लिगों में ये रूप चलते हैं। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धितं १७५ मृगस्य इदं मांस मार्ग । सौकरं । कौमारं । पुत्रस्येदं पौत्रं । दैवं । पौरुषं । यून इदं यौवन । एवमादिर्यस्येति गणो गृह्यते । चक्षुषा गृह्यते चाक्षुषं रूपं । एवं श्रावणः शब्दः । रासनो रस: । स्पार्शन: स्पर्श: । दृषदि पिष्टा दार्षदा: सक्तवः । उलूखलेन क्षुण्णा औलूखलास्तण्डुलाः । अश्रुह्यते रथ: आयो रथः । चतुर्भिाते चातुर शकटं। चतुर्दश्यां दृष्टश्चातुर्दशो राक्षसः । त्रिविद्य एवं विद्यः । पटोर्भाव: पाटवं । लाघवं । कौशलमित्यादि। तेन दीव्यति संसृष्टं तरतीकण चरत्यपि । पण्याछिल्पानियोगाच्च क्रीतादेरायुधादपि ॥२॥ तेन दीव्यति तेन संसृष्टं तेन तरति तेन चरतीत्यर्थे पण्यात् शिल्पात् नियोगान्च क्रीतादेरायुधादअपीतीकण् प्रत्ययो भवति । तेन दीव्यतीत्यत्र इकण । अक्षेर्दीव्यति आक्षिकः । एवं गिरिणा दीव्यति गैरिकः । दाण्डिकः । तेन संसृष्टमित्यादि । दया संसृष्टं दाधिकमौदनं । एवं क्षैरिकः । ताक्रिकः । घार्तिक: । शातिरिकः । सार्पिषिक: । लावणिकः । मारिचिकः । तेन तरतीत्यत्रापि । उडुपेन तरतीति औपिकः। एवं वाहित्रिकः । द्रोण्या तरतीति द्रौणिकः । गोपुच्छिक: ! नाना तरतीति नाविकः । 'चित्रयाचन्द्रयुक्तया युक्तः कालः' ऐसा विग्रह है। चित्रा +टा 'नक्षत्रयोगा' अण पूर्व को वृद्धि आकार का लोप होकर लिग सज्ञा होकर विभक्ति आकर 'चैत्र;' बना। ऐसे ही विशाखामा पपुक यु-त. काल पैसाख । देउया चन्द्रयुक्तया युक्तः काल, ज्योछः । आषाढया चन्द्रयुक्तया युक्त: काल: आधाढः । अवणेन चन्द्रयुक्तेन युक्तः कालः 'श्रावणः । भाद्रपदया चन्द्रयुक्तया युक्तः कालः भाद्रपदः । अश्वयुजा चन्द्रयुक्तेन युक्त. कालः, आश्वयुज: । कार्तिकः, मार्गशिरः, माघ: फाल्गुन: इत्यादि इसी प्रकार से सर्वत्र समझ लेना। समूह अर्थ में अण–युवतीनां समूहो अण् प्रत्यय होकर युवति + आम् विभक्ति का लोप, पूर्व स्वर को वृद्धि, इकार का लोप, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर नपुंसक लिंग में 'यौवतं' बना । एवं हसानां समूह: हांसं. ऋषीणां समूहः आष, मृगानां समूह मार्ग । इत्यादि। वह इसके देवता हैं इस अर्थ में अण् । __ जिनो देवता अस्य इति, जिन + सि विभक्ति का लोप होकर पूर्व स्वर को वृद्धि एवं अकार का लोप होकर लिग विभक्ति आने से 'जैन:' बना । ऐसे ही शिवो देवता अस्य इति शैव: आदि बन गये। तद वेत्ति उसको जानता है इस अर्थ में अण् जिन वेत्ति इति जिन+ अम् विभक्ति का लोप पर्व स्वर को दीर्घ अकार का लोप, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'जैन:' बना। छन्दो वलि अधीत ता छन्द को जानता है। अर्थ में 'छांदसः' बना, व्याकरण वेत्ति अधीते वा वैयाकरण । यहाँ ५६४वें सूत्र से ऐ का आगम हुआ तस्येदं. उसका यह हैं इस अर्थ में अण प्रत्यय होता है। मुगस्य इद मार्ग, सकरस्य इदं मांस सौकर । पुत्रस्य इदं पौत्र, देवस्य इदं दैवंपुरुषस्येदं पौरुयं । यून: इदं यौवनं । आदि शब्द से अन्य और भी अर्थों में अण् प्रत्यय होता है जैसे चक्षुपा गृह्यते चक्षुम्+टा विभक्ति का लोप होकर वृद्धि होकर 'चाक्षुप' बना । ऐसे ही श्रवणाभ्या श्रूयते श्रावणः शब्दः सनया गृह्यते रासन: स्पर्शन गृह्यते स्पार्श: । दृर्षाद पिष्टा दार्पदाः । पत्थर पर पीसा गया सत्त, मसाला आदि । उलूखलेन क्षुण्णा:-उलूखल से कूटा गया, 'ओलूखला: ताला: । अश्वः ऊहाते रथ: आश्चः । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कातन्त्ररूपमाला चरतीत्यत्रापि । शिबिकया रतीति शैबिकिकः, एवं आक्षिकः । औष्टिकः । शृङ्गवेरेण चरतीति शावैरिकः । पण्यात् । ताम्बूलं पण्यमस्य ताम्बूलिकः। एवमपिशब्दग्रहणात् यथाशिष्टप्रयोगं भवति। गन्धः पण्योऽस्येति गान्धिकः। एवं सार्पिषिक। वास्त्रिकः । राजतिकः। लौहितिकः। शिल्पात् । मृदङ्गं शिल्पमस्येति मार्दगिकः। एवं पाणविकः । शालिकः । कालिकः । वैणिक: । त्रैवलिकः । वांशिकः । तालिकः। नियोगात्। शुल्कं नियोगो यस्येति शौल्किकः । एवं भाण्डागारिक:। माहानसिकः । प्रातीहारिक: । क्रीतादेः । सहस्रेण क्रीतं साहस्रिकं । एवं शातिक । लाक्षिकं । सुवर्णेन क्रीतं सौवर्णिकं । आदिशब्दात् । लक्षेण युक्तो लाक्षिकः । देवेन प्रवृत्तो दैविकः । कार्षापणेन अर्हतीति कार्षापणिकः । आयुधादपि । चक्रमायुधमस्येति चाक्रिकः एवं कौन्तिकः । तौमरिकः । खाङ्गिकः। क्रीतादेरित्यत्रादि चतुर्दश्यां दृष्टः चातुर्दश: राक्षस आदि । त्रिविद्य एव तीन विद्याओं के पारंगत 'विद्यः' पटोर्भाव: पाटवं, लघोर्भाव: लाघवं कुशलस्य भावः कौशलं । इत्यादि । आगे कुछ अर्थों में इकण् प्रत्यय होता है। उसे श्लोक के अर्थ से प्रकट करते हैं। श्लोकार्थ—उससे खेलता है, उससे मिश्रित है, उससे. तैरता है, उससे आचरण करता है, इन प्रकरणों से इकण् प्रत्यय होता है। आगे पण्य से, शिल्प अर्थ से, नियोग से, क्रीतादि से और आयुधादि से भी इकण् प्रत्यय होता है ।।१ ॥ 'तेन दीव्यति' अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है उसके उदाहरण---अक्षैर्दीव्यति—पाशों से खेलता है। अक्ष+ भिस् इकण् । विभक्ति का लोप होकर पूर्वस्वर को दीर्घ हुआ और अकार का लोप होकर 'आक्षिकः' बना। एवं गिरणा दीव्यति 'गैरिकः' दण्डेन दीव्यति दाण्डिक: बना । तेन संसृष्टं-उससे मिश्रित अर्थ में इकण् दना संसृष्टं । दधि+टा इकण विभक्ति का लोप, स्वर को दीर्घ, इकार का लोप होकर दाधिकं बना। एवं क्षीरेण संसृष्टं क्षैरिकं तक्रेण संसृष्ट-ताक्रिकं, घृतेन संसृष्टं-घार्तिकं । इत्यादि। 'तेन तरति' उससे पार होता है इस अर्थ में इकण उडुपेन तरति--उडुप + टा इकण् पूर्ववत् सारे कार्य होकर औडुपिक: छोटी नौका से पार होता है। वैसे ही द्रोण्या तरतीति द्रौणिकः । तेन चरति—उससे आचरण करता है या चलता है इस अर्थ में इकण् । शिबिकया चरतीति शैबिकिकः । उष्टेण चरतीति औष्टिकः । पण्य अर्थ में इकण तांबूलं पण्यं अस्य-तांबूल है व्यापार जिसका-तांब्रूलिकः । श्लोक में 'अपि' शब्द के ग्रहण से यथाशिष्ट प्रयोग करना चाहिये । वस्त्रं पण्यं अस्य इति वास्त्रिकः । रजतं पण्यं अस्य इति राजतिकः । इत्यादि। शिल्प अर्थ में इकण-- मृदंग शिल्पं अस्य इति मागिक: बना मृदंगवादनं शिल्पं अस्य ऐसा विग्रह करना । नियोग (अधिकार) अर्थ में इकण शुल्कं नियोगो अस्येति शौल्किकः । इत्यादि । क्रीतादि अर्थ में इकण्–सहस्रेण क्रीतं, साहसिकं । आदि शब्द से इकण --लक्षेण युक्तो लाक्षिकः । दैवेन प्रवृत्तो दैविकः । इत्यादि । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १७७ प्रहणात्तस्येति पष्ठ्यन्तानाम्नः परो वाप एतस्मिन्नर्थे इकण् प्रत्ययो भवति 1 प्रष्टस्य वाप: प्राष्टिकं क्षेत्रं । वाप इति कोऽर्थ: ? क्षेत्रं । कुम्भस्य वाप: कौम्भिकमित्यादि। नावस्तायें विषाध्ये तुलया सम्मितेऽपि च तत्र साधौ यः ।।४९७ ॥ नावस्तृतीयान्तात्तार्येऽर्थे विषातृतीयान्ताद्ध्येऽथें तुलया तृतीयान्तात्सम्मितेऽर्थेऽपि च तत्रेति सप्तम्यन्तात्साधावर्थे य: प्रत्ययो भवति । नावा तार्यमिदं नाव्यं । विषेण वध्यो विष्य: । तुलया सम्मितं तुल्यं । कर्मणि साघु: कर्मण्यः । अपि चेति वचनाद् गिरिणा तुल्यो हस्ती गिरितुल्यः । तुल्य: सदृश: कुशलो योग्यो हितश्चेति साधुरुच्यते। ईयस्तु हिते।।४९८॥ हितार्थे ईय: प्रत्ययो भवति । वत्सेभ्यो हितो वत्सीयो गोधुक् । एवमश्वीय: । जनकेभ्यो हितो जनकीय: । जननीय: । त्वदीयः । मदीयः । युष्मदीयः । इदमीय: । आयुध अर्थ में इकणचक्र आयुधं अस्य इति चाक्रिकः । इत्यादि। क्रीतादे: इस प्रकार से ग्रहण करने से षष्ठ्यंत नाम से परे वाप:-बोना इस अर्थ में इकण् प्रत्यय हो जाता है। प्रष्टस्य वाप: प्राष्टिक क्षेत्रं । वाप: शब्द का क्या अर्थ है ? 'खेत' जिसमें अनाज बोया जाता है। कुंभस्य वाप: कौंभिकं इत्यादि-अर्थात् एक घड़े भर बीज बोया । उपर्युक्त प्रकरण में सभी उदाहरण के शब्दों में हिन्दी में कुछ कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं सारे के सारे रूप मूल संस्कृत में देख लेना चाहिये। नाव शब्द से तिरने अर्थ में, विष से वध्य अर्थ में, तुला से संमित अर्थ में, तत्र से साधु अर्थ में 'य' प्रत्यय होता है ॥४९७ ॥ "तृतीयान्त नाव शब्द से तैरने अर्थ में, तृतीयान्त विष शब्द से वध्य अर्थ में, तृतीयान्त तुला शब्द से मापने अर्थ में, 'तत्र' इस सप्तम्यंत शब्द से साधु अर्थ में 'य' प्रत्यय होता है । नावा तार्यमिदं नौ+टा "तत्स्था लोप्या विभक्तयः” सूत्र से विभक्ति का लोप होकर 'औं' को आव् होकर 'नाव्य' बना “कृत्तद्धितसमासाच" सूत्र से लिंग होकर 'सि' विभक्ति में 'नाव्यं' बना । ऐसे ही विषेणवध्यः विष +टा विभक्ति का लोप, “इवर्णावर्णयोर्लोप: स्वरे प्रत्यये ये च" सूत्र से अकार का लोप, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में "विष्यः' बना, तुलया: सम्मितः, तुला+टा विभक्ति का लोप, आकार का लोप, लिंग संज्ञा होकर "तुल्य' बना, कर्मणि साधु कर्मन् + डि विभक्ति का लोप, नकार को णकार, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति से 'कर्मण्य:' बना । सूत्र में 'अपि च वचन है उससे और भी रूप बन जाते हैं। जैसे--गिरिणा तुल्या हस्ती 'गिरि + टा' तुल्य+सि विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'गिरितुल्यः' बना। यहाँ साधु शब्द से तुल्य, सदृश, कुशल, योग्य और हित शब्द लिये जाते हैं। हित अर्थ में 'ईय' प्रत्यय होता है ॥४९८ ॥ वत्सेभ्यो हित, वत्स + भ्यस, विभक्ति का लोप होकर "इवर्णावर्णयोलोप:" इत्यादि सूत्र से अकार का लोप होकर लिंग संज्ञा हई. पनः सि विभक्ति में 'वत्सीयः' बना। वत्सीय:-गोधक = ग्वाला । ऐसे ही अश्वेभ्यो हित:= अश्वीयः जनकेभ्यो हितः = जनकीयः, जननीभ्यो हित: = जननीय; तुभ्यं हित:, मां हित: युष्मद् + भ्यस् अस्मद् + ध्यस, विभक्तियों का लोप होकर “त्वमदोरेकत्वे" ....सूत्र से एकवचन में 'त्वत् मत्' आदेश होकर तीसरा अक्षर होकर त्वदीयः, मदीय: बना। बहुवचन में अस्मभ्यं हित; 'अस्मदीयः युष्मभ्यं हित: 'युष्मदीया बना । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ कातन्त्ररूपमाला तत्र जातस्तत आगतो वा ॥४९९ ॥ इत्यादिषु च ईय: प्रत्ययो भवति । शालायां जात: शालीय: । शालाया आगत: शालीय: । यदगवादिभ्यः ।।५००। उवर्णान्ताद्गवादिभ्यश्च हितार्थे यद्भवति । कृकवाकुभ्यो हित: कृकवाकव्यः । वधूभ्यो हितो वधठ्यः । गोभ्यो हितो गव्य: । पटभ्यो हित: पटव्यः । हविभ्यो हिता हविष्यास्तण्डुला: । गवादय इति के। गो हविस् इष्टका बर्हिस् मेधा सज् खुच् इति । गवादिगणः । उपमाने वतिः ।।५०१॥ उपमानेऽथें वत्ति: प्रत्ययो भवति । राजेव वर्तते राजवत् । ब्राह्मणस्येव वृत्तमस्येति ब्राह्मणवत् । मथुरायामिव पाटलिपुत्रे प्रासादा मथुरावत् । देवमिव त्वां पश्यामि देववत् । इत्यादि। सर्वत्र द्रव्यगुणक्रियाभि: साम्यमुपमानमस्तीति वत्प्रत्ययेन भवितव्यं । द्रव्ये । देवदत्त इव धनवान् देवदत्तवत्। एवं कुबेरवत् । बलिवत् । गुणे । यतिरिव गुणवान् यतिवत् । जलमिव शैत्यं जलवत् । अग्निरिव औष्ण्यमानवत । श्रीखण्ड इव सरभि: श्रीखण्डवत् । क्रियायां । ब्राह्मण इव वर्तते ब्राह्मणवत् । एवं पिशाचवत् । तत्वौ भावे ॥५०२॥ · वहाँ पैदा हुआ अथवा वहाँ से आया इत्यादि अर्थ में 'ईय' प्रत्यय होता है ॥४९९ ॥ शालायां जात: शाला + डि, विभक्ति का लोप, अवर्ण का लोप, लिंग संज्ञा, पुन: विभक्ति आने से 'शालीय:' बना । शालाया आगतः, शाला + उस्, विभक्ति का लोप होकर, अवर्ण का लोप हुआ और लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'शालीय:' बना। __ उवर्णान्त और गवादि से हित अर्थ में 'यत्' प्रत्यय होता है ।५०० ।। कृकवाकुभ्यो हित: कृकवाकु + भ्यस, विभक्ति का लोप हुआ 'उवर्णस्त्वोत्वम्' इत्यादि से उकार को 'ओ' होकर अव् होकर, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में 'कृकवाकव्यः' बना । वधूभ्यो हित; = वधव्य, गोभ्यो हित: = गव्य, पटुभ्यो हित: = पटव्य: । हविर्यो हित:, हविस् + भ्यस् विभक्ति का लोप स् को ए होकर बहुवचन में 'हविष्या:' बना इसका अर्थ है हवन करने योग्य तंदुल । गवादि से क्या-क्या लेना ? गो, इविस्. अष्टका, बर्हिस् मेधा, सज् और सुन् शब्द गवादि गण में लिये जाते हैं। उपमान अर्थ में 'वति' प्रत्यय होता है ॥५०१ ।। - राजा इव वर्तते, राजन् + सि विभक्ति का लोप होकर 'लिंगांतरकारस्य' से नकार का लोप हो गया पुन: 'राजवत्' बना । ब्राह्मणस्येव वृत्तमस्य-ब्राह्मण के समान है चारित्र इसका='ब्राह्मणवत्' बना । मथुरा में पाटलिपुत्र के समान भवन हैं अत: 'मथुरावत्' बना । देवमिव त्वां पश्यामि 'देववत्' इत्यादि । सभी जगह द्रव्य, गुण और क्रियाओं से समान उपमा रहती है जिसकी, उसमें 'वत्' प्रत्यय होना चाहिये। द्रव्य में-देवदत्त इव धनवान् = देवदत्तवत् । ऐसे ही कुबेरवत, बलिवत् बना। गुण अर्थ में यतिरिव गुणवान् = यतिवत्, जलमिव शैत्यं = जलवत्, अग्निवत् श्री खण्ड इव सुरभिः = श्रीखण्डवत् । क्रिया अर्थ में ब्राह्मण इव वर्तते = ब्राह्मणवत् । पिशाच इव वर्तते = पिशाचवत् । भाव अर्थ में 'त' और 'त्व' प्रत्यय होते हैं ।।५०२ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ भावेऽभिधेये तत्वों भवतः । शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तं भावो भवति । तप्रत्ययस्य स्त्रियां वृत्तिः । त्वप्रत्ययस्य नपुंसके वृत्तिः । पटस्य भाव: पटता पटत्वं । एवं अश्वता अश्वत्वं । गोता गोत्वं । इति दल्यभाव: । शुक्लता शुक्लत्वं । रूपता रूपत्वं । रसता रसत्वं । ज्ञानता ज्ञानत्वं । सुखता सुखत्वं इति गुणभावः । उत्क्षेपणता उत्क्षेपणत्वं । गमनता गमनत्वं । इति क्रियाभावः । यण च प्रकीर्तितः ।।५०३ ।। भावेऽभिधेये यण् प्रकीर्तिततस्तत्वौ च। जडस्य भावो जाड्यं जड़ता जड़त्वं । एवं ब्राह्मण्यं ब्राह्मणता ब्राह्मणत्वं । ___ अधुटस्वरवत्तद्धिते ये ॥५०४॥ तद्धिते ये परे अघुट्स्वरवत्कार्य भवति । अघुट्स्वरादौ सेटकस्यापि वन्सेर्वशब्दस्योत्वमित्युक्तं । विदुषां भावो वैदुष्यं । प्रकीर्तितग्रहणाधिक्यादन्यस्मिन्नर्थेऽपि यण प्रकीर्तितस्तत्वौ च भवत: । ब्राह्मणस्य कर्म ब्राह्मण्यं ब्राह्मणता बाह्मणत्वं । पुनःपुनर्भाव: पौन:पुन्यं । क्वचिदुभयपदवृद्धिः । पौनः पौन्यं । सौभाग्यं । अणि च पदद्वये वृद्धौ आग्निमारुतं । कर्म । सौहार्द । __शब्द की प्रवृत्ति के निमित्त भाव होता हैं। 'त' प्रत्यय स्त्रीलिंग में होता है एवं 'त्व' प्रत्यय नपुंसकलिंग में होता है। पटस्य भावः, पद + इस, विभक्ति का लोप होकर 'त' प्रत्यय हुआ। पुन: "स्त्रियाभादा" ..... सूत्र से 'आ' प्रत्यय होकर लिंग संज्ञा हुई सि विभक्ति में 'पटता' बना । वैसे ही नपुंसक लिंग में 'पटत्वं' बना । ऐसे ही अश्वस्य भावः = अश्चता, अश्वत्वं । गो: भावः = गोता, गोत्वं । इन शब्दों में द्रव्य से भाव प्रत्यय हुआ है। गुण से भाव प्रत्यय-शुक्लस्य भावः =शुक्लता, शुक्लत्व। रूपस्य भाव:-रूपता, रूपत्वं । रसस्य भावः = रसता, रसत्वं । ज्ञानस्य भावः=ज्ञानता, ज्ञानत्वं । सखता सखत्वं ।। क्रिया से भाव प्रत्यय-उत्क्षेपणस्य भावः = उत्क्षेपणता, उत्क्षेपणत्वं । गमनस्य भावः = गमनता, गमनत्वं । इत्यादि । भाव अर्थ में 'यण' प्रत्यय होता है ।५०३ ॥ त और त्व भी होते हैं । जडस्य भावः, विभक्ति का लोप होकर ण् अन्बन्ध होने से वृद्धि हो गई एवं “इवर्णावर्ण” इत्यादि सूत्र से अवर्ण का लोप होकर, लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'जाइयं' बना, त, त्व, प्रत्यय से 'जडता, जडत्वं' बना । ऐसे ही ब्राह्मणस्य भावः = 'ब्राह्मण्यं, ब्राह्मणता, ब्राह्मणत्वं' बना। सुजनस्य भावः = सुजनता, सुजनत्वं, सौजन्यं । दक्षिणस्य भावः = दाक्षिण्यं, स्थिरस्य भावः = स्थैर्य । गम्भीरस्य भावः = गांभीर्यं ।। तद्धित का यण् प्रत्यय आने पर अघुट्स्वरवत् कार्य होता है ॥५०४ ॥ विदुषां भाव, विद्वन्स् + आम् विभक्ति का लोप होकर अघुट् स्वर आदि विभक्ति के आने पर वन्स् के 'व' शब्द को उकार हो गया, नकार का लोप हो गया। पूर्वस्वर की वृद्धि होकर लिंग संज्ञा होकर 'वैदुष्यं' बना । ५०३ सूत्र में प्रकीर्तित' शब्द अधिक है उससे अन्य अर्थ में भी यण् प्रत्यय होता है और 'त, त्व' प्रत्यय होता है। जैसे ब्राह्मणस्य कर्म = ब्राह्मण्यं, ब्राह्मणता, ब्राह्मणत्वं । पुन: पुनर्भावः = पौनः पुन्यं, १. भवतः अस्मात् अभिधानप्रत्ययाविति भावः । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० कातन्त्ररूपमाला तदस्यास्तीति मन्त्वन्त्वीन् ॥५०५ ॥ तदिति प्रथमान्तादस्यास्तीत्येतस्मिन्नर्थे मन्तु वन्तु विन् इन् इत्येते प्रत्यया भवन्ति । गावोऽस्य सन्तीति गोमान् । आयुरस्यास्तीति आयुष्मान् । इतिशब्दस्य विवक्षार्थत्वात् अवर्णान्तात् अवर्णोपधात् मकारान्तात् मकारोपधात् धुङन्तात् अशिडन्तात् परो वन्त् प्रत्ययो भवति । अशिडन्तादित्युक्ते सति तद्वचनं सामान्यमेव । तत्र हकारो वर्जनीयः । अवर्णान्तात् वृक्षाऽस्यास्तीति वृक्षवान् । शालास्यास्तीति शालावान् । इत्यादि । अवर्णोपधात्-तक्षास्यास्तीति तक्षवान् । कर्मास्यास्तीति कर्मवान् । क्वचिन्त्रकारलोपः । मकारान्तात् इदमस्यास्तीति इदंवान् । किमस्यास्तीति किंवान् । इत्यादि । मकारोपधात्-लक्ष्मारस्यास्तीति लक्ष्मीवान् । एवं धर्मवान् । इत्यादि । धुङन्तात् । विद्युदस्यास्तीति विद्युत्वान् । वर्गप्रथमा इत्यादिना तृतीये प्राप्ते सति। तसोर्न तृतीयो मत्वर्थे इत्यनेन सूत्रेण तृतीयत्वं न भवति । अशिडन्तादिति किं ? आयुरस्यास्तीति आयुष्मान् । असन्तमायामेधास्त्रग्भ्यो वा विन् ।।५०६ ।। I एभ्यः परो दिन् प्रत्ययो वा भवति । यशोऽस्यास्तीति यशस्वी पक्षे वन्तु यशस्वान् । अत्र सकारस्य दकारो विसर्गश्च न भवति । तपोऽस्यास्तीति तपस्वी । तपस्वान् । एवं तेजस्वी तेजस्वान् । धुटां तृतीय: 1 धु तृतीयो भवति घोषवति सामान्ये । लवर्णतवर्गलसा दन्त्या इति न्यायात् सकारस्य दकारे प्राप्ते सति 'वह इसके है' इस अर्थ में मन्तु, वन्तु, विन्, इन् ये चार प्रत्यय होते हैं ||५०५ ॥ गाव: अस्य सन्ति इति-गायें इसके पास हैं। गो + जस् विभक्ति का लोप होकर 'गोमन्तु' बना लिंग संज्ञा होकर सिविभक्ति आई अतः 'गोमान्' बना । ऐसे ही आयु अस्य अस्तीति 'आयुष्मान्' बना । यहाँ सूत्र का 'इति' शब्द विवक्षित अर्थ को कहता है मतलब - अवर्णात से परे, अवर्ण उपधा वालों से परे, मकारांत से परे, मकार उपधावाले से परे, धुट् अन्तवाले शब्दों से परे, अशिद अन्त वाले से परे, 'वन्त्' प्रत्यय होता है । शिट् अन्त में न होवे ऐसा कहने से यहाँ सामान्य कथन समझना अतः हकार को छोड़ देना चाहिये । अवर्णान्त - वृक्षो अस्यास्ति इति, वृश्च + सि, वन्तु विभक्ति का लोप होकर 'उ' अनुबन्ध होकर वृक्षवन्तु बना, लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'वृक्षवान्' शब्द बना ऐसे ही शाला अस्य अस्तीति = शालावान् इत्यादि । विभक्ति का लोप, नकार का लोप होकर - कर्मवान् । अवर्ण उपधा से --तक्षा अस्यास्ति इति, तक्षन् + सि, वन्तु पूर्ववत् 'तक्षवान्' बना । कर्म अस्यारित इति कर्मन् + सिं वन्तु मकारान्त- इदं अस्यास्तीति इदंवान्, किमस्यास्तीति = किंवान् । मकारोपधा से लक्ष्मी + सि, वन्तु = लक्ष्मीवान्, धर्मोस्यास्तीति धर्मवान् इत्यादि । ट् अन्त वाले शब्दों से -विद्युत् अस्यास्तीति = विद्युत्वान् यहाँ "वर्ग प्रथमा: पदान्ताः स्वर घोषवत्सु तृतीयात् " इस ६८ वें सूत्र से तकार को तृतीय अक्षर दकार प्राप्त था किन्तु "तसो र्न तृतीयो मत्वर्थे” इस ५०७ सूत्र से तृतीय अक्षर नहीं हुआ। वृत्ति में 'शिद अन्त में न हो' ऐसा क्यों कहा ? तो जैसे आयुरस्यास्ति इति आयुष्मान् आयुष शब्द षकारान्त होने से वन्तु प्रत्यय न होकर मन्तु प्रत्यय हुआ है । असन्त् माया, मेधा और स्रज् शब्दों से 'विन्' प्रत्यय विकल्प से होता है ॥५०६ ॥ अस् हैं अन्त में जिसके ऐसे शब्दों से और उपर्युक्त शब्दों से विन एवं वन्तु प्रत्यय होते हैं । यशो अस्यास्तीति यशस् + सिविन, विभक्ति का लोप होकर यशस्विन् बना। लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में 'यशस्वी' बना । पक्ष में वन्तु प्रत्यय से यशस्त्रान् बना । यहाँ सकार को दकार एवं विसर्ग नहीं होता है। ऐसे ही 'तेजो अस्य अस्तीति' तेजस्वान्, तेजस्वी, "धुटां तृतीय:" इस २७५ वें सूत्र से घुट् संकार को घोषवान् सामान्य के आने पर तृतीय अक्षर होता है, पुनः "लवर्णतवर्गलसा दन्त्याः” इस न्याय से सकार को दकार प्राप्त होने पर - Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धितं १८१ तसोन तृतीयो मत्वर्थे ।।५०७॥ तकारसकारयोस्तृतीयो मत्वर्थे न भवति । मत्वर्थे इति कोऽर्थः ? अस्त्यर्थे । पश्चात् रेफसोर्विसर्जनीये प्राप्ते सकृद् बाधितो विधिर्बाधित एव सत्पुरुषवत् । मायास्यास्तीति मायावी मायावान् । मेधास्थास्तीति मेधावी मेधावान् । स्रगस्वास्तीति स्रग्वी स्रग्वान् । व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभारिति न्यायात् चवर्गदगादीनां चेति गत्वमनेन न्यायेन अघोषे प्रथमः। वर्गप्रथमास्तृतीयान्। बहुलमिन् भवति । ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी । दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी । शिखास्यास्तीति शिखी । देवोऽस्यास्तीति देवी । इत्यादि । तदस्य संजातं तारकादेरितच ।।५०८॥ तदिति प्रथमान्तादस्य संजातमित्यस्मिन्नर्थे तारकादेराकृतिगणात् पर इतन् प्रत्ययो भवति । तारका संजाना अस्येति तारकितं नभः । एवं कण्टकित; कर: । पल्लवितो वृक्षः । संख्यायाः पूरणे डमो ॥५०९॥ संख्याया: पूरणे.ऽर्थे डमौ भवतः । एकादशपर्यन्तं संख्या। तत: परमसंख्या ॥ संख्यादेर्नान्ताया मो भवति । शेषायाच डो भवति । तत्कथं ? वाशब्दात् । वाशब्द: क्वास्ते ? वाणपत्ये इत्यत्र । मत्वर्थ में तकार और सकार को तृतीयाक्षर नहीं होता है ।।५०७ ॥ इस सूत्र से सकार को तृतीय अक्षर नहीं हुआ पुन: “रेफसोर्विसर्जनीयः" इस १३०वें सूत्र से सकार को विसर्ग प्राप्त था किन्तु “सकृद् बाधितो विधिर्वाधित एव” जिसकी विधि एक बार बाधित कर दी जाती है वह बाधित ही रहता है पुन: उसमें दूसरी विधि भी बाधित ही रहती है जैसे सत्पुरुष का वचन एक होता है। अत: तेजस्वान् रहा है। ____ मत्वर्थ शब्द से क्या अर्थ लेना ? अस्ति का अर्थ लेना अर्थात् मत्वर्थ से कहे गये प्रत्यय अस्ति अर्थ के वाचक होते हैं। माया अस्यास्तीति = मायावी, मायावान् । मेधावी, मेधावान् । स्रक् अस्यास्ति इति = स्रग्वी । स्रग्वान् । "व्यंजनांतस्य यत्सुभोः" इस ४३०वें सूत्र के न्याय से और "चवर्ग दृगादीनां च” २५४वें सूत्र से स्रज् के ज् को गकार हो गया है । _ 'बहुलमिन् भवति' इस नियम के अनुसार ज्ञानम् अस्य अस्तीति ज्ञानिन्, लिंग संज्ञा होकर सिं विभक्ति के आने से 'जानी' बना। दण्डो अस्यास्ति इति = दण्डी, शिखा अस्यास्तीति = शिखी। देवो अस्यास्तीति, देविन्- देवी । इत्यादि । 'वह इसके हुआ' इस अर्थ में तारकादि शब्दों से 'इतन्' प्रत्यय होता है ॥५०८ ।। 'तत्' इस प्रथमान्त से इसके हुआ' इस अर्थ में तारका आदि आकृति मण से परे 'इतन्' प्रत्यय होता है। तारकाः संजाताः अस्य इति तारका+जस विभक्ति का लोप होकर "डवर्णावर्णयो सूत्र से आकार का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर 'तारकिर्त' बना, इसका अर्थ है आकाश अर्थात् तारा उदित हो रहे जिसके ऐसा तारकित आकाश। ऐसे ही कण्टका: संजाता अस्येति 'कण्टकित:' करः । पल्लवा: संजाता अस्येति = पल्लवित:-वृक्षः । संख्या के पूरण अर्थ में 'ड' और 'म' प्रत्यय होते हैं ॥५०९ ॥ एकादश पर्यंत संख्या कहलाती है इसके आगे असंख्या हो जाती है। संख्यादि नकारांत से 'म' प्रत्यय होता है और शेष संख्या से 'ड' प्रत्यय होता है। ऐसा क्यों ? 'वा' शब्द से ऐसा नियम है। 'वा' शब्द कहाँ है ? 'वाणपत्ये'४७३वे सूत्र में 'वा' शब्द है उससे उपर्युक्त नियम समझ लेना चाहिये। त्यादि Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ कातन्त्ररूपमाला डानुबन्धेऽन्त्यस्वरादेर्लोपः ॥५९० ॥ डाबन्धे प्रत्यये परे अन्त्यस्वरादेर्लोपो भवति । एकादशानां पूरण एकादश एकादशी एकादशं । द्वादशः एवं । अत्र आत्वं निपातः । त्रयोदशः । अत्र त्रयस्तु निपातः । चतुर्दशः । पञ्चदशः । पञ्चम: । पंचमी । पचमं । एवं सप्तमः । अष्टमः । नवमः । दशमः । इत्यादि । द्वेस्तीयः ॥५११ ॥ द्वेस्तीयो भवति पूरणेऽर्थे । द्वयोः पूरणो द्वितीयः । द्वितीया । द्वितीयं । स्तु च ॥५१२ ॥ स्तयो भवति तृआदेशश्च पूरणेऽर्थे । त्रयाणां पूरणस्तृतीयः । तृतीया । तृतीयं । अन्तस्थो द्वे र्षोः ॥ ५१३ ।। रेफषकारयोरन्तस्थो भवति डे परे । चतुर्णां पूरणश्चतुर्थः । चतुर्थी । चतुर्थं । तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्गः ॥ ५१४ ॥ षकारटवर्गान्तात्परस्य तवर्गस्य टवर्गो भवति आन्तरतम्यात् । षण्णां पूरणः षष्ठः षष्ठी षष्टं । कतिपयात्कश्च ॥५१५ ।। एकादशानां पूरण; एकादशन् + आम् ड् अ । विभक्ति का लोप, अनुबंध प्रत्यय के आने पर अन्त्यस्वरादि अवयव का लोप हो जाता है ॥५१० ॥ अतः अन् का लोप होकर एकादश् + अ = एकादश बना। लिंग संज्ञा होकर तीनों लिंगों की सि विभक्ति में एकादश:, एकादशी, एकादर्श बन गया। ऐसे द्वादश शब्द बना है इसमें द्वि को 'आ' निपात से हुआ है अत: द्वादश, द्वादशी, द्वादशं बना । त्रयोदश में भी त्रय शब्द का निपात हुआ है। एवं चतुर्दशः, पंचदश: आदि बने हैं इनका अर्थ है ग्यारहवाँ, बारहवाँ आदि। आगे 'म' प्रत्यय से बने हैं। जैसे पंचानां पूरण: पंचन् + आम् म, विभक्ति और णकार का लोप होकर पञ्चम हुआ लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में 'पञ्चम:' बना, स्त्रीलिंग नपुंसक लिंग में पञ्चमी, पंचमं बना । एवं सप्तम, अष्टम नवमः दशमः । इत्यादि । पूरण अर्थ में द्वि से 'तीय' प्रत्यय होता है ॥५११ ॥ द्वयोः पूरण, द्वि+ओस् तीय विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा होकर, विभक्ति आने से "द्वितीयः द्वितीया, द्वितीयं बना । त्रि को पूरण अर्थ में तृ आदेश होकर 'तीय' प्रत्यय हो जाता है ॥ ५१२ ॥ त्रयाणां पूरण, त्रि + आम् विभक्ति का लोप होकर पूर्वोक्त विधि से 'तृतीय:' तृतीया, तृतीयं बना । 'ड' प्रत्यय के आने पर रकार को षकार के अन्त में 'थ' हो जाता है ॥५१३ ॥ चतुर्णा, पूरणः, चत्वार् + आम् विभक्ति का लोप चत्वार, के वा को उकार होकर चतुर्थ रहा लिंग संज्ञा होकर विभक्तियों के आने से चतुर्थः, चतुर्थी, चतुर्थं बना । षकार और टवर्ग से परे तवर्ग को टवर्ग हो जाता है ॥ ५१४ ॥ और वह तवर्ग को टवर्ग क्रम से होता है जैसे यहाँ थ को ठ होगा। षण्णां पूरणः षष् + आम् विभक्ति का लोप आदि होकर षष्ठः, षष्ठी, षष्ठं बना । कतिपय और कति शब्द से 'ड' प्रत्यय आने पर पूरण अर्थ में 'थ' प्रत्यय होता है ॥५१५ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धितं १८३ कतिपयात्कतेच पूरणेऽर्थे थो भवति डे परे । कतिपयानां पूरणः कतिपयथः । कतीनां पूरणः कतिथः । कतिपयथ । कतिथी । कतिपयथं । कतिथं । विंशत्यादेस्तमद् ||५१६ ॥ विंशत्यादेस्तमट् प्रत्ययो भवति पूरणेऽर्थे। विंशतितमः । विशतेः पूरणी विशतितमी । विंशतितमं । त्रिंशतः पूरण: त्रिंशत्तमः । त्रिंशत्तमी । त्रिंशत्तमं । चत्वारिंशत्तमः । पंचाशत्तमः । उत्तरत्र नित्यग्रहणादिह विकल्पो लभ्यते । उत्तरत्र नित्यग्रहणं क्वास्ते ? नित्यं शतादेरित्यत्र यत्र संख्या विद्यते तत्र विकल्पेन तमद् भवति । तेर्विंशतेरपि ॥५१७ ॥ विंशतेरपि तेर्लोपो भवति डानुबन्धे प्रत्यये परे । अपिशब्दात् अस्य लोपो भवति । विशः । त्रिंश: । चत्वारिंशः । पञ्चाश: । नित्यं शतादेः ॥५१८ | शतादेर्गणात् पूरणेऽर्थे नित्यं तमट् प्रत्ययो भवति । एकशतस्य पूरण एकशततमः । एकशततमी । एकशततमं । एकसहस्रस्य पूरण एकसहस्रतमः । एकसहस्रतमी । एकसहस्त्रतमं । एककोटितमः । षष्ट्याद्यतत्परात् ।।५१९ ॥ षष्ट्यादेरसंख्यायाः परात् पूरणेऽर्थे नित्यं तमट् भवति । षष्टेः पूरणः षष्टितमः । षष्टेः पूरणी षष्टितमी । षष्टितमं । सप्ततितमः । अशीतितमः । नवतितमः । अतत्परादिति किं ? एकषष्टेः पूरण एकषष्टः । एकषष्टितमः । यत्र संख्या विद्यते तत्र विकल्पेन तमट् प्रत्ययो भवति कतिपयानां पूरणः = कतिपयथः कतीनां पूरणः कतिथः बना । = विशति आदि से पूरण अर्थ में 'तमद्' प्रत्यय होता है ॥५१६ ॥ विंशते: पूरण : विंशति + ङस् तम, विभक्ति का लोप होकर पूर्वोक्त सारी विधि से विंशतितमः विंशतितमी, विंशतितमं । ऐसे ही त्रिंशतः पूरण: त्रिंशत् + डस् तम, पूर्वोक्त विधि से त्रिंशत्तमः त्रिंशत्तमी, त्रिंशतमं बना। आगे चत्वारिंशत्तमः पञ्चाशत्तमः इत्यादि । आगे नित्य शब्द ग्रहण किया गया है अतः यहाँ विकल्प समझना | आगे 'नित्य' शब्द किस सूत्र में है "नित्यं शतादेः " इस ५१८वें सूत्र में है । जहाँ संख्या है वहाँ विकल्प से तमद् प्रत्यय होता है। अनुबंध प्रत्यय के आने पर विशति के 'ति' का लोप हो जाता है ॥ ५१७ ॥ अपि शब्द से शकार के अकार का भी लोप हो जाता है। अतः विंश रहा, लिंग संज्ञा के बाद सि विभक्ति में 'विंश:' बना। ऐसे ही त्रिंशः, चत्वारिंशः, पञ्चाशः इत्यादि । शतादि गण से पूरण अर्थ में नियम से 'तमद्' प्रत्यय होता है ॥५१८ ॥ एकशतस्य पूरण: = एकशततमः एकशततमी, एकशततमं एकसहस्रस्य पूरण: एकसहस्रतमः एककोटितम इत्यादि । षष्टि आदि असंख्या से परे पूरण अर्थ में नित्य ही तमट् प्रत्यय होता है ॥५१९ ॥ षष्टेः पूरण: = षष्टितमः षष्टितमी षष्टितमं सप्ततितमः अशीतितमः नवतितमः । सूत्र में अतत्पर - संख्या से परे न हो ऐसा क्यों कहा ? एकषष्टेः पूरण: = एकषष्टितम: और 'ड' प्रत्यय से एकषष्टः भी बन गया। मतलब जहाँ संख्या है वहाँ विकल्प से तमट् प्रत्यय होता है । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ कातन्त्ररूपमाला विभक्तिसंज्ञा विज्ञेया वक्ष्यन्तेऽतः परन्तु ये। येव्यादेः सर्वनाम्नस्ते बहोश्चैव पराः स्मृताः ॥३॥ अत: परं यादिवर्जितात्सर्वनाम: परा ये प्रत्यया वक्ष्यन्ते ते विभक्तिसंज्ञा विज्ञेया: । तु पुन: । बहो चैव इति कोऽर्थ: ? बहुशब्दात्पराः प्रत्ययाः कथिता: श्रुतत्वात्सर्वनाम्नः कार्य प्रति विक्तिसंज्ञा भवन्ति । तेन तदा कदा इति घोषवति न दीर्घः । तस्मिन् काले तदा “दादानीमौ तदः स्मृतौ” इति दा प्रत्ययः । कस्मिन्काले कदा। काले कि ? सर्वयदेकान्येभ्य एव दा इति दाप्रत्ययः । विभक्तिसंज्ञा इति विभक्तिकार्य किं ? त्यदादित्वं अकारे लोपं । एकत्र । किं क इति कादेश:। पञ्चम्यास्तस ॥५२०॥ __पञ्चम्यन्तात् यादिवर्जितात्सर्वनाम्नो बहोश्च परस्तस् भवति । सर्वस्मात् सर्वतः । तस्-प्रत्ययान्ता अव्ययानि भाष्यन्ते । अव्ययाद्विभक्तेलोप: । तस्मात् ततः । यस्मात् यतः । बहुभ्यो बहुत: । एवं विश्वत: । उभयतः । अन्यत: । पूर्वत: । परत: । इत्यादि । अयादेरिति किं ? द्वाभ्यां । उगवादित इत्यत्र कर्थ, प्रयोगतश्चेति ज्ञापयति । तेन असर्वनाम्नोप्यवधिमात्रात्तस् वक्तव्य: असर्वनाम्नोऽपि परस्तस् प्रत्ययो भवति श्लोकार्थ-इसके आगे द्वि आदि से वर्जित सर्वनाम से परे जो प्रत्यय कहे जायेंगे उन्हें विभक्ति संज्ञक समझना चाहिये। पुनः 'बहोशैव' शब्द का क्या अर्थ है ? बह शब्द से परं जो प्रत्यय कहे गये हैं वे सने गये होने से सर्वनाम के कार्य के प्रति विभक्ति संज्ञक होते हैं । इससे तदा कदा, इनमें 'घोषवति' इत्यादि १४०वें सूत्र से दीर्घ नहीं हुआ है। तस्मिन् काले तदा, 'दादानीमौ तद: स्मृतौ' इस ५३२वें सूत्र से 'दा' प्रत्यय होता है । कस्मिन् काले कदा । काले ऐसा क्यों कहा ? "काले किं सर्वयदेकान्येभ्य एव दा" इस ५२९वें सूत्र से दा प्रत्यय होता है। विभक्ति संज्ञा इससे विभक्ति कार्य क्या हुआ ? 'त्यदाद्यत्वं' इस १७२वे सूत्र से अकार होकर लोप हुआ। एकत्र, किं कः' से 'क' आदेश होता है । द्वि आदि से वर्जित सर्वनाम पञ्चम्यंत और बहु शब्द से परे तस् प्रत्यय होता है ॥५२० ॥ _ "सर्वस्मात्' अर्थ में तस् प्रत्यय होकर सर्व + डसि, तस् है। विभक्ति का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर स् का विसर्ग हुआ पुन: सि विभक्ति आई सर्वत: +सि सूत्र लगा ‘अध्ययाच्च' इस .... सूत्र से विभक्ति का लोप हो गया। तस् प्रत्यय वाले सभी शब्द अव्यय कहे जाते हैं। तस्मात् तद् + डसि, तस् 'त्यदादीनाम विभक्तौ' सूत्र १७२वें से 'अकारांत होकर 'तत:' बना। ऐसे ही यस्मात् = यतः, बहुभ्यो = बहुत:, विश्वतः, उभयत: अन्यत: पूर्वत: इत्यादि । सूत्र में द्वि आदि को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? द्वाभ्यां में तस् प्रत्यय नहीं होगा। “उगवादितः" इत्यादि सूत्र ... में गवादि से तस् प्रत्यय कैसे हुआ? तो आगे उसे बताते हैं। अवधि मात्र असर्वनाम से भी तस प्रत्यय होता है। यहाँ अवधि मात्र का क्या अर्थ है ? प्रयोग मात्र से तस् प्रत्यय होता है ऐसा अर्थ है । अत: इस सूत्र से अन्यत्र भी तस् प्रत्यय हो जाता है। ग्रामात, ग्राम+ इसि, तस् विभक्ति का लोप होकर ग्रामतः, प्रयोगात् =प्रयोगतः वृक्षात् = वृक्षत:, पटत:, घटत; इत्यादि। अस्मात् से तस् प्रत्यय हुआ है। अत: १. यह वृत्ति में है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १८५ अवधिमात्रात् । अवधिमात्रादिति कोऽर्थ: ? प्रयोगमात्रादित्यर्थः । इत्यनेन सूत्रेण तस्प्रत्ययो भवति 1 ग्रामात् ग्रामतः । प्रयोगात् प्रयोगतः । एवं वृक्षात् वृक्षतः । पटत: । घटतः । तत्रेदमिः ॥५२१ ।। तेषु विभक्तिसंज्ञकेषु प्रत्ययेषु परत इदम् इकारतां प्राप्नोति । अस्मात् इत: । तेषु त्वेतदकारताम् ।।५२२॥ तेषु तकारादिषु विभक्तिसंज्ञकेषु परत एतद्शब्द अकारतां प्राप्नोति । एतस्मात् अतः । तकारादिष्विति किं ? एतेन प्रकारेण एतधा । तहोः कुः॥५२३ ।। तकारहकारयोः परयो: किंशब्द: कुर्भवति । कस्मात् कुतः । त्रः सप्तम्याः ॥५२४॥ सप्तम्यन्ताद् यादिवर्जितात्सर्वनामो बहोच परत: प्रत्ययो भवति । सर्वस्मिन् सर्वत्र । एतस्मिन् अत्र । कस्मिन् कुत्र । अमुष्मिन् अमुत्र । तस्मिन् तत्र । यस्मिन् यत्र । बहुषु बहुत्र । अद्यादेरिति किं ? द्वयोः । त्वयि । मयि । इत्यादि। आद्यादिभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यश्च ॥५२५ ।। सप्तम्यन्तेभ्य आद्यादिभ्यश्च परस्तस् प्रत्ययो भवति । आदौ आदितः । एवं मध्ये मध्यत: । अन्ते अन्ततः । अग्रे अग्रत: । मुखे मुखत: । पृष्ठे पृष्ठतः । पावें पार्श्वत: । पूर्वे पूर्वत: । परे परत इत्यादि। विभक्ति का लोप होने से विभक्ति के आश्रित जो इदम् को 'अ' हुआ था वह भी 'निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का अभाव हो जाता है' इस नियम से इदम् रह गया है इदम् = तस् है। इन विभक्ति संज्ञक प्रत्ययों के आने पर इदं को 'इ' हो जाता है ॥५२१ ॥ तब 'इत:' बना । एतस्मात् से तस् प्रत्यय हुआ है। उन तकारादि विभक्ति संज्ञकों के आने पर एतद् शब्द को अकार हो जाता है ॥५२२ ॥ ___एतस्मात् = अत: बन गया। तकार आदि वाली विभक्तियों के आने पर ऐसा क्यों कहा ? तो एतेन प्रकारेण से प्रकार अर्थ में धा प्रत्यय होने से 'एतधा' बना यहाँ धकार आदि विभक्ति होने से एतद् को 'अ' नहीं हुआ है। तकार, हकार से परे किं शब्द को 'कु' आदेश हो जाता है ॥५२३ ॥ कस्मात् कुत, सप्तम्यंत से परे 'त्र' प्रत्यय होता है ।।५२४ ॥ द्वि आदि वर्जित सप्तम्यंत सर्वनाम और बहु शब्द से परे 'त्र' प्रत्यय होता है। सर्वस्मिन् त्र, सर्व+ङि, त्र विभक्ति का लोप होकर सर्वत्र हुआ । इसमें भी लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्तियाँ आयेंगी पुन: 'अव्ययाच्च' सूत्र से विभक्ति का लोप हो जावेगा क्योंकि ये सभी प्रत्यय अव्ययसूचक है। एतस्मिन् = अत्र, कस्मिन् =कुत्र, अमुस्मिन् = अमुत्र, तस्मिन् = तत्र, यस्मिन् = यत्र, बहुषु = बहुत्र । द्वि आदि को छोड़कर ऐसा क्यों कहा? द्वयोः त्वयि, मयि, इनमें त्र प्रत्यय नहीं होता है। सप्तम्यंत आदि प्रभृति शब्दों से परे तस् प्रत्यय होता है ॥५२५ ॥ आदौ = आदितः मध्ये = मध्यत:, अंते = अंतत:, अग्रे= अग्रतः, मुखे = मुखतः, पृष्ठे - पृष्ठतः, पाश्र्वे = पार्श्वत:, पूर्व-पूर्वस्मिन् वा पूर्णत: परे परस्मिन् वा = परत: इत्यादि । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १८६ कातन्त्ररूपमाला इदमो हः ।।५२६ ॥ इदमः सप्तम्यन्तात् हो भवति । त्रापवादः । अस्मिन् इह । किमः || ५२७ ॥ किम: सप्तम्यन्तात् हो भवति । कस्मिन् कुह । अत् क्व च ।।५२८ ।। किम: सप्तम्यन्तात् अद् भवति क्वादेशच । कस्मिन् क्व । काले किसर्वयदेकान्येभ्य एव दा ॥५२९ ॥ काले वर्तमानेभ्यः सप्तम्यन्तेभ्य एम्यो दा भवति । कस्मिन् काले कदा । एवं सर्वदा । यदा । एकदा । अन्यदा । काल इति किं ? सर्वत्र देशे। सदा इति निपातः । सर्वशब्दात्परो दाप्रत्ययो भवति । सर्वस्य सभावश्च । सर्वस्मिन्काले सदा । इदमोहर्यथुनादानीम् ॥५३० ॥ काले वर्तमानात्सप्तम्यन्तादिदमः परा हिं अधुना दानीम् एते प्रत्यया भवन्ति । रथोरेतेत् ॥५३१ ॥ रथो: परत इदम् शब्द एत इत् इत्येतौ प्राप्नोति । अस्मिन् काले एतर्हि । इवर्णावर्णयोर्लोपः । अधुना । इदानीम् । इत्थम् | सप्तम्यंत इदं से 'ह' प्रत्यय होता है ॥५२६ ॥ यहाँ प्रत्यय का अपवाद हो गया है। अस्मिन् इह = सप्तम्यंत किम् से 'ह' प्रत्यय होता है ॥५२७ ॥ कस्मिन् 'कुह' बन गया। सप्तम्यंत कि से परे 'अत्' प्रत्यय हो जाता है और किम् को 'क्व' आदेश हो जाता है ॥ ५२८ ॥ कस्मिन् क्व + अ है ४७९ वे सूत्र से क्व के 'अ' का लोप होकर प्रत्यय मिलकर 'क्व' बन गया । काल अर्थ में वर्तमान कि आदि सप्तम्यंत शब्दों से 'दा' प्रत्यय होता है ।। ५२९ ॥ कस्मिन् काले किं क आदेश होकर 'कदा' सर्वस्मिन् काले सर्वदा, यस्मिन् काले यदा, एकस्मिन् काले एकदा, अन्यस्मिन् काले अन्यदा । काल अर्थ में ऐसा क्यों कहा ? तो सर्वस्मिन् देशे इस अर्थ में दा प्रत्यय नहीं हुआ । सर्व शब्द से परे दा प्रत्यय होता है और सर्व को 'स' निपात हो जाता है। ' बना । सर्वस्मिन् काले 'सदा' बन गया। सप्तम्यंत इदं शब्द से काल अर्थ में र्हि अधुना और दानीम् प्रत्यय होता है ॥ ५३० ॥ र और थ से परे इदम् को एत, इत् आदेश हो जाता है ॥ ५३१ ॥ अस्मिन् काले एतर्हि, इत् + अधुना "इवर्णावर्ण: " ४७९ वें सूत्र से इकार का लोप होकर 'अधुना' १. यह वृत्ति में है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धितं १८७ दादानीमौ तदः स्मृतौ ॥५३२॥ काले वर्तमानात्सप्तम्यन्तासदः परौ दादानीमौ स्मृतौ । तस्मिन् काले तदा । तदानीं । सद्यआद्या निपात्यन्ते ।।५३३ ।। सद्यआधाः शब्दा: कालेऽभिधेये निपात्यन्ते। लक्षणसूत्रमन्तरेण लोकप्रसिद्धशब्दरूपोच्चारणं निपातनं । समाने अहनि सद्यः । समानस्य सभावो द्यश्च परविधिः । अस्मित्रहनि अझ । इदमो अद्भावोद्य च परविधि: । पूर्वस्मिन् संवत्सरे परुत् । पूर्वतरस्मिन् संवत्सरे परारि । पूर्वपूर्वतरयोः पर उदारी च संवत्सरे ॥ ५३४ ।। पूर्वपूर्वतरयो: उत्आरी च भवतः । चशब्दात्पर आदेशच संवत्सरेऽर्थे । इदमः समसण ।। ५३५ ॥ सप्तम्यन्तादिदम: समसण् प्रत्ययो भवति संवत्सरेऽर्थे । अस्मिन्संवत्सरे ऐषमः । पूर्वादरेधुस् ॥ ५३६ ॥ सप्तम्यन्तात्पूर्वादेर्गणात् पर एद्युस् प्रत्ययो भवति । पूर्वस्मिनहनि पूर्वेयुः । एवं परेछुः । अन्येयुः । अन्यतरेयुः । इतरेधुः । कारेछुः । अपरेछु ।। उभयाद् धुश्च ॥ ५३७ ॥ काल अर्थ में सप्तम्यंत तद् से परे 'दा' दानीम् प्रत्यय होते हैं ॥ ५३२ ॥ तस्मिन् काले तद् को 'त्यदादीनामविभक्तों' से त होकर 'तदा, तदानीम्' बना। सद्य, अद्य शब्द निपात से सिद्ध होते हैं ॥५३३ ।। सद्य अद्य शब्द काल अर्थ में निपात से सिद्ध हो जाते हैं व्याकरण सूत्र के बिना लोक प्रसिद्ध शब्द रूप का उच्चारण निपात कहलाता है। जैसे समाने अहनि सद्यः यहाँ समान को 'स' आदेश एवं आगे ध; आदेश होकर 'सद्यः' बना है। अस्मिन् अहनि अद्य इदम् को 'अ' आदेश और 'द्य' विधि होकर 'अद्य' बना है। संवत्सर अर्थ में पूर्व और पूर्वतर को पर आदेश होकर क्रम से आगे उत् और आरि हो जाता है ॥ ५३४ ॥ पर + उत्, पर+आरि “इवर्णावर्णयोलोप:' इत्यादि से अकार का लोप होकर परुत् परारि बना। सप्तम्यंत इदं शब्द से समसण् प्रत्यय होता है ।। ५३५ ॥ अस्मिन् संवत्सरे अर्थ में इदम् + डि समसण के अण् का अनुबंध लोप होकर इदम् को 'इ' आदेश होकर णानुबंध से वृद्धि होकर ऐसमस् बना सकार को षकार एवं स को विसर्ग होकर 'ऐषमः' बना। __सप्तम्यंत पूर्वादि गण से परे ‘एद्युस्' प्रत्यय होता है । ५३६ ॥ ___ पूर्वस्मिन् अनि पूर्व + डि विभक्ति का लोप एवं अकार का लोप होकर पूर्वेद्युः बना। ऐसे ही परस्मिन् अहनि परेछु;, अन्यस्मिन् अहनि अन्येयुः अन्यतरस्मिन् अहनि-अन्यतरेयुः इतरस्मिन् अहनि, इतरेयुः, कतरेयुः, अपरेयु: बना। सप्तम्यंत उभय शब्द से परे धुस् प्रत्यय होता है ।। ५३७ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ कातन्त्ररूपमाला सप्तम्यन्तादुभयशब्दात्परो घुस् भवति । चकारात् एघुस् भवति । उभयस्मिन्नहनि उभयेधुः । उभयधुः। परादेरेविस् ॥५३८॥ परादेर्गणात्पर एद्यविस् प्रत्ययो भवति । परस्मिन्नहनि परेद्यविः । एवमन्येद्यविः । अन्यतमद्यविः । इत्यादि। प्रकारवचने तु था ॥ ५३९॥ अद्यादे: सर्वनाम्न प्रकारवचने तु था भवति । प्रकारशब्द; सदृशार्थों विशेषार्थश्च । सामान्यभेटक: प्रकारः। सर्वेण प्रकारेण सर्वथा। एवमन्यथा। यथा । तथा। उभयथा। पूर्वथा। अपरथा। वाक्यार्थविशेषण सर्वविभक्तिभ्यो ज्ञेयः थाप्रत्ययः । सर्वस्मिन् प्रकाराय यदि वा सर्वस्मिन् प्रकारे सर्वथा इत्यादि। संख्यायाः प्रकारे धा ।। ५४०॥ ___ संख्यायाः परः प्रकारवधने धा भवति । चतुर्भिः प्रकारैः चतुर्धा । एवं द्विधा । एकधा । बहुभिः प्रकारैर्बहुधा । पञ्चधा । षोढा । षट्प्रकारा अस्य इति विग्रहः । षष् उत्वम् ।।५४१ । षष्शब्दस्यान्त उत्वं भवति । सप्तधा । अष्टधा । नवधा । दशधा । सहस्रधा । लक्षधा ! कोटिया । द्वित्रिभ्यां धमणेधा च ॥५४२ ।। द्विविभ्यां परो धमण एधा च प्रत्ययौ भवतः प्रकारवचने । द्वैधं । त्रैधं । द्वेधा । त्रेधा। चकार से एद्युस् प्रत्यय होता है। उभयस्मिन् अहनि उभयेयु: उभयछुः । परादि गण से परे एद्यविस् प्रत्यय होता है ।। ५३८ ॥ परस्मिन् अनि परेद्यविः । ऐसे ही अन्येद्यवि: अन्यतमेद्यवि: इत्यादि। द्वि आदि से रहित सर्वनाम से प्रकार अर्थ में 'था' प्रत्यय होता है ॥ ५३९ ।। प्रकार शब्द सदृश अर्थवाची और विशेष अर्थवाची है । सामान्य में भेद करने वाले को प्रकार कहते है । सत्रण प्रकारेण, सर्व+टा, था विभक्ति का लोप होकर 'सर्वथा' बना। इसी प्रकार से अन्यथा, येन प्रकारेण, यथा, तथा, उभयथा, पूर्वथा, अपरथा आदि बन गये। वाक्य अर्थ की विशेषता से सभी विभक्तियों से 'था' प्रत्यय हो जाता है । जैसे सर्वस्मै प्रकाराय अथवा सर्वस्मिन् प्रकारे सर्वथा बन गया इत्यादि । संख्या से परे प्रकार अर्थ में 'धा' प्रत्यय होता है ॥ ५४० ॥ चभिः प्रकारैः चतुर्धा, द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां = द्विधा, एकेन प्रकारेण = एकथा, बहुभि: प्रकारैः बहुधा, पञ्चधा । इत्यादि । घट् प्रकारा ऐसा विग्रह है षष् + जस् विभक्ति का लोप हुआ। षष् शब्द के अंत को उकार हो जाता है ॥ ५४१ ॥ ष उ था संधि होकर एवं तवर्ग को ५२२वें सूत्र में ट वर्ग होकर धा को ढा हुआ अत: 'घोढा' बना। ऐसे ही सप्तधा, अष्टधा, नवधा, दशधा, शतधा, सहस्रधा, लक्षघा, कोटिधा। द्वि, त्रि से परे प्रकार अर्थ में धमण और एधा प्रत्यय होता है ।। ५४२ ॥ ___धमण के अण् का अनुबंध होकर णानुबंध के निमित्त से वृद्धि होकर द्वैथं, त्रैध बना। एधा प्रत्यय से 'इवर्णावर्णयोलोप:' इत्यादि से इवर्ण का लोप होकर द्वेधा, त्रेधा बना । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धित १८९ इदंकिंभ्यां थमः कार्यः ॥ ५४३ ।। इदंकिंभ्यां पर: श्रमुः कार्य: प्रकारवचने । अनेन प्रकारेण इत्थं । केन प्रकारेण कथम् । मासयाताश्व जमादयः ॥ ५४४ ॥ नाम्न आख्याताच्च परास्तमादयः प्रत्यया भवन्ति। प्रकृष्ट तमतररूपाः ॥५४५ ॥ __ प्रकृष्टार्थे एते प्रत्यया भवन्ति । प्रकृष्ट आढ्यः आढ्यतर: आढ्यतमः आयरूपः। एवं वैयाकरणतम; वैयाकरणतर: वैयाकरणरूप: । पचतितमः पञ्चतितर: पचतिरूपः । ईषदसमाप्तौ कल्पदेश्यदेशीयाः ॥ ५४६ ॥ ईषदपरिसमाप्तौ अर्थे कल्पदेश्यदेशीया एते प्रत्यया भवन्ति । ईषदपरिसमाप्तः पदुः पटुकल्पः । पदुदेश्य: । पदुदेशीयः । पचतिकल्प: । पचतिदेश्यं । पचतिदेशीयं । पचतिकल्पं । [एतो अव्ययों पुल्लिगौ । अयं नपुंसकलिंग: पचतिरूप] । कुत्सितवृत्ते म्नः पाशः ॥५४७ ।। कुत्सितवृत्तेम्नि: पर: पाश: प्रत्ययो भवति । कुत्सितो वैयाकरणो वैयाकरणपाश: । भूतपूर्ववत्तेन म्नश्चरद ॥ ५४८॥ - भूतपूर्ववृत्तेर्नाम्नः परश्चरट् प्रत्ययो भवति । टकारः षणटकारानुबन्धादिति विशेषणाऽर्थ: । भूतपूर्व आढ्य: आढ्यचरः । आढ्यचरी। आढ्यचरं । भूतपूर्वो राजा राजचर: । भूतपूर्वा राज्ञी राजचरी। एवं देवचरः । देवचरी। इदं किं से प्रकार अर्थ में थम् प्रत्यय होता है ।। ५४३ ।। अनेन प्रकारेण इदम् को ५४१ सूत्र से इत् होकर इत्थं बना, किं को 'क' होकर कथं बना । आख्यात नाम से परे तम आदि प्रत्यय होते हैं ॥ ५४४ ॥ प्रकृष्ट अर्थ में तम, तर और रूप ये प्रत्यय होते हैं। ५४५ ॥ प्रकृष्टः आदयः, आयतरः, आद्यतमः, आट्यरूपः। ऐसे ही वैयाकरणतम, वैयाकरणतर, वैयाकरणरूप: बना । सभी जगह प्रकृष्ट अर्थ में ये प्रत्यय हो जाते हैं। पचतितमः पचतितरः । पचति के पहले के दो अव्यय पुल्लिंग हैं। और पचतिरूपं, यह नपुंसकलिंग है। पूर्णता में किंचित् कमी न रहने से कल्प, देश्य और देशीय प्रत्यय होते हैं ॥५४६ ॥ ईषत् अपरिसमाप्त:--किंचित् कम पटु है। ईषत् अपरिसमाप्त: पटुः = पटुकल्प., पटुदेश्य:, पटुदेशीय: 1 ऐसे ही पचतिकल्पः, पचतिदेश्य; पचतिदेशीयः बना । (आचार्य से किंचित् कम = आचार्यकल्प: चन्द्रसागरः इत्यादि)। कुत्सित शब्द से परे पाश प्रत्यय होता है ॥ ५४७ ॥ कुत्सित: वैयाकरणः = वैयाकरणपाश: बना। भूतपूर्व वृत्ति वाले नाम से परे 'चरट्' प्रत्यय होता है ॥ ५४८ । यहाँ प्रत्यय में टकार शब्द “षणटकारानुबंधात्" इसमें विशेषण के लिये है मतलब टकारानुबंध से जो कार्य होता है । सो यहाँ हो जायेगा । भूतपूर्वः आद्य:- जो पहले धनी था अब नहीं है इस अर्थ में आठ्यचरः, स्त्रीलिंग में-आठ्यचरी, नपुंसक में आठ्यचरं । ऐसे ही भूतपूर्वो राजा = राजचर: राजचरी, देवचर: देववरी इत्यादि। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १९० कार्तरूपमाला बह्वल्पार्थात्कारकाच्छस्वा मङ्गले गम्यमाने ।। ५४९ ।। बह्वर्थात् अल्पार्थाच्च परः शस्प्रत्ययो वा भवति मङ्गले गम्यमाने । बहून् देहि । बहुशो देहि । एवं अल्पशो देहि अल्पं देहि । स्तोकशो देहि, स्तोकं देहि । शतशो देहि, शतं देहि । सहस्रशो देहि, सहस्त्रं देहि । लक्षशो याचते, लक्षं याचते । वारस्य संख्यायाः कृत्वसुच् ।। ५५० ॥ वारस्य संबन्धिन्याः संख्यायाः परः कृत्वसुच् प्रत्ययो भवति । उकार उच्चारणार्थः । कृत्वसुच्प्रत्ययान्ता अव्ययानि स्युः । पश्च वारान् भुङ्क्ते पञ्चकृत्वः । एवं गणकृत्वः । कतिकृत्वः । बहुकृत्वः । एवं सप्तकृत्वो गच्छति । दशकृत्वो ददाति शतकृत्वो याचते । सहस्रकृत्वो मन्यते इति । द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच् ॥ ५५१ ।। वारस्य संबन्धिभ्यो द्वित्रिचतुर्भ्यः परः सुच् प्रत्ययो भवति । द्वौ वा भुङ्क्ते द्विर्भुङ्क्ते । त्रिर्भुङ्क्ते । चतुर्भङ्क्ते । संख्याया अवयवान्ते तयद् ॥ ५५२ ॥ संख्याया अवयवान्तार्थे तयद् प्रत्ययो भवति । द्वौ अवयवों यस्य असौ द्वितयः । त्रितयः । चतुष्टयः । पञ्चतयः । सुप्ततयः । परिमाणे तयद् ॥ ५५३ ॥ परिमाणेऽर्थे तयट् प्रत्ययो भवति । चत्वारि परिमाणानि यस्य चतुष्टयं । एवं द्वितयं त्रितयं । द्वित्रिभ्यामयद् ।। ५५४ ॥ बहु अर्थ से और अल्प अर्थ से परे मंगल अर्थ गम्यमान होने पर शस् प्रत्यय विकल्प से हो जाता है || ५४९ ॥ बहून् देहि-बहुत देवो, उसमें बहुशः, अल्पशः । स्तोकं देहि, स्तोकशः शतशः, सहस्रशः, लक्षशः इत्यादि । वार अर्थ में संख्या से परे 'कृत्वसुच्' प्रत्यय होता है ॥ ५५० ॥ I यहाँ प्रत्यय में उकार उच्चारण के लिये है। कृत्वसुच् प्रत्यय वाले शब्द अव्यय हो जाते हैं पञ्चवारान् भुङ्क्ते = पञ्चकृत्वः एवं गणकृत्वः कतिकृत्व, बहुकृत्वः, सप्तकृत्वः दशकृत्वो ददाति दस बार देता है। शतकृत्वो याचते सौ बार माँगता है। सहस्रकृत्वो मन्यते हजार बार मानता I वार अर्थ में द्वित्रि, चतुर से परे सुंच् प्रत्यय होता है ॥ ५५१ ॥ द्वौं वारी भुंक्ते = द्विः भुंक्ते, त्रि, चतुः बन गया। संख्या के अवयव अर्थ के अन्त में 'तंयद्' प्रत्यय होता है ॥ ५५२ ॥ अवयव यस्य असौ द्वि + ओ तय, द्वितय, त्रितय चतुष्टयः, पञ्चतयः सप्ततयः इत्यादि । परिमाण अर्थ में तयट् प्रत्यय होता है ॥ ५५३ ॥ चत्वारि परिमाणानि यस्य चतुष्टयं द्वितयं, त्रितयं । द्वित्रि से परे समूह अर्थ में 'अयट्' प्रत्यय होता है ॥ ५५४ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धितं १९१ द्वित्रिशब्दाभ्यां परोऽयट् प्रत्ययो भवति समूहेऽथे । द्वयोः समूहः द्वयं । त्रयाणां समूहः त्रयं । उत्सेधमानं तिर्यग्मानमिति द्विविधं मानं । मात्र ।। ५५५॥ परिमाणे मात्र प्रत्ययो भवति । ऊरु प्रमाणमस्य ऊरुमात्रमुदकं । ऊरुमात्री परिखा। यत्तदेतद्भ्यो डावन्तु ॥ ५५६॥ यद् तद् एतद् इत्येतेभ्यः परो डावन्तु प्रत्ययोः भवति परिमाणेऽथें । उकार उच्चारणार्थः । यत्परिमाणमस्य यावान् । एवं तावान् । एतावान् । किमो डियन्तुः ।। ५५७ ॥ किम: शब्दात्परो डियन्तु प्रत्ययो भवति परिमाणेऽर्थे । किं परिमाणमस्य किया । इदमः ।। ५५८॥ इदमः परो डियन्तु प्रत्ययो भवति परिमाणेऽर्थे । इदं परिमाणमस्य इयान् । अभूततद्भावे कृभ्वस्तिषु विकारात् चिः ।। ५५९॥ अभूततद्भावे विकारात् च्चिप्रत्ययो भवति कृभ्वस्तिषु परतः । द्वयोः समूहः द्वि+अयट् ‘इवर्णावर्णयोर्लोपः' इत्यादि इवर्ण का लोप करके द्वयं, त्रयाणां समूह: त्रयं बना। मान के दो भेद हैं । उत्सेधमान और तिर्यग्मान-अर्थात् ऊँचाई का प्रमाण और चौड़ाई का प्रमाण । मान को परिमाण भी कहते हैं। परिमाण अर्थ में मात्रट् प्रत्यय होता है ॥ ५५५ ॥ उरू प्रमाण अस्य उरुमा--जलं, उस्मात्री-परिखा। यत् तत् एतद् शब्द से परिमाण अर्थ में 'डावन्तु' प्रत्यय होता है ॥ ५५६ ॥ यहाँ उकार उच्चारण है। यद् डावन्तु “डानुबंधेऽन्त्यस्वरादेलोप:' ५१०वें सूत्र से यद् के अद् का लोप होकर यावन्त बना। ऐसे ही तावन्त् एतावत् हैं लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आने से ‘यावान् तावान् एतावान्' बन गया। किम् शब्द से मान अर्थ में 'डियन्तु' प्रत्यय होता है ।। ५५७ ॥ किं परिमाणं अस्य डानुबंध से इम् का लोप होकर कियान् बना। इदं शब्द से मान अर्थ में डियन्तु प्रत्यय होता है ।। ५५८ ॥ इदं परिमाणं अस्य यहाँ इदं को इन् होकर 'इवर्णावर्णः' इत्यादि से इकार का लोप होकर इयन्त्+सि= इयान् बना। अभूत के तद्भाव अर्थ में कृ, भू, अस् धातु आने पर विकार अर्थ में 'च्चि' प्रत्यय होता है ॥ ५५९ ॥ जो जिस रूप नहीं है पुन: उस रूप होता है उसे अभूत तद्भाव कहते हैं और इसे ही विकार कहते हैं जैसे अशुक्लं शुक्लं करोति—जो श्वेत नहीं है उसे श्वेत करता है। यहाँ शुक्ल + अम् है विभक्ति का लोप होकर Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ कातन्त्ररूपमाला च्चौ चावर्णस्य ईत्वम् ।। ५६०।। अवर्णस्य ईत्वं भवति ज्वौ परे । सर्वापहारी प्रत्ययस्य लोप: । विप्रत्यये परे पूर्वस्वरस्य दीर्घः भवलाकोति। मायापनि । एताम्यात् । परम्यान् । सलीकरन्ति । कबीपदति । कवीस्यात् । मातीकरोति । मात्रीभवति । मावीम्यात् । ऊर्श्वे दनद्वयसटौ च ॥ ५६१॥ ऊर्धवाचिनि प्रमाणेऽर्थे दमद्यसटौं प्रत्यया भवत: । दशब्दान्मात्रट भवति । ऊरु: प्रमाणमस्य ऊरुदघ्नं । ऊरुद्वयसं । ऊरुमात्रमुदकं । हस्तिपुरुषादण च ॥ ५६२॥ हस्तिन् पुरुष इत्येताभ्यां मानेऽर्थेऽण् भवति । चशब्दान्मात्रट् दध्नट् द्वयसः च भवंति। हस्ती प्रमाणमस्य हास्तिनं । हस्तिमात्र । हस्तिदनं । हस्तिद्वयसं। पुरुष: प्रमाणमस्य पौरुषं । पुरुषमात्रं 1 पुरुः५० । पुरुष : उदगियर्थ: : प्रस्तवृत्तेर्मयट् ॥ ५६३॥ प्रस्तुतवृत्तेर्नाम्नः परो मयट् प्रत्ययो भवति । सुवर्ण प्रसुतं सुवर्णमयं । एवमत्रं प्रस्रुतमन्नमयं । भस्ममयं । यदि वा अनं प्रसुतमत्र अन्न्मय: काय: । अन्नं प्रसुतमत्र अत्रमयं जीवनं । भस्म प्रस्रुतमत्र भस्ममयं पाकस्थानं । भस्ममयो मठः । भस्ममयी तपस्विनी । भस्ममयी तनुः । च्चि प्रत्यय के आने पर अवर्ण को 'ई' हो जाता है ॥ ५६० ॥ एचं 'च्चि' प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो जाता है। च्चि प्रत्यय से परे पूर्व के अवर्ण को तो 'ई' होता है तथा पूर्व के अन्य स्वरों को दीर्घ हो जाता है। अत: शुक्लीभवति अदी|दीघों भवति इति दीर्धी भवति, अपुत्रः पुत्र: स्यात् इति पुत्रीस्यात् इनमें अवर्ण को 'ई' हुआ है। अपटुः पटुः स्यात् इति पटूस्यात यहाँ पूर्वस्वर को दीर्घ हुआ है। ऐसे ही अकवि: कवि: स्यात् = कवीस्यात्, अकवि कविं करोति इति कवीकरोति । मात्रीकरोति, मात्रीभवति, मात्रीस्यात् इत्यादि रूप बन गये। ऊर्ध्ववाची मान अर्थ में 'दमट्' और 'द्वयसद्' प्रत्यय होते हैं ॥ ५६१ ॥ चकार से मात्रट प्रत्यय भी होता है । उरु प्रमाणं अस्य उरुदम्नं, उरुद्वयसं, उस्मात्र बन गये । नदी, तालाब आदि के जल के मापने अर्थ में ये प्रत्यय होते हैं। हस्तिन् और पुरुष शब्द से मान अर्थ में 'अण्' होता है ॥ ५६२ ॥ च शब्द से मात्रट, दध्नट् द्वयसट् प्रत्यय भी होते हैं । हस्ती प्रमाणं अस्य हस्तिन् + सि विभक्ति का लोप होकर णानुबन्ध से पूर्व स्वर को वृद्धि होकर हास्तिनं, हस्तिदनं, हस्तिद्वयसं, हस्तिमात्रं बन गये। ऐसे ही पुरुष: प्रमाणं अस्य है-पुरुष + सि विभक्ति का लोप होकर णानुबंध से वृद्धि होकर पौरुष, पुरुषमात्र, पुरुषदघ्नं, पुरुषद्वयसं बन गये । प्रमाणसूचक शब्द जल आदि के लिये हैं। प्रस्तुतवृत्ति वाले शब्द से परे "मयट्' प्रत्यय होता है !! ५६३ ॥ सुवर्ण प्रसुतं सुवर्ण+सि विभक्ति का लोप होकर सुवर्णमयं बना । ऐसे ही अन्न प्रस्तुतं = अन्नमयं, भस्ममयं अथवा अन्नं प्रसुतं अत्र अन्नमय: काय: अन्नं प्रस्नुतं अत्र अन्नमयं जीवनं, भस्मप्रसुतं अत्र भस्ममयं पाकस्थानं भस्ममयो मटः, भस्ममयी तपस्विनी, भस्ममयी तनुः । तीनों लिंगों में बन जाते हैं। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धितं न य्वोः पदाद्योर्वद्धिरागमः ॥ ५६४ ॥ इह प्रतिषेधो विधिश्च गम्यते । आदिशब्दः समीपवचन: । इच उश्च य तयोय्वों: स्वराणामाद्यो: स्वरात्पूर्वयोरिकारोकारयोवृद्धिर्न भवति तयोरादौ वृद्धिरागमो भवति णकारानुबन्धे तद्धिते प्रत्यये परे । स्थानेन्तरतम इति न्यायाद् यकारस्य ऐकार: वकारस्य औकारः। व्याकरणं वेति अधीते वा वैयाकरणः । द्वारे नियोगो यस्येति दौवारिकः । य्वोरिति किं ? महानसे नियोगोऽस्येति माहानसिकः । इत्यादि । सन्धिर्नाम समासश्च तद्धितश्चेति नामत: । चतुष्कमिति सत्प्रोक्तमित्येतच्चवर्मणा ॥१॥ भावसेनत्रिविद्येन वादिपर्वतवनिणा। कृतायो रूपमालायां चतुष्कं पर्यपूर्यत ॥ २॥ स्वर से पूर्व इकार उकार की वृद्धि नहीं होती है किंतु इन दोनों की आदि में वृद्धि का आगम होता है ।। ५६४ ॥ यहाँ प्रतिषेध और विधि दोनों जानी जाती हैं। सूत्र में आदि शब्द समीपवाची हैं। 'वो' की व्युत्पत्ति दिखाते हैं। इश्च उश–इ और उ की संधि करने में "इवर्णो यमसवणे इत्यादि" सूत्र से इ को य् होकर उ मिलकर 'यु' बना उसका रूप चलाने से भानु शब्दवत् द्विवचन में 'यू' बना है इसी को षष्ठी का द्विवचन 'य्वो:' बन गया है। यदि 'ई' और 'उ' स्वरों की आदि में हैं ऐसे स्वर से पूर्व वाले इकार और उकार को वृद्धि नहीं होती है प्रत्युत णकारानुबंध तद्धित प्रत्यय के आने पर वृद्धि इन दोनों की आदि में वृद्धि का आगम हो जाता है । 'स्थानेऽन्तरतमः' इस न्याय से यकार को 'ऐकार' एवं वकार को 'औकार' हो जाता है। जैसे-व्याकरणं वेत्ति अधीते वा-व्याकरण को जानता है अथवा पढ़ता है। इसमें अण प्रत्यय होकर व्याकरण के यकार के पूर्व 'ऐकार' का आगम होकर हलंत व् में मिलने से 'वैयाकरणः' बना । द्वारे नियोगो अस्य-द्वार पर रहने का है नियोग जिसका इस अर्थ में इकण् प्रत्यय होकर द्वार में वकार के पूर्व 'औ' का आगम होकर दकार में मिलने से दौवार +इकण रहा 'इवर्णावर्णयोर्लोपः' इत्यादि से रकार के अकार का लोप लोकर लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति 'दौवारिक:' बन गया। सूत्र में 'वो:' शब्द क्यों दिया ? महान से नियोगो अस्य रसोईघर में नियोग है इसका इस अर्थ में इकण् प्रत्यय से वृद्धि होकर 'माहानसिक; बना है। किंतु पूर्व में इकार उकार न होने से वृद्धि का आमम नहीं हुआ है। यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि आगम शत्रु के समान किसी के स्थान में न होकर मित्रवत् पृथक् ही होता है। इत्यादि। श्लोकार्य-संधि, नाम, समास और तद्धित इस प्रकार से इन चार नामों को 'चतुष्क' कहते हैं। ऐसे इस चतुष्क को श्री शर्ववर्म आचार्य ने कहा है। अर्थात् इसमें संधि प्रकरण, लिंग प्रकरण, समास प्रकरण और तद्धित प्रकरण है अत: इस पूर्वार्ध को 'चतुष्क' कहते हैं इसमें इन चार प्रकरणों को श्री शर्ववर्म आचार्य ने पूर्ण किया है ॥ १ ॥ वादी रूपी पर्वत को चूर्ण करने में वज्र के सदृश श्री भावसेन त्रिविद्य मुनिराज ने 'रूपमाला' नाम की प्रक्रिया में इस चतुष्क प्रकरण को पूर्ण किया है ॥ २ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ कातन्त्ररुपमाला चतुःषष्टिः कला: स्त्रीणां तधातुःसप्ततिर्नृणाम्। आपकः प्रापकस्तासां श्रीमानृषभतीर्थकृत् ॥ ३ ॥ तेन ब्राहम्यै कुमार्यै च कथितं पाठहेतवे । कालापकं तत्कौमारं नाम्ना शब्दानुशासनम् ॥ ४॥ यद्वदन्त्यधियः केचित् शिखिनः स्कन्दवाहिनः । पुच्छानिर्गतसूत्रं स्यात्कालापमानः परम् ।। ५ ।। तन युक्त यत: केकी वक्ति प्लुतस्वरानुगम्। त्रिमात्रं च शिखी ब्रूयादिति प्रामाणिकोक्तित: ॥६॥ न चात्र मातृकाम्नाये स्वरेषु प्लुतसंग्रहः ।। तस्मात् श्रीऋषभादिष्टमित्येव प्रतिपद्यताम् ॥ ७॥ इति श्रीभावसेनरचितायां कातंत्ररूपमालायां स्यादिनिरूपणं प्रथम: संदर्भ:। । स्त्रियों की चौंसठ कलायें होती हैं और पुरुषों की बहत्तर कलायें हैं इन सभी कलाओं को बतलाने वाले प्राप्त कराने वाले श्रीमान् तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान् हैं ॥ ३ ॥ उन ऋषभदेव भगवान् ने ही ब्राह्मी और कुमारी को पढ़ाने के लिए इस व्याकरण को कहा है अतएव यह शब्दानुशासन कालापक और कौमार नाम से भी प्रसिद्ध है ॥ ४ ।। जो कोई अज्ञानी लोग ऐसा कहते हैं कि स्कंदवाही शिखी के पुच्छ से ये सूत्र निकले हुए हैं अत: इसे 'कालापक' कहते हैं ।। ५ ।। आचार्य कहते हैं कि यह बात नहीं है क्योंकि केकी-मयूर प्लुत स्वर का अनुसरण करते हुए बोलता है । वह प्लुत त्रिमात्रिक है और वह मयूर त्रिमात्रिक बोलता है यह बात प्रामाणिक है ॥ ६ ॥ किंतु इस व्याकरण में वर्णसमुदाय में स्वरों में प्लुत का संग्रह नहीं किया है इसलिये यह व्याकरण श्रीऋषभदेव से ही उत्पन्न हुआ है यह बात इष्ट है इस प्रकार से ही स्वीकार करना चाहिये ॥ ७ ॥ भावार्थ-तीसरे श्लोक में कहा है कि स्त्रियों की चौंसठ कलायें और पुरुषों की चौहत्तर कलायें हैं इनको आपक-प्राप्त कराने वाले भगवान् ऋषभदेव है । उन्हीं भगवान् ने अपनी पुत्री ब्राह्मी और सुंदरी इन दोनों को पढ़ाने के लिये यह 'शब्दानुशासन'-व्याकरण कहा है। इसीलिये इसे कला को प्राप्त कराने वाली होने से कालापक' और कुमारी-पुत्रियों को पढ़ाने के लिये होने से 'कौमार' ये दो नाम हैं। यहाँ पर यह कलाप व्याकरण या कालापक व्याकरण के नाम की सार्थकता दिखलाई है। __ इस प्रकार श्री भावसेन विरचित कातंवरूपमाला में 'स्यादि' को निरूपित करने वाला प्रथम संदर्भ पूर्ण हुआ। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयः संदर्भ तिङन्तप्रकरणम् सर्वकर्मविनिर्मुक्तं मुक्तिलक्ष्याक्ष वल्लभम् । चन्द्रप्रभजिनं नत्वा तिङन्तः कथ्यते प्रया॥१॥ अथ त्यादयो विभक्तयः प्रदर्श्यन्ते ॥१॥ ताश्च दशविधा भवन्ति । कास्ता: ? वर्तमाना। सप्तमी । पञ्चमी । हस्तनी । अद्यतनी । परोक्षा । श्वस्तनी । आशी: । भविष्यन्ती । क्रियातिपत्तिरिति । _वर्तमाना ॥२॥ ति सस् अन्ति। सिं थस् थ । मि वस् मस् । ते आते अन्ते । से आथे ध्वे । ए वहे महे—इमानि अष्टादश वचनानि वर्तमानसंज्ञानि भवन्ति । सप्तमी ॥३॥ यात् यातां युस, यास् यातं यात, यां याव याम । ईत ईयातां ईरन् । ईथात् ईयाथा ईध्वं, ईय ईवहि ईमहि--इमानि अष्टादश वचनानि सप्तमीसंज्ञानि भवन्ति ॥ पञ्चमी ॥४॥ तु तां अन्तु, हि तं त, आनि आव आम, तां आतां अन्ता, स्व आथा ध्वं; ऐ आवहै, आमहै—इमानि वचनानि पञ्चमीसंज्ञानि भवन्ति ।। अथ द्वितीय-सन्दर्भ तिङन्त प्रकरण संपूर्ण कर्मों से रहित और मुक्ति लक्ष्मी के वल्लभ श्री चन्द्रप्रभ भगवान् को नमस्कार करके मैं तिङन्त प्रकरण कहता हूँ ॥ १ ॥ अथ ति, तस आदि विभक्तियाँ दिखलाते हैं ॥१॥ विभक्ति के दस भेद हैं वे कौन कौन हैं ? वर्तमाना, सप्तमी, पञ्चमी, ह्यस्तनी, अद्यतनी, परोक्षा, श्वस्तनी, आशी: भविष्यंती एवं क्रियातिपत्ति ये दस भेद हैं। वर्तमान काल में 'वर्तमाना' विभक्ति होती है ॥ २ ॥ वर्तमाना के अठारह भेद हैं ति तस् अन्ति, सि थस् थ, मि, वस् मस् । ये नव विभक्तियाँ परस्मैपद संज्ञक हैं। ते आते अन्ते, से आथे ध्वे । ए वहे महे । ये नव विभक्तियाँ आत्मनेपद संज्ञक हैं। ये अठारह बचन 'वर्तमाना' संज्ञक हैं। इसे अन्य व्याकरणों में 'लट्' संज्ञा है। सप्तमी विभक्ति होती है ॥ ३ ॥ यात् यातां युस्, यास् यातं यात, यां याव याम । ईत ईयाता ईरन, ईथस् ईयाथां ईध्वम्, ईय ईवहि ईमहि । ये अठारह वचन 'सप्तमी' संज्ञक हैं। प्रारंभ के नववचन परस्मैपदसंज्ञक एवं अंत में नव वचन आत्मनेपद संज्ञक हैं । (इसको विधिलिङ् कहते हैं।) पञ्चमी विभक्ति होती है ॥ ४ ॥ तु तां अन्तु, हि तं त, तानि आव आम। तो आतां अन्तां, स्व आथां ध्वं, ऐ आवहै आमहै। ये अठारह वचन पञ्चमी संज्ञक होते हैं । (इसे लोट् कहते हैं।) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ कातन्त्ररूपमाला ह्यस्तनी ।। ५ ।। दि तां अन्, सि तं त, अम् व म त आतां अन्त, थारू आथां ध्वं इट वहि महि— इमानि वचनानि ह्यस्तनीसंज्ञानि भवन्ति ॥ एवमेवानी ॥ ६ ॥ एतान्येवाद्यतनेऽर्थेऽभिधेयेऽद्यतनीसंज्ञानि भवन्ति ॥ परोक्षा ॥ ७ ॥ अट् अनुस् उस्, थल् अथुस् अ अट् व म, ए आते इरे से आधे ध्वे, ए वहे महे― इमानि वचनानि परोक्षसंज्ञानि भवन्ति ॥ श्वस्तनी ॥ ८ ॥ तातारौ तारस, तासि तास्थस् तास्थ, तास्मि तास्वस् तास्मस्, ता तारौ तारस, तासे तासाथे ताध्वे, ताहे तास्वहे तास्महे इमानि वचनानि श्वस्तनीसंज्ञानि भवन्ति ॥ आलीः ॥ ९॥ यात् यास्तां यासुस्, यासू यास्तं यास्त, यासं यास्व यास्म, सीष्ट सीयास्तां सीरन्, सीष्ठास् सीयास्थां सीध्वं सीय सीवहि सीमहि इमानि वचनानि आशी: संज्ञानि भवन्ति ॥ स्यसहितानि त्यादीनि भविष्यन्ती ॥ १० ॥ स्यति स्यतस् स्यन्ति, स्यसि स्यथस् स्यथ, स्यामि स्यावस् स्यामस् स्यते स्येते स्यन्ते, स्यसे स्येथे स्यध्वे स्ये स्यावहे स्यामहे स्वेन सहितानि त्यादीनि वचनानि भविष्यन्तीसंज्ञानि भवन्ति ॥ बीते हुए कल दिन के लिये 'ह्यस्तनी' विभक्ति होती है ॥ ५ ॥ दि तां अनू, सि तं त, अम् व म त आतां अन्त थास् आथां ध्वं इद् वहि महि। ये अठारह वचन ह्यस्तनी संज्ञक हैं। (इसे लड़ भी कहते हैं ।) आज के बीते हुये काल को 'अद्यतनी' कहते हैं ॥ ६ ॥ ये ही उपर्युक्त अठारह विभक्तियाँ अद्यतन के अर्थ में आकर अद्यतनी संज्ञक कहलाती हैं। (इसे 'लुङ्' कहते हैं) अत्यर्थ भूतकाल में 'परोक्षा' विभक्ति होती है ॥ ७ ॥ अद् अतुस् उस् थल अथुस् अ, अट् व म । ए आते इरे, से आये ध्वे, ए वहे महे। ये अठारह वचन परोक्षा संज्ञक होते हैं। (इसे 'लिट्' कहते हैं ।) आने वाले कल के लिये 'श्वस्तनी' विभक्ति होती है ॥ ८ ॥ तातारौ तारस्, तासि तास्थस् तास्थ, तास्मि तास्वस् ताम्मस् । ता तारौ तारस्, तासे तासाथे ताध्वे, ताहे तास्वहे तास्महे । ये अठारह वचन श्वस्तनी संज्ञक होते हैं। (यह 'लुट' है) आशीर्वचन में 'आशी:' विभक्ति होती है ॥ ९ ॥ यात् यास्तां, यासुस्, यास् यास्तं, यास्त, यासम् यास्व यास्म सीष्ट सीयास्तां सीरन्, सीष्ठास् सीयास्था, सीध्वं सोय सीवहि सीमहि। ये अठारह वचन आशी: संज्ञक हैं। (यह आशी: 'लिङ्-' है) भविष्यत् अर्थ में 'स्य' सहित ति आदि विभक्तियाँ भविष्यन्ती कहलाती हैं ॥ १० ॥ १. अत्यर्थभूत काल उसे कहते हैं जो क्रिया अपने जीवन में न बीती केवल सुनी जाती हो जैसे १० शान्तिनाथ हुए थे । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः १९७ द्यादीनि क्रियातिपत्तिः॥ ११ ॥ स्यत् स्यता स्यन्, स्यस् स्यतं स्यत, स्यं स्याव स्याम, स्यत स्येतां स्यन्त, स्यथास् स्येथा स्यध्वं, स्ये स्यावहि स्यामहि-स्येन सहितानि द्यादीनि क्रियातिपत्तिसंज्ञानि भवन्ति । षडाद्याः सार्वधातुकम्॥ १२॥ षण्णां विभक्तीनां आद्याश्चतस्रो विभक्तयः सार्वधातुकसंज्ञा भवन्ति ।। अथ परस्मैपदानि ॥ १३॥ सर्वविभक्तीनां आदौ नववचनानि परस्मैपदसंज्ञानि भवन्ति । उत्तरत्र नवग्रहणात्परग्रहणाच्चेह पूर्वा नवेति अवगन्तव्यं । ति तस् अन्ति । सि थस् थ । मि वस् मस् । एवं सर्वविभक्तिषु । नव पराण्यात्मने ॥ १४॥ सर्वविभक्तीनां पराणि नववचनानि आत्मनेपदसंज्ञानि भवन्ति । ते आते अन्ते । से आथे ध्वे । ए वहे महे । एवं सर्वविभक्तिषु । त्रीणि त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमाः ॥ १५ ॥ परस्मैपदानामात्मनेपदानां च त्रीणि त्रीणि वचनानि प्रथममध्यमोत्तमपुरुषसंज्ञानि भवन्ति । ति तस् स्थति स्यतस् स्यन्ति, स्यसि स्यथस् स्यथ, स्यामि स्यावस् स्यामस् । स्यते स्येते स्यन्ते, स्यसे स्येथे स्यध्वे, स्ये स्यावहे स्यामहे । स्य सहित ति आदि अठारह विभक्तियाँ भविष्यत् संज्ञक होती हैं (यह 'लुट्' हैं) __ 'स्य' सहित "दि' आदि विभक्तियाँ 'क्रियातिपत्ति होती हैं ॥ ११ ॥ दि आदि विभक्तियाँ हस्तनी में हैं उन्हीं में पूर्व में 'ष्य' जोड़ देने से क्रियातिपत्ति में बन जाती हैं। स्यत् स्यतां स्यन, स्यस स्यतं स्यत, स्यं स्याव स्याम । स्यत स्येतां स्यन्त, स्यथा स्येथां स्यध्वं स्ये स्थावहि स्यामहि। ये अठारह विभक्तियों क्रियातिपत्ति संजक हैं (इसे 'लङ' कहते है। पूर्व की चार विभक्तियाँ 'सार्वधातुक' हैं ॥ १२॥ छह विभक्तियों के आदि को चार विभक्तियाँ सार्वधातुक संज्ञक हैं। उनके नाम-वर्तमाना, सप्तमी, पश्चमी ह्यस्तनी ये चार हैं। ___ आदि के नव नव वचन परस्मैपद संज्ञक होते हैं ॥ १३ ॥ सभी विभक्तियों में आदि के नव-नव वचन परस्मैपद संज्ञक होते हैं । अगले सूत्र में 'नव' शब्द और 'पर' शब्द का ग्रहण है अतः यहाँ 'पूर्व की नव' ऐसा समझ लेना चाहिये । जैसे—ति तस् अंति, सि, थस् थ, मि वस् मस् । ऐसे ही सभी विभक्तियों में समझ लेना। आगे की नव 'आत्मनेपद' संज्ञक हैं ॥१४॥ सभी विभक्तियों में अगली-अगली नव विभक्तियाँ 'आत्मनेपद' संज्ञक हैं। जैसे—ते आते अन्ते, से आथे ध्वे, ए वहे महे । ऐसे ही सभी विभक्तियों में समझना चाहिये। तीन-तीन वचन प्रथम, मध्यम, उत्तम होते हैं ॥ १५ ॥ परस्मैपद और आत्मनेपद की विभक्तियों में तीन-तीन वचन प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष, उत्तम पुरुष संझक होते हैं। जैसे—ति तस् अन्ति ये प्रथम पुरुष हैं। सि थस् थ ये मध्यम पुरुष हैं । मि वस् मस् ये उत्तम पुरुष संज्ञक हैं। ते आते अन्ते ये प्रथम पुरुष हैं। ये आथे ध्वे ये मध्यम हैं। ऐ बहे महे ये उत्तम पुरुष हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ कातन्त्ररूपमाला अन्ति इति प्रथमपुरुषः । सि थस् थ इति मध्यमपुरुषः । मि वस् मस् इत्युत्तमपुरुषः । ते आते अन्ते इति प्रथमपुरुषः । से आये ध्वे इति मध्यमपुरुषः । ए वहे महे इत्युत्तमपुरुषः । एवं सर्वविभक्तिषु । एता विभक्तयो धातोर्योज्यन्ते । को धातुः ? क्रियाभावो धातुः । १६ ॥ यः शब्दः क्रियां भावयति संपादयति स धातुसंज्ञो भवति । इति भ्वादीनां धातुसंज्ञायां । भू सत्तायां । भू इति स्थिते । प्रत्ययः परः ॥ १७ ॥ प्रतीयते अनेनार्थः स प्रत्ययः । विकसितार्थः इत्यर्थः । प्रकृतेः परः प्रत्ययो भवति । इति सर्वत्यादिप्रसङ्गः । काले ॥ १८ ॥ वर्त्तमानातीतभविष्यल्लक्षणः कालः । काल इत्यधिकृतं भवति । सम्प्रति वर्तमाना ॥ १९ ॥ प्रारब्धापरिसमाप्तक्रियालक्षणः सम्प्रतीत्युच्यते । सम्प्रतिकाले वर्तमाना विभक्तिर्भवति । तत्रापि युगपदष्टादशंवचनप्राप्त— शेषात्कर्त्तरि परस्मैपदम् ॥ २० ॥ इसी प्रकार से सभी विभक्तियों में समझ लेना चाहिये । ये सभी विभक्तियां धातु में लगाई जाती हैं। धातु किसे कहते हैं ? क्रिया भाव को धातु कहते हैं ॥ १६ ॥ जो शब्द क्रिया को भावित (क्रिया का वाचक या बोध कराने वाला) करता है संपादित करता है वह धातुसंज्ञक है। इस प्रकार से भू आदि शब्दों की धातु संज्ञा हो गई। भू सत्ता अर्थ में है— सत्ता का अर्थ है व्यवहार द्वारा भवन क्रिया- 'भू' धातु स्थित है। धातु से परे प्रत्यय होते हैं ॥ १७ ॥ जिससे अर्थ प्रतीति में आता है उसे प्रत्यय कहते हैं। अर्थात् जो अर्थ को विकसित करे वह प्रत्यय है। प्रकृति से परे प्रत्यय होता है। इस नियम से सभी ति, तस् आदि विभक्तियाँ एक साथ आ गई । काल अर्थ में विभक्तियाँ होती हैं ॥ १८ ॥ काल के तीन भेद हैं- वर्तमान, भूत और भविष्यत् । 'काले' इस सूत्र में यहाँ काल का प्रकरण अधिकार में है। संप्रति अर्थ में 'वर्तमाना' विभक्ति होती है ॥ १९ ॥ जिसका प्रारंभ हो गया है और समाप्ति नहीं हुई है उस क्रिया का जो लक्षण है उस काल को 'संप्रति' कहते हैं। यही वर्तमान काल हैं। संप्रतिकाल के अर्थ में 'वर्तमाना' विभक्ति होती है। इस वर्तमाना में भी एक साथ अठारह विभक्तियाँ आ गईं। तत्र- शेष से कर्ता में परस्मैपद होता है ॥ २० ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः १९९ शेषाद्वक्ष्यमाणकारणरहिताद्धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति । तत्रापि नाम्नि प्रयुज्यमानेऽपि प्रथमः ॥ २१ ॥ नाम्नि प्रयुज्यमानेऽप्यप्रयुज्यमानेऽपि प्रथमपुरुषो भवति । तत्राप्येकत्वविवक्षायां प्रथमैकवचनं ति। ____ अन् विकरण: कर्तरि ।। २२॥ धातोर्विकरणसंज्ञकोऽन् भवति कर्तरि विहिते सार्वधातुके परे।। अनि च विकरणे ॥ २३ ॥ नाम्यन्तस्य लघुनाम्युपधायाश्च गुणो भवत्यन्विकरणे परे। को गुण: ? __ अर् पूर्वे द्वे च सन्ध्यक्षरे गुणः ॥ २४ ।। यूंणां (अवर्णइवर्णउवर्णानां) अर् पूर्वे द्वे च सन्ध्यक्ष गुणो भवति । इत्युवर्णस्य ओकारो गुण: । सन्धिः । स भवति । तथैव द्वित्वविवक्षार्या प्रथमपुरुषद्विवचनं तस् । भू तस् इति स्थिते रसकारयोर्विसृष्टः ।। २५ ॥ शेष—वक्ष्यमाण कारणों से रहित धातु से कर्ता अर्थ में परस्मैपद होता है। उसमें भी एक साथ नव वचनों के आने पर नाम के प्रयोग करने पर भी प्रथम पुरुष होता है ॥ २१ ॥ नाम के प्रयोग करने और नहीं करने पर भी प्रथम पुरुष होता है। उसमें एकवचन की विवक्षा होने पर प्रथम पुरुष का एकवचन 'ति' है। अत: भू+ति है। कर्ता में 'अन' विकरण होता है॥ २२॥ कर्ता में कहे गये सार्वधातुक विभक्ति के आने पर धातु से विकरण संज्ञक 'अन्' होता है। अन् विकरण के आने पर गण होता है ॥ २३ ॥ __जिसके अन्त में नामि (इ उ ऋ) हो तथा उपधा में नामि (इ उ मा हो ऐसी धातु को अन् विकरण के आने पर गुण हो जाता है। गुण किसे कहते हैं ? अर और पूर्व के दो संध्यक्षर गुणसंज्ञक हैं ।। २४ ॥ । ज्वर्ण को 'अर्' इवर्ण को 'ए' उवर्ण को 'ओ' होना गुण कहलाता है। प्रवर्ण, इवर्ण, उवर्ण इनकी संधि करने पर ऋ+ इ 'रमृवर्ण: सूत्र क्र को र होकर रि बना । पुन: रि + उ है, 'इवों यमसवर्णेन च परो लोप्यः सूत्र से र म उ बना 'व्यंजनमस्वरं परवर्ण नयेत' सूत्र से 'यु' बन गया इसका रूप भानु के समान चलाने से 'यूणां' पद वृत्ति में है जिसका अर्थ है, वर्ण, इवर्ण और उवर्ण को क्रम से अर और पूर्व के दो संध्यक्षर-ए, ओ, गुण होता है। इस नियम से यहाँ भू को ओ गुण होकर 'ओ अ ति है' ओ अव् सूत्र से संधि होकर 'भवति' बन गया। इसके साथ प्रथम पुरुष के 'स:' शब्द का प्रयोग करने से वाक्य स्पष्ट हो जाता है। स भवति—बह होता है। उसी प्रकार से द्विवचन की विवक्षा में प्रथम पुरुष का द्विवचन 'तस्' विभक्ति है भू तस् इति स्थित है। 'अन् विकरणः कर्तरि' से अन् विकरण करके 'अनिच विकरणे' सूत्र से गुण होकर 'भवतस्' बना। रकार सकार को विसृष्ट (विसर्ग) हो जाता है ।। २५ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० कातन्त्ररूपमाला पदान्ते रेफसकारयोर्विसृष्टो भवति । तौ भवतः । तथैव बहुत्व विवक्षायां प्रथमपुरुषबहुवचनं अन्ति । भू अन्ति इति स्थिते असन्ध्यक्षरयोरस्य तौ तल्लोपश्च ।। २६ ॥ इह धातुप्रस्तावे अकारसन्ध्यक्षरयो: परतोऽकारस्य अकारसन्ध्यक्षरौ भवतस्तत्परयोलोंपो भवति । ते भवन्ति । युष्यदि मध्यमः ॥ २७॥ युष्मदि प्रयुज्यमानेऽप्रयुज्यमानेऽपि मध्यम: पुरुषो भवति । त्वं भवसि । युवां भवथः यूयं भवध । अस्मद्युत्तमः ॥ २८॥ अस्मदि प्रयुज्यमानेऽप्रयुज्यमानेऽपि उत्तमः पुरुषो भवति । अस्य वमोर्दीर्घः ।। २९ ।। अस्य दीर्घा भवति वमो: परतः । अहं भवामि । आवां भवावः । वयं भवामः । अप्रयुज्यमानेऽपि । भवति, भवतः भवन्ति । भवसि, भवथ;, भवथ । भवामि, भवाव: भवामः । भावकर्मविवक्षायां आत्मनेपदानि भावकर्मणोः ॥ ३०॥ पद के अंत में रकार और सकार का विसर्ग हो जाता है अत: 'भवतः' बना । तौ भवतः-वे दोनों होते हैं । उसी प्रकार से बहुवचन की विवक्षा में प्रथमपुरुष को बहुवचन 'अन्ति' है। भू अन्ति यह स्थित है। पूर्वोक्त अन् विकरण और गुण करके भव् अ अन्ति' है। अकार और संध्यक्षर के परे अकार है उसका लोप हो जाता है ।। २६ ॥ यहाँ धातु के प्रस्ताव में अकार और संध्यक्षर के परे रहने पर अकार को अकार और संध्यक्षर हो जाते हैं और इनके परे अकार का लोप हो जाता है। अतः भवन्ति' बना 1 ते भवन्ति-वे होते हैं। युष्मद् में मध्यम पुरुष होता है ॥ २७ ॥ युष्मद का प्रयोग करने पर अथवा नहीं प्रयोग करने पर भी मध्यम पुरुष होता है। उपर्युक्त विधि के अनुसार सि थस् थ विभक्ति में-त्वं भवसि—-तू होता है । युवां भवथ:-तुम दोनों होते हो । यूयं भवथ-तुम सब होते हो। अस्मद् में उत्तम पुरुष होता है !॥ २८ ॥ अस्मद् का प्रयोग करने पर या नहीं प्रयोग करने पर भी उत्तम पुरुष होता है। भूमि है अन् विकरण गुण करके 'भव् अ मि' रहा। व, म के आने पर अकार को दीर्घ हो जाता है ॥ २९ ॥ अत: 'भवामि' बना। अहं भवामि-मैं होता हूँ। आवां भवाव:- हम दोनों होते हैं। वयं भवामः- हम सब होते हैं। प्रथम, मध्यम, उत्तम पुरुष के प्रयोग नहीं करने पर भी अर्थ स्पष्ट रहता है। यथा— भवति भवतः भवन्ति, भवसि भवथः भवथ, भवामि भवाव: भवामः। क्रिया में भाव और कर्म की विवक्षा के होने पर भाव, कर्म में 'आत्मनेपद' होता Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ तिङन्तः धातोरात्मनेपदानि भवन्ति भावकर्मणोरर्थयोः । अकर्मकाद्धातोर्भावे, सकर्मकात्कर्मणि च । लज्जासत्तास्थितिजागरणं वृद्धिक्षयभयजीवितमरणम्। 'स्वानक्रीडारुचिदीप्त्यर्था धातद एते कर्मविमुक्ताः ॥ १ ॥ क्रियापदं कर्तृपदेन युक्तं व्यपेक्षते यत्र किमित्यपेक्षां । सकर्मक तं सुथियो वदन्ति शेषस्ततो धातुरकर्मकः स्यात् ।। २ ।। को भाव: ? सन्मानं भावलिङ्गं स्यादसंपृक्तं तु कारकैः । धात्वर्थ: केवल शुद्धोः भाव इत्यभिधीयते ।। १॥ प्रथमैकवचनमेव । किं कर्म ? क्रियाविषयं कर्म। तत्र द्विवचनबहुवचनमपि । मध्यमोत्तमपुरुषावपि। सार्वधातुके यण्॥ ३१॥ धातोर्यण् भवति भावकर्मणोर्विहिते सार्वधातुके परे। नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः ।। ३२ ।। भाव और कर्म के अर्थ में थातु से आत्मनेपद हो जाता है । अकर्मक धातु से भाव में एवं सकर्मक धातु से कर्म में प्रयोग होता है। अकर्मक धातु कौन हैं ? श्लोकार्थ-लज्जा, सत्ता, स्थिति, जागरण, वृद्धि नाश, भय, जीवन, मरण, शयन, क्रीड़ा, रुचि, क्रांति इन अर्थ वाले धातु अकर्मक होते हैं । अर्थात् इनके प्रयोग में कर्म कारक नहीं रहता है ।। १ ।। सकर्मक धातु कौन हैं ? जहाँ कर्ता पद से युक्त क्रिया पद, "क्या" इसकी अपेक्षा रखता है, विद्वान् जन उस धातु को सकर्मक कहते हैं। बाकी शेष धातुएँ अकर्मक हैं ॥ २ ॥ माव किसे कहते हैं ? श्लोकार्थ-जो सन्मात्र है स्वरूपत: है भाव लिंग है कारकों के सम्पर्क से रहित है ऐसा केवल, शुद्ध धातु का अर्थ 'भाव' कहलाता है ।। १ ।। इस भाव में प्रथम पुरुष का एकवचन ही होता है। कर्म किसे कहते हैं ? क्रिया के विषय को कर्म कहते हैं। कर्म में द्विवचन बहुवचन भी होते हैं । एवं मध्यम, उत्तम पुरुष भी होते हैं। यहाँ भाव अर्थ में विवक्षित भू धातु से आत्मनेपद के प्रथम पुरुष का एकवचन 'ते' विभक्ति है । 'भू ते' है। सार्वधातुक में 'यण' होता है ॥ ३१ ॥ भाव, कर्म में कहे गये सार्वधातुक के आने पर धातु से 'यण् विकरण होता है। णकार का अनुबंध हो जाता है। नाम्यंत, धातु और विकरण को गुण हो जाता है ॥ ३२॥ १.शयन इति पाठांतरे। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ कातन्त्ररूपमाला नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणो भवति । इति गुणे प्राप्तेन णकारानुबन्धचेक्रीयतयोः ॥ ३३ ॥ नाम्यन्तानां नाम्युपधानां च गुणो न भवति णकारानुबन्धवेक्रीयतयोः परतः । भावे - भूयते । कर्मणि प्रादय उपसर्गाः क्रियायोगे ॥ ३४ ॥ प्रादयः क्रियायोगे उपसर्गा भवन्ति । के ते प्रादयः ? प्रपराऽपसमन्धवनिर्दुरभिव्यधिसूदतिनिप्रतिपर्यपयः । उपआङितिविंशतिरेष सखे उपसर्गगणः कथितः कविभिः ।। १ ।। अकर्मका अपि धातव: सोपसर्गाः सकर्मका भवन्ति । अनुभूयते । आते आथे इति च ॥ ३५ ॥ अकारात्परयोराते आथे इत्येतयोरादिरिर्भवति । अनुभूयेते । अनुभूयन्ते । अनुभूयसे अनुभूयेथे अनुभूयध्वे । अनुभूसे अनुभूय एवं पर्नुधातॄनां । एधवदौ । कर्त्तरि रुचादिङानुबन्धेभ्यः ।। ३६ ।। इस सूत्र में 'भू' को गुण प्राप्त था किन्तु कारानुबंध और चेक्रीयत (यङन्त) प्रकरण के आने पर गुण नहीं होता है ॥ ३३ ॥ णानुबंध और चक्रीय के आने पर नाम्यंत और नामि उपधा वाले धातु को गुण नहीं होता है। अतः भाव में 'भूयते' बन गया । कर्म की विवक्षा में क्रिया के योग में 'प्र' आदि उपसर्ग होते हैं ॥ ३४ ॥ वे प्रादि उपसर्ग कौन हैं ? श्लोकार्थ - प्र, पर, अप, सं, अनु, अव निर् दूर, अभि, वि, अधि, सु, उत्, अति, नि, प्रति, परि, अपि, उप, आङ् हे सखे ! इस प्रकार से कवियों ने ये उपसर्गगण बीस बतलाये हैं ॥ १ ॥ अकर्मक भी धातु उपसर्ग सहित होकर सकर्मक बन जाते हैं। अकर्मक भू धातु में 'अनु' उपसर्ग लगाने से उसका अर्थ अनुभव करना हो गया है अतः 'अनुभूयते' बन गया । कर्म में सभी वचन और प्रथम, मध्यम, उत्तम पुरुष होने से आत्मने पद की सभी विभक्तियाँ आयेंगी। अत:- 'अनुभूय आते' हैं । अकार से परे आते, आथे की आदि को 'इ' हो जाता है ॥ ३५ ॥ अनुभूय + इते = अनुभूयेते, अनुभूय + अन्ते सूत्र २६ से अकार का लोप होकर 'अनुभूयन्ते' बना। अनुभूय + ए है। सूत्र २६ से एक अकार का लोप होकर 'अनुभूये' बना। अनुभूय + वहे, हे, सूत्र २९ सेव, म के आने पर अकार को दीर्घ हो जाता है अतः 'अनुभूयावहे' 'अनुभूयामहे' । बना । अनुभूयेते अनुभूयते अनुभूयसे अनुभूयेथे अनुभूये अनुभूयावहे ऐसे ही सभी धातुओं के रूप चलेंगे। एधङ् धातु वृद्धि अर्थ में है। I अनुभूयन्ते अनुभूयध्वे अनुभूयामहे Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडन्तः २०३ रुचादिभ्यो डानुबन्धेभ्यश्च कर्तर्यात्मनेपदानि भवन्ति । एधते एधेते एधन्ते । एधसे एधेथे एधध्वे । एथे एधायह एवा हे । नाव--- एप्यते सु पाके । अकार: समाहारानुबन्धे । इन्व्यजादेरुभयम्॥ ३७॥ इन्नन्तात् आनुबन्धाद्यजादेश्च कर्तर्युभयपदानि भवन्ति । पचति पचत: पचन्ति । पचसि पचथ: पचथ । पचामि पचाव: पचाम: । पचते पोते पचन्ते । पचसे पचेथे पचध्वे । पचे पचावहे पचामहे । भावेपच्यते । अविवक्षितकर्मकोऽकर्मको भवति । कर्मणि--पच्यते पच्येते पच्यन्ते । पच्यसे । पच्येथे पच्यध्वे । पच्ये पच्यावहे पच्यामहे । स्मनातीते ॥ ३८॥ स्मेन संयोगेऽतीते काले वर्तमाना विभक्तिर्भवति । भवति स्म । एधते स्म । पचति स्म । परत स्म इत्यादि। एथे रुचादि और डानुबंध वाली धातुएँ कर्ता में आत्मने पद होती हैं ॥ ३६ ॥ एध् ते है 'अन् विकरण: कर्तरि' २२वें सूत्र से अन् विकरण होकर 'एधते' बना 1 ऐसे ही 'ए अ आते' हैं 'आते आथे इति च' सूत्र से आ को 'इ' होकर संधि होकर 'एधेते' 'एऽ अ अन्ते' है सूत्र २६ से एक अकार का लोप होकर 'एधन्ते' बना।। एथ् ञ् ए २६ सूत्र से अकार का लोप होकर 'एधे' बना। एध् अवहे और महे है। सूत्र २९ वें से अकार को दीर्घ होकर 'एधावहे' 'एधामहे' बना। प्रयोगएधते एघेते एधन्ते एधसे एघेथे एषध्ये एवावहे एधामहे भाव में—यण विकरण से 'एध्यते' बना है । यह धातु अकर्मक है अत: कर्म में रूप नहीं बने हैं। डुपचषुञ् धातु पकाने अर्थ में है । डुषुञ् अनुबंध है, अकार समाहार अनुबंध में है । इन्नंत, आनुबंध, यजादि धातु कर्ता में उभयपदी होते हैं ॥ ३७ ॥ पच् धातु में अ का अनुबंध होता है अत: इसके रूप परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों में चलेंगे। पूर्वोक्त अन् विकरण और अन्ति और ए आने पर अकार का लोप और व, म के आने पर अकार को दीर्घ करके उभयपद में रूपबला लीजिये। यह पचति पचतः पदन्ति । पचते पचेते पचन्ते पचसि पवथः पचथ पचसे पचेथे पचध्ये पचामि पचावः पवामः । पचे पचावहे पचामहे भाव में-पच्यते । यद्यपि पच् धातु सकर्मक है तो, भी कर्म की विवक्षा न हो तो अकर्मक होकर भाव में प्रत्यय होता है। कर्मणिप्रयोग मेंपच्यते, पच्येते पच्यन्ते । पच्यसे पच्येथे, पच्यध्वे । पच्ये, पच्यावहे, पच्यामहे । स्म के साथ अतीत काल हो जाता है ॥३८ ॥ 'स्म' शब्द के प्रयोग के साथ 'वर्तमाना' विभक्ति अतीत काल के अर्थ में हो जाती है । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ कातन्त्ररूपमाला विध्यादिषु सप्तमी च ॥ ३९।। विध्यादिषु वर्तमानाद्धातो; सप्तमी पञ्चमी च भवति । के विध्यादयः ? विधिनिमन्त्रणामवणाध्येषणसम्प्रश्नको विधि: 1 विधिः कर्त्तव्योपदेशः। अथवा अज्ञातज्ञापको विधि: । देवान् यजेत । यजतु । यजतां । होम जुहुयात् । जुहोतु । यत्र क्रियमाणे प्रत्यवायोऽस्ति तत्रिमन्त्रणं । इह श्राद्धे न भुञ्जीत । न भुक्तां भवान् । यत्र क्रियमाणे प्रत्यवायो नास्ति तदामन्त्रणं । इहासीत । आस्तां भवान् । सत्कारपूर्वको व्यापारोऽध्येषणं । यूयं माणवकमध्यापयेध्वम् । कर्त्तव्यालोचना सम्प्रश्नः । अहो कि व्याकरणमधियीय उत वेदमधियीय । अहो कि नाटकमध्ययै आहोस्विदलझरमध्ययै। याच्या प्रार्थना । भिक्षा में दध्याः । क्षेत्र मे दधीथा: । कन्यां मे देहि । मम सुवर्ण दत्स्व । आदिशब्दाठोषणविज्ञापनाज्ञापनादय: । क्षीणं प्रति कर्मप्रतिपादनं प्रेषणं। गृहीतवेतनस्त्वं । कर्माणि कुर्याः । कुर्वीथाः। कुरु । कुरुष्व । अधिकं प्रति स्वकार्यसूचनं विज्ञापनं । अहो देव इदं कार्यमवधारयः । अवधारय । सर्वेषां स्वस्वकार्यनियमप्रतिपादनमाज्ञापनं । विप्रा एवं प्रवतेरन् प्रवर्तन्ताम् । यतय एवं चरेयुः । याशब्दस्य च सप्तम्याः॥४०॥ विधि आदि में सप्तमी और पञ्चमी होती है ॥३९॥ विभि अति में बर्तमान भानु के कप्तमी' और 'पञ्चमी' विभक्तियाँ होती हैं। विधि आदि कौन-कौन हैं ? विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अध्येषण और संप्रश्नक ये विधि शब्द से कहे जाते हैं। विधि-कर्तव्य का उपदेश देना अथवा अज्ञात को बतलाना । जैसे—देवान् यजेत, यजतु, यजतां देवों की पूजा करना चाहिये । होमं जुहुयात्, जुहोतु-होम करना चाहिये। जिसके करने में प्रत्यवाय (बाधा) है वह निमन्त्रण है। जैसे-इह श्राद्धे न भुंजीत, न भुक्तां भवान-इस श्राद्ध में आपको भोजन नहीं करना चाहिए। भोजन नहीं करिये। जिसके करने में प्रत्यवाय नहीं है वह आमन्त्रण है। जैसे-इह आसीत्, आस्तां भवान्–यहाँ आप बैठिये, ठहरिये। सत्कार पूर्वक व्यापार 'अध्येषण' कहलाता है। जैसे—यूयं माणवकं अध्यापयेध्वं-आप लोग बालक को पढ़ाइये। कर्तव्य की आलोचना—विचार करना संप्रश्न कहलाता है। अहो कि व्याकरणमधियीय उत वेदमधियीय—मैं व्याकरण पढूँ अथवा वेद पर्दै? अहो कि नाटकमध्ययै अहोस्विदलंकारमध्ययै--अहो मैं नाटक का अध्ययन करूं या अलंकार का अध्ययन करूं ? याचा— प्रार्थना-भिक्षा मे दद्या:-मुझे भिक्षा देवो। क्षेत्र मे दधीथा:-मुझे क्षेत्र देवो । कन्यां मे देहि---मुझे कन्या देवो । मम सुवर्ण दत्स्व-मुझे सुवर्ण देवो। आदि शब्द से प्रेषण, विज्ञापन, ज्ञापन, आज्ञापन आदि अर्थ लेना चाहिये । क्षीणं प्रति कर्मप्रतिपादनं प्रेक्षणं-क्षीण के प्रति कर्म का प्रतिपादन करना प्रेषण कहलाता है। जैसे—गृहीतवेतनस्त्वं--तू वेतन ले चुका है। कर्माणि कुर्या:, कुवींथा: कुरु, कुरुष्व—काम करो। अधिकं प्रति स्वकार्य सूचनं विज्ञापनं-अधिक के प्रति अपने कार्य को सचित करना विज्ञापन है । अहो देव ! इदं कार्यमवधारये: अवधारय–अहो देव ! इस कार्य को अवधारण करो। सभी को अपने अपने कार्य के नियम का प्रतिपादन करना 'आज्ञापन' कहलाता है। विप्रजन इस प्रकार प्रवृत्ति करें। यतिगण इस प्रकार की चर्या करें। इस विधि आदि अर्थ में पहले सप्तमी आती है । भू यात् है अन् विकरण हो गया। गुण होकर 'भव अ यात्' रहा। अकार से परे सप्तमी के 'या' शब्द को 'इकार होता है ॥४० ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: अकारात्परस्य सप्तमीयाशब्दस्य इर्भवति । भवेत् भवेतां । यासोरियमौ ॥ ४१ ॥ अकारात्परयोर्याम्युसोरियमियुसौ भवतः । भवेयुः । भवेः भवेतं भवेत । भवेयं भवेव भवेम ।। भावे -- भूयेत । कर्मणि । अनुभूयेत अनुभूयेयातां अनुभूयेरन् । एधेत ऐधेयातां एधेरन् । एधेथाः एधेयाथां एधेध्वं । एधेय एधेवहि एधेमहि । भावे— एध्येत । पचेत् पचेतां पचेयुः । पचेः पचेतं पचेत । पचेयं पचेव पचेम । पचेत पचेयातां पचेरन् । भावे – पच्येत । कर्मणि - पच्येत । पच्येयातां पच्येरन् । I पञ्चम्यनुमतौ ॥ ४२ ॥ अनुज्ञानमनुमतिः । तदुपाधिकेर्थे पञ्चमी भवति । समर्थनाशिषोश्च ॥ ४३ ॥ क्रियासु प्रोत्साहः समर्थना । इष्टस्यार्थस्य आशंसनं आशीः । समर्थनाशिषोरर्थयोश्च पञ्चमी भवति । भवतु । आशिषि । आशिषि । तुह्योस्तातण् वा वक्तव्यः । भवतात् भवतां भवन्तु । हेरकारादहन्तेः ॥ ४४ ॥ २०५ भव + इत् संधि होकर = भवेत् बना। सर्वत्र 'या' को 'इ' करके संधि करत जाइये। भवेतां भव युस् । अकार से परे 'यामि, युस्' को 'इयम्, इयुस्' हो जाता है ॥ ४१ ॥ भव + इयुस् = भवेयुः । भव + इयम् = भवेयम् बना । भाव में. - भूयेत। कर्म में अनुभूयेत, अनुभूयेयातां । ए का कर्तरि प्रयोग में— एधेत, भाव में- एध्येत । पच का कर्ता में पचेत् । आत्मनेपद में पचेत । भाव में - पच्येत । कर्म में पच्येत, पच्येयातां । प्रयोग में — भवेत् भवेतां भवेयुः । भवे भवेतं भवेत । भवेयम् भवेव भवेम । एधेत एधेयातां एधेरन् । एधेथाः एधेयाथां एधेध्वं । एधेय एधेवहि एधेमहि । भाव में— एध्येत । परस्मै - पचेत् पचेतां पचेयुः । पचे पचेतं पचेत । पचेयम् पचेव पचेम । आ० -- पचेत पचेयातां पचेरन् । पचेथाः पचेयाथां पचेवं । पच्येय पचेवहि पचेमहि । भावे - पच्येत । I कर्म में - पच्येत पच्येयातां पच्येरन् । पच्येथाः, पच्येयाथां, पच्येध्वं । पच्येय पच्येवहि पच्येमहि । अनुमति अर्थ में 'पञ्चमी' होती है ॥ ४२ ॥ अनुज्ञान को अनुमति कहते हैं। उस उपाधिक अर्थ में 'पञ्चमी' विभक्ति होती है । समर्थन और आशिष में भी पञ्चमी होती है ॥ ४३ ॥ क्रियाओं में प्रोत्साह करना समर्थन है। इष्ट अर्थ को कहना आशीष है। समर्थन और आशिष के अर्थ में पञ्चमी होती है। भू धातु से 'तु' विभक्ति हैं अन् विकरण और गुप्ण होकर 'भवतु' बना। " आशिषि तुह्योस्तातण् वा वक्तव्यः” इस वृत्ति से आशिष अर्थ में 'तु' और 'हि' विभक्ति को विकल्प से 'तातण्' हो जाता है । अण् का अनुबंध होकर 'भवतात्' बना। भवतां भवन्तु 'भव हि' है। हन् धातु को छोड़कर अकार से परे 'हि' का लोप हो जाता ॥ ४४ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला अकारात्परस्य हेर्लोपो भवति अहन्तेः 1 भव, भवतात् भवताद् भवतं भवत । भवानि भवाव भवाम| भावे - भूयतां । कर्मणि - अनुभूयतां । २०६ आदातामाधामादेरिः ।। ४५ ।। अकारात्परयोः आतां आधां । इत्येतयोरादिरिर्भवति । अनुभूयेतां । अनुभूयन्तां । अनुभूयस्व अनुभूयेथां अनुभूयध्वं । अनुभूयै अनुभूयावहै अनुभूयामहै। एचतां एधेतां एधन्तां । एधस्त्र एधेथां एधध्वं । एवावहै एक है। घाट एप्प कर्मभिरध्यतां एध्येतां एध्यन्तां । पचतु पचतात् पचताद् पचतां पचन्तु | पचतां पचेतां पचन्तां । भावे - पच्यतां । कर्मणि- पच्यतां पच्येतां पच्यन्तां । भूतकरणवत्यश्च ॥ ४६ ॥ भूतमतीत करणं क्रिया यस्य तद्भूतकरणं साधनं तद्विद्यते यासां ता भूतकरणवत्यः । भूतकरणवत्यो ह्यस्तन्यद्यतनीक्रियातिपत्तयोऽतीते काले भवन्ति । ह्यो भवः कालो ह्यस्तनः तत्र ह्यस्तनी भवति । अड् धात्वादिहर्यस्तन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु ॥ ४७ ॥ भव, भवतात् । भवतु भवतात् भवतां भवन्तु । भव भवतात् । भवतं भवत । भवानि भवाव भवाम| भाव में भूयतां । कर्म में अनुभूयतां । अनुभूय आता है। अकार से परे आतां, आथां की आदि को इकार हो जाता है ॥ ४५ ॥ अनुभूयेत, अनुभूयन्तां । अनुभूयतां अनुभूयेतां अनुभूयन्तां । अनुभूयस्व अनुभूयेथां अनुभूयध्वं । अनुभूयै अनुभूयावहै अनुभूयामहै। पंचमी - एवतां एचस्व एधै भाव में – एध्यतां । आत्मने— पचतां पचस्व पचै भाव में पच्यतां । एधेतां एधेथां एधावहैं पचेतां पचेथां पचावहै एधन्तां एधध्व एधामहै कर्म में पचतु पचतात् पच, पचतात् पचानि पच्यतां पच्यस्व पचन्तां पचध्वं पचाम हैं पच्यै पचतां पचतं पचाव पच्येतां पच्येथां पच्यावहै पचंतु पचत पचाम | पच्यन्तां पच्यध्वं पच्यामहै । भूतकरण वती ह्यस्तनी आदि विभक्तियाँ हैं ॥४६ ॥ अतीत काल की क्रिया है जिसमें उसे भूतकरण कहते हैं वह भूतकरण साधन जिनके पाया जाता है वे क्रियायें भूतकरणवती अर्थात् अतीत काल वाली कहलाती हैं। ह्यस्तनी, अद्यतनी और क्रियातिपत्ति ये विभक्तियाँ अतीत काल में होती है। ह्यः -- बीता हुआ कल का काल 'ह्यस्तन: ' कहलाता है उस अर्थ में 'ह्यस्तनी' विभक्ति होती हैं। 'भू' धातु से दि विभक्ति आई इकार का अनुबंध होकर अन् त्रिकरण और गुण हुआ। 'भव् अ दु रहा । ह्यस्तनी, अद्यतनी, क्रियातिपत्ति के आने पर धातु की आदि में 'अट्', का आगम होता है ॥ ४७ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २०७ धातोरादावडागमो भवति ह्यस्तन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु परतः । पदान्ते धुटां प्रथमः ॥ २५ ।।* पदान्ते वर्तमानानां धुटा अन्तरतमः प्रथमो भवति । अभवत् अभवतां अभवन् । अभवः अभवतं अभवत । अभवं अभवाव अभवाम । भावे-अभूयत । कर्मणि-अन्वभूयत अन्वभूयेतां अन्वभूयन्त । अड् धात्वादिसूत्रबाधनार्थमुत्तरयोगः।। स्वरादीनां वृद्धिरादेः ।।४८ ॥ स्वरादीनां धातूनां आदिस्वरस्य वृद्धिर्भवति हस्तन्याटिप परतः । ऐधत एंधेता ऐधन्त । ऐधथा ऐधेथां ऐधध्वं । ऐधे ऐधावहि ऐधामहि । भावे-ऐश्वत । कर्मणि—ऐध्यत ऐध्येतां । ऐध्यन्त । अपचत् अपचतां अपचन् । अपचत अपचेतां अपचन्त । भावे-अपच्यत। कर्मणि-अपच्यत अपच्येता । अपच्यन्त। पद के अंत में धुट को प्रथम अक्षर होता है ।।२५ ॥ 'अभवत्' बन गया। सि विभक्ति के इकार का अनुबंध होकर अभव: बना । च, म के आने पर पूर्व स्वर को दीर्घ होकर नवाब मा ६ जाने पर भी २६वें से अकार का लोप हुआ है। अभवत् अभवतां अभवन् । अभवः अभवतं अभवत । अभवम् अभवाव अभवाम। भाव अर्थ में-अभूयत । कर्म में अन्वभूयत अन्वभूयेता अन्वभूयन्त अन्वभूयथा: अन्वभूयेथा अन्वभूयध्वं अन्वभूये अन्वभूयावहिं अन्वभूयामहि यहाँ अट का आगम करने के बाद में यदि उपसर्ग का प्रयोग हो तो धातु के बाद में अट का आगम होता है। इसको बाधित करने के लिये आगे का सूत्र कहते हैं ए ध् + अ त है। कहने का मतलब यह है कि यदि व्यञ्जन से धातु का आरम्भ तो अट होता स्वर से वृद्धि हो उपसर्ग पूर्वक धातु का प्रयोग हो तो उपसर्ग के बाद धातु से पहले अट हो।। ह्यस्तनी आदि के आने पर स्वर है आदि में जिसके ऐसे धातु के आदि स्वर को वृद्धि हो जाती है ॥४८ ॥ भाव अर्थ में ऐध्यत। अत:-ऐधत ऐधेतां ऐधन्तां ऐधथा; ऐधेयां ऐधध्वं . ऐधे ऐधार्वाह ऐधामहि । अपचत् अपचतां अपचन् । अपच: अपचतं अपचत । अपचम् अपचाव अपचाम । आ०-अपचत अपचेतां अपचन्त । अपचथा: अपचेथा अपचध्वं । अपचे अपचार्वाह अपचामहि । भाव में-अपच्यत । कर्म में--अपच्यत अपच्येतां अपच्यन्त अपच्यथा; अपत्येथां अपच्यध्वं अपच्ये अपच्यावहि अपच्यामहि Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कातन्त्ररूपमाला मास्मयोग स्तनी च॥ ४९॥ पास्मयोगे ह्यस्तन्यद्यतनी च भवति । न मामास्मयोगे॥ ५० ॥ मायोगे मास्मयोगे च धातोरादावडाममो न भवति । मास्म भवत् मास्म भक्तां मास्मभवन् । मास्म एधत मास्म एधेता मास्म एधन्त। मास्म पचत् मास्म पचतां मास्म पचन् ॥ मास्म पचत मास्म पचेतां मास्म पचन्त । भावे—मास्म भूयत । कर्मणि-मास्मानुभूयत मास्मानुभूयतां मास्मानुभूयन्त । श्रु श्रवणे । श्रुवः श च ।। ५१॥ श्रुवो धातो प्रत्ययो भवति सार्वधातुके परे श आदेशश्च । शृणोति शृणुतः शृण्वन्ति । अन्त्रिकरण: कर्तरीति निर्देशात् द्वित्वबहुत्वयोश्च परस्मै सप्तम्यां च हि वचने च गुणो न भवति । उत्तरत्र प्रदश्यते । शृणुयात् शृणुयातां शृणुयुः । शृणोतु । न णकारानुबन्धचेक्रीयितयेति श्रुवस्तात प्रत्यये गुणनिषेधः । शृणुतात् शृणुतां शृण्वन्तु । नोश्च विकरणादसंयोगात् ।। ५२॥ मास्म के योग में हस्तनी, अद्यतनी विभक्तियाँ होती हैं ॥४९ ।। मा और मास्म के योग में धातु की आदि में अट का आगम नहीं होता है ॥५० ॥ मास्म भवत्, मास्म भवतां, मास्म भवन् । मास्म एधत । मास्म पचत । भाव में मास्म भूयत । कर्म में—मास्म अनुभूयत । इत्यादि । श्रु धातु सुनने अर्थ में है। श्रु धातु से 'नु' विकरण होता है सार्वधातुक के आने पर, एवं श्रु को 'शृ' आदेश होता है ॥५१॥ शृणोति शृणुतः शृण्वन्ति शृणोषि शृणुथ: शृणुथ शृणोमि शृणुवः शृणुमः । "अन् विकरण: करि" इस निर्देश से द्विवचन और बहुवचन में परस्मैपद की सप्तमी में 'हि' विभक्ति गुण नहीं होती है यह बात आगे बतलायेंगे। यह श्रु धातु "स्वादि गण" की है अत: इसमें अन् विकरण न होकर 'नु' विकरण होता है। सप्तमी में— शृणुयात् शृणुयातां शृणुयुः शृणुया: शृणुयातं शृणुयात शृणुयाम् शृणुयाव शृणुयाम पञ्चमी में--"नणकारानुबंध चेक्रीयतयोः" इस सूत्र से श्रु धातु से तातण् प्रत्यय होने पर गुण का निषेध हो गया है। अत: शृणुतात् बना। शृणु हि है। असंयोग से पूर्व नु विकरण से परे 'हि' का लोप हो जाता है ॥५२ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २०९ असंयोगात् पूर्वात्रुविकरणात् परस्य हेलोपो भवति । शृणु शृणुतात् शृणुतं शृणुत । शृणवानि शृणवाव शृणवाम । अश्रृणोत् अशृणुतां अशृण्वन् । कर्मणि नाम्यन्तानां यणायियित्राशीश्चिम्चेक्रीयितेषु ये दीर्घः ॥ ५३॥ नाम्यन्तानां धातूनां दोघी भवति यणादिषु य च्वौ च परे । श्रूयेत श्रूयते । श्रूयतां । अश्रूयत। इत्यादि । षिधु गत्यां । षिधू शास्त्रे माङ्गल्ये च। धात्वादेः षः सः ॥ ५४॥ धात्वादे: षस्य सो भवति। सेधति । स्थासेनयसेधतिसिचसज्विाजा अडभ्यासान्तरश्चेति सस्य पत्वं । प्रतिषेधति । तत्र सेधतेर्गताविति वचनाद्गतौ न षत्वं । परिसेधति । सेधतः । सेन्ति । सेधेत् । सेधतु । असेघत् । णोड् प्रापणे। णो नः ॥ ५५ ॥ घात्वादेर्णस्य नो भवति । नयति नयत: नयन्ति नयते नयेते नयन्ते । नयेत् । नयेत । नयतु । नयतां । अन्यत् । अनयत । भावे-नीयते । कर्मण्येवं । संस् भंस् अवलंसने । ध्वंस् गतौ च । मनोरगुस्वारो धुटि इति नकारस्यानुस्वारः । संसते नसेते स्रसन्ते । अंसते । ध्वंसते । पंचमी में-शृणोतु, शृणुतात् शृणुतां शृण्वन्तु । शृणु शृणुतात् शुणतं शृणुत शृणवानि शृणवाव शृणवाम। यण आदि, य, च्चि प्रत्यय के आने पर नाम्यंत धातु को दीर्घ हो जाता है ।।५३ ॥ वर्तमाना-श्रूयते श्रूयेते श्रूयते सप्तमी— श्रूयेत श्रूयेयातां श्रूयेरन् ___श्रूयसे श्रूयेथे श्रूयध्वे श्रूयेथाः श्रूयेयार्था श्रूयेध्वं श्रूये श्रूयावहे श्रूयामहे श्रूयेय श्रूयेवहि श्रूयेमहि पंचमी- श्रूयतां श्रूयेतां श्रूयन्तां ह्य- अश्रूयत अश्रूयेतां अश्रूयन्त श्रूयस्व श्रूयेथां श्रूयध्वं अश्रूयथाः अश्रूयेथां अश्रूयध्वम् श्रूय श्रूयावहै श्रूयामहै अश्रूये अश्रूयावहि अश्रूयामहि षिधु धातु गति अर्थ में है। 'षिधू' शास्त्र और मंगल अर्थ में है। धातु के आदि का षकार सकार हो जाता है ॥५४॥ सिथ् है अन् विकरण और गुण होकर 'सेधति' बना। स्था, आस् से धति, सिच् सजि ध्वजि इनमें अट् अभ्यासांतर (व्यवधान रहने पर भी) सकार को षकार हो जाता है। जैसे प्रतिषेधति ।। धातु पाठ में गत्यां पढ़ा है इसलिये जहाँ गति से भिन्न अर्थ है वहाँ ष नहीं होता जैसे परिसेधति, बना। सेधति, सेधत: सेवन्ति । सेधसि सेघथ: सेधथ । सेधामि सेधाव: सेधामः। सेधेत् । सेधतु । असेषत् । णीङ् धातु ले जाने अर्थ में है। धातु की आदि का णकार नकार हो जाता है ॥५५॥ यह धातु उभयपदी है अत: परस्मैपद आत्मने पद दोनों में रूप चलेंगे। वर्त---नयति नयतः नयन्ति नयते नयेते नयंते नयसि नयथ नयसे नयेथे नयध्वे पद दोनों में रूप चले गयेते नये नयथ: Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० कातन्त्ररूपमाला अनिदनुबन्धानामगुणेऽनुषङ्गलोपः ॥ ५६ ॥ इदनुबन्धवर्जितानां धातूनां अनुषङ्गलोपो भवति अगुणे प्रत्यये परे कर्मणि। स्रस्यते स्त्रस्येते स्रस्यन्ते । एवं भ्रस्यते । यस्तै : अतएव वर्जनाविदगुदानां भानां तुरामापोति गुणागुणे प्रत्यये परे । प्रथि वकि कौटिल्ये। शकि शङ्कायां । ग्रन्थते। वङ्कते । शङ्कते । अथ्यते ग्रन्थ्येते । शङ्कवते । शङ्कयोते शक्यन्ते। वक्यते। वयेते। वड्यन्ते। दुनदि समृद्धौ । नन्दति नन्दतः नन्दन्ति । नन्द्यते । बदि अभिवादनस्तुत्योः । वन्दते बन्देते वन्दन्ते । कणि—वन्द्यते । दश दशने । घज स्वङ्गे। ध्वज परिष्वङ्गे। रञ्ज रागे। दंशिघञ्जिष्वञ्जिरञ्जीनामनि ॥ ५७॥ एतेषामनि विकरणे परेऽनुषगलोपो भवति । दशति । दशेत् । दशतु । अदशत् । भावे-दश्यते । सजति । सजेत् । सजतु । असजत् । सज्यते । परि उजते । रजति । रजेदित्यादि । नयेत नयन्तु नयेथा नये नयामि मयाव: नाम: नये नयावहे नयामहे सप्त-नयेत नयेत नयेयुः नयेत नयेयातां नयेरन् नये: नयेतं नयेथाः नयेयाथां नयेध्वं नयेयम् नयेव नयेम नयेय नयेवहि नयेमहि पंच- नयतु, नयतात् नयतां नयता नयेतां नयन्ता नय, नयतात् नयत नयत नयस्व नयध्वं नयानि नयाव नयाम नयावहै नयामहे हा- अनयत् अनयतां अनयन् अनयत अनयेतां अनयन्त अनय: अनयतं अनयत अनयथाः अनयेथा अनयध्वं अनयम अनयाव अनयाम अनये अनयावहि अनयामहि भाव में नीयते । कर्म में—नीयते । नीयेत । नीयतां । अनीयत । स्रन्स् भ्रन्स धातु नष्ट होने के अर्थ में है। ध्वन्स धातु गति अर्थ में है। "मनोरनुस्वारो धुटि" इस सूत्र से नकार को अनुस्वार हो गया। नसते, असते, ध्वंसते । ऐसे चारों विभक्तियों में चलेंगे। इत् अनुबंध से रहित धातु के अनुषंग का लोप हो जाता है ॥५६॥ कर्मणि प्रयोग में गुण रहित प्रत्यय के आने पर अनुषंग का लोप होता है अत: स्रस्यते स्रस्येते स्रस्यते । भ्रस्यते । ध्वस्यते । इसी नियम से वर्जित होने से गुणी अगुणी प्रत्यय के आने पर इत् अनुबन्ध वाले धातु को 'नु' का आगम होता है । 'ग्रथि, वकि' धातु कुटिलता अर्थ में है 'शकि' शंका अर्थ में है। इन तीनों धातुओं में इकार का अनुबंध है अत: नु का आगम होकर ग्रन्थते वङ्कत्ते, शङ्कते। कर्मणि प्रयोग में—ग्रन्थ्यते, वक्यते । शक्यते । इनके पूरे रूप चारों में चलेंगे। 'टुनदि' धातु समृद्धि अर्थ में है ? और इकार का अनुबंध हुआ है। नु का आगम होकर नन्दति, नन्दत: नंदन्ति बना। कर्म में—नंद्यते । 'वदि' धातु अभिवादन और स्तुति अर्थ में है। वन्दते वन्देते वन्दन्ते । आदि । कर्म में वंद्यते । दंश धातु काटने अर्थ में है। षज्ज स्वंग अर्थ में है पञ्ज, आलिंगन अर्थ में है । रज्ज धातु राग अर्थ में है। __ अन् विकरण के आने पर दंश् षञ् ध्वंज र धातु के अनुषंग का लोप हो जाता है ॥५७ ॥ अत: दशति, दशेत्, दशतु, अदशत् बनेंगे। भाव में दश्यते। घंज-सजति, सजेत् सजतु असजत् । सज्यते, परिष्धजते । रजति इत्यादि। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEL Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २११ रओरिनि मृगरमणार्थे वा ।। ५८॥ मृगरमणार्थे रझेरनुषङ्गलोपो वा भवति इनि परे । रजति कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते । धातोश हेतौ इति इन् भवति । रजयति । पक्षे रञ्जयति । प्लिवु शिवु निरसने । क्लमु ग्लानौ । चमु छमु जमु जिमु अदने। ष्टिवक्तमान्दामापन्दि।। ५. ! - ष्टिवु क्लम आचम् इत्येतेषामुपधाया दोघों भवति । परस्मैपदेऽनि परे। क्रियायोग प्रादय उपसर्गसंज्ञा भवन्ति । निष्ठीवति निाटीवत: निष्टीवन्ति । क्लामति । भावे—क्लम्यते । आचामति । आचम्यते । आङ्गिति किं ? चमति । विन्नमति । क्रम पादविशेपे । क्रमः परस्मै ।। ६० ॥ क्रमा दीपो भवति परस्मैपदे अनि परे । कामति । परस्मै इसि कि ? प्रोपाभ्यामारम्भे॥६१।। लक्षणसूत्रे लक्षणं व्यभिचरन्त्याचार्याः। प्रोपाभ्यां परः क्रम आरम्भेऽथे आत्मनेपदी भवति । प्रक्रमते । उपक्रमते । प्रक्रम्यते उपक्रम्यते । सुद्रुकच्छगम्तृसृप गतौ । इषु इच्छायां । यमु उपरमे । मृग को रमण कराने अर्थ में प्रेरणार्थक इन् के आने पर रङ्ग का विकल्प से अनुषंग लोप होता है ॥५८ ॥ ___मृगं रजति कश्चित् तम् अन्यः प्रयुक्ते कोई मृग के साथ रमण करता है और उसको कोई प्रेरणा से वमण क्रीडा कराता है । "धातोश्च हेतौ इन्” इस सूत्र से इन् प्रत्यय होता है रजि बना पुन: अन् विकरण और गुण होकर 'रजयति' बना। पक्षे—अनुषंग लोप न होने पर रञ्जयति बना। ___ "ष्ठिवु क्षिवु' धातु थूकने अर्थ में हैं। क्रमु धातु ग्लानि अर्थ में है। चमु छमु जमु जिमु धातु भोजन करने अर्थ में हैं। परस्मैपद अन् के आने पर ष्ठिबु क्लम् आचम् धातु की उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥५९ ॥ क्रिया के योग में प्रादि उपसर्ग संज्ञक हो जाते हैं । ष्टी वति नि पूर्वव, निष्ठीवति' बना । क्लम् से क्लामति आङ् उपसर्ग पूर्वक चम् आचामति बना । कर्मप्रयोग मे—क्लम्यते, आचम्यते । आङ उपसर्ग पूर्वक चम् हो ऐसा क्यों कहा ? चमति विचमति में दीर्घ नहीं हुआ। क्रमु धातु पाद विक्षेपण करने अर्थ में है। क्रम् अ ति । परस्मैपद अन् के आने पर क्रम को दीर्घ हो जाता है ॥६० ॥ क्रामति । परस्मैपद में ऐसा क्या कहा ? प्र, उप से परे क्रम् धातु आरंभ अर्थ में आत्मनेपदी हो जाता है ॥६१ ॥ आचार्य, लक्षण सूत्र में लक्षण को व्यभिचरित कर देते हैं। अत: प्र. उप से परे क्रम धातु आरंभ अर्थ में आत्मनेपदी हो जाता है। प्रक्रमते, उपक्रमते । कर्म में प्रक्रम्यते उपक्रम्यते । षु जु द्रुघु ऋच्छ, गम्ल, सृ पृ धातु गति अर्थ में हैं। इधु धातु इच्छा अर्थ में है। यमु धातु उपरम अर्थ में है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ कातन्त्ररूपमाला गमिष्यमां छः ।। ६२॥ गम इषु यम् एषामन्त्यस्य छो भवत्यनि परे । गच्छति । इच्छति। यच्छति । गम्यते । इष्यते । यम्यते । पा पाने। प: पिबः ।। ६३ ॥ पाधातो: पिबादेशो भवत्यनि परे । पिबति । दामागायतिपिबतिस्थास्यतिजहातीनामीकारो व्यञ्जनादौ चेत्याकारस्य ईकारः। पीयते । घा गन्धोपादाने। घो जिघ्रः ।। ६४।। घ्राधातोर्जिघ्रादेशो भवत्यनि परे । जिघति । घायते । ध्या शब्दाग्निसंयोगयोः । ध्मो धमः ॥६५॥ माधातोर्धमादेशो भवत्यनि परे । धमति । ध्यामते । स्था गतिनिवृत्तौ । स्थस्तिष्ठः ॥६६॥ स्थाधातोस्तिष्ठादेशो भवत्यनि परे । तिष्ठति । स्थीयते । ना अभ्यासे । म्नो मनः ॥६७॥ म्नाधातोर्मनादेशो भवत्यनि परे । मनति । म्नायते । दाण दाने। दाणो यच्छः ॥१८॥ दाण्धातोर्यच्छादेशो भवत्यनि परे । प्रयच्छति । प्रदीयते । दृशिर् प्रेक्षणे । अन् के आने पर गम् इषु यम के अन्त को 'छ' आदेश हो जाता है ॥६२ ॥ ग छ अति । छ को द्वित्व और प्रथम अक्षर होकर 'गच्छति' बना । इच्छति । यच्छति । कर्म में—गम्यते । इष्यते । यम्यते बना । चारों में रूप बनेंगे । पा धातु पीने अर्थ में है। अन् विकरण के आने पर पा धातु को पिब् आदेश हो जाता है ॥६३ ।। अका अनुबंध होकर पिबति पिबत: पिबन्ति । कर्मणि प्रयोग में—पा यण ते । दा, मा, गायति पिबति, स्थास्यति, जहाति इन धातु से व्यञ्जनादि विभक्ति प्रत्यय के आने पर आकार को ईकार हो जाता है। पीयते, मीयते, गीयते आदि बन जाते हैं। घा धातु सूंघने अर्थ में है । घा अन् ति । __ अन् के आने पर ध्रा को जिघ्र आदेश हो जाता है ॥६४ ॥ जिंध्रति । घायते । ध्या धातु शब्द और अग्नि के संयोग में है। अन् के आने पर ध्मा को धम् आदेश हो जाता है ॥६५॥ . धमति । कर्म में-ध्यायते । स्था धातु ठहरने अर्थ में है। स्था को तिष्ठ आदेश हो जाता है ॥६६ ॥ अन् के आने पर । तिष्ठति । स्थीयते । ना धातु अभ्यास अर्थ में है। म्ना अति । __मा को मन् आदेश हो जाता है ॥६७ ॥ मनति । कर्म में—म्नायते । दाण् धातु देने अर्थ में है। दाण को यच्छ आदेश होता है ॥६८ ॥ अन् के आने पर । यच्छति । प्रपूर्वक कर्म में प्रदीयते । दृशिर् धातु देखने अर्थ में है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: दृशेः वश्यः ।।६९ ।। दृशेर्धातोः पश्यादेशो भवत्यनि परे । पश्यति । दृश्यते । ऋ प्रापणे। ऋ सृ गतौ I अर्तेः ऋच्छः ||७० ॥ अर्तेः ऋच्छादेशो भवत्यनि परे । ऋच्छति । गुणोर्तिसंयोगाद्योः ॥ ७९ ॥ अर्तेः संयोगादेश्च धातोर्गुणो भवति । यकारादौ प्रत्यये परे । अर्द्धते । सर्घावः ॥ ७२ ॥ सर्तेर्धावादेशो भवत्यनि परे । धावति । यणाशिषोर्य इति इकारागमः स्त्रियते । ननु धावुगतावित्ययमपि धातुरस्ति जवाभिधाने यथा स्यात् । तेन प्रियामनुसरति । शल शातने । शदेः शीयः ॥ ७३ ॥ शदेः शीयादेशो भवत्यनि परे । शदेरनि ॥७४॥१ शदेरनि परे आत्मनेपदं भवति । यदि धातुः रुचादिर्भवत्यनि परे । शीयते शीयेते शीयन्ते । कर्मणि-शद्यते । पक्षे कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते शादयति । षद् विशरणगत्यवसादनेषु । सदेः सीदः ॥७५ ॥ अन् के आने पर दृश् को पश्य होता है ॥ ६९ ॥ पश्यति । कर्म में दृश्यते । ऋ धातु प्राप्त कराने अर्थ में है। ऋ सृ गति अर्थ में है । अन् के परे ऋ धातु को ऋच्छ हो जाता है ॥ ७० ॥ ऋच्छति । ऋय ते इस स्थिति में २१३ यकारादि प्रत्यय के आने पर ऋ और संयोगादि धातु को गुण हो जाता है ॥ ७१ ॥ । ऋ को गुण होकर अर्-अर्थते य् को द्वित्व होकर अर्थ्यते । सृ अति । अन् के आने पर सृ को धाव् हो जाता है ॥ ७२ ॥ धावति । कर्म में सु य ते। "यणाशिषोर्य" नियम से इकार का आगम हो गया। खियते बना । I धावु गति अर्थ में है यह भी एक धातु हैं पुनः सृ को धावु आदेश क्यों किया ? यदि दौड़ने अर्थ में है तब तो धावु स्वतंत्र धातु है अन्यथा चलने अर्थ में सृ को धाव् आदेश होता है। सृ का रूप भी चलता है प्रियामनुसरति — प्रिया का अनुसरण करता है । शद्लृ धातु शातन अर्थ में है । अन् के आने पर शद् को शीय् आदेश होता है ॥ ७३ ॥ अन् के आने पर शद् को आत्मने पद हो जाता है ॥ ७४ ॥ के आने पर शद् धातु रूचादि गण में हो जाती है। शीयते शीयेते । कर्म में शयते । पक्ष अन् में— शीयते तं कोऽपि प्रेरयति कोई अन्य उसको प्रेरित करता है। 'शादयति' बना । षद्लृ धातु विशरण, गति ओर अवसादन अर्थ में है। अन् के आने पर सद् को सीद् होता है ॥ ७५ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ कातन्त्ररूपमाला सदेः सीदादेशो भवत्यनि परे । सीदति सीदतः सीदन्ति । इति भ्वादयः ॥ अथ अदादिगण: अद् प्सा भक्षणे । पूर्ववत् वर्तमानादीनां । अदादेर्लुग्विकरणस्य ||७६ ॥ अदादेर्गणाद्विकरणस्य लुग्भवति । अघोषेष्वशिटां प्रथमः ॥ ७७ ॥ अघोषेषु प्रत्ययेषु परे अशिटां थुटां प्रथमो भवति । अत्ति अतः अदन्ति । असि अत्थ: अत्थ । अद्मि अद्रः अद्यः । शीड् स्वप्ने । शीडः सार्वधातुके ॥ ७८ ॥ शीङो गुणो भवति सार्वधातुके परे । शेते शयाते । आत्मने चानकारात् ॥ ७९ ॥ अनकाराच्चात्मनेपदे अन्तेर्नकारस्य लोपो भवति । शेतेरिरन्तेरादिः ॥ ८० ॥ 'शेतेः परस्य अन्तेरादिरिर्भवति । शेरते । शेषे शयाथे शेध्वे शये शेवहे शेमहे । ब्रूञ व्यक्तायां वाचि । सीदति सीदतः सीदति । इन सभी धातुओं के रूप सार्वायों में चलते हैं। इस प्रकार से भ्वादि गण का प्रकरण समाप्त हुआ । अब अदादि गण प्रारंभ होता है। अद् प्सा, भक्षण अर्थ में हैं। पूर्ववत् वर्तमान आदि में चलते हैं। अद् अति हैं । अदादि गण से अन् विकरण का लुक् हो जाता है ॥७६ ॥ अघोष प्रत्ययों के आने पर अशिट् धुट् को प्रथम अक्षर होता है ॥ ७७ ॥ इसलिये अति अत: । 'अद् अ अन्ति' विकरण का लुक् होकर अदन्ति बना । अत्ति अत्तः अदन्ति । असि अत्थ: अत्थ । अधि अद्वः अधः । शीङ् धातु शयन करने अर्थ में हैं। डानुबंध धातु आत्मनेपदी होते हैं। सार्वधातुक में शीङ् धातु को गुण होता है ॥ ७८ ॥ 'शे अ ते' विकरण का लुक् होकर शेते । शे + आते = शयाते । आत्मनेपद में अन्ते के नकार का लोप हो जाता है ॥ ७९ ॥ शेते से परे अन्ते की आदि में रकार का आगम होता है ॥ ८० ॥ शेरते । शेषे शयाथे शेध्वे । शेते शयाते शेरते । शेषे शयाथे शेध्वे । शये शेवहे शेमहे । बून् धातु स्पष्ट बोलने अर्थ में है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: ब्रुव ईड्वचनादिः ।।८१॥ ब्रुव ईड् भवति वचनादिर्भूत्वा व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परे । नाम्यन्तयोरिति गुण: । ब्रवीति । द्वित्वबहुत्वयोश्च परस्मै ।।८२ ।। सर्वेषां धातूनां विकरणानां च सार्वधातुके परस्मैपदे पञ्चम्युत्तमवर्जिते द्वित्वबहुत्वयोश्च गुणो न भवति । ब्रूतः। स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौ ।।८३ ।। इवर्णउवर्णान्तस्य धातोरियुवौ भवत: स्वरादावगुणे । बुवन्ति । अवोषि बूथ: बूथ । बवीमि ब्रूव: ब्रूमः । बुवस्त्यादीनामडादयः पञ्च ।।८४ ॥ बूधातो: परेषां त्यादिपञ्चकानाडादयः पञ्च भवन्ति । अट् अतुस् उस् थल अथुस् इत्येते वक्तव्याः। तत्सन्निधौ बुव आहः ॥८५ ।। तेषामडादीनां सनिधौ बूधातोराहादेशश्च भवति । आह आहतुः आहुः । थल्याहेः ।।८६ ।। थलि परे आहेरित्येतस्य हकारस्य धकारो भवति । आत्व आहतुः । सर्वेषामात्मनेसायालुके नुत्तमे पञ्चामा । व्यञ्जनादि गुणी सार्वधातुक के परे ब्रू धातु से ईट् आगम होता है ॥८१ ॥ नाम्यंत को गुण होकर बो ई अति । अन् विकरण का लुक् होकर संधि होकर 'ब्रवीति' बना। द्विवचन, बहुवचन को परस्मै पद में गुण नहीं होता है ॥८२ ॥ सभी धातु को और विकरण को पञ्चमी के उत्तम पुरुष से वर्जित सार्वधातुक परस्मैपद में द्विवचन. बहुवचन को गुण नहीं होता है। अत: 'बूत:' बना। स्वरादि वाली अगुणी विभक्ति के आने पर धातु के इवर्ण, उवर्ण को इय् उव् हो जाता है ॥८३॥ अत: 'बुवन्ति' बना। बवीति ब्रूत: चुवन्ति । ब्रवीधि ब्रूथ: बूथ । ब्रवीमि ब्रूव: ब्रूमः । बू धातु से परे ति आदि पाँच विभक्तियों में क्रम से अट् आदि पाँच आदेश होते हैं ॥८४ ॥ ति तस् अन्ति सि थस् इनको अट् अतुस् उस् थल अथुस् ये पाँच आदेश होते हैं। इन अट् आदि की सन्निधि होने पर ब्रू धातु को आह् आदेश होता है ॥८५ ॥ ब्रू को आह् एवं ति को 'अट्' आदेश होकर 'आह' बना है। ऐसे ही आह, आहतुः, आहुः । थल के आने पर आह् के हकार को धकार हो जाता है ॥८६ ॥ पुनः ५ को प्रथम अक्षर होकर 'आत्थ' आहथुः बना। पंचमी के उत्तम पुरुष से वर्जित सार्वधातुक आत्मने पद के आने पर सभी धातु और विकरण को गुण नहीं होता है ॥८७ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला सर्वेषां धातूनां विकरणानां च सार्वधातुके आत्मनेपदे परे पञ्चम्युत्तमवर्जिते गुणो न भवति । ब्रूते ब्रुवाते बुवते । ब्रू घे ब्रु वाथे बू ध्वे । बु वे ब्रू वहे ब्रू महे । अद्यात् अद्यातां अद्युः । अद्या: अद्यात अद्यात । अद्यां अद्याव अद्याम। शयीत शयीयातां शयीरन् । शयीथाः शयीयाथां शयीध्वं । शयीय शयीवहि शयीमहि । सप्तम्यां च ॥८८॥ सर्वेषां धातुविकरणानां गुणो न भवति सप्तम्यां च परस्मैपदे परे । ब्रूयात् ब्रू यातां व युः। बू याः ब्रू यातं ब्रूयात । ब्रूयां ब्रूयाव ब्रूयाम । ब्रुवीत बुवीयातां बुवीरन् । बुवीथा: ब्रुवीयाथां ब्रुवीवं । बुवीय ब्रुवीवहि बुधीमहि । अत्तु अत्तात् अत्ता अदन्तु । हुधुझ्या हेधिः ॥८९ ।। हुधुभ्यां परस्य हेर्धिर्भवति । अद्धि अत्तात् अत्तं अत्त । अदानि अदाव अदाम । शेतां शयातां शेरतां । शेष्व शयाथा शेध्वं । शयै शयावहै शयामहै । ब्रवीतु ब्रूतात् बूतां बुवन्तु । . हौ च ॥१०॥ सर्वेषां धातूनां गुणो न भवति हौ च परे । ब्रूहि ब्रूतात् ब्रूतं ब्रूत । बवाणि ब्रवाब बवाम। ब्रूतां बुवातां बुदना ! बाल ब्रुवाशं बध्न । लवै जनातहै बवामहै । अदोद् ॥११॥ अदः परयोर्दिस्योरादेरड् भवति । अवर्णस्याकारः॥१२॥ धातोरादेरवर्णस्याकारो भवति शस्तन्यादिपरतः । आदत् आत्ता आदन् । आद: आत्तं आत । आदं आव आय। अशेत अशयातां अशेरत । अशेथा: अशयाथां अशेध्वं । अशयि अशेवहि अशेमहि । अत: बूते । बू+आते हैं ८३वें सूत्र से ब्रुव् होकर ब्रुवाते बुवते बना । बहुवचन में आत्मने पद में ७९वें सूत्र से नकार का लोप हुआ है। बूते, बुवाते बुवते । बूषे ब्रुवाथे ब्रूध्ये । ब्रुवे ब्रूवहे बूमहे। अद् धातु सप्तमी में-अद्यात् शयीत । सप्तमी के परस्मैपद में सभी धातुओं और विकरण को गुण नहीं होता है ।।८८ ॥ अत: ब्रूयात् ब्रूयातां ब्रूयुः । आत्मने पद में ब्रू को ब्रुर होकर ब्रुधीत बुवीयातां बुवीरन् । अद् पंचमी में—अत्तु अत्तां अदन्तु । हु और धुट् से परे हि को 'धि' हो जाता है ॥८९ ।। अद् धि = अद्धि । 'बु हि' है। ___ "हि' के आने पर सभी धातुओं को गुण नहीं होता है ॥१०॥ ब्रूहि । बू आनि आव आम । पंचमी के उत्तम पुरुष में गुण होकर ब्रवाणि ब्रवाव बवाम बन गये आत्मने पदे में भी बू, ऐ आवहै आमहै। गुण होकर बवे, ब्रवावहै बवामहै। अद् अ दि, 'अद् द्' रहा अन् का लुक् हो गया है। अद् से परे दि और सि की आदि में अट् का आगम हो जाता है ॥९१ ॥ धातु के आदि के अवर्ण को आकार हो जाता है ॥९२ ।। हस्तनी, अद्यतनी, क्रियातिपत्ति विभक्ति के आने पर । अत: आदत् आत्तां आदन् । आद: आतं Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः अब्रवीत् अबूतां अब्रुवन् । अबवी: अब्रूतं अबूत । अब्रुवं अब्रूव अबूम । अब्रूत अबुवाता अब्रुवत । अबूथा. अब्रुवाथां अबूध्वं । अब्रुव अब्रूवहि अगाह शावकर्मणो ! अाले अतोते अहान्ते । अयीयें ॥१३॥ शेते: ईकारोऽय् भवति ये परे । शय्यते शय्यते । विष्वप् शये । धात्वादेः घः सः । वो वचिः ॥१४॥ बुवो वचिर्भवति अगुणे सार्वधातुके परे। स्वपिवचियजादीनां यण्परोक्षाशीःषु ।।९५ ॥ स्वपिवचियजादीनामन्तस्थायाः सम्प्रसारणं भवति यणूपरोक्षाशी:षु परतः । किं सम्प्रसारणं ? सम्प्रसारणं वृतोन्तस्थानिमित्ताः॥९६ ।। अन्तस्थानिमित्ता इउक्तः सम्प्रसारणसंज्ञा भवन्ति। सुप्यते सुप्येते सुष्यन्ते। यज देवपूजा-संगतिकरणदानेषु । इज्यते इज्यते इज्यन्ते। असु भुवि । अस्ति । उच्यते उच्यते उच्यन्ते । आत्त । आदं आव आध। अशेत अशयातां अशेरत । अशेथाः अशयाथां, अशेध्वं । अशयि अशेवहि अशेमहि। बू धातु से दि और सि में सूत्र ८१ से ईट् का आगम और गुण होकर अब्रवीत्, अबवी: बना। स्वर वाली विभक्ति में ऊ को उन्हुआ है। अब्रवीत् अबूतां अब्रुवन् । अबवी: अबूतं अबूत । अब्रूवम् अब्रूव अबूम । अब्रूत अबुवातां अब्रुवत । अबुथा: अब्रुवाथां अबूध्वं । अबुवे अबूवहि अब्रूमहि । भाव कर्म में-अद्यते अोते अद्यन्ते । 'शीयते' है___'य' प्रत्यय के आने पर शीड् के ईकार को 'अय्' होता है ॥९३ ॥ शय्यते । शय्येत। शय्यतां । अशय्यत । बन गये। जिष्वप् धातु सोने अर्थ में है। “धात्वादेः ष: स:" सूत्र ५४ से सकार होकर ‘स्वप्' धातु है। 'ब्रू धातु से कर्म में बू य ते। अगुण सार्वधातुक के आने पर ब्रू को वच् आदेश होता है ॥९४ ।। यण परीक्षा और आशी के आने पर स्वपि, वचि और यजादि के अंतस्थ को संप्रसारण हो जाता है ॥१५॥ संप्रसारण किसे कहते है ? अंतस्थ निमित्त, इ, उ, ऋ को संप्रसारण संज्ञा है ॥१६॥ अर्थात् य् को इ व् को उ और र् को क्र होना इसे संप्रसारण कहते हैं। संधि में इ को य उ को व् क को होता है, किंतु यहाँ व्यञ्जन को स्वर आदेश होता है। अत: भाव में-स्वप् य ते है = सुप्यते बन गया। यज् धातु देव पूजा, संगति करने, दान देने अर्थ में है। भावकर्म में यज् य ते = इज्यते बना । बू य ते को उच्यते बना । असु धातु होने अर्थ में है। अस् अति विकरण का लोप होकर अस्ति बना। अस् वस् है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ कातन्त्ररूपमाला अस्तेरादेः ॥१७॥ अस्तेरादेलोंपो भवति अगुणे सार्वधातुके परे । स्तः सन्ति । अस्तेः सौ ।।९८॥ अस्तेरन्त्यस्य लोपो भवति सौ परे असि स्थ: स्थ । अस्मि स्व: स्मः । स्यात् स्यातां । स्युः । स्याः स्यातं स्यात । स्याम् स्याव स्याम । अस्तु स्तात् स्तां सन्तु । एकदेशविकृतमनन्यवत् । दास्त्योरेभ्यासलोपश्च ।।९९॥ दासंज्ञकस्य अस्तेरन्त्यस्य ए भवति अभ्यासलोपश्च हो परे। अस्तेः ॥१०॥ अस्तेः परस्य हेर्धिर्भवति। स्थानिवदादेशः ।।१०१॥ यस्य स्थाने यो विधीगने शादी इतर आदेशः । एधि स्तात् स्तं स्त। असानि असाव असाम। अस्तेर्दिस्योः ॥१०२॥ अगुणी सार्वधातुक विभक्ति के आने पर अस के आदि का लोप होता है ॥९७ ।। 'स्त:' बना। अस् अ अन्ति है विकरण का लोप, अस् के अकार का लोप होकर 'सन्ति' बना । अस् सि है। सि के आने पर अस् के अन्त सकार का लोप हो जाता है ॥९८ ॥ असि स्थ: स्थ । सप्तमी में अगुणी होने से अस् के आदि का ९७ सूत्र से लोप हो गया है । अत: 'स्यात्' बन गया। अस्ति स्त: सन्ति । असि स्थ: स्थ । अस्मि स्व: स्मः । स्यात् स्यातां स्यु: । स्या: स्यातं स्यात । स्याम् स्याव स्याम ! अस् हि है। 'हि' के आने पर दा संज्ञक और अस्ति अस् के अंत को 'ए' हो जाता है एवं अभ्यास का लोप हो जाता है ॥२९॥ यहाँ अस् के अकार का लोप होने से अस् कहाँ है ? एकदेश विकृत होने पर भी वह उसी नाम वाला रहता है। अत: स् को ए हो गया । तब 'ए हि' है। अस्ति के परे हि को 'धि' हो जाता है ॥१०० ॥ "एधि' बन गया। स्थानिवत् आदेश होता है ॥१०१॥ जिसके स्थान में जो किया जाता है वह स्थान इतर आंदेश हो जाता है अर्थात् आदेश प्रथम को हटाकर आप आ जाता है। अस् आनि आव आम हैं । पञ्चमी का उत्तम पुरुष गुणी विभक्ति कहलाता है। अत: 'अस्तेरादे:' सूत्र ९७ से अकार का लोप नहीं हुआ। तब असानि असाव असाम बन गया । अस्तु स्तात् स्तां सन्तु । एधि, स्तात् स्तं स्त। असानि असाव असाम। अस् धातु से परे दि, सि को आदि में ईत् हो जाता है ॥१०२ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २१२ अस्ते: परयोर्दिस्योरादिरीद्भवति । अस्तेः ।।१०३॥ अस्तेरवर्णस्याकारो भवति हस्तन्यादिषु परत: । आसीत् आस्तां आसन् । आसी: आस्तं आस्त । आकर मार अस्तेर्भूरसार्वधातुके ।।१०४॥ अस्तेर्भूरादेशो भवति असार्वधातुके परे । भूयते । रुदिर् अश्रुविमोचने । रुदादेः सार्वघातके॥१०५ ॥ रुदादेः परस्य सार्वधातुकस्य व्यञ्जनादेरयकारादेरादाविडागमो भवति । नामिनचोपधाया लघोः ॥१०६ ॥ सर्वेषां धातूनां उपघाभूतस्य पूर्वस्य लघो मिनो गुणो भवति । रोदिति रुदित: रुदन्ति । रोदिषि रुदिथ: रुदिथ । रोदिमि रुदिव रुदिमः । रोदितिः स्वपितिवैव वसिति. प्राणितिस्तथा। जक्षितिश्शेति विज्ञेयो रूदादि पञ्चको गणः ॥१॥ रुद्यात् रुद्यातां रुधुः । रोदितु रुदितात् रुदितां रुदन्तु । हौ चेति गुणनिषेध: । रुदिहि रुदितात् रुदितं रुदित । रोदानि रोदाव रोदाम।। रुदादिभ्यश्च ॥१०७ ।। ह्यस्तनी आदि के आने पर अस्ति के आदि को आकार हो जाता है ॥१०३ ॥ अस् ई त् = आसीत् । आसीत् आस्तां आसन् । आसी: आस्तं आस्त । आसम् आस्व आस्म । अस् धातु से भाव में ते विभक्ति यण् आने पर 'अस् य ते' है। असार्वधातुक में अस् को भू आदेश हो जाता है ॥१०४ ॥ भूयते बना । रुदिर धातु रोने अर्थ में है। 'रूद् ति' है। सार्वधातुक में यकारादि रहित व्यञ्जन आदि वाली विभक्ति के आने पर रुदादि से 'इट्' का आगम हो जाता है ॥१०५ ॥ सभी धातु के नामि लघु उपधा को गुण हो जाता है ॥१०६ ॥ अत: रोद् इ ति = रोदिति रुदित: रुदन्ति बना। रोदिति रुदित: रुदन्ति । रोदिषि रुदिथ: रुदिध । रोदिमि रुदिव: रुदिमः । श्लोकार्थ-रोदिति, स्वपिति, स्वसिति, प्राणिति और जक्षिति ये पाँच धातुयें रुदादि पञ्चमण से कही जाती हैं ॥१॥ रुद्यात् । रोदितु । हि के आने पर 'हौ च' सूत्र ९० से गुण का निषेध होने से रुदिहि बना । रुद् दि रुद् सि है। रुद्रादि से परे दि, सि की आदि में 'ई' हो जाता है ॥१०७ ॥ १. अस्ते रगुणे सार्वधातुके Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला रुदादिभ्यश्च परयोर्दिस्योरादिरीद्भवति । अरोदीत् । रुदादेश्च ॥ १०८ ॥ I रुदादेश्च परयो र्दिस्योरादिद्भवति । अरोदत् अरुदितां अरुदन् । अरोदी: अरोद: अरुदितं अरुदित । अरोदं अरुदिव अरुदिम । एवं पञ्चानाम् । ञिष्वप् शये । स्वपिति स्वपितः स्वपन्ति । स्वपिषि । स्वप्यात् स्वप्यातां स्वप्युः । स्वपितु स्वपितात् स्वपितां स्वपन्तु । अस्वपीत् । अस्वपत् अस्वपतां अस्वपन् । श्वस प्राणने । श्वसिति । श्वस्यात् । श्वसितु । अश्वसीत् । अश्वसत् । अनपि च । प्राणिति । प्राण्यात् । प्राणितु | अप्राणीत् । अप्राणत् । जक्ष भक्षहसनयोः । २२० जक्षादिश्च ॥१०९ ॥ जक्षादीनामभ्यस्तसंज्ञा भवति । जक्षिति जक्षितः । लोपो ऽभ्यस्तादन्तिनः ॥ ११० ॥ अभ्यस्तात्परस्य अन्तेर्नकारस्य लोपो भवति । जक्षतिजक्ष्यात् जक्ष्यातां जक्ष्युः । जक्षितु जक्षितात् जक्षितां जक्षतु । अजक्षीत् । अजक्षत् अजक्षतां । अनठस्सिजभ्यस्तविदादिभ्योऽभुवः । इत्यनेन उस् भवति । अज्रक्षुः । भावकर्मणोः । रुद्यते । सुप्यते । इत्यादि । सूङ् प्राणिगर्भविमोचने । सूते सुवाते सुवते । सुवीत सुवीयतां सुवीरन् । सूतां सुवातां सुवतां । सूष्व सुवाथां । सूध्वम् ॥ सूतेः पञ्चम्याम् ॥ १११ ॥ सूतेः पञ्चम्युत्तमे च गुणो न भवति । सुवै सुवावहै सुवामहै। असूत असुवातां । सूयते । हन् हिंसागत्योः । हन्ति । ह्यस्तनी में अट् का आगम और गुण होकर अरोदीत्, अरोदी: बना। यह वैकल्पिक होता है अतः - रुदादि से परे दिसि की आदि में 'अत्' होता है ॥ १०८ ॥ अतः अरोदत्, अरोदः बना । ऐसे ही पाँचों के रूप समझिये । ञिष्वप् - सोना । स्वपिति स्वपित: स्वपन्ति । इत्यादि । अस्वपीत्, अस्वपत् आदि । श्वस् धातु श्वास लेने अर्थ में है । श्वसिति । श्वस्यात् । श्वसितु । अश्वसीत् अश्वसत् । प्राणिति । प्राण्यात् । प्राणितु । अप्राणीत्, अप्राणत् । जक्ष् धातु खाने और हँसने अर्थ में है। जक्ष् इति = जक्षिति, जक्षितः । ज‍ अन्ति । जक्षादि को अभ्यस्त संज्ञा हो जाती है ॥१०९ ॥ अभ्यस्त से परे अन्ति के नकार का लोप हो जाता है ॥ ११० ॥ अतः 'जक्षति' बना। सप्तमी में जक्ष्यात् । पंचमी में— जक्षितु जक्षितात् । जक्षितां । जक्षतु । ह्यस्तनी में – अजक्षीत्, अजक्षत् | जक्ष अन् है सूत्र १६६ वें से भू को छोड़ कर सिच् अभ्यस्त और विवादि से परे अन् को 'उस्' हो जाता है अत: 'अजक्षुः' बना। भावकर्म में — रुद्यते । सुप्यते । इत्यादि । षूङ् धातु जन्म लेने अर्थ में है । " धात्वादेः षः सः" सूत्र से 'स' हो गया। अनुबंध होने से यह धातु आत्मनेपदी है। सूते - सू आते ऊ को ८३वें सूत्र से उव् होकर सुवाते, 'सू अन्ते' है 'आत्मने चानकारत' ७९वें सूत्र से नकार का लोप होकर 'सुवते' बना। सुवीत, सुवीयातां सुवीरन् । सूतां, सुवातां, सुवतां । सूधातु को पञ्चमी के उत्तम पुरुष में गुण नहीं होता है ॥ १११ ॥ अतः सुवै, सुवा सुवामहै । असूत । भाव में सुयते । 'छन्' धातु हिंसा और गति अर्थ में हैं। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २२१ धुटि हन्तेः सार्वधातुके ॥११२ ।। हमारतस्य को लि. धुशदाडगुयो सार्वधातुके परे । हतः। __ गमहनजनखनघसामुपधायाः स्वरादावनन्यगुणे॥११३ ।। गमादीनामुपधाया लोपो भवत्यनण्वर्जिते स्वरादावगुणे परे। लुप्तोपघस्य च ॥११४ ।। लुप्तोपधस्य च हन्तेर्हस्य धिर्भवति । मन्ति । हंसि हथ: हथ । हन्मि हन्व: हन्म: । हन्यात् हन्यातां हन्युः । हन्तु हतात् हतां घ्नन्तु । पूर्वोक्तपरोक्तयोः परोक्तो विधिर्बलवान् इति न्यायात् हन्तेजों हो ॥११५॥ हन्तेर्जकारादेशो भवति हौ परे । जहि हतात् हतं हत । हनानि हनाव हनाम। व्यञ्जनादिस्योः ॥११६॥ व्यञ्जनात्परयोर्दिस्योलोंपो भवति । अहम् अहतां अनन् । अहन् अहतं अहत । अहनं अहन्व अहन्म । चक्षङ् व्यक्तायां वाचि । स्कोः संयोगाधोरन्ते च ॥११७।। संयोगाद्यो: सकारककारयोलोपो भवति धुट्यन्ते च। हन् ति है 'अन् विकरण; कर्तरि' से अन् होकर 'अदादेलुग्विकरणस्य' सूत्र ७६ से अन् का लुक् होकर 'हन्ति' बना । हन् तस् है। अगुण धुटादि सार्वधातुक के आने पर हन् के अंत नकार का लोप हो जाता है ॥११२ ।। अत: 'हतः' बना । हन् अन्ति है। अन् अण् वर्जित स्वरादि अगुणी विभक्ति के आने पर गम् हन् जन खन घस की उपधा का लोप हो जाता है ॥११३ ॥ अत: हन् की उपधा का लोप होकर 'हन्' रहा। अर्थात् ह के अ का लोप हुआ। लुप्त उपधा वाले हन् के हकार को 'घ' हो जाता है ॥११४ ॥ अत: + अन्ति= ध्वन्ति बना । हन् सि है 'मनोरनुस्वारो धुटि सूत्र से न' को अनुस्वार होकर हसि बना हथ: हथ । हन्तु । हन् हि है 'पूर्वोक्त और परोक्त नियम में परोक्त विधि बलवान होती है' इस न्याय से __'हि' के आने पर हन् को जकार हो जाता है ॥११५ ।। और ज आदेश होने पर हि का लोप नहीं होता अत: जहि बना हतात्, हतं हत । हन् दि । हन् सि । व्यंजन से परे दि और सि का लोप हो जाता है ॥११६ ॥ 'अहन्' अहतां । हन् अन् है 'गमहन् इत्यादि सूत्र ११३ से हन् की उपधा का लोप होकर ११४३ सूत्र से ह को घ होकर धातु के पूर्व अट् का आगम होकर 'अनन्' बना । चक्षट् धातु स्पष्ट बोलने अर्थ __ संयोग की आदि में यदि सकार या ककार है और धुाटे अंत में है तो उन सकार या ककार का लोप हो जाता है ॥११७ ॥ आ चहं ते आचम् ते रहा। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ कातन्त्ररूपमाला तवर्गस्य षटवर्गादृवर्गः ॥११८ ।। तवर्गस्य षकारटवर्गाभ्यां परस्य टवों भवत्यान्तरतम्यात् । आचष्टे आचक्षाते आचक्षते । षढोः कः से ॥११९ ।। षढो: को भवति सकारे परे । आचक्षे आचक्षाथे। घुटां तृतीयश्चतुर्थेषु ॥१२० ।। धुटां तृतीयो भवति चतुर्थेषु परतः । ॐवर्णटवरषा मूर्द्धन्या इति न्यायात् धकारस्य डकारः । आचडढ्वे । आरक्षे आचश्वहे ! आचाहे । आचक्षीत आनक्षीयातां आचक्षीरन् । आधष्टां आचक्षातां आचक्षतां । आचक्ष्व आचक्षाथां आचड्ढवं । आवः आचक्षावहे आचक्षामहै। आचष्ट आचक्षातां आचक्षत । आचष्ठा; आचक्षाथां आचड्डवं । आवक्षि आचश्वहि आचक्ष्महि । चक्षङ् ख्याञ्॥१२१ ।। चक्षङ् इत्येतस्य ख्याआदेशो भवति असार्वधातुके परे । आख्यायते । ईश् ऐश्वर्ये । छशोश्च ॥१२२॥ छशोश्च षो भवति धुट्यन्ते । ईष्टे ईशाते ईशते । ईशः से ।।१२३॥ तवर्ग को षकार और टवर्ग से परे टवर्म हो जाता है ॥११८ ॥ अत: क्रम से 'आचष्टे' बना । अन्ते में सूत्र ७९ से नकार का लोप होकर आचक्ष + अते= आचक्षते बना। आचक् ष् से ककार का लोप करके आचष् से रहा। सकार के आने पर ष और ढ को 'क' हो जाता है ॥११९ ।। आचक् से 'नामिकरपरः' इत्यादि से क से परे स को ष होकर “कषयोगे क्ष:" नियम से क्ष हो गया अत: 'आचक्षे बना । आचक्षु ध्वे है । आचरू ध्वे है 'स्को: संयोगाद्योरन्ते च' ११७ सूत्र से ककार का लोप होकर। चतुर्थ अक्षर के आने पर धुट् को तृतीय अक्षर हो जाता है ॥१२० ॥ पुन: "ऋवर्णटवर्गरधामूर्धन्या" इस न्याय से षकार को "ड" हो गया। पुन: 'तवर्गस्य पटवर्गाट्टवर्ग:' सूत्र ११८वे से टवर्ग से परे तवर्ग को टवर्ग होने से 'आचइवे' बना। सप्तमी में आचक्षीत । पंचमी में-आवष्टां । ध्वं में 'आचड्ढ्वं' बना । हास्तनी में पूर्व में अट् का आगम होकर आङ् उपसर्ग मिलाने से वही । आ+ अचाष्ट = आचष्ट बना । थास् में आचष्ठाः, ध्वं में आचड्दवं बना। भाव कर्म में-चक्ष य ते है चक्षङ् को ख्याञ् आदेश हो जाता है असार्वधातुक के आने पर ॥१२१ ॥ आख्यायते बना। ईश् धातु ऐश्वर्य अर्थ में है। ईश् ते हैं। धुट् अंत में आने पर छ् और श को 'म्' हो जाता है ॥१२२ ॥ ११८वें सूत्र से तवर्ग को टवर्ग होकर 'ईष्टे' बना। ईश् से परे स आदि विभक्ति के आने पर इट् का आगम हो जाता है ॥१२३ ।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २२३ ईश: परस्य सादेः सार्वधातुकस्यादाविद् भवति धुद्धि परे । ईशिषे ईशाधे ईड्रवे। ईशे ईश्वहे ईश्महे । ईशीरा ईसीमः ईशलन् । ईष्ट शाम · ईशिव ईशाला ईट्टवं । ऐशि ऐश्वहि ऐश्महि । ईश्यते । शासु अनुशिष्टौ । शास्ति । शासेरिदुपधाया अण्व्यानयोः ॥१२४ ।। शासेरुपधाया: इद्भवति अण्व्यञ्जनयो: परत:। शासिवासिघसीनां च ॥१२५ ।। निमितात्पर: शासिवसिघसीनां स: षत्वमापद्यते। शिष्टः शासति । शास्सि । शिष्यात् शिष्याता शिष्युः । शास्तु शिष्टात् शिष्टां शासतु ।। शा शास्तेश्च ॥१२६ ॥ शास्तेहाँ परे शादेशो भवति चकारात, हेधिर्भवति। शाधि, शिष्टात् शिष्टं शिष्ट । शासानि शासाव शासाम् । सस्य हस्तन्यां दो तः ॥१२७॥ ह्यस्तन्यां दौ परे सस्य तो भवति । अशात् अशिष्टां अशासुः । - ईश के परे स आदि सार्वधातुक विभक्ति से धुट के आने पर इद् का आगम हो जाता है। पुन: नामि से परे रसकार को ष होने से 'ईशिषे' बना।। 'ईश् ध्वे है छशोच' से श् को ष् होकर 'धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु' से तृतीय अक्षर 'इ' होकर पुन: 'तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्ग: सूत्र से तवर्ग को टवर्ग-धू को द होकर 'ईइवे' बना। सप्तमी में-ईशीत । पंचमी में—ईष्टां ईशाता ईशता । स्व के आने पर इट् होकर ईशिष्व 'ध्वं' में ईवं बना। हास्तनी में-ऐष्ट ऐशातां ऐशत, ऐष्ठाः ऐशाथां ऐड्दवं ऐशि ऐश्वहि ऐश्महि ।। भाव कर्म में ईश्यते । शास् धातु अनुशासन अर्थ में है। शास् ति है । शास्ति । शास् तस् है । अण, अगुण व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर शास् की उपधा को इत् होता है ॥१२४॥ अत: आ को 'इ' होकर शिस् तस् रहा । निमित्त से परे शास वस घस के स को 'ए' हो जाता है ।।१२५ ॥ पुनः 'तवर्गस्य घट्वर्गादवर्ग:' नियम से ए से परे तवर्ग को ट्वर्ग होकर 'शिष्टः' बना। शास् अन्ति । 'जक्षादिश्च' १०९ सूत्र से शास् को अभ्यस्त संज्ञा करके 'लोपोऽभ्यस्तादन्तिनः' ११० सूत्र से अन्ति के नकार का लोप हो गया। अत: 'शासति' बना ! सप्तमी-सत्र १२४ से इत होकर 'शिष्यात' बना । 'शास् हि' 'हि' के परे शास् को 'शा' आदेश एवं चकार से हि को धि होता है ।।१२६ ॥ शाधि । शास् दि है। ह्यस्तनी की 'दि' विभक्ति के आने पर स् को त् हो जाता है ॥१२७ ॥ एवं व्यंजनादिस्यो; सूत्र ११६ से दि सि का लोप हो जाता है । अशात् अशिष्टां । अन् को उस् होकर अशासुः । शास् सि अट का आगम होकर Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ कातन्त्ररूपमाला सौ वा ॥१२८॥ सस्य तो भवति वा स्तन्यां सौ परे। अशात् अशा: अशिष्टं अशिष्ट । अशासं। अशिष्य। अशिष्म । शिष्यते। दीधीङ् दीप्तिदयनयों: बेबोङ् समानुल्ले। दाधी . ए इव स्वासयोगपूर्वस्यानेकाक्षरस्य इति य: । आदीध्याते आदीष्यते। दीधीवेव्योरिवर्णयकारयोः ।।१२९ ॥ दीधीवेव्योरन्तस्य लोपो भवति इवर्णयकारयो: पग्नः। आदीधीत आदीध्याता आदीधीरन् । आदीधीतां आदीध्याता आदीध्यतां 1 आदीधीष्व आदीध्याथा आदीधीध्वं । दीधीवेव्योश्च ॥१३०॥ अनयो; पञ्चम्युत्तमे च गुणो न भवति । आदीध्यै आदोध्यावह आदीध्यामहै । आदीधीत आदीध्यातां आदीध्यत । आदीध्यते । वेवीते वेव्याते वेव्यते । वेवीत वेवीयात वेवीरन् । वेवीतां वेव्यातां वेव्यतां । वेवीष्व वेव्याथां वेवीर्ध्व । वेव्यै वेव्यावहै वेव्यामहै । अवेवीत अवेव्यातां अवेव्यत । अवेवीथा: अवेव्याथां अवेवीवं । अवेवि अवेवीवहि अवेवीमहि । वेव्यते । ईड् स्तुतौ । ईट्टे ईडाते । ईडते । ईड्जनोः स्ध्वे च ॥१३१॥ ईड्जनो: स्ध्वे च सार्वधातु के परे इट् भवति । ईडिषे ईडाथे ईडिध्ये । ईडे ईड्वहे ईमहे । ईडीत ईडीयातां ईडीरन् । ईट्टा ईडातां ईडतां । ऐट्ट ऐडातां ऐडत । ईड्यते । इत्यादि । णु स्तुतौ । झस्तनी की सि के आने पर स् को त् विकल्प से होता है ॥१२८ ॥ अशात् । विसर्ग होकर 'अशा:' बना। भाव कर्म में शिष्यते । दीधीङ् धातु दीप्ति और क्रीडा अर्थ में है । वेवीङ् वेतन और अतुल्य अर्थ में है। आङ् पूर्वक दीधी धातु है। आदीधी ते =आदीधीते । आदीधी आते हैं “य इवर्ण स्यासंयोग पूर्वस्यानेकाक्षरस्य” १७०वें सूत्र से इवर्ण को य् होकर 'आदीध्याते' अन्ते में नकार का लोप होकर आदीध्यते बना । सप्तमी में-आदीधी ईत है। इवर्ण और यकार के आने पर दीधी वेवी के अंत का लोप हो जाता है ।।१२९ ॥ आदीधीत, आदीधीयातां । पंचमी में—आदीधीता आदीध्याता, आदीध्यतां । पंचमी के उत्तम पुरुष दीधी और वेवी के पंचमी के उत्तम पुरुष में गुण नहीं होता है ॥१३० ॥ अत: आदीधी +ऐ= आदीध्य, आदीध्यावहै । आदीध्यामहै । हस्तनी में-अदीधीत में आङ् उपसर्ग लगकर आदीधीत बना। भावकर्म में-आदीध्यते ॥ ऐसे ही 'वेवीते' वेव्याते वेव्यते । वेवीत । वेवीता। अवेवीत् । भावकर्म में-वेव्यते। ईड् धातु स्तुति अर्थ में है। ईट् ते है ‘तवर्गस्य षटवाट्टवर्ग:' सूत्र से स्वर्ग होकर 'ई?' बना। ईडाते, इडते । ईद से, ईद ध्वे ।। से ध्वे सार्वधातुक के आने पर ईट् और जन् धातु से इट् का आगम हो जाता है ॥१३१ ॥ ईडिषे, ईडाथे, ईडिध्वे । ईडीत । ईट्टां। ऐट्ट ऐडातो। भाव कर्म में-ईड्यते । इत्यादि । णु धातु स्तुति अर्थ में है। 'यो न:' ५५वें सूत्र से धातु की आदि का णकार 'न' हो जाता है अत: 'नु ति' है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २२५ उतो वृद्धिर्व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके ॥१३२ ।। धातोरुतो वृद्धिर्भवति व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परे । वृद्धिग्रहणाधिक्यादभ्यस्तस्य वृद्धिर्न भवतीत्यर्थः ॥ नौति नुत: नुवन्ति । नौषि नुथ: नुथ । नौमि नुव: नुमः । नुयात् नुयातां नुयुः । नौतु नुतात् नुतां नुक्न्तु। अनौत् अनुतां अनुवन् । नूयते । एवं पुञ् स्तुतौ । स्तौति स्तवीति स्तुत: स्तुवन्ति । स्तुते स्तुका सुकले। स्टूडे । मातुन अनारो। कर्णोतेर्गुणः ॥१३३ ।। ऊणोंतेर्गुणो भवति व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परे । प्रोर्णोति । वृद्धिग्रहणाधिक्यात् अभ्यस्तस्य पृथक्करणाद्वा प्रोणोति प्रोणुत: प्रोणुवन्ति । प्रोणोषि प्रो#षि प्रोणुथ: प्रोणुथ । प्रोमि प्रोणोमि प्रोणुव: प्रोणुमः । प्रोणुते प्रोणुवाते प्रोणुवते । प्रोणुयात् प्रोणुयातां प्रोणुयुः । प्रोणुवीत । प्रोणोंतु प्रोणीतु प्रोणुतां प्रोणुवन्तु । प्रोणुतां प्रोणुवातां प्रोणुवतां । स्तन्यां च ।।१३४॥ ऊर्गुब् इत्येतस्य हस्तन्यां गुणो भवति व्यञ्जनादौ वचने परे । प्रौर्णोत् प्रौर्युतां प्रौर्गुवन् । प्रोणुत प्रौर्जुवातां प्रौणुवत । प्रोफ़्रयत इत्यादि । विद् ज्ञाने । वेत्ति वित्त: विदन्ति । विद्यात् विद्यातां विद्युः । वेत्तु वित्तात् वितां विदन्तु। विद आम् कञ् पञ्चम्यां वा ।।१३५ ॥ व्यंजनादि गुणी सार्वधातुक विभक्ति के आने पर धातु के उकार को वृद्धि हो जाती है ॥१३२॥ 'सूत्र में वृद्धि शब्द को ग्रहण किया है इसका अर्थ है कि अभ्यस्त को वृद्धि नहीं होती है। नौति, नुतः, नु अन्ति सूत्र ८३ से 'उ को उत् होकर नुवन्ति बना।' सप्तमी में-नुयात् । पंचमी में नौतु, नुतात् । ह्य० में- अनौत् । भावकर्म में नूयते । ऐसे ही 'स्तु' धातु स्तुति अर्थ में है। वृद्धि होकर 'स्तौति' बना। एक बार 'बुव ईड् वचनादिः' ८१वें सूत्र से 'ईद' एवं गुण होकर 'स्तवीति' बना 'स्तुतः' स्तुवन्ति । आत्मनेपद में-स्तुते स्तुवाते स्तुवते है । भावकर्म में-स्तूयते । ऊर्गुब् धातु आच्छादन करने अर्थ में है । ऊर्गु ति है। ऊर्ण धातु को व्यंजनादि गुणी सार्वधातुक में गुण हो जाता है ॥१३३ ।। यहाँ सूत्र पृथक् बनाने से 'वा' का ग्रहण हो जाता है अत: ऊपर सूत्र में वृद्धि' ग्रहण की अधिकता से या अभ्यस्त को पृथक् करने से विकल्प से वृद्धि भी हो जाती है। प्र उपसर्गपूर्वक प्रोर्णोति, वृद्धि पक्ष में --- प्रोर्णोति, प्रोणुत: प्रोणुवन्ति । आत्मनेपद में—प्रोणुते, प्रोणुवाते। प्रोणुयात् । प्रोणुवीत । प्रोणोतु । प्रोणौतु । प्रोणुतां। ___हस्तनी में व्यंजनादि गुणी विभक्ति के आने पर ऊर्गु को नित्य ही गुण हो जाता है ॥१३४॥ प्रौणोत् । ऊ को ह्यस्तनी में 'स्वरादीनां वृद्धिरादेः' सूत्र ४८ से वृद्धि होकर ओणीत् बना पुन: 'प्र' उपसर्ग से 'प्रौर्णोत्' बना । प्रौणुत, प्रौर्जुवातां प्रौटुंवत् । भावकर्म में-प्रोर्णयते । विद् धातु ज्ञान अर्थ में है। गुण होकर द् को प्रथम होकर वेत्ति, वित्त:, विदन्ति विद्यात् । वेत्तु, वित्तात्। पंचमी में विट् से परे विकल्प से आम् होकर 'कृ' धातु का प्रयोग होता है ॥१३५ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कातन्त्ररूपमाला विद: पर आम् भवति तत: कृञ् प्रयुज्यते पञ्चम्यां । आमि विधेरेवेति गुणो न भवति । विदांकरोतु विदांकुरुतात् विदांकुरुतां विदांकुर्वन्तु । विदांकुरु । अवेत् अवित्तां अविदन् । विदादेर्वा ॥१३६ ।। विद आदन्ताद् द्विषश्चान् उस् वा भवति हस्तन्यो । अविदुः । विद्यते । एवं ह्यस्तन्यां । आदन्तात् । प्सा भक्षणे । अप्सात् अप्सातां । अप्सन् ! आकारस्योसि ॥१३७॥ आकारस्य लोपो भवति उसि परे । अप्सुः । रा ला आदाने । अलात् अलाता अलान् अलुः । अरात् अरातां अरान् अरु: । द्विष् अप्रीतौ । अद्वेट् अद्विष्टां अद्विषन् अद्विषुः । भावकर्मणो:-रायते । लायते । प्सायते । द्विष्यते। समो गमच्छप्रच्छिसश्रुवेत्त्यर्तिदशाम्॥१३८ ॥ सम: परेषामात्मनेपदं भवति । संविते । संविदाते संविदते। वेत्तेर्वा ॥१३९॥ वेत्ते: परस्यांतेरियं भवति । संविद्रते । संविदीत संविदीयातां संविदीरन् । संवित्तां संविदातां संविदतां संविद्रतां । समवित्त समविदातां समविद्रत समविदत ।। इण् गतौ । एति इत: । इणश्च ॥१४० ।। आम के आने पर 'आमि विधेरेव' इससे गुण नहीं होता है । विदांकरोतु विदांकुरुतात्, विदांकुरुता विदाकुर्वतु । आम् कृ, नहीं होने पर वेत्तु वित्तां विदन्तु । अवेत् अवित्ता अविदन् । विद और आकारांत धातु और द्विष के परे विकल्प से अन् को उस् हो जाता है ॥१३६ ॥ अविदुः बना । भाव कर्म में विद्यते । आकारांत धातु से-प्सा धातु खाने अर्थ में है। प्साति, प्सात: प्सान्ति । प्सायात् । प्सातु । अप्सात् अप्साता अप्सा अन्, अप्सा, उस् । उस् के आने पर आकार का लोप हो जाता है ॥१३७ ॥ अप्सान, अप्सुः । रा, ला धातु लेने अर्थ में है। लाति । लायात् । लातु, अलात् अलातां, अलान् अलुः । राति । रायात् । रातु । अरात् अरातां अरान्, अरुः । द्विष् अप्रीति अर्थ में है। द्वेष्टि द्विष्टः द्विषन्ति । द्विष्यात् द्वेष्टु । अद्वेद अद्विष्टां अद्विषन, अद्विषु । भावकर्म में रायते । लायते । प्सायते । द्विष्यते । सम उपसर्ग से परे गम्, ऋच्छ, प्रच्छ, स श्रु विद्, क्र और दृश् धातु आत्मनेपदी हो जाते हैं ॥१३८ ॥ संविते संविदाते संविदत्ते। विद् के परे 'अन्ते' के आने पर विकल्प से 'इ' को 'इर' हो जाता है ॥१३९ ॥ संविद्रते बना । संविदीत । संवित्ता, संविदाता, संविदतां संविदतां । समवित्त । इण् धातु गति अर्थ में है—एति इतः । इ अन्ति है। स्वरादि अगुण विभक्ति के आने पर इण् को य हो जाता है ।।१४० ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २२७ इणश्च यो भवति स्वरादावगुणे। यन्ति । एषि इथ: इथ । एमि इव: इम: । इयात् इयातां इयुः । एतु इतात् इतां यन्तु । इहि इतात् इतं इत । अयानि। अयाव अयाम। ऐत ऐतां । परापि वृद्धिरिणमात्राश्रितेन यत्वेन बाध्यते। सावकाशानवकाशयोरनवकाशो विधिर्बलवान् । इति न वृद्धिः । इणशेति यत्वं । एतेर्ये ह्यस्तन्याम् ।।१४१॥ एतेये परे अटोऽवर्णस्य दी? भवति ह्यस्तन्यां । आयन् । ऐ: ऐत ऐत । आयं ऐव ऐम । दुह् प्रपूरणे। दादेर्घः ।।१४२ ।। दादेहस्य धो भवति धुट्यन्ते च।। घढधभेभ्यस्तथोर्थोऽधः ।।१४३ ।। एभ्य: धावर्जितेभ्य: परयोस्तथोधों भवति । दोग्धि दुग्धः दुहन्ति । तृतीयादेवधभान्तस्य धातारादिधातुर्थत्व स्थवाः ॥१४४ ॥ घढधभान्तस्य धातोरादेस्तृतीयस्य चतुर्थत्वं भवति स्थ्यो: परतः । धोक्षि दुग्ध: दुग्ध । दोमि दुल: दुह्म: । दुग्धे दुहाते दुहते । दुह्यात् दुह्यातां दुह्यः । दुहीत दुहीयातां दुहीरन् । दोग्धु दुग्धात् । दुग्धां दुहन्तु । हुधुड्भ्यां हेधिः । दुग्धि दुग्धात् दुग्धं दुग्ध । दोहानि दोहाव दोहाम । दुग्धां दुहाता दुहतां । यन्ति । इयात्। एतु । इहि । इ आनि पंचमी के उत्तम पुरुष में गुण होकर 'ए अय्' सूत्र लगकर अयानि अयाव अयाम । ह्यस्तनी में-पूर्वस्वर को वृद्धि होकर ऐत ऐता । इ अन् है । पर भी वृद्धि इण मात्र के आश्रित यत्व से बाधित हो जाती है। अत: “इणश्च" इस सूत्र से इ को य् हुआ पुनः हस्तनी में पूर्व में अट का आगम करके इण् के य के परे ह्यस्तनी में अट् के अवर्ण को दीर्घ हो जाता है ॥१४१ ॥ अत: 'आयन्' बना । ऐ: ऐतं ऐत । आयं' ऐव ऐम । अम् के आने पर 'इ' को १४० सूत्र से 'य' करके अट् और दीर्घ करके 'आयम्' बना। दुह् धातु प्रपूरण–दुहने अर्थ में है । दुह् ति है । धुट अंत में आने पर दा आदि के ह को घ् हो जाता है ॥१४२ ।। दुघ् ति रहा। धाव से वर्जित घ, ढ, ध, भ, से परे त और थ को 'ध्' हो जाता है ॥१४३ ।। गुण होकर “धुटांतृतीयश्चतुर्थेषु" सूत्र से घ् को ग् होकर 'दोग्धि' बना । दुग्ध; दुहन्ति । दुह सि दुह ध्वे । 'ददेघः' से हकार को घ होकर 'दुघ्' बना।। "स्' 'ध्व' विभक्ति के आने पर तृतीयादि वाले घ, ढ, ध, भान्त धातु की आदि के तृतीय अक्षर को चतुर्थ हो जाता है ॥१४४ ॥ धुघ् ‘अघोषे प्रथमः' से 'धुक्' हो गया 'नामिकरपरः' से स् को ष् होकर गुण होकर 'धोक्षि' बना। दुग्धः, दुग्ध । दोहि दुह्वः दुहाः । दुग्धे दुहाते, दुहते । धुक्षे दुहाधे धुग्ध्वे । दुहात् । दुहीत । दोग्धु । दुह् हि "हधाभ्यां हेधिः" ८९वें सत्र ‘धि' होकर ग्धि बना । दोहानि। दुग्धां। दुह दि है 'दादेर्घः' सूत्र से ह को ध् “व्यंजनादिस्योः" ११६ सूत्र से दि सि का लोप हो गया। १. अयम् प्रयोग में १४० सूत्र की प्राप्ति नहीं है कारण सूत्र का अर्थ है जिस स्वर पर में रहते गुण न हो अम् पर में रहते गुण होता है अतः इअम् इस दशा में इ को गुण करके अय् अप् अम बना स्वरादि बब भी है अट् दीर्घ हो गया आयम् प्रयोग बना । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ कातन्त्ररूपमाला लोपे च दिस्योः ॥१४५ ॥ घढयभान्तस्य धातोरादेस्तृतीयस्य चतुर्थत्वं भवति दिस्योलोंपेऽपि । अधोक् अदुग्धां अदुहन् । अधोक् अदुग्धं अदुग्ध । अदोहं अदुह्न अदुह्म । अदुग्ध अदुहातां अदुहत । लिह आस्वादने । हो ढः॥१४६ ॥ धातोर्हस्य ढो भवति धुट्यन्ते च । हे ढलोपो दीर्घश्चोपधायाः ॥१४७ ।। ढे परे ढलोपो भवति उपधाया दीर्घश्च । लेढि लीढ: लिहन्ति । लेक्षि लीढ: लोढ । लेगि लिङ्गः लिगः । लीडे लिहाते लिहते । लिक्षे । लिहाथे लीवे लिहे लिहहे लिह्महे । लिह्यात् । लिहीत । लेढु लोढात् लीदां लिहन्तु। लेद्धि लीढात् लीढं लीड । लेहानि लेहाव लेहाम ॥ लीढ़ा लिहाता लिहतां । लिक्ष्व लिहाथां लीवं । लेहै लेहावहै लेहामहै । अलेट् अलीठां अलिहन्-अलीद । लिह्यते ॥ इत्यदादिः समाप्तः। ॥ अथ जुहोत्यादिगण: हु दानादनयोः। जुहोत्यादेश ॥१४८ ।। जुहोत्यादेश्च परस्य विकरणस्य लुग्भवति । द्विवचनमनभ्यासस्यैकस्वरस्याद्यस्य ।।१४९॥ दि सि का लोप होने पर भी घ ढ ध भान्त धातु की आदि के तृतीय अक्षर को चतुर्थ हो जाता है ॥१४५ ॥ ' 'अघोघे प्रथम:' से घ् को प्रथम अक्षर होकर विरामे वा से अधोक् अधोग बना । 'सि' मेंअधोकम् । अम्-अदोहं। अदुग्ध । भाव कर्म में दह्यते। लिह धातु आस्वादन अर्थ में है। धुट अंत के आने पर लिह के ह को 'द' हो जाता है ।।१४६ ।। लिद ति धधभेभ्यस्तथोर्थोऽध १४३ सूत्र से त, थ को ध होकर 'तवर्गस्य षट्वर्गादृवर्गः' सूत्र ११८ से ट वर्ग होकर ध् को द् हुआ। गुण होकर 'लेट् ढि' । ढ के परे ढ का लोप हो जाता है और उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥१४७ ॥ अत: लेदि लीढः लिहन्ति । लिद सि है 'षढो: क: से' सूत्र ११९ से द को क् होकर स् को ए होकर लेक्षि बना। लोढे लिहाते लिहते, लिक्षे लिहाते लिध्वे सूत्र ११८ से 'वे' बनाकर “ढे ढलोपे" १४७ लू को लोप होकर लीट्वे' बना लिहे लिह्वहे, लिहहे। लिह्यात् । लिहीत । लेढ । लोढां लिहातां लिहतां, लिक्ष्व । अलेद् । अलीढ । भावकर्म में लियते । इस प्रकार से अदादि गण प्रकरण समाप्त हुआ। अथ जहोत्यादि गण प्रारम्भ होता है। 'हु' धातु दान देने और खाने अर्थ में है। 'हुज्जति' है। जुहोत्यादि से परे विकरण का लुक् हो जाता है ॥१४८ ॥ धातु के अवयव भूतअनभ्यास, एक स्वर वाले आदि के वर्ण को द्वित्व हो जाता है ॥१४९ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङस्तः २२९ धातोरवयवस्यानभ्यासस्य एकस्वरस्याद्यस्य वर्णस्य द्विवचनं भवति । इति वर्तते। जहोत्यादीनां सार्वधातुके ॥१५० ॥ जुहोत्यादीनां द्विर्वचनं भवति सार्वधातुके परे। पूर्वोऽभ्यासः ॥१५१॥ द्विरुक्तस्य धातोः पूर्वोऽवयवोऽभ्याससंज्ञो भवति । हो जः ॥१५२॥ अभ्यासहकारस्य जकारो भवति । जुहोति जुहुतः । द्वयमभ्यस्तम् ॥१५३ ।। घातोरभ्यास इतरश्चेति द्वयमभ्यस्तसंच भवति । लोपोऽभ्यस्तादन्तिनः ॥१५४॥ अभ्यस्तात्परस्यान्तेर्नकारस्य लोपो भवति । - जुहोते: सार्वधातुके ॥१५५॥ जुहोते; उकारस्य वकारो भवति स्वरादावगुणे सार्वधातुके परे । जुह्वति । जुहोषि जुहुय: जुहुथ । जुहोमि जुहुव: जुहुम: ।। इत्यादि । ओहाङ् गतौ। भृव्हाङ्माङामित् ॥१५६ ॥ भृञ् हाङ् माङ् इत्येतेषामभ्यासस्य इद्भवति सार्वधातुके परे । उभयेषामीकारो व्यञ्जनादावदः ।।१५७ ।।। उभयेषामभ्यस्तक्रयादिविकरणानां दावर्जितानामाकारस्य ईकारो भवति व्यञ्जनादावगुणे सार्वधातुके परे । जिहीते। यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। ___ सार्वधातुक के आने पर जुहोति आदि को द्वित्व हो जाता है ॥१५० ॥ 'हु हु ति' द्वित्व किये गये धातु के पूर्व अवयव की अभ्यास संज्ञा हो जाती है ॥१५१ ॥ ___ अभ्यास के हकार को 'जकार' हो जाता है ॥१५२ ॥ जुहोति, जुहुत: । जु हु अन्ति। । घातु के अभ्यास और इतर दोनों को 'अभ्यस्त' संज्ञा हो जाती है ॥१५३ ॥ __ अभ्यस्त से परे अन्ति के नकार का लोप हो जाता है ॥१५४ ॥ स्वरादि अगुण सार्वधातुक के आने पर जुहोति के उकार को 'व' हो जाता है ॥१५६ ॥ जुहति बना । इत्यादि । ओहाङ् गति अर्थ में हैं। 'हा हा ते' है पूर्व को अभ्यास संज्ञा हो गई। सार्वधातुक में भृञ् हाङ् माङ् इनके अभ्यास को इकार हो जाता है ॥१५६ ॥ व्यंजनादि अगुण सार्वधातुक के आने पर दोनों ही अभ्यस्त बने हुए हैं जहाँ पर ऐसे दा वर्जित आकार को 'ईकार' हो जाता है ॥१५७ ॥ मृताङ्माङमित् १५६ सूत्र से अभ्यास को इकार होकर 'हो ज:' सूत्र से जकार होकर जिहीते। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० कातन्त्ररूपमाला अभ्यस्तानामाकारस्य ॥१५८ ।। अभ्यस्तानामाकारस्य लोपो भवत्यगुणे सार्वधातुके परे । जिहाते जिहते । जिहीषे जिहाथे जिहीध्वे । जिहे जिहीवहे जिहीमहे ।। जिहीत जिहीयातां जिहीरन् । जिहीतां जिहातां जिहतां । जिहीष्व जिहाथां जिहीध्वं । जिहै जिहावहै जिहामहै । अजिहीत अजिहातां अजिहत । एवं माङ् माने शब्दे च 1 मिमीते मिमाते मिमते । मिमीषे भिमाथे मिमीध्वे । मिमे मिमीवहे मिमीमहे । हुधा डुभृञ् धारणपोषणयोः । द्वितीयचतर्थयोः प्रथमतृतीयौ ।।१५९॥ __ अभ्यासस्य द्वितीयचतुर्थयो: प्रथमतृतीयौ भवतः । बिभर्ति बिभृत: बिभ्रति । बिर्षि विभृथः बिभृथ । बिभर्मि बिभूवः बिभृम: 1 बिभृते विभ्राते बिभ्रते । बिभूषे बिभ्राथे बिभृध्वे । विभ्रे बिभृवहे बिभृमहे । अभ्यासस्य हस्वो भवति । दधाति । तथोश दधातेः॥१६१॥ दधातेर्धातोः आदेस्तृतीयचतुर्थत्वं भवति तथो: सेध्वोचागुणे परत: । धत्त: दधति । दधासि धत्थ: धत्थ । दधामि दध्वः दध्मः । धत्ते दधाते दधते । धत्से दधाथे धड्वे । दधे दध्वहे दध्महे । भावकर्मणोश । अगुण सार्वधातुक आने पर अभ्यस्त के आकार का लोप हो जाता है ॥१५८ ॥ जिहाते । जिहते । 'आत्मने चानकारात्' सूत्र ७९ से नकार का लोप हो गया है । जिहीत । जिहीतां । अजिहीत । माङ धातु माप करने और शब्द करने अर्थ में है 1 मा मा ते १५६ से अभ्यास को 'इ' १५७ से अभ्यस्त को 'ई' होकर मिमीते बना। डुधाञ् और डुभृञ् धातु धारण पोषण अर्थ में हैं। भृ भृ ति १५६ से अभ्यास को इकार होकर भि अगले को गुण होकर भिभर ति है। अभ्यास के द्वितीय को प्रथम एवं चतुर्थ को तृतीय अक्षर हो जाता है ॥१५९॥ बिभर्ति । बिभृतः । बिभ्रति 'द्वयमभ्यस्तं' से अभ्यस्त संज्ञा करके 'लोपोऽभ्यस्तादन्तिनः १५४ से नकार का लोप मया अत: 'रमवर्ण:' से संधि हो गई है। आत्मने पद में बिभते ।। __था धा ति 'द्वितीय चतुर्थयोः प्रथमतृतीयौ १५९ सूत्र से पूर्व को तृतीय अक्षर होकर-दाधा ति रहा। धाञ् धातु में अभ्यास को ह्रस्व हो जाता है ॥१६० ।। "दधाति' बना । दा था तस् है। त, थ, से, ध्वे अगुणी विभक्तियों के आने पर धा धातु के आदि के तृतीय को चतुर्थ हो जाता है ॥१६१ ॥ धा धा तस् 'अभ्यस्तानामाकारस्य' १५८ सूत्र से अभ्यस्त के आकार का लोप होकर 'अघोषे प्रथमः' से प्रथम अक्षर होकर 'ड्धाब हस्व:' से अभ्यास को ह्रस्व होकर धत्त: बना । दधासि धत्थ: धत्थ । दधामि दध्वः दध्मः । धा था ते अभ्यास के चतुर्थ को तृतीय होकर हस्व होकर पुन: १६१ सूत्र से चतुर्थ हो गया और अभ्यस्त के 'आकार' का लोप होकर 'धत्ते' बना। ऐसे ही से ध्ये, विभक्ति में धत्से 'धद्ध्वे' बना। भावकर्म में Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: नाम्यन्तानां यणायियन्नाशीशिब्ववेक्रीयितेषु दीर्घः ।। १६२ ।। नाम्यन्तानां धातूनां दीर्घो भवति यणादीनां ये च्वौ च परे । हूयते । अदाब् दाधौ दा ॥ १६३ ॥ डुदाञ् दाने । दाण् दाने । दो अवखण्डने । देङ् रक्षणे । एते चत्वारो दारूपाः । डुधाञ् धारणपोषणयोः । धेट् पा पाने इत्येतौ धारूपों। दाप् लवने, दैप् शोधने इत्येतौ वर्जयित्वा दाधा इत्येतौ दासंज्ञौ भवतः । २३१ दामागायति पिबति स्थास्यति जहातीनामीकारो व्यञ्जनादौ ॥ १६४ ॥ दासंज्ञकमारूपकगायतिपिबत्तिस्थास्यतिजहातीनामन्तस्य ईकारो भवति व्यंजनादावगुणे सार्वधातुके परे । दीयते । धीयते । माङ् माने शब्दे च । मीयते मीयेते मीयन्ते। के गे रे शब्दे । गीयते । पीयते । ष्ठा गतिनिवृत्तौ । निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः । स्थीयते । यो अन्तकर्मणि । अवसीयते । ओहाक् त्यागे । हीयते । जुहुयात् जुहुयातां जुहुयुः । धेट् पा पाने । दध्यात् दध्यातां दध्युः । दधीत दधीयातां दधीरन् । जुहोतु जुहतात् जुहुतां जुह्वतु जुहुधि जुहुतात जुहुतं जुहुत। जुहवानि जुहवाव जुहवाम । मिमीत मिमीयाताम् मिमीरन् । मिमीता मिमातां मिमता । मिमीष्व मिमाथां मिमीध्वं । मिमें ममाव मिमाम । बिभर्तु विभृतां विभ्रतु । विभृतां विभ्रातां विभ्रतां । दधातु धत्तात् धत्तां दधतु । अभ्यस्तानामकारस्य इति लोपे प्राप्ते । "लोपस्वरादेशयोः स्वरादेशो विधिर्बलवान्" इति स्वरादेशो भवति । दास्योरभ्यासलोपश्च ॥ १६५ ॥ नाम्यन्त धातु को यण आदि प्रत्यय, चित्र प्रत्यय के आने पर दीर्घ हो जाता है ॥ १६२ ॥ हु यते = हूयते । दाप् प् को छोड़कर दा धा, धातु 'दा' संज्ञक होते हैं ॥१६३ ॥ डुदाञ् – दान देना, दाण्- दान देना, दो- खंड करना, देङ्―रक्षा करना, ये चार धातु दा रूप हैं। डुधाञ् -- धारण पोषण करना, घेट् पा— पीना ये दो धातु धारूप हैं। दाप्---काटना, दैप् शोधन करना। इन दो धातुओं को छोड़कर उपर्युक्त दा, धा रूप धातु 'दा' संज्ञक होते हैं । व्यंजनादि अगुण सार्वधातुक विभक्ति के आने पर दा, मा, गा, पा, स्था, हा धातु के अन्त को ईकार हो जाता है ॥ १६४ ॥ अतः दीयते धीयते मीयते बन गये। कै में हैं, धातु शब्द करने अर्थ में हैं। गोयते, था - पीयते । ठा - ठहरना | 'धात्वादेः षः सः' सूत्र से सकार होने से निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो गया अतः ठकार को थकार होकर स्था रहा स्थीयते । षो अंत करना — अवसीयते । ओहाक् त्याग करना, हीयते । इत्यादि । सप्तमी में-- जुहुयात् । दध्यात् । दधीत १५८ से आकार का लोप हुआ हैं। जुहोतु जुहुधि । उत्तम पुरुष में गुण होकर जुहवानि जुहवाव जुहवाम मितीत, मिभीयातां मिमीरन । मिमीतां । बिभर्तु । विभृतां । दधातु । 'धा धा हि' 'अभ्यस्तानामाकारस्य' सूत्र से अभ्यस्त के आकार का लोप प्राप्त था किंतु लोप और स्वर के आदेश में स्वर के आदेश की विधि बलवान् होती है इस न्याय के अनुसार 'हि' विभक्ति के आने पर दा संज्ञक और अस् धातु के अन्त को 'ए' होकर अभ्यास का लोप हो जाता है ॥ १६५ ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ कातन्त्ररूपमाला दासंज्ञकस्यास्तेश्च हौ परेन्तस्य एत्वं भवति अभ्यासलोपश्च । यथासंख्यं । धेहि धत्तात् धत्तं धत्त । दधानि दधाव दधाम । धत्तां दधातां दधतां । अनुदोत अजुहुतां ! अन उस्सिजभ्यस्तविदादिभ्योऽभुवः ॥ १६६ ॥ सिजभ्यस्तविदादिभ्यः परस्य अन उस् भवति । अभुवः । अभ्यस्तानामसि || १६७ ॥ अभ्यस्तानां गुणो भवति उसि परे । अजुहवुः । अजुहो: अजुहुतं अजुहुत। अजुहवं अजुहुव अजुहुम । अजिहीत अजिहातां अजित अबिभः अबिभृतां अबिभरुः । अविभः अबिभृतं अबिभूत । अभिरं अबिभृव अबिभृम । अविभृत अविभ्रातां अबिभ्रत। अमिमीत अमिमातां अभिमत । अमिमीधाः अमिमाथां अमिमीध्वं । अमिमि अमिमीवहि अमिमीमहि । अदधात् अधत्तां । आकारस्योसि ॥ १६८ ॥ आकारस्य लोपो भवति उसि परे । अदधुः । अधत्त अदधातां अदधत । त्रिभी भये । बिभेति बिभितः बिभीतः । भियो वा ।। १६९ ।। भयो वा इकारो भवति व्यञ्जनादावगुणे सार्वधातुके परे । य इवर्णस्यासंयोगपूर्वस्याने काक्षरस्य ॥ १७० ॥ असंयोगपूर्वस्यानेकाक्षरस्य इवर्णस्य यो भवति स्वरादावगुणे परे । बिभ्यति इत्यादि । ही लज्जायां । क्रम से — घेतात मे - धनात् । वत्तां । अजुहोत् । अजुहु अन् है । भू को छोड़कर सिच् अभ्यस्त और विवादि से परे अन् को 'उस्' हो जाता है ॥ १६६ ॥ उस के आने पर अभ्यस्त को गुण हो जाता है ॥ १६७ ॥ अजुहवुः बना अजुहो: अजुहु + अम् - अजुहवम् । अजिहीत । अब भृदि । 'व्यंजनादिस्यो:' से सिदि का लोप होकर गुण होकर र् का विसर्ग हुआ अबिभः । अन् में-- अबिभरुः । अबिभ्रत। अमिमीत । अदधात् अधत्तां । 'अदधा उस् । उस के आने पर आकार का लोप हो जाता है ॥ १६८ ॥ अदधुः । अधत भी धातु भय अर्थ में हैं भी भी ति चतुर्थ को तृतीय अक्षर एवं डुधाञ् ह्रस्वः १६० सूत्र से अभ्यास को ह्रस्व होकर एवं धातु को गुण होकर 'बिभेति' बना । 'बिभी तस्' हैं। व्यंजनादि अगुण सार्वधातुक के आने पर 'भी' को विकल्प से इकार हो जाता है ॥१६९ ॥ अतः बिभितः, त्रिभीतः । बिभी अन्ति १५४ सूत्र से नकार को लोप होकर— स्वरादि अगुणी विभक्ति के आने पर असंयोग पूर्व अनेकाक्षर वाले इवर्ण को यकार हो जाता है ॥ १७० ॥ बिभ्यति बना । ह्री धातु — लज्जित होना ही ही ति 'हो जः' से 'जी' १६० सूत्र से ह्रस्व होकर जि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः अभ्यासस्यादिव्यञ्जनमवशेष्यम् ॥१७१ ।। अभ्यासस्यादिव्यञ्जनमवशेष्यं भवति। अनादेलोप इत्यर्थः। जिहेति जिह्रीतः । स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवाविति इयादेश: । जिहियति । ओहाक् त्यागे। जहाति जहीत: । जहातेर्वा ॥१७२ ॥ जहाते: सार्वधातुके व्यञ्जनादावगुणे परे आकार इकारादेशो भवति वा 1 जहित: जहीत: जहति । जहासि। उभयेषामीकारो व्यञ्जनादावदः । जहीथ: जाहिथ: जहीथ जहिथ । जहामि जहीव: जहिव: जहीम: जहिमः । लोपः सप्तम्यां जहातेः ।।१७३ ।। __जहातेरन्तस्य लोपो भवति सप्तम्यां व्यञ्जनादावगुणे सार्वधातुके परे । जह्यात् जह्यातां जह्यः । जहातु जहीतात् जहितात् जहीतां अहिता जहतु। __ आत्वं वा हो ॥१७४ ।। जहातेरन्तस्य आत्वं ईत्वमित्वं च भवति वा हौ परे । जहाहि जहिहि जहीहि जहीतात् जहितात् जहीतं जहितं जहीत जहित । जहानि जहाव जहाम । अजहात् अजहीतां अहितां अबहुः । अजहा: अजहीतं अबहितं अजहीत अजहित । अजहां अजहिव अजहीव अजहिम अजहीम । इत्यादि । ऋ सू गतौ । पृ पालनपूरणयोः । तिपिपत्याश्च ॥१७५ ॥ अनयोरभ्यासस्य इन्दति सार्वधातुके परे। अभ्यास का आदि व्यंजन अवशेष रहता है।।१७१ ॥ अर्थात् आदि से बाद के रकार का लोप हो जाता है तब गुण होकर 'जिहेति' जिह्वीत: बना। जिही अति 'स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौं' ८३ सूत्र से इय् आदेश होकर "जिहियति' बना । औहाक-त्याग करना। ‘हा हा ति' 'हो ज: सूत्र से अभ्यास को 'ज' होकर सूत्र १६० से ह्रस्व होकर 'जहाति' जहा तस् । सार्वधातुक व्यंजनादि अगुण विभक्ति के आने पर जहाति धातु के आकार को विकल्प से इकार हो जाता है ॥१७२ ॥ जहित, १५७वें सूत्र से ईकार होकर जहीत:' बना जहा । अन्ति १५८ से आकार को लोप होकर नकार का लोप होकर 'जहति' बना । 'ज हा यात्' सप्तमी में जहाति के अन्त का लोप हो जाता है ॥१७३ ॥ जह्यात् । जहातु जहितात, जहीतात् । ज हा हि। हि के आने पर जहाति के अन्त को 'आई और 'इ' हो जाता है ॥१७४ ॥ जहाहि, जहीहि, जहिहि । अजहात् । इत्यादि । ऊ सृ गति अर्थ में है। पृ धातु पालन और पूरण अर्थ में है। ऋकति । पृ पृ ति। सार्वधातुक में ऋ के अभ्यास को इकार हो जाता है ॥१७५ ॥ इऋति। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ कातन्त्ररूपमाला अभ्यासस्यासवणे ।।१७६ ॥ अभ्यासस्य इव!वर्णयोरियुवौ भवतोऽसवणे परे । इति इयत: इयति । इयर्षि इयथ: इयथ । इयर्मि इयव: इयमः । इय्यात् इययातां इय॒युः । इयतु इयतात् इयता इयतु । इयहि इयतात् इयतं इयत । इयराणि इयराव इयराम। ऐय: ऐया ऐयरुः। ऐय: ऐवृतं ऐयत । ऐयरं ऐयूव ऐयम । गुणासिमपानाधोरिति गुण. । मावे-अयते ।। वर्णस्याकारः ॥१७७॥ अभ्यासस्य ऋवर्णस्याकारो भवति । ससर्ति ससृत: सस्रति । सस्यात् ससृयातां ससृयु: । ससर्तु सस्तात् ससृतां सस्रतु । असस: अससृतां अससरुः । यणाशिषोयें॥१७८॥ दन्तादिकारागमो भवति यणाशिवोर्ये परे । नियते । पिपर्ति पिपृतः । पिप्रति । पिपृयात् पिप्याता पिपृयुः । पिपतु पिपृतात् पिपृता पिप्रतु । अपिप: अपिपृता अपिपरु: । णिजिर् शौचपोषणयोः । विजिर् पृथग्भावे । विष्ल व्याप्तौ । विष् शब्दे । निजिविजिविषां गुणः सार्वधातुके ॥१७९॥ निजादीनामभ्यासस्य गुणो भवति सार्वधातुके परे। चवर्गस्य किरसवणे ॥१८॥ चवर्गस्य किर्भवति असवर्णे धुटि परे अन्ते च । नेनेक्ति नेनिक्त: नेनिजति । नेनेक्षि नेनिक्थ: नेनिक्थ । नेनेज्मि नेनिज्व: नेनिज्मः । नेनिज्यात् नेनिज्यातां नेनिज्युः । नेनेक्तु नेनिक्तात् नेनिक्तां नेनिजतु । नेनेग्धि नेनिक्तात् नेनिक्तं नेनिक्त। असवर्ण के आने पर अभ्यास के इवर्ण उवर्ण को इय् उव् होता है ॥१७६ ।।। आगे गुण होकर इयर्ति, इयत: 'रमृवर्ण:' से संधि होकर इय् ऋ अति = इयर्ति । इय्यात् । इयतु । इब् आनि गुण होकर इयराणि बना।। भावकर्म में- य ते 'गुणोतिसंयोगाद्यो:' ७१ सूत्र से गुण होकर ‘अर्यते' बना। स स ति अभ्यास के ऋवर्ण को अकार हो जाता है ॥१७७ ॥ गुण होकर 'ससर्ति' बना । ससृत: सस्रति। सहयात् । ससर्तु। असस: असमृतां अससरुः । भावकर्म मेंयण आशिष् और य् प्रत्यय के आने पर ऋकार से इकार का आगम होता है ॥१७८ ॥ स इ 'रमृवर्णः' से सियते बना। पृ पृ ति 'अतिपिपयोश्च' १७५ सूत्र से अभ्यास को 'इ' होकर गुण होकर पिपर्ति बना। पिपृयात् । पिपतु । अपिप: अपिपृतां अपिपरु: । णिजिर्-शुद्धि करना, पोषण करना। विजिर्-पृथक होना, विष्ल—व्याप्त होना, विष्-..शब्द करना। ___णो न:' सूत्र से ण् को न करके निज् धातु है। निज निज् ति १७१ से अभ्यास के आदि को शेष रखने से ज् का लोप हुआ। सार्वधातुक में निज् विज् और विष् के अभ्यास को गुण हो जाता है ॥१७९ । । एवं गुणी विभक्ति को गुण होकर ने ने ज् ति रहा। असवर्ण, घुट के परे और अन्त में चवर्ग को कवर्ग हो जाता है ॥१८० ॥ नेनेति नेनिक्तः नैनिजति, नेनेक्षि नेनिक्थः । नेनिज्यात् । नेनेक्तु । नेनेग्धि । नेनिज् आनि । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २३५ अभ्यस्तस्य चोपधाया नामिनः स्वरे गणिनि सार्वधातुके ।।१८१ ॥ अभ्यस्तस्य चोपधाया नामिनो गुणो न भवति स्वरादी गुणिनि सार्वधातुके परे । नेनिजानि नेनिजाव गेनिजाम। ति मनिता भोगिनः । अनेनेक अनेनिक्तं अनेनिक्त । अनेनिजं अनेनिज्व अनेनिज्म । वेवेक्ति वेविक्त: वेविजति । वेविज्यात् वैविज्यातां वेविज्युः । वेवेक्तु वेविक्तात् वेविक्तां वेविजतु । वेविग्धि । अवेवेक् अवेविक्तां अवेविजुः । वेवेष्टि वेविष्ट: वेविषति । वेवेक्षि वेवेष्ठि: वेविष्ठ । वेवेष्मि वेविष्व: वेवेष्मिः । वेविष्यात् वेविष्याता वेविष्युः । वेवेष्ट वेविष्टात् वेविष्टां वेविषतु । धुटां तृतीयचतुर्थेषु इति तृतीयः । ऋवर्णटवरषा मूर्धन्या इति न्यायात् षकारस्य डकारः । वेविड्डि वेविष्टात् वेविष्टं वेविष्ट । देविषाणि वेविषाव वेविषाम । अवेवेट अवेविष्टां अवेविषुः। अवेवे: अवेविष्ट अवेविष्ट । अवेविषं अवेविष्व अदेविष्प । भावकर्मणो:-निज्यते । विज्यते । विष्यते । इति जुहोत्यादिः । अथ दिवादिगण: दिचु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु । दिवादेर्यन्॥१८२॥ दिवादेर्गणाद्विकरणसंज्ञको यन् भवति कर्तरि विहिते सार्वधातुके परे । नामिनोवारकर्छरोर्व्यञ्जने ॥१८३॥ अकुर्छरोर्वोरुपधाभूतस्य नामिनो दीर्घो भवति व्यञ्जने परे । दीव्यति दीव्यतः दीव्यन्ति । दीव्येत् दीव्येतां दीव्येयुः । दीव्यतु दीव्यतात् दीव्यतां दीव्यन्तु । अदीव्यत् अदीव्यतां अदीव्यन् । पूङ् प्राणिप्रसवे । स्वरादि गुणी सार्वधातुक के आने पर अभ्यस्त और उपधा के नामि को गुण नहीं होता है ॥१८१ ॥ नेनिजानि । अनेनेक् । “व्यंजनादिस्योः” से दि सि का लोप हो गया है। विज् धातु से वेवेक्ति वेविक्तः । वेविज्यात् । वेवेक्तु । वेविग्धि । विष्-वेवेष्टि । वेविष से 'पढोक: सूत्र से' ष को क् होकर आगे सकार को षकार होकर वेवेक्षि। वेविष् + हि 'धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु' सूत्र १२० से तृतीय अक्षर होता था तब "वर्ण टवर्ग रषा मूर्धन्या:* इस न्याय से पकार को '3' पुनः 'तवर्गस्य षट्दट्टवर्ग:' से धि को दि होकर 'वेविडि' अवेवेट् । भावकर्म में-निज्यते । विज्यते । विष्यते। इस प्रकार से जुहोत्यादि गण समाप्त हो गया। अथ दिवादिगण दिवु धातु क्रीड़ा, जीतने की इच्छा, व्यवहार, कांति इच्छा, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कांति और गति अर्थ में है। दिव् ति है। दिवादि से 'यन्' विकरण होता है ॥१८२ ॥ कर्ता में सार्वधातुक से परे दिवादिगण से विकरण संज्ञक 'यन्' होता है। व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर कुर् छुर् को छोड़कर व की उपधाभूत नामिको दीर्घ हो जाता है ।।१८३ ॥ दीव्यति दीव्यत: दीव्यति । दीव्येत् । दीव्यतु । अदीव्यत् । यूङ् धातु प्राणी को जन्म देने अर्थ में Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला सूयते सूयेते सूयन्ते । सूयेत सूयेयाता सूयेरन् । सूयतां सूयेतां सूयन्तां । असूयत असूयेतां असूयन्त । असूयथा: असूयेथा असूयध्वं । असूये असूयावहि असूयामहि । णहज् बन्धने । संनयति संनतः संनह्यन्ति ! संनहाते संनयेते संनयन्ते । संनोत् संनोतां संन युः । संनोः संनद्येत संनहोत । संनहोयं संन व संनोम । संनोत संन यातां संनोरन् । संनातु संनहातात् संनह्यतां संनह्यन्तु । संना संनयतात् सनातं संनयत । संनयानि संनह्याव संनह्याम । संनएतां संनहोतां संनयन्तां । संनह्यस्व संनहोथा संनाध्वं । संनदै संनयावहै संनह्यामहै। समनात् समनहतां समनान्। समनात समनहोता समनह्यन्त । इत्यादि । भावकर्मणोश्च । दोव्यते । सूयते। संनह्यते । जिमिदा स्नेहने। मिदेः॥१८४॥ मिदेरित्येतस्य नाम्युपधस्य धातोर्य-स्वविकरणे परे गुणो भवति । प्रमेधति प्रमेद्यतः प्रमेधन्ति । प्रमेयेत् । प्रमेद्यतु । प्रामेद्यत् । शो तनूकरणे । छो छेदने । षो अन्तकर्मणि । दो अवखण्डने । यन्योकारस्य ॥१८५ ।। धातोरोकारस्य लोपो भवति यनि परे । श्यति श्यत: श्यन्ति । श्यसि श्यथ: श्यथ । श्यामि श्याव: श्यामः । छ्यति छ्यत: छ्यन्ति । स्यति स्यत: स्यन्ति । यति द्यत: द्यन्ति । शम् दम् उपशमे । तमु काक्षायां । श्रम् तपसि खेदे च । भ्रम अनवस्थाने । क्षमूष सहने । कामु ग्लानी । सदा । शमादीनां दीपों यनि ॥१८६॥ शमादीनां दी? भवति यनि परे। शाम्यति । दाम्यति । ताम्यति । श्राम्यति। भ्राम्यति क्षाम्यति । क्लाम्यति । माद्यति । जनी प्रादुर्भावे ।। जा जनेर्विकरणे ॥१८७॥ जने: स्वविकरणे परे जा भवति । जायते । जायेत । जायतां । अजायत । है । ङ् की इत्संज्ञा होने से आत्मनेपद हुआ। धात्वादेः ष: सः' सूत्र से 'सू' रहा। सूयते । सूर्यते । सूयेत। सूयतां । असूयत । णहज् धातु-बंधन अर्थ में है। ‘णो नः' से न होकर नाति संनयति बना । संनह्यते । सनोत् । संन । संनयत् । संनयतां । समनह्यत् । समनह्यत । इत्यादि । भावकर्म में-दीव्यते, सूयते । संनह्यते । जिमिदा धातु सेह अर्थ में है। ‘मिद्' इस नामि उपधा वाली धातु को 'यन् विकरण के आने पर गुण हो जाता है ॥१८४ ॥ मेधति, प्रमेद्यति । प्रमेोत् । प्रमेद्यतु । प्रामेद्यत् । शो-कृश करना । छो-छेदन करना । पो-समाप्त होना । दो-टुकड़े करना । शो यन् ति है। 'यन्' के आने पर धातु के ओकार का लोप हो जाता है ।।१८५ ॥ श्यति, श्यत: श्यन्ति । छ्यति । स्यति । यति । शम् दम् धातु उपशम अर्थ में हैं । तमु कांक्षा अर्थ में, श्रम, धातु तपश्चर्या और खेद अर्थ में हैं। प्रमु-भ्रमण करने । क्षमूष-सहन करने । क्लम-ग्लानि अर्थ में, मदी धातु-हर्ष अर्थ में है। यन् के आने पर शम् आदि को दीर्घ हो जाता है ॥१८६ ।। शाम्यति, दाम्यति, ताम्यति, भ्राम्यति, क्षाम्यति, क्लाम्यति, माद्यति । जनी उत्पन्न होना। जन् धातु को अपने विकरण के आने पर 'जा' हो जाता है ॥१८७ ॥ जायते । जायेत । जायतां । अजायत । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २३७ यणि वा ।।१८८॥ यणि परे जनेर्जादेशो वा भवति । जायते जन्यते । इति दिवादिः । अथ स्वादिगणः पुञ् अभिववे। नुः स्वादेः ॥१८९॥ स्वादेर्गणाद्विकरणसंज्ञको नुर्भवति कर्तरि विहिते सार्वधातुके परे । सुनोति सुनुतः । नोर्वकारो विकरणस्य ॥१९०॥ नोविकरणस्यासंयोगपूर्वस्योकारस्य वकारो भवति स्वरादाबगुणे सार्वधातुके परे । सुन्वन्ति । सुनोषि सुनुथः सुनुथ। सुनोमि। उकारलोपो वमोर्वा ॥९९१ ॥ असंयोगपूर्वस्य विकरणस्योकारस्य लोपो वा भवति वमोः परत: । सुन्व: सुनुव: सुन्म: सुनुम: । सुनुते सुन्वाते सुन्वते । सुनुषे सुन्वाथे सुनुध्वे । सुन्वे सुन्बहे सुनुवहे सुन्महे सुनुमहे । नाम्यन्तानां यणायिन्नाशीश्च्विचेक्रीयितेष दीर्घः ।।१९२॥* नाम्यन्तानां धातूनां दीर्घा भवति यण् आय् इन् आशी: चेक्रीयितेषु ये चौ च परे। सूयते सूर्यते । अशूङ् व्याप्तौ । अश्नुते । यण के आने पर जन् को 'जा' विकल्प से होता है ।।२८८ ॥ भाव में—यण के आने पर जायते । जन्यते दोनों रूप बन गये । इस प्रकार से दिवादि गण समाप्त हुआ। अथ स्वरादिगण प्रारंभ होता है। घुञ् धातु का अर्थ-स्नपन, पीडन, स्नान और सुरा बनाने अर्थ में है। कर्ता में सार्वधातुक के आने पर 'सु आदि गण से 'नु' विकरण होता है ॥१८९ ।। धात्वादे: ष; स: सूत्र ५४ से स होता है पुन: 'नाम्यंतयोर्धातुविकरणयोर्गुणः' ३२वें सूत्र से गुण होकर 'सुनोति, सुनुत:' बना। 'धात्वादे: ष: सः' सूत्र ५४ से 'सुनु अन्ति' है। नविकरण के उकार को 'वकार' होता है ॥१९० ॥ पूर्व में संयोग अक्षर के न होने से स्वरादि अगुणी सार्वधातुक के आने पर 'नु' के 'उ' को 'व' हो जाता है। सुन्वन्ति । व, म, विभक्ति के आने पर असंयोग पूर्व के विकरण के उकार का लोप विकल्प से होता है ॥१९१ ॥ सुन्व; सुनुवः । सुन्म: सुनुम: बना । आत्मनेपद में—सुनुते सुन्वाते सुन्वते 'आत्मने चानकारात्' सूत्र से अन्ते के नकार का लोप हो गया। सुनुषे । सुन्वे, सुन्बहे, सुनुवहे । सुन्महे, सुनुमहे । भावकर्म में—सु य ते है यण आय् इन्, आशी, चेक्रीयित, य और च्चि प्रत्यय के आने पर नाम्यंत धातु को दीर्घ हो जाता है ॥१९२ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ कातन्त्ररूपमाला नोविकरणस्य ।।१९३॥ नुविकरणस्योकारस्य संयोगपूर्वस्य उवादेशो भवति स्वरादावगुणे सार्वधातुके परे। अश्सुवाते अश्नुवते । चिञ् चयने । चिनोति चिनुत: चिन्वन्ति । चिनुते चिवाते चिन्वते । सुनुयात् सुनुयातां सुनुयः । अश्नुवीत अश्नुवीयातां अश्नुवीरन् । अश्नुवीथा: अश्नुवीयाथां अश्नुवीध्वं । अश्नुवीय अश्नुवीवहि अश्नुवीमहि । चिनुयात् । चिन्वीत । सुनोतु सुनुतात् सुनुतां सुन्वन्तु । __ नोश्च विकरणादसंयोगात् ।।१९४॥ रोगपूर्वानुलिका , परो भई। नुतात् सुनुतं सुनुत । सुनवानि सुनुवात्र सुनुवाम। अश्नुतां अश्नुवातां अश्नुवतां । अश्नुष्व अश्नुवाथां अश्नुध्वं । अश्नवै अश्मवावहै अश्नवामह । चिनोतु चिनुतात् चिनुतां चिन्वन्तु । चिनुतां चिन्वातां । चिनुष्व चिन्वाथां चिनुध्वं । चिनवे चिनवावहै चिनवामहै। असुनोत् असुनुता असुन्वन् । आश्नुत आश्नुवातां आश्नुवत । अचिनोत् । अचिनुत । इत्यादि । इति स्वादिः । अथ तुदादिगणः तुद् व्यथने ॥ तुदादेरनि ॥१९५॥ तुदादेर्गुणो न भवति अनि परे । तुदति तुदत: तुदन्ति । मृङ् प्राणत्यागे। यहाँ यण् प्रत्यय के आने पर दीर्घ होने से 'सूयते, सूयेते' आदि बनेगा । अशूङ् धातु व्याप्ति अर्थ में है। अश्नुते बना। नु विकरण के उकार को 'उन्' आदेश हो जाता है ॥१९३ ।। संयोग पूर्व वाली धातु से नु विकरण के उकार को स्वरादि अगुण सार्वधातुक के आने पर 'उव्' आदेश होता है । अश्नुवाते अश्नुवते बना। चिञ् धातु-चयन अर्थ में है—फूल चुनना । आदि । चिनोति चिनुत: चिन्वन्ति । चिनुते चिन्वाते चिन्वते । सप्तमी में सुनुयात् । अश्नुवीत । चिनुयात् । चिन्वीत । इसमें १९० सूत्र से 'उ' को 'व' हुआ है। पंचमी में—सुनोतु । सुनु हि है। असंयोग पूर्व से परे नु विकरण होने से 'हि' का लोप हो जाता है ॥१९४ ॥ सुनु । पंचमी के उत्तमपुरुष में गुण होने से सुनवानि सुनवाब सुनवाम। अश्नुतां अश्नुवातां अश्नुवता। उत्तमपुरुष में--अश्नवै, अश्नवावहै, अश्लवामहै। चिनोतु । चिनुतां । उत्तमपुरुष में—चिनवै, चिनवावहै चिनवामहै। ह्यस्तनी में-असुनोत् । आश्नुत । अचिनोत् । अचिनुत । . इस प्रकार से स्वादि गण समाप्त हुआ। अथ तुदादि गण प्रारंभ होता है। तुद् धातु पीड़ा अर्थ में है। तुद् ति' है 'अन् विकरण: कर्तरि' से अन् विकरण होता है। पुनः । ___ अन् विकरण के आने पर तुदादि को गुण नहीं होता है ॥१९५ ॥ तुदति तुदत: तुदन्ति । मृङ् धातु प्राण त्याग-भरने अर्थ में है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: २३९ इरन्यगुणे ॥१९६ ।। ऋदन्तादिकारागमो भवति अगुणे अन्विकरणे परे । स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौ । म्रियते नियेते म्रियन्ते । मुच्ल् मोक्षणे। मुचादेरागमो नकारः स्वरादनि विकरणे ॥१९७ ।। मुचादे: स्वरानकारागमो भवत्यनि विकरणे परे । मुञ्चति मुञ्चत: मुश्चन्ति । लुप्लुङ छेदने । विद्लु लाभे। लिप उपदेहे। षिचिर क्षरणे। लम्पति लम्पते । विन्दति विन्दते। लिम्पति लिम्पते। सिञ्चति । सिञ्चते । इति मुचादिः । तुदेत् । नियेत । मुझेत् । मुश्चेत । तुदेत् । म्रियतां । मुञ्चन्तु । मुञ्चतां । अतुदत् । अम्रियत । अमुञ्चत् । अमुश्चत अमुचेता अमुश्चन्त । अमुश्चथा; अमुञ्चेथां अमुञ्चध्वं । अमुश्चे अमुश्चावहि अमुश्शामहि । भावकर्मणो:-तुद्यते । यणाशिषोयें ॥१९८ ॥ ऋदन्तादिकारागमो भवति यणाशिषोयें परे । म्रियते । मुच्यते । लुप्यते । विद्यते । लिप्यते । सिच्यते इत्यादि । कृ विक्षेपे । गृ निगरणे । दन्तस्येरगुणे ॥१९९ ।। ऋदन्तस्य इर् भवत्यगुणे परे । किरति । गिरति । - अगुण विभक्ति में अन् विकरण के आने पर ककारांत धातु से 'इकार' का आगम हो जाता है ॥१९६ ॥ 'रमृवर्ण: सूत्र से ऋ को र होकर नि ते' रहा 'स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवा' ८८३ सूत्र से इकार को 'इय्' होकर म्रियते बना, म्रियेते म्रियते। इस गण में 'आत्मने चानकारात्' सूत्र से अन्ते के नकार का लोप नहीं होता है। मुच्छृ धातु मुक्त-छूटने अर्थ में है। मुच अति हैं। अन् विकरण के आने पर मुचादि में स्वर से परे 'नकार' का आगम हो जाता है ॥१९७॥ 'मुन् च अति' है 'वर्गे तद्वर्गपञ्जमं वा' ९३ सूत्र से चवर्ग का अंतिम अक्षर होकर मुझति' बना । मुच अ अन्ति में 'असंध्यक्षरयोरस्य तौ तल्लोपश' २६वें सूत्र से अकार का लोप हो गया है । मुश्चन्ति' बना।। लुप्लब् धातु छेदन अर्थ में है। लृञ् का अनुबंध होकर लुप रहा। विद्लुञ्-लाभ अर्थ में है 'विद रहता है। लिप् वृद्धि अर्थ में है। धिचिर्-क्षरण अर्थ में है 'पिच' रहता है। इन सबमें नकार का आगम होकर-लुम्पत्ति । लुम्पते । विन्दति, विन्दते । लिम्पति, लिम्पते । सिञ्चति, सिञ्चते । ये 'मुचादि' धातु कहलाती हैं। ___ तुदेत् । म्रियेत । मुश्चेत्, मुझेत । तुदतु । प्रियतां । मुभ्रतु मुञ्चतां । अतुदत् । अम्रियत । अमुञ्चत् । अमुञ्चत । भावकर्म मे तुयते । म य ते हैं। यण आशी और 'य' प्रत्यय के आने पर ऋकारांत से इकार का आगम हो जाता है ॥१९८ ॥ नियते । मुच्यते । लुप्यते । विद्यते । लिप्यते । सिच्यते । कृ-धातु विक्षेपण करने अर्थ मे है। गृ निगलने अर्थ में है। अगुण विभक्ति के आने पर प्रकारांत को ‘इर्' हो जाता है ॥१९९ ॥ किरति । गिरति । - - - - - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला वा स्वरे ॥ २०० ॥ गिरतेर श्रुतेर्लश्रुतिर्भवति वा स्वरे परे । गिलति गिलत: गिलन्ति । इरुरोरीरूरौ । कीर्यते गीर्यते इत्यादि । २४० तुदादिः समाप्तः । अथ रुधादिगणः ם रुधिर आवरणे । परो नशब्दः ॥ २०१ ॥ रुधादेर्गणस्य स्वरात्परो विकरणसंज्ञको नकारागमी भवति कर्तरि विहिते सार्वधातुके परे । णत्वं घढधभेभ्यस्तथोर्थोधः 1 धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु । रुणद्धि । रुवादेर्विकरणान्तस्य लोपः ॥ २०२ ॥ रुधादेर्विकरणान्तस्य लोपो भवति अगुणे सार्वधातुके परे । रुच्द्ध: रुन्धन्ति । रुन्द्धे, रुन्द्धाते, रुन्द्धते । रुन्त्से । रुन्धाथे रुध्वे । रुन्धे रुन्थ्वहे रुन्महे । भुज पालनाभ्यवहारयोः । अशनार्थे भुजा ॥ २०३ ॥ I स्वर के आने पर गिर को विकल्प से गिल हो जाता है ॥ २०० ॥ 1 गिलति गिलत: गिलन्ति । भावकर्म में किर् य ते गिर् य ते हैं 'इरुरोरीरूरौ' ११२ वें सूत्र से इर् को ईर् होकर कीर्यते गीर्यते बना इत्यादि । इस प्रकार से तुदादि गण समाप्त हुआ । अथ रुधादि गण प्रारंभ होता है । U रुधिर धातु आवरण -- रोकने अर्थ में है। रुध् शेष रहता है। कर्ता में कहे गये सार्वधातुक के आने पर रुधादि गण में स्वर से परे विकरण संज्ञक 'नकार' का आगम होता है | २०१ ॥ रुन तिनो णमनन्त्यः' इत्यादि सूत्र से 'न' को 'ण' हो गया । 'घढभ्रभभ्यस्तथोर्धोधः' सूत्र ९४३ से 'ति' को 'धि' हो गया 'रुण ध् धि' रहा 'घुटां तृत्तीयश्चतुर्थेषु' सूत्र १२० से प्रथम धू को द होकर 'रुणद्धि' बन गया। अगुण सार्वधातुक के आने पर रुधादि गण में विकरण के अन्त न के अकार का लोप हो जाता है ॥ २०२ ॥ अत: 'रुन्ध्द:' बना रुन्धु अन्तिरुन्धन्ति बना । रुणत्सि रुद्र: रुन्ध्य, रुमध्मि रुन्ध्वः रुन्ध्मः । रुन्थ्ये रु रुन्धन्ते न्त्से रुन्धाये रुन्थ्ये । भुज् धातु पालन और भोजन अर्थ में है। अशन अर्थ में भुज् धातु आत्मने पद ही होती है और पालन अर्थ में परस्मैपदी होती हैं। I अशन अर्थ में भुज् धातु रुधादि हो जाती है ॥ २०३ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २४१ अशनार्थे भुज रुचादिर्भवति । इति रुचादि: 1 भुङ्क्ते भुझाते भुञ्जते । भुझे भुञ्जाथे। भुग्ध्वे । मुझे भुवहे भुमहे । युजिर् योगे। युनक्ति युक्तः युञ्जन्ति ।। युञ्जते । युद्धे । युञ्जाथे युवे । युद्धे युवहे युज्महे । सन्ध्यात् । सन्धीत । भुञ्जीत 1 युज्यात् युञ्जीत 1 रुणद्ध रुन्द्धात् रुन्दा रुन्धन्तु । रुन्द्धि । रुद्धात् रुन्द्धं रुद्ध ! रुणधानि रुणधाव रुणधाम । भुक्तां भुजातां भुञ्जतां । भुव भुञ्जाथां भुग्ध्वं । भुनजै भुनजावहै भुनजामहै । युनक्तु युक्तात् युक्तां युञ्जन्तु । युङ्ग्धि युङ्क्तात् युक्तं युक्त । युनजानि युनजाव युनजाम । युक्तां । अरुणत् अरुणद् अरुन्दर्धा अरुन्धन् । . सोऽपदान्ते वा ॥२०४।। दधोरत्वं वा स्यात् तत्रापि शब्दबहुलभावात्। सोऽपदान्तेऽरेफप्रकृत्योरपि ॥२०५॥ पंदान्ते वर्तमानयोर्दघोरत्वं वा स्यात् ह्यस्तन्यां मध्यमपुरुषैकवचने । अरुणत्त्वं अरुणस्त्वं । अरुन्द्धं । अरुन्द्ध । अरुणधं अरुन्ध्व अरुन्थ्य । अभुक्त अभुञातां अभुञ्जत । अभुक्था : अभुञ्जाथां अभुङ्ग्ध्वं । अभुजि । अमुज्वहि अभुमहि । अयुनत् अयुनग् अयुक्तां अयुञ्जन् । अयुनक् अयुनम् अयुङ्क्तं अयुङ्क्त । अयुनजं अयुज्व अयुज्म । अयुक्त अयुञ्जातां अयुञ्जत । अयुक्था: अयुञ्जाथां अयुग्ध्वं । अयुजि अयुज्वहि अयुज्महि । भावकर्मणोः । रुध्यते रुध्येते रुध्यन्ते । भुज्यते भुज्यते भुज्यन्ते । भिदिर विदारणे । छिदिर् द्विधाकरणे । भिनत्ति । छिनत्ति । भिन्द्यात् । छिन्द्यात् । भिनत्तु । छिनत्तु । अभिनत् अभित्तां अभिन्दन् । अभिनत्त्वं अभिनस्त्वं अभिन्तं अभिन्त । अभिनदं अभिन्द्व अभिन्छ । अच्छिनत् अच्छिन्ताम् अच्छिन्दन् । अच्छिनत्वं अच्छिनस्त्वं अच्छिन्तं अच्छिन्नत । अच्छिन्नत । अच्छिन्दम् अच्छिन्द्र अच्छिन्द । इति रुधादिः। __भुज् ते 'स्वराद्रुधादेः परो नशब्दः' सूत्र में 'न' विकरण होकर 'रुधादेविकरणान्तस्य लोपः' सूत्र से नकार के अकार का लोप होकर 'चवर्गस्यकिरसवणे' सूत्र १८० से चवर्ग को कवर्ग होकर वर्ग तद्वर्गपञ्चम वा' सूत्र से वर्ग का अंतिम अक्षर होकर भुङ्क्ते भुञ्जाते भुञ्जते । 'भुङ् क्षे' स् को ष होकर क्ष हो गया। युजिर् धातु योग अर्थ में है । युनक्ति युङ्क्तः युञ्जन्ति । रुन्थ्यात् । रुन्धीत । भुञ्जीत । युज्यात् । युञ्जीत । रुणद्ध । 'रुद्धि' हुधुड्भ्यां हेधिः' सूत्र से हिको धि होकर बना है। पंचमी के उत्तम पुरुष में रुणधानि रुणधाव रुणधाम । भुनजै भुनजावहे भुनजामहे । युनक्तु । अरुणत् । द और ध से अकार विकल्प से होता है। वहाँ भी शब्द बहुलता होती है ॥२०४॥ हस्तनी के प्रथम पुरुष के एकवचन में पदान्त में वर्तमान द और ध को अकार विकल्प से होता है ॥२०५ ॥ अरुणत् त्वं । जब अकार हुआ तब--अरुण: त्वं । अरुणधम् अरुन्ध्य अरुन्ध्म । अभुक्त अभुञ्जातां अभुञ्जत । अयुनक् अयुनग्। अयुक्त । भावकर्म में-रुध्यते । भुज्यते । भिदिर् विदारण अर्थ में है एवं छिदिर् द्विधा करने के अर्थ में है। भिनत्ति । छिनत्ति । भिन्द्यात् छिन्द्यात् । भिनत्तु । छिनत्तु अभिनत् अभिन्तां अभिन्दन् । अभिनत् अभिनः । अच्छिनत् । अच्छिनत । अच्छिन: । अच्छिन्दम् इस प्रकार से रुधादि गण समाप्त हुआ। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ तनु विस्तारे | तनादेरुः ॥ २०६ ॥ तनादेर्गणाद्विकरणसंज्ञक उर्भवति कर्तरि विहिते सार्वधातुके परे । तनोति तनुतः तन्वन्ति । मनुङ् अवबोधने । मनुते मन्वा मन्वते । मनुषे मन्वाथे मनुध्वे । मन्वे मनुवहे मन्वहे मनुमहे मन्महे । डुकृञ् करणे । करोति । करोमि । कातन्त्ररूपमाला 1 करोतेः ॥ २०७ ॥ करोतेरकारस्य उकारो भवति अगुणे सार्वधातुके परे । कुरुतः कुर्वन्ति । करोषि कुरुथः कुरुथ । अस्याकारः सार्वधातुके गुणे ॥ अथ तनादिगणः ॥२०८ ॥ करोते परस्य उकारस्य नित्यं लोपो भवति वमोः परतः कुर्वः कुर्मः । कुरुते कुवते कुर्वते । भावकर्मणोश । तन्यते मन्यते । ये च ॥ २०९ ॥ करोते परस्य उकारस्य नित्यं लोपो भवति ये च परे । कुर्यात् कुर्वीत । तनोतु तनुतात् तनुतां तन्वन्तु । उकाराच्च ।। २१० ।। अथ तनादि गण प्रारम्भ होता है । तनु धातु विस्तार अर्थ में है । तन् ति है । कर्ता से सार्वधातुक में तनादि गण से विकरण संज्ञक 'उ' होता है ॥२०६ ॥ तनोति तनुतः तन्वन्ति । मनुङ् धातु मानने अर्थ में है। मनुते मन्वाते मन्दते । तनोमि तनुवः 'उकारलोपो वर्गोवा' सूत्र १९१ से व म के आने पर उकार का लोप विकल्प से होता है । तन्वः तन्मः । मनुवहे मन्वहे मनुमहे मन्महे । डुकृञ् धातु करने अर्थ में है । 'करोति' बना है I 'नाभ्यं तयोर्धातुविकरणयोर्गुण:' सूत्र से सर्वत्र गुण हुआ । अगुण सार्वधातुक के आने पर करोति के अकार को उकार हो जाता है ॥ २०७ ।। कुरुतः कुर्वन्ति । कुरु वस् । , म के आने पर करोति के उकार का नित्य ही लोप हो जाता है ॥ २०८ ॥ कुर्व कुर्मः । कुरुते कुति कुर्वते । भावकर्म में – तन्यते मन्यते । कुरु यात् । 'य' विभक्ति के आने पर कुरु के उकार का नियम से लोप हो जाता है ॥ २०९ ॥ कुर्यात् । कुरु ईत कुर्वीत । तनोतु तनुतात् । उकार विकरण से 'हि' का लोप हो जाता है || २१० ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिइन्त: २४३ उकाराच्च विकरणात्परस्य हेलीपो भवति । तनु तनुतात् तनुतं तनुत । तनवानि तनवाव तनवाम। मनुतां मन्वाता मन्वतां । करोतु कुरुतात् कुरुतां कुर्वन्तु । कुरुतां । अतनोत् अतनुतां अतन्वन् । अतनः । अमनत अमन्त्रातां अमन्वत। अमनथा: अमन्वा अमनध्वं । अमन्वि अमनवहि अमन्वहि अमनमहि अमन्महि । अकरोत् अकुरुतां अकुर्वन् । अकुरुत। भावकर्मणोः । तन्यते । मन्यते । "भावकर्मणोश्च । यणाशिषोयें" इसी गागमः । निमते । इति । अथ क्यादिगण: । डुक्रीब् द्रव्यविनिमये। मा क्रयादेः ॥२१॥ क्रयादेविकरणसंज्ञको ना भवति कतरि विहिते सार्वधातुके परे । क्रीणाति । उभयेषामिति ईकारः। क्रीणीत:। यादीनां विकरणस्य ॥२१२ ॥ यादीनां विकरणाकारस्य लोपो भवत्ति स्वरादावगुणे सार्वधातुके परे । श्रीणन्ति । वृज संभक्तौ। वृणीते वृणाते वृणते । ग्रह उपादाने । सपरस्वरायाः सम्प्रसारणमन्तस्थायाः ॥२१३ ।। परेण धातुस्वरेण सह अन्तस्थायाः सम्प्रसारणं भवति । इत्यधिकृत्य । अहिज्यावयिव्यधिवष्टिव्यचिपच्छिवश्चिभ्रस्जीनामगुणे ॥२१४॥ तनु तनुतात् । तनवानि । मनुतां । करोतु । कुरुता । अतनोत् । अमनुत । अकरोत् । अकुरुत । भावकर्म में-तन्यते । मन्यते कृ य ते 'यणाशिषोर्ये' इस सूत्र से इकार का आगम होकर 'क्रियते' बना । इस प्रकार से तनादि प्रकरण समाप्त हुआ। __अथ क्यादिगण प्रारम्भ होता है। डुक्रीज् खरीदने अर्थ में है। कर्ता में सार्वधातुक के आने पर क्यादि गण में विकरण संज्ञक 'ना' हो जाता है ॥२११ ॥ क्रीणाति । 'उभयेषामीकारो व्यजनादावदः' सूत्र १५७ से क्यादि गण में व्यंजनादि अगुण विभक्ति के आने पर विकरण को ईकार हो जाता है। क्रीणीतः । क्रीणा अन्ति । स्वरादि अगुण सार्वधातुक के आने पर क्यादि गण में विकरण ना के आकार का लोप हो जाता है ॥२१२ ॥ अत: 'क्रोणन्ति' बना । वृङ् धातु वरण अर्थ में है। वृणीते वृणाते वृणते । ग्रहम् धातु ग्रहण अर्थ में है। पर धातु स्वर के साथ अंतस्थ को संप्रसारण हो जाता है ॥२१३ ॥ इस सूत्र को अधिकृत करके ग्रह, ज्या, वय, व्यध, वश, व्यच् प्रच्छ प्रश्च भ्रस्ज् धातु के अन्तस्थ को पर स्वर के साथ अगुण विभक्ति के आने पर संप्रसारण हो जाता है ॥२१४ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ कातन्त्ररूपमाला ग्रहादीनामन्तस्थायाः परेण स्वरेण सह सम्प्रसारणं भवत्यगुणे परे। किं सम्प्रसारणं । सम्प्रसारणं वृतोऽन्तस्था निमित्ताः ।।२१५॥ __ अन्तस्था निमित्ता इ उ अत: संप्रसारणसंज्ञा भवन्ति । गृह्णाति गृणीत: गृह्णन्ति । गृल्णीते गृह्णाते गृहणते । ज्या क्योहानौ । जीनाति । भावकर्मणोश्च । जीयते। वेञ् तन्तुसन्ताने । वयति वयत: वयन्ति । वयते । ऊयते । व्यध् ताड़ने । विध्यति विध्यते। वश कान्तौ। छशोश्च ॥२१६ ॥ छशोश्च षो भवति धुट्यन्ते च । वष्टि उष्ट: उशन्ति । वक्षि उष्ठ: उष्ठ । वश्मि उच: उश्मः । उश्यते । व्यच व्याजीकरणे। विचति विचत: विचन्ति । विच्यते । प्रच्छ जीष्यासां। पृच्छति पृच्छत: पृच्छन्ति । पृच्छते । व्रञ्चू छेदने । वृश्चति । वृश्चते । भ्रस्ज पाके । लुवर्णतवर्गलसा इति न्यायात् भृज्जति । भृज्जते । त्रिषु व्यञ्जनेषु संयुज्यमानेषु सजातीयानामेकव्यञ्जनलोप: । क्रीणीयात् । वृणीत । गृणीयात् गृहणीत । क्रीणातु क्रीणीतात् क्रीणीताम्। क्रोणन्तु । क्रीणीहि क्रोणीतात् क्रीणीतं क्रीणीत । क्रीणानि क्रीणीव क्रीणीम। वृणीत । गृह्णातु गृहणीतात् गृणीतां गृह्णन्तु । आन व्यञ्जनान्ताद्धौ ।।२१७ ॥ संप्रसारण किसे कहते हैं ? अन्तस्थ य व र को इ उ ऋ संप्रसारण संज्ञा होती है ॥२१५ ॥ ग्रह को गृह हो गया गृणाति = गृणाति गृणीत: गृह्णन्ति । गृहणीते गृह्णाते गृहणते । ज्यावय की हानि अर्थ में है । ज्या में या कोई होकर 'जानाति बना । भाव-कम में-इंच पातु बुन।। वयति । वयते। वे को आकारांत होकर वा को ऊ होकर 'ऊयते । व्य–ताडित करना । य को इ होकर विध्यति । विध्यते । 'वयति' भ्वादिगण में बना है एवं 'विध्यति' दिवादिगण में बना है। वश् धातु-कांति (चमकना-यह धातु अदादि का है और विकरण का लोप हो जाता है। धुट के अन्त में आने पर छु और श् को ष् हो जाता है ॥२१६ ॥ वर्ष होकर 'तवर्गस्य षटवाट्टवर्ग:' ११८ सूत्र से टवर्ग होकर वष्टि बना। अगुणी में संप्रसारण होकर उष्टः उशन्ति । वक्षि षढो कः से" ११९वें सूत्र से ष् को क् होकर पुन: सि को पि होकर वक्षि बना है। उष्ठ: उष्ठ 1 वश्मि उश्व: उश्मः । व और म अन्तस्थ, अनुनासिक होने से धुद नहीं है। व्यच्--कपट करना । य को इ होकर तुदादि गण में विचति विचत: विचन्ति बना । विच्यते । प्रच्छ धातु-प्रश्न करना।। र को क्र होकर पृच्छति । पृच्छते । ब्रश्च-छेदन करना । वृश्चति । वृश्चते । भ्रस्-भूनना । "ल वर्ण त वर्ग ल और स ये दन्त्य कहलाते हैं।" 'तवर्गस्य चटवर्गयोगे चटवर्गों' सूत्र से और दन्त्य होने के न्याय से सकार को त वर्ग मानकर आगे च वर्ग के योग में उसे च वर्ग कर देने से 'भृज्जति' बना। भृज्जते । भ्रस्ज् में र् को ऋ संप्रसारण हुआ है । तीन व्यञ्जनों के संयुक्त करने पर सजातीय में से एक व्यञ्जन का लोप हो जाता है । क्रोणीयात् । वृणीत । गृहणीयात् । गृणीत । क्रीणातु । क्रीणीहि । वृणीत । गृह्णातु । व्यञ्जनांत धातु से क्यादि गण में "हि' के आने पर विकरण संज्ञक 'आन' हो जाता है ॥२१७ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २४५ व्यञ्जनान्तात् यादेविकरणसंज्ञक आनो भवति हौ परे । गृहाण गृहणीतात् गृहणीतं गृहणीत । गृणानि गृह्णाव गृणाम । गृणीतां । अक्रीणात् अक्रोणीतां अक्रीणन् । अक्रीणा: अक्रीणीतं अक्रीणीत । अक्रीणां अक्रीणीव अक्रीणीम। अवृणीत अवृणातां अवृणत । अवृणीथा: अवृणाथां अवृणीध्वं । अवृणि अवृणीवहि अवृणीमहि । अगृह्णात् अगृणीत । भावकर्मणो:-विक्रीयते । वियते । गृह्यते । पूज् पवने। प्वादीनां ह्रस्वः ॥२९८॥ प्वादीनां हस्वो भवति स्वविकरणे परे । पुनाति पुनीत: पुनन्ति । पुनीयात् पुनीयातां पुनीयुः । पुनातु पुनीतात् पुनीतां पुनन्तु ! पतीहि पुनीसात पुनीतं पुनीत । पुनानि पुनाव पनाम । अपुनात् अपुनीतां अनुनन् । अपुना: अपुनीतं अपुनीत । अपुना अपुनीव अपुनीम। एवं लूञ् छेदने । लुनाति । लुनीत लुनन्ति । अलुनात् । ज्ञा अवबोधने । ज्ञश्च॥२१९॥ ___ ज्ञश्च स्वविकरणे जा भवति। जानाति जानीत: जानन्ति । जानीयात् । जानातु जानीतात् जानीतां जानन्तु । अजानात् अजानीतां अजानम् इति क्यादिः ।। अथ चुरादिगणः चुर स्तेये। चुरादेश्च ॥२२०॥ चुरादेः कारितसंज्ञक इन् भवति स्वार्थे । उपधाया गुणः । ते धातवः ।।२२१॥ गृहाण । गृणीतां । अक्रीणात् दि सि विभक्ति गुणी हैं। अत: विकरण को ईकार नहीं हुआ । अवृणीत 1 अगृह्णात् । अगृहणीत । भाव और कर्म में-क्रीयते, विक्रीयते । 'यणाशिषोर्ये' सूत्र १९८ से इकार का आगम होकर वियते बना । गृह्यते । पूञ्-पवित्र करना। अपने विकरण के आने पर पू आदि को ह्रस्व हो जाता है ॥२१८ ।। पुनाति पुनीत: पुनन्ति । पुनीयात् । पुनातु । पुनीहि । अपुनात् । लू-छेदना 'लुनाति' लुनीत: लुनन्ति । अलुनात् । ज्ञा-समझना। स्वविकरण के आने पर 'ज्ञा' को 'जा' हो जाता है ॥२१९ ॥ जानाति । जानीयात् । जानातु । जानीहि । अजानात् । ___ इस प्रकार से क्यादि गण समाप्त हुआ। अब चुरादिगण प्रारम्भ होता है। चुर् धातु-चुराना। चुरादिगण में स्वार्थ में कारित संज्ञक 'इन्' होता है ॥२२० । और उपधा को गुण हो जाता है ‘चोरि' बना। पुन: वे सन् आदि प्रत्ययान्त धातु संज्ञक हो जाते हैं ।।२२१ ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ कातन्त्ररूपमाला ते सनादिप्रत्ययान्ता धातुसंज्ञा भवन्ति। अन् विकरण: कर्तरि । अनि च विकरणे इति गुणः । चोरयति चोरयत: चोरन्ति । मत्रि गुप्तभाषणे । 'अनिदनुबन्धानामगुणे' अत एव इदनुबन्धानां धातूनां नुरागमोऽस्ति गुणागुणे प्रत्यये परे । मन्वयते मन्त्रयेने मन्त्रयन्ते । वृञ् आवरणे । अस्योपधाया दीर्घो वृद्धि मिनामिनिचट्स ॥२२२ ।। अस्योपधाया दीघों भवति नाम्यन्तानां वृद्धिर्भवति इन् इच् अट् एषु परत: । वारयति बारयत: वारयन्ति । वारयते । भावकर्मणोश्च । कारितस्यानामिड्विकरणे ॥२२३ ।। कारितस्य लोपो भवति आमइड्विकरणवर्जिते प्रत्यये परे । __ स्वरादेशः परनिमित्तकः पूर्यविधि प्रति स्थानिवत् ॥२२४॥ स्वरादेशः परनिमित्तक: पूर्ववर्णस्य विधि प्रति स्थानिवद्भवति । चोर्यते । वार्यते । गुडि सजि पल रक्षणे । गुण्डयति । सञ्जयति । पालयति । उपधाभूतस्येति किं ? अर्च पूजायां । अर्चयति । चोरयेत् । मन्त्रयेत्। वारयेत् । चोरयतु । मत्रयतां । वारयतु वारयतां । अचोरयत् । अमन्त्रयत । अवारयत । गुण्डयेत् । गुण्डयतु । अगुण्डयत् । संजयेत । संजयतु । असंजयत् । पालयेत् । पालयतु । अपालयत् । अर्चयेत् । अर्चयतु । आयत्। भावकर्मणोश्च । मुण्ड्यते। संज्यते । पाल्यत । अर्च्यत इत्यादि । एवं सर्वमुन्नेयं । इति चुरादिः। इस सूत्र से 'चोरि' को धातु संज्ञा होकर 'अन् विकरण: कतरि' से अन् विकरण होकर 'अनि च विकरणे' सूत्र २३ से गुण होकर 'चोरयति' बना। मत्रि—गुप्त भाषण करना । 'अनिदनु-बंधानामगुणे' सूत्र ५६ से इकार अनुबंध धातु को नु का आगम होता है गुणी अगुणी प्रत्यय के आने पर । नु का आगम 'मन्त्र' 'चुरादेश्च' सूत्र से इन् प्रत्यय 'ते धातवः' से धातु संज्ञा होकर अन् विकरण और गुण होकर 'मन्त्रयते' बना। वृक्-आवरण करना। इन् इच् अट् प्रत्ययों के आने पर इसकी उपधा को दीर्घ होता है और नाम्यन्त को वृद्धि होती है ॥२२२ ॥ वृ को वृद्धि होने से वार् इन् होकर धातु संज्ञा होकर अन् विकरण एवं गुण होकर 'वारयति' बना । वारयते इत्यादि । भाव और कर्म में— आम् और इद् प्रत्यय को छोड़कर अन्य प्रत्यय के आने पर कारित संज्ञक 'इन्' प्रत्यय का लोप हो जाता है ॥२२३ ॥ परनिमित्तक स्वरादेश पूर्व वर्ण की विधि के प्रति स्थानिवत् होता है ॥२२४ ॥ अत: चोर्यते, मन्त्र्यते, वार्यते । गुइ, सज, पल्-क्षण करना।। इन प्रत्यय, धातु संज्ञा, नु का आगम, अन् विकरण और गुण होकर गुण्डयति । सज्जयति । पालयति । उपधाभूत को ही दीर्घ हो ऐसा क्यों कहा ? अर्च-पूजा अर्थ में है। इन् प्रत्यय होकर गुण होकर 'अर्चयति' । चोरयेत् । मन्त्रयेत । वारयेत् । चोरयतु । मन्त्रयतां । वारयतु । वारयतां । अचोरयत् । अमन्त्रयत । अवारयत । गुण्डयेत् । गुण्डयतु । अगुण्डयत् । संजयेत् । संजयतु । असञ्जयत् । पालयेत् । पालयतु । अपालयत् । अर्धयेत् । अर्चयतु । आर्चयत् । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः सार्व तीर्थकराख्यानं धातोस्तत्प्रकृतेरभूत् । शास्धनेत् तत्र मुख्यं सार्वधातुकमुच्यते ॥ १ ॥ इत्याख्याते सार्वधातुकं अथाऽसार्वधातुकमुच्यते भूतकरणवत्यश्च ॥२२५ ॥ इति अतीतमात्रे अद्यतनी भवति अग्रभवोऽद्यतन: । तत्रातीतेऽद्यतनी भवति । भू सत्तायां । सिजद्यतन्याम् ॥ २२६ ॥ धातो: सिज्भवति अद्यतन्यां परतः । इडागमो सार्वधातुकस्यादिव्यञ्जनादेरयकारादेः ॥ २२७ ॥ धातोः परस्य व्यञ्जनादेरयकारादेरसार्वधातुकस्यादाविडागमो भवति । इणिवस्थादापिबति भूभ्यः सिचः परस्मै ॥ २२८ ॥ इमादिभ्यः परस्य सिचो लुग्भवति परस्मैपदे परे । भवतेः सिज्लुकि ॥ २२९ ॥ भुव इडागमो न भवति सिज्लुकि । २४७ C भाव और कर्म में- गुण्ड्यते । सञ्ज्यते । पाल्यते । अर्च्यते । इत्यादि । इसी प्रकार से सभी धातुओं के रूप चला लेना चाहिये । इस प्रकार से चुरादिगण समाप्त हुआ। सभी का हित करने वाले तीर्थंकर भगवान् के उपदेश में धातु और प्रकृति का शास्त्र हुआ है। उसमें भी सार्वधातुक प्रकरण मुख्य कहा जाता है ॥ १ ॥ इस प्रकार से आख्यात में सार्वधातुक प्रकरण समाप्त हुआ । अथ असार्वधातुक प्रकरण प्रारंभ होता है । भूतकाल में अद्यतनी होती है ॥ २२५ ॥ अतीत मात्र के अर्थ में अद्यतनी होती हैं। आज का ही होने वाला भूतकाल 'अद्यतन' कहलाता है। उस अतीत काल में अद्यतनी होती है। भू— सत्ता अर्थ में है। अद्यतनी परे धातु से सिच् प्रत्यय होता है ॥ २२६ ॥ धातु से परे यकारादि रहित व्यञ्जनादि जो असार्वधातुक उसकी आदि में 'इट्टू' का आगम होता है ॥ २२७ ॥ परस्मैपद में इण् इक् स्था दा पिब् और भू धातु से परे सिच् का 'लुक्' हो जाता है ॥२२८ ॥ सिच् का लुक् होने पर 'भू' से इट् का आगम नहीं होता है ॥ २२९ ॥ १ इण्स्था-- इत्यादि सूत्र हस्तलिखिते पुस्तके वर्तते । इक तत्र न गृहीतं । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ कातन्त्ररूपमाला भुवः सिज्लुकि ॥२३०॥ भुवो गुणो न भवति सिज्लुकि । अभूत् अभूतां । भुवो वोन्त: परोक्षायतन्योः ।।२३१ ।। भूधातोरन्ते वकारागमो भवति परोक्षाद्यतन्यो: स्वरे परे । अभूवन् । अभूः अभूतं अभूत । अभूवं अभूव अभूम । इण् गतौ । इणो गाः ।।२३२॥ इणो गा भवत्यद्यतन्यां परत: । ___अनिडेकस्वरादातः ।।२३३ ।। एकस्वरादाकारात्परमसार्वधातुकमनिड् भवति । अगात् अगातां । आलोपोऽसार्वधातुके ।।२३४ ॥ धातोराकारस्य लोपो भवत्यसार्वधातुके स्वरादावगुणे परे। अगुः । अगा: अगातं अगात । अगाम् अगाव अगाम । इन स्मरणे। इकोऽपि ॥२३५ ॥ इकोऽपि गा भवत्यद्यतन्यां परतः। इडिकावध्युपसर्ग न व्यभिचरतः। अध्यगात् अध्यगातां अध्यगुः । अस्थात् अस्थातां अस्थः । अधात् । अदात् । इत्यादि । इङ अध्ययने। सिच् का लुक् होने पर भू को गुण नहीं होता है ॥२३० ॥ अत: भू द ह्यस्तनी अद्यतनी आदि में धातु की आदि में अट् का आगम होकर 'अभूत्' अभूतां बन गया। अभू अन् है। परोक्षा और अद्यतनी में स्वर विभक्ति के आने पर भू धातु के अंत में 'वकार' का आगम हो जाता है ॥२३१ ॥ अभूवन् । अभू: अभूतं अभूत । अभूवम् अभूव अभूम । इण-गति अर्थ में है। ___ इण् धातु को अद्यतनी में 'गा' आदेश हो जाता है ॥२३२ ॥ आकारांत एक स्वर वाली धातु असार्वधातुक में इट् रहित होती है ॥२३३ ॥ अगात् अगातां । अन् को उस होकर असार्वधातुक में स्वरादि अगुणो विभक्ति के आने पर धात् के आकार का लोप हो जाता है ॥२३४ ॥ अगुः । इक् धातु स्मरण अर्थ में है। अद्यतनी में इक् को भी 'गा' आदेश हो जाता है ॥२३५ ॥ इः और इक् थात, 'अधि' उपसर्ग को व्यभिचरित नहीं करते हैं अर्थात् इनमें 'अधि:' उपसर्ग अवश्य लगता है। अध्यगात् अध्यगातां अध्यगुः । स्था धातु से—अस्थात् । धा दा धातु से अधात् । अदात् इत्यादि । इङ् धातु अध्ययन अर्थ में है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : तिङन्तः अद्यतनीक्रियातिपत्त्योर्गी वा ॥ २३६ ॥ अद्यतनीक्रियातिपत्त्योरात्मनेपदे परे इडो वा मी आदेश इष्यते । वर्णादविश्रिङीशीङः ॥ २३७ ॥ शिवश्रिडीङ्गीङ्वर्जितादेकस्वरादिवर्णात्परमसार्वधातुकमनिङ् भवति । आदेशबलादगुणित्वे । अध्यगीष्ट अध्यगीषातां अध्यगीषत। अध्यगीष्ठाः अद्यगीषाथां । सिचो धकारे ||२३८ ॥ सिचो लोपणे भवति धकारे परे । २४९ नाम्यन्ताद्धातोराशी रद्यतनपरोक्षासु श्री छः ।। २३९ ।। नाम्यन्ताद्धातोराशीरद्यतनीपरोक्षासु धो ढो भवति । अध्यगीवं । अध्यगीषि अध्यगीष्वहि अध्यगीष्महि । पक्षे स्वरादीनां वृद्धिरादेः । अध्यैष्ट अध्यैषातां अध्यषत। अध्यष्ठाः अध्यैषाथां अध्यैवं । अध्यैषि अध्यैष्वहि अध्यैष्महि । परस्मै इति किम् ? I भूप्राप्तौ ॥ २४० ॥ भूधातो: भूप्राप्तावात्मनेपदी भवति । अभविष्ट अभविषातां अभविषत । अभविष्ठाः अभविषाथां अभविदवं । अभविषि अभविष्वहि । अभविष्यहि । समवप्रविभ्यश्चेति स्था रुचादिः । स्थादोरिरद्यतन्यामात्मने ॥ २४९ ॥ स्थादासंज्ञकयोरन्तस्य इर्भवति अद्यतन्यामात्मनेपदे परे । अद्यतनी और क्रियातिपत्ति में आत्मनेपद के आने पर 'इङ्' को विकल्प से 'गी' आदेश होता है | २३६ ॥ श्वि, श्रि, डीङ्, शीङ् को छोड़कर एक स्वरादि वर्ण से परे असार्वधातुक अनिट् होते हैं ॥ २३७ ॥ आत्मनेपद में 'त' विभक्ति में अध्यगीष् में सिच् पर में रहते गुण क्यों नहीं हुआ गी आदेश करने से गुण नहीं होता है अध्यगीष्ट बना, इसमें सिच् का आगम होकर स् को घ् हुआ है और ष् के निमित्त से तवर्ग को टवर्ग हुआ है । अध्यगीष्ध्वं है । धकार के आने पर सिच् का लोप हो जाता है ॥२३८ ॥ नाम्यंत धातु से आशी अद्यतनी और परोक्षा में 'ध' को द हो जाता है ॥२३९ ॥ अतः अध्यगीवं बना । पक्ष में जब 'गी' आदेश नहीं हुआ तब 'इ' को 'स्वरादीनां वृद्धिरादेः' सूत्र ४८ से पूर्व स्वर को वृद्धि होकर सिच् होकर 'अध्यैष्ट' बना । परस्मैपद में ऐसा क्यों कहा ? भू धातु प्राप्ति अर्थ में आत्मनेपदी होता है ॥ २४० ॥ आत्मनेपद में 'सिच् इट्' होकर 'अभविष्ट' बनेगा। सम्, अव, प्र, वि उपसर्ग से परे स्था धातु रुचादि हो जाता है अर्थात् इन उपसर्गों के योग से स्था धातु आत्मनेपद में चलता है। सम् अस्था त । आत्मनेपद में अद्यतनी से स्था, दा संज्ञक धातु के अंत को इकार होता है ॥२४१ ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० कातन्त्ररूपमाला स्थादोश्च ।।२४२॥ स्स्थादासंज्ञकयोर्गुणो न भवति अनिटि सिंजाशिषोश्चात्मनेपदे परे । ह्रस्वाच्चानिटः ।।२४३ ॥ ह्रस्वात्परस्य अनिट: सिचो लुग्भवति धुटि परे । समस्थित समस्थिषातां समस्थिषत । समस्थिथा: समस्थिपाथां समस्थिध्वं । समस्थिषि समस्थिष्वहि समस्थिष्महि ॥ अदित अदिषातां अदिषत । अदिथा: अदिषाथां अदिध्वं । अदिषि अदिष्वहि । अदिष्महि । ऐधिष्ट ऐधिषातां ऐधिषत । ऐधिष्ठ्यः ऐधिषाथा ऐधिध्वं । ऐधिषि ऐधिष्वहि ऐधिामहि । पचिवचिसिचिरुचिमुचेश्चात् ॥२४४ ॥ एभ्य: पञ्चभ्यः परमसार्वधातुकमनिड् भवति । अस्य च दीर्घः ।।२४५ ।। व्यञ्जनान्तानामनिटामुपधाभूतस्यास्य दोधों भवति परस्मैपदे सिचि परे । सिचः ॥२४॥ सिधः परयोर्दिस्योरादिरीद्भवति । अपाक्षीत् । धुश्श धुटि ।।२४७ ।। धुटः परस्य सिंचो लोपो भवति धुटि परे । अपाक्तां अपाक्षुः । अपाक्षी: अपक्तिं अपाक्त । अपाक्ष अपाक्ष्व अपाक्ष्म । अपक्त अपक्षातां आपक्षत । अपक्था: अपक्षाथां अपग्ध्वं । अपक्षि अपक्ष्वहि अपक्ष्महि । वद व्यक्तायां वाचि! स्था दा संज्ञक धातु को अनिट् सिच् आशीस के आने पर आत्मनेपद में गुण नहीं होता है ॥२४२ ॥ ह्रस्व से परे इट् नहीं होने से सिच् का लोप हो जाता है ॥२४३ ॥ समस्थित, प्रास्थित आदि बनेंगे। दा धातु से अदित अदिषातां अदिषत । एध् धातु से ऐधिष्ट ऐधिषातां ऐधिषत। पच् वच् सिच् रुच् और मुच् ये पांच धातु असार्वधातुक में इट् रहित होते हैं ॥२४४ ॥ परस्मैपद में सिच् के आने पर व्यञ्जनान्त अनिट् धातु की उपधा के अकार को दीर्घ हो जाता है ॥२४५ ॥ सिच् के परे दि और सि विभक्ति की आदि में 'ई' हो जाता है ॥२४६ ।। पच् दि है सिच् अट् उपधा को दीर्घ, 'ई' आदेश होकर अपाक्ष ई त् = अपाक्षीत् बना । धुट से परे धुट के आने पर सिच् का लोप हो जाता है ॥२४७ ॥ अपाक्तां अपाक्षुः । आत्मनेपद में पच् की उपधा को दीर्घ न होकर अपक्त अपक्षातां अपक्षत बना। वद—स्पष्ट बोलना। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: २५१ वदवजरलन्तानां च ॥२४८॥ वदवजरलन्तानामुपधाभूतस्यास्य दीघों भवति परस्मैपदे सिचि परे। इटश्चेटि ॥२४१ ।। इट: परस्य सिचो लोपो भवति ईटि परे । अवादीत् अवादिष्टां अवादिषुः । धज ध्वज वज ब्रज गतौ । प्रावाजीत् प्रामाजिष्टां प्रावाजिषुः । वर ईप्सायां । अवारीत् अवारिष्टां अवारिषुः । चर गतिभक्षणयोः । अचारीत् अचारिष्टां अचारिपुः । फल निष्यतौ । अफालीत् अफालिष्टां अफालिषु: । शल श्वल्ल आशुगतौ । अशालीत् । अशालिष्टां अशालिषुः । अशाली: अशालिष्टं अशालिष्ट । अशालिषं अशालिष्व अशालिष्म । व्यञ्जनादीनां सेटामनेदनुबन्धहम्यन्तकणक्षणश्वसवधां वा ।।२५० ।। एदनुबन्धहम्यन्तकणक्षणश्वसर्जितानां सेटां व्यञ्जनादीनां धातूनां उपधाभूतस्यास्य दी? भवति वा परस्मैपदे सिचि परे । रद विलेखने । अरादीत् अरादिष्टां अरादिषुः । अरदीत् अरदिष्टां अरदिषुः । गद् व्यक्तायां वाचि । अगादीत् अगादिष्टां अगादिषुः । अगदीत् अगदिष्टां अदिषुः । व्यञ्जनादीनामिति किं ? मायोगेऽद्यतनी ॥२५॥ माशब्दयोगे धातोरद्यतनी भवति । अट पट इट किट कट गतौ । मा भवानटीत् मा भवन्तावटिष्टां । मा भवन्तोऽटिषुः । मा त्वमटी; मा युवामटिष्टं मा यूयमटिष्ट । माहटिषं मा वामटिष्व मा वयमटिष्म । सेटामिति किं ? अपाक्षीत् अपाक्ता अपाक्षः। अपाक्षी: अपातं अपाक्त । अपाक्षं अपाक्ष्व अपाक्ष्म । नित्यमुपधाभूतस्येति किं ? अव रक्ष पालने । अरक्षीत् अरक्षिष्टां अरक्षिषुः । अरक्षी: अरक्षिष्टं अरक्षिष्ट । अरक्षिषं अरक्षिष्व अरक्षिष्म् । तशू त्वक्षू तनूकरणे । अतक्षीत् । अस्वक्षीत् । अस्येति किं ? मुष स्तेये । परस्मैपद में सिच् के आने पर वद् व्रज रकारान्त और लकारांत धातु की उपधा के अकार को दीर्घ हो जाता है ॥२४८ ॥ इट् के परे ईट् के आने पर सिच का लोप हो जाता है ।।२४९ ।। अवादीत् । अवादिष्टां अवादिषुः। धृज ध्वज वज व्रज धातु गति अर्थ में हैं। प्रावाजीत् । वर ईप्सा अर्थ में है । अवारीत् । घर-गति और भक्षण । अचारीत् । फल-निष्पत्ति अर्थ में है। अफालीत् । शल श्वल्ल-शीघ्रगति अर्थ में है । अशालीत् अशालिष्टां अशालिषुः । ___एत् अनुबंध, हकार मकारांत, कण क्षण श्वस और वध इन धातुओं से रहित इट् सहित व्यंजनादि धातु के उपधाभूत अकार को. परस्मैपद में सिच् के आने पर दीर्घ विकल्प से होता है ॥२५० ॥ रद-विलेखन अर्थ में । अरादीत् । अरदीत् । गद्-स्पष्ट बोलना । अगादीत, अगदीत्। व्यंजनादि धातुओं को ऐसा क्यों कहा ? मा शब्द के योग में धातु से अद्यतनी विभक्ति हो जाती है ॥२५१ ॥ अट पट इट किट कट गति अर्थ में हैं, अटीत् माभवानटोत् । इसमें उपधा को दीर्घ नहीं हुआ। इट् सहित हो ऐसा क्यों कहा ? अपाक्षीत् । यह इट् रहित है अत: विकल्प नहीं हुआ । नित्य ही उपधा भूत हो ऐसा क्यों कहा ? अव, रक्ष पालन अर्थ में हैं। अरक्षीत् । तथू त्वशू-कश-करना । अतक्षीत् । अत्वक्षीत् । अकार को हो ऐसा क्यों कहा ? मुष-चुराना । अमोर्षीत् । कुष्-निष्कर्ष अर्थ में है। अकोषीत् । वर्जन ऐसा क्यों कहा ? खगै-हंसना। अखगीत् । रगे-शंका अर्थ में। अरगीत् । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला २५२ अमोषीत् अमोषिष्टां अमोषिषुः । कुष निष्कर्षे । अकोधीत् अकोषिष्टां अकोषिषुः । वर्जनं किं ? खगे हसने अखगीत् अखगिष्टां अखगिषुः । रगे शङ्कायां । अरगीत् । कगे नोचिते । अकगीत् अकगिष्टां अकगिषुः। महल नपारे । माही माहीम काग्रहीपुः । इटो दीर्घा ग्रहेरपरोक्षायामिति दीर्घ: । वह परिकल्कने । रह त्यागे । अरहीत् अरहिष्टां अरहिषुः । टुवमु उद्गिरणे । अवमीत् । क्रमु पादविक्षेपे । अक्रमीत् अक्रमिष्टां अक्रमिषुः । चमु छमु जमु झमु जिमु अदने । अचीत्। अच्छमीत् । अजमीत् । अझमीत् । अजिमीत् । अजिमिष्टां अजिमिषुः । व्यय क्षये । अव्ययीत् अव्ययिष्टां अव्ययिषुः । अय वय मय पय तय चय रय णय गतौ । आयीत् । अवयीत् । अमयोत् । अपयोत् । अतयीत् । अचयीत् । अरयीत् । अनयीत् अनयिष्टां अनयिषुः । कण निमीलने । अकणीत् । क्षण क्षुण हिंसायां । अक्षणीत् । श्वस प्राणने । अश्वसीत् अवसिष्टां अश्वसिषुः । हनु हिंसागत्योः। अद्यतन्यां च वधादेश: । अवधीत् अवधिष्टां अवधिषुः । इत्यादि । टुणदि समृद्धौ । अनन्दीत् अनन्दिष्टां अनन्दिषुः । श्रंसु भंसु अवस्रंसने। ध्वंस गतौ च । अश्रंसिष्ट अश्रंसिधातां अश्रंसिषत । अश्रंसिष्ठा; अश्रंसिषार्थी अश्रसिध्वं । अश्रंसिषि अश्रंसिश्वहि असिष्महि । अभ्रंसिष्ट अभ्रंसिषातां अभ्रंसिषत । अध्वंसिष्ट । व्ये संवरणे।। सन्ध्यक्षरान्तानामाकारोऽविकरणे ॥२५२ ।। सन्ध्यक्षरान्तानां धातून आकारो भवति अविकरणे परे । यमिरमिनम्यादन्तानां सिरन्तश्च ॥२५३ ।।। एषामिडागम: सकारपूर्वो भवति परस्मैपदे सिचि परे । यमु उपरमे । अयंसीत् अयंसिष्टां अयंसिधुः । रमु क्रीडायो । अरंसीत् अरंसिष्टां अरंसिषुः । को-अनुचित अर्थ में। अकगीत् । ग्रहञ् ग्रहण करना । अग्रहीत् अग्रहीष्टां अग्रहीषुः । “इटो दोषों ग्रहेरपरोक्षायां" इस २९० सूत्र से इद् को सर्वत्र दीर्घ हो गया है। वह–परिकल्कने । रह—त्याग अर्थ में है। अरहीत् । दुवम् उद्गिरण-उगलने अर्थ में है। वमति—अवमीत, क्रमु-पाद विक्षेपण करना। अक्रमीत् । चम् छम् जम झम जिम-खाने अर्थ में है। अचमीत । अच्छामीत । अजमीत । अझमीत । अजिमीत् । व्यय-क्षय होना । अव्ययीत् । अय, वय, मय, पय, तय, चय, स्य, णय गति अर्थ में है। आयीत् । अवयीत् । अमयोत् । अपयीत् । अतयीत् । अचयीत् । अरयीत् । अन्यीत् । कण-निमीलन अर्थ में है । अकणीत् । क्षण क्षुण-हिंसा अर्थ में । अक्षणीत् । श्वस्जीवित रहना । अश्वसीत् । हनु-हिंसा और गति अर्थ में है । 'अद्यतन्यां च वधादेश:' अद्यतनी में हन को वध आदेश हो जाता है । अवधीत् । इत्यादि टुणदि धातु समृद्धि अर्थ में है। ‘णो न:' सूत्र से न होकर इकार अनुबंध से 'नु' का आगम होकर अनन्दीत् । श्रंसु आंसु-अवधेसन अर्थ में । ध्वंस-गति अर्थ में। अश्रंसिष्ट अभ्रंसिष्ट । अध्वंसिष्ट । आत्मनेपद में हैं । व्ये-संवरण करना । ___अविकरण में संध्यक्षरांत धातु को आकार हो जाता है ॥२५२ ॥ यम् रम् नम् और आकारांत धातु को परस्मैपद सिच् के आने पर इट् का आगम सकारपूर्वक होता है ॥२५३ ॥ यमु-उपरम होना । अयंसीत् अयंसिष्टां अयंसिषुः । रमु-क्रीडा करना । अरंसीत् अरंसिष्टां अरंसिषुः । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २५३ व्याड्यरिभ्यो रमः ॥२५४॥ विआपरिभ्यः परस्य रमुधातोः परं परस्मैपदं भवति ॥ व्यरंसीत् । णमु प्रत्वे शब्दे । अनसीत् । अव्यासीत् अव्यासिष्टां अव्यासिषुः । अव्यास्त अव्यासात-अव्यासत। सणनिटः शिडन्तानाम्युपधाददृशः ।।२५५ ।। दृशवर्जितात् नाम्युपधादनिटः शिडन्ताद्धातो: सण भवति अद्यतन्यां परत: । सिचोपवादः । रिश रुश हिंसायां । क्रुश आह्वाने गाने रोदने च । लिश विच्छ गतौ । क्रुश ह्वरणदीप्योः । रिशिरुशिकशिलिशिविशिदिशिदशिस्मृशिमशिदंशेः शात् ॥२५६।। एभ्य: परमसार्वधातुकमनिड् भवति । अरिधात् अरिक्षता रिक्षान् । अरिक्ष: अरिक्षतं अरिक्षत । अरिक्षं अरिक्षाव अरिक्षाम । अनुक्षत् अनुक्षतां अक्रुक्षन् । अक्रुक्ष: अक्रुक्षतं अक्रुक्षत। सणो लोपः स्वरे बहुत्वे ॥२५७ ।। सणोऽस्य लोपो भवत्यबहुत्वे स्वरे परे । अक्रुक्षम् अक्रुक्षाव अक्रुक्षाम् । विश प्रवेशने । अविक्षत् । त्विष दीप्तौ। त्विषिपुष्यतिकृषिश्लिष्यतिद्विषिपिषिविषिशिषिशषितुषिदुषेः पात् ।।२५८ ।। एथ्य: परमसार्वधातुकमनिट् भवति । अस्विक्षत् अत्विक्षता अत्विक्षन् । कृष विलेखने । अकृक्षत् अकृक्षतां अकृक्षन् । श्लिष आलिङ्गने । अश्लिक्षत् 1 द्विष अप्रीतौ । अद्विक्षत् । पिप्लृ संचूर्णने । अपिक्षत् । विष्ल व्याप्तौ । अविक्षत् । शिष्ल विशेषणे । तुष तुष्टौ । अतुक्षत् । दुघ वैकृत्ये। अदुक्षत् अदुक्षतां अदुक्षन् । दुह प्रपूरणे। वि और आङ् उपसर्ग से परे रम धातु परस्मैपद में होती है ॥२५४ ॥ व्यरंसीत् । णमु धातु नमस्कार करने और शब्द करने अर्थ में है। अनंसीत् । अव्यासीत् । अव्यासिष्टां । अव्यास्त, अव्यासाता।। दृश वर्जित, नामि उपधा से अनिट् और शिट् अंत वाली धातु को अद्यतनी में 'सण' हो जाता है ॥२५५ ॥ .. और सिच् का अपवाद हो जाता है । सण् प्रत्यय लाने पर गुण वृद्धि नहीं होता है । रिश रुश-हिंसा करना । क्रुश-आह्वानन करना, गाना, रोना। लिश, विच्छ-गमन करना । क्रुश-हरण और दीप्ति । विश्-प्रवेश करना । दिश-अतिसर्जन करना। रिश् रुश् क्रुश् लिश् विश् दिश् दृश् स्पृश् मृश् और दंश् धातु अनिट होती हैं ॥२५६ ॥ 'छशोश्च' सूत्र से श कोष हुआ, 'षढो क से' सूत्र से ष को क होकर सम् के स को ष होकर अरिक्षत् अरिक्षतां अरिक्षन् । अक्रुक्षत् । अबहुत्व स्वर के आने पर सण के अकार का लोप हो जाता है ॥२५७ ॥ अक्रुक्षम् । विश-प्रवेश अर्थ में। अविक्षत् । त्विष्-दीप्त होना । पुष्-पुष्ट होन्म । त्विष् पुश् कृष् श्लिष् द्विष् पिष् विष् शिष् शुष तुष् और दुष् धातु से परे असार्वधातुक में इट् नहीं होता है ॥२५८ ॥ ___ अत्विक्षत् । कृष-विलेखन करना । अकृक्षत् । श्लिष्-आलिंगन करना । अश्लिक्षत् । द्विष अप्रीति अर्थ में है—अद्विक्षत् । पिष्ल-चूर्ण करना । अपिक्षत् । विष्ल-व्याप्त होगा। अविक्षत् । शिष्तृ-विशेष करना । तुष्-तुष्ट होना अतुक्षत् । दुष्-दुषित होना। अदुक्षत् । दुत्-प्रपूरण अर्थ में। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ कातन्त्ररूपमाला दहिदिहिदुहिमिहिरिहिरुहिलिहिलुहिनहिवहेर्हात्॥२५९ ।। एभ्यः परमसार्वधातुकमनिड् भवति । अधुक्षत् अधुक्षतां अधुक्षन् । दिह उपचये। अधिक्षत् । अनिटामिति किं ? कुष नि: अकोए । असोभि असोधि । शिताविति किं ? अभुक्त अभुक्षातां अभुक्षत । अभुक्था: अभुक्षाथां अभुग्ध्वं । अभुक्षि अभुक्ष्वहि अभुक्ष्महि । नाम्युपधादिति किं ? दह भस्मीकरणे। अधाक्षीत् । प्रकृत्याश्रितमन्तरङ्गं प्रत्यायाश्रितं बहिरङ्गं । “अन्तरङ्गबहिरङ्गयोरन्तरङ्गो विधिर्बलवान् । इति धत्वं चतुर्थत्वं च । अदाग्धां अधाक्षुः । अधाक्षी: अदाग्धं अदाग्ध । अधाक्षं अधाक्ष्व अधाक्ष्म । अदृश इति किं ? दृशिर् प्रेक्षणे। सृजिदशोरागमोऽकार: स्वरात्परो धुटि गुणवृद्धिस्थाने ।।२६०॥ सृजिदृशोः स्वरात्परोऽकारागमो भवति गुणवृद्धिस्थाने धुटि परे । अद्राक्षीत् अद्राष्टां अद्राक्षुः । भृजादीनां षः ।।२६१ ।।। भृजादीनां षो भवति धुट्यन्ते च । सृज विसर्गे । असाक्षीत् असाष्टां अस्राक्षुः । इति भ्वादिः ।। । अथ अदादिगण अदेर्घस्लू सनद्यतन्योः ॥२६२ ।। अदेर्धस्तृ आदेशो भवति सनद्यतन्योः परत:। __दह दिह दुह् मिह रिह रुह लिह लुह् न वह इन हकारांत धातुओं को असार्वधातुक में इट् नहीं होता है ॥२५९ ॥ __ अदुह् स् त् = अधुक्षत् । दिह उपचय अर्थ में है। अधिक्षत् । इट् रहित हो ऐसा क्यों कहा ? कुष निष्कर्ष अर्थ में है। अकोषीत् । शिडन्त हो ऐसा क्यों कहा ? भुज-पालन करने और भोजन करने में है। अभुक्त अभुक्षातां अभुक्षत । नामि उपधा से हो ऐसा क्यों कहा ? दह, भस्म करने अर्थ में है। अधाक्षीत् बना । 'प्रकृति से आश्रित कार्य अन्तरंग कार्य है एवं प्रत्यय के आश्रित कार्य बहिरंग कार्य है एवं अंतरंग और बहिरंग विधि में अंतरंग विधि बलवान होती है। इसलिये द को चतुर्थ अक्षर 'ध' हो गया है । अदाग्धां अधाक्षुः । दृश् को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? दृशिर-देखना। सृज और दृश के स्वर से परे धुट् के आने पर गुणवृद्धि के स्थान में अकार का आगम हो जाता है ॥२६०॥ अद्राक्षीत् अद्राष्टां अद्राक्षुः । धुट के अन्त में आने पर भृज् आदि के अन्त को षकार हो जाता है ॥२६१ ॥ सृज् धातु विसर्ग अर्थ में है। अस्राक्षीत् अस्राष्टां अस्राक्षुः । इस प्रकार से भ्वादिगण में अद्यतनी प्रकरण समाप्त हुआ। अथ अदादि गण प्रारम्भ होता है। सन् और अद्यतनी में अद् को घस्लु आदेश हो जाता है ॥२६२ ॥ पुषादिगण, धुतादि गण, लकारानुबंध, ऋ सृ और शास् धातु से । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: पुषादिद्युतादिलुकारानुबन्धार्त्तिसर्त्तिशास्तिभ्यश्च परस्मै ॥ २६३ ॥ एभ्योऽण् भवति अद्यतन्यां परस्मैपदे । सिचोऽपवादः । अघसत् अघसतां अघसन् । पुष पुष्टौ || अपुषत् अपुषतां अपुषन् । शुष शोषणे अशुषत् अशुषतां अशुषन् । धुत शुभ रुच दीप्तौ अद्युतत् अततां अद्युतन् । अद्युतः अद्युततं अद्युतत। अद्युतं अद्युताव अद्युताम । अशुभत् । अरुचत् । श्वित आवर्णे । अश्वितत् । षु, श्रु. द्रु, दु, ऋछ, गम्लु, सृप्लृ गतौ । अर्त्तिसत्यरणि ॥ २६४ ।। अर्त्तिसत्यर्गुणो भवति अणि परे । आरत् असरत् । शासु अनुशिष्टौ । शासेरिदुपधाया अण्व्यञ्जनयोः || २६५ || शासेरुपधाया इद्भवति अण्व्यञ्जनयोः परतः । २५५ शासिवसिघसीनां च ॥ २६६ ॥ निमित्तात् परः शासिवसिघसीनां सकारः षत्वमापद्यते । अशिषत् । परस्मा इति किं ? व्यंद्योतिष्ट व्यद्योतिषातां व्यद्योतिषत । शीङ् स्वप्ने। अशयिष्ट । बुवो वचिरिति वचिरादेशः । अणसुवचितिलिपिसद्धि ॥२७॥ एभ्योऽण् भवति अद्यतन्यां परतः । असु क्षेपणे । अस्यतेस्थोन्तः || २६८ ॥ अस्यतेरन्ते थकारागमो भवत्यणि परे । अपास्थत् अपास्थताम् अपास्यन् । अणि वचेदुपधायाः ॥। २६९ ॥ वचेरुपधाया औद्भवति कर्त्तरि विहितायामद्यतन्यामणि परे । अवोचत् । अवोचत । ख्या प्रकथने । परे अद्यतनी परस्मैपद में अणू प्रत्यय होता है ॥ २६३ ॥ ; सिच् नहीं होता है । अघसत् अघसतां अघसन् । पुष्टि अर्थ में है। अपुषत् । शुष- शोषण करना । अशुषत् । द्युत शुभ रुच्-दीप्ति अर्थ में हैं। अद्युतत् । अशुभत् । अरुवत् । श्वित-आवरण अर्थ में है। अश्वितत् । शुश्रु द्रुदु ऋच्छ गम्लृ सृप्लु-गति अर्थ में है । अण् के आने पर ऋ और सृ को गुण हो जाता है ॥ २६४ ॥ अ अ अ त = आरत् । असरत् । शास्- अनुशासन करना । अण् और व्यंजन के जाने पर शास् की उपधा को इकार हो जाता है ॥२६५ ॥ निमित्त से परे शास् वस् और घस् के सकार को षकार हो जाता है ॥ २६६ ॥ अशिषत् । परस्मैपद में ऐसा क्यों कहा ? व्यद्योतिष्ट इसमें आत्मनेपद होने से सिच् इद् गुण सभी हो गया है। शीड्- सोना । अशयिष्ट । 'ब्रुवो वचि' इस ९४वें सूत्र से ब्रू को वच् आदेश हो जाता है। अस् वच् ख्या, लिप् सिच् और ह्व धातु से अद्यतनी में अण् हो जाता है ॥ २६७ ॥ असूक्षेपण करना । अस्यति । अणू प्रत्यय के आने पर अस् के अंत में थकार का आगम हो जाता है ॥ २६८ ॥ आस्थत् अप उपसर्ग पूर्वक — 'अपास्थत्' बना। कर्ता से अद्यतनी में अण् के आने पर वच् की उपधा को 'ओ' हो जाता है ॥२६९ ॥ अवोचत् बना । ख्या- कहना । ख्याति । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला आलोपो ऽसार्वधातुके ॥ २७० ॥ धातोराकारस्य लोपो भवति स्वरादावगुणेऽसार्वधातुके परे । आख्यत् आख्यतां आख्यन् । लिप् उपदेहे । अलिपत् । व्यवस्थितवाधिकाराल्लिम्मादीनामात्मनेपदे वा अण् पक्षे सिच् । अलिपत अलिप्त । घुटन धुटि सिचो लोपः । अलिपेतां अलिप्सातां अलिपन्त अलिप्सत । अलिपथाः अलिप्या: । अलिपेथां अलिप्साथां अलिपध्वं अलिब्ध्वं । अलिपे अलिप्सि अलिपावहि अलिप्स्वहि अलिपामहि अलिप्स्महि । पिचिर क्षरणे | असिनत् । क्षेञ स्पर्धायां शब्दे च । आहत आह्वतां आह्वन् आह्वत आहेतां आह्वन्त । हन् हिंसागत्योः । २५६ अद्यतन्यां च ॥ २७१ ।। हन्तेर्वधिरादेशो भवति अद्यतन्यां परतः । अवधीत् अवधिष्टां अवधिषुः । 'आत्मनेपदे वा' हन्तेर्वधिरादेशो वा भवति । आझे यमनौ स्वाङ्गकर्मको चेत्यात्मनेपदं भवति । हनः ।।२७२ ।। हन्तेरन्तस्य लोपो भवत्यद्यतन्यां सिच्यात्मनेपदे तथयोः परतः । आहत आहसातां आहसत । अवधिष्ट अवधिषातां अवधिषत ॥ इत्यादिः ।। हु दानादनयोः । सिचि परस्मै स्वरान्तानाम् ॥ २७३ ॥ स्वरान्तानां वृद्धिर्भवति परस्मैपदे सिचि परे । नामिन एव । असार्वधातुक में स्वरादि अगुण प्रत्यय के आने पर धातु के आकार का लोप हो जाता है || २७० ॥ आख्यत् । लिप्— अलिप्त् । व्यवस्थित वा के अधिकार से लिंपादि को आत्मनेपद में अण् होता है और विकल्प से सि होता है। अणु में- अलिपत सिच् में अलिप्त 'घुटन घुटि' इस २४७ सूत्र से सिच् का लोप हो गया है। अलिप्सा अलिप्सत। विचिर्— क्षरण होना । असिचत् । ह्वेञ्-स्पर्धा करना और शब्द करना - बुलाना । २५२ सूत्र से संध्यक्षर धातु को आकारांत होकर २७० से आकार का लोप होकर २६७ से अण् होकर आह्वत् बना । आह्वत । हन्-हिंसा और गति । अद्यतनी में हन् को वध आदेश हो जाता है ॥२७१ ॥ अवधीत् 'आत्मनेपदे वा' ३६९ वे सूत्र से आत्मनेपद में हन् को वध आदेश विकल्प से होता है। “ आझे यमनी स्वाङ्गकर्मकौ च" इस नियम से आत्मनेपद हो जाता है । हन् के नकार का लोप हो जाता है आत्मनेपद में अद्यतनी के सिच् के आने पर ॥ २७२ ॥ आङ् उपसर्ग पूर्वक अट्का आगम होकर आअहत आहत आहसातां आहसत । पक्ष में— अवधिष्ट । इस प्रकार से अदादिगण में अद्यतनी प्रकरण समाप्त हुआ। अद्यतनी में जुहोत्यादि गण प्रारम्भ होता है। हु— दान देना और भोजन करना । परस्मैपद में सिच् के आने पर स्वरांत धातु को वृद्धि हो जाती है || २७३ ॥ नाम को ही वृद्धि होती है । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडन्तः उतोऽयुरुणुस्नुक्षुहुवः ॥२७४॥ युरुणुस्नुक्षुहुवर्जितादेकस्वरादुदन्तात्परमसार्वधातुकमनिड् भवति । अहौषीत् अहौष्टां अहौषुः । अधात् अधातां अधुः । स्थादोरिरद्यतन्यामात्मने । इति इकारादेशः । स्थादोश्च ॥२७५॥ स्थादासंज्ञकयोगंणो न भवति अनिटि सिजाशिषीश्चात्मनेपदे परे । इति गुणनिषेधः । हस्वाचानिट इति सिचो लोप: । अधित अधिषातां अधिषत । अधिथा: अधिषायां अधिद्व । अधिधि अधिष्वहि अधिष्यहि । समस्थित समस्थिषातां समस्थिषत । इति जुहोत्यादिः ।। दिवु क्रीडाविजिगीषादीति । अदेवीत् अदेविष्टां अदेविषुः। स्वरतिसूतिसूयत्यूदनुबन्याच्च ।।२७६ ।। एभ्य: परपसार्वधातुकमनिड् भवति वा । धूङ प्राणिप्रसवे । असोष्ट असोषातां असोषत । असोष्ठा: आसोपाथाम् । नाम्यन्ताद्धातोराशीरद्यतनीपरोक्षास धो ढः ।।२३९ ।।* ____नाम्यन्ताद्धातोराशीरद्यतनीपरोक्षासु धो ढो भवति। असोवं । असोषि असोष्वहि असोष्महि । असविष्ट असविषाताम् । असविषत । दहि दिहि दुहि इत्यादिनानिट् ।। यु, रु, णु, स्नु, क्षु और णु को छोड़कर उकारांत एक स्वर वाली धातु को असार्वधातुक में इद् नहीं होता है ॥२७४ ॥ अहौषीत् अहौष्टां अहौषुः । अधात् । सूत्र २४१ से स्था और दा संज्ञक धातु को आत्मनेपद में अद्यतनी में इकार हो जाता है। अनिट् आशिष् सिच् के परे आत्मनेपद में स्था और दा संज्ञक को गुण नहीं होता है ॥२७५॥ इस सूत्र से गुण का निषेध हो गया है। 'हस्वचानिट:' सूत्र २४३ से सिच् का लोप हो गया। अधित अधिषातां अधिषत । समस्थित समस्थिपाता। इस प्रकार से अद्यतनी में जुहोत्यादि गण समाप्त हुआ है । अद्यतनी में दिवादि गण प्रारंभ होता है। दिवु-क्रीड़ा विजिगीषा आदि अर्थ में है। अदेवीत् अदेविष्टां अदेविषुः । पुञ् षूङ धातु और ऊकारानुबंध धातु से असार्वधातुक में अनिट् विकल्प से होता है ॥२७६ ॥ पूङ् प्राणि प्रसव अर्थ में है। अनिट् पक्ष में—असोष्ट-असोषातां असोषत । असो ध्वं है । नाम्यंत धातु से आशी: अद्यतनी परोक्षा में ध को 'ढ' हो जाता है ॥२३९ ॥ इससे असोवं बना । इट् पक्ष में- असत्रिष्ट असविषातां । “दहिदिहिदुहि इत्यादि" सूत्र से इट् नहीं होता है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ कातन्त्ररूपमाला सेट्स वा ॥२७७॥ नाप्यन्ताद्धातो: परस्य सेटामाशीरद्यतनापरोक्षाणां धकारस्य ढो भवति वा । असविढ्वं असविध्वं । नहेर्द्धः ॥२७८।। नहेर्हकारस्य धो भवति धुयन्ते च । अनासीत् अनाद्धां अनात्सुः । अनात्सी: अनाद्धं अनाद्ध । अनात्सं अनात्स्व अनात्स्म। अनद्ध अनत्सातां अनत्सत । अनदा: अनत्साथां अनवं । अनत्सि अनत्स्वहि अनत्स्महि । इति दिवादिः । स्तुसुधअभ्यः परस्में ॥२७९॥ स्तुसुधूभ्य इडागमो भवति परस्मैपदे सिंचि परे। अस्तावीत् अस्ताविष्टां अस्ताविषुः । धूब् कम्पने । अधावीत् । उदनुबन्धत्वाद्विकल्पेनेट् । आशिष्ट आशिषातां आशिषत । आष्ट आक्षातां आक्षत । अचैषीत् अवैष्टां अचैषुः । अचेष्ट अचेषातां अचेषत। इति स्वादिः । अदितुदिनुदिक्षुदिस्विद्यतिविधतिविन्दतिविनत्तिछिदिभिदिहदिशदिसदिपदिस्कन्दिखिदेर्दात् ।।२८० ॥ एभ्य: षोडशभ्य: परमसार्वधातुकमनिड् भवति । व्यञ्जनान्तानामनिटाम् ।।२८१॥ नाम्यंत धातु से आशी: अद्यतनी परोक्षा में इट् सहित होने पर धकार को ढकार विकल्प से होता है ॥२७७ ॥ असविवं, असविध्वं । अट नह सिच् 'ई' दि। नह के हकार को धुट् अन्त में धकार हो जाता है ॥२७८ ॥ 'अघोघे प्रथम:' से प्रथम अक्षर होकर उपधा को दीर्घ होकर अनात्सीत् अनाद्धां अनात्सुः । आत्मनेपद में--अनद्ध अनत्साता अनत्सत । इस प्रकार से अद्यतनी में दिवादिगण समाप्त हुआ है। अद्यतनी में स्वादिगण प्रारम्भ होता है। परस्मैपद में सिच् के आने पर स्तु, सु और धू धातु से इट् का आगम होता है ।।२७९ ।। अस्तावीत् अस्ताविष्टां । धूञ्-कंपित होना । अघावीत् । उदनुबंध में विकल्प से इट् होता है। अशूच्याप्तौ आशिष्ट आशिषातां । अनिट् पक्ष में आष्ट आक्षातां आक्षत । चिञ्-चयन अर्थ में है। अवैषीत् अचेष्टां अचैषुः । अचेष्ट अचेपातां । इस प्रकार से अद्यतनी में स्वादि गण समाप्त हुआ। अद्यतनी में तुदादिगण प्रारंभ होता है। अद् तुद् नुद् क्षुद् स्विद् विद् विन्द विद् छिद् भिद् हद् शद् सद् पद् स्कंद और खिद् इन सोलह दकारांत धातु से असार्वधातुक में इट् नहीं होता है ।।२८० ॥ परस्मैपद में सिच् के आने पर व्यंजनान्त अनिट् धातु की वृद्धि हो जाती है ॥२८१ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडन्तः व्यञ्जनान्तानामनिटां धातूनां वृद्धिर्भवति परस्मैपदे सिचि परे । नुद व्यथने । अतोत्सीत् अतौत्ता अौत्सुः । अतुत्त अतुत्सातां अतुत्सत । मृङ् प्राणत्यागे । ऋतोऽवृत्रः ।।२८२ ।। वर्जितादेकस्वरादृत: परमसार्वधातुकमनिड् भवति । मदन्तानां च ॥२८३॥ ऋदन्तानां च गुणो न भवति अनिटि सिजाशियोश्चात्मनेपदे परे । अमृत अमृषातां अमृषतां अमुचत् अमुचतां अमुचन्। सिजाशिषोश्चात्मने ।।२८४ ॥ नामिन उपधायाः सिच्यानात्मनेपदे परे आशिषि चानिटि गुणो न भवति कर्तरि विहितायामद्यतन्यां परस्मैपदे । अमुक्त अमुक्षातां अमुक्षत । स्पृशमशकृशतृपिदृपिसृपिभ्यो वा ।।२८५ ।। एभ्य: सिज्वा भवति अद्यतन्यां।। स्पृशादीनां वा ॥२८६॥ स्पृशादीनां स्वरात्पर: अकारागमो भवति वा गुणवृद्धिस्थाने धुटि परे । स्पृश संस्पर्शन ।। अस्त्राक्षीत् अस्पाष्टां' अस्पाक्षुः । अस्पाक्षीत् अस्पार्टा अस्पार्षुः । सण इति सण् । अस्पृक्षत् । मृश आमर्शन ॥ अनाक्षीत् अम्नाष्टां अम्राक्षुः । अमार्षीत् अमार्टा अमाझुः । अमृक्षत् । कृश विलेखने । तुद्—व्यथित होना। अतौत्सीत् अौत्ता अतौत्सुः । आत्मनेपद में वृद्धि नही होने से सिच् का लोप होकर अतुत्त, अतुत्सातां अतुत्सत । मृड्-प्राण त्याग करना। वृङ् वृञ् को छोड़कर एक स्वर वाले ऋकारांत धातु अनिट् होते हैं ॥२८२ ॥ आत्मनेपद में अनिट् में सिच् आशिष के आने पर प्रकारांत को गुण नहीं होता है ॥२८३ ॥ हस्वान्त से स को लोप होता है अमृत अमृषातां अमृषत । मुच्–अमुचत् । आत्मनेपद में सिच् और आशिष के आने पर अनिट् में नामि उपधा को गुण नहीं होता है ॥२८४ ॥ अमुक्त अमुक्षातां अमुक्षत। स्पृश, मृश् कृश् तृप दृप् सृप से परे अद्यतनी में सिच् विकल्प से होता है ।।२८५ ॥ - स्पृश आदि धातु को स्वर से परे गुण वृद्धि के स्थान में धुट के आने पर अकार का आगम विकल्प से होता है ॥२८६ ॥ स्पृश-संस्पर्श करना । गुण होने पर अकार का आगम होने से अस्पाक्षीत् अस्पाष्टां अस्पाक्षुः । वृद्धि होकर अकार का आगम होने पर अस्पाक्षीत् अस्पास अस्पाक्षुः । सण प्रत्यय में---अस्पृक्षत् बना 1 मश-छना। अम्राक्षीत । अमाीत । अमक्षत । कश–विलेखन अर्थ में है-अक्राक्षीत । अकाक्षीत् अकृक्षत् । तृप्—प्रीणन अर्थ में । अत्राप्सीत् । अताप्सीत् 'पुषादित्वात्' अण् होने से अतृपत्' । दृप-हर्ष और मोहन अर्थ में । अद्राप्सीत् । अदाप्सीत् । अदृपन् । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० कातन्त्ररूपमाला अक्राक्षीत् अक्राष्टां अक्राक्षुः । अकार्षीत् अकार्टा अकार्वाः । अकृक्षत् ॥ तृपिदृप्योर्वा ॥ तृप मीणने ॥ अत्राप्सीत् अत्राप्तां अत्राप्सुः 1 अताप्सीत् । पुषादित्वादण भवति । अत्रपत् । दृप हर्षमोहनयो: । अद्राप्सीत् अद्राप्ताम् अद्राप्सुः अदाप्सीत् । अदृपत् एतौ पुषादी ! सृप्ल वि गतौ । असाप्सीत् । असाप्सीत् । असृपत् । इति तुदादिः। इरनुबन्धाद्वा ।।२८७ ॥ इरनुबन्धाद्धातोर्वा अण् भवति । कर्तर्यद्यतन्या परस्मैपदे परे । अरुधत् अरुधतां अरुधन् । अरौत्सीत् अरौद्धो अरौत्सुः । अरौत्सी: अरौद्धं अरौद्ध । अरौप्सं अरौत्स्व अरौत्स्म । अणभावपक्षे सिन् । राधिरुधिनुधिक्षुधिबन्धिशुधिसिध्यतिबुध्यतियुधिव्यधिसाधेर्धात् ।।२८८ ।। एभ्य: परमसार्वधातुकमनिड् भवति । इत्यनेन पूर्वोदाहरणेषु नेट। युजिरुजिरञ्जिमुजिभजिभञ्जिसञ्जित्यजिप्रस्जियजिमस्जिजिनिजिविजिष्वओर्जात् ॥२८ ॥ एभ्यः परमसार्वधातुकमनिट् भवति । अभुक्त अभुक्षाता अभुक्षत । इरनुबन्धाद्वेत्यण् । अयुजत् अयुजतां अयुजन् । अणभावे अयोक्षीत् अयोक्तां अयोक्षुः । अयुक्त अयुक्षाता अयुक्षत । इति रुधादिः । तन विस्तारे । अतनीत अतनिष्ट अतनिषः । अतनिष्ट अतनिधाता अतनिषत। अमनिष्ट अमनिषाता अमनिषत । अकार्षीत् अकाष्टी अकार्षुः । अकृत अकृषातां अकृषत इत्यादि । इति तनादिः । अझैषीत् अष्टां अषुः । अक्रेष्ट अक्रेषातां अक्रेषत। ना निर्दिष्टमनित्यत्वात्।। - - ये दो धातु पुषादिगण की हैं । सप्ल-गति अर्थ में है। अस्माप्सीत् । असाप्सीत् । असृपत् । इस प्रकार से अद्यतनी में तुदादिगण समाप्त हुआ। अद्यतनी में तुदादि गण प्रारंभ होता है। कर्ता से विहित अद्यतनी के परस्मैपद में इर् अनुबंध धातु से विकल्प से अण् प्रत्यय होता है ॥२८७ ॥ ___ रुधिर्-आवरण करना । अरुधत् अरुधातां । अण के अभाव में सिच, ईन, वृद्धि होकर अरौत्सीत् अरौद्धा अरौत्सुः । राध् रुध् क्रुध् क्षुध् बन्ध शुध् सिधु बुध् युध् व्यध और साथ् इन धकासंत धातु से असार्वधातुक में अनिट् हो जाता है ॥२८८ ॥ युज् रुज् रञ् भुज् भज् भङ्ग् सञ् त्यज् भ्रस्ज् यज् मस्ज् सृज् निज् विज् और स्वच् इन जकारांत धातु से परे असार्वधातुक में इट नहीं होता है ॥२८९ ॥ . अभुक्त अभुक्षातां अभुक्षत । इन सभी धातुओं में इद् का अनुबंध हो जाने से विकल्प से अण् होता है । अयुजत् । अण् के अभाव में अयौक्षीत् अयोक्तां अयोक्षुः । आत्मनेपद में-आयुक्त अयुक्षातां अयुक्षत। इस प्रकार से अद्यतनी में रुधादिगण समाप्त हुआ 1 अद्यतनी में तनादिगण प्रारंभ होता है । तनु-विस्तारे--अतनीत् अनिष्टां । अतनिष्ट। मनुङ् अवबोधन अर्थ में अमनिष्ट। कृ-- अकार्षीत् । आत्मने अकृत। - - - ---- Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २६१ श्लोकः ऋवृड्या सनीड् वा स्यादात्यने च सिजाशिषोः । संयोगादेतो वाच्यः सुद्धसिद्धो बहिर्भवः ॥१॥ संयोगादे: ऋत:-स्मृ आध्याने इत्यस्य यथा। तर्हि 'सुड् भूषणे संपर्युपात्' इत्यनेन कृत्री धातो: सुटि प्रत्यये समागते सति संस्कृ उपस्कृ इत्यत्र संयोगो वर्तते, तत्रापि इट् प्रत्ययो भविष्यति विकल्पेन; नैवं यत: कारणात् सुइसिद्धो बहिर्भवः । सुट् प्रत्यय आगतोऽपि अनागत इव वर्तते । तत्कारणगर्भितं विशेषणमाह-कथंभूत: सुट् ? बहिर्भवो बहिरङ्गः । असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे इति न्यायादित्यर्थः । इति इड्विकल्पेन । पुनरपि, अदृबृजोपि वा दी? न परोक्षाशिषोरिट। न परस्मै सिचि प्रोक्त इति योगविभञ्जनात् ।।२।। इति इटो दीघों विकल्पेन । वृङ् सभक्तौ । अवृत अवृषातां अवृषत । अवरिष्ट अवरिषातां अवरिषत । अवरीष्ट अवरीषातां अवरीषत । ग्रहीङ् उपादाने । इटो दी? अहेरपरोक्षायाम्॥२९०॥ ग्रहे: परस्य इटो दीघों भवति अपरोक्षायां । अग्रहीत् अग्रहीष्टां अग्रहीषुः । अग्रहीष्ट अग्रहीषातां अग्रहीषत । इति क्रयादिः । इस प्रकार से तनादिगण समाप्त हुआ। अद्यतनी में क्रयादिगण प्रारंभ होता है। क्री-अक्रैषीत् अक्रैष्टां । आत्मनेपद में—अक्रेष्ट अक्रेधातां । अर्थ—ऋकारांत वृड् वृह्य धातु को सन के आने पर, आत्मनेपद में एवं सिंच आशिष के आने पर इट् विकल्प से होता है। संयोगादि प्रकारांत से-स्मृ—धातु आध्यान---स्मरण अर्थ में है। ऐसे ही "सुड् भूषणे संपर्युपात्" सूत्र से सं, परि, उप उपसर्ग के योग में कृ धातु से सुट् प्रत्यय के आने पर 'संस्कृ' उपस्कृ इस प्रकार कृ धातु भी संयोगादि ऋदन्त बन गई । वहाँ पर भी विकल्प से इट् होने वाला था। किन्तु नहीं हुआ क्योंकि 'सुडसिद्धो बहिर्भव:' इस श्लोकार्थ के अन्तिम चरण के नियम से सुट् प्रत्यय होने पर भी नहीं हुये के समान है। इस कारण से गर्भित विशेषण को कहते हैं । सुटू कैसा है ? बाहर में होने वाला बहिरंग कहलाता है। 'अन्तरंग के होने पर बहिरंग असिद्ध हो जाता है' इस न्याय से ऐसा अर्थ होता है। इस प्रकार से यहाँ इद् विकल्प से होता है । पुनरपि । श्लोकार्थ-वृङ् वृञ् को प्रकारांत धातु से परोक्षा और आशिष के इट् को विकल्प से दीर्घ हो जाता है। इस नियम से विकल्प से इट् दीर्घ हो जाता है। वृट् संभक्ति अर्थ में है। जब इद् नहीं हुआ तब अवृत अवृषातां अवृषत। इट् होने पर दीर्घ नहीं हुआ। अवरिष्ट । इट् को दीर्घ करने पर अवरीष्ट अवरीषातां अवरीषत । गृहीञ्–ग्रहण करना । अपरोक्षा में ग्रह धातु से परे इद को दीर्घ हो जाता है ॥२९० ॥ अग्रहीत् अग्रहीष्टा अग्रहीषुः । अग्रहीष्ट । इस प्रकार से अद्यतनी में क्यादि गण समाप्त हुआ। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ कातन्त्ररूपमाला श्रितुनुकमिकारितान्तेभ्यश्चण् कर्तरि ।।२९१ ॥ एभ्यश्चण् भवति कर्तर्यद्यतन्यां परत: । चण् परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु ।।२९२ ।। चणादिषु धातोर्विचनं भवति । अभ्यासस्यादिव्यञ्जनमवशेष्यमिति अनादेर्लोय: । भज श्रिञ् सेवायां । अशिश्रियत् । अदुद्रुवत् अदद्वतां । असुनुवत् । कमु कान्तौ । कवर्गस्य चवर्गः ॥२९३ ।। अभ्यासकवर्गस्य चवर्गो भवति आन्तरतम्यात् । अचकमत् । इति अभ्यासो धातुवत् । पक्षे अचीकमत्। इन्यसमानलोपोपधाया ह्रस्वश्चणि ॥२९४॥ समानलोपवर्जितस्य लघ्वन्तस्योपधाया हरवो भवति लघुनि धात्वक्षरे इनि चपरे । दी| लघोरस्वरादीनाम्॥२९५ ।। समानलोपवर्जितस्य लम्वन्तस्य दीर्घो भवति लघुनि धात्वक्षरे इनि चण्परे । कारितस्य लोप: । अचूचुरत् अचूचुरतां अवूचुरन् । असमानलोपोपधाया इति किम् ? क्षिप क्षान्तौ। अचिक्षिपत् । क्षल शौचे । अचिक्षलत्। -- : ..: -:. अद्यतनी में चुरादि गण प्रारम्भ होता है । अद्यतनी से कर्ता में श्रि, द्रु नु, कम् और कारित प्रत्ययान्त धातुओं से ‘चण्' प्रत्यय होता है ॥२९१ ॥ अट् श्रि दि। चण् प्रत्यय, परोक्षा, ये क्रीयित और सन्नत के आने पर धातु को द्वित्व होता है ॥२९२ ।। अ श्रि श्रि त् 'अभ्यासस्यादिव्यञ्जनमवशेष्य' सूत्र से अभ्यास को आदि व्यंजन शेष रहकर अन्त व्यञ्जन का लोप भज् श्रि--सेवा अर्थ में । इवर्ण को इय होकर चण् का अकार शेष रहकर अशिश्रियत् बना । द्रु–अदुद्रुवत् । अदुद्रुवर्ता अदुद्रुवन् । असुस्रुवत् । कमु–कांत होना। अट् क कम् अत् क्रम से अभ्यास के कवर्ग को चवर्ग हो जाता है ॥२९३ ॥ अचकमत्। समान लोप वर्जित लघ्वन्त उपधा को लघु धात्वक्षर इन् चण् के आने पर हस्व हो जाता है ॥२९४॥ लघु धात्वक्षर इन् चण् के आने पर समान लोप वर्जित लघ्वन्त को दीर्घ हो जाता है ॥२९५ ॥ कारित प्रत्यय का लोप हो जाता है। चुर् चुर् इन् चण् दि = अचूचुरत् । समान लोप वर्जित लध्वन्त उपधा को ऐसा क्यों कहा ? क्षिप-क्षांति अर्थ में है। अचि क्षिपत् । क्षल्-अचि क्षलत् । ---: Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः अलोपे समानस्य सन्वल्लघुनीनि चण्परे ॥२९६ ॥ समानस्यालोपे सति लघुनि धात्वक्षरे अभ्यासस्य सन्वत्कार्यं भवति इनि चण्परे । किं सन्वत्कार्य ? सन्यवर्णस्य ॥२९७ ॥ अभ्यासावर्णस्य इत्वं भवति सनि परे । अपीपलत् अपीपलता अपीपलन् । अलोपे समानस्येति किं ? अदन्ताः कथं वाक्यप्रबन्ये इत्यादयः । धातोश ॥२९८ ।। अनेकाक्षरस्य धातोरन्ते स्वरादेलोपो भवति इनि परे । अचकथत् अचकथतां अचकथन् । एवं रच प्रयत्ने । व्यररचत् व्यररचता व्यररचन् । इत्यादि । समानस्येति किम् ? पटुमाचष्टे पटुं करोति तत्करोति सदाचष्टे इति इन् . परन् । वृद्ध समारम्लोप: । रूप रूपक्रियायां । व्यरुरूपत् व्यरुरूपतां व्यरुरूपन्। लघुनि धात्वक्षरे इति किं ? तर्ज भर्ल्स सन्तर्जने। अततर्जत अततजेंतां अततर्जन्त । संयोगविसर्गानुस्वारपरोऽपि गुरु: स्याद् ह्रस्व: । अबभर्त्सत अबभर्सेताम् अबभर्त्सन्त । वृङ् वरणे । अवीवरत् अवीवरतां अवीवरन् । अततन्त्रत् ।। स्वरादेर्द्वितीयस्य ॥२९९ ॥ स्वरादेर्धातोर्द्वितीयावयवस्य द्विर्वचनं भवति । तत्र च । न नबदरा: संयोगादयोऽये ॥३०॥ स्वरादेर्धातोर्दियीयावयवस्य संयोगादयो नबदरा न द्विरुच्यन्ते न तु ये परे । अर्च पूजायां । आर्चिचत् आर्चिचतां आर्चिचन् । एवं अई पूजायां । आर्जिहत् । समान के अलोप होने पर लघु धात्वक्षर के आने पर अभ्यास को सन्वत् कार्य होता है इन् चण् के आने पर ॥२९६ ॥ सन्वत् कार्य क्या है ? सन् के आने पर अभ्यास के अकार को इकार हो जाता है ॥२९७ ॥ अपीपलत् । अलोप में असमान को ऐसा क्यों कहा ? अदन्त धातु में 'कथ'-कहता है । इन् के आने पर अनेकाक्षर धातु के अंत स्वर का लोप हो जाता है ॥२९८ ॥ अचकथत् । रच-प्रयल करना-अररचत्-- व्यररचत् । समानस्य ऐसा क्यों कहा ? पटुं आवष्टे, पटुं करोति है “तत्करोति तदाचष्टे इन्" इस सूत्र से इन् होकर द्वित्व होकर अपीपटत् । वृद्धि में संध्यक्षर का लोप हो जाता है 1 रूप-धातु रूप क्रिया अर्थ में हैं । व्यरु रूपत्--अभ्यास को ह्रस्व हुआ है । लघु धात्वक्षर में ऐसा क्यों कहा है ? तर्ज भर्ल्स-संतर्जन करना अततर्जत । 'संयोगविसर्गानुस्वार परोपि' से गुरु ह्रस्व हो गया अवभर्त्सत । वृङ्वरण अर्थ में है। अवीवरत् । अततम्बत् । स्वरादि धातु के द्वितीय अवयव को द्वित्व होता है ॥२९९ ॥ और उसमें स्वरादि धातु के द्वितीय अवयव के संयोगादि 'न ब द र' अक्षर द्वित्व नहीं होते हैं और य प्रत्यय के परे भी द्वित्व नहीं होते हैं ॥३०० ॥ अर्च-पूजा करना । अर्च च त् ‘सन्यवर्णस्य' सूत्र २९७ से इकार होकर आर्चिचत् । अर्हपूजा योग्य है--आर्जिहत् । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ कातन्यरूपमाला न शासृनुबन्धानाम् ।।३०१ ।। शास ऋदनुबन्धानां चोपधाया ह्रस्वो न भवति इनि चण्परे । अशशासत् अशशासताम् अशशासन् । ढौक तौक गतौ । अडुढौकत अडुढौकेतां अडुढौकन्त । अतुतौकत । शासेरिति किं ? आङः शासूङ् इच्छायां । आशीशसत् भ्राज भाष् दीप्तौ । भाषदीपजीवमीलपीडकणवणभणश्रणमणहेठलुपां वा ॥३०२ ॥ एषामुपधाया ह्रस्वो भवति वा इनि चण्परे । भाष् व्यक्तायां वाचि । दीप दीप्तौ । जीव प्राणधारणे । मील निमेषणे । पीड गहने । कण वण भण श्रण मण शब्दे । हेठ गतौ । लुप्ल छेदने अविप्रजत् अबिभ्रजतां अबिभ्रजन् । अबिभ्रजत । अविभ्राजत् अबभ्राजत । अबिभ्रशत् । अबिभ्रशत । अबभ्राशत् । अबभ्राशत। अबिभषत। अत्रभाषत। अदीदिपत्। अदिदीपत्। अजीजिवत् । अजिजीवत्। अमीमिलत् । अमिमीलत् । अपिपीडत् । अपीपिडत् । अचीकणत् । अचकाणत् । अवीवणत् । अनवाणत् । अबीभणत् । अबभाणत् । अमीमणत् । अममाणत् । अशीश्रणस् । अशश्राणत् । अजीहेठत् । अजिहेठत् । अलूलुपत् अलुलूपत् । चिति स्मृत्यां । अचिचिन्तत् । स्फुट परिहासे। शिट्परो घोषः ॥३०३॥ शिट: परो घोषोऽवशेप्यो भवति । शिटो लोप इत्यर्थः । अपुस्फुटत् । लक्ष दर्शनाङ्कनयोः । अललक्षत् । भक्ष अदने । अबभक्षत् ! कुट्ट अनृतभाषणे। अधुकुट्टत् । लड उपसेवायां । अलीलडत् । मिदि तिल स्नेहने। अमिमिन्दत् । अतितिलत्। ओलड़ि उत्क्षेपे। अललण्डत् । पीड अवगाहने। शास और ऋदनुबंध की उपधा को इन् चण् के आने पर ह्रस्व नहीं होता है ॥३०१ ॥ अशशासत् । ढीकृ, तौकृ-गति अर्थ में हैं। अडुद्वौकत अतुतौकत । शासे: ऐसा क्यों कहा ? आयूर्वक शासूङ् धातु-इच्छा अर्थ में है। आशीशसत् । भ्राज् भ्राष्-दीप्ति अर्थ में हैं। भ्रण भाष भाष, दीप, जीव, मील, पीड़ कण, वण, भण, श्रण, मण, हेठ और लुप इन धातु की उपधा को इन् चण् के आने पर विकल्प से ह्रस्व होता है ॥३०२ ।। भाष-स्पष्ट बोलना । दीप-दीप्त होना। जीव-प्राणधारण करना । मील-वंद करना । पीड–गहन। कण वण भण श्रण मण-शब्द करना। हेठ-गमन करना । लुप्ल-छेदन करना। प्राज्-अबिभ्रजत् । अबभ्राजत् । अबभ्राजत । अबिभ्रषत । अबभ्राषत् । अबिभ्राषत् । अबिभाषत् अबभाषत । अदिदीपत् । अदीदिपत् । अजीजिवत् अजिजीवत् । अमीमिलत् । अमिमीलत् । अपिपीडत, अपोपिडत् । अचीकणत् । अचकाणत् । अवीवणत् अववाणत् । अन्त्रीभणत्, अबभाणत् । अमीमणत् अममाणत् । अशिश्रणत् । अशश्राणत् । अजीहेठत् अजिहेठत् । अलूलुपत् अलुलूपत् । चिति-स्मृति अर्थ में है। अचिर्चितत् । स्फुट-खिलना। शिट् के परे अघोष अवशेष रहता है ॥३०३ ॥ अर्थात् शिट् का लोप हो जाता है । अपुस्फुटत् । लक्ष-दर्शन और अंकन अर्थ में है। अललक्षत् । भक्ष- भोजन करना । अबभक्षत् । कुट्ट-झूट बोलना । अनुकुट्टत । लड्-उपसेवा अर्थ में--अलीलडत् । मिदि और तिल-स्नेह करना। अमिमिन्दत् । अतितिलत्। ओलडि-उत्क्षेपण करना--अललण्डत् । पीड-अवगाहन करना अपीपिडत् । नट-अवस्यंदने-अनीनटत् । वध-संयमन करना। अवीबधत् । बुद् छुट् कुट-छेदन करना। अचूचुटत् अचूछुटत् अचूकूटन् । पुट् चुट-अल्पीभाव अर्थ में है। अपूपुटत् । अचूचुटत् । मुट्-चूर्ण करना, अमृमुटत् । घट-चलना, अजीघटत्। छद, पद, संवरण करना अची छदत् Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: २६५ अपीपिंडत् । नट अवस्यन्दने । अनीनटत् । बध संयमने । अबीबधत् । चुट छुट कुट छेदने । अचूचुटत् । अनूछुटत् । अचूकुटत् । पुट चुट अल्पीभावे । अपूपुटत् । अचूचुटत् । मुट चूर्णने । अमूमुटत् । घट चलने । अजीघटत् । छद पद संवरणे। अचीछदत् । असीषदत् । क्षिप क्षान्तौ । अनिक्षिपत् । नक्क धक्क पिशि नाशने। अननक्कत् । अदधक्कत अपिपिंशत् । चक्क चुक्क व्यथने । अचचक्कत् अचुचुक्कत् । क्षल शाँचे । अविक्षलत् चुद संचोदने। अचूचुदत् । गुडि सुजि जसि पल रक्षणे। अजुगुण्डत् । असुसुञ्जत । अजजसत् अजजंसतां अजजंसन् । अपीपलत् । तिल प्रतिष्ठायां । अतीतिलत्। तुल उन्माने । अतूतुलत् मूल रोहणे। अमूमुलत् । मान पूजायणं । अमीमनत् । श्लिष श्लेषणे । अशिश्लिषत् । जप मानसे । अजीजपत् । ज्ञप मानुबन्धे। अजिज्ञपत् । व्यय क्षये। अविव्ययत् । चूर्ण संकोचने । अचुचूर्णत् । पूज पूजायां 1 अपुपूजत् । अर्कईड स्तवने । आर्चिक्कत् । ऐडिडत् । शुठ आलस्ये । अशूशुठत् । शुठि शोषणे। अशुशुण्ठत् । पचि विस्तारवचने । अपपञ्चत् । तिज निशामने ।. अतीतिजत । वर्ध छेदनपरणयोः। अववर्धत् । कबि आच्छादने। अचकंबत । लबि तबि अटने। अलुलुम्बत् । अनुतुम्नत् । म्रक्ष म्लक्ष रक्षणे । अमम्रक्षत् । अमम्लक्षत्। इल प्रेरणे । ऐलिलत् । लुण्ट स्तेये। अलुलुण्टत् । छद वामने । अचछर्दत् । गुडि वेष्टने। अजुगुण्डत्। मर्द अभिकाङ्क्षायां । अजगर्दत् । रुष रोषणे । अरूरुषत् । मडि भूषायां हर्षे च । अममण्डत् । श्रण दाने । अशिश्रणत् । भडि कल्याणे। अबभण्डत् । तत्रि कुटुम्बधारणे। अततन्त्रत् । मत्रि गुप्तभाषणे। अममन्त्रत् । विद संवेदने । अवीविदत् । दंश दशने । अददंशत् । रूप रूपणे। अरुरूपत् । भ्रूण आशायां । अबुभ्रूणत् । शठ श्लाघायां । अशीशठत् । स्यम वितकें। असिस्यमत् । गरी उद्यमे । अजूगुरत् । कुत्स अवक्षेपणे। अचुकुत्सत् । कूट प्रमादे । अचूकुटत् । वश्च प्रलंभने । अवदश्चत् । मद तृप्तियोगे । अमीमदत् । दिव परिकूजने । अदीदिवत् । कुस्म कुस्मयने । अचुकुस्मत् । चर्च अध्ययने । अचचर्वत् । कण निमीलने । अचीकणत् । जसु ताडने। अजीजसत् । पष बन्धने । अपीपषत् । अम सेगे। आमिमत् । चट स्फुट भेदने । अचीचटत् अपुस्फुटत् । घुषिर् शब्दे । अजूघुषत् । लस शिल्पयोगे । अलीलसत् । भूप अलारे । अबूभुषत। रक लक आस्वादने । अरीरकत् । अलीलकत् । लिगि विचित्रीकरणे । अलिलिङ्गत् । मुद संसर्गे। अमूमुदत् । मुच प्रमोचने। अमूमुचत् । ग्रस कबलग्रहणे । अजिनसत् । पूरी आप्यायने । अपूपुरत् । असीषदत् । क्षिप-क्षांति करना, अविक्षिपत् । नवक धक्क पिशि-नाश होना, अननक्कत् । अदधक्कत । अपि-पिंशत् । चक्क चुक्क-व्यथित होना, अचचक्कत् । अचुचुक्कत् क्षण शुद्ध होना, अचिक्षलत्। चुद-संचोदन करना । किसी कार्य के लिये प्रेरित करना अचूचूदत् । गुडि सुजि जसि पल-रक्षण करना अजुगुण्डत् । असुसुजत् । अजजंसत् । अपीपलत् । तिल-प्रतिष्ठा अर्थ में हैं, अतीतिलत् । तुल-उत्मान करना तौलना अतूलुलत् । मूल-रोहण करना, अमुमूलत्। मान-पूजा अमीमनत् । श्लिष्-आलिंगन करना, शिश्लिषत् । जप-मन में जपना, अजीजपत् । ज्ञप, मान-बंध होना, अजिज्ञपत् । व्यय-क्षय होना, अविव्ययत् । चूर्ण-संकोचन करना, अचुचूर्णत् । पूज-पूजा करना, अपुपूजत् । अर्क ईड-स्तुति करना, आर्चिकत् । ऐडिडत् । शुठ-आलस्य करना अशू-शुठत। शुङि-शोषण करना, अशुशुण्ठत् । पचि-विस्तार करना, अपपञ्चत् । तिज-निशागन करना, अतीतिजत् । वर्ध-छेदन पूरण करना, अवबर्धत् । कुरि-आच्छादन करना, अधुकुम्बत् । लुबि तुबि-अर्दन करना, अलुलुंवत् अतुतुम्वत् । म्रक्ष म्लक्ष-रक्षण करना, अमम्रक्षत् । अमम्लक्षत् । इल-प्रेरणा ऐलिलित, लुण्ट्-चुराना, अलुलुण्ठत् । छर्द बमन करना अचछर्दत् । गुडि-वेष्टित करना, अजुगुण्डत् । मर्द-अभिकांक्षा करना। अदगर्दत् । रुष-रूष्ट होना अरूरुषत् । मङि-भूषा और हर्षित होना, अममण्डत् । श्रण-दान देना, अशिश्रणत् भडि-कल्याण करना, अबभण्डत् । तत्रि-कुटुम्ब धारण करना Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ कातन्त्ररूपमाला इतः परमदन्ताः कथ्यन्ते । कथ वाक्यप्रबन्धने । अचकथत् । गण संख्याने । अजगणत् । पठ वट ग्रन्थे । अपपठत् । अववटत् । रह त्यागे । अररहत् । पद गतौ। अपपदत् । कल गतौ संख्याने च । अचकलत् । मह पूजाणां । अममहत् । स्पृह ईप्सायां । अपस्पृहत् । शूच पैशुन्ये । अशुशूक्त् । कुमार क्रीडायां । अचुकुमारत् । गोम् उपदेहे । अजुगोमत् । गवेष मार्गणे । अजगवेषत् | भाज पृथक्कर्मणि । अबभाजत् । स्तेन चौर्ये । अतिस्तेनत् । परस्मैभाषा। आगर्वादात्मनेपदी । पद गतौं । अपपदत अपपदेतां अपपदन्त । अपपदथाः अपपदेथां अपपदध्वं । अपपदे अपपदावहि अपपदामहि । मृग अन्वेषणे । अममृगत | कुह विस्मापने अचुकुहत । शूर वीर विक्रान्तौ । अशुशूरत। अविवीरत। स्थूल परिबृंहणे अतुस्थूलत । अर्थ उपयाच्ञायां । आर्तिथत संग्राम संयुद्धे । अससंग्रामत् । गर्व माने। अजगर्वत् । आत्मने भाषा ॥ मूत्र प्रस्नवणे । अमुमूत्रत् । पार तीर कर्मसमाप्तौ अपपारत् । अतितीरत् । चित्र विचित्रीकरणे । अचिचित्रत। छिद्र कर्णभेदे । अचिछिद्रत अन्य दृष्ट्युपसंहारे । आन्दधत् । दण्ड दण्डनिपातने । अददण्डत् । सुख दुःख तत्क्रिययोः । असुसुखत् । अदुदुःखत् । रस आस्वादनस्नेहनयोः । अररसत् । व्यय वित्तसमुत्सर्गे अवव्ययत् । वर्ण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचने अववर्णत् । पर्ण हरितभावे | अपपर्णत् । अघ पापकरणे आजिघत् । इति चुरादयः । अततन्त्रत् । मत्रि गुप्त भाषण करना अमभन्त्रत् । बिद-जानना अवीविदत् । दंश-दशना, अददंशत् । रूप- देखना । अरूरुपतं । भ्रूण- आशा करना अबुभ्रूणत् । शट- श्लाघा अशीशठत् । स्यम्-वितर्क करना, असिस्यमत् । गूरा- उद्यम करना अजुग्रत् । कुत्स अवक्षेपण करना, निन्दा अनुकुत्सत् । कूट कपट-प्रमाद करना, अचुकूटत् । वञ्चनगना, गीत दिव-परिकूजन करना, अदीदिवत् । कुस्म कुस्मयने आश्चर्य करना । अचुकुरमत् । चर्च - अध्ययन करना, अचचर्चत् । कण-निमीलित होना एक आँख बन्द कर निशाना करना। अचीकणत् | जसुताडित करना, अजीजसत् । पष-बन्धन करना, अपीपवत् । अम रोगी होना, आमिमत् । चट, स्फुट-भेदन करना, अचीचटत् अपुस्फुटत् । घुषिर्-शब्द करना, अजूघुषत् । लस-शिल्प योगे, अलीलसत् । भूष- अलंकृत होना, अबुभूषत् । रक लक- आस्वादन करना, अरीरकत् अलोलकत् । लिगि विचित्रीकरण, अलिलिंगत् । मुद-संसर्ग, अमूमुदत् । मुच् छूटना, अमूमुचत् । ग्रस-ग्रास खाना, अजिग्रसत् पूरी वृद्धिंगत होना, अपूपुरत् । इससे आगे अकारांत कहे जाते हैं कथ कहना, अचकथत्, गण-संख्या करना, अजगणत् । पठ वट-ग्रन्थ पढ़ना, अपपठत् अवचटत् रह-त्याग करना, अररहत् । पद-गमन करना, अपपदत् । कल-गति और संख्या करना, अचकलत् । मह — पूजा करना, अममहत् । स्पृह — इच्छा करना, अपस्पृहत् । शुव्– पैशुन्य करना, अशुश्चक कुमार क्रीड़ा करना, अचूकुमारत् । गोम - उपदेह करना, अजुगपत् । गवेष - मार्गण करना, अजवगवेषत् । भाजु, पृथक् क्रिया में है, अबभाजत् । स्तेन—चोरी करना अतिस्तेनत् । यहां तक परस्मैपद हुआ। आगे गर्वपर्यंत आत्मनेपदी हैं। पद— गति अर्थ में, अपपदत। अपपदेतां अपपदन्त । मृग अन्वेषण करना, अममृगत | कुह - विस्मापन करना, अचुकुहत 1 शूर वीर विक्रांति अर्थ में है, अशुशुरत अविवरत । स्थूल परिबृंहण होना, अतुस्थूलत । अर्थ- पास जाकर माँगना आर्तिथत संग्राम-युद्ध करना, अससंग्रामत गर्व - मान करना, अजगर्वत । यहाँ तक आत्मनेपदी हुई हैं । मूत्र प्रस्रवण करना, अमुमूत्रत् 'पार, तीर — कार्य की समाप्ति, अपपारत् । अतितीरत् । चित्र-विचित्रीकरण, अचिचित्रत् । ' छिद्र - कर्ण भेदन करना, अचिछिद्रत अंथ-दृष्टि का उपसंहार आन्दधत् । दण्ड -- दण्डे से मारना, अददण्डत् । सुख-सुखी होना, दुःख-दुःखी होना, असुसुखत् । अदुदुःखत् । रस-आस्वादन करना, स्नेह करना, अररसत् । व्यय- धन त्याग करना, अवव्ययत् । वर्ण-वर्ण, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: २६७ मास्म भूत् । मास्मैधिष्ट । मास्म पाक्षीत् मास्म पाक्तां मास्म पाक्षुः मास्म पाक्षी: मास्म पाक्तं मास्म पाक्त मास्म पाक्षं मास्म पाक्ष्व मास्म पाक्ष्म। मास्म पक्त मास्म पक्षातां मास्म पक्षत । भास्म पक्था: मास्म पक्षायां मास्म पग्ध्वं । मास्म पक्षि मास्म पक्ष्वहि मास्म पक्ष्महि । मा भूत् । मैधिष्ट । मा पाक्षीत् । मा पक्त । इति अद्यतनी समाप्ता। परोक्षा ॥३०४॥ चिरातीते काले परोक्षा विभक्तिर्भवति । अक्षणां पर: परोक्षं । सम्प्रति इन्द्रियाणामविषय इत्यर्थः । चण परोक्षाचेक्रोयितसनन्तेषु द्विर्वचने सति । भवतेरः ॥३०५॥ भवतेरभ्यासस्य अकारो भवति परोक्षायां । आगमादेशयोरागमो विधिर्बलवान् । इति गुणो न भवति । बभूव बभूवतुः बभूवुः । इडागमो सार्वधातुकस्यादिव्यञ्जनादेरिति व्यञ्जनादाविडागम: । बभूविभ बभूवथुः बभूव । बभूव बभूविव बभूविम।। नाम्यादेर्गुरुमतोऽनृच्छः ॥३०६ ।। ऋच्छ इति वर्जितानाम्यादेर्गुरुमतो धातोरेकस्वरादाम् भवति परोक्षायां । - - - - - - क्रिया, विस्तार और गुण के अर्थ में है । अववर्णत् । पर्ण-हरित भाव में अपपर्णत् । अघ-पाप करना, आजिधन् । इस प्रकार से अद्यतनी में चुरादिगण समाप्त हुआ। मा और मास्म के योग में अद्यतनी में अट् का आगम नहीं होता है जैसे—मास्मभूत् । मास्म ऐधिष्ट । मास्म पाक्षीत् । मास्म पाक्तां । मास्म पाक्षुः । इत्यादि । इस प्रकार से अद्यतनी प्रकरण समाप्त हुआ । अथ परोक्षा प्रकरण प्रारम्भ होता है। चिरकाल के अतीत काल में 'परोक्षा' विभक्ति होती है ॥३०४॥ अक्ष्णां परे = परोक्षं—इन्द्रियों से जो परे है वह परोक्ष है । अर्थात् वर्तमान काल में जो इन्द्रियों का विषय नहीं है। भू अट् अतुस् उस् । "चण् परोक्षा चेक्रीयितसत्रंतेषु” इस सूत्र से द्वित्व करने पर भू भू अ । ___परोक्षा में भू के अभ्यास को अकार हो जाता है ॥३०५ ॥ आगम और आदेश में आगम विधि बलवान् होती है। इससे गुण नहीं होता है। अभ्यास को तृतीय अक्षर हो जाता है। बभूव, बभूवतुः बभूवुः । 'इडागमो सार्वधातुकस्यादिव्यञ्जनादेरिति' इस सूत्र से व्यञ्जन की आदि में इट् का आगम हो जाता है । बभूविथ बभूवथुः बभूव, बभूव बभूविव, बभूविम। ऋच्छ को छोड़कर नाम्यन्त, गुरुमान् एकस्वर वाली धातु से परीक्षा में 'आम्' होता है ॥३०६ ॥ परोक्षा में आम के बाद कृ धातु का प्रयोग किया जाता है ॥३०७ ॥ एधाम् कृ कृए -- - . Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 1 1: २६८ कातन्त्ररूपमाला आमः कृञनुप्रयुज्यते ॥ ३०७ ॥ आयते द्विर्वचनं । ऋवर्णस्याकारः ||३०८ ॥ अभ्यास ऋवर्णस्याकारो भवति । सर्वत्रात्मने ॥ ३०९ ॥ सर्वेषां धातूनां गुणो न भवति परोक्षायामात्मनेपदे सर्वत्र । अधाञ्चक्रे एधाञ्चक्राते एधाञ्चक्रिरे । कृञोऽसुटः ||३१० ॥ असुटः कृञः परोक्षायां थलि चानिड् भवति । एधाञ्चकृषे एधाञ्चक्राथे एधाञ्चकृदवे । एधानक्रे एधाञ्चकृवहे एधाञ्चकृमहे । असु भुवौ च परस्मै ॥ ३११ ।। आमन्तस्यासु भुवावप्यनुप्रयुज्यते परस्मैपदे परे परस्मैपदं चातिदिश्यते । एधामास एधामासतुः एथामासुः । एथामासिथ एधामासथुः एधामास । एथामास एधामासिव एधामासिम एधांबभूव एघांबभूवतुः एधांबभूवुः । अस्योपधायामित्यादिना दीर्घः । पपाच । परोक्षायां च ॥ ३१२ ॥ सर्वेषां धातूनां गुणो न भवति परोक्षायां परस्मैपदे द्वित्वबहुत्वयोः परतः । अस्यैकव्यञ्जनमध्येनादेशादेः परोक्षायाम् ।।३१३ ॥ अनादेशादेर्धातोरेकव्यञ्जनमध्यगतस्यास्य एत्वं भवत्यभ्यासलोपश्च परोक्षायामगुणे | पेचतुः पेचु । अभ्यास के ऋ वर्ण को अंकार हो जाता है ॥ ३०८ ॥ आत्मनेपद में परोक्षा में सभी धातु को गुण नहीं होता है ॥ ३०९ ॥ एघांचक्रे । आते इरे । एधांचक्राते एधांचक्रिरे । परोक्षा में थल के आने पर सुद् रहित कृ धातु अनिट् होता है ॥ ३१० ॥ एभांचकृषे, एधांचक्राथे, एधांचवे । एषांचक्रे एधांवकृवहे एधांचकृमहे | परस्मैपद में आम् के अन्त में असु और भू धातु का प्रयोग होता है ॥३११ ॥ और परस्मैपद ही होता है। एथामास एधामासतुः एधामासुः एधांबभूव, एधांबभूवतुः एधांबभूवुः । पच् पच् पपच 'अस्योपधायाम्' इत्यादि से दीर्घ होकर पपाच बना । परोक्षा में परस्मैपद में द्वित्व - बहुत्व विभक्ति के आने पर सभी धातु को गुण नहीं होता है ||३१२ ॥ आदेश रहित एक व्यंजन मध्यगत धातु के अकार को 'एकार' हो जाता है ॥ ३१३ ॥ और परोक्षा में अगुण विभक्ति के आने पर अभ्यास का लोप हो जाता है। पेचतुः पेचुः । श्लोकार्थ - अकारांत, स्वरांत सृज् और दृश धातु से थल् विभक्ति के आने पर विकल्प से इद् होता है । ऋच् में नित्य ही अनिट् रहता है। वृ और व्येङ धातु से थल के आने पर नित्य ही इट् होता है । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः नित्यात्वतां स्वरान्तानां सृस्जिदशोश्च वेट् थलि। ऋचि नित्यानिटः स्युश्चेद् वृव्येडझं नित्यमिट् थलि।। इत्येषामिड् वा भवति थलि परे। थलि च सेटि ॥३१४।। अनादेशादेर्धातोरेकव्यञ्जनमध्यगतस्य अस्य एत्वं भवत्यभ्यासलोपश्च सेटि थलि परे। पेचिथ पपक्थ पेचथुः पेच। अट्युत्तमे वा ॥३१५ ॥ उपधाया अस्य दीर्घो भवति अन्त्यानां नामिनां च वृद्धिर्भवति वा परोक्षायामुत्तमपुरुषेऽटि परे । पपाच पपच । सूवृभूस्खुद्रुस्तुश्रुव एव परोक्षायाम् ।।३१६ ॥ एषामेव न इट् भवति परोक्षायामन्येषां भवत्येव । इति स्त्रादिनियमादिद् । पेचिव। पेचिम । पेचे पेचाते पेचिरे । पेचिषे पेचाथे ऐचिन्वे । पेचे पेचिवहे पेचिमहे । अस्यैकव्यञ्जनमित्युपलक्षणम् । उपलक्षणं किं ? स्वस्य स्वसदृशस्य च ग्राहकमुपलक्षणम् । इत्यालारस्थानकव्यञ्जनस्याविचित् । राध् साध् संसिद्धौ। राधो हिंसायाम् ।।३१७ ॥ हिंसार्थस्य राध एवं भवति अभ्यासलोपश्च परोक्षायामगुणे। अपरराध अपरेधतुः अपरेथुः । इत्यादि । हिंसायामिति किं ? आरराध आरराधतुः । इत्यादि । इस श्लोक से थल के आने पर इस पच् में इट् विकल्प से होता है। इट् सहित थल के आने पर आदेश रहित धातु के एक व्यंजन मध्यगत अकार को एकार हो जाता है ॥३१४॥ और अभ्यास का लोप हो जाता है । पेचिथ, पपक्थ । परोक्षा के उत्तम पुरुष अट् के आने पर उपधा के अकार को विकल्प से दीर्घ होता और अन्त्य नामिको वृद्धि हो जाती है । पपाच, पपच । सृ वृ भृ स्त्र द्रु स्तु और श्रु इन धातु से परोक्षा में इट नहीं होता है ॥३१६ ॥ अन्य धातु से इट हो जाता है। इस सूत्र के नियम से पच् में इद हो जाता है पेचिव, पेचिम। आत्मनेपद में—पेचे, पेचाते इस पच् में एक व्यंजन जो कहा है वह उपलक्षण है। उपलक्षण किसे कहते हैं ? अपने और अपने सदृश को ग्रहण करने वाला उपलक्षण कहलाता है । इस प्रकार से अनेक व्यंजन वाले आकार को भी कहीं पर हो जाता है। जैसे-राध् साध-सिद्धि अर्थ में हैं। हिंसा अर्थ में राध धातु को 'एत्व' हो जाता है और परोक्षा के अगुण विभक्ति में अभ्यास का लोप हो जाता है ॥३१७ ॥ अपरराध, अपरेधतु: अपरेधुः । हिंसा अर्थ में हो ऐसा क्यों कहा ? आरराध, आरराधतुः आरराधुः । इत्यादि। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० कातन्त्ररूपमाला राजिभ्राजिभ्रासिमलासीनां वा॥३१८ ।। एषां वा एत्वं भवति अभ्यासलोपश्च परीक्षायामगुणे । राज दीप्तौ । रराज रेजतुः रराजतुः रेजुः रराज: 1 रेजिथ रराजिथ । थलि च सेटि वा एत्वमभ्यासलोपश्च । रेजथु: रराजथु: रेज रराज । रराज रेजिव रराजिव रेजिम रराजिम । रेजे रजाजे रेजाते रराजाते रेजिरे रराजिरे । रेजिषे रराजिषे रेजाथे रराजाधे रेजिढ्वे रराजिवे । रेजे रराजे रेजिवहे रराजिवहे रेजिमहे रराजिमहे। भ्रास्ट् भ्राज़ट प्लास्सृट् दीप्तौ। भेजे बधाजे । प्रेसे बभ्रासे । ग्लेसे बन्लासे । कासृ भास दीप्तौ । चकासे चकासाते चकासिरे । चकासिधे चकासाथे चकासिध्वे। चकासे चकासिवहे । चकासिमहे। एवं बभासे बभासाते बभासिरे । एकव्यञ्जनमध्यगतस्येति किं ? ननन्द मनन्दतुः ननन्दुः नमन्दिथ ननन्दथुः ननन्द ननन्दिव ननन्दिम । परोक्षायामिन्धिश्रन्थिग्रन्थिदम्भीनामगुणे ॥३१९ ।। इन्धिश्रन्थिग्रन्थिदम्भीनामनुषड्गलोपो भवति परोक्षायामगुणे । इत्यनेनानुषडलोप: । जिइन्धि दीप्तौ । समीधे समीधाते समीधिरे। तृफलभजत्रपश्रन्थिदम्भीनां च ॥३२० ॥ एषामुपधाया अस्य एत्वं भवति अभ्यासलोपश्च पसेक्षायामगुणे सेटि थलि च। तृ प्लवनतरणयोः । ततार। अदन्तानां च ॥३२१॥ ऋदन्तानां गुणो भवति परोक्षायामगुणे । तेरतुः तेरु: । तेरिथ तेरथुः तेर । ततार तत्तर तेरिव तेरिम । फल निष्पत्तौ । पफाल फेलतुः फेलुः । भज श्रीङ् सेवायां । बभाज भेजतुः भेजुः 1 अपूष् लज्जायां । त्रेपे त्रेपाते पिरे । श्रन्थ ग्रन्थ संदर्भ । शश्रन्थ श्रेथतुः श्रेथुः । निरनुषङ्गैः तृप्रभृतिभिः साहचर्यादभ्यासलोप: अकारस्य एत्वं च न स्यात् । शन्धिथ । जग्रन्थ । ग्रेथतुः ग्रेथुः । जग्रन्थिथ । दम्भू दम्भे । ददम्भ देभतुः देभुः ।। दम्मिथ । अन्यत्र नानुषङ्गलोप इति किं ? ननन्द ननन्दतुः ननन्दुः । ननन्दिथ । सस्रंसे । बभ्रंसे । दध्वंसे। परोक्षा के अगुणी में राजि, भ्राजि, भ्रासि और भ्लासि धातु को एत्व विकल्प से होता है और अभ्यास का लोप हो जाता है ॥३१८ ।। राज-दीप्त होना । रराज, रेजत: रराजतः । रेजः रराजः । थल में इट के आने पर एत्व और अभ्यास कालोप विकल्प से होता है। रेजिथ, रराजिथ । सारे ही रूप विकल्प से दो दो रहेंगे। आत्मनेपद में भी दो दो रहेंगे 1रेजे, रराजे । रेजाते, रराजाते । भ्रासद भ्राजूद भ्लासृट-दीप्त होना । भेजे, बभ्राजे । प्रेसेसे—बभ्रासे। भ्लेसे बालासे । कास भास-दीप्त होना । चकासे चकासाते वकासिरे । बभासे बभासाते बभासिरे । 'एकव्यंजनमध्यगतस्य' ऐसा क्यों कहा है ? ननन्द ननन्दतुः ननंदुः। परीक्षा में अगुण विभक्ति के आने पर इन्धि अस्थि ग्रन्थि और दंभि धातु के अनुषंग का लोप हो जाता है ॥३१९ ॥ जि इन्धी—दीप्त होना। अनुषंग का लोप होकर सम् उपसर्ग पूर्वक समीधे समीधाते समीधिरे । परोक्षा के अगुण में इट् सहित थल के आने पर तृ फल भज् त्रप् श्रन्थि ग्रन्थि और दंभि की उपधा के अकार को एकार और अभ्यास का लोप होता है ॥३२० ॥ तृ--प्लवन और तरना। ततार। परोक्षा के अगुणी में ऋदन्त को गुण हो जाता है ॥३२१ ॥ १. उपधा को दीर्घ होता है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: २७१ परोक्षायामभ्यासस्योभयेषाम्॥३२२ ॥ उभयेषां ग्रहादिस्वप्यादीनामभ्यासस्यान्तस्थायाः सम्प्रसारणं भवति परोक्षायां । गुण्योंयं योगः। ग्रही उपादाने । साझा पाहिज्याासादिना संभार . नगृहं गृहः . आकारादट औ॥३२३ ॥ आकारात्पररयाट् और्भवति। सन्थ्य क्षरे च ॥३२४ ।। धातोराकारस्य लोपो भवति सन्ध्यक्षरे च परे । ज्या वयोहानौ । जिज्यौ । य इवर्णस्य ॥३२५॥ । असंयोगा पूर्वस्यानेकाक्षरस्य इवर्णस्य यो भवति । इति इवर्णस्य यकार: । जिज्यतुः जिज्युः। इटि च ।।३२६ ॥ धातोराकारस्य लोपो भवति इटि परे । जिज्यिथ जिज्यथुः जिज्य । जिज्यौ जिज्यिव जिज्यिम । वेज तन्तुसन्ताने। वेञश्च वयिः ।।३२७॥ वेओ वा वयिर्भवति परोक्षायाम्। तत्र च संप्रसारणं भवति । उवाय ऊयतुः ऊयुः । उवयिथ ऊयथु: ऊय । उवाय उवय ऊयिव ऊयिम । पक्षे सन्ध्यक्षरान्तानामाकारों विकरणे इत्याकारादेश: । एवं उपधा के अकार को 'ए' होकर अभ्यास का लोप होने से तेरतु: तेरु: । फल-निष्पन्न होना, पफाल फेलत: फेल: । भज, श्रीड-सेवा करना । जभाज भेजतः भेज: । त्रपष-लज्जा करना पे पिरे । श्रन्थ ग्रन्थ-संदर्भ । शश्रन्थ श्रेथतुः श्रेथुः । अनुषंग रहित तृ आदि धातु के सहचारी होने से अभ्यास का लोप और अकार को एकार नहीं हुआ। शश्रन्थिथ । जग्रन्थ ग्रेथतुः ग्रेथुः । जगन्थिय । दम्भू-दम्भ करना । ददम्भ देभतुः देभुः । ददम्भिथ । अन्यत्र अनुषंग लोप नहीं होता है ऐसा क्यों कहा? तो ननन्द ननन्दतु: ननन्दुः में अनुषंग लोप नहीं हुआ है । सस्रसे बभ्रंसे दध्वंसे। ग्रहादि और स्वप्यादि धातुओं में अभ्यास के अंतस्थ को परोक्षा में संप्रसारण हो जाता है ॥३२२ ॥ गुणी विभक्ति के लिये यह योग—सूत्र है इससे यह अर्थ हुआ कि अगुणी में दोनों को संप्रसारण कर दो। ग्रह धातु से--जग्राह । “अहिज्या" इत्यादि सूत्र से संप्रसारण होकर जगृहतुः जगृहु: । आकार के परे अट् को 'औ' हो जाता है ॥३२३ ॥ संध्यक्षर के आने पर धातु के आकार का लोप हो जाता है ॥३२४ ॥ ज्या-जिज्यो । पूर्व अभ्यास के जी को हस्त्र होकर 'जि' बना है। __ असंयोग अपूर्व अनेकाक्षर के इवर्ण को य हो जाता है ॥३२५ ॥ इवर्ण को यकार होकर जिजी अतुस् = जिज्यतुः जिज्युः। इद् के आने पर धातु के आकार का लोप हो जाता है ॥३२६ ॥ जिज्यिथ जिज्यधुः जिज्य । बेञ्-कपड़ा बुनना ।। परीक्षा में वेञ् को वय् आदेश विकल्प से होता है ॥३२७ ॥ और संप्रसारण होकर उवाय ऊयतः ऊयः । उवयिथ। पक्ष में...'संध्यक्षरान्तानामाकारो विकरणे' सूत्र से आकार हो जाने से 'वा' बन गया । वा---गति और बंधन करना । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 T २७२ कातन्त्ररूपमाला न वाश्व्योरगुणे च ॥३२८ ।। वाश्व्योरगुणे च गुणिनि संप्रसारणं न भवति परोक्षायां । वव ववतुः ववुः । वविध ववाथ ववथुः वद । नवौ दिव विम । व्यध ताडने । विव्याध विविधतुः विविधु: । विव्यधिथ विव्यद्ध । वश कान्तौ । उवाश ऊशतुः ऊशुः । उवशिथ उवष्ठ । व्यच व्याजीकरणे । विव्याच विविचतुः विविदुः । विव्यचिथ । प्रच्छ ज्ञीप्सायां । प्रच्छदीनां परोक्षायाम् || ३२९ ॥ प्रच्छारीयां संप्रसारणं न भवति । एवन्तुः पप्रच्छुः । पप्रच्छथ पत्रष्ठ ओवधू छेदने । वत्रच वव्रश्चतुः वनश्च । वत्रश्चिथ । इवर्णतवर्गलसा दन्त्यः इति न्यायात् सकारस्य दकारः । भ्रस्ज पाके । बभ्रज्ज बभ्रज्जतुः बभ्रज्जुः । बभ्रज्जिथ । स्को: संयोगाद्योरन्ते च इति सकारलोपः । भृज्जादीनां ष इति षत्वं । भ्रष्ठ । स्वपि वचि यजादीनां यण् परोक्षाशीष्ठु । इति संप्रसारणं भवति । ञिष्वप् शये । सुष्वपि सुघुपतुः सुषुपुः सुष्वपिथ सुम्नप्थ सुषुपथुः सुषुपुः । सुष्वाप सुष्वप सुषुपिव सुषुपिम । वच परिभाषणे । उवाच ऊचतुः ऊचुः । उवस्थ । जो वयो वचैव ये यतिस्तथा । यद्वसौ श्वयतिश्चैव स्मृता नव यजादयः ||१ || यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु । इयाज ईजतुः ईजुः । इयजिथ । भ्रज्जादीनां षः इति षत्वं । इयष्ठ 1 ईजथुः ईज । इयाज इयज ईजिव ईजिम। ईजे ईजाते ईजिरे । ईजिषे ईजाथे ईजिध्वे । ईजे ईजिवहे ईजिमहे । टुप् बीजसन्ताने । उवाप ऊपतुः ऊषुः । उवपिथ उपप्थ ऊपथुः ऊप ऊपे ऊपाते ऊपिरे । वहि प्रापणे । उवाह ऊहतुः ऊहुः । उवहिथ । सहिवहोरोदवर्णस्येति ओत्वं । उवोढ । ऊहे ऊहाते ऊहिरे । 1 परोक्षा में 'वा' आदि में गुणी और अगुणी के आने पर संप्रसारण नहीं होता है ॥ ३२८ ॥ aat aaa | विथ वनाथ, वत्रथुः वव वव ववव ववम । व्यध-ताड़ित करना । विव्याध विविधतुः विविधु: । विव्यधिथ विव्यद्ध । वश - कान्ति अर्थ में है । उदाश ऊशतुः ऊशुः । उवशिथ, उवष्ठ । व्यच्— बहाना करना । विव्याच विविचतु: वित्रिचुः । वियचथ । प्रच्छ— प्रश्न करना । परोक्षा में प्रच्छ आदि को संप्रसारण नहीं होता है ॥ ३२९ ॥ पप्रच्छ पप्रच्छतुः पप्रच्छुः । पप्रच्छथ पप्रष्ट । ओवश्रू - छेदना । ववश्च ववश्चतुः चवथुः क्वश्चिथ । "लवर्णतवर्गलसा दन्त्या" इस न्याय से भ्रस्ज् के सकार को दकार होकर च वर्ग होकर 'भ्रज्ज्' बना। भुज्ज वभुज्जतुः । थल, में "स्को: संयोगाद्योरते च" ११७, सूत्र से सकार का लोप होकर "भृज्जादीनां षः " २६१ सूत्र से ष होकर थ को उ होकर त्रभ्रष्ठ बना । इ में बभुज्जि । “स्वपिवचियजादीनां यण् परोक्षाशीष्षु" सूत्र से संप्रसारण हो जाता है । ञिष्वप-- शयन करना । सुष्वाप । सुषुपतुः सुषुपुः । सुष्वपि, सुष्वप्य । वच-- बोलना । उवाच ऊचतुः ऊचुः उदचिथ उवथ । यजादिगण में किन- किन धातु को लेना ? श्लोकार्थ – यज् वय वह् वेच् व्यंत्र ह्वेञ्, बद वस और श्वि ये नव धातु यजादि कहलाते हैं । ।१ ॥ राज – देव पूजा, संगतिकरण और दान देने अर्थ में है। इयाज ईजतुः ईजुः 'इयजिथ " प्रज्जादीनां षः " सूत्रे से ज् को ष् करके इयष्ठ बना। आत्मनेपद में - ईजे ईजाते ईजिरे । दुव - बीज बोना । उवाप ऊपतुः ऊपुः । उवपिथ, उवस्थ ऊपे ऊपाते ऊपिरे । वह प्राप्त कराना । उवाह ऊहतुः उहु उवहिथ । 'सहिवहोरोदवर्ण' इस सूत्र से अवर्ण को ओ होकर उवोढ " होढ: " सूत्र से ह् को द हुआ है । ऊहे ऊहाते ऊहिरे । व्येञ्– बुनना । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २७३ न व्ययते: परोक्षायाम् ॥३३०॥ व्ययतेराकारो न भवति परोक्षायां गुणिनि । विवाय विव्यतुः विव्युः । विव्यिथ विव्येथ विव्यथुः विव्य । विव्याय विव्यय विव्यिव विव्यिम। विव्ये विव्याते विव्यिरे । हेब्-स्पर्धायां वाचि । अभ्यस्तस्य च ॥३३१ ।। ह्वयतेरभ्यस्तमात्रस्य च संप्रसारणं भवति । जुहाव जहुवतः जहवः । जहविथ जहोथ । जुहुवे जुहुवाते जुहुविरे । वद व्यक्तायां वाचि । उवाद ऊदतु: ऊदुः । उवदिथ । ऊदे कदाते ऊदिरे । वस निवासे । उवास ऊषतुः ऊषुः । उवसिथ उवस्थ । ऊषे ऊपाते ऊघिरे । टुओश्चि गतिवृद्ध्योः । श्वयते ॥३३२ ।। श्वयतेर्वा संप्रसारणं भवति परोक्षायां चेक्रोयिते च । शुशाव शुशुवतुः शुशुवुः । शुशविध शुशोथ शुशुवथुः शुशुव । शुशाव शुशव शुशुविव शुशुविम । शुशुवे शुशुवाते शुशुविरे । शिवाय शिश्चियतुः शिश्वियुः । शिश्वयिथ शिश्वेथ शिश्वियथः शिश्चिय। शिश्नाय शिश्चय । शिश्विये शिश्वियाते शिश्वियिरे । इति भ्वादिः ॥ वा परोक्षायाम् ।।३३३॥ अदेर्घस्लू आदेशो भवति वा परोक्षायां | जघास । गमहनेत्यादिना उपधालोपो भवत्यगुणे । जक्षतु: जक्षुः । जघसिथ जघस्थ बक्षथुः जक्ष । जधास जघस जक्षिक जक्षिम । घस्लृभावे । परोक्षा के गुणी में व्येञ् धातु आकारांत नहीं होता है ॥३३० ।। विव्याय विव्यतुः विव्युः, विपिव्यथ विव्येथ। आत्मनेपद में—विव्ये विव्याते विव्यिरे। ह्वे–बुलाना। ह्वे धातु के अभ्यस्त मात्र को संप्रसारण हो जाता है ॥३३१ ॥ जुहाव जुहुवतुः जुहः । जुहुविथ जुहीथ । आत्मनेपद में जुहुवे जुहुवाते जुहुविरे । बद—स्पर बोलना। उवाद ऊदतु: ऊदुः । उवदिथ । ऊदे ऊदाते ऊदिरे । वस-निवास करना । उवास ऊपतु: ऊषुः उपसिथ, उवस्थ। ऊषे ऊषाते ऊषिरे । टुओश्चि-गति और वृद्धि अर्थ में। श्वि परोक्षा और चेक्रीयित में श्वि को विकल्प से संप्रसारण होता है ॥३३२ ॥ शुशाव शुशुवतुः शुशुवुः । संप्रसारण न होने से—शिवाय। शिश्वियतुः शिश्वियुः । आत्मनेपद में शिश्विये शिश्वियाते। इस प्रकार से परोक्षा में प्रवादि गण समाप्त हुआ। परोक्षा में अदादि गण प्रारम्भ होता है। परोक्षा में विकल्प से अद् को घस आदेश होता है ||३३३॥ जघारर । जघस् अतुस् 'गमहन्' इत्यादि सूत्र से अगुणी में उपधा का लोप हो जाता है अत: घ के अ का लोप होकर प्रथम अक्षर क् होकर स को ष होकर जक्षतु: जक्षु: बन गया । इट् में जघसिथ-अनिट् में-जघस्थ बना । जब घस् आदेश नहीं हुआ तब... Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ कातन्त्ररूपमाला अस्यादेः सर्वत्र ॥ ३३४ ॥ अभ्यासस्यादेरस्य दीर्घो भवति परोक्षायां सर्वत्र । आद आदतुः आदुः । आदिध आत्य आदधुः आद। आ आ आ । शीङ् स्वप्ने । शिश्ये शिश्याते शिश्यिरे । उवाच ऊचतुः ऊचुः । ऊचे ऊचाते ऊचिरे । उष दाहे । विद ज्ञाने। जागृ निद्राक्षये । उषविदजागृभ्यो वा ।। ३३५ ।। उषादिभ्यो वा आम् भवति परोक्षायां । ओषाकार ओषाञ्चक्रतुः ओषाञ्चक्रुः । आमि विदेरेव ॥ ३३६ ॥ आमि परे विदेरेव गुणो न भवति । विदाञ्चकार विदाचक्रतुः विदाञ्चक्रुः । जागराञ्चकार जागराञ्चक्रतुः जागराञ्चक्रुः । आमभावे अभ्यासस्यासवर्णे इत्युवादेशः । उवोष ऊषतुः ऊषुः । विवेद विदितुः विविदुः । जजागार । परोक्षायामगुणे ॥३३७ ॥ जागर्तेर्गुणो भवति परोक्षायामगुणे परे । जजागरतुः जजागुरुः । इत्यदादिः । । भीहीभृहुवां तियच्च ॥ ३३८ ॥ एषां वा आम् भवति परोक्षायां स च तिवद्भवति । इति तिवद्भावाद् द्विर्वचनं । जुहुवाञ्चकार जुहुवाशक्रतुः जुहुवाञ्चक्रुः । जुहाव जुहुवतुः जुहुवुः । जुहविथ जुहोथ जुहुवथुः जुहुव । जुहाव जुहव जुहुविव जुहुविम । त्रिभी भये । बिभयाञ्चकार विभयाञ्चक्रतुः विभयाञ्चक्रुः । बिभाय बिभ्यतुः बिभ्युः । बिभयिथ परोक्षा में सर्वत्र अभ्यास के आदि के 'अ' को दीर्घ हो जाता है ॥ ३३४ ॥ आद आदतुः आदुः । आदिथ । शीड्-सोना । शिश्ये शिश्याते शिश्यिरे । वच - उवाच ऊचतुः ऊचुः । ऊचे । उष - दाह । विद -- ज्ञान जागृनिद्राक्षय । उष विद जागृ से परोक्षा में आम् विकल्प से होता है ॥ ३३५ ॥ गुण होकर ओषांचकार ओषांचक्रतुः ओषांचक्रुः । आम के आने पर विद् धातु को ही गुण नहीं होता है ॥ ३३६ ॥ विदाञ्चकार विदाञ्चक्रतुः विदाञ्चक्रुः । गुण होकर - जागराञ्चकार । जागराञ्चक्रतुः जागराञ्चक्रुः । आम् के अभाव में 'अभ्यासस्यासवर्णे' इस १७६ सूत्र से उव् आदेश हो गया । उवोष ऊषतुः ऊषुः । विवेद विविदतुः विविदुः । जजागार । परोक्षा के अगुण में जागृ को गुण हो जाता है ॥३३७ ॥ जजागरतुः जजागह: । इस प्रकार से परीक्षा में अदादिगण समाप्त हुआ । परोक्षा में जुहोत्यादिगण. प्रारंभ होता है। भी, ही, भृ और हु धातु को परोक्षा में विकल्प से आम होता है एवं वह तिवत् हो जाता है ||३३८ || तिवत् होने से धातु को द्वित्व हो जाता है। जुहुवाञ्चकार । जुहाव । ञिभी- भयभीत होना । विभयाञ्चकार । विभाय | ही लज्जा करना। जियाञ्चकार । जिह्वाय । भृञ्-धारण पोषण करना । बिभराञ्चकार । इत्यादि । ओहाइ- जहे जहाते दधौ दधतुः दधुः । दधे दधाते दधिरे । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २७५ बिभेध ही लज्जायां जिह्रयाञ्चकार जिहयाञ्चक्रतुः जिह्रयाञ्चक्रुः । जिह्वाय जिह्रियतुः जिहियुः । बिभराञ्चकार विराञ्चक्रतुः बिभराञ्चक्रुः । इत्यादि । जहे जहाते जहिरे । दधौ दधतुः दधुः । दधिथ दधा । दधे दधाते दधिरे । दधिषे दधाथे दधिध्वे । दधे दधिवहे दधिमहे । इति जुहोत्यादिः । दिदेव दिदिवतुः दिदिवः । सुषुवे सुषुवाते सुषुविरे । ननाह नेहतुः नेहुः । नेहिय ननद्ध नेहथुः नेह | ननाह नेहिव नेहिम । नेहे नेहाते नेहिरे । इति दिवादिः । सुषाव सुषुवतुः सुषुवुः । सुषविथ सुषोथ । अस्यादेः सर्वत्र | ३३९ ॥ अभ्यासस्य अकारस्य दीर्घो भवति परोक्षायां सर्वत्र । अश्नोतेश्च ॥ ३४० ॥ अस्तस्माद्दीर्धी भूतादभ्यासाकारात्परः परायै नकारामो भवति परोक्षायां । आनशे आनशाते आनशिरे । व्यानशे व्यानशाते व्यानांशरे । ऋच्छ गतीन्द्रियप्रलयमूर्त्तिभावेषु । ऋच्छ ऋतः ||३४१ || ऋच्छधातोर्गुणो भवति परोक्षायां । तस्मान्नागमः परादिरन्तश्चेत्संयोगः ॥ ३४२ ॥ तस्माद्दीर्घीभूतादभ्यासस्याकारात्परः परादौ नकारागमो भवति धातोरन्तः संयोगश्चेत्परोक्षायां । आनर्छ आनर्छतुः । आनछुः । अञ्जु व्यक्तिमर्षणकान्तिगतिषु । आनञ्ज आनञ्जतुः आनञ्जुः । आनजिथ आनङ्क्थ आनञ्जथुः आनञ्ज । आनन आनञ्जिव आनञ्जिम । तस्मादिति किं । आछि आयामे आच्छ आञ्छतुः आञ्छुः । अयमस्यादेः सर्वत्र इति न क्लृप्तो दीर्घः । अन्तक्षेत्संयोग इति किं ? आट आटतुः । ऋ वृद्धी । इस प्रकार से परोक्षा में जुहोत्यादिगण समाप्त हुआ । अथ परोक्षा में दिवादि गण दिवु-क्रीड़ादि । दिदेव दिदिवतुः दिदिदुः । सुषुवे सुषुवाते । ननाह नेहतुः नेहुः । नेहे नेहाते नेहिरे । इस प्रकार से परोक्षा में दिवादि गण समाप्त हुआ । अथ परोक्षा में स्वादि गण । षुज् - अभिषव करना । सुषाव सुषुवतुः सुषुवुः । परोक्षा में सर्वत्र अभ्यास के अकार को दीर्घ हो जाता है ॥ ३३९ ॥ भूत अभ्यास के आकार वाले अश् धातु से पर की आदि में नकार का आगम हो जाता है ॥ ३४० ॥ परोक्षा में - अशूङ् व्याप्त होना । आनशे आनशाते आनशिरे । व्यानशे । ऋच्छ— गति, इंद्रिय प्रलय, मूर्ति भाव । परोक्षा में ऋच्छ धातु को गुण हो जाता है || ३४१ ॥ उस दीर्घीभूत अभ्यास के अकार से परे पर की आदि में नकार का आगम होता है यदि परोक्षा में अंत संयोग है ॥ ३४२ ॥ अर्च्छ, आर्च्छ 'न' आगम से आमछे आनछेतुः । अञ्जु—–व्यक्ति, मर्षण कांति और गति । आनञ्ज आनञ्जतुः । तस्मात् ऐसा क्यों कहा ? आछि आयाम अर्थ में हैं। आञ्छ आञ्छतुः आच्छुः अयं Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २७६ कातन्त्ररूपमाला ऋकारे च ।। ३४३ ।। तस्माद्दीर्घीभूतादभ्यासाकारात्परः परादौ नकारागमो भवति ऋकारे च परोक्षायां । आनृधे आनृधाते आनृधिरे । चेः किर्वा ॥ ३४४ ॥ चेः किर्वा भवति परोक्षायां । चिकाय चिक्यतुः चिक्युः । चिक्ये । चिचाय चिच्यतुः चिच्युः । चिच्ये चिच्याते चिच्पिरे । इति स्वादिः । तुतोद तुतुदतुः तुतुदुः । मृञ् प्राणत्यागे । आशीरातन्योश्च ||३४५ ।। मृञ् आत्मनेपदी भवति चकारादनि च परे नान्यत्र । ममार भम्रतुः मनुः । पकात् ३ ऋकारान्तात् थलिनेड् भवति । मम मम्रथुः म । मुमोच मुमुचतुः मुमुचुः । मुमुचे मुमुचाते मुमुचिरे । इति तुदादिः ॥ रुरोध रुरुधतुः । बुभुजे बुभुजाते । युयोज । युयुजे । इति रुधादिः । तत्तान तेनतुः तेनुः । तेने तेनाते तेनिरे । मेने मेनाते मेनिरे । चकार चक्रतुः । चक्रे चक्राते । "अस्यादेः सर्वत्र” इससे दीर्घ नहीं हुआ। 'अंतश्चेत् संयोग: ' ऐसा क्यों कहा ? अटआर आटतुः । ऋ- वृद्धि होना । परोक्षा में दीर्घीभूत अभ्यास अकार से परे ऋकार के आने पर पर की आदि में नकार का आगम होता है || ३४३ ॥ आनृधे आनृधाते आनृधिरे । चिञ्--- चयन करना । परोक्षा में चवर्ग को कवर्ग विकल्प से होता है ॥ ३४४ ॥ चिकाय चिक्यतुः चिक्युः । चिक्ये । चिचाय चिच्यतुः चिच्युः । चिच्ये चिच्याते चिच्यिरे । इस प्रकार से परोक्षा में स्वादि गण समाप्त हुआ । अथ परोक्षा में तुदादि गण तुतोद तुतुदतुः तुतुदुः । मृङ्-- प्राण त्याग करना । अन् विकरण के आने पर मृङ् आत्मनेपद में चलता है अन्यत्र नहीं ॥ ३४५ ॥ ममार मतुः मनुः । थल के आने पर ऋकारांत से इद् नहीं होता है ॥ ३४६ ॥ ममर्थ मथुः । मुच्– मुमोच मुमुचतुः मुमुचुः । मुमुचे । परोक्षा में तुदादिगण समाप्त हुआ । अथ परोक्षा में रुधादि गण । रुरोध रुरुधतुः रुरुधुः । भुज धातु भोजन अर्थ । उसमें आत्मनेपदी हैं भुज-बुभुजे बुभुजाते बुभुजिरे । युजिर्युयोज युयुजतुः युयुजुः । युयुजे । इस प्रकार से परीक्षा में रुधादि गण समाप्त हुआ। अथ परोक्षा में तनादि गण प्रारंभ होता है। तनु – विस्तार करना । ततान तेनतुः तेनुः । तेने तेनाते । मेने मेनाते मेनिरे । डुकृञ् – चकार चक्रतुः चक्रुः । चक्रे चक्राते चक्रिरे । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २७७ सुट् भूषणे सम्पर्युयात् ।।३४७ ॥ सम्पर्युपात्परस्य कृञ् आदौ सुट् भवति भूवर्णेऽर्थे द्विवचने । शिट्परोऽघोषः ॥३४८॥ अभ्यासस्य शिर: परोऽघोषोऽवशेष्यो भवति । शिटो लोप इत्यर्थः । संचस्कार । ऋतश्च संयोगादेः॥३४९ ॥ संयोगादेर्धातो; तो गुणो भवति परोक्षायामगुणे । संचस्करतुः संचस्करु: । संचस्करिथ संचस्करथः संचस्कर। परिचस्कार परिचस्करतः। उपचस्कार उपचस्करत: उपचस्करः। उपचस्करे उपचस्कराते उपचस्करिरे । उपचस्करिवे उपचस्कराथे उपचस्करिध्वे । उपचस्करे उपचस्करिवहे उपचस्करिमहे । इति तनादिः । चिक्राय चिक्रियतुः चिक्रियुः । चिक्रियिथ चिक्रियथुः । चिक्रिये चिक्रियाते चिक्रियिरे । वने वव्राते वविरे। सवृभृस्तुद्रुशुश्रुव एव परोक्षायाम् ।।३५० ॥ एभ्यो धातुभ्यः परो नेड् भवति एव परोक्षायां । जग्राह जगहतः जगहः । जगृहे । इति क्यादिः । चकास्कास्प्रत्ययान्तेभ्य आम् परोक्षायाम् ॥३५१॥ एभ्य आम् भवति परोक्षायां । चकास् दीप्तौ। चकासानकार चकासासक्रतुः । चकासाचने चकासाश्चक्रांते चकासाश्चक्रिरे । कास भास दीप्तौ । कासाञ्चके। चोरयाञ्चकार । चोरयाश्चक्रे । पातयामास पालयामासतुः । पालयानकार पालयाचक्रतुः पालयाञ्चक्रः । एवं पालयाञ्चक्रे पालयांञ्चक्राते पालयाचक्रिरे। तन्त्रयाञ्चक्रे । वारयाञ्चकार । वारयाञ्चक्रे । भूषण अर्थ में सम् परि उप उपसर्ग से परे कृ धातु की आदि में सुट् होता है ॥३४७ ॥ द्वित्व होता है। अभ्यास शिट् के परे अघोष अवशेष रहता है ॥३४८ ॥ अर्थात् शिट् का लोप हो जाता है। संचस्कार | परोक्षा के अगुण में संयोगादि धातु से ऋकार को गुण हो जाता है ॥३४९ ।। संचस्करतुः संचस्करु: । परिचस्कार । उपचस्कार । इस प्रकार से परीक्षा में तनादि गण समाप्त हुआ। अथ परोक्षा में क्यादि गण। क्री-चिक्राय चिक्रियतुः चिक्रियुः । चिक्रिये । वने। परोक्षा में सू, तु, शु, स्तु, द्रु, जु और श्रु धातु से परे इट् नहीं होता है ॥३५० ॥ जग्राह जगृहतु: जगृहुः । जगृहे। इस प्रकार से परीक्षा में क्यादि गण समाप्त हुआ। अथ परोक्षा में चुरादि गण । परोक्षा में चकास् कास और प्रत्ययांत से आम् होता है ॥३५१ ॥ चकास-दीप्त होना। चकासाञ्चकार । चकासासक्रतुः चकासाञ्चकु: । चकासाश्चक्रे । कास भास-दीप्त होना कासाचक्रे । चुर्-स्तेये। चोरयाश्चकार । चोरयाञ्चक्रे। पालयामास । पालयांबभूव । पालयाशकार पालयाचक्रे । तन्त्रयाञ्चक्रे । वारयाञ्चकार । वारयाञ्चके । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ कातन्त्ररूपमाला दयायासश्च ।।३५२।। एभ्य आम् भवति परोक्षायां । दय दानगतिहिंसादानेषु । दयाश्चक्रे । अयाचक्रे । आसाञ्चक्रे । इति परोक्षा समाप्ता ॥ __ भविष्यति भविष्यन्त्याशीःश्वस्तन्यः ॥३५३ ।। भविष्यति काले भविष्यन्त्याशी:श्वस्तन्यो भवन्ति । तासां स्वसंज्ञाभिः कालविशेषः ।।३५४ ॥ तासां विभक्तीनां स्वसंज्ञाभिः कालस्य विशेषो भवति । श्वो भव: काल: श्वस्तनस्तत्र श्वस्तनी भवति । भविता भवितारौ भवितारः । भवितासि भवितास्थः भवितास्थ । भवितास्मि भवितास्व: भवितास्मः । एधिता एधितारौं एधितारः । एधितासे एधितासाचे एधिताध्वे । एधिताहे एधितास्वहे एधितास्महे। पक्का । नन्दिता) मंसिना । मंसिता) ध्वसिना) शकि कि कौटिल्ये। शधिना। बडिमा। वटिङ अभिवादनस्तुत्योः । वन्दिता वन्दिता वन्दिवार; । वन्दितासे । वे तन्तुसन्ताने । व्याता व्यातारौं व्यातारः । व्यातासे। ड़ाः शान्तिः । अना। गिता । दना ! इत्यदादिः । होता । धाता। भर्ता । इति जुहोत्यादिः । देविता। सेविता । नद्धा। इति दिवादिः । सोता। अशिता । चेता । इति स्वादिः । तोत्ता । मर्ता । मोक्ता। इति तुदादिः। रोद्धा । भोक्ता। योक्ता । इति रुधादिः । तनिता । मनिता। कर्ता । इति तनादिः । क्रेता। वरिता। ग्रहीता। इति क्यादिः । चोरयिता । तन्त्रयिता । वारयिता 1 इति चुरादिः । इति श्वस्तनी समाप्ता ।। दय् अय् आस् से परे परोक्षा में आम होता है ॥३५२ ॥ दय-दान, गति, हिंसा अर्थ में है। दयांचने। अय्-गमन अयाचक्रे। आस-उपवेशन करना-बैठना । आसाझके। इति चादि। इस प्रकार से परोक्षा प्रकरण समाप्त हुआ। अथ श्वस्तनी विभक्ति प्रारम्भ। भविष्यत् काल में भविष्यति, आशी: और श्वस्तनी विभक्तियाँ होती हैं ॥३५३ ॥ उन विभक्तियों का अपनी-अपनी संज्ञाओं से काल में विशेष होता है ॥३५४ ॥ श्वो भवः काल: श्वस्तन: आगे आने वाला कल दिन व कहलाता है उसमें होने वाली क्रिया वस्तनी उसमें ता तारो तारस् आदि विक्तियों होती हैं । भविता भवितारौ भवितार: । भवितासि भवितास्थ: भवितास्थ । भवितास्मि भवितास्वः भवितास्मः । एधिता। पक्ता । नन्दिता । स्रंसिता। भ्रंसिता । ध्वंसिता । शकि, वकि-कटिलता करना। शड़िता। वड़िता। वदिई अभिवादन करना, स्तुति करना। वंदिता वंदितारौ वन्दितारः। बंदितासे । वे-बनना । व्याता व्याता । इति भ्वादिः। अत्ता। शयिता । वक्ता। इत्यदादिः । होता। धाता। भर्ता । इति जहोत्यादिः । देविता सेविता। नद्धा। इति दिवादिः । सोता। अशिता । चेता । इति स्वादिः । तोता। मर्ता । मोक्ता। इति तुदादिः । रोद्धा। भोक्ता । योक्ता । इति रुधादिः । तनिता । मनिता । कर्ता । इति तनादिः । क्रेता । वरिता 1 ग्रहीता। इति क्रयादिः । चोरयिता । तवयिता । वारयिता । इति चुरादिः । इस प्रकार से श्वस्तनी प्रकरण समाप्त हुआ। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: भविष्यति भविष्यन्तीत्यादिना भविष्यति काले आशीः । इष्टस्याशंसनमाशी: । आशिषि च परस्मै ॥ ३५५ ।। सर्वेषां धातूनां गुणो न भवति आशिषि च सर्वत्र परस्मैपदे परे । भूयात् भूयास्तां भूयासुः । भूयाः भूयास्तं भूयास्त । भूयासं भूयास्व भूयास्म विनिमये वागतिहिंसाशब्दार्थहरू इति चुरादित्वादात्मनेपदं । व्यतिभविषीष्ट । एधिषीष्ट एधिषीयास्तां एथिवीरन् । एधिषीष्ठाः एधिषीयास्थां एधिषीध्वं । एधिषीय एधिषीवहि । पच्यात् । पक्षीष्ट नद्यात् । संसिषीष्ट । असिषीष्ट । ध्वंसिषीष्ट । स्वपिवचियजादीनामिति संप्रसारणम् । नाम्यन्तानामिति दीर्घ सुप्यात् । इज्यात् । व्येञ् संत्ररणे । उभयपदी | वीयात् वीयास्तां वीयासुः । व्यासीष्ट व्यासीयास्तां व्यासीरन् । चिञ् चयने चीयात्। वेषीष्ट । वेञ् तन्तुसन्ताने । उभयपदी । ऊयात् ऊयास्तां ऊयासुः । वासीष्ट वासीयास्तां वासीरन् । ज्या वयोहानौ । पराजीथात् । व्यध ताडने । विध्यात् । अद्यात् । अशूञ् व्याप्तौ । अशिषीष्ट अशिषीयास्तां अशिषीरन् । बुङ् व्यक्तायां वाचि । ३६॥ T बुवो वचिर्भवत्यसार्वधातुकविषये । उच्यात् । वक्षीष्ट । इत्यादि । अध्यात् । शयिषीष्ट । हूयात् । हासीष्ट । २७९ आशिष्येकारः || ३५७ ॥ दामादीनामेकारो भवत्याशिष्यगुणे । विधेयात् । विधासीष्ट विधासीयास्तां विधासीरन् । उभयपदी । देयात् । मेयात् । गेयात् । पेयात् । स्थेयास्तां । अवसेयास्तां । हेयात् । अगुण इति किं ? धासीष्ट अथ आशी: प्रकरण प्रारंभ 'भविष्यति भविष्यन्त्याशी श्वस्तन्य: ३५३ सूत्र से भविष्यत् काल में आशीः विभक्ति होती हैं। इष्ट का आशंसन करना आशी: है अर्थात् आशीर्वाद देना । आशिष में सर्वत्र परस्मैपद में सभी धातुओं को गुण नहीं होता है ॥ ३५५ ॥ भूयात् भूयास्तां भूयासुः । भूयाः भूयास्तं भूयास्त । भूयासं । भूयास्व भूयास्म । विनिमय अर्थ में— अदल बदल करना 'विनिमये वा गतिहिंसा— शब्दार्थहस' इति चुरादित्वात् आत्मने पदं । वि और अति उपसर्ग से भू श्रातु आत्मनेपदी हो जाता है। आत्मनेपदी में गुण हो जायेगा । व्यतिभविषीष्ट । एधिषीष्ट । पच्यात् । पक्षीष्ट । नद्यात् । स्रंसिषीष्ट । श्रंसिषीष्ट । ध्वंसिषीष्ट । 'स्वपिवचियजादीनां' इस सूत्र संप्रसारण हुआ है। सुध्यात् । इज्यात् । व्येञ् उभयपदी है- संप्रसारण दीर्घ होकर वीयात् । व्यासीष्ट । चित्र - चयने । चीयात् । चेषीष्ट । वेञ्- उभयपदी । ऊयात् । वासीष्ट ज्या वयोहानौ । पराजीयात् । I व्यध--- ताडन करना। विध्यात् । अद्यात् । अशूङ्— व्याप्तौ । अशिषीष्ट । ब्रूञ्- स्पष्ट बोलना । ब्रू को असार्वधातुक में वच् हो जाता है ॥ ३५६ ॥ व को उ संप्रसारण। उन्यात् । वक्षीष्ट । इत्यादि । इक्— स्मरण करना। अधीयात् । शयिषीष्ठ । हूयात् । हासीष्ट । आशिष में अगुण विभक्ति के आने पर दा मा, आदि धातुओं को एकार हो जाता है ॥ ३५७ ॥ वा- विधेयात् । विधासीष्ट । दा-देयात् । मेयात् । गेयात् । पेयात् । स्थेयात् । अवसेयात् । हेयात् । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला धासीयास्तां । दासीष्ट । दीव्यात् । सविषीष्ट । विकल्पेन सोषीष्ट सोषीयास्तां । नह्यात् । नत्सीष्ट । षुञ् अभिषवे। सूयात् । अभिषूयात् । अभिषोषीष्ट । वा । "वा संयोगादेस्त इति वक्तव्यम् " ॥ ज्या वयोहानौ । ज्येयात् । ज्यायात् । म्लै गात्रविनामे । म्लेयात् । ग्लै हर्षक्षये । ग्लेयात् । टोश्चि गतिवृद्ध्योः । निश्वीयात् । निवेषीष्ट । इत्यादि । तुद्यात् । शलृ शातने । शत्सीष्ट । भृषीष्ट । मुच्यात् । मुक्षीष्ट । रुध्यात् रुत्सीष्ट । भुज्यात् भुक्षीष्ट । युज्यात् युक्षीष्ट । तन्यात् । तनिषीष्ट । मनिषीष्ट । विक्रीयात् । विक्रीषीष्ट । गृह्यात् । ग्रहीशीष्ट । चोर्यात् । चोरयिषीष्ट । चोरयिषीयास्तां । पाल्यात् । पल शल पतलू पथे च गतौ । पाल रक्षणे च । उभयपदी : पालयिषीष्ट । अर्च पूजायां । अर्ध्यात् अर्च्यास्तां अर्ध्यासुः । अर्चयिषीष्ट अर्चयिषीयास्तां । तन्त्रयिषीष्ट । वार्यात वारयिषीष्ट । इत्याशीः समाप्ता ॥ भविष्यति भविष्यन्तीत्यादिना भविष्यत्काले भविष्यन्ती | विभक्तिर्भवति । भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति । भविष्यसि भविष्यथः भविष्यथ । भविष्यामि भविष्यावः भविष्यामः । एधिष्यते एधिष्येते एधिष्यन्ते। एधिष्यसे एधिष्येथे । एधिष्यध्वे । एधिष्ये एधिष्यावहे । एधिष्यामहे । पक्ष्यति पक्ष्यते । नन्दिष्यते । स्त्रसिष्यते । असिष्यते । ध्वंसिष्यते । एवं शङ्किष्यते । वङ्किष्यते । वन्दिष्यते । वे संवरणे । वास्यति। वास्यते । अत्स्यति । वक्ष्यति वक्ष्यते । होष्यते । होष्यति । धास्यति । धास्यते । दास्यति । दास्यते । देविष्यति । सेविष्यति । नत्स्यति । नत्स्यते । सोष्यति । अशिष्यते । अक्ष्यते । चेष्यति । चेष्यते । तोत्स्यति । I हन्दन्तात्स्ये ।। ३५८ ॥ २८० I अगुण ऐसा क्यों कहा ? धासीष्ट । दासीष्ट । दीव्यात् । सविषीष्ट । विकल्प से इट् होता है । अत: सोषीष्ट । नह्यात् । नत्सीष्ट । नहेर्द्ध: सूत्र २७८ से ह को ध व ध को प्रथम अक्षर त हुआ है। षुञ्-सूयात् । अभिषूयात् । अभिघोषीत । (वा संयोगादेः) संयोग हों आदि में ऐसा आकारान्त धातु से परे आशिष में एत्व विकल्प से होता है। ज्या-वयोहानौ । ज्येयात् । ज्यायात् । म्लै मुर्झाना-- प्लेयात् । ग्लै- हर्ष क्षय होना । ग्लायात् । टोवि-गति और वृद्धि होना । निश्वीयात् । निश्वेषीष्ट । इत्यादि । तुद्यात् । शल- शातन करना । शत्सीष्ट । भृषीष्ट । मुच्यात् । मुक्षीष्ट । रुध्यात् । रुत्सीष्ट । भुज्यात् । भुक्षीष्ट । युज्यात् युक्षीष्ट । तन्यात्, तनिषीष्ट । मनिषीष्ट । विक्रीयात् । विक्रोषीष्ट । गृह्यात्, ग्रहीषीष्ट । चोर्यात्, चोरयिषीष्ट । पाल्यात् । पल शल पत्लृ - पथ और गति अर्थ में पाल-रक्षण अर्थ में हैं— उभयपदी है। पालयिषीष्ट । अर्च- पूजा । अर्ध्यात् | यह धातु एक मात्र परस्मैपदी है अतः यह रूप ठीक नहीं। तन्त्रयिषीष्ट । वृञ्-वार्यात् । वारयिषीष्ट । I इस प्रकार से आशिष् प्रकरण समाप्त हुआ । अथ भविष्यति प्रकरण प्रारम्भ भविष्यत् काल में भविष्यति विभक्ति होती है। भू-स्यति इट् गुण, अव् षत्व होकर = भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति । एधिष्यते । पक्ष्यति । पक्ष्यते । नन्दिष्यति । नदि परस्मैपदी है। अतः नन्दिष्यति ठीक है। संसिष्यते । श्रंसिष्यते । ध्वंसिष्यते । शङ्कष्यते । वङ्किष्यते । वदिष्यते । वेञ् वास्यति । वास्यते । अद्-अत्स्यति । वक्ष्यति । वक्ष्यते । होध्यते । होष्यति । धास्यति । धास्यते । दास्यति । दास्यते । देविष्यति । सेविष्यति । नत्स्यति । नत्स्यते । सोष्यति । अशू व्याप्तौ । अशिष्यते । अक्ष्यते । चेष्यति । चेष्यते । तोत्स्यति । स्वकार के आने पर हन् और ऋदंत से इट् का आगम होता है ॥ ३५८ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- तिङन्त: २८१ I हनः ऋदन्ताच्च इडागमो भवति स्वकारे परे । हनिष्यति । मोक्ष्यति । रोत्स्यति । रोत्स्यते । भोक्ष्यते । योक्ष्यते । तनिष्यते । मनिष्यति । मनिष्यते । करिष्यति । करिष्यते । क्रेष्यति । वरिष्यति वरिष्यते । ग्रहीष्यति ग्रहीष्यते । चोरयिष्यति चोरयिष्यते । तन्त्रयिष्यते । वारयिष्यते । एवं ज्ञातव्यं । इति भविष्यन्ती समाप्ता ॥ भूतकरणवत्यचेत्यतीते काले क्रियातिपत्तिः । क्रियाया अतिपतनं क्रियातिपत्तिः । अभविष्यत् अभविष्यता अभविष्यन् । अभविष्यः अभविष्यतं अभविष्यत । अभविष्यं अभविष्याव अभविष्याम । ऐधिष्यत ऐधिष्येतां ऐधिष्यन्त । ऐधिष्यथा : ऐधिष्येथां ऐधिष्यध्वं । ऐधिष्ये ऐधिष्यामहि । अपश्यत् अपक्ष्यतां अपक्ष्यन् । अनन्दिष्यत् । अस्रंसिष्यत् । अभ्रंसिष्यत । अध्वसिष्यत अव्यास्यत । आत्स्यत् । अशयिष्यत । अवक्ष्यत् । अवक्ष्यत । अहोस्यत् । अहास्यत् । अधास्यत् । अधास्यत । अदेविष्यत् । असविष्यत । विकल्पेन । असोष्यत असोध्येतां असोष्यन्त । अनत्स्यत् अनत्स्यत । असोष्यत् । अशिष्यत् । विकल्पेन । आक्ष्यत आक्ष्येतां आक्ष्यन्त । अचेष्यत । अचेष्यत । अतोत्स्यत् । अमरिष्यत । अमोक्ष्यत् । अमोक्ष्यत । अरोत्स्यत् । अभोक्ष्यत । अयोक्ष्यत् । अयोक्ष्यत । अतनिष्यत् । अमविष्यत् अकरिष्यत् । अवरिष्यत् अवरोष्यत । अग्रहीष्यत् । अग्रहीष्यत । अचोरयिष्यत् । अचोरयिष्यत अचोरयिष्येतां । अतन्त्रयिष्यत । अवारयिष्यत् । अवारयिष्यत । पल रक्षणे उभ० अपालयिष्यत् । अपालयिष्यत । अर्च पूजायां । उभ० आर्चयिष्यत् आर्चयिष्यत आर्चयिष्येतां आर्चयिष्यन्त । एवं सर्वमवगन्तव्यम् । इति क्रियातिपत्तिः । हनिष्यति । मोक्ष्यति । सेत्स्यति । शेत्स्यते । भोक्ष्यते योक्ष्यते । तनिष्यते । मनिष्यति । करिष्यति । करिष्यते । क्रेष्यति । वरिष्यति । वरिष्यते । ग्रहीष्यति । ग्रहीष्यते । चोरयिष्यति । चोरयिष्यते । तन्त्रयिष्यते । वारयिष्यते । 1 इस प्रकार से भविष्यति प्रकरण समाप्त हुआ । अथ क्रियातिपत्ति प्रकरण प्रारम्भ 'भूतकरणवत्यक्ष' सूत्र से भूतकाल में "क्रियातिपत्ति" विभक्ति होती है। क्रिया के अतिपतन को क्रियातिपत्ति कहते हैं— “इसमें दो वाक्यों का प्रयोग करना पड़ता है तभी एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया का अधिपतन होता है। अधात्वादिर्ह्यस्तन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु" सूत्र ४७ से क्रियातिपत्ति में अट् का आगम होता है। अभविष्यत् अभविष्यतां अभविष्यन् अभविष्यः अभविष्यतं अभविष्यत अभविष्यम् अभविष्याव अभविष्याम । ऐधिष्यत । अपक्ष्यत् । अनन्दिष्यत् । अखंसिष्यत् । अभ्रंसिष्यत । अध्वंसिष्यत । अव्यास्यत । आत्स्यत । अशयिष्यत । अवक्ष्यत् । अवक्षयत । अहोष्यत् । अहास्यत । अधास्यत् । अधास्यत । अदेविष्यत् । असविष्यत् । विकल्प से- असोष्यत । अशिष्यत् । आक्ष्यत । अचेष्यत् । अचेष्यत । अतोत्स्यत् । अमरिष्यत् । अभोक्ष्यत् । अमोक्ष्यत असेत्स्यत् अभोक्ष्यत । अयोश्यत् । अयोक्ष्यत । अनिष्यत् । अमनिष्यत । अकरिष्यत् । अवरिष्यत । अवरीष्यत । अग्रहीष्यत् अग्रहीष्यत । अचोरयिष्यत् । अचोरयिष्यत । अतन्त्रयिष्यत । अवारयिष्यत् । अवारयिष्यत । पल रक्षण करना । उभयपदी । अपालयिष्यत् । अपालयिष्यत । अर्च- पूजा आर्चयिष्यत् । इसी प्रकार से सभी समझना चाहिए । इस प्रकार से क्रियातिपत्ति प्रकरण समाप्त हुआ । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २८२ कातन्त्ररूपमाला अथाद्यतन्याः क्वचिद्विशेष: उच्यते इजात्मनेपदे प्रथमैकवचने ॥३५९ ॥ पद्धातोरिज्भवति कर्तर्यद्यतन्यामात्मनेपदे प्रथमैकवचने परे । इचस्तलोपः ॥३६० ॥ इच: परस्तलोपो भवति । उदपादि उदपत्सातां उदपत्सत। उदपत्थयः उदपत्साशां उदपद्ध्वं । उदपत्सि उदपत्स्वहि उदपस्महि । समपादि।। दीपजनबुधपूरितायिप्यायिभ्यो वा ॥३६१ ।। एभ्यो वा इज भवति कर्तर्यद्यतन्यामात्मनेपदे प्रथमैकवचने परे । दीपी दीप्तौ । अदीपि अदीपिष्ट । जनिवध्योश्च ॥३६२॥ जनिवध्योरुपधाभूतस्य दीर्घस्य ह्रस्वो भवति इचि परे । जनी प्रादुर्भावे । अनि अजनिष्ट । अवधि अवधिष्ट । बुध अवबोधने। अबोधि । अबुद्ध । हचतुर्थान्तस्य धातोस्तृतीयादेरादिचतुर्थत्वमकृतवत् । अभुत्सत् अभुत्साताम् अभुत्सत 1 पूरी आप्यायने । अपूरि। ताय सन्तानपालनयोः । स्फायी ओप्यायी वृद्धौ । अतायि अतायिष्ट । अप्यायि अप्यायिष्ट । इति विशेषः । भावकर्मणोरद्यतन्यादयः प्रदर्श्यन्ते। भावकर्मणोश्च ॥३६३ ।। अथ अद्यतनी में कुछ विशेषता बताई जाती है। __ अद्यतनी के आत्मनेपद में प्रथमा के एकवचन में कर्ता में पद् धातु से इच होता है ॥३५९ ॥ इच से परे 'त' का लोप हो जाता है ॥३६० ॥ उत् अपादि = उदपादि + उदपत्साता उदपत्सत । उदपत्था: उदपत्साथां उदपद्ध्वं उदपत्सि उदपत्स्वहि उदपत्स्महि । समपादि। दीप, जन, बुध पूरि, तायि, प्यायि धातु से प्रथमैकवचन में विकल्प से इच् होता है ॥३६१ ॥ दीपी-दीप्त होना। अदीपि । इच् के अभाव में-अदीपिष्ट । इच के आने पर जन् और वध की उपधा को ह्रस्व हो जाता है ॥३६२ ।। जनी-प्रादुर्भावे । अनि अजनिष्ट । अवधि, अवधिष्ट । बुध-अवबोधन करना । अबोधि, अबुद्ध "हचतुर्थांतस्य धातोस्तृतीयादेरादिचतुर्थत्वमकृतवत्" सूत्र से तृतीय को चतुर्थ अक्षर होकर अभुत्सत् । पूरी-पूर्ण करना । अपूरि । ताय-सन्तान और पालन अर्थ में है । स्फायी, ओप्यायीवृद्धि अर्थ में हैं । अतायि, अताविष्ट । अप्यायि, अप्याविष्ट।। इस प्रकार से विशेष प्रकरण हुआ। भाव और कर्म में अद्यतमी आदि को दिखाते हैं। भाव और कर्म में सभी धातु से इच् होता है ॥३६३ ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २८३ ...:.: सर्वस्माद्धातोरिज्भवति भावकर्मणोविहिते अद्यतन्यामात्मनेपद प्रथमैकवचने परे । अभावे। कर्मणि अन्वभावि । ऐधि । अपाचि । अनन्दि । अस्तम्भि । अभ्रंसि । अध्वंसि। आयिरिच्यादन्तानाम्॥३६४॥ __ आदन्तानां धातूनामायिर्भवतीचि परे ॥ अवायि । अव्यायि । अपायि । अधायि अदायि। ग्लै हर्षक्षये 1 आलायि । म्लै गाविनामे । अम्लायि । अगायि । अमायि । अस्थायि । अवासायि । अरायि । अशायि । अवाचि । अहावि। अद्यायि । अद्रायि । अभारि । अदेवि । असावि । अजायि । उपसर्गात्सुनोतिसुवतिस्यतिस्तौतिस्तोभतीनामडन्तरोपि ॥३६५ ।। उपसर्गस्थनिमित्तात्परेषामडन्तरोपि षत्वमापद्यते । अपिशब्दादनन्तरोपि ॥ अभ्यपावि । आशायि । अचायि । अतोदि । अमारि । अमोचि.। अरोधि । अभोजि । अयोजि। अतानि । अमानि । अकारि । अक्रायि । अवारि । अग्रायि । अचोरि । अपालि । अतन्त्रि । अवारिं । आर्चि । अद्यतनी समाप्ता ॥ बभूवे देवदत्तेन । एधाञ्चक्रे ।। पेचे। इत्यादि ।। इति परोक्षा ।। भविता देवदत्तेन । एधिता। पत्ता । इति श्वस्तनी समाप्ता ॥ आशी: । भविषीष्ट देवदत्तेन । एधिषीष्ट । पक्षीष्ट । भविष्यन्ती । भविष्यते देवदत्तेन । एधिष्यते । पक्ष्यते। इत्यादि । क्रियातिपत्ति: । अभविष्यत देवदत्तेन । एधिष्यत । अपक्ष्यत इत्यादि । स्यसिजाशीःश्वस्तनीषु भावकर्मार्थासु स्वरहनग्रहदृशामिडिज्वद्वा ॥३६६ ॥ . - .... --- -- अद्यतनी के आत्मनेपद में प्रथमा के एकवचन में इच् होता है। भू-अभावि । कर्म में-अन्वभावि । ऐधि । अपाचि । अनन्दि । अस्तंभि । अभ्रंसि । अध्वंसि। __ इच् के परे आदन्त धातु को 'आय' होता है ॥३६४ ॥ वेब्-अवायि । व्येञ्-अव्यायि । पा-अपायि । अधायि । अदायि । अग्लायि । अम्लायि । अगायि । अमायि । अस्थायि । अवासायि । अरायि । अशायि । अहावि । अधायि । अदायि। अभारि । अदेवि । असावि। अजायि। उपसर्ग से परे सु सो, स्तु, स्तुम धातु में अट् अन्तर में होते हुए भी 'ष' हो जाता है ॥३६५ ॥ अपि शब्द से अनन्तर में भी 'ष' हो जाता है। अभ्यषायि । अशायि। अचायि। अतोदि । अमारि । अमोचि । अरोधि । अभोजि 1 अतानि । अकारि । अक्रायि । अचोरि । आर्चि । इस प्रकार से अद्यतनी समाप्त हुई। परोक्षा में बभूवे देवदत्तेन । एधांचक्रे । पेचे । इत्यादि । श्वस्तनी में-भविता देवदत्तेन । ऐधिता। पक्ता । इत्यादि 1 आशी: में— भविषीष्ट देवदतेन । एधिषीष्ट । पक्षीष्ट । आदि । भविष्यन्ती में भविष्यते देवदत्तेन । एधिष्यते । पक्ष्यते । आदि। क्रियातिपत्ति में अभविष्यत देवदत्तेन । ऐधिष्यत । अपक्ष्यत आदि। भाव, कर्म और अर्थ में स्य सिच् आशी और श्वस्तनी के आने पर स्वर हन् ग्रह दृश् धातु में इट् को इच् वत् विकल्प से होता है ॥३६६ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ कातन्त्ररूपमाला भावकमाथांनु स्यांजाशी.सस्तनी परत, स्वरहनग्रहदृशामिड् इज्वद्भवति वा। अन्वभावि अन्वभाविषातां अन्वभाविषत। अन्वभाविष्ठाः अन्वभाविषाथां अन्वभाविट्वं ।। अन्वभाविधि अन्वभाविजहि अन्वभाविष्महि । अन्वभवि अन्वभविषातां अन्वभविषत । असाविषातां । असाविषत । असोषातां असोषत । असविषातां । असविषत। *हस्य हन्तेधिरिनियोः ॥३६७॥ हन्तेर्हस्य धिर्भवति इनिचो: परतः । अघानि अघानिपातां अघानिषत ।। हनिमन्यते त् ॥३६८।।। आभ्यां परमसार्वधातुकमनिड् भवति । अहसाता अहसत । हनेः सिच्यात्मने दृष्टः सूचनेर्थे यसेरपि । विवाहे तु विभाव सिजाशिषोर्गमेस्तथा ।। आत्मनेपदे वा ॥२६९॥ अद्यतन्यामात्मनेपदे परे हन्तेर्वधिरादेशो वा भवति । अवधि अवधिषाता अवधिषत । नेज्वदिटः ॥३७० ॥ इज्वदिटो दीर्थो न भवति । अग्राहिषातां अग्राहिषत । अग्रहीषातां अग्रहीषत । अदर्शि अदर्शिषाता अदर्शिषत । अदृक्षातां अदृक्षत् । अदृष्ठा: अदृक्षाथां अदृड्दवं ।। श्वस्तनी । भाविता भविता । साविता सविता । सोता। घानिता। हन्ता । ग्राहिता । ग्रहीता । दर्शिता । दृष्टा ।। आशी: । भविशेष्ट । भविषीष्ट । साविषीष्ट सविधीष्ट । सोषीष्ट । हन्तेर्वधिराशिषि ॥३७१॥ अन्वभावि अन्वभाविषातां अन्वभाविषत। अन्वभवि। असावि असाविषातां अपराविषत । असोषातां असोषत । असविषतां । इन् और इच के आने पर हन् के ह को घ हो जाता है ॥३६७ ॥ अघानि अघानिषातां अधानिषत । __ हन् और.मन् से परे असार्वधातुक अनिट् होता है ॥३६८ ॥ अहसाता अहसत। श्लोकार्थ-सिच् और आत्मनेपद में हन धातु से आत्मनेपद होने पर सिच् प्रत्यय परे इट् का अभाव होता है यम धातु से सूचना अर्थ में इट का अभाव होता है विवाह अर्थ में तो विकल्प से होता है तथा गम धातु से सिच् और आशीर्वाद में इट् का अभाव होता है। अद्यतनी में आत्मनेपद के आने पर हन् को वध आदेश विकल्प से होता है । ।३६९ ॥ अवधि अवधिषातां अबधिषत ।। इच के समान इट् को दीर्घ नहीं होता है ॥३७० ॥ अग्राहिषातां अग्राहिषत् । अग्रहीघातां अग्रहीषत । अदर्शि अदर्शिषातां अदर्शिषत । अदृक्षातां अदक्षत । श्वस्तनी में—भाविता भविता। साविता, सविता, सोता । घानिता, हन्ता । दर्शिता दृष्टा आदि । आशी में-माविषीष्ट, भविषीष्ट । आशिष् के आने पर हन् को वध आदेश होता है ॥३७१ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २८५ हन्तेर्वधिरादेशो भवति आशिषि च परे । वाधिषीष्ट वधिषीष्ट । ग्राहिषीष्ट । ग्रहीपीष्ट । दर्शिषीष्ट । दृक्षीष्ट ॥ भविष्यन्ती। भाविष्यते भविष्यते। साविष्यने मनिष्यते । गमिष्यते चेपते । शानिष्यते हनिष्यते । ग्राहिष्यते। ग्रहीष्यते । दर्शिष्यते दृश्यते ।। क्रियातिपत्यां। अभाविष्यत अभविष्यत । असाविष्यत असदिष्यत असोष्यत । अचायिष्यत अचेष्यत । अघानिष्यत । अहनिष्यत । अग्राहिष्यत अग्रहीष्यत । अदर्शिष्यत अदृश्यत । इत्यादि । एवं सर्वमुत्रेयं । अथ सनादिप्रत्ययान्ता धातवः प्रदर्श्यन्ते गुप्तिज्किद्भ्यः सन् ॥३७२ ॥ 'गुप् ति कित् एभ्य: पर: सन् भवति स्वार्थे । गुपादेश्च ॥३७३॥ गुपादेः सनि परे नेड् भवति। स्मिड्यूझज्ज्वश्कगृधप्रच्छां सनि ।।३७४॥ एषां धातूनां सनि परे इडागमो भवति । इति स्मिडादिनियमाभावात् । सनि चानिटि॥३७५ ॥ नामिन उपधाया गुणो न भवति अनिटि सनि परे । द्विवचनमभ्यासकार्य च कार्य । ते धावतः ॥३७६ ॥ ते सनादिप्रत्ययान्ता: शब्दा: धातुसंज्ञा भवन्ति । पूर्ववत्सनन्तात्।।३७७॥ वाधिषीष्ट, वधिषीष्ट । ग्राहिषीष्ट, प्रहीषीष्ट । दशिषीष्ट दृक्षीष्ट । भविष्यन्ती में...-भाविष्यते। भविष्यते । चायिष्यते । वेष्यते। घानिष्यते हनिष्यते। ग्राहिष्यते ग्रहीष्यते । दर्शिष्यते, द्रक्ष्यते । क्रियातिपत्ति में अभाविष्यत अभविष्यत । असाविष्यत असविष्यत असोष्यत। अचायिष्यत अचेष्यत । अघानिष्यत अहनिध्यत । अग्राहिष्यत अग्रहीष्यत । अदर्शिष्यत । अद्रक्ष्यत । इत्यादि । इसी प्रकार सभी समझ लेना चाहिये। अथ सनादिप्रत्ययान्त धातु कहे जाते हैं। गुप् ति कित् से परे स्वार्थ में सन् प्रत्यय होता है ॥३७२ ।। गुपादि से सन् प्रत्यय के आने पर इट् नहीं होता है ॥३७३ ।। स्मिङ् पूङ् रञ्ज आदि धातु को सन् के आने पर इद का आगम हो जाता है ॥३७४ ।। इस प्रकार से स्मिङ् आदि के नियम का अभाव है। अनिट् सन् के आने पर नामि की उपधा को गुण नहीं होता है ॥३७५ ॥ सन् प्रत्यय के आने पर द्वित्व एवं अभ्यास कार्य भी होते हैं। गुप् गुप् सन् ते जुगुप् स ते वे सनादि प्रत्ययान्त शब्द धातु संज्ञक होते हैं ॥३७६ ॥ अर्थात् जो धातु आत्मनेपदी है वह आत्मनेपद होता है अत: जुगुप्ससे आत्मनेपद हुआ। सनंत धातु से पूर्ववत् पद संज्ञा होती है ॥३७७ ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ कातन्त्ररूपमाला सनन्ताद्धातोः पूर्ववत्पदं भवति ।। गुप् गोपनकुत्सनयोः। जुगुप्सते मां जुगुप्सेते । जुगुप्सन्ते। जुगुप्सेत । जुगुप्सतां अजुगुप्सत। अस्य च लोपः ।।३७८ ।। धातोरस्य लोपो भवत्यननि प्रत्यये परे । अजुगुप्सिष्ट । जुगुप्साञ्चक्रे । जुगुप्सिता । जुगुप्सिषीष्ट । जुगुप्सिष्यते । अजुगुप्सिष्यत ॥ तिज निशाने क्षमायाञ्च । तितिक्षते । कित निवासे रोगापनयने च। विधिकित्सति । अकारोच्चारणं कि ? स्वरादेर्द्वितीयस्येति सन एव द्विवचनार्थं । तेन अर्थान् प्रतोषिषति । मान्बधदान्शान्भ्यो दीर्घश्चाभ्यासस्य ।।३७९॥ मानादिभ्यो धातुभ्य: पर: सन् भवति तेषां धातूनामभ्यासस्य दीपो भवति स्वार्थे ।। मानपूजायां । मोमांसते । बध बन्धने । बीभत्सते । दान अवखण्डने । दीदासते । शान तेजने । शीशांसति । शीशांसते । गुपो बधेश निन्दायां क्षमायां च तथा तिजः ।। संशये च प्रतीकारे कित: सन्नभिधीयते ॥१॥ जिज्ञासावजयोरेव मानदानोर्विधीयते ॥ निशानेऽर्थे तथा शानो नायमर्थान्तरे क्वचित ॥२।। धातोर्वा तुमन्तादिच्छतिनेककर्तृकात् ॥३८० ।। तुमन्तादिच्छतिना सह एककर्तृकाद्धातोः परः सन् वा भवति । उवर्णान्ताच्च ।।३८१ ।। ---- - - -- - - - -- गुप्-गोपन और कुत्सन अर्थ में है । जुगुप्सते । जुगुप्सेत । जुगुप्सतां । अजुगुप्सत । अन् प्रत्यय के न होने पर धातु के अकार का लोप होता है ॥३७८ ॥ अजुगुप्सिष्ट । जुगुप्साश्चक्रे । जुगुप्सिता । जुगुप्सिषीष्ट जुगुप्सिष्यते । अजुगुप्सिष्यत । तिज-निशान और क्षमा अर्थ है । तितिक्षते । कित-निवास और रोग को दूर करना । चिकित्सति । अकार का उच्चारण क्यों ? 'स्वरादेर्द्वितीयस्य' इस सूत्र से सन् प्रत्यय में द्वित्व होता है। मान् वध, दान, शान् से परे सन् होता है और स्वार्थ में धातु के अभ्यास को दीर्घ होता है ॥३७९ ॥ मान-पूजा अर्थ में है “सन्यवर्णयस्य" २९७ सूत्र से अभ्यास को इत्व होकर इसी ३७९ सूत्र से दीर्घ होकर मीमांसते बना । बध-बन्धन होना । बीभत्सते । दान अवखण्डन करना। दीदांसते । शान-तेज अर्थ में है। शीशांसति । शीशांसते। श्लोकार्थ—गुप और वध धातु निंदा अर्थ में तिज धातु तितिक्षा क्षमा अर्थ में कित धातु संशय और प्रतीकार अर्थ में हैं ॥१॥ ___ मान और दान धातु जिज्ञासा और अवज्ञा अर्थ में एवं शान् धातु निशान अर्थ में हैं ये क्वचित् अर्थांतर में नहीं हैं ॥२॥ तुमन्त से इच्छति धातु के साथ एक कर्तृक, धातु से परे सन् प्रत्यय विकल्प से होता है ॥३८०॥ उवर्णान्त धातु से सन् के आने पर इट् नहीं होता है ॥३८१ ॥ - - -- - - -- Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! तिङन्त: २८७ उवर्णान्ताद्धातोर्नेड् भवति सनि परे । भवितुमिच्छति बुभूषति । एदिधिषते । पिपक्षति | पिपक्षते । निन्दिषति । सिसिषते । बिभ्रंशिषते । दिध्वंसिषते । विवासति । विवासते । विव्यासति । विव्यासते । जेर्गि: सन्परोक्षयोः ॥ ३८२ ॥ जयतेर्गिर्भवति सन्परोक्षयोः परतः । स्वरान्तानां सनि ॥ ३८३ ॥ स्वरान्तानां धातूनां दीर्घो भवति सनि परे । नाम्यन्तानामनिटाम् ॥ ३८४ ॥ नाम्यन्तानां धातूनामनिटां सनि गुणो न भवति । विजिगीषते । परोक्षायां जिगाय जिग्यतु: जिग्यु: । विजिग्ये विजिग्याते विजिग्यिरे ॥ चिचीषति । निनीषति । तुष्टृषति । अदेर्घस्लृ सनद्यतन्योः । वसतिघसेः सात् ॥ ३८५ ॥ आभ्यां परमसार्वधातुकमनिड् भवति । सस्य सेsसार्वधातुके तः ॥ ३८६ ॥ 1 सस्य तकारो भवति धातुकेसन परे। जिला से विवत्सति । शिशयिषते । विवक्षति । विवक्षते । जुहूषति । जिहासते । सनि मिमीमादार भलभशकपतपदामिस् स्वरस्य ।। ३८७ ।। भवितुं इच्छति — होना चाहता है। यहाँ भवितुं क्रिया और इच्छति क्रिया का कर्ता एक है अत: सन् प्रत्यय आने से 'चण् परोक्षाचेक्रीयितसन्नंतेषु' से द्वित्व होकर 'पूर्वोऽभ्यासः' से पूर्व को अभ्यास हुआ, ह्रस्व हुआ और तृतीय अक्षर होकर बुभूषति अब इसके रूप भवति के समान देशों लकारों में चल जायेंगे। एधितुम् इच्छति = एदिधिषते । पत्तुम् इच्छति = पिपक्षति । पिपक्षते । नन्दितुम् इच्छति = निनन्दिषति । स्रंसितुम इच्छति सित्रसिषते। बिभ्रंसिषते । दिध्वंसिषते । वातुमिच्छति विवासति । विवासते । वायितुमिच्छति । विव्यासति । त्रिव्यासते । विजेतुम् इच्छति = विजि जिस ति । सन् और परोक्षा में जि को गि हो जाता है ॥ ३८२ ॥ सन् के आने पर स्वरांत धातु को दीर्घ होता है | ३८३ ॥ नाम्यन्त अनि धातु को सन् के आने पर गुण नहीं होता है ॥ ३८४ ॥ = विजिगीषते । परोक्षा में - जिगाय जिग्यतुः जिग्युः । विजिग्ये । चेतुम् इच्छति चिचीषति ३८२ सूत्र से दीर्घ हुआ है। नेतुम् इच्छति = निनीषति । स्तोतुम् इच्छति = तुष्टषति । अद् को २६२ सूत्र से घस्लृ आदेश होकर | वस और घस् से असार्वधातुक में इट् नहीं होता है ॥ ३८५ ॥ घस् घस् सन् ति क वर्ग को च वर्ग होकर अभ्यास को इवर्ण एवं तृतीय अक्षर होकर जिघस् स ति । असार्वधातुक सकार के आने पर धातु के सकार को तकार हो जाता है ॥ ३८६ ॥ जिघत्सति । वस-निवास करना = विवत्सति । शयितुम् इच्छति । शिशयिषते । वक्तुम् इच्छति = वित्रक्षति । विवक्षते । होतुम् इच्छति = जुहूषति । हातुम् इच्छति = जिहासते । मिञ् मीङ् माङ् दा र्भ लभ शक पत पद के स्वर को इस आदेश हो जाता है और सन् के आने पर अभ्यास का लोप हो जाता है ॥ ३८७ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ कातन्त्ररूपमाला __मिजादीनां स्वरस्य इसादेशो भवति अभ्यासलोपन सनि परे । डुमिन् प्रक्षेपणे। मातुमिच्छति मित्सति मित्सते। मी श्लेषणे । मामिच्छति मित्सते । मा इति मेमाडोरपि ग्रहणं । मातुमिच्छति मित्सते । धित्सति धित्सते । दित्सति । दित्सते । रभ राभस्ये । आरिप्सते । डुलमा प्राप्तौ । आलिप्सते । शक्ल शक्तौ । शक्तुमिच्छति शिक्षा : एल शल पातृ सौ : पि.पति पद नतो . पिसते . इबन्तर्धभ्रस्जदम्भुश्रियूर्णभरज्ञपिसनितनिपतिदरिद्रां वा ॥३८८ ॥ एषां वा इड् भवति सनि परे । देवितुमिच्छति सन् दिदेविषति ।। ऋध वृद्धौ । अदितुमिच्छति सन् अदिधिपति । भ्रस्ज पाके ।। बिभ्रज्जिपति । बिभ्रक्षति अत्र भ्रस्जे जादेशो वा इति भ्रस्जेस्थाने भृजादेशः । दम्भु दम्भे । दिदम्भिवति । भज श्रिङ् सेवायां । शिश्रयिषति शिश्रीवति । यु मिश्रणे । । उवर्णस्य जान्तस्थापवर्गपरस्यावणे ॥३८९॥ जान्तस्यापवर्गपरस्याभ्यासोवर्णस्य इत्वं भवत्यवणे परे सनि । यियविषति । युयूषति । जु इति सौत्रोऽयं धातः । जिजावयिषति ।। टक्षक शब्दे। शिवयिषति । लिलावयिषति । लनाति कथितमन्यः प्रयुक्ते। धातोश्च हेताविन् । पिपावयिषति । पिपिविषति । बिभावयिषति । बिभविषति । कर्णञ् आच्छादने । प्रोर्णवितुमिच्छति सन् प्रोणुनविषति । बिभरिषति । ज्ञपि । जिज्ञपयिषति ज्ञीप्सति । षणु दाने । सिषनिषति । स्तौतीनन्तयोरेव पणि ।।३९० ॥ __निमित्तात् पर: स्तौतीनन्तयोरेव स: षमापद्यते षणि षत्वभूते सनि परे । इति नियमान्न षत्वम् । सिसासति ॥ दरिद्रा दुर्गतौ। डुमिन्–प्रक्षेपण करना । मातुम् इच्छति 'सस्य सेऽसार्वधातुकेत:' से स को त होकर मित्सति । मित्सते। मीङ्-श्लेषण करना । मातुम् इच्छति = मित्सते । मा इससे मेङ् माङ का भी ग्रहण होता है। मातुम् इच्छति= मित्सते। धातुम् इच्छति =धित्सति धित्सते। दातुम् इच्छति =दित्सति दित्सते । रभ-प्रारंभ करना=आरिप्सते डुलभष्-प्राप्त करता है = आलिप्सते । शक्ल = शक्ति अर्थ में है शक्तुम् इच्छति = शिक्षति । पल शल पत्लु-गति अर्थ में है। पित्सति । पद-गति अर्थ में है पित्सते। इप अन्तः ऋध भ्रस्ज् दम्भु श्रि यु ऊर्ण भर ज्ञप सन् तन् पति दरिद्र शब्दों से सन् के आने पर इट् विकल्प से होता है ॥३८८ ॥ देवितुम् इच्छति = दिदेविषति। ऋध-वृद्धि होना= अर्द्धितुम् इच्छति = अदिधिषति । भ्रस्ज्-भजितुम् इच्छति = विभ्रजिषति । विभ्रक्षति । भ्रस्जको विकल्प से भृज आदेश हो जाता है । दम्भु-दम्भ करना । दिदम्भिवति । एज श्रिञ्-सेवा करना । शिश्रयिषति । शिश्रीपति । यु-मिश्रण करना। जकारान्त प वर्ग से रहित अभ्यास के उ वर्ण को सन् के आने पर इ वर्ण हो जाता है ॥३८९ ॥ विकल्प से—यियविषति, युयूषति जु यह धातु सूत्र में है। जिजावयिषति । टु, क्षुरु, कु-शब्द करना । रिरावयिषति । लिलायिषति । कोई काटता है, अन्य कोई उसको प्रेरित करता है इस अर्थ में "धातोश्च हेताविन्"४४७ से पाययितुम् इच्छति = पिपावयिषति। पिपविषति । विभावयितुम् इच्छति विभावयिषति विविति । ऊर्णञ्-आच्छादन करना प्रोर्णवितुम् इच्छति । प्रोणुन-विषति । भर्तुम् इच्छति = ब्रिरिषति । ज्ञप्-जिज्ञपयिषति, ज्ञीप्सति । षणु-देना। सिपनिषति ।। सन् के आने पर निमित्त से परे स्तौति और इवत में ही स को घ होता है ॥३९० ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः दरिद्रातेरसार्वधातुके ॥ ३९९ ॥ दरिद्रातेरन्तस्य लोपो भवत्यसार्वधातुके स्वरे परे ।। दिदरिद्रिषति । अत्र इटि च आकारलोपः । छ्वोः शूठौ पञ्चमे च ॥ ३९२ ॥ छकारवकारयोर्यथासंख्यं शु ऊठ् इत्येतौ भवतः क्वौ धुट्यगुणे प्रत्यये पञ्चमे परे । दिद्यूषति । ऋधिज्ञपोरीरीतौ ॥ ३९३ ॥ ऋधिज्ञपोरीरीतौ भवतोऽभ्यासलोपश्च सनि परे । ज्ञीप्सति । ईर्त्सति । २८९ भृजादीनां षः ।। ३९४ ॥ भुजादीनां धातूनामन्तः षो भवति धुट्यन्ते च । इति जकारस्य षकारः । निभृक्षति । दम्भेस्सनि ।। ३९५ ।। दंभेरनुषङ्गो लोप्यो भवत्यनिटि सनि परे । तृतीयादेर्घढघभान्तस्येत्यादिना षत्वं । दम्भेरिच्च ॥ ३९६ ॥ दम्भः स्वरस्य इत् ईच्च भवति अभ्यासलोपश्च सनि परे सति । ति । शिश्रीपति मुचूषति । उरोष्ठ्योपधस्य च ॥ ३९७ ।। ओष्ठ्योपधस्य ऋदन्तस्य उर् भवति अगुणे प्रत्यये परे । नामिनो वॉरकुर्च्छर्घ्यञ्जने इत्युपधाया दीर्घो भवति । बुभूषति । इस नियम से ष नहीं हुआ तो सिसासति । दरिद्रा दुर्गति अर्थ में हैं 1 असार्वधातुक स्वर के आने पर दरिद्रा के अन्त का लोप हो जाता है ॥ ३९९ ॥ दिदरिद्रिषति । यहाँ आकार का लोप और इट् हुआ है। क्वि, धुट् अगुण, प्रत्यय पञ्चम के आने पर छकार वकार को क्रम से शु हो जाता है ॥ ३९२ ॥ दिधूषति । सन् के आने पर ऋध शप् को 'ई' 'ईत्' हो जाता है और अभ्यास का लोप हो जाता है ॥ ३९३ ॥ ज्ञीप्सति । ईर्त्सति । घुट् अन्त में आने पर भृजादि धातु के अंत को 'ष' होता है ॥ ३९४ ॥ इस प्रकार से कार को षकार हो गया है बिभृक्षति | और ऊठ अनिट् सन् के आने पर दम्भ के अनुषंग का लोप हो जाता है ॥ ३९५ ॥ १४४वें सूत्र से धकार हो गया है I 가 " तृतीयादेवढ धभान्तस्य सन् के आने पर दंभ के स्वर को इत् ईत् हो जाता है और अभ्यास का लोप हो जाता है ॥ ३९६ ॥ द् को ध् अनुषंग का लोप अ को इ और ई तथा भ् को प् होकर धिप्सति, धीप्सति । शिश्रीषति युयूषति । अगुण प्रत्यय के आने पर ओष्ठ्य की उपधा के ऋदन्त को उर् हो जाता है ॥ ३९७ ॥ “नामिनोर्वो" इत्यादि सूत्र १८३ से उपधा को दीर्घ होकर बुभूषति बना । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० कातन्त्ररूपमाला पचमोपधाया धुटि चागुणे ॥३९८ ।। पञ्चमस्योपधाया दी? भवति क्वौ थुट्यगुणे प्रत्यये परे। वनतितमोत्यादिप्रतिषिद्धेटां धुटि पञ्चमोऽच्चातः ॥३९९॥ वनतेस्तनोत्यादेः प्रतिषिद्धेटां च धातूनां पञ्चमी लोप्यो भवति आतश्च अद्भवति यथासंभवं को धुट्यगुणे पञ्चमे प्रत्यये परत: अनद्यतने धुटि परे । धुटि खनिसनिजनां पञ्चमस्याकार इति नकारस्थाने आकारादेशः । षणु दाने । सिषासति पिपतिषति । पिपित्सति । पतितुमिच्छति । तनोतेरनिटि वा ॥४००॥ तनोतेरुपधाया दीर्घो भवति अनिटि सनि परे। तितांसति । तितंसति । तितनिषति । दरिद्रातेरसार्वधातुक इत्यन्तलोपे प्राप्ते । अनिटि सनि ।।४०१॥ अनिटि सनि परे दरिद्रातेरन्त्यस्य लोपो न । दरिद्रासति । दरिद्रिषति । स्तौतीनन्तयोरेव षणि॥४०२।। निमित्तात्परः प्रत्ययविकारागमस्थ: स्तोतीनन्तयोरेव सः धमापद्यते षत्वभूते सनि परे । तुष्टुषति । सिषेवयिषति । इति नियमात् । सूसूपति । निनत्सति । निनत्सते । “स्मियूरज्ज्वरकृगृधृप्रच्छा सनि"। स्मिङ्ग ईषद्धसने । सिस्मयिषते । पूङ्ग पिपविषते। पूअस्तु न स्यात् ॥४०३ ।। क्वि एवं धुद अगुण प्रत्यय के आने पर पञ्चम की उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥३९८ ॥ पञ्चम के उपधा को दीर्घ होकर तनितुं इच्छति-तितांसति। वन, तन, आदि इट् रहित धातु के पञ्चम का लोप होता है। क्वि, धुट् अगुण पञ्चम प्रत्यय के आने पर आत् को अत् होता है ॥३९९ ॥ "धुट् के आने पर खन सन जन के पश्चम अक्षर को अकार” अर्थात् ७०४ सूत्र से नकार को अकार हो जाता है । घणु-दान देना - सिषासति । पतितुम् इच्छति = पिपतिषिति । पिपित्सति । अनिट् सन् के आने पर तन् की उपधा को दीर्घ विकल्प से होता है ॥४०० ॥ तितासति, तितंसति, तितनिषति । “दरिद्रातेरसार्वधातुके” ३९१ से अन्त्य का लोप प्राप्त था अनिट् सन् के आने पर दरिद्रा के अन्त्य का लोप नहीं होता है ॥४०१॥ दरिद्रासति । दरिद्रिषति । दिदरिद्रासति । दिदरिद्रिषति निमित्त से परे प्रत्ययविकारागमस्थ स्तौति और इन्नंत का सकार षकार हो जाता है षत्वभूत सन् के आने पर ॥४०२ ।। तुष्टुषति । सिसेवयिषति । इस नियम से सुसूपति । निनत्सति । निनत्सते । “स्मिङ पूङ रञ्च शक् गृधृप्रच्छासनि" सूत्र ३७४ से इट् होने से-स्मिङ्-किंचित् हंसना-मुस्कराना। सिस्मयिषते। पूड-पिपविषते। पूञ् धातु से इट नहीं होता है ॥४०३ ।। पवितुं इच्छति = घुपूषति । क्र अरिरिषति । अञ्ज-अञ्जिजिषति । अश् = अशिशिषति । री-म् Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: २९१ पून् धातो: पर इड् न स्यात् । पूञ् पवने । पवितुमिच्छति पुपूषति । ऋ अरिरिषति | अंज अञ्जिजिषति । अश् अशिशिषति । चिकरिषति । गृ निगरणे । जिगरिषति । जिग लिषति । दृय् अनादरे । दिदरिषति । धृञ् अनवस्थाने दिधरिषति । ग्रहिस्वपिप्रच्छां सनि ॥ ४०४ ॥ एषां सम्प्रसारणं भवति सनि परे । पिपृच्छिषति । सुषुप्सति । चेः किर्वा ॥४०५ ॥ चे: किर्भवति वा परोक्षायां सनि च परे । चिकीषति । चिकीषते । तुतुत्सति । मुमूर्षति मुमूर्षते । मुमुक्षति । मुमुक्षते । रुरुत्सति । बभुक्षते । युयुक्षति ययुक्षते । ऋदन्तस्येरगुणे ||४०६ || ऋदन्तस्य इर भवति अगुणे परे । चिकीर्षति । चिकीर्षते । चिकीषति । चिक्रीषते । वृड्वृञोश्च ।।४०७ ॥ वृङ्वृञोश्च ऋकारस्य उर् भवत्यगुणे परे । बुवूर्षते । विवरिषते । ग्रहिगुहः सनि ॥ ४०८ ॥ ग्रहिगुहो : सनि नेड् भवति । जिघृक्षति । जिघृक्षते। गुहू संवरणे । जुघुक्षति । चोरयितुमिच्छति सन् । चुचोरयिषति । तन्त्रयितुमिच्छति । सन् । तितन्त्रयिषति । विवारयिषति । विवारयिषते । इत्यादि । एवं सर्वमुत्रेयं । इति सनन्तः समाप्तः । कृ = चिकरिषति । गृ-जिगरिषति : जिगलिषति । दृज् = अनादर करना। दिदरिषति । धृञ्-घूमना, दिपरिषति । सन् के आने पर गृह स्वप और प्रच्छ को संप्रसारण हो जाता है ॥ ४०४ ॥ पिपृच्छिषति । सुषुप्सति । परोक्षा और सन् में चवर्ग को कवर्ग होता है ॥४०५॥ चेतुम् इच्छति = चिकीषति । चिकीषते । तुतुत्सति । मर्तुम् इच्छति-क्र को उर् और उपधा को दीर्घ होकर मुमूर्षति । मुमूर्षते । मोक्तुम् इच्छति मुमुक्षति । मुमुक्षते । रुधिर - रुरुत्सति । भोक्तुम् इच्छति बुभुक्षते । युयुक्षति । युयुक्षते । I अगुण में ऋदंत को इर् होता है ॥ ४०६ ॥ कर्तुम् इच्छति चिकीर्षति । चिकीर्षते । क्री-खरीदना चिक्रीषति । चिक्रीषते । अगुण के आने पर वृ और वृड् के ऋकार को उर् होता है ॥ ४०७ ॥ वुवूषते । विवरिषते । सन् के आने पर ग्रह और गुह को इट् नहीं होता है ॥ ४०८ ॥ ग्रह, यह कवर्ग को चवर्ग होकर ज ग्रह अभ्यास को इवर्ण, ग्रह को संप्रसारण तृतीय को चतुर्थ अक्षर घृ एवं " हो ढः " से ढ " षढोः कः से" सूत्र से क् होकर चिघृक्षते। गुहू—संवरण करना । जुघुक्षति । चोरयितुम् इच्छति = चुचोरयिषति । तंत्रयितुं इच्छति = तितन्त्रयिषति । विवारयिषति । विधारयिषते । इत्यादि । ' इस प्रकार से सनंत प्रकरण समाप्त हुआ । ● Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ कातन्त्ररूपमाला धातार्यशब्दश्चक्रीयित क्रियासमाभहारे ॥४०९।। । क्रियासमभिहारे वर्तमानाद्धातोर्व्यञ्जनादेर्यशब्दग्रहणाधिक्याच्चेक्रीयितसंज्ञको यो भवति क्रियासमभिहारे । शुभरुचादिवर्जितादेकस्वरत्परो यशब्दो भवति । क्रियासमभिहार: पौन:पुन्यं भृशाओं वा। भृशं भवति पुन: पुनर्वा भवति । गुणश्चक्रीयिते ॥४१० ॥ अभ्यासस्य गुणो भवति चेक्रीयिते प्रत्यये परे । चेक्रीयितान्तात् ।।४११।। चेक्रोयितान्ताद्धातोः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । बोभूयते । बोभूयेत । बो भूयतां । अबोभूयत । अस्य च इति लोप: । अबोभूयिष्ट । बोभूयाञ्चक्रे । बोभूयिता । बोभूयिषीष्ट । अबोभूयिष्ट । अबोभूयिष्यत ।। दीघोंऽनागमस्य ।।४१२ ।।। अनागमस्याभ्यासस्य दीघों भवति चेक्रीयिते प्रत्यये परे । पापच्यते । पापच्येत । पापच्यतां । अपापच्यत । यस्याननि ॥४१३ ।। व्यञ्जनात्परस्य यस्य लोपो भवति अपनि प्रत्यये परे । अपापचिष्ट । गत्यर्थात्कौटिल्ये च ।।४१४॥ गत्यर्थाद्धातो: कौटिल्येऽर्थे चेक्रीयितसंज्ञको यो भवति । अथ चेक्रीयित प्रत्ययान्त धातु प्रकरण प्रारंभ। क्रिया समभिहार में धातु से चेक्रीयित प्रत्यय 'य' होता है ।।४०९ ॥ क्रिया समभिहार अर्थ में वर्तमान धातु से व्यञ्जनादि 'य' शब्द ग्रहण की अधिकता से चेक्रीयित संज्ञक 'य' प्रत्यय होता है। शुभ रुचादिवर्जित एकस्वर से परे 'य' प्रत्यय होता है। क्रिया समभिहार किसे कहते हैं ? पौनः पुन्यं भृशार्थो वा पुन: पुन: अथवा अतिशय अर्थ को क्रिया समभिहार कहते हैं। भृशं भवति, पुन: पुनर्वा भवति । भूभू य "चण् परोक्षा चेक्रीयित सत्रतेषु" सूत्र से द्वित्व होकर अभ्यास को तृतीय अक्षर हो गया है। चेक्रीयित प्रत्यय के आने पर अभ्यास को गुण होता है ॥४१० ॥ चेक्रीयितान्त धातु से कर्ता में आत्मनेपद होता है ॥४११ ।। 'ते धातवः' से धातु संज्ञा होकर ते विभक्ति आकर बोभूयते बना। बोभूयेत, बोभूयतां अबोभूयत । 'अस्य च' सूत्र से अकार का लोप होकर इट् सिच् होकर अबोभूयिष्ट । बोभूयाश्चक्रे बोभूयिता । बोभूयिषीष्ट 1 बोभूयिष्यते। अबोभूयिष्यत्त । पपच् यते । चेक्रीयित प्रत्यय के आने पर अनागम अभ्यास को दीर्घ हो जाता है ॥४१२ ॥ पापच्यते । पापच्येत । पापच्यतां । अपापच्यत । अन् प्रत्यय के न आने पर व्यंजन से परे 'य' का लोप हो जाता है ॥४१३ ॥ इट् सिच् होकर अपाविष्ट । इत्यादि । क्रमु-पादविक्षेपण करना । गत्यर्थ धातु से कुटिलता अर्थ में चेक्रीयित संज्ञक “य' प्रत्यय होता है ॥४१४॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः अतोन्तोऽनुस्वारोऽनुनासिकान्तस्य ॥४९५ ॥ 1 अनुनासिकान्तस्य धातोरभ्यासस्यान्ते अनुस्वारागमो भवति चेक्रीयिते परे । चंक्रम्यते । कुटिल इति किम् ? भृशं पुन: पुनर्वा क्रामति । वश्चिस्त्रंसिध्वंसिभ्रंसिकसिपतिपदिस्कन्दामन्तो नी ॥ ४१६ ॥ एषामभ्यासस्यान्तो नी आगमो भवति चेक्रीयिते प्रत्यये परे । वनीवच्यते । अनिदनुबन्धानामगुणेनुषङ्गलोपः । अत्यर्थं स्रंसते सनीस्रस्यते । दनीध्वस्यते । बनी भ्रस्यते । स गतौ । कसि गतिशासनयोः । अत्यर्थं कसति चनीकस्यते । पनीपत्यते । स्कन्दिर् गतिशोषणयोः । चनीष्कद्यते । घ्राध्मोरी ॥ ४१७ ।। I घ्राध्मोरित्येतयोराकारस्य ईकारो भवति चेक्रीयिते प्रत्यये परे । जेत्रीयते । देश्मीयते । " हन्तेर्नी वा वक्तव्यं" हन्तेर्नी वा भवति चेक्रीयिते प्रत्यये परे अत्यर्थं हन्ति जेघ्नीयते । अभ्यासाच्च ॥४१॥ अभ्यासात्परस्य हन्तेर्हस्य घो भवति । २९३ अतोन्तोऽनुस्वारोऽनुनासिकान्तस्य ॥४९९ ।। धातोरभ्यासस्य अतः अकारास्यान्तोऽनुस्वारागमो भवति चेक्रीयिते परे । जंधन्यते । ये वा ||४२० ।। अनुनासिकान्त धातु से चेक्रीयित प्रत्यय के आने पर अभ्यास के अंत में अनुस्वार का आगम हो जाता है ॥४१५ ॥ चक्रम्यते = चंक्रम्यते । कुटिल अर्थ में हो ऐसा क्यों कहा ? भृशं पुनः पुनर्वा क्रामति यहाँ चक्रीति प्रत्यय नहीं हुआ हैं I वञ्च, स्रंस, ध्वंस् भ्रंस कसि पति पदि स्कंद धातु को चेक्रीयित प्रत्यय के आने पर अभ्यास के अंत में 'नी' का आगम हो जाता है ॥४१६ ॥ = 'इदनुबंध' को अगुण में अनुषंग का लोप हो गया । वनीवच्यते । अत्यर्थं स्रंसते = सनीस्त्रस्यते । दनीध्वस्यते । बनीभ्रस्यते । कस— गमन करना। कसि गमन और शासन अत्यर्थ कसति = 'वनीकस्यते । अत्यर्थं पतति पनीपत्यते । स्कंदिर्— गति और शोषण अर्थ में हैं । चनीस्कद्यते । चक्रीति प्रत्यय के आने पर घ्रा और ध्या के आकार को ईकार हो जाता है ||४१७ ॥ जेीयते । देमीयते । “हन् को घ्नी विकल्प से होता है" अत्यर्थं हन्ति = जेनीयते । पक्ष में-- ज = हन् य ते । अभ्यास से परे हन् के ह को घ हो जाता है ॥४१८ चक्रीति प्रत्यय के आने पर अनुनासिकांत होने से धातु के अभ्यास के अंत में अनुस्वार का आगम हो जाता है ||४१९ ॥ जंघयते । अगुण यकार प्रत्यय के आने पर खन सन जन के अंत को विकल्प से आकार हो जाता है ॥४२० ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामदारमाला यकारादावगुणे प्रत्यये परे खनिसनिजनामन्तस्य आकारो भवति वा । खनु अवदारणे । चंखन्यते । चाखायते। षणु दाने । संसन्यते । सासायते । जंजन्यते । जाजायते। स्वपिस्यमिव्येां चेक्रीयिते ॥४२१ ॥ एषां धातूनां सम्प्रसारणं भवति चेक्रीयिते परे । विष्वप् शये। सोषुप्यते । स्यम स्वन ध्वन शब्दे । सेसिम्यते । व्ये संवरणे । अत्यर्थं व्ययति वेवीयते। अद्वंट्यश्नात्यूर्गुसूचिसूत्रिमूत्रिभ्यश्च ।।४२२ ॥ एभ्यः परशेक्रीयितसंज्ञको यो भवति । चेक्रीयिते च ॥४२३ ॥ __ अतिसंयोगाद्योश्च गुणो भवति चेक्रीयिते । अकारस्य रेफरस्य द्विरुक्तिर्भवति यकारेऽपि । अरार्यते । स्मृ ध्यै चिन्तायां । सास्मयते । अट् गतौ । अटाट्यते । अश् भोजने। अशाश्यते । प्रणोनूयते । सूच पैशून्ये । सोसूच्यते । सूत्र अवमोचने । सोसूत्र्यते । मूत्र प्रस्रवणे । मोमूत्र्यते। अयीर्ये ।।४२४॥ शीको अय् यो भवति यकारे परे। शाशय्यते । वावच्यते । जोहूयते। जाहीयते । देधीयते । मेमीयते । जेगीयते । पेपीयते । तेष्ठीयते । अवसेषीयते । जेहीयते। देदीव्यते । सोधूयते । नानह्यते । अभिषोषूयते । अशाश्यते । चेचीयते । चाय पूजानिशामनयोः । चाय: किशेक्रोधिते ॥४२५ ॥ खनु-अवदारण करना-खोदना। चंखन्यते, चाखायते । पणु-दान देना, संसन्यते, सासायते । जंजन्यते, जाजायते । चेक्रीयित प्रत्यय के आने पर स्वप, स्यम और व्येब् धातु को संप्रसारण हो जाता है ॥४२१ ॥ विष्वप–सोषुप्यते । स्यम स्वन ध्वन-शब्द करना। सेसिम्यते । स्यम को संप्रसारण में सिम हुआ है। अत्यर्थं व्ययति । व्ये = वेवीयते । ऋ धातु हैऋ अट् अश, ऊर्गु नु सूचि सूत्रि मूत्रि से परे चेक्रीयित 'य' प्रत्यय होता है ।।४२२ ।। चेक्रीयित में ऋ और संयोगादि को गुण होता है ॥४२३ ॥ यकार के आने पर भी अकार और रकार को द्वित्व होता है । अरार्यते । स्मृ ध्य-चितवन करना। सास्मर्यते। अटाट्यते । ४१२ से अभ्यास को दीर्घ हो रहा है। अश्– भोजन करना =अशाश्यते । प्रोर्णोनूयते । सूत्र-पैशुन्य करना। सोसूच्यते । सूत्र—अवमोचने । सोसूत्र्यते । मूत्र–प्रस्रवण करना । मोमूत्र्यते। यकार के आने पर शीङ् के अय् को य हो जाता है ॥४२४ ॥ शाशय्यते । वावच्यते । जोहूयते । जाहीयते । देधीयते मेमीयते । जेगीयते । पेपीयते । तेष्ठीयते । अवसेषीयते । जेहीयते। देदीव्यते। सोषूयते। मानह्यते। अभिषोषूयते। अशाश्यते । चेचीयते । चाय-पूजा करना और निशामन करना। चेक्रीयित के आने पर चाय को कवर्ग हो जाता है ॥४२५ ।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः चाय: किर्भवति चेक्रीयिते परे । अत्यर्थं चायति चेक्रीयते । अत्यर्थं तुदति तोतुद्यते । ऋत ईदन्तश्च्विचेक्रीयितयन्नायिषु ॥४२६ ॥ ऋदन्तस्य च्चिचैक्रीयितयन् आयिषु परत ईदन्तो भवति ।। मेम्रीयते। मोमुच्यते । रोरुध्यते । बोभुज्यते । योयुज्यते । ततन्यते । संमन्यते । चेक्रीयते । जपादीनां च ॥ ४२७ ॥ जपादीनामभ्यासस्यान्तो ऽनुस्वारागमो भवति चेक्रीयिते परे । जपजभदहदंशभञ्जपश षडेते पादय: । जप मानसे भृशं पुनः पुनर्ता गर्हितं जपति जञ्जप्यते । जभ भी गात्रविनामे । भृशं पुनः पुनर्वा जमति जञ्जभ्यते । दह भस्मीकरणे दंदाते। दंश दशने। दंदश्यते। भजो अवमदने । भृशं भनक्ति बम्भज्यते । पश इति सौत्रो धातुः । भृशं पशति । पंपश्यते । चरफलोरुच्च परस्यास्य ॥ ४२८ ॥ चरफलोरभ्यासस्यान्तो ऽनुस्वारागमः परस्यास्योच्च भवति चेक्रीयिते परे । अभ्र व मन चर रिवि थिवि गत्यर्थाः । भृशं पुनः पुनर्वा गर्हितं चरति चञ्चूर्यते । पंफुल्यते । वेत्रीयते । ऋमतो रीः ।।४२९ ॥ ऋमतो धातोरभ्यासस्यान्तो री आगमो भवति । चेक्रीविते परे । ग्रही उपादाने – गृहिज्या इत्यादिना संप्रसारणम् । भृशं पुल नर्वा तं गृह्णाति गृह्यते नृगा। नृतेश्चेक्रीयिते ॥ ४३० ॥ भवति चेक्रीयिते परे । नरीनृत्यते । परीपृच्छयते । चोचूर्यते । एवं सर्व नृतेर्नकारस्य णकारो न २९५ वेदितव्यं । इति चक्रीतिप्रकरणम् ॥ अत्यर्थं चायति - चेकीयते । अत्यर्थं तुदति = तोतुह्यते । च्चि चक्रीयित यिन और आय, प्रत्यय के आने पर ऋदन्त के अंत में 'ई' हो जाता है ॥४२६ ॥ मेम्रयते । मोमुच्यते । रोरुध्यते । बोभुज्यते । योयुज्यते । ततन्यते । मंमन्यते । चेक्रीयते । चेक्रीयित प्रत्यय के आने पर जपादि को अभ्यास के अंत में अनुस्वार का आगम हो जाता है ॥ ४२७ ॥ निंदा अर्थ में— जपादि से क्या-क्या लेना ? जप, जभ, दह, दंश, भञ्ज और पश ये छह धातु लेना चाहिये। जप- मानस में जपना भृशं पुनः पुनर्ला, गर्हितं जपति = जंजप्यते । जभ् जृंभी जंभाई लेना । जज्ञ्जभ्यते । दह-- भस्म करना । ददाते । दंश-काटना दंदश्यते । भअवमर्दन - तोड़ना । भृशं भनक्ति = बम्भज्यते । पशं यह धातु सूत्र में है । भृशं पर्शात = पंपश्यते । = चक्रीति प्रत्यय के आने पर चर फल के अभ्यास के अंत में अनुस्वार आगम और पर के अकार को उकार हो जाता है ॥ ४२८ ॥ अवभ्रमभ्र चर रिविधिवि धातु- गत्यर्थ हैं। भृशं-गर्हितं वा चरति = चर्यते । पंफुल्यते । चक्रीति के आने पर ऋकारांत के अभ्यास के अंत में री का आगम होता है ॥४२९ ॥ भृशं ग्रह्णाति जरीगृह्यते । नृती- नृत्य करना । चक्रीति में नृत के नकार को णकार नहीं होता है ॥४३० || नरीनृत्यते । परीपृच्छयते । चोचूर्यते। इसी प्रकार से सभी रूप बना लेना चाहिये । इस प्रकार से चेक्रीयित प्रकरण समाप्त हुआ । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ कातन्त्ररूपमाला तस्य लुग्वा ।। ४३१ ।। तस्य चक्रीयितस्य लुग्वा भवति । यस्य स्थाने यो विधीयते स स्थानीतर आदेश: । स्थानीव भवत्यादेश: । प्रकृतिग्रहणे चेक्रीवितलुगन्तस्यापि ग्रहणं । धातुप्रकृतीनां ग्रहणे चेक्रीयितलुगन्तस्यापि धातोर्ग्रहणं भवतीति द्विर्वचनादि कार्य भवति ॥ चर्करीतं परस्मैपदमदादौ दृश्यते । चर्करीताद्वा ॥ ४३२ ॥ चर्कताद्धातोर्वा इड् भवतं व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परं । विलोपे च चेक्रीयितः ॥ ४३३ ॥ यिलोपे आयिलोपे च परस्मैपदं भवति । अत्यर्थं भवति बोभवीति बोभोति बोभूतः । स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुव । बोभूवति । बोभूयात् बोभूयातां बोभूयुः ॥ बोभवीतु बोभोतु बोभूतात् बोभूतां बोभवतु । बोभूहि बोभूतात् बोभूतं बोभूत। अबोभवीत् अबोभोत् अबोभूतां अबोभुवुः । पापचीति । पापक्ति पापक्त: पापचति । पापच्यात् । पापक्तु पापक्तात् पापक्तां पापचतुः । हुधुड्भ्यां हेर्द्धिः || पापग्धि पापक्तात् पापक्तं पापक्त | अपापचीत् अपापक् अपापक्तां अपापचुः || दुर्गादि समृद्धौ । नानंदीति नानंति नानंतः नानंदति । ध्वंसुमतौ च । दनीध्वसीति दनीध्वस्तः दनीध्वसति । एवं सर्वमवगन्तव्यं । शेशयीति ॥ न तिबनुबन्धगणसंख्यैकस्वरोक्तेषु ॥ ४३४ ॥ तिबनुबन्धगणसंख्यैकस्वर एभिरुक्तेषु निदानेषु प्रकृतिग्रहणे चक्रीतिलुगन्तस्य ग्रहणं न भवति ॥ तिपा उक्ते— सोषवीति सोषोति । सोषूयात् । सोषवीतु सोषोतु सोषूतात् सोषूतां सोषुवतु । सोषूहि सोधूतातू उस चेक्रीयित प्रत्यय का विकल्प से लुक् होता है ॥४३१ ॥ जिसके स्थान में जो किया जाता है वह स्थानीतर आदेश है। स्थानी के समान ही आदेश होता है। प्रकृति के ग्रहण करने में चेक्रीयित लुगन्त का भी ग्रहण होता है। धातु और प्रकृति के ग्रहण करने में वेक्रीयित लुगन्त धातु का भी ग्रहण होता हैं। इस प्रकार से कार्य होता है। अदादि में चर्करीत परस्मैपदी हो जाता है । व्यञ्जनादि गुणी सार्वधातुक के आने पर चर्करीत धातु से ईटू विकल्प से होता है ॥ ४३२ ॥ यि आयि प्रत्यय के लोप होने पर परस्मैपद होता है ॥ ४३३ ॥ I अत्यर्थं भवति इट् गुण होकर दीर्घ होकर बोभवीति इट् के अभाव में— बोभोति । बोभूतः । चोधू अन्ति "स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुव" सूत्र ८३ से बोभुवति नकार का लोप हुआ I बोभूयात् । बोभवीतु बोभोतु । अबोभवीत्, अबोधोत् । पच - पापचोति, पापक्ति । पापच्यात् । पापचीतु पापक्तु । "हुधुभ्यां हेधिः " सूत्र से पापग्धि । अपापचीत्, अपापक् । व्यञ्जनाद्दिस्यो से दि सि का लोप और च् को क् होकर अपापक बना । द्रुनदि — समृद्ध होना । नानंदीदि । नानंति ध्वंसु - गति अर्थ में है । ४१६ सूत्र से नी का आगम हुआ । दनी ध्वसीति । शेशयीति, शेशेति । इसी प्रकार से सभी समझ लेना चाहिये । तिपू, अनुबंध, गुण, संख्या और एक स्वर के कहने पर चेक्रीयित लुगन्त का ग्रहण नहीं होता है || ४३४ ॥ १. लुकि सति चेक्रीयितस्य चर्करौतसंज्ञा बोद्धव्या । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २९७ सोषूतं सोषूत । सोषवाणि सोषवाव सोषवाम || तिपा निर्देशात् सूते: पञ्चम्यामिति गुणप्रतेषेधो न स्यात् । अनुबन्धोक्ते:-शेशित: शेश्यति । शिङ सार्वधातुके इति ङानुबन्ध इति निर्देशात् गुणो न भवति ॥ गुणोक्ते:-चोकोटीति । कुटादेरनिनिचदिस्वति गुणप्रतिषेधो न स्यात् । संख्योक्ते:-रोरुदीति। रोरोति। रुदादिः पञ्चको गण इति रुदादेः सार्वधातुके इतीण न स्यात्। एकस्वरोक्ते-पापचीति । अनिडेकस्वरादात । इत्येकस्वराधिकारे पचिवचीत्यादिनेटप्रतिषेधो न स्यात् ।। वावचीति । वावक्ति वावक्तः वावचति । जाहेति । दादेति दात्त: दादति। अभ्यस्तस्य चोपधाया नामिनः स्वरे गुणिनि सार्वधातुके ॥४३५ ॥ ___अभ्यरतस्य चोपधाया नाम्निी गुणो न भवति स्वरादी गुणिनि सार्वधातुकै परे । अत्यर्थं पुन: पुनर्वा दीव्यति देदिवीति । खोर्व्यञ्जने ये॥४३६॥ धातोर्यकारवकारयोलॉपो भवति यकारवर्जिते व्यञ्जने च परे । देदेति देधूत: देदिवति । सोषवीति सोषोति । नानहीति नानद्धि। अभिषोषवीति अभिषोषोति । पुन: पुनर्वा क्रीणाति चेक्रीयोति चेक्रेति । तोतोदीति तोतोत्ति। रि रो री च लुकि ॥४३७॥ ऋमतो धातोरभ्यासस्यान्ते रि रो री च भवति चक्रीयितस्य लुकि । मरिमरीति मर्मरीति मरीमरीति । मरिमर्ति मर्मर्सि मरीमति । मर्मत; मरीमृतः मरिमृत: । मर्मति मरीप्रति मरिप्रति । मरीमरीषि मर्मरीषि तिप् से कहने पर—सोषवीति सोपोति, सोषूयात् । सोपवीतु सोषोतु । सोसूहि । सोषवाणि सोषवाक सोषवाम, तिप् के द्वारा निर्देश होने से 'सूतेः पञ्चम्यां' १११ सूत्र से तीनों में गुण का प्रतिषेध नहीं होता है। अनुबंध से कहने पर---शेशित: शेश्यति । “शोङ, सार्वधातुके" इस सूत्र से अनुबंध होने से गुण नहीं होता है। ___ गुण से कहने पर--कुट-कुटिलता । चोकोटीति । “कुटादेरनिनिस्विति" इस गुण का प्रतिषेध नहीं हुआ है। संख्या के कहने पर--रोरुदीति, रोरोत्ति । "रुदादि पश्चको गण:" रुदादि से सार्वधातुक में इण नहीं होता है। एक स्वर के कहने पर-पापचीति अनिडेकस्वरादात्' इत्येक स्वर के अधिकार में “पचि वचि" इत्यादि से इद का प्रतिषेध नहीं होता है । वावचीति, वावक्ति । जोहति । दादेति । - स्वरादि गुणी सार्वधातुक के आने पर अभ्यस्त और नामि उपधा को गुण नहीं होता है ॥४३५ ॥ अत्यर्थं दीव्यति = देदिवीति-नीचे के सूत्र से गुण का निषेध हुआ। यकार वर्जित व्यंजन के आने पर धातु के यकार क्कार का लोप हो जाता है ॥४३६ ॥ देबूत: देदिवति “छ्वो; शूठौं पञ्चमे च" ३९२ सूत्र से ऊकार होकर देदि ऊ तस् = देबूत: बना। देदेति । सोषवीति, सोपोति । नानहीति, नानद्धि । अत्यर्थ क्रीणाति = चेक्रयोति, चेक्रेति । तोतोदीति, तोतोत्ति। चेक्रीयित लुक होने पर ऋकार वाले धातु के अभ्यास के अंत में रि र री आगम हो जाते हैं ॥४३७ ।। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ कातन्त्ररूपमाला मरिमरीधि । मरिमर्षि मर्मधि मरीमर्षि । मरीमथः मर्मथ: परिमृथः । मरीमृथ मर्मुथ मरिमथ । मरीमरीमि मर्मरीमि मरिमरीमि । मरिमर्मि मर्ममि मरीमर्मि । मरिमृव: मर्मव: मरीमृवः । मरिमम: मर्मूम: मरीमम: । मरिमृयात् मर्मूयात् मरीम्यात् । मरिमरीतु मर्मरीतु मरीमरीतु । मरीमर्तु मर्मर्तु मरिमर्तु । मरिमृतात् म तात् मरीमृतात् । मरिमृतां मर्मतां भम्रतु मरिम्रतु । मरिमूहि मर्महि मरीमहि । मरिमृतात् मर्मतात् । परोमृतात् । मरिमृतं मर्मूतं मरीमृतं । मरिमृत मर्मत मरीमृत । मरिमराणि मर्मराणि मरीमराणि । मरिमराव मर्मराव मरीमराव । मरिमराम मर्मराम मरीमराम । अमरिमरीत् अमर्मरीत् अमरीमरीत् । अमरिम: अमर्मः अमरीम: । अमरिमृता अमर्पता अमरीमृतां । अमरिमरु: अमर्मरु: अमरीमरुः । अमरिमरी: अमर्मरी: अमरीमरी: । अमरिमृतं अमर्मृतुं अमरीमृतं । अमरिमृत अमर्मत अमरीमृत । अमरिमरं अमर्मरं अमरीमरं । अमरिमृव अमर्मव अमरीमृव । अमरिमृम अमर्मम अमरीमृम । एवमभ्यस्तस्य चोपधाया इत्यादिना गुणो न भवति ॥ नृति गात्रविक्षेपणे। नृतेश्चक्रीयिते ॥४३८॥ नृतेर्नकारस्य णकारो न भवति चक्रीयिते परे ॥ नरिनृतीति नतीति नरीनृतीति । नरिवर्ति नर्ति नरीनर्ति । नरिनृत: नत: नरीनृतः । नतति नरीनृतति नरिनृतति ॥ मोमुचीति मोमोक्ति मोमुक्त: मोमुचति । रोरुधीति रोरोद्धि रोरुद्धः रोरुधत्ति । बोभुजीति बोभोक्ति बोभक्तः बोभजति । योयजीति योयोक्ति योयुक्तः योयुजति ॥ तंतनीति तंतंति तंतत: तंतनति । मंमनीति ममंति मंमत: ममनति ॥ जंजपीति जऑप्त बजप्त: जंजपति । चरिकरीति चर्करीति चरीकरीति । चरिकर्ति चर्कर्ति चरीकर्ति । चरिकृत: चर्कत: चरीक्रतः । चरिक्रति चक्रति चरीक्रति । चेक्रयोति चेक्रेति चेक्रीत: चेक्रियति । वरिवरीति वर्वरीति वरीवरीति । वरिवर्ति वर्ति वरीवर्त्ति । वरिवृत: वक्त: बरीवृत: । वरिवति बप्रति वरीवति । जरीगृहीति जहीति जरिगृहीति । जरिगर्दि जगदि जरीगर्दि। न ऋतः ।।४३९ ।। ढे ढलोपे मतोर्धातोदीं? न भवति । जरिगृढः जर्मूढः जरीगृढः । जरिगृहति जगहति जरीगृहति । जरिगृहीषि जहीषि जरीगृहीषि । जरिवक्षि जक्षि जरीघक्षि । जरिगृढः जगुढ: जरीगृढः । जरिगृढ जगूढ जरीगृढ । जरिगृहीमि जहीमि जरीगृहीमि। जरिगर्मि जर्गहिर्म जरीगर्मि । जरिगृह्णः जर्गृहः जरीगृङ्खः । जरिगा: जगुह्म: जरीगृह्मः ॥ जरिगृह्यात् जर्गृह्यात् जरीगृह्यात् । जरीगृहीतु जग्हीतु जरिगृहीतु । जरिंग? जर्गर्दु जरीगर्दु । जरिगृढात् जणुढात् जरीगृढात् । जरिगृहां जगुढी जरीगृढां । जरिगृहत्तु जहतु जरीगृहतु । जरिगृद्धि जढि जरोढि । जरिगृढात् जढात् जरीगृढात् । जरिगृढं जगुढं जरीगृढं । जगूढ जरिगढ जरीगृढ । जरिगृहाणि जहाणि जरीगृहाणि । जरिगृहाब जहाव जरीगृहाव । जरीगृहाम जहाम जरिगृहाम। अजरीगृहीत् अजहीत् अजरिगृहीत् । अजरिगृढां अजZढां अजरीगृढां। अजरीगृहुः अजहुः अजरिगृहु: । अजरीगृही: अजही: अजरिगृही: 1 क्रम से उदाहरण—मरिमरीति, मरीति मरीमरीति । मरिमर्ति, मर्मति मरीमति । नृती-नृत्य करना। चेकीयित में नृत के नकार को णकार नहीं होता है ॥४३८ ॥ गरिनृतीति नन्तीति नरीन्तीति । नरिनर्ति नर्ति नरीनर्ति । मन्--मोमचीति मोमोक्ति । रोरुधीति, सेरोद्धि । बोभुजीति बोभोक्ति । तंतनीति । मंमनीति । जंजपीति । क-चरिकरीति चर्करीति, चरीकरीति । चरिकर्ति, चर्कर्ति चरीकर्त्ति । वरिवरीति । जरीगृहीति । जरिगृह तस् है “हो ढः' से ह को ढ् एवं तवर्ग को भी द होकरढ के आने पर ढ का लोप होने से ऋमान् धातु को दीर्घ नहीं होता है ।।४३९ ॥ इस नियम से जरिगृढः, जगुढ जरीगृढः में दीर्घ नहीं हुआ। ह्यस्तनी के सि में Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः २९९ न रात्॥४४०॥ रेफात्परः संयोगान्तो लोप्यो न भवति । अजरिघट्ट अजघर्ट अजरीघ । अजरिगृढं अजगुढं अजरीगृढं । अजरिगृढ अजगूढ अजरीगृढ। अजरीगृहं अजह अजरिगृहं । अन्जर्गृह्य अजरिगृह अजरीगृह्ण । अजगह्म अजरीगृह्य अरिगृह्य । इति चेक्रीयितलुगन्ताः। इन्कारितं धात्वर्थे ।।४४१॥ नाम्न: कारितसंज्ञक इन्भवति धात्वर्थे : इनि लिङ्गस्यानेकाक्षरस्यान्तस्य स्वरादेर्लोपः ।।४४२॥ ____ अनेकाक्षरस्य लिङ्गस्य अन्त्यस्वरादेर्लोपो भवति इनि परे ।। इस्तिराऽतिक्रामति अतिहस्तयति । हलि गृह्णाति । न हलिकल्योः ॥४४३ ।। हलिकल्योवृद्धिर्न भवति । हलयति । कलयति । अजहलत् । अचकलत् । कृतयति । अचकृतत् । वस्त्रं समाच्छादयति । संवस्त्रयति । समवस्रत् । वर्मणा सत्रह्मति संवर्मयति । समवर्मत् । तत्करोति तदाचष्टे इति इन् । मुण्डं करोति मुण्डयति । अमुमुण्डत् । एवं मिश्रयति । अमिमिश्रत् । सूत्रमाचष्टे सूत्रयति । असुसूत्रत् । सत्यार्थवेदानामन्त आप कारिते ॥४४४॥ सत्यार्थवेदानामन्त आप भवति कारिते परे । सत्यमाचष्टे सत्यापयति । एवं अर्थापयति । रेफ से परे संयोगान्त का लोप नहीं होता है ।। ४४० ॥ अजरिधर्ट, अजघर्द, अजरीघर्ट में ट् का संयोगान्त लोप नहीं हुआ । इत्यादि । इस प्रकार से चेक्रीयित लुगन्त प्रकरण समाप्त हुआ। धातु अर्थ में नाम से कारित संज्ञक इन् प्रत्यय होता है ।।४४१॥ इन् के आने पर अनेकाक्षर वाले लिंग के अन्त्य स्वर को आदि करके लोप होता है ॥४४२ ॥ हस्तिना अतिक्रापत्ति--- हाथी के द्वारा उल्लंघन करता है। अति हस्तिन् इन् हस्त-हस्ति अतिहस्ति ते धातवः' से धातु संज्ञा होकर अन् विकरण और गुण होकर अतिहस्तयति बना । हलि गृणाति । ___ हलि और कलि में वृद्धि नहीं होती है ॥४४३ ॥ हलयति कलयति । अजहलत् अचकलत् । अद्यतनी के रूप का एक नमूना दिखा दिया है बाकी दशों लकार पूर्वोक्त प्रकार समझ लेना । कृति गृह्णाति= कृतयति । अचकृतत् । वस्त्रं समाच्छादयति संवस्त्रयति । समवस्त्रत् । कर्मणा संनह्यति = संवर्मयति । समवर्यत् । “तत्करोति तदाचष्टे इन्" इस नियम से मुण्डं करोति - मुण्डयति । अमुमुण्डत् । मिश्रं करोति = मिश्रयति । अमिमिश्रत् । सूत्रमाचष्टे = सूत्रयति । असुसूत्रत्। कारित प्रत्यय के आने पर सत्य, अर्थ और वेद के अंत में 'आप' हो जाता है ॥४४४ ॥ सत्यमाचष्टे - सत्यापयति । अर्थमाचष्टे = अर्थापयति । वेदमादष्टे - वेदापयति । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला न स्वरादेः॥४४५ ॥ स्वरादेदीघों न भवति इन् चण् परे । आतिथपत् । वेदापयति । अविवेदपत् । रशब्द ऋतो लघोळञ्जनादेः॥४४६ ॥ व्यञ्जनादेरनेकाक्षरस्य लिङ्गस्य लघो: ऋतो रशब्दादेशो भवति इनि परे । पृथ प्रख्याने । पृथु करोति प्रथयति । अपिप्रथत् । मृदुं करोति मृदयति । अमिम्रदत् । दृढं करोति द्रढयति । अदिद्रढत् । कृशं करोति क्रशयति । अचिक्रशत्। भृशं करोति भ्रशयति अबिभ्रशत् । परिवृढं करोति परिवढयति पर्यविवदत् । इत्यादि। पृथु मृदं दृढं चैव कृशं च भृशमेव च । परिपूर्व वृद्ध चैव धडेतानविषौ स्मरेत् ॥१॥ धातोश्च हेतौ ॥४४७॥ हेतुकर्तृकव्यापारे वर्तमानाद्धातोः कारितसंज्ञक इन् भवति । उवर्णस्य जान्तस्याफ्वर्गपरस्यावणे इत्यभ्यसावर्णस्य इकार: ।। दीघों लघोरस्वरादीनामिति दीर्घः । भवति कश्चित्तमन्य: प्रयुक्ते भावयति भावयते । भावयेत् । भावयतु । अभावयत्। इन्व्यञ्जनादेरुभयमित्युक्तत्वात् सर्वेषामिन्प्रत्ययानामुभयपदित्यम् ।। अबीभवत् । भावयाचक्रे । भावयिता। भाव्यात् । भारयिषीष्ट । भावयिष्यति । भावयिष्यते। अभावयिष्यत् अभावयिष्यत । पाचयति । अपीपचत् । एधयति ऐदिधत् । नन्दयति । अननन्दत् । संसयति असनसत् । इन और चण् के आने पर स्वर की आदि को दीर्घ नहीं होता है ।।४४५ ॥ आतिथपत् । अविवेदपत् । इन् के आने पर व्यञ्जनादि अनेकाक्षर लघु लिंग के ऋ को रकार हो जाता है ॥४४६ ॥ पृथ-प्रख्यान करना । पृथु करोति = प्रथयति, ऋ को र हुआ है अपिप्रथत् । मृदुं करोति - प्रदयति । अभिग्नदत् । दृढं करोति = द्रढ़यति । अदिद्रढत् । कृशं करोति = क्रशयति । अचिक्रशत् । भृशं करोति = प्रशयति, अबिभ्रशत् । परिवृढं करोति = परिवढयति । पर्यविवढत् । इत्यादि। शनोकार्थ----पृथु, मृदु, दृढ, कृश, भृश और परिवृढ ये छह हैं जिनके ऋ को र होता है ।३१ ॥ अथ प्रेरणार्थक धातु का प्रकरण हेतु कर्तक व्यापार में वर्तमान धातु से कारित संज्ञक 'इन्' प्रत्यय होता है ॥४४७ ॥ कोई होता है और अन्य कोई उसको प्रेरणा देता है। इस अर्थ में कारित संज्ञक 'इन्' होता है और हुआता है। 'दी? लघोरस्वरादीनां' २२२ सूत्र से वृद्धि होकर भी इ है 'औ आव्' से 'भावि' बना 'ते धातवः' से धातु संज्ञा होकर अन् विकरण और गुण करके भावयति बना 'इन्यजादेरुभयम्' सूत्र ३७ से इनंत धातु उभयपदी होती हैं अत: भावयते । ऐसे ही दसों लकारों में देखिये। भावयति, भावयते । भावयेत्, भावयेत । भावयतु, भावयतां । अभावयत्, अभावयत । सूत्र २१५ से दीर्घ हुआ 1 अबीभवत् । भावयाञ्चकार भावयाचक्रे । भावयिता ! भाव्यात, भावयिषीष्ट । भावयिष्यति, भावयिष्यते । अभावयिष्यत्, अभावयिष्यत । पच-पाचयति—पकवाता है । पाचयति । अपीपचत् । एधयति । ऐदिधत् । नन्दयति । अननन्दत् । संसयति । असत्रंसत्। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्तः ३०१ शाच्छासाह्वाव्यावेपामिनि ।।४४८ ॥ एषामायिर्भवति इनि परे। शाययति। अशीशयत् । छाययति अचिच्छयत् । अवसायति । अवासीषयत् । ह्राययति । ह्वयतेर्नित्यम् ।।४४९।। ह्रयतेर्नित्यं संप्रसारणं भवति कारिते च संश्चणोः परयोः ।। अजूहवत् । व्याययति । अविव्ययत् । वाययति । अवीवयत् । पाययति । लोपः पिबतेरीच्चाभ्यासस्य ।।४५० ॥ पिबत्तेरभ्यासस्य ईद्भवति उपधायाश्च लोपो भवति इनि चण्परे । अपीप्यत् । आदयति । आदिदत् । वाचयति अवीवचत् । हावयति अजूहवत् । अर्तिहीब्लीरीक्नुवीक्ष्माटयादन्तानामन्तः पो यलोपो गुणश्च नामिनाम् ।।४५१ ।। अदानामाइनाना पकारान्ती भपति यथासंभवं यलोपश्च नामिनां गुणश्च इनि परे ।। अर्पयति आर्णिपत् । हेपयति। अजिहिपत्। ब्ली बरणे। ब्लेपयति । अबिब्लिपत् । रीङ् श्रवणे। रेपयति अरीरिपत् । क्नूयी शब्दे । क्नोपयति । अचुक्नुपत् । क्ष्मायी विधूनने । मापयति । अचिक्ष्मपत् । हेपति अजिह्वपत् । धापयति । अदीधपत् । मापयति अमीमपत् । स्थापयति । स्थापयेत् । अस्थापयत् । तिष्ठतेरित् ॥४५२॥ तिष्ठतेरिद्भवति इनि चण् परे । अतिष्ठिपत् घापयति । जिघतेर्वा ॥४५३ ॥ जिघ्रतेर्वा इद्भवति इति चण्परे । अजिधिपत् । अजिधपत् । देवयति । अदीदिवत् । सावयति । असूषुवत् । नहयति। अनीनहत् । अभिषावयति। आशयति । आशिशत्। चाययति । अचीचयत् । इन् प्रत्यय के आने पर शा छा सा ह्या व्या और वेप् धातु से आय होता है ॥४४८ ॥ शाययति । छाययति । अचिच्छयत् । अवसाययति । अवासोषयत् । ह्वाययति। कारित प्रत्यय, चण् और सन् के आने पर ह्वा को नित्य ही संप्रसारण होता है ॥४४९ ॥ अजूहवत् । व्याययति । अविव्ययत् । वाययति । अवीवयत् । पाययति ।। इन् चण् के आने पर पा के अभ्यास को 'ई' और उपधा का लोप हो जाता है ॥४५० ॥ __ अपीप्यत् । अद्...आदयति । आदिदत् । वाचयति । अवीववत् । हु-हावयति । अजूहवत् । ऋही ब्ली री, क्नूयी क्ष्मा आदि धातु और आकारांत धातु के अन्त में पकार का आगम हो जाता है और इन के आने पर यथासंभव 'य' का लोप, नामि को गुण हो जाता है ॥४५१ ॥ ___ अर्पयति । आर्पिपत् । हेपयति । अजिहिपत् । ब्ली-वरण । ब्लेपयति । अबिब्लिपत् । रीड्–श्रवण करना । रेपयति । अरीरिपत् । कसूर्या-शब्द करना 1 वनोपयति । अचुक्नुपत् । क्ष्मायो-हिलाना । मापयति । अचिश्मपत्। द्यापयति । अदीधपत्। मापयति । अमीमपत् । स्थापयति । स्थापयेत् । स्थापयतु । अस्थापयत्। इन् चण् के आने पर स्था को विकल्प से इत् होता है ॥४५२ ॥ अतिष्ठिपत् । घ्रापयति। इन् चण के आने पर घा को विकल्प से इत होता है ॥४५३ ॥ अजिविपत् । अजिघ्रपत् । देवयति । अदीदिवत् । सावयति । असूषुवत् । नहयति । अनीनहत् । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ कातन्त्ररूपमाला तोदयति । अतूतुदत् । मारयति । अमीमरत् । मोचयति । अमूमुचत् । रोधयति । अरूरुधत् । भोजयति अबूभुजत् । योजयति । अयूयुजत् । तानति । अतीतमत् । मानयति । अमीमनत् । कारयति अचीकरत् । स्मिजिक्रीडामिनि ॥४५४॥ एषामाकारो भवति इनि परै । विस्मापयति । यामापत् । विज्ञापयति । त्र्यद्धिपट ' विक्रायति । व्यचिक्रपत् । अध्यापयति । अध्यापिपत् । वीरयति अवीवरत् । ग्राहयति अजिग्रहत् । चोरयति अचूचुरत् । तन्त्रयति अततन्त्रत्। मानुबन्धानां ह्रस्वः॥४५५ ।। ___ मानुबन्धानां धातूनां ह्रस्वो भवति इनि परे ॥ अस्योपधाया दीघों न भवति ॥ घटादयो मानुबन्धाः । घट चेष्टायां ।। घटयति ।। अजिधटत् । व्यथ भयचलनयो: ।। व्यथयति । अविव्यथत् । जनिष्कनसरोऽमन्ताश्च ॥४५६ ।।। एषां ह्रस्वो भवति सनि परे । जनिङ् प्रादुर्भावे । जनयति ! अजीजनत् । जृष् वयोहानौ ॥ जरयति अजीजरत् । क्नस हरण दीप्तौ । नसयति । अचिक्मसत् । रञ्च रागे। रओरिनि मृगरमणे ॥४५७॥ मृगरमणार्थे इनि परे रखैरनुषगलोपो भवति । रजयति । अरीरजत् । पक्षे रञ्जयति ॥ अररञ्जत् । रमु क्रीडायां । रमयति । अरीरमत् । श्रम तमसि खेदे च । श्रमयति । अशिश्रमत् । ज्वलह्वलालनमोनुपसर्गा वा ।।४५८॥ अभिषावयति । आशयति । आशिशत् । वृद्धि होकर-चाययति । अचीचयत् । तोदयति । अतूतुदत् । मारयति । अमीमरत् । मोचयति अमूमुचत् । रोधयति । कारयति । अचीकरत् । इत्यादि । इन के आने पर स्मि, जि, क्री और इङ् को आकार हो जाता है ॥४५४॥ विस्मापयति । व्यसिस्मपत् । विजापयति । व्यजिजपत् । विक्रापयति । व्यचिक्रपत् । अध्यापयति । अध्यापिपत् । वारयति । अवीवरत् । ग्राहयति । अजिनहत् । चोरयति । अचूचुरत् ।। इन् के आने पर मानुबंध धातु को ह्रस्व हो जाता है ।।४५५ ॥ अ की उपधा को दीर्घ नहीं होता है। घटादि धातु मानुबंध कहलाते हैं। घट-चेष्टा करना । घटयति । अजीघटत् । व्यथ-भय, चलन । व्यथयति । अविव्यथत् ।। जन् कृष् क्नस् और रञ्ज के धातु को इन् के आने पर ह्रस्व होता है ॥४५६ ॥ जनिड्-प्रादुर्भावे । जनयति । अजीजनत् । वृष्-जीर्ण होना या वृद्ध होना। जरयति । अजीजरत् । क्नस-हरण और दीप्त अर्थ में है। वनसयति । अचिक्सनत् । रञ्ज-रंग। मृगों को रमण कराने अर्थ में इन् प्रत्यय के आने. पर रञ्ज के अनुषंग का लोप हो जाता है ॥४५७ ॥ रजयति । अरीरजत् । पक्षे-रजयति। अररञ्जत् । रमु-क्रीडा करना। रमयति । अरीरमत् । श्रमु-श्रमयति । अशिश्रमत् । ज्वल, हल, ह्मल और नम धातु उपसर्ग सहित नियम से मानुबन्ध होते हैं। और उपसर्ग रहित विकल्प से मानुबन्ध होते हैं ॥४५८ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: ३०३ एते सोपसर्गा नित्यं मानुबन्धा भवन्ति । एते अनुपसर्गा वा मानुबन्धा भवन्ति । तत्र सोपसर्गपक्षे मानुबन्धानां ह्रस्वः । ज्वल दीप्ती प्रज्वलयति । प्राजिज्वलत् । ह्वल हाल चलने । प्रहृलयति । प्राजिह्वलत् । प्रह्मलयति । प्राजिहालत् । अमन्तत्वात् । प्रणमयति । प्राणीनमत् । उपनमयति । उपानीनमत् । अनुपसर्गा वा ।। ४५९ । एते अनुपसर्गा वा मानुबन्धा भवन्ति । ज्वलयति । ज्वालयति । अजिज्वलत् । ह्वलयति । ह्यालयति । अजिह्वलत् । ह्यलयति अजिह्यलत् । नमयति ॥ नामयति । अनीनमत् । ग्लास्नावनवमश्च ॥४६० ॥ एते मानुबन्धा वा भवन्ति । ग्लै हर्षक्षये । ग्लापयति । ग्लपयति । अजिग्लपत् । ष्णा शौचे ॥ स्नपयति । स्नापयति । असिस्नपत् । वन घण संभक्तौ ॥ वनयति । वानयति । अवीवनत् । टुवमुद्गिरणे । वमयति । वामयति । अवीवमत् । न कमभ्यमि चमः ॥४६१ ।। एषां ह्रस्वो न भवति इनि परे । कमेरिनिङ् कारितम् ॥ ४६२ ।। I कमेः कारितसंज्ञक इनिङ् भवति स्वार्थे । कमु कान्तों कामयते । अधिकमत् । अम हम मी मृ हय गतौ । आमयति । आमिमत् । चमु अदने । चामयति । अचीचमत् । शमोऽदर्शने ॥४६३ ।। शमोऽदर्शनेऽर्थे ह्रस्वो भवति इनि परे । शमयति रोगान् । अशिशमत् । अदर्शन इति किं ? निशामयति रूपं । न्यशीशमत् । यमो परिवेषणे ||४६४ ॥ उपसर्ग पक्ष में मानुबन्ध होने से ह्रस्व होते हैं। ज्वल-दीप्त होना प्रज्वलयति । प्राजिज्वलत् । हल हाल — चलन । प्रह्वलयति । प्राजिह्वलत् । प्रह्मलयति । प्राजिह्यलत् । प्रणमयति । प्राणीनमत् । उपनमयति । उपनिनमत् । उपसर्ग रहित विकल्प से मानुबन्ध होते हैं ॥ ४५९ ॥ ज्वलयति । ज्वालयति । अजिज्वलतू । ह्वलयति, ह्वालयति नमयति, नामयति । अनीनमत् । 1 ग्ला, स्ना वन और वम ये धातु मानुबन्ध विकल्प से होते हैं ||४६० ॥ ग्लापयति, ग्लपयति । ष्णा— नहाना स्नपयति, स्नापयति वन षण—– संभक्ति । वनयति, वानयति । वमयति । वामयति । अवीवमत् । कम अम और चम को इन् के आने पर ह्रस्व नहीं होता है ॥४६१ ॥ कम से कारित संज्ञक इनिङ होता है स्वार्थ में ॥४६२ ॥ कामयते । डानुबंध प्रत्यय से आत्मनेपदी हो गया है। अचीकमत् । अम, हम, मी, मू, हय-गमन करना । आमयति अभिमत् । चमु - खाना चामयति । अचीचमत् । इन् के आने पर शम् को अदर्शन अर्थ में ह्रस्व होता है ॥४६३ ॥ शमयति । रोगों को शांत करता है। अशिशमत् । नहीं देखना अर्थ हो ऐसा क्यों कहा ? देखने अर्थ में दीर्घ हो गया। निशामयति रूपं । न्यशीशमत् । अपरिवेषण अर्थ में यम् को ह्रस्व होता है ॥ ४६४ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला यमः अपरिवेषणेऽर्थे ह्रस्वो भवति इनि परे । यम उपरमे । नियमयति । अपरिवेषण इति किं आयामयति | आयीयमत् । ३०४ स्खदिरवपरिभ्यां च ||४६५ ॥ स्खदिरवपरिभ्यां च ह्रस्वो भवति इनि परे । स्खदिषु स्खदने । अवस्खदयति । अन्योपसर्गात्र भवति । उपखादयति । अवचिस्खदत् । पचखदम् । चिरखरत् । पण गतौ ॥४६६ ॥ पण गत्यर्थे ह्रस्वो भवति इनि परे ॥ पणयति ॥ अगत्यर्थ इति किं ? पाणयति । अपीपणत् । इति इन्नन्ताः ॥ आत्मेच्छायां यिन् ॥४६७ ॥ नाम्नो यन्भवति आत्मेच्छायां । यिन्यवर्णस्य ।।४६८ ॥ अवर्णस्य इत्वं भवति यिनि परे । पुत्रमिच्छत्यात्मनः पुत्रीयति । पुत्रीयेत् । पुत्रीयतु । अपुत्रीयत् । अपुत्रयीत् ।। पुत्रीयाञ्चकार पुत्रीयिता । पुत्रीय्यात् । पुत्रयिष्यति । अपुत्रीयिषीत् । एवं घटीयति । वस्त्रीयति । सुवर्णीयति । काम्य च ।।४६९ ।। नाम्नः काम्यो भवति आत्मेच्छायां । पुत्रमिच्छत्यात्मनः पुत्रकाम्यति । पुत्रकाम्येत् । पुत्रकाम्यतु । अपुत्रकाम्यत् । अपुत्रकाम्यीत्। पुत्रकाम्याचकार । पुत्रंकाम्यिता । पुत्रकाम्यात् । पुत्रकाम्यष्यति । अपुत्रकाम्यष्यत् । एवं इदंकाम्यति । नियमयति । अपरिवेषण ऐसा क्यों कहा ? आयामयति आयीयमत् । इन् के आने पर अव, परि उपसर्ग पूर्वक स्खदिष् धातु ह्रस्व हो जाता है ॥४६५ ॥ अवस्खदयति । अन्य उपसर्ग से ह्रस्व नहीं होगा। यथा- उपरखादयति । इन के आने पर पण गत्यर्थ में ह्रस्व होता है ॥४६६ ॥ पयति । गत्यर्थ ऐसा क्यों कहा ? पाणयति । इस प्रकार से कारित संज्ञक इन प्रत्ययान्त प्रकरण समाप्त हुआ । अथ नाम धातु प्रकरण आत्म इच्छा में नाम से यिन् प्रत्यय होता है ॥४६७ ॥ यिन् के आने पर अवर्ण को ईकार होता है ॥४६८ ॥ पुत्रमिच्छत्यात्मनः । अपने लिये पुत्र चाहता है। पुत्र य् ति अवर्ण को ई होकर 'पुत्रीय्' रहा 'ते धातव:' से धातु संज्ञा होकर अन् विकरण और पुत्रीयति । पुत्रीयेत् । पुत्रीयतु । अपुत्रीयत् । अपुत्रीधीत् । पुत्रीयाञ्चकार पुत्रीयिता । पुत्रीय्यात् । पुत्रीयिष्यति । अपुत्रीयिष्यत् । घट इच्छति आत्मन: । घटीयति । वस्त्रीयति सुवर्णीयति । आत्म इच्छा अर्थ में नाम से 'काम्य' प्रत्यय हो जाता है ॥४६९ ॥ पुत्रकाम्य 'ते धातव:' से धातु संज्ञा होकर पुत्रकाम्यित इत्यादि । इदंकाम्यति आत्मन: । इदंकाम्यति । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: उपमानादाचारे ॥ ४७० ॥ उपमानानाम्नो विन्भवति आचारेऽर्थे । पुत्रमिव आचरति पुत्रीयति माणवकं । एवं क्षीरीयति जलं । भूपीयति पुत्रकं । इति यिन्नन्तः । कर्तुरायिस्सलोपश्च ||४७१ ॥ कर्तुरुपमानानाम्नः आयि भवति आचारेऽर्थे यथासंभवं सलोपश्च ॥ ३०५ आय्यन्ताच्च ॥४७२ ॥ आयिप्रत्ययान्ताद्धातोरात्मनेपदं भवति । श्येन इव आचरति श्येनायते । श्येनायेत । श्येनायतां । अश्येनायत अश्येनायिष्ट । श्येनायाञ्चक्रे । श्येनायिता । श्येनायिष्यते । अश्येनायिष्यत ॥ एवं अप्सरायते ॥ ओजसोप्सरसोर्नित्यं पयसंस्तु विभाषया ॥ आयिलोपश्च विज्ञेयो गर्दभत्यश्वतीत्यपि ॥ १ ॥ ओजस्वि इव आचरति । ओजायते । एवं अप्सरायते । पयायते । 1 नामित्यञ्जनान्तादायेरादेः || ४७३ || नामिव्यञ्जनान्तात्परस्य आयेरादेलोपो भवति । पयस्यत । वाशब्दस्येष्टाऽर्थत्वात्क्वचिदायिलोपः । आम्यन्ताच्चेत्यन्तग्रहणाधिक्यादायिलोपे परस्मैपदं भवति । गर्दभ इव आचरति गर्दभति । एवं अश्वति । अग्नीयते । एवं पटूयते । पित्रीयते । रैयते । नलोपश्च ॥४७४ || आचार अर्थ में उपमान नाम से यिन् प्रत्यय होता है ॥ ४७० ॥ पुत्रमिव आचरति = पुत्रीयति । क्षीरीयति । भूपीयति । इस प्रकार से नाम से यिनंत प्रत्ययान्त समाप्त हुआ । आचार अर्थ में उपमान, नामकर्ता से 'आय्' प्रत्यय होता है ॥ ४७१ ॥ और यथा संभव 'स' का लोप हो जाता है। आय् प्रत्ययान्त धातु आत्मनेपदी होता है ॥ ४७२ ॥ श्येन इव आचरति = श्येनायते । एवं अप्सरा इव आचरति अप्सरायते । अप्सरस् में सकार कालोप = हुआ है । श्लोकार्थ - ओजस् और अप्सरस् के सकार का नित्य ही लोप होता है और पयस् के सकार का विकल्प से लोप होता है। एवं गर्दभ और अश्व में आय् प्रत्यय का लोप हो जाता है ॥ १ ॥ ओजस्वि इव आचरति = ओजायते । पयः इव आचरति = पयायते । नामि, व्यञ्जनान्त से परे आयु की आदि का लोप होता है ॥ ४७३ ॥ पयस्यते । वा शब्द इष्ट अर्थ वाला होने से कहीं पर आय् का लोप होता है। 'अय्यन्ताच्च' सूत्र ४७२ में 'अंत' शब्द के ग्रहण की अधिकता होने से 'आय्' प्रत्यय का लोप होने पर परस्मैपद होता है। गर्दभ इव आचरति = गर्दभति । अश्वति । अग्नीयते । आय् की आदि 'आ' का लोप होकर पूर्व स्वर को ई और या दीर्घ होकर अग्नीयते बना । पटूयते । पित्रीयते । रैयते । यिन् आय् प्रत्यय के आने पर 'न' का लोप हो जाता है ॥ ४७४ ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला नलोपश्च भवति यिन्यायो: परतः । विध्वस्यते ॥ अनुडुह्यते । ओतायिन्नायिपरे स्वरवत्॥४७५ ॥ ओत: परौ यिन्नायिस्वरवद्भवतः ॥ ओ अविति संधिः । गामित्यात्मन इच्छति गव्यति । गौरिवाचरति गव्यते। औत्वश्च ।।४७६॥ औत: परो यिनायिस्वरवद्भवति । नामिच्छत्यात्मन: नाव्यति । नौरिवाचरति नाव्यते । वा गल्भक्लीबहोडेभ्यः ॥४७७ ॥ एभ्य: परमात्मनेपदं भवति । वाशब्दस्येष्टार्थत्वात् क्वचिदायिलोप: । गल्प इव आचरति गल्भते। क्लीबते। होढते । कष्टकक्षसत्रगहनाय पापे क्रमणे ॥४७८ ॥ एभ्यश्चतुर्थ्यन्तेभ्य: पापे वर्तमाने क्रमण इत्यर्थे आयिप्रत्ययो भवति। कष्टाय कर्मणे क्रामति कष्टायते 1 एवं कक्षायते । सत्रायते । गहनायते । पाप इति किं ? कष्टाय तपसे क्रामति । बायोमोनसहपनि !! ! बाष्पादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्य उद्बमनेऽथें आयिप्रत्ययो भवति ॥ बाष्पमुमति बाप्पायते । ऊष्माणमुद्रुमति उष्मायते । नस्य लोप: फेनमुद्रमति फेनायते । सखादीनि वेदयते ॥४८० ।। सुखादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्यो वेदयते इत्यर्थे आयिप्रत्ययो भवति । सुखमावेदयते सुखायते । एवं दु:खायते । तदनुभवतीत्यर्थः । विध्वस्यते । अनुडुह्यते। ओकार से परे यिन् आय् प्रत्यय स्वरवत् हो जाते हैं ॥४७५ ॥ गां इति आत्मन: इच्छति । गो य ति 'ओ अव्' गव्यति । गौरिव आचरति = गव्यते । औकार से परे यिन् आय् स्वरवत् होते हैं ॥४७६ ।। नावं इच्छति आत्मन:- नाव्यति । नाव्यते । गल्भ, क्लीब और होढ से परे आत्मनेपद होता है ॥४७७ ॥ वा शब्द इष्ट अर्थवाची होने से कहीं पर आय का लोप हो जाता है। गल्भते । क्लीबते । होढते । गल्भ-धृष्टता । होट- अनादर होना।। कष्ट, कक्ष, सत्र और गहन ये चतुर्थ्यंत शब्द पाप अर्थ में होवें तव आय् प्रत्यय होता है ।।४७८ ॥ कटाय कर्मणे क्राति - कष्टायते । कक्षायते । सत्रायते । जहनायते । पाप अर्थ हो ऐसा क्यों कहा ? तो कष्टाय तपसे क्रामति । यहाँ तपस्या अर्थ में आय् प्रत्यय नहीं हुआ है। वाध्य, ऊष्म और फेन से उद्गमन अर्थ में आय् प्रत्यय होता है ॥४७९ ॥ वाष्पमुद्वमति = वाष्पायते । ऊष्मायते । फेनायते । द्वितीयान्त, सुखादि से वेदन अर्थ में आय् प्रत्यय होता है ।। ४८० ॥ सुखमावेदयते - सुखायते । दुःखायते । उसका अनुभव करता है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडन्तः ३०७ foTTA शब्दादीन् करोति ॥४८१॥ ___ शब्दादिभ्यो द्वितीयान्नेभ्यः । करोत्यर्थे आयिप्रत्ययो भवति । शब्दं करोति शब्दायते । एवं पैरायते । कलहायते । नमस्तपोवरिवसश्च यिन् ॥४८२॥ एभ्यो यिन्भवति करोत्यर्थे । नमस्करोति नमस्पति देवान् । एवं तपस्यति शत्रून् । वरिवस्यति गुरून् । कण्ड्वादिभ्यो यन् ॥४८३ ।। कण्ड्वादिभ्यो यम्भवति करोत्यर्थे ॥ कण्डूं करोति कण्डूयते । एवं तिरस्करोति तिरस्यते। इत्यायिप्रत्ययान्ताः। गुपधूपविच्छपनेरायः॥४८४ ।। गुपूप्रभृतिभ्य आय: प्रत्ययो भवति स्वार्थे । गोपायति । गोपायाञ्चकार ॥ गोपयिता । एवं घूपायति । विच्छायति । विश विच्छ गतौ । पणायते । पणि व्यवहारे । पनायते । पन स्तुतौ च ॥ इत्यायान्ताः । अभततद्धावे कभ्वस्तिष विकाराविः ।।४८५ ।। विकारानामश्विर्भवति अभूततद्भावेऽर्थे कृष्वस्तिषु परेषु । च्वौऽचावर्णस्य ईत्वम् ।।४८६ ।।* अवर्णस्य ईत्वं भवति चौ च परे। चिसर्वापहारिप्रत्ययस्य लोपः । अशुक्लं शुक्लं करोति शुक्लीकरोति । अशुक्ल: शुक्ल: क्रियते शुक्लीक्रियते। अशुक्ल:. शुक्लो भवति शुक्लीभवति । द्वितीयान्त शब्दादि से करोति अर्थ में आय् प्रत्यय होता है ।।४८१ ॥ शब्दं करोति = शब्दायते । वैरायते कलहायते । नमस् तपस् वरिवसस् शब्द से करोत्यर्थ में यिन् प्रत्यय होता है. ॥४८२ ।। नमस्करोति = नमस्यति । तपस्यति । वरिवस्यति । कपडू आदि से करोति अर्थ में 'यन्' प्रत्यय होता है ॥४८३ ॥ कण्डूं करोति = कंडूयते । तिरस्करोति = तिरस्यते । इति आयि प्रत्ययान्त । गुपू. धूप, विच्छ और पन धातु से स्वार्थ में 'आय' प्रत्यय होता है ॥४८४ ॥ गुपू-रक्षणे = गोपायति । गोपायाञ्चकार । गोपायिता । धूप-संताने। धूपायति । विश् विच्छ— गमन करना । विच्छायति । पणि व्यवहारे । पणायते । पन—स्तुति और व्यवहार । पनायते । इति आय प्रत्ययान्त । अभूत तद्भाव अर्थ में कृ भू अस् धातु से विकार होने से 'च्चि' प्रत्यय होता है ।।४८५ ।। च्चि प्रत्यय के आने पर अवर्ण को 'ईकार' हो जाता है ॥४८६ ॥ ___ चि प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो जाता है । अशुक्लं-शुक्लं करोति, शुक्ल + अम् कृ विभक्ति का लोप होकर शुक्ल कृ अवर्ण को 'ई' होकर 'शुक्ली कृ' है "ते धातवः' से धातु संज्ञा होकर “शुक्लीकरोति' बना । अशुक्ल: शुक्ल: क्रियते = शुक्लीक्रियते । शुक्लीभंवति, शुक्लीस्यात् । अफ्टः पटुः स्यात् । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. कातन्त्ररूपमाला अशुक्ल: शुक्ल: स्यात् शुक्लीस्यात् । अदीघों दीर्घः क्रियते दीर्घाक्रियते। अदीर्घ दीर्घ करोति दी/करोति । अदीघों दी? भवति दी|भवति । अदी? दीर्घः स्यात् दीघीस्यात् । एवं पुत्रीक्रियते पुत्रीकरोति पुत्रीभवति पुत्रीस्यात् । अवनिता वनिता क्रियते । वनितीक्रियते । एवमग्नीक्रियते अग्नीकरोति अग्नीभवति अग्नीस्यात् । पदिक्रयते पटूकरोति पटूभवति पटूस्यात् । ऋत ईदन्तश्च्विचेक्रीयितयिनायिषु ॥४८७ ॥* ऋदन्तस्य चिचेक्रीयितयित्रायिषु परत ईदन्तो भवति। मात्रीकरोति मात्रीक्रियते मात्रीभवति मात्रीस्यात् । पित्रीकरोति पित्रीक्रियते । पित्रीभवति पित्रीस्यात् । इत्यादि। एवं सर्वमवगन्तव्यं ।। इति विप्रत्ययान्ता: समाप्ताः । अथ पुषादयः। पुषादिद्युतादिलकारानुबन्धार्तिसर्चिशास्तिभ्यश्च परस्मै ।।४८८॥ इत्यण प्रत्ययः सर्वत्र भवति । पुष पुष्टौ । अपुषत्। शुष शोषणे। अशुषत् । दुःख वैकल्ये। अदुःखत् । श्लिष आलिङ्गने । अश्लिषत् । बिच्छिदा गावप्रक्षरणे । अच्छिदत् । क्षुध बुभुक्षायां । अक्षुधत् । शुध शौचे। अशुधत् । षिध संराद्धौ । असिधत् । रध हिंसायां । अरधत् । तृप प्रीणने । अतृपत् । दृप हर्षणमोचनयोः । अदृपत् । मुह वैचित्ये। अमुहत् । द्रुह जिघांसायां । अद्रुहत् । ष्णुह उद्गिरणे। अस्नुहत् । ष्णिह प्रीतौ । अस्निहत् । णश् अदर्शने । अनशत् । शम् दम् उपशमे । अशमत् अदमत् । तमु कांक्षायां । अतमत् । श्रम तपसि खेदे च । अश्रमत् । ध्रमु अनवस्थाने । अभ्रमत् । क्षमूष् सहने । अक्षमत् । च्चि प्रत्यय के आने पर अवर्ण को 'ई' एवं अन्य स्वर में पूर्व स्वर को दीर्घ होता है। अत: पटूस्यात् । च्चि, चेक्रीयित, यिन् आमि प्रत्यय के आने पर ऋकारांत से पर 'ई' हो जाता है ।।४८७ ॥ अमातरम् मातरम् करोति, मातृ + अम् कृ विभक्ति का लोप होकर, ईकार होकर मातृ +ई = मात्रीकरोति। अपितरम् पितरम् करोति = पित्रीकरोति । पित्रीस्यात् इत्यादि । ऐसे सभी में समझ लेना चाहिये। इति चि प्रत्ययांत। अथ पुषादि प्रकरण पुषादि, द्युतादि, लकारानुबंध, ऋ स और शास् धातु से अद्यतनी के परस्मैपद में सर्वत्र 'अण्' प्रत्यय हो जाता है ।।४८८ ॥ पुष्-पुष्ट होना। अपुषत् । शुध-शोषण करना। अशुषत् दुःख-विकल होना। अदुःखत् । श्लिष्-आलिंगन करना 1 अश्लिषत् । जिच्छिदा-गावप्रक्षरणे। अच्छिदत्। क्षुध-बुभुक्षाअक्षुधत् । शुच-शुद्ध होना । अशुधत् । विधु-संराद्ध अर्थ में। असिषत् । रध-हिंसा । अरधत् । तृप–प्रीणन। अतृपत् । दृप-हर्ष-और मोचन =अदपत् । मुह-अमुहत् । द्रुह-द्रोह करना। अद्रुहत् । ष्णुह—उद्गिरण । अस्नुहत् । ष्णिह.....प्रीति । अस्निहत् । णश्-नष्ट होना । अनशत् । शम् दम्-उपशम होना = अशमत्, अदमत्। तमु-कांक्षा = अतमत्। अश्रमत् । अम्रमत् । अक्षमत् । अक्लमत् । अमदत् । अपासत् । अयसत् । जसु-मोक्षणे = अजसत् । तसु, दसु उपक्षये अतसत् । अदसत्। वसु-स्तंभे = अवसत् । प्लुप्–दाह । अप्लुषत् । विष्-प्रेरणा = अविषत् । कुशश्लेषण-अकुशत्। बुस्-उत्सर्ग करना = अबुसत्। मुश-खंडन करना अमुशत्। मसि Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्त: ३०९ क्लमु ग्लानौ। अक्लमत् । मदीहर्षे । अमदत् । असु क्षेपणे । अपासत् । यसु प्रयले। अयसत् । जसु मोक्षणे । अजसत् । तसु दसु उपक्षये । अतसत् । अदसत् । वसु स्तम्भे । अवसत् । प्लुष दाहे । अप्लुषत् । विष प्रेरणे । अविषत् । कुश श्लेषणे । अकुशत् । बुस उत्सर्गे। अबुसत् । मुश खण्डने । अमुशत् । मसि परिणामे । अमसत् । लुठ विलोडने । अलुठत् । उच समवाये । औचत् । मृशश अध:पतने । अशा । वृश वरणे । अवृशत् । कृश तनूकरणे । अकृशत् । बितृष पिपासायां । अतृषत् । तुष हृष तुष्टौ । अतुषत् । अहषत् । कुप क्रुध रुष रोषे। अकुपत् । अधत् । अरुषत् । डिप क्षेपे । अडिपत् । स्तुप समुच्छाये । अस्तुपत् । गुप व्याकुलत्वे । अगुपत् । युप रुप लुप विमोहने । अयुपत् । अरुपत् । अलुपत् । लुभ गायें । अलुभत् । क्षुभ संचलने। अक्षुभत्। नभ तुभ हिंसायां । अनभत् अतुभत् । क्लिन्दू आर्दीभावे। अक्लिन्दत् । जिमिदा स्नेहने। अमिदत् । शिक्ष्विदा मोचने। आश्वदत् । ऋध वृद्धौ। आर्द्धत् । गृधु अभिकांक्षायां । अगृधत् । इति पुषादिः । पुषादिद्युतादीत्यण् प्रत्ययः । धुत शुभ रुच दीप्तौ । अद्युतत् अद्योतिष्ट । एवं सर्वत्र आत्मनेपदेऽपि । अशुभत् । अरुचत् । चित आवरणे। श्वितादीनां ह्रस्वः ॥४८९॥ श्वितादीनां ह्रस्वो भवति । अश्वितत् । घुट परिवर्तने । अघुटत् । रुट लुट लुठ प्रतीघाते । अरुटत् । अलुटत् । अलुठत् । क्षुभ संचलने । अक्षुभत् । श्रंस भंस अवस्रंसने । अश्रसत् । अभ्रसत् । ध्वंस गतौ च । अध्वसत् । संभु विश्वासे । अस्रभत् । दृत वर्तने । अवृतत् । वृद्ध वृद्धौं । वृधु वर्धन । अवृधत् । श्दलू शब्दकुत्सायां । अशृदत् । स्यन्दू प्रस्रवणे। अस्यदत्। कृपू सामर्थ्ये । अकृपत् । गृधु अधिकांक्षायां । अगृधत्। ऋतो लत्।।४९० ॥ कृपेर्धातोः ऋतो लुत् भवति । अक्लृपत् । इति द्युतादिः॥ परिणामे= अमसत् । लुठ- विलोडन = अलुठत्। उच्–समवाये = औचत् । प्रश, भ्रंशअध:पतन-अभृशत् । वृश्-वरण करना -- अवृशत् । कृश-तनू करना अकृशत् । तृष-प्यासअतृषत् । तुष हष-तुष्ट होना = अतुषत, अहषत् । अकुपत् । अरुषत् अनुधत् । डिप-क्षेपण करना = अडिपत् । युप्-समुच्छाये - अस्तुपत् गुप–व्याकुलता = अगुपत् । युप, रुप, लुप-विमोहन अयुपत् अरुपत् अलुपत्। लुभ-गृद्धता=अलुभत्। अशुभत् । नभ तुभ हिंसा = अनभत् अतुभत् । क्लिन्दू---गीला होना। अक्लिन्दत् । जिमिदा-स्नेह करना= अमिदत् । विश्विदा-मोचन = अश्वदत् । ऋध-वृद्धि होना: आर्द्धत् । गृधु--अभिकांक्षा-अमृधत् । इति पुषादिः । धुत शुभरुचदीप्त होना = अधुतत् । अद्योतिष्ट । इसी प्रकार से सर्वत्र आत्मनेपद में भी रूप चलते हैं। अशुभत् अरुचत् । श्वित्---आवरण करना । श्वित आदि को ह्रस्व हो जाता है ॥४८९ ॥ अश्वितत् । घुट-परिवर्तन होना = अघुटत् । रुट लुट लुछ-प्रतिघात होना = अरुटत् अलुटत् अलुठत् । संस् भंस्-अस्रसत्, अभ्रसत् । अध्वसत् टेंभु-विश्वास = अस्रभत्। वृत-वर्तने = अवृतत् । वृद्ध-वृद्धि होना। वृधु-वर्धित होना = अवृधत्। शृद् = शब्द कुत्सा में = अशृदत् । स्यंदू... प्रस्त्रवण करना=अस्पंदत् । कृपू—सामर्थ्य = अकृपत् । अगृधत् । कृप धातु से ऋ को 'लु' हो जाता है ॥४९० ॥ अक्ल्प त् । इति छुतादिः। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० कातन्त्ररूपमाला भावसेनत्रिविद्येन वादिपर्वतवज्रिणा। कृतायां रूपमालायामाख्यात: परिपूर्यते ॥१ ।। अथ कुदन्ताः केचित्प्रदपर्यन्ते सिद्धिरिज्वळ्णानुबन्धे ।।४९१ ।। ज्णानुबन्धे कृत्प्रत्यये परे इचि कृतं कार्यमतिदिश्यते यथासंभवं । धातोः॥४९२॥ अविशेषेण धातोरित्यथिकारो वेदितव्यः । कृत् ।।४९३ ॥ वक्ष्यमाणा: प्रत्ययाः कृत्संज्ञका वेदितव्याः । कर्तरि कृ॥४९४ ॥ कृत्प्रत्ययान्ताः कर्तृकारके भवन्ति। वर्त्तमाने शन्तृङानशावप्रथमैकाधिकरणामन्त्रितयोः ।।४९५ ॥ अप्रथमैकाधिकरणामत्रितयोः परयो: वर्तमानकाले धातोः शन्तृडानशौ भवतः ।। सार्वधातुकवत् ।।४९६ ॥ शानुबन्धे कृति परि सार्वधातुकवत्कार्यं भवति । कृदन्ताः प्रायो वाच्यलिङ्गाः। शन्तुङन्तं क्विवन्तं धातुत्वं न जहाति । भवन् पुमान् । भवन्ती स्त्री । भवत्कुलं । लोकोपचारादानशानावात्मनेपदे।। अर्थ वादीरूपी पर्वतों के लिये वन के सदृश ऐसे वादिपर्वत वज्री श्री भावसेन त्रिविद्य मुनिराज ने इस रूपमाला टीका में आख्यात प्रकरण पूर्ण किया है ॥१॥ इस प्रकार से यहाँ तक तिङत प्रकरण समाप्त हुआ है। अथ कृदन्त प्रकरण प्रारंभ होता है। बानुबंध, णानुबंध कृत् प्रत्यय के आने पर यथासंभव इच् में कहा गया कार्य हो जाता है ॥४९१ ॥ सामान्यतया 'धातोः' इस सूत्र से धातु का अधिकार समझना चाहिये ॥४९२ ।। आगे धातु से कहे जाने वाले सभी प्रत्यय 'कृत्संज्ञक' समझना चाहिये ॥४९३ ॥ कृत् प्रत्यय वाले शब्द कर्तृकारक में होते हैं ॥४९४ ॥ अप्रथमैकाधिकरण और आमंत्रित से परे वर्तमानकाल में धातु से शतृङ् और आनश् प्रत्यय होते हैं ॥४९५ ॥ शानुबंध कृत् प्रत्यय के आने पर सार्वधातुकवत् कार्य होता है ||४९६ ॥ कृत् प्रत्यय वाले शब्द प्राय: वाच्यलिंग होते हैं। अर्थात् विशेष्य के अनुकूल होते हैं। शतृङ् प्रत्यय वाले और क्विा प्रत्यय वाले शब्द धातुपने को नहीं छोड़ते हैं । भू शतृङ् । श् ऋ और ङ् अनुबंध हैं अत: 'भू अन्त्' रहा 'अन् विकरणः कतरि' सूत्र से अन् विकरण होकर अनि च विकरणे' सूत्र से गुण Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३११ आनोऽत्रात्मने ॥४९७ ॥ अत्र आन: प्रत्यय आत्मनेपदं भवति । आन्मोन्त आने ।।४९८ ॥ अकारान्तान्मकारागमो भवति आने परे ॥ एधमानः पुत्रः । एधमाना लक्ष्मी: । एधमान कुल । तथा पचन् पचन्ती पचत् । पचमानः पचमाना पचमानमित्यादि । अदन् अदन्ती अदत् । शयान: शयाना शयानं । डेन गुणः ॥४९९ ।। नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणो न भवति अनुबन्धे कृति परे । ब्रुवन् बुवाणः । जुह्वत् जुह्वान: । दधत् दधान: । दीव्यम् । सूयमानः । सुन्वन् सुन्वान; 1 अश्नुवानः ॥ सर्वेषामात्मने इत्यादिना गुणों न भवति । चिन्वन् चिन्वान: । भावे । भूयमानं देवदत्तेन । एध्यमानमस्माभिः । भावे सर्वत्र नपुंसकलिङ्गत्वं एकत्वं च । कर्मणि। पच्यमान ओदन: । पच्यमानौ ओदनौ । पच्यमाना: ओदना: । क्रियमाणः कट इत्यादि। होकर भव अत् रहा । 'असंध्यक्षरयोरस्य तौ तल्लोपश्च' सूत्र २६ से अकार का लोप होकर भवन्त' बना 'कृतद्धितसमासाच' सूत्र ४२३ से लिंग संज्ञा होकर व्यञ्जनान्त पुल्लिंग में 'भवत्' बन गया । स्त्रीलिंग में 'नदाद्यन्न वाह' इत्यादि सूत्र ३७२ से 'ई' प्रत्यय होकर भवन्ती बन कर लिंग संज्ञा होकर, स्वरांत स्वीलिंग में नदी के समान रूप चलेगा। एवं नपुंसक लिंग में भवेत्' बनेगा। लोकोपचार से आनश् और आनङ् प्रत्यय आत्मनेपद में होते हैं। यहाँ आन प्रत्यय आत्मनेपद में होता है ॥४९७ ॥ आन प्रत्यय के आने पर अकारांत शब्द से मकार का आगम हो जाता है ॥४९८ ॥ एध् अ म आन = एधमान 'कृतद्धितसमासाच' सूत्र से लिंग संज्ञा होकर बालकवत् एधमानः । स्त्रीलिंग में रमावत् 'एधमाना' नपुंसकलिंग में कुलवत् एधमानं बनेगा। ऐसे ही पच् धातु से पचन, पचन्ती, पचत् बनेंगे। आनश् में पचमान: पचमानां, पचमानं बनेंगे। अद्--अदन् । शीङ्–शयान: आदि । डानुबंध कृदन्त प्रत्यय के आने पर नाम्यंत धातु और विकरण को गुण नहीं होता है ॥४९९ ॥ ब्रू अन्त् ‘स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौ' ८३ सूत्र से ब्रुक् होकर ब्रुवन्त है, लिंग संज्ञा होकर 'ब्रुवन्' बना । आनश् में--बुवाणः । हु धातु से हु अन्त् “जुहोत्यादीनां सार्वधातुके १५० सूत्र से 'हु हु अन्त् पूर्वोऽभ्यासः' १५१ से पूर्व को अभ्यास संज्ञा हुई पुन: 'हो जः' १५२ सूत्र से अभ्यास के हकार को जकार होकर जुहु अन्त् रहा 'जुहोते: सार्वधातुके १५५ सूत्र से उकार को वकार होकर जुह्वन्तु बना। लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर "अभ्यस्तादन्तिरनकारः" २८८ सूत्र से नकार का लोप होकर 'व्यञ्जनाच' सूत्र से सि का लोप होकर 'जह्वत्' बना । आनश में जुह्वान: बना । 'धा' धातु से—दधत् दधानः । दिवादि गण में-दिव् अन्त् है 'दिवादेर्यन्' सूत्र १८२ से यन् विकरण होकर १८३ सूत्र से दिव् को दीर्घ होकर २६वें सूत्र से अकार का लोप होकर 'दीव्यन्त्' बना । लिंग संज्ञा होकर 'दीव्यन्' स्त्रीलिंग में दीव्यन्ती, नपुंसक में दीव्यत् बना । सूयमानः । स्वादिगण में-नु विकरण होता है अत: सुन्वन्त् बना । सुन्वन् सुन्वान; । अश्नुवानः । "सर्वेषामात्मने सार्वधातुकेऽनुत्तमे पञ्चम्या:" ८७वें सूत्र से आत्मनेपद में गुण नहीं होता है। चिन्वन् चिन्वानः। भाव में—'सार्वधातुके यण' ३१ सूत्र से यंण् होकर आत्मनेपद में भूयमानं बना । ऐसे ही एध्यमानं । भाव में सर्वत्र नपुंसकलिंग और एकवचन ही होता है । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ कातन्त्ररूपमाला वत्तेः शन्तुर्वन्सुः ।।५०० ॥ विद: परस्य शन्तुर्वन्सुर्भवति । विद्वान् विद्वान्सौ । क्वन्सुकानौ परोक्षावच्च ।।५०१ ।। धातोः परोक्षास्वरूपौ क्वन्सुकानौ भवतः ॥ क्वन्सु परस्मै कान आत्मनेपदं भवति । के यण्वच्च योक्तवर्जनम् ।।५०२ ।। कानुबन्धे कृति परे यण्वकार्य भवति योक्तं वर्जयित्वा । इति न गुणः । बभूवान् बभूवान्सौ बभूवान्स:। एधाञ्चक्रिवान्। एधाञ्चक्राण:। अत्र नाम्यादेर्गुरुमत इत्यादिना आम: कृञ् प्रयुज्यते इत्यनुप्रयोग: । पेचिवान् पेचान: । चक्रिवान् चक्राणः।। खोळञ्जनेऽये ॥५०३ ।। धातोर्यकारवकारयोलोपो भवति यकारवर्जिते कृति व्यञ्जने परे । क्नूयी शब्दे । चुक्न्हावान् । मायी विधूनने । चक्ष्मावान् । दिव् क्रीडादौ । दिदिवान् । पिवु तन्तुसन्ताने । सिषिवान् । ष्ठिवु क्षिषु निरसने। तिष्ठिवान् । विक्षिवान्। कर्मणि प्रयोग में—वाच्य के समान तीनों लिंग और एक द्वि बहुवचन भी होते हैं। यथा--पच्यमान: औदन: पच्यमानौ ओदनौ, पच्यमाना: ओदना: । क्रियमाणः ।। विद् के परे शन्तु को वन्स आदेश हो जाता है ।।५०० ॥ अत: विद्वन्स् बना । लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्ति में विद्वान् विद्वांसौ विद्वान्सः । धातु से परोक्षा अर्थ में क्वंसु कान प्रत्यय होते हैं ॥५०१ ॥ क्वन्सु परस्मैपद में एवं कान प्रत्यय आत्मनेपद में होता है। कानुबन्ध कृत् प्रत्यय के आने पर योक्त को छोड़कर यणवत् कार्य होता है ॥५०२ ॥ इससे गुण नहीं होता है। भू क्वन्स में वन्स रहता है। 'चण परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' २९२ सूत्र से द्वित्त्र होकर भू भू वन्स् । 'पूर्वोभ्यास:१५१ सूत्र से अभ्यास संज्ञा होकर 'भवतेरः' इस ३०५वें सूत्र से अभ्यास को अकार होता है। "द्वितीयचतुर्थयो: प्रथमतृतीयौं” १५१ सूत्र से तृतीय अक्षर होकर बभूवन्स् बना ‘कृतद्धितसमासाश्च' सूत्र से लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'बभूवान्' ऐसे ही एध धातु से आम् कृ का प्रयोग होकर 'कान' प्रत्यय होकर एधाञ्चक्राण; । यहाँ पर 'नाग्न्यादेमुरुमतः' इत्यादि सूत्र से आम् से कृ धातु का प्रयोग होता है। पेचिवन्स् पेचान बनकर लिंग संज्ञा होकर और सि विभक्ति आने पर पेचिवान् पेचान: । चक्रिवान् । चक्राणः । क्यो—शब्द करना । क्यूय क्नूय् वन्स् न का लोप होकर 'कवर्गस्य चवर्ग:' २९३ सूत्र से चवर्ग होकर २९४ सूत्र से ह्रस्व होकर चुक्न्य् वन्स् रहा। यकार वर्जित कृत्प्रत्यय के आने पर धातु के यकार वकार का लोप हो जाता है ॥५०३ ॥ यकार का लोप होकर चूक्नूवन्स् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'चुक्नूवान्' बना। क्ष्मायी-कॅपना। उपर्युक्त सूत्र से यकार का लोप होकर चक्ष्मावान् बना । दिद-क्रीड़ा आदि । दिदिवान् । पिवु–सिषिवान् । तिष्ठिवान् चिश्क्षिवान् । गम् वन्स् द्वित्व होकर गम् गम् वन्स् कवर्ग को Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३१३ गमहनविदविशदृशां वा॥५०४॥ एषां वन्स् आजारङ् वा भवति यथासंभवं उपधालोप: । जग्मिवान् । इडभावे। वमोश्च ।।५०५॥ वमोश्च परयो तोर्मो नो भवति । जगन्वान् जनिवान् । जवन्वान् । विविदिवान् । विविद्वान् । विविशिवान् । विविश्वान् । ददृशिवान् । दास्वान्साहान्मीढ्वांश्च ॥५०६॥ एते क्वन्स्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । दास दाने । दास्वान्। षह मर्षणे। साह्मन् । मिह सेचने । मीढ्वान् । तव्यानीयौ ॥५०७॥ धातोस्तव्यानीयौ भवतः। ते कृत्याः ॥५०८॥ ते तव्यादयः कृत्या भवन्ति। भावकर्मणोः कृत्यक्तखलाः ॥५०९।। भावे कर्मणि च कृत्यक्तखला वेदितव्याः ॥ पूर्वस्यापवादोऽयं । सुजनेर भवितव्यं । पवनीयं । अनुक्ते कर्तरि तृतीया । एधितव्यं । एधनीयं । उक्ते कर्मणि प्रथमा । अभिभवितव्यः शत्रुः । अभिभवनीयः । कर्तव्यः करणीय कटः दातव्यं दानीयं धनं । ___ गम् हन् विद् विश् और दृश् धातु से वन्स् प्रत्यय के आने पर विकल्प से उपधा का लोप होता है ॥५०४ ॥ ज गम् वन्स् में उपधा का लोप होकर विकल्प से इट् होकर जग्मिवान् बना । व और म से परे धातु से म् को न हो जाता है ॥५०५ ॥ जगन्वान् । हन् धातु से ह को ध होकर इट् होकर जनिवान् । इट् के अभाव में जघन्वान् । विद धातु से विविदिवान् । विविद्वान् । विश्-विविशिवान, विविश्वान्। ददृशिवान्। दास्वान, सालान् और मीढ्वान् शब्द क्वंस् प्रत्ययांत निपात से सिद्ध होते हैं ॥५०६ ॥ दास-देना = दास्वान् । पह-मर्षण करना = साह्यान् मि--सेचन करना=मीढ्वान् ये। सब शब्द परोक्षा अर्थ में स्वंसु कान प्रत्यय से बने हैं। धातु से तव्य अनीय प्रत्यय होते हैं ॥५०७ ॥ ये तव्य आदि प्रत्यय 'कृत्य' संज्ञक होते हैं ॥५०८ ॥ कृत्य, क्त और खल अर्थ वाले प्रत्यय भाव और कर्म में होते हैं ॥५०९ ।। यह पूर्व का अपवाद है। भू तव्य भू अवीय 'नाम्यंतयोषातुविकरणयोर्गुण: सूत्र से गुण होकर 'इडागमोऽसार्वधातुकस्यादिव्यंजनादेरयकारादेः' २२७वें सूत्र से इट् का आगम होकर भवितव्य बना 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में नपुंसक लिंग का एकवचन हुआ। भवितव्यं । अनीय में इट् प्रत्यय न होकर भवनीयं बना । सूत्र में नहीं कहने पर भी तव्य अनीय प्रत्यय वाले शब्दों के प्रयोग में कर्ता में तृतीया होती है। कर्मणि प्रयोग में कर्ता में तृतीया एवं कर्म में प्रथमा होती है। त्वया अभिभवितव्यः शत्रु:-तुम्हें शत्रु का तिरस्कार करना चाहिये । इत्यादि। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला कृत्ययुटोऽन्यत्रापि ॥५१० ॥ कृत्यो युट् च उक्तादन्यत्रापि भवति । स्ना शौचे। स्नानीयं चूर्ण । दानीयो ब्राह्मण: । वृत् वर्तने । समावर्तनीयो गुरुः ।। स्वराघः ॥५११॥ स्वरान्ताद्धातोर्य: प्रत्ययो भवति । चेयं जेयं नेयं । उदौदभ्यां कद्यः स्वरवत् ।।५१२।। उदौद्भ्यां पर: कृद्यः स्वरवद्धवात । लव्यं अवश्यलाव्यं । शकिसहिपवर्गान्ताच्च ।।५१३ ।। शकिसहिन्यां पवर्गान्ताच्च यो भवति । शक्ल शक्तौ । शक्यं सह्यं । जप्यं । लम्यं आत्खनोरिच्च ॥५१४॥ आकारान्तात्खनो नश्च यो भवति अनयोरन्त इकारागमो भवति । देयं पेयं । खनु अवदारणे। खनेरिकारादेश: । अन्येषामागमः। खेयं यमिमदिगदां त्वनुपसर्गे ॥५१५ ॥ एषामुपसर्गाभावे यो भवति । यम्यं मद्यं । गद्यं अनुपसर्ग इति कि ? घ्यण—प्रयाम्यं । प्रमाद्यं प्रगाद्यं । चरेराङ्गि चागुरौ ।।५१६ ॥ ऊपर कहे हुए भावकर्म से अतिरिक्त अन्यत्र भी कृत्य और युट् प्रत्यय होते हैं ॥५१० ॥ स्मा-शुद्ध होना । स्नानीयं । दानीयः । वृत्-वर्तन करना । समावर्तनीयः । स्वरान्त धातु से 'य' प्रत्यय होता है ॥५११ ॥ चिञ्= चेयं जेयं नेयं । उत् औत् से परे कृदन्त 'य' प्रत्यय होता है ।।५१२॥ लु-गुण होकर य प्रत्यय के आने पर भी स्वरवत् ओ को अव्, होकर लव्यं बना। शकि, सहि और पवर्ग से परे 'य' प्रत्यय होता है ॥५१३ ॥ शक्ल = शक्यं । सा । जप्यं । लभ्यं । ___ आकारान्त और खन से 'य' प्रत्यय होता है ॥५१४ ॥ इनके अन्त में इकार का आगम होता है। दा इ य = देयं पेयं इत्यादि । खनु-खन् के न.को इकार आदेश होता है। और अन्य धातुओं में आगम होता है। खेयं । यम् मद् और गद् धातु को अनुपसर्ग में 'य' होता है ||५१५ ॥ यम्य, मद्यं, गद्यं । अनुपसर्ग ऐसा क्यों कहा ? उपसर्ग पूर्वक इन धातुओं से ५४१वें सूत्र से घ्यण प्रत्यय होता है और णानुबन्ध से वृद्धि हो जाती है। प्रयाम्यं । प्रमाद्यं प्रगाद्यं । उपसर्ग रहित आङ् से अगुरु अर्थ में चर् धातु से 'य' प्रत्यय होता है ॥५१६ ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३१५ अनुपसर्गे आङ्गि चरेर्यो भवति अगुरौ । आचर्यो देश: । अनुपसर्ग इति किं ? अभिचार्य । अगुराविति किं ? आचार्यो गुरुः । पण्याद्यवर्या विक्रेयगहर्यानिरोधेषु ॥ ५१७ ।। एतेष्वर्थेषु एते निपात्यन्ते यथासंख्यं । पण्यमिति निपात्यते विक्रेयार्थे । अवद्यमिति निपात्यते गह्यार्थे । वर्यमिति निपात्यते अनिरोधार्थे । पण व्यवहारे स्तुतौ च । वद व्यक्तायां वाचि । वृज वरणे । पण्यं । अवद्यं । वर्यं । वह्यं करणे ।।५१८ ॥ वह्ममिति निपात्यते करणेऽर्थे। वहां शकटं वाह्यमन्यत् । अर्यः स्वामिवैश्ये ॥५१९ ।। अर्यमिति निपात्यते स्वामिनि वैश्ये चार्थे । अर्यते इति अर्यः स्वामी अर्यो वैश्यः । उपसर्या काल्याप्रजने ॥ ५२० ॥ 1 प्रजने प्राप्तकाले चेत् उपसर्या इति निपात्यते । सृ गतौं । उपसर्या ऋतुमतीत्यर्थः । अज संगते ॥ ५२१ ॥ अजर्यमिति निपात्यते संगतेऽर्थे न जीर्यत इत्यचर्य आर्यसंगतं । नाम्नि वदः क्यप् च ॥५२२ ।। आचर्य: देश: । अनुपसर्ग ऐसा क्यों कहा ? घ्यणु प्रत्यय में अभि उपसर्ग से परे अभिचार्य । गुरु अर्थ न हो ऐसा क्यों कहा ? आचार्यः गुरुः । विक्रेय मर्त्य और अविरोध अर्थ में पण्य अवद्य और वर्य निपात से सिद्ध होते हैं ॥५१७ ॥ क्रम से पण् व्यवहार और स्तुति अर्थ में है, विक्रेय अर्थ में 'पण्यं' निपात से सिद्ध हुआ । वद- स्पष्ट बोलना गर्ल्स अर्थ में न वद्यं = 'अवद्यं' निपात से बना । वृञ् वरण करना । अनिरोध अर्थ में वर्य निपात से बन गया है। करण अर्थ में 'वा' निपात से सिद्ध होता है ॥५१८ ॥ वह धातु से बह्यं शकटं । अन्य अर्थ में वाह्य बना । स्वामी और वैश्य अर्थ में 'अर्थ' शब्द निपात से सिद्ध होता है ॥५१९ ॥ ऋ धातु से अर्यते इति अर्य: स्वामी और वैश्य । यदि प्रजनकाल प्राप्त है तो 'उपसर्या' यह शब्द निपात से सिद्ध होता है ॥५२० ॥ -7 — गमन करन । उपसर्या - गर्भ धारण करने के योग्य ऋतुमती यह अर्थ है । संगत अर्थ में 'अजय' यह शब्द निपात से सिद्ध होता है ॥५२१ ॥ न जीर्यते, ज- -अजयें। इसका अर्थ है आर्यसंगति जीर्ण नहीं होती है। नाम उपपद से परे वद धातु से क्यप् और य प्रत्यय होता है ॥५२२ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ कातन्त्ररूपमाला नाम्नि उपपदे वदः क्यप् भवति यश्च । सप्तम्युक्तमुपपदम् ।।५२३॥ धात्वधिकारे सप्तम्या निर्दिष्टमुपपदसंज्ञं भवति । तत्रानाम चेत् ॥५२४ ।। तदुपपदं नाम चेद्धातोः प्राग्भवति । तस्य तेन समासः॥५२५ ॥ तस्य नामोपपदस्य तेन कृदन्तेन सह समासो भवति । ब्राह्मणो वदनं अथवा ब्रह्मणा उच्यते ब्रह्मोद्य ब्रह्मवछ । भावे भुवः ॥५२६॥ नाम्नि उपपदे भुवो धातो: क्यप् भवति भावे । ब्रह्मभूयं गतः ब्रह्मत्वं गत इत्यर्थः । हलस्त च ।।५२७ ॥ नाम्नि उपपदे हन्ते: क्यप् भवति नस्य तकारादेशो भवति 1 बह्महत्या । अश्वहत्या । वृदजुषीशासुस्गुहां क्यप् ।।५२८॥ एषां क्यप् भवति । पुन: क्यप् ग्रहणं अधिकारनिवृत्यर्थ । तेन नाम्नि भावे चेति निवृत्त्यर्थं । घातोस्तोन्तः पानुबन्धे ॥५२९ ॥ हस्वान्तस्य धातोस्तोऽन्तो भवति पानुबन्धे कृति परे । वृत्यं दृत्यं । जुषी प्रीतिसेवनयो: जुष्यते इति जुष्यं । इत्यः । शासु अनुशिष्टौ ॥ शासेरिदुपधाया इत्यादिना आकारस्य इत्वं । शिष्य: । स्तुत्य: । गुह्याः । धातु के अधिकार में सप्तमी से निर्दिष्ट पद 'उपपद' संज्ञक होता है ।।५२३ ॥ यदि उपपद नाम है तो धातु के पहले होता है ॥५२४ ॥ उस नाम उपपद का उस कृदन्त के साथ समास होता है ।।५२५ ॥ ब्रह्मणः वदन अथवा ब्रह्मणा उच्यतेब्रह्मा का कथन अथवा ब्रह्मा के द्वारा कहा गया है। वह ब्रह्म-उद्यं = ब्रह्मोद्यं, ब्रह्मवद्यं । नाम उपपद से भाव अर्थ में भू धातु से क्यप् प्रत्यय होता है ।।५२६ ॥ ब्रह्मभूयं गतः---अर्थात् ब्रह्मत्व को प्राप्त हो गया । नाम उपपद में हन् धातु से क्यप् प्रत्यय होता और नकार को तकार होता है ।।५२७ ॥ ब्रह्माणं हन्ति इति ब्रह्महत्या, अश्वहत्या । इसका विग्रह भी होता है। ब्राह्मणो हननं इति । वृञ् दृ जुष इण शास् स्तु गुह् धातु से क्यप् प्रत्यय होता है ॥५२८ ॥ अधिकार निवृत्ति के लिए यहाँ पर पुन: क्यप का ग्रहण किया है। इसमें 'नाम और भाव में । इसकी भी निवृत्ति हो जाती है। पानुबंध कृत्प्रत्यय के आने पर ह्रस्वान्त धातु के अंत में 'त' होता है ॥५२९ । वृञ्–वृत्यं । दृ-दृत्यं, जुषी–प्रीति और सेवन करना जुष्यं, इण से इत्य: शास्*शासेरिदुपधाया” इत्यादि सूत्र से आकार को 'ई' होकर शासि वशि, से ष होकर शिष्यः, स्तुत्य; गुह्यः । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋदुपधाच्चाकृपिचृतेः ||५३० ॥ कृषि वृति वर्जित ऋकारोपधाद्धातोः क्यप् भवति । वृत्यं नृत्यं दृश्यं स्पृश्यं । भृञोऽसंज्ञायाम् ॥५३१ ।। भृञ असंज्ञायां क्यप् भवति । भ्रियत इति भृत्यः । कृदन्तः ग्रहोऽपिप्रतिभ्यां वा ॥५३२ ।। अपिप्रतिभ्यां परात् ग्रहेः क्यब् भवति वा । अपिगृह्यं । अपिग्राह्यं । पक्ष्ये घ्यण् । प्रतिगृह्यं प्रतिग्राह्यं । पदपक्ष्ययोश्च ॥५३३ ॥ पदपक्ष्ययोरर्थयोर्ग्रहेः क्यब् भवति । पक्षे भवः पक्ष्यः । प्रगृह्यं पदं । पक्षे अर्जुनगृह्या सेना । वौ नीपूभ्यां कल्कमुञ्जयोः || ५३४ ॥ वावुपपदे नीपूज्भ्यां कल्कमुञ्जयोरर्थयोः क्यप् भवति । विनीयः कल्कः । विपूयो मुञ्जः । कृषिमृजां वा ॥ ५३५ ॥ दियो वा स्यर्भाषसे । वृष्यं । वष्यं । मृज्यं । मर्ज्यं । मृजो मार्जिः ॥ ५३६ ॥ मृजु इत्येतस्य धातोर्मार्जिरादेशो भवति । चजो: कगौ धुडघानुबन्धयोरिति जकारस्य गकारः ॥ माये मार्ग्य । कृप् वृत् को छोड़कर ऋकार उपधा वाली धातु से क्यप् होता है ॥५३० ॥ ह्रस्वान्त से तकारागम होकर वृत्यं, नृत्यं बना आगे दृश् - दृश्यं, स्पृश् -- स्पृश्यं बना ! संज्ञा रहित अर्थ में भृज् से क्यप् होता है ॥ ५३१ ॥ भ्रियते इति भृत्यः । अपि प्रति से परे ग्रह धातु से व्यप् प्रत्यय विकल्प से होता है ॥५३२ ॥ अपिगृह्यं संप्रसारण होकर र् को ऋ हुआ है। अन्यथा अपिग्राह्यं इसमें घ्यण् प्रत्यय हुआ है । ऐसे ही प्रतिगृह्यं प्रतिग्राह्यं । पद और पक्ष्य अर्थ में ग्रह से क्यप् होता है ॥५३३ ॥ पक्षे भवः पक्ष्य:-) को ग्रहण करती है। I ३१७ - प्रगृह्मं पदं प्रगृह्यय को पद कहते हैं। पक्ष में अर्जुनगृह्या सेना अर्जुन के पक्ष 'वि' उपपद से कल्क मुञ्ज अर्थ में नी पूञ् धातु से क्यप् प्रत्यय होता है ॥५३४ । । विनीयः, कल्कः । विपूयः । मुञ्जः । कृ वृष मृज धातु से विकल्प से क्यप् होता है ॥५३५ ॥ कृत्यं तकार का आगम हुआ है वृष्यं वयं । मृज्यं मर्ज्यं । मृज धातु को मार्ज आदेश होता है ॥ ५३६ ॥ “चजो: कमौ " -- इत्यादि ५४२ सूत्र से जकार को गकार हो गया। मार्ज्यं, मायं । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ कातन्त्ररूपमाला सूर्यरुच्या व्यथ्याः कर्त्तरि ॥५३७ ॥ एते कर्त्तरि निपात्यन्ते । सरति सूते वा लोकानिति सूर्य: । रोचत इति रुच्यः । व्यथ दुःखभयचलन योः । न व्यथते इति अव्यथ्यः । भोध्यौ नदे ॥ ५३८ ॥ एतौ कर्तरि नदे निपात्येते । भिनत्ति कुलानीति भिद्यः । उज्झत्युदकमित्युध्यः । युग्यं च पत्रे ॥५३९ ॥ युग्यमिति निपात्यते पत्रे वाहनार्थे । युज्यते अनेनेति युग्यं । कृष्टपच्यकुप्यसंज्ञायाम् ॥५४० ॥ एते निपात्यन्ते संज्ञायां । कृष्टे स्वयमेव पच्यन्ते कृष्टपच्या व्रीहयः । कुप्यं सुवर्णरजताभ्यामन्यत् । ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यण् ।।५४१ ।। ऋवर्णान्तात् व्यञ्जनान्ताद्धातोः घ्यण् भवति । णकार इद्वद्भावार्थ: । घकारञ्चजो: कर्गों इत्यर्थः । कार्यं । स्तृङ् आच्छादने । निस्तार्य । श्लोक लोचृ दर्शने । आलोक्यं आलोच्यं । वाद्ये । कृप कृपायां । कृपे । से लः । कल्प्यं । I चजो: कगौ धुद्घानुबन्धयोः ॥५४२ ॥ चजो: कगौ यथासंख्यं भवतः धुटि धानुबन्धे परे । वाक्यं पाक्यं योग्यं भोग्यं । सूर्य रुच्य अव्यथ्य शब्द निपात से सिद्ध होते हैं ॥ ५३७ ॥ सूर्य:, रुच्यः, अव्यथ्यः । भिद्य, उध्य नद अर्थ में निपात से बनते हैं ॥ ५३८ ॥ जो तटों को भेदन करे वह भिद्यः, जो उदक को छोड़े — उध्यः । वाहन अर्थ में 'युग्य' निपात से बनता है ॥५३९ ॥ जिसके द्वारा ले जाया जाय - वह, युग्यं । कृष्ट पच्य और कुप्य संज्ञा अर्थ में निपात से सिद्ध होते हैं ॥५४० ॥ जो जोते हुये क्षेत्र में स्वयं ही पक जाते हैं वे 'कृष्टपच्याः' । धान्य । कुप्यं - सुवर्ण रजत से भिन्न को कुप्य कहते हैं । ऋवर्णान्त और व्यञ्जनान्त धातु से ध्यण् प्रत्यय होता है ॥५४१ ॥ कारानुबंध इचवत् भाव के लिये है और घकारानुबंध 'चजो: कगौः' इत्यादि ५४२ सूत्र के कार्य के लिये है । कृ— कार्य "वृद्धिरादौसणे" सूत्र से वृद्धि होकर शब्द बने हैं। स्तृड्ढकना = निस्तार्य, लोकृ लो- देखना आलोक्यं आलोच्यं वाद्यं । कृप - कृपा अर्थ में = 'कृपे रो ल:' सूत्र से ऋ के र् को लू होकर कल्प्यं बना । धुट् घानुबंध प्रत्यय के आने पर चको क और ज को ग होता है ॥ ५४२ ॥ = योग्यं, भुज् = वच्– वाक्यं, पच् = पाक्यं, युज् = योग्यं, युज् भोग्यं । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३१९ न कवर्गादिव्रज्यजाम् ।।५४३ ॥ कवर्गादे: व्रजे: अजश चजो; कगौ न भवत: । क्षीज कूज गुज अव्यक्ते शब्दे ।। कूज्यं कूज । खज मन्थे । खाज्यं । प्रावाज्यं । अज क्षेपणे। आज्यं । घ्यण्यावश्यके॥५४४॥ आवश्यके गम्यमाने चजो: कगौ न भवत: घ्यणि परे । अवश्यपाच्यं । अवश्यभोज्यं । प्रवचर्चिरुचियाचियजित्यजाम् ।।५४५ ॥ एषां चजो: कगौ न भवतो यणि परे । प्रवाच्यः । आर्य: । रोच्यः । याच्य: । याज्य: । त्यज हानौ । त्याज्य:। निःप्राभ्यां युजेः शक्य ॥५४६ ॥ निप्राभ्यां परस्य युजेगों न भवति शक्यार्थे घ्यणि परे । नियोक्तुं शक्यः नियोज्य: । एवं प्रयोज्य: भृत्यः। भुजोऽन्ने ॥५४७॥ भुजो गो न भवति शक्यार्थे ध्यणि परे अन्ने । भोक्तुं शक्यं भोज्यं अन्नं भोज्यं पयः । आसुयुवपिरपिलपित्रपिदभिवमां च ।।५४८॥ आयूवात्सुनोतेवित्यादिभ्यश्च घ्यण् भवति । आसाव्यं । यु मिश्रणे। यूयते याव्यं । दुवप् बीजतन्तुसन्ताने । वाप्यं । रप लप जल्प व्यक्तायां वाचि । राप्यं । लाप्यं । त्रपुष लज्जायां । त्रयं । दंमेरिह प्रकृतिनलोप: । अवदाभ्यं । आचाम्यं ।। ___ कवर्गादि वज और अज के च, ज, को क, ग नहीं होता है ॥५४३ ॥ क्षीज, कूज, गुज–अव्यक्त शब्द करना । कूज्यं कूज । खज-मन्थे । खाज्यं । व्रज-प्रावाज्यं । अज-क्षेपण करना - आज्यं । आवश्यक अर्थ में घ्यण् प्रत्यय आने पर च ज को क ग नहीं होता है ॥५४४ ॥ अवश्यपाच्यं, अवश्यभोज्यं । प्रवच अर्चि रुचि याच, यज और त्यज के च, ज को ध्यण के आने पर क ग नहीं होता है ॥५४५ ॥ प्रवाच्यः, आय:, रोच्यः, याच्यः याज्य:, त्याज्य: । नि और प्र से परे शक्य अर्थ में घ्यण के आने पर युज् के ज् को ग् नहीं होता है ॥५४६ ॥ नियोक्तुं शक्य = नियोज्य: । प्रयोज्यः भृत्यः।। शक्य अर्थ घ्यण के आने पर अन्न अर्थ में भुज के ज को ग नहीं होता है ॥५४७ ॥ भोक्तुं शक्यं = भोज्यं-अन्न दूध आदि। आङ् पूर्वक सु, यु. वा. रप, लप, तप, दभ और चम् धातु से घ्यण होता है ॥५४८ ॥ आसाव्यं । यु–याव्यं, वाप्यं, राप्यं, लाप्यं, त्रयं, अवदाभ्यं आचाभ्यं । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला दावश्यके ॥५४९ ।। उवर्णान्तात् व्यण् भवति अवश्यंभावे गम्यमाने । अवश्यं लूयत इति लाव्यं । एवं नाव्यं । भाव्यं । पाघोर्मानसामिधेन्योः ॥५५० ॥ पाधोरित्येतयोर्मान समिधेन्योरर्यथासंख्यं ध्यण् भवति । आयिरिच्यादन्तानामिति आयिप्रत्ययः । पाय्यं । धाय्यं । सामिधेनो ऋक् । ३२० प्राङोर्नियोऽसंमतानित्ययोः स्वरवत् ॥५५१ ॥ प्राडोरुपपदयोर्नियो धातोरसंमतानित्ययोर्यथासंख्यं ध्यण् भवति स च स्वरवत् । प्रणाय्यश्चोरः । निग्राह्य इत्यर्थः । यो गार्ह्यपत्यादानीयत इति स चानित्यो रूढितः । आनाय्यो दक्षिणाग्निः । चिकुण्डपः कृतौ ॥५५२ ॥ संपूर्वाच्चिनोतेः कुण्डपूर्वात्पिवतेर्घ्यण् भवति स च स्वरवत् कृतावभिधेये । सञ्चायः क्रतुः । कुण्डपायः क्रतुः । राजसूयश्च ।।५५३ ।। कृतावभिधेयं राजसूय इति निपात्यते । राजा सोतव्यः राजा वा सूयते इति राजसूयः । सान्नाय्यनिकाय्यौ हविर्निवासयोः ॥५५४ ॥ एतौ निपात्येते हविर्निवासयोरर्थयोः । सान्नाय्यं हविः विशिष्टमन्त्रनिकाय्यो निवासः । परिचाय्योपचाय्यावग्नौ ।। ५५५ ।। एतावस्नावर्थे निपात्येते । परिचाय्योऽग्निः । उपचाय्योऽग्निः । अवश्यंभावी अर्थ में उवर्णांत से ध्यण् प्रत्यय होता है ॥५४९ ॥ लु-लाव्यं, नुनाव्यं, भ— भाव्यं । पा और धा को मान् सामिधेनी अर्थ में व्यण होता है ॥५५० ॥ 'आयिरिच्यादन्तानाम्' सूत्र से आय् प्रत्यय होता है। पाय्यं धाय्यं । प्र और आङ् उपपद में होने पर नी धातु से असंमत और अनित्य में स्वरवत् घ्यण् होता है ॥५५१ ॥ प्रनी य ई को ऐ होकर 'ऐ आय्' से आय् होकर प्रणाय्यः - चौर: निग्राह्य: है ऐसा अर्थ है आनाय्यः दक्षिणाग्निः । संपूर्वक चित्र और कुण्ड पूर्वक पा धातु से कृदन्त में ध्यण् प्रत्यय होता है । १५५२ ॥ और वह स्वरवत होता हैं। सञ्चायः क्रतु, कुंडपाय्यः क्रतुः । यज्ञ अर्थ में राजसूय निपात से होता है ॥ ५५३ ॥ राजा सोतव्यः अथवा राजा सूयते 'राजसूय:' । हविस् और निवास अर्थ में 'सान्नाय्य' 'निकाय्य' निपात से बनते हैं ॥५५४ ॥ हविः । विशिष्ट मंत्र निकाय्य: निवासः । सान्नाय्य परिचाय्य, उपचाय्य से अग्नि अर्थ में निपात से सिद्ध होते हैं ||५५५ ॥ परिचाय्य: उपचाय्यः अग्निः । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ कृदन्तः चित्याग्निचित्ये च ॥५५६ ॥ एतावग्नावर्थे निपात्येते । चयनं चित्यं । अग्नेश्चयनमग्निचित्या । अमावास्या वा ।।५५७॥ अमा-सहाथै अमापूर्वाद्वसतेय॑ण गरी कालाभिकरको टा दी शिगत्पते । शाम पह वसतश्चन्द्रामै यस्यां तिथौ सा तिथि: अमावस्या। अमावास्या। यल्लक्षणेनानुपपन्नं तत्सर्व निपातनासिद्धं । वुण्तृचौ ॥५५८॥ धातोर्पण्तृचौ भवतः। युवुलामनाकान्ताः ।।५५९॥ युवुला स्थाने यथासंख्यं अन अक अन्त इत्येते भवन्ति । भवतीति भावका भविता । कारक: कर्ता । नायक: नेता । हारक: हर्ता । बुभूषकः । अस्य च लोप: बुभूषिता । गुणश्चक्रीयिते । बोभूयक: । बोभूयिता। भावकः । भावयिता । पुत्रीयिकः । पुत्रीयिता। हन्तेस्तः।।५६०॥ अग्नि अर्थ में चित्य अग्निचित्या निपात से बनते हैं ॥५५६ ॥ चयनं =चित्यं, अग्नेश्चयन = अग्निचित्या । अमापूर्वक वस् धातु से कालाधिकरण में ध्यण् प्रत्यय होता है ।।५५७ ॥ और विकल्प से दीर्घता हो जाती है। अमा साथ । अमा-सह चन्द्राकौं यस्यां तिथौ वसतः सा तिथि:—साथ है चन्द्र और सूर्य जिस तिथि में वह तिथि 'अमावस्या:' अमावास्याः । व्याकरण सूत्र से जो नहीं बनते हैं वे सब निपात सिद्ध कहलाते हैं। धातु से वुण् तृच् प्रत्यय होता है ॥५५८ ॥ यु वु और अल् को क्रम से अन अक और अन्त आदेश होते हैं ॥५५९॥ यहाँ वु को अक हुआ है भू-से गुण हुआ था अत: णानुबंध से वृद्धि होकर भावकः बना तूच से भू-तृ 'अन् विकरण: कर्तरि' २२ सूत्र से अन् होकर 'अनि च विकरणे' २३ सूत्र से गुण होकर इट होकर भवितृ बना । 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से कृदन्त संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर भविता बना। कृ—से कारक: कर्ता, नीनायकः, नेता ! सनन्त में भू भू स् पूर्व को ह्रस्व और तृतीय अक्षर होकर वुभूषकः, अकार का लोप होकर इट होकर बुभूषिता बना। धातोर्वा तुमन्तादिच्छति नैककर्तृकात्' ३८० सूत्र से सन् होकर ‘चण् परोक्षा चेक्रीयितसन्नन्तेषु' २९२ सूत्र से द्वित्व होकर 'द्वितीय-चतुर्थयोः प्रथमतृतीयौ' सूत्र १५९ से चतुर्थ को तृतीय होकर ह्रस्व होकर बना है । चेक्रीयित में 'गुणश्चक्रीयते' ४१० सूत्र से गुण होता है. अत: बोभूयक: बोभूयिता । कारित संज्ञक इन् से परे भावक: भावयिता । नामधातु से पुत्रीयक: पुत्रीयिता। अकार णकारानुबन्ध प्रत्यय के आने पर हन् के नकार को तकार होता है ॥५६० ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ कातवरूपमाला हन्तेर्नकारस्य तो भवति ऋणानुबन्धे प्रत्यये परे । हस्य हन्तेर्धिरिणिचो; । घातक: । हन्ता। हन हिंसागत्योः । आथिरिच्यादन्तानां । दायकः । दाता । अवसायक: । अवसाता । गायक: । गाता। नसेटोऽमन्तस्यावमिकमिचमाम् ।।५६१ ।। __सेटोऽमन्तस्य वमिकामचमिवर्जितस्य इचि कृतं कार्यं न भवति ज्णानुबन्धे कृति परे। शमकः शमिता। दमकः दमिता । यमक: यमिता। __ अच् पचादिभ्यश्च ।।५६२॥ पचादिभ्य: अच् भवति । सर्वे धातवः पचादिषु पठ्यन्ते । पच: पठ: कर: देवः । नन्द्यादेयुः ।।५६३॥ नन्द्यादेर्युर्भवति सर्वे धातवो नन्द्यादौ पठ्यन्ते । नन्दतीति नन्दनः । रम क्रीडायां रमणः । राध साध संसिद्धौं । राधन: साधनः । __ ग्रहादेणिन् ।।५६४॥ __ ग्रहादेर्गणात् णिन् भवति । सर्वे धातवः ग्रहादौ पठ्यन्ते । ग्राही ग्राहिणौ ग्राहिण: । स्थायी मायी श्रादी। नाम्युपधात्प्रीकृगृज्ञां कः ॥५६५ ॥ नाम्युपधात् प्रीणाते; किरतेगिरतेनातेश्च को भवति । क्षिप प्रेरणे। विक्षिप: । लिख विलेखने विलिख: । क्रुशः । प्री तर्पणे कान्तौ च । प्रिय: उत्किरः। 'हस्य हन्तेर्धिरिणिचोः ३६७ सूत्र से इण इच् के आने पर हन् के हकार को घकार हो जाता है इस नियम से घातकः, हन्ता । दा धा 'आयिरिच्यादंतानां' ३६४वें सूत्र से आय होकर दायक: धायक: दाता धाता बना। वम् कम् चम् को छोड़कर इट् सहित अम् अन्त वाली धातु से ब्णानुबन्ध कृदन्त प्रत्यय के आने पर इच् प्रत्यय से कहा गया कार्य नहीं होता है ॥५६१ ॥ शमक: शमिता, दमक: दमिता, यमक: यमिता। पचादि धातु से 'अच्' प्रत्यय होता है ॥५६२ ॥ पचादि शब्द से सभी धातुयें ली जाती हैं पच् अ = पच: पठ: कर: देवः इत्यादि । नन्द्यादि से 'यु' प्रत्यय होता है ॥५६३ ॥ नद्यादि से सभी प्रात्यें पढ़ी जाती हैं । 'युवलामनाकान्ता: ५५९वें सूत्र से यु को अन हो जाता है । नन्दतीति = नन्दनः । रमु-क्रीड़ा करना= रमणः । राध् साध्---सिद्धि अर्थ में हैं । राधनः, साधनः । ग्रहादि गण से णिन् प्रत्यय होता है ॥५६४ ॥ ग्रहादिगण में सभी धातु लिये जाते हैं। ग्रह-णिन् हुआ णानुबंध से वृद्धि होकर ग्राहिन् बना = ग्राही ग्राहिणौस्था मा से आय होकर णिन् हुआ है एवं श्रुको वृद्धि हुई है स्थायी मायी श्रावी बनेंगे। नामि उपधा वाले और प्री कृ गृ और ज्ञा से 'क' प्रत्यय होता है ॥५६५ ॥ क्षिप्-प्रेरणा== विक्षिप: क् अनुबन्ध होकर 'अ' रहता है। लिख = विलिख: क्रुश् = क्रुशः । प्री-तर्पण करना और चमकना । ई को इय् होकर 'प्रिय:' बना । कृ अ 'ऋदन्तस्येरगुणे' सूत्र १९९ से इर् होकर किर: उत्किरः । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३२३ वा स्वरे ॥५६६॥ गिरते रेफस्य का लकारो भवति स्वरे परे । उद्गिरः उगिल: प्रज्ञः । उपसर्गे चातो दुः॥५६७॥ उपसर्गे तु आकारान्ताड्डो भवति । सुग्ल: । सुम्ल: । प्रस्थः । प्रह्वः । छो छेदने । प्रच्छः । घेदशिपाघ्राध्मः शः ॥५६८॥ उपसर्गे उपपदे एभ्य: शो भवति । उद्धय: । उत्पश्य: । उत्पिब: । उज्जिनः । उद्धमः । साहिसातिवेद्यदेजिचेतिधारिपारिलिम्पिविदां त्वनुपसर्गे।।५६९॥ एषामनुपसर्गे शो भवति । साहयतीति साहयः । एवं सातयः । वेदयः । एज़ कम्पने । उदेजयः । चिती संज्ञाने। चेतयः । घृङ् धारणे धारय: । पार तीर कर्मसमाप्तौ । पारय: । लिम्प: । विन्दः । वा ज्वलादिदुनीभुवो णः ।।५७०।। ज्वलादिभ्यो दुनोते: नयनेर्भवतेश अनपसर्गे गो भवति ता गरे अन ! ज्वल दीप्तौ ! ज्वलः ज्वाल: । चल कम्पने। चल: चाल: । कसपर्यन्तो ज्वलादिः । टुदु उपतापे । दव: दाव: । नय: नाय: । भव: भावः । स्वर प्रत्यय के आने पर गृ के रकार को विकल्प से लकार हो जाता है ॥५६६ ॥ उद्गिरः, उद्गिल: । ज्ञा कानुबन्धं से अन्तिम स्वर का लोप होकर प्रज्ञ: बना। उपसर्ग सहित आकारान्त धातु से 'ई' प्रत्यय होता है ५६७ ॥ सु उपसर्ग पूर्वक ग्ला म्ला हैं 'डानुबन्धेऽन्त्यस्वरादेलोप:' ५१० सूत्र से डानुबन्ध में अन्त्य स्वर का लोप होकर सुग्ल: सुम्ल; सुस्थ: प्रस्थः णा से प्रह्वः बना। उपसर्ग उपपद सहित धेट दृश् पा घा और ध्या धातु से 'श' प्रत्यय होता है ॥५६८ ॥ शित् होने से पश्य पिब आदि आदेश होते हैं उत् धे अ= उद्धयः । उत्पश्य: उत्पिब: उज्जिघ: उद्धम: इनमें 'दृशे: पश्य:' ६९, 'प: पिब' ६३, 'घो जिघ्रः ६४, ध्मो धम:' ६५ इन सूत्रों से क्रम से दृश् को पश्य, पा को पिब, घा को जिघ्र और ध्मा को धम आदेश होता है। साहि साति वेदि उत्पूर्वक एज धृङ् पार लिप विद धातु से उपसर्ग के अभाव में 'श' प्रत्यय होता है ॥५६९॥ शानुबन्ध से सार्वधातुकवत् कार्य होता है । साहयतीति साह्यः चुरादिगण से इन् होकर अन् होकर बना है। ऐसे ही सातय: वेदय: बने हैं। एजु-कम्पना उत्पूर्वक उद्वेजय: चिती-समझना चेतय: चुरादिगण से बना है। धृड्-धारण करना धारय: पार तीर-कार्य समाप्त होना पारय: तारयः । लिम्पः विन्दः इन दो में तुदादि गण में 'मुचादेरागमो नकार; स्वरादनि विकरणे' १९७ सूत्र से नकार का आगम होकर अन् विकरण होकर रूप बना है। ज्वलादि से दु, नी, भू धातु से विकल्प से अण् प्रत्यय होता है ॥५७० ॥ इन धातु से उपसर्ग रहित में अण् या अन् प्रत्यय होता है । ज्वल-दीप्त होना, ज्वल: ज्वाल: चल–कम्पना चल; चाल. कस पर्यन्त ज्वलादि धातु हैं । टुदु-उपताप देना दव: दाव:, नय: नाय:, भव: भावः। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ कातन्त्ररूपमाला समाङले युवः ।।५७१॥ समाङोः स्रवतेणों भवति । संस्रावः । आस्राव । समाडोरिति किं ? परिस्रवः । अवे हषोः ॥५७२ ।। अव–उपपदे हरते: स्यतेश्च यो भवति । हज हरणे । अवहारः । षोऽन्तकर्मणि । अवसाय: । दिहिलिहिश्लिषिश्चसिव्यधतीपश्यातां च ॥५७३ ।। एषां णो भवति । दिह उपचये। देहः । लिह आस्वादने । लेहः । श्लिष आलिङ्गने श्लेषुः । श्वस प्राणने श्वास: । व्यध ताड़ने व्याध: । अत्याय: 1 च्युङ् छ्युङ् ज्युङ्ग्युङ् अ॒ङ्गाङ् श्यैङ् गतौ । अवश्यायः । दाय: । पाय: । प्रत्याय इत्यादि। ग्रहे ॥५७४॥ प्रहर्वा णो भवति । ग्राहो जलचर: ग्रहः । हामल ॥५७५ ।। स्वरान्ताद् वृदृगमिग्रहिभ्यश्च अल् भवति घोपवादः । हि त्वक् ।।५७६ ॥ ग्रहेगेंहेऽभिधेये तु अग्भवति । गृह्णातीति गृहं । गृहं दाराः । नतिखनिरञ्जिभ्य एव शिल्पिनि घुस् ॥५७७ ॥ अभ्य एव शिल्पिनि अभिधेये वुस् भवति । नर्तकः नर्तकी खनक: खनकी । रंज राये। सम् आङ् पूर्वक त्रु धातु से अण् होता है ॥५७१ ॥ संत्राव: आस्राव, सम् आङ् से ही हो ऐसा क्यों कहा? परिस्रवः । ___ अव उपपद सहित ह, सो धातु से अण् होता है ॥५७२ ॥ अवहारः अवसायः । दिह, लिह, श्लिष, श्वस, व्यध, इण, शो धातु से परे 'ण' प्रत्यय होता है ॥५७३ ॥ णानुबन्ध से गुण होकर दिह = देहः, लिह = लेहः, श्लिष = श्लेष; श्वस् = श्वास, व्यध = व्याध: अति पूर्वक इण को अत्याय: श्यैड्-गमन करना 'अवश्यायः' दाय: पाय: 'आयिरिच्यादतानां' से आय् हुआ है। प्रत्याय: इत्यादि। ग्रह धातु से विकल्प से 'ण' होता है ।।५७४ ॥ ग्राहः जलचर: ग्रहः । स्वरान्त और वृ दृ गम ग्रह से परे 'अल्' प्रत्यय होता है ॥५७५ ॥ घञ् का अपवाद हो जाता है। ग्रह धातु से घर अर्थ में अव् प्रत्यय होता है ।।५७६ ॥ संप्रसारण होकर गृहं बनता है। नृत, खन् रंजि से शिल्पी अर्थ में वुस् प्रत्यय होता है ॥५७७ ।। नर्तक; नर्तकी, खनकः खनकी । रंज-राग करना। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः उषिघिनीणोश्च ॥ ५७८ ॥ रंजेः पञ्चमो लोप्यो भवति उविधिनिणोः परतः ॥ रज्यते इत्येवं शिल्पमस्य || रजकः रजकी । गस्यकः ||५७९ ॥ गायतेः शिल्पिन्यर्थे थको भवति । गाथकः । गाथकी । युट् च ॥५८० ॥ गायतेः शिल्पिन्यर्थे ण्युट् च भवति । गायनः गायनी । हः कालव्रीह्योः ||५८१ ॥ जहातेः कारोवायुवति वहति काले भावानिति हायनः संवत्सरः । जहत्युदकमिति हायना व्रीहयः । आशिष्यकः ||५८२ ॥ आशिषि गम्यमाने धातोरकप्रत्ययो भवति । जीव प्राणधारणे । जीवतात् जीवकः । एवं नन्दकः । प्रुस्रुसल्वां साधुकारिणि ॥ ५८३ ।। एषां साधुकारिण्यर्थे अकः प्रत्ययो भवति । साधुकरणं शिल्पमेव । च्युङ् छ्युड् प्रुडिति दण्डधातुः । साधु प्रवते साधुप्रवकः । एवं स्रवकः । सरकः । लवकः । साधु सरतीति । साधु लुनातीति । सृ गतौ । इत्यादि । कर्मण्यण् ॥ ५८४ ॥ उष् घिनी, ण् से परे रंज के पंचम अक्षर का लोप हो जाता है ॥५७८ ॥ रंगना यह है काम जिसका रजकः रजकी । ३२५ गा धातु से शिल्पी अर्थ में थक प्रत्यय होता है ॥५७९ ॥ गाथकः गाथको । गा धातु से शिल्पी अर्थ में ण्युद् प्रत्यय भी होता है ॥ ५८० ॥ गायन: गायनी ५५९ से 'यु' को अन आदेश हुआ है। ओहाक् धातु से काल और ब्रीहि अर्थ में प्रयुङ् प्रत्यय होता है ॥ ५८१ ॥ जहाति काले भावान् इति 'हायन: ' संवत्सरः 'आपिरिच्यादतानां' से आय् हुआ है जो उदक को छोड़ते हैं हायना: बीह्य: । आशिष् अर्थ में धातु से अक प्रत्यय होता है ॥ ५८२ ॥ जीव-प्राण धारण करना जीवतात् = जीवकः नंदकः इत्यादि । खु सृलु से परे साधुकरण अर्थ में अक प्रत्यय होता है ॥१५८३ ॥ साधुकरण शिल्प ही है । च्युङ् छयुङ्गुङ् ये दण्डक धातु हैं। साधु प्रवते = साधु प्रवक, स्त्रवकः, सरक, लवकः । साधु सरतीति साधु लुनातीति । सृ―गमन करना । इत्यादि । कर्म उपपद में रहने पर धातु से अण् प्रत्यय होता है ॥ ५८४ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ कातन्त्ररूपमाला ___कर्मण्युपपदे धातोरण भवति । कुम्भं करोतीति कुम्भकारः। एवं काण्डलावः । वेदाध्यायः । कुम्भकारी। हावामश्च ५८५॥ एभ्यः कर्मण्युपपदे अग् भवति । मित्रालायः । तन्तुवाय: । धान्यमायः । शीलिकामिभक्षाचरिभ्यो णः ॥५८६ ।। एभ्यो णो भवति कर्मण्युपपदे । दधिशीला 1 दधिकामा । दधिभक्षा । कल्याणाचारा स्त्रां । आतोऽनुपसर्गात्कः ॥५८७ ।। कर्मण्युपपदेऽनुपसर्गादाकारान्ताद्धातो: को भवति । धन ददातीति धनदः । एवं सर्वज्ञः । नाम्नि स्थश्च ।।५८८॥ नाम्नि उपपदे तिष्ठतिराकारान्ताच्च को भवति । समे तिष्ठतीति समस्थ: । कूटस्थः । कच्छेन पिबतीति कच्छप: । द्वाभ्यां पिबतीति द्विपः। तुन्दशोकयोः परिमृजापनुदोः ।।५८९ ।। ___ तुन्दशोकयो: कर्मणोरुपपदयोः परिमृजापनुदिभ्यां को भवति । तुन्दं परिमाष्र्टीति तुन्दपरिमृजः अलसः । एवं शोकमपनुदतीति । शोकापनुदः । आनन्दकारी। प्रे दाज्ञः ।।५१०॥ कर्मणि प्रोपपदे दाज्ञाभ्यां को भवति । प्रदः । पथि प्रज्ञः । समि ख्यः ।।५९१॥ कर्मणि समि चोपपदे ख्यातेः को भवति । कुम्भं करोति कुम्भकार: काण्ड लुनातीति = काण्डलावः । वेदं अधीते = वेदाध्याय: । स्त्रीलिंग में कुम्भकारी इत्यादि। हा, वा, मा से कर्म उपपद में अण होता है ।।५८५ ॥ मित्र आह्वयती = मित्राटाय:, तंतुं वयति तंतुवाय: धान्यं मिमीते = धान्यमाय: । कर्म उपपद से शील काम भक्ष चर के आने पर 'ण' प्रत्यय होता है ॥५८६ ।। दधिशीला, दधिकामा, दधिभक्षा, कल्याणाचारा। कर्म उपपद में होने पर उपसर्ग रहित आकारान्त धातु से 'क' प्रत्यय होता है ।।५८७ ।। __ कानुबंध से अंत स्वर का लोप हो जाता है। धनं ददातीति = धनदः सर्वजानातीति= सर्वज्ञ: । नाम उपपद में होने पर स्था और आकारान्त धातु से 'क' प्रत्यय होता है ॥५८८ ।। समे तिष्ठतीति समस्थ: कूटस्थ: स्वस्थ: । कच्छेन पिबतीति कच्छप:, द्वाभ्यां पिबत्तीति द्विपः । तुंद और शोक उपपद में होने पर परिमृज् अपनुद से 'क' प्रत्यय होता है ॥५८९ ।। तुंदं परिमार्टि इति = तुंदपरिमृजः,—आलसी, शोकं अपनुदतीति शोकापनुद:-~-आनन्दकारी। प्र उपपद में दा ज्ञा से 'क' प्रत्यय होता है ॥५९० ॥ प्रकर्षेण ददाति = प्रदः पथि प्रज्ञः। सम् उपपद में रहने पर ख्या से 'क' प्रत्यय होता है ॥५९१ ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३२७ चक्षिङ ख्याङ्॥५९२ ॥ चक्षिङ् इत्येतस्य ख्याङादेशो भवति असार्वधातुके। गां संचष्टे गोसंख्यः । गष्टक् ।।५९३ ।। कर्मण्युपदे गायतेष्टक् भवति । मधुरं गायतीति मधुरगी। सामगी। सरानीप्तो: पिलः५९४॥ सुरासीध्वोरुपपदयोः पिबतेष्टाभवति । सुरापी। सीधुपी । होऽच् वयोऽनुद्यमनयोः ॥५१५ ॥ कर्मण्युपपदे हरतेरज् भवति वयसि अनुद्यमने गम्यमाने । ऊर्ध्वं नयनमुद्यमनं ततोऽन्यदनुद्यमनं । कवचहर: क्षत्रियकुमारः। आङि ताच्छील्ये ।।५९६ ।। कर्मण्याङि चोपपदे ताच्छील्यार्थे हरतेरज् भवति । पुष्पाणि आहर्तुं शीलमस्य पुष्पाहरो विद्याधरः । __ अहश्च ॥५९७ ॥ कर्मण्युपपदे अर्हतेरज् भवति । पूजामर्हतीति पूजाहः । धनः प्रहरणे चादण्डसूत्रयोः ॥५९८॥ चक्षिङ् धातु को असार्वधातुक में ख्याङ् आदेश होता है ।।५९२ ॥ गां संचष्टे गोसंख्यः। कर्म उपपद में गा धातु से 'टक्' प्रत्यय होता है ।।५९३ ॥ मधुरं गायतीति मधुरगी। सुरा, सीधु उपपद में होने पर 'पा' धातु से टक् प्रत्यय होता है ॥५९४ ॥ सुरापी, सीधुपी। कर्म उपपद में रहने पर वयस् और अनुद्यमन अर्थ में ह धातु से 'अच्' प्रत्यय होता है ॥५९५ ॥ किसी वस्तु को उठाते हैं तो ऊपर करना होता है उद्यमन कहलाता है और इससे विपरीत अनुद्यमन कहलाता है। कवचं हरतीति = कवचहरः । कर्म और आङ् उपपद में होने पर तत् स्वभाव अर्थ में ह धातु से अच् होता है ॥५९६ ॥ पुष्पों के ग्रहण करने का है स्वभाव जिसका उसे कहते हैं पुष्पाहर: विद्याधरः । __ कर्म उपपद में रहने पर अहूं धातु से अच् होता है ॥५९७ ।। पूजाम् अर्हति इति पूजार्हः । दण्ड सूत्र वर्जित प्रहरणवाचक उपपद के होने पर 'धृ' धातु से अच् प्रत्यय होता है ॥५९८ ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ कातन्त्ररूपमाला दण्डसूत्रवर्जिते प्रहरणवाचके उपपदे धृतोऽञ् भवति । वज्रधा: चक्रधरः । अदण्डसूत्रयोरिति किं । दण्डधारः । सूत्रधारः। धनुर्दण्डत्सरुलाङ्गलाशयष्टितोमरेषु अहेर्वा ।।५९९ ।। एषूपपदेषु ग्रहेरज्वा भवति । धनुहः धनुहि: । दण्डग्रहः । दण्डग्राहः । त्सरुग्रहः त्सरुग्राहः । लाङ्गलग्रहः । लाङ्गलग्राहः । अङ्कुशग्रह: अङ्कुशग्राहः । यष्टिमह: यष्टिग्राहः । तोमरग्रहः । तोमराहः । स्तम्बकर्णयो रमिजपोः ॥६०० ।। स्तम्बकर्णयोरुपपदयोरमिजपिभ्यां अज् भवति । स्तम्बेरमो हस्ती । कर्णेजपः पिशुन: । शंपूर्वेभ्यः संज्ञायाम् ॥६०१॥ शंपूर्वेभ्यो धातुभ्य: संज्ञायां अज् भवति । शं करोति इति शंकरः । शंभवः । शंवदः । शीडोऽधिकरणे च ॥६०२ ।। अधिकरणे च नाम्नि उपपदे शेते अज् भववति । खे शेते खशयः । चकारात् पार्श्वपृष्ठादौ करणे ॥६०३॥ पार्श्वपृष्ठादौ करणे उपपदे शोङ अज् भवति । पार्वेन शेते पार्श्वशय: । पृष्ठशय: कुब्जः । चरेष्टः ॥६०४॥ अधिकरणे नाम्नि उपपदे चरेष्टो भवति । कुरुषु चरतीति कुरुचर: । एवमटवीचरः । वजं धाति इति वधार: । पहं, भाति ही वायर: । हाड र हर्णित ऐसा क्यों कहा ? दण्डधार: सूत्रधारः । इसमें ५८४ सूत्र से अण् प्रत्यय हुआ है । वृद्धि हुई। धनुष, दण्ड त्सरु, लाङ्गल, अंकुश, यष्टि और तोमर के उपपद में होने पर ग्रह धातु से अच् प्रत्यय विकल्प से होता है ॥५९९ ॥ धनुर्गुणाति इति धनुर्ग्रहः पक्ष में 'कर्मण्यण' सूत्र ५८४ से अण होकर धनुहिः । दण्डग्रहः दण्डग्राह: त्सरुग्रह: त्सरुग्राहः आदि । स्तंब और कर्ण उपपद में होने पर रम् जप धातु से अच् प्रत्यय होता है ॥६०० ।। स्तंबं रमते इति = स्तंबेरमः-हस्ती, कर्णे जपतीति = कर्णेजप:-पिशुन: । शं पूर्वक कृ धातु से संज्ञा अर्थ में यच होता है ॥६०१ ।। शं करोति इति = शंकरः । शवदः । शंभवः । अधिकरण और नाम उपपद में होने पर शीङ् धातु से अच् होता है ।६०२ ॥ खे शेते-आकाश में सोता है । खशयः । चकार सेपार्श्व पृष्ठ आदि करण उपपद में होने पर शी से अच् होता है ॥६०३ ॥ पाश्वेन शेते-पार्श्वशय: । पृष्ठशय: = कुजः। अधिकरण नाम उपपद में होने पर चर से 'ट' प्रत्यय होता है ॥६०४ ॥ कुरुषु धरतीति = कुरुचर: । अटवीचरः । स्त्रीलिङ्ग में कुरुचरी अटवीचरी बनता है । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ कृदन्तः पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सर्तेः ॥ ६०५ ॥ एषूपदेषु सर्वेष्टो भवति । पुरः सरः । अग्रतः सरः अग्रेसर: 1 पूर्वे कर्त्तरि ॥ ६०६ ॥ ॥ ६०७ ।। पूर्वशब्दे कर्त्तर्युपपदे सर्तेष्टो भवति । पूर्वसरः पूर्वसरी 1 कृञो हेतुताच्छील्यानुलोम्येष्वशब्दश्लोककलहगाथावैरचाटुसूत्रमन्त्रपदेषु अशब्दादिषु कर्मसूपपदेषु हेतौ ताच्छील्ये आनुलोम्ये कृञष्टो भवति । हेतौ यशस्करी विद्यः । ताच्छील्ये श्राद्धकरः । आनुलोम्ये वचनकरः । अशब्दादिष्विति किं । शब्दकारः । श्लोककारः कलहकारः । गाथाकारः । वैरकारः । चाटुकारः । सूत्रकारः । मन्त्रकारः । पदकारः । तद्यदाद्यन्तानन्तकःरबहुबाह्लहर्दिवाविभागिशालमा भाचित्रकर्तृनान्दीकिलिपिलिबिबलिभक्ति क्षेत्रजंघा धनुररुः संख्यासु च ||६०८ || तदादिषु कर्मसूपपदेषु कृञष्टो भवति । तत्करोतीति तत्करः तस्करः । रूढित्वात्तस्य सकारः । यत्करः 1 आदिकरः । अन्तकरः । अनन्तकरः । कारकरः । बहुकरः । बाहुकरः । अहस्करः । दिवाकरः । विभाकर: । निशाकरः । प्रभाकरः । भास्करः । चित्रकरः । कर्तृकरः । नान्दीकरः । किं करोतीति किकरः । लिपिकरः । लिबिकर: । बलिकरः । भक्तिकरः । क्षेत्रकरः जंघाकरः । धनुःकरः । अरुःकर: एककर: । द्विकरः । इत्यादि । चकारात् रजनीकरः । भूतौ कर्मशब्दे ॥ ६०९ ॥ कर्मशब्दे उपपदे कृञष्टो भवति भृतावथ । कर्मकरो भृत्यः । पुरः अग्रतः और अग्र उपपद में होने पर 'सृ' से 'ट' प्रत्यय होता है ॥ ६०५ ॥ पुरः सरति इति पुरः सरः । अग्रतः सरति अग्रतः सरः । अग्रे सरति इति अग्रेसरः । पूर्व शब्दकर्ता से उपपद में होने पर सृ से 'ट' प्रत्यय होता है ||६०६ ॥ पूर्व सरति इति पूर्वसरः पूर्वसरी । शब्द, श्लोक, कलह, गाथा, वैर, चाटु सूत्र, मंत्र इनको छोड़कर अन्य कर्म के उपपद में रहने पर 'कृ' धातु से हेतु तत्स्वभाव और अनुलोम अर्थ में 'ट' प्रत्यय होता है ॥ ६०७ ॥ हेतु अर्थ में- यशः करोति इति = यशस्करी - विद्या । तत्शील अर्थ में श्राद्धं करोतीति — श्राद्धकरः । अनुलोम अर्थ में - वचनं करोति — वचनकरः । शब्द श्लोक आदि को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? शब्दं करोति इति-- शब्दकारः श्लोककारः इनमें अण् प्रत्यय हुआ है। तदादि उपपद में एवं आदि, अंत, अनंत, कार, बहु, बाहु, अहर दिवा विभा, निशा, प्रभा, भास, चित्र, कर्तृ, नान्दी, किं, लिपि, लिंब, बलि, भक्ति, क्षेत्र, जंघा, धनुष्, अरुष और संख्यावाची शब्दों के उपपद में रहने पर 'कृ' धातु से 'ट' प्रत्यय होता है ||६०८ ॥ तत्करोतीत्ति = तत्कर: 'रूढित्वात् तस्य सकार: । ' नियम से त को 'स' होकर तस्करः बना । यत्करः आदिकरः इत्यादि । चकार से रजनीकर आदि भी लेना चाहिये । कर्म शब्द उपपद में होने पर भृत्य अर्थ में 'कृ से ट' प्रत्यय होता है ॥ ६०९ ॥ कर्म करोति इति — कर्मकरः भृत्यः । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० कातन्त्ररूपमाला इस्तम्बशकृतोः व्रीहिवत्सयोः ।।६१० ॥ स्तम्बशकृतोरुपपदयोः कृञ इर्भवति । स्तम्बकरिः व्रीहिः । शकृत्करिः बालवत्सः । हरतेर्वृतिनाथयोः पशो ॥ ६११ ॥ दृतिनाथयोरुपपदयोर्हरतेरिर्भवति पशावर्थे । दृतिहरिः नाथहरिः । पशुः । फलेमलरजः सुग्रहे ॥६१२ ॥ एषूपपदेषु प्रहेरिर्भवति । फलेग्रहिः । मलग्रहिः । रजोग्रहिः । देववातयोरापेः ||६१३ ॥ देववातयोरुपपदयोराप्नोतेरिर्भवति । देवान्प्राप्नोति देवापिः । वातापिः । आत्मोदरकुक्षिषु भृञः खिः ||६१४ ॥ एषु कर्मसूपपदेषु भृञः खिर्भवति । नस्तु क्वचित् इति नलोपः । ह्रस्वरूषोर्मोन्तः ||६१५ ॥ ह्रस्वान्तस्यानव्ययस्यारुषश्चोपपदस्य मंकारान्तो भवति खानुबन्धे कृति परे । आत्मानं विभर्तीति आत्मंभरिः । एवमुदरंभरिः । कुक्षिभरिः । एजेः खश् ॥६१६ ॥ स्तम्ब और शकृत् उपपद में रहने पर 'कृ' धातु से 'इ' प्रत्यय होता है ॥६१० ॥ स्तंबकरि :- बीहिः, शकृत्करिः बालवत्सः । दृति और नाथ शब्द उपपद में होने पर पशु अर्थ में हृ धातु से 'इ' प्रत्यय होता ६११॥ दृतिहरिः, नाथहरिः -- पशुः । फले मल और रज: के उपपद में होने पर ग्रह धातु से 'इ' प्रत्यय होता है ॥६१२ ॥ फलेग्रहि: मलग्रहि; रजोग्रहिः । फलानि गृह्णाति इति । देव और वात उपपद में रहने पर 'आप्' धातु से 'इ' प्रत्यय होता है ॥ ६१३ ॥ देवान् आप्नोति----देवापिः वातम् आप्नोति इति = वातापिः । आत्मन् उदर और कुक्षि शब्द के उपपद में रहने पर 'भृञ्' धातु से 'खि' प्रत्यय होता है ॥६१४ ॥ अव्यय रहित, ह्रस्वान्त और अरुष् के उपपद में रहने पर खानुबंध प्रत्यय के आने पर उपर्युक्त उपपद को मकारान्त हो जाता है ॥ ६१५ ॥ आत्मानं विभर्तीति = आत्मंभरिः 'नस्तु क्वचिद्' सूत्र से आत्मन् के नकार का लोप हो गया है। ऐसे ही उदरं बिभर्ति = उदर + अम् । इ तत्स्थालोप्याः विभक्तयः सूत्र से विभक्ति का लोप होकर ऋ को गुण 'अर' होकर इस सूत्र से मकारांत होकर उदरंभरिः कुक्षिभरि बन गये । कर्म उपपद में होने पर इन्नन्त एज् धातु से खश् होता है ॥६१६ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त: ३३१ कर्मण्युपपदे एजयतेरिनन्तात् खश् भवति । एजू कंपने । जनमेजयतीति जनमेजयः । शुनीस्तनमुलकूलास्वपुष्पेषु धेटः ॥६१७ ।। एषु कर्मसूपपदेषु धेट: खश् भवति । दीर्घस्योपपदस्थानव्ययस्य खानुबन्धे ॥६१८॥ दीर्घान्तस्यानव्ययस्योपपदस्य ह्रस्वो भवति खानुबन्धे कृति परे । थेट पाने। शुनी धयतीति शुनिधयः । स्तनं धयतीति स्तनंधयः । मुझंधयः । कूलन्धयः । आस्यन्धयः । पुष्पंधयः । शुनिन्धयी । नाडीकरमुष्टिपाणिनासिकास ध्मश्च ॥६१९ ॥ एषु कर्मसूपपदेषु धमतेधेटश्च खश् भवति । नाडिन्धमः। करन्थमः । करन्धयः । मुष्टिन्धयः । मुष्टिन्धमः । पाणिन्धय: । पाणिन्धमः । नासिकन्धम: । नासिकन्धयः । विध्वरुस्तिलेषु तुदः ॥६२० ।। एषु कर्मसूपपदेषु तुद: खशू भवति । विधुंतुदः । संयोगादेधुंटः ।।६२१॥ संयोगादे(टो लोपो भवत्ति धुटि परे । अरुंतुदः तिलन्तुदः । असूर्योग्रयोदशः ॥६२२ ॥ अनयोरुपपदयोर्दश: खश् भवति । असूर्यपश्या राजदाराः । उग्रंपश्याः । जनम् एजयतीति = जनमेजयः । खानुबंध से अनुस्वार आगम एवं शानुबंध से सार्वधातुकवत् कार्य होता है। शुनी स्तन, मुञ्ज, कूल, आस्य और पुष्प इनके उपपद में आने पर धेट् धातु से खश् प्रत्यय होता है ॥६१७ ॥ धेट-पीना। शुनी धयतीति । अव्यय रहित दीर्घान्त उपपद को खानुबंध कृत्प्रत्यय के आने पर ह्रस्व हो जाता है ॥६१८॥ शुनिधयः, स्तनंधयः इत्यादि । नाडी, कर, मुष्टि, पाणि और नासिका के उपपद में रहने पर ध्मा और धेट् धातु से खश् प्रत्यय होता है ॥६१९॥ नाडी धमति इति 'नाडिंघम:' ६१८ सूत्र से हस्व हुआ है। एवं 'ध्योधमः' इस ६५वें सूत्र से मा को धम आदेश हुआ है। ऐसे ही धेट् से नाइिंधय: इत्यादि। विधु, अरुस् और तिल के उपपद में रहने पर तुद् धातु से खश् प्रत्यय होता है ॥६२० ॥ विद्युतुदः । संयोगादि धुट का लोप हो जाता है धुट के आने पर ॥६२१ ॥ यहाँ अरुस् के सकार का लोप हो गया है अत: अरुंतुदः, तिलन्तुदः । असूर्य और उग्र से परे दृश् धातु से खश् प्रत्यय होता है ॥६२२ ॥ असूर्यपश्या उग्रंपश्या, “दृशे: पश्यः” सूत्र ६९ से दृश् को पश्य हुआ है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला ललाटे तपः ॥६२३॥ ललाटे उपपदे तपते: खश् भवति । ललाटंतपः । मितनखपरिमाणेषु पचः ।।६२४॥ एषु कर्मसूपपदेषु पच: खश् भवति । मितम्पचा ब्राह्मणी । नखंपचा यवागू । प्रस्थंपचा द्रोणंपचा स्थाली। कूल उगुजोहोः ।।६२५ ।। कूले उपपदे उगुजोद्वहो: खश् भवति । रुजो भंगे। कूलमुद्रुजा नदी । कूलमुद्रुहः समुद्रः । वहलिहाभंलिहपरन्तपेरंमदाश्च ॥६२६ ॥ एते खशन्ता निपात्यन्ते । वहलिहा गौ: । अभलिहो वायुः । परंतपः खलः । इरंमदा सीधुः । चकारात् वातमजन्तीति वातमजा: । श्राद्धं जहातीति श्राद्धजहा माषा:।। वदेः खः प्रियवशयोः ॥२७॥ अनयोरुपपदयोर्वदेः खो भवति । प्रियंवदः । वशंवदः । सर्वकलाप्रकरीषेषु कषः ।।६२८॥ एधूपपदेषु कषते; खो भवति । कष सिषेति दण्डकधातुः । सर्वंकषः खल: । कूलंकषा नदी । अभ्रंकषो गिरिः । करीषंकषा वात्या। भयातिमेघेषु कृञः ।।६२९ ॥ ललाट उपपद में रहने पर तप् धातु से खश् प्रत्यय होता है ॥६२३ ॥ ललाटं तपतीति = ललाटंतपः ।। मित नख और परिमाण के उपपद में रहने पर पच् धातु से खश प्रत्यय होता है ॥६२४॥ __मितपचा—ब्राह्मणी । नखंपचा-यवाग, प्रस्थंपचा–स्थाली द्रोणंपचा खारी इत्यादि । कूल उपपद में रहने पर उत् पूर्वक रुज् वह् धातु से खश् प्रत्यय होता है ॥६२५ ॥ रुज्-भंग करना, कूलमुद्रुजा-नदी । कूलमुद्वहः समुद्रः।। वहंलिह अभंलिह परन्तप इरम्मद ये खश् प्रत्ययान्त शब्द निपात से सिद्ध हुये हैं ॥६२६ ॥ बहलिहा--गाय, अभ्रंलिह:-वायुः, परंतप:-दुष्ट, इरंमदा-सुरा । चकार से वातं अजंति-वातमजा:, श्राद्धं जहातीति श्राद्धजहा:-उड़द ।। प्रिय और वश उपपद में रहने पर वद धातु से 'ख' प्रत्यय होता है ॥६२७ ॥ प्रियंवदः वशंवदः । सर्व कूल अभ्र और करीष उपपद में आने पर कष धातु से 'ख' प्रत्यय होता है ॥६२८ ।। कष सिए ये दण्डक धातु हैं। सर्व कषति-सर्वकष:-दुष्ट, कूलंकषा-नदी, अभ्रंकषो-गिरिः, करीषंकषा-वात्या = आंधी। भय, ऋति और मेघ से परे कृ धातु से 'ख' प्रत्यय होता है ॥६२९ ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त: एखूपपदेषु कृत्र: खो भवति । भयंकरः । ऋतिकर: । मेघंकरः । क्षेमप्रियमद्रेष्वण्च ॥६३० ॥ एखूपपदेषु कृत्रः खो भवति अण्च । क्षेमंकर: क्षेमकार: । प्रियंकरः प्रियकार: । मद्रंकर: मद्रकार: । 'नाग्नि तभवृजिधारितपिदमिसहां संज्ञायाम् ॥६३१॥ गान्युपपदे : संज्ञायणं हो पतति । रथेन तरतीति रथंतरं सामी विश्वं बिभर्तीति विश्वंभरा भूः । पति वृणीते पतिवरा कन्या। धनं जयतीति धनञ्जय: । वसुं धारयतीति वसुन्धरा । शत्रु तापयतीति शत्रुतप: । अरिं दमयतीति अरिन्दम: । शत्रु सहते इति शत्रुसहः । गमश्व॥६३२।। नाम्नि उपपदे गमश्च खो भवति संज्ञायां । सुतंगम: । हृदयङ्गमा वाचः । उरोविहायसोरुरविही च ।।६३३ ॥ उरोविहायसोरुरविहौ भवत: गमञ्च खो भवति संज्ञायां । उरसा गच्छतीति उरङ्गमः । विहायसा गच्छतीति विहङ्गमः । डोऽसंज्ञायामपि १६३४॥ नाम्नि उपपदे गमेड़ों भक्त्यसंज्ञायामपि । भुजाभ्यां गच्छतीति भुजगः । तुरगः । प्लवगः । पतगः । अध्वगः । दूरगः । पारग: 1 पन्नगः । सुग: । दुर्ग: । नगः । अगः । उरग: । विहगः । विहङ्गतुरङ्गभुजङ्गाश्च ।।६३५॥ भयंकर; ऋतिकरः, मेधंकरः। क्षेम प्रिय और मद्र से परे 'कृ' धातु से ख और अण् प्रत्यय होता है ॥६३० ॥ क्षेमंकरः, क्षेमकार: इत्यादि। नाम उपपद में होने पर तु भृ वृज धृ तप दम सह धातु से संज्ञा अर्थ में ख प्रत्यय होता है ॥६३१ ॥ ___ रथेन तरति—रथंतरं, विश्वं बिभर्ति या सा इति—विश्वभरा—पृथ्वी, पतिं वृणीते या सा पतिवराकन्या, धनं जयतीति धनंजय, वसुं धारयति-वसुंधरा शत्रु तापयति-शत्रुतप: अरिं दमयति अरिंदम. शत्रं सहते---शसहः सर्व सहते इति सर्वसहः-मुनिः। नाम उपपद में होने पर संज्ञा अर्थ में गम धातु से ख प्रत्यय हो जाता है ।।६३२ ॥ सुतंगम: हृदयंगमा वाचः। उरस् विहायस् को उर विह होकर संज्ञा अर्थ में गम धातु से ख प्रत्यय हो जाता है ॥६३३ ॥ उरसा गच्छति-उरंगम: विहायसा गच्छति-विहंगम: । नाम उपपद में होने पर गम धातु से असंज्ञा अर्थ में भी 'ड' प्रत्यय होता है ॥६३४ ॥ भुजाभ्यां गच्छति— भुजग: तुरगः, प्लवगः इत्यादि । डानुबंध से अन्त्यस्वर को आदि में करके व्यंजन का लोप हो जाता है अत: गम् के अम् का लोप हो गया है। विहङ्ग तुरङ्ग और भुजङ्ग शब्द ड प्रत्ययान्त निपात से सिद्ध होते हैं ॥६३५ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ कातन्त्ररूपमाला एते डान्ता निपात्यन्ते संज्ञायां । विहङ्गः । तुरङ्गः । भुजङ्गः । अन्यतोऽपि च ॥६३६॥ नाम्नि उपपदे गमेरन्यस्मादपि डो भवति । वारि चरतीति वार्च: हंस: । गिरौ शेते गिरिशः । वरानाहन्तीति वराहः । परिखन्यते परिखा। हन्तेः कर्मण्याशीर्गत्योः ।।६३७ ।। कर्मण्युपपदे आशिषि गतौ च वर्तमानाद्धन्तेड़ों भवति । शत्रु वध्यात् शत्रुहः। क्रोशं हन्तीति क्रोशहः । अपात्क्ले शतमसोः ॥६३८॥ क्लेशतमसोरुपपदयोरपहन्तेडों भवति । क्लेशापहः । तमोपहः । दुःखापहः । ज्वरापहः । विषापहः । अन्यतोऽपि । अन्याण्डः । दापहः । कुमारशीर्षयोणिन् ।।६३९ ।। कुमारशीर्षयोरुषपदयो: हन्तेर्णिन् भवति । कुमारघाती । शीर्षघाती। टग्लक्षणे जायापत्योः ।।६४० ॥ जायपत्योरुपपदयोर्हन्तेष्टम् भवति लक्षणवत्कर्तरि । जायाघ्न: ब्राह्मणः । पतिघ्नी वृषली । अमनुष्यकर्तृकेऽपि च ।।६४१ ।। नाम उपपद में होने पर गम से भिन्न अन्य धातु से भी 'ड' प्रत्यय होता है ॥६३६ ॥ वारि चरतीति-वार्च: हंस: यह वार शब्द रकारांत है। गिरौ शेते.-'गिरिशी' के ई का लोप होकर गिरिश: वरान् आहति इति-वराहः परिखन्यते--परिखा। ___कर्म उपपद में आने पर आशिष और गति अर्थ में वर्तमान हन् धातु से 'ड' प्रत्यय होता है ॥६३७ ॥ शत्रु बध्यात् शत्रुहः यहाँ आशीलिङ् है । क्रोशं हन्ति इति—क्रोशहः । यहाँ हन् धातु का गति अर्थ होने से एक कोश गमन करने वाला। ऐसा अर्थ है। क्ले श तमस् के उपपद में रहने पर अपपूर्वक हन् धातु से 'ड' प्रत्यय होता है ।।६३८ ॥ क्लेशं अपहान्त-क्लेशापहः, तमोपहः, दुःखापहः । इत्यादि। कुमार और शीर्ष उपपद में होने से हन् धातु से णिन् प्रत्यय होता है ॥६३९ ॥ कुमारं हन्ति-कुमारघाती “हस्य हन्तेषिरिनिचो;" ३६७ सूत्र से हन् के ह को घ होकर हन्तेस्त: ५६० सूत्र से नकार को तकार हुआ है । अत: शीर्षघातिन् बना है लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर शीर्षघाती बना। जाया और पति उपपद में आने से हन से टक होता है और कर्ता में लक्षणवत् कार्य होता है ॥६४० ॥ जायां हन्ति-जायाघ्नः 'गमहन्' इत्यादि ११३ सूत्र से हन् की उपधा का लोप होकर 'लुप्तोपधस्य च' सूत्र ११४ से ह को घ होकर जायाघ्नः बना । ऐसे पतिघ्नी बना । मनुष्य के कर्ता न होने पर भी वर्तमान हन् से टक् हो जाता है ॥६४१ ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३३५ अमनुष्यकऽपि च वर्तमानात् हन्तेरपि टग्भवति । जायाघ्न: तिलकः । पतिधी पाणिरेखा । पित्तघ्नं घृतम् । वातनं तैलं । श्लेष्माणं हन्तीति श्लेष्मघ्नं त्रिकटुकं । अपिशब्दात् कृतघ्नः । हस्तिबाहुकपाटेषु शक्तौ ॥६४२ ॥ एखूपपदेषु हन्तेष्टाभवति शक्तौ । हस्तिनं हंतीति हस्तिनः । एवं बाहुघ्नः । कपाटघ्नः । पाणिघताडयौ शिल्पिनि ॥६४३॥ एतौ शिल्पे निपात्येते । पाणिना हन्तीति पाणिधः । ताडघः । नग्नपलितप्रियान्धस्थूलशुभगाढ्येष्वभूततद्धावे कृञः ख्युट करणे ।।६४४ ॥ नग्नादिषूपपदेषु अमृततद्भावेर्थे कृत्र: ख्युट् भवति करणे । अनग्नो नग्नः क्रियते अनेन नग्नकरणं द्यूतं ।एवं पलितंकरण तैलं । प्रियंकरणं शीलं । अन्धकरण; शोकः । स्थूलंकरणं दधि । शुभगकरणं रूपं । आयंकरणं वित्तं । भुवः खिष्णुखको कर्तरि ॥६४५ ॥ नग्नादिषूपपदेषु अभूततद्भावे भुव: खिष्णुखुको भवतः कर्तरि । अनग्नो नग्नो भवति मग्न भविष्णुः । नग्नंभावुकः । पलितंभविष्णुः । पलितभावुकः । प्रियंभविष्णुः । प्रियंभावुक: ! अन्धभविष्णुः अन्धंभावुक: । स्थूलभविष्णुः स्थूलभावुकः । कर्मणि भजो विण ॥६४६ ।। जायान:-तिलकः, पतिनी—पाणिरेखा, पित्तनं-धृतं वातघ्नं तैलं श्लेष्माणं हन्ति श्लेष्मघ्नं–त्रिकटुकं । अपि शब्दे से-कृत हन्ति---कृतघ्नः । हस्ति बाहु कपाट के उपपद में होने पर शक्ति अर्थ में हन से टक प्रत्यय होता है ६४२ ॥ हस्तिघ्नः बाहुघ्न: कपाटघ्नः । शिल्पी अर्थ में पाणिव और ताइघ निपात से सिद्ध होते हैं ॥६४३ ।। पाणिना हन्ति-पाणिध: ताडघः । नग्न, पलित, प्रिय, अन्ध, स्थूल, शुभग, आढ्य, उपपद में रहने पर अभूत तद्भाव अर्थ में 'कृ' धातु से करण से 'ख्युट्' प्रत्यय होता है ॥६४४ ॥ अभूततद्भाव-~जो जैसा नहीं है उसका वैसा होना। अनग्न; नग्नः क्रियते अनेन—जो नग्न नहीं है वह इससे नग्न किया जाता है। नग्नकरण-जूआ। पलितंकरणं तैलं-'युवुलामनाकान्ता' से यु को अन हुआ है। प्रियंकरणं-शीलं । अप्रिय को प्रिय करने वाला शील अन्धकरणं-शोकः चक्षु सहित को भी शोक अन्धा करने वाला है। ये नग्न आदि उपपद में रहने पर अभूत तद्भाव अर्थ में 'भू' धातु से कर्ता में खिष्णु और खुकञ् प्रत्यय होते हैं ॥६४५ ।। ___ खिष्णु में खानुबंध और खुकञ् में खजानुबंध होते हैं खानुबंध से अनुस्वार होता है। अनग्नो नग्नो भवति गुण अव् होकर नग्न भविष्णु, नग्न भावुक: । जानुबंध से वृद्धि हुई है और आव् हुआ इत्यादि। कर्म में भज् से “विण्' प्रत्यय होता है ॥६४६ ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ कातन्त्ररूपमाला कर्मणि भजो विण् भवति । वेलोपोऽपृक्तस्य इति वेलोपो भवति ॥ अर्द्धभाक् । पादभाक् । सहः छन्दसि ॥६४७ ॥ छन्दसि भाषायां सहो विण् भवति । तुरांसहते । सहेष्वो वः ॥६४८॥ सहेस्सकारस्य षत्वं भवति हकारस्य ढकारो भवति चेत् । तुराषा तुरासाही तुरासाहः । वहश्च ।।६४९॥ नाम्नि उपपदे वह विण् भवति । प्रष्ठवाट प्रष्ठौही । अनसि डच ।।६५०॥ अनस्युपपदे वहश्च विण् भवति । अनसच डो भवति । अनड्वान् । अनडुही । दुहः को घश्च ॥६५१॥ दुहः को भवति अन्तस्य घादेश: । ब्रह्मदुधा । कामदुघा । विट् कमिगमिखनिसनिजनाम् ॥६५२॥ नाभि एभ्यो विट् भवति । विड्वनोराः ।।६५३॥ णानुबंध से वृद्धि एवं 'वेलोंपोऽपृक्तस्य' सूत्र से 'वि' का लोप होकर प्रत्यय कुछ भी शेष नहीं रहा है। अर्द्धभजति इति- अर्द्धभाक्, पाद भाक् ज् को ग होकर प्रथम अक्षर हुआ है 'चवर्गदगादीनां च' सूत्र से सिके आने पर ज् को ग् हुआ है। छन्द भाषा में 'सह' से विण होता है ।।६४७ ॥ तुरांसहते । इति– सह के सकार को षकार और हकार को ढकार हो जाता है ॥६४८ ॥ तुराषाड् तुरासाही तुरासाह: इत्यादि । नाम उपपद से वह धातु से विण् प्रत्यय होता है ॥६४९ ॥ प्रष्ठं वहति इति—प्रष्ठवाट प्रष्ठौही। अनस् उपपद में 'वह' से विण होता है ॥६५० ॥ अनस् के स् को 'उ' होता है। अनड्वान', अनडुही।। दुह धातु से 'क' प्रत्यय होता है और अंत को 'घ' आदेश होता है ॥६५१ ॥ ब्राह्मणं दोग्धि इति—ब्रह्म दुघा, कामदुधा। कम् गम् खन् सन् और जन् के नाम उपपद में रहने से विट् प्रत्यय होता है ।६५२ ॥ विट और वन प्रत्यय के आने पर पंचमान्त को आकार हो जाता है ॥६५३ ॥ १. अनः शकटं वहतीति । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त: ३३७ विटि च बनि च प्रत्यये परे पश्मान्तस्याकारो भवति । उदधिकाः । अप्रेगा: । विषखाः । मोषाः । अब्जजा: 1 अतो मन् क्वनिप्वनिविचः ॥६५४॥ आकारान्ताद्धातोर्मन् क्वनिए वनिप विच एते प्रत्यया भवन्ति । मन् सुष्टु ददातीति सुदामा । अश्व इव तिष्ठतीति अश्वत्थामा । क्वनिप् । सुपौवा । सुधीवा । वनिप् । भूरिदावा । घृतपावा । विच् । क्षीरपाः । सर्वापहारी प्रत्ययलोपः। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते ॥६५५ ॥ अन्येभ्योपि धातुभ्य एते प्रत्यया दृश्यन्ते । मन कृतवर्मा । क्वनिप् । इण गतौ । प्रातरेति प्रातरित्या । वनिए यज्वा । विच्-त्विष हिंसायां त्विट् । क्विप।।६५६॥ धातो: क्विप् दृश्यते । उखाया: स्रंसते उखास्नत् । पर्णध्वत् । वः क्वौ ॥६५७॥ वेजसम्प्रसारणं दीर्घमापद्यते क्वावेव । ऊ: उवो उवः । उदधि काम्यति = उदधिका, अन्त के पंचम अक्षर को आकार होकर संधि हो गई है। अग्रे गच्छति अग्रेगा: विर्ष खनति = विषखा: खवति गोषा' । अब्ज जनयति अब्जजाः । आकारांत धातु से मन, क्वनिप और विच ये प्रत्यय होते हैं ॥६५४ ॥ मन्—सुष्टु ददात्ति-सुदामन् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर सुदामा बना। अश्व इव तिष्ठति-अश्वत्थामा, यहाँ सकार को तकार हुआ है वह 'लुवर्ण तवर्गलसादन्त्या:' न्याय से स् को द होकर प्रथम अक्षर हुआ है। क्वनिप-कप् और इकार अनुबंध है अत: सुपावन् रहा 'दामागायति' इत्यादि १६४३ सूत्र से ईकार होकर सुपीवन् बना, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में सुपीवा बना । ऐसे ही सुधीवन से सुधीषा बना है। क्वनिप् में कानुबंध होने से ५०२ सूत्र से यणवत् कार्य होता है। वनिप् में-भूरिदावन = भूरिदावा, घृतपावा विच में-क्षीरं पिबतीति-क्षीरपा: विच् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप होता है। अन्य घात से भी ये प्रत्यय देखे जाते हैं ॥६५५ ॥ __ मन् से--कृतवर्मा, क्वनिप् से—इण् गति अर्थ में है प्रात: एति-प्रातरित्वा । वनिप् यज्वा । विच् में--त्विष्–हिंसा अर्थ में है 'विद्' बना है। धातु से क्विप् प्रत्यय होता है ॥६५६ ॥ उखाया; संसते = उखाश्रम लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति से रूप बना उखात् पणानि ध्वंसते = पर्णध्वत्। क्विप् प्रत्यय के आने पर वेञ् का संप्रसारण दीर्घ हो जाता है ॥६५७ ॥ वे-ऊ बना रूप चलने से ऊ: उवौं उव: क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो जाता है । १.गां पृथ्वी धनोतीति गोषा। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूएमाला ध्याप्योः ॥६५८।। ध्याप्योः सम्प्रसारणं दीर्घमापद्यते क्वौ परे । आधी: । व्याधी: । आपी: । वचनात्सप्प्रसारणं सिद्धम् । पञ्चमोपधाया धटि चागुणे ॥६५९ ।। पञ्चमान्तस्थोपधाया: क्वौ धुटि चागुणे प्रत्यये परे दौ? भवति । मो नो धातोः ।।६६० ॥ धातोर्मकारस्य नकारो भवति धुट्यन्ते च । प्रशान् । प्रतान् । च्छवोः शूठौ पञ्चमे च ॥६६१ ।। छकारवकारयोः शू ऊठि-त्यैतौ भवत: क्वो धुट्यगुणे पञ्चमे च । लिश विछ गतौ । विछ गोविद् प्रच्छ ज्ञोप्सायां । पथिएट । क्वचिद् हस्वस्य दीर्घता । दिव् अक्षयूः । षिव् स्यू: । प्रच्छ प्रष्टः पृष्ट्वा । दिल द्यूत: द्यूत्वा । विच्छ विश्न: । छस्य द्विः पाठे निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः ।। श्रिव्यविमवितरित्वरामुपधयो॥६६२।। एयामुपधया सह वकारस्य ऊठ् भवति क्वाँ धुट्यगुणे पञ्चमे च 1 श्रिवु गतिशोषणयोः । श्रूः । अव रक्ष पालने । अब ऊ । मव्य बन्धने मू: । ज्वर रोगे जू: । त्वर तूः । राल्लोप्यौ ॥६६३ ॥ विष के आने पर ध्या, 'या का प्रसारण दीर्घ हो जाता है ॥६५८ ॥ आ ध्या-धी = आधी:, आपी: इस सूत्र से संप्रसारण सिद्ध है। पंचमान्तस्थ की उपधा को क्विप् और धुद अगुण विभक्ति के आने पर दीर्घ हो जाता है ॥६५९ ॥ प्रशाम्यति इति प्रशम्-प्रशाम् बना । क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो गया पुन: धुट् अन्त के आने पर धातु के मकार का नकार हो जाता है ॥६६० ॥ प्रशान् प्रतान् । प्रताम्यतीति प्रतान् ।। क्विप और धुट अगुण पंचम अक्षर के आने पर छकार वकार को श और व को इट् आदेश होता है ॥६६१॥ लिश, विछ—गमन करना। गोविट् शानुबंध से सार्वधातुकवत् कार्य होता है । अत: प्रच्छ से—पन्थानं पृच्छति इति पथिप्राट् क्वचित् कहीं पर “ह्रस्वस्य दीर्घता” ४७० सूत्र से दीर्घ हो गया है। दिव् के व् को ऊ होकर अक्षैदींव्यति अक्षयूः षिव्-स्यू: । प्रच्छ से प्रष्टः पृष्ट्वा, दिव्-घूतः द्यूत्वा । विच्छ-विश्न: छ का द्वित्व पाठ है किंतु निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो जाता है । वितप् और धुर् अगुण पंचम प्रत्यय के आने पर श्रिव अन् । मव् ज्वर त्वर के उपधा सहित वकार को ऊद हो जाता है ॥६६२ ॥ श्रिवु–गति और शोषण, श्रिव् की इ और व को ऊठ् होकर श्रू बना लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में 'शू:' बना। अव से 'ऊ' मव से मू: ज्वर् से जू: त्वर से तू: बना । रेफ से परे धुट् अगुण पञ्चम और क्लिप के आने पर छकार वकार का लोप हो जाता है ॥६६३॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त: रेफात्परौं छकारवकारौं लोप्यौ भवतः स्वौ धुट्यगुणे पञ्चमे च । मूर्च्छ मूः । धूर्व धृ । वहे पञ्चम्यां भ्रंशेः ॥६६४ ॥ वहेः पञ्चम्यन्त उपपदे भ्रंशे: क्विप् भवति । भ्रंश भ्रंश अधःपतने। वहात् भ्रश्यत इति वहभ्रद् । स्पृशोऽनुदके ॥६६५ ॥ अनुदके नाम्नि उपपदे स्पृशः क्विप् भवति । स्पृश संस्पृशे । घृतस्पृक् मन्त्रस्पृक् । अदोऽनन्ने ॥६६६ ।। अनन्त्र उपपद अदः क्विप् भवति । सस्यमत्तीति सस्यात् । तृणात् । क्रव्ये च ॥ ६६७ ।। क्रव्ये चोपपदे अदः क्विप् भवति पक्वेऽर्थं । क्रव्यात् । पुनर्वचनादण् अपक्केऽपि क्रव्यादः राक्षस । बना। ऋत्विग्दधृक्स्त्रग्दिगुष्णिहश्च ॥ ६६८ || एते क्विन्ता निपात्यन्ते । ऋतौ यजतीति स्वपि वपि इत्यादिना संप्रसारणं वमुवर्ण इति वत्वं । ऋत्विक् । धृष्णोतीति दधृक् । स्रक् । दिक् । उष्णिक् । सत्सूद्विषद्रुहयुजविदभिदजिनीराजामुपसर्गेऽष्यनुपसर्गेऽपि ॥६६९ ।। ३३९ मूर्च्छ धूर्व धातु हैं इनके छकार बकार का लोप होकर मूः धूः बना । वह पंचम्यंत उपपद में होने पर भ्रंश से क्विप् होता है ॥६६४ ॥ भ्रश भ्रंश = अधःपतन होना । बहात् भ्रश्यते वहभ्रट् बना । अनुदक नाम उपपद में होने पर स्पृश् से क्विप् होता है ॥ ६६५ ॥ स्पृश्— संस्पर्श करना, घृतं स्पृशति घृतस्पृक् मंत्रस्पृक् । अन्त उपपद में न होने पर अद् से क्विप् होता है ||६६६ ॥ सस्यं अत्तीति सस्य अद्--- सस्याद् सि विभक्ति में 'सस्यात्' बना ऐसे ही तृणम् अत्ति = तृणात् और क्रव्य उपपद में होने पर पक्व अर्थ में अद् से क्विप् होता है ॥६६७ ॥ क्रव्यम् अत्ति = क्रव्यात् । पुनर्वचन से अण् भी होता है और अपक्व अर्थ में भी होता है। क्रव्याद:- राक्षसः । ऋत्विग् दधृक् स्रक् दिग् और उष्णिक् ये क्विबन्त शब्द निपात से सिद्ध हुए हैं ॥६६८ ॥ ऋतौ यजति र्ह 'स्वपि वादि' इत्यादि सूत्र से संप्रसारण होकर ऋतु इज् रहा 'चमुवर्ण:' सूत्र से संधि होकर ऋत्रिज् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में 'चवर्ग द्गादीनां च" सूत्र से ग होकर प्रथम अक्षर होकर ऋत्विक बना है । धृष्णोति इति 'दधृक्' सृजतीति — स्रक् दिशति इति दिक्, उष्णिक् है । सत्, स्, द्विष्, द्रुह युज् विद् भिद् जि, नी, और राज् को उपसर्ग और अनुपसर्ग में भी एवं नाम उपपद अनाम उपपद में भी क्विप् प्रत्यय होता है ॥६६९ ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० कातन्त्ररूपमाला एषामुपसर्गेऽप्यनुपसर्गेपि नाम्नि अध्यनाम्नि उपपदे क्विपू भवति । उपसीदतीति उपसत् । सत् । सभासत् । सूरदादिः प्रसूः । सूः । अण्डसूः । द्विष् अप्रीतौ । विद्विट् । द्विट् । मित्रद्विट् । द्रुह जिघांसायां प्रधुक् । घुक् । मित्रध्रुक् प्रधुक् गोधुक् । प्रयुक्। युक् अश्वयुक् । संवित् वित् वेदवित् । प्रभित् भित् काष्ठभित् । प्रच्छित् छित् रज्जुच्छित् । प्रजित् जित् अवनिंजित् । अवनी: नी: सेनानीः । विराट् राद् गिरिराट् । कर्मण्युपमानेत्यदादौ दृशष्टक्सकौ च ॥ ६७० ॥ कर्मण्युपमाने त्यदादौ उपपदे दृशष्टक्सकौ च भवतः । चकारात् क्विप् च । आ सर्वनाम्नः ।। ६७९ ॥ दृग्दृशदृक्षेषु परतः सर्वनाम्न आकारो भवति । दृशिर् प्रेक्षणे । तमिव पश्यतीति अथवा स इव दृश्यते इति तादृश: । तादृक्षः । तादृक् । यादृश: । यादृक् । यादृक्षः । एतादृशः । एतादृक्ष: । एतादृक् । इदमीः ।। ६७२ ।। दृगादिषु परत इदमीर्भवति । इदमिव पश्यतीति ईदृशः । ईदृक्षः ईदृक् । किं कीः ||६७३ ॥ दृगादिषु किं कीर्भवति । किमिव पश्यतांति कीदृशः । कीदृक्षः कीदृक् । उपसीदति — उपसत् षद् को सीद आदेश हुआ था मूल धातु षद हैं। उपसर्ग के अभाव में 'सत्' बना। नाम उपपद में होने पर सभासत् बना । सूङ् प्राणि प्रसवे - प्रसूः सूः अण्डसूः । द्विष- अप्रीति करना, विद्विद् द्विट्-मित्रद्विट् । द्रुहद्रोह करना प्रद्रुह् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में — 'हचतुर्थातस्याधातोः ' इत्यादि २९० सूत्र से द्रुह के द को ध होकर 'दादेर्हस्यगः' सूत्र ३३२ से हकार को गकार होकर प्रधुक् बना । ध्रुक् गुरू ध्रुक् आदि बनते हैं। युज् से - प्रयुक् युक् अश्वयुक् । वित् से — संवित्त वित् वेदवित् । भिद से - प्रभित् भित् काष्ठभित् । छिद् से प्रच्छित् छित् रज्जुछित् । जि से प्रजित् जित् अवनिचित् । नी से --- अवनीः नीः सेनानीः । राज् से - विराट् राट् गिरिराट् बने हैं। उपमान अर्थ में त्यदादि उपपद में हैं ॥६७० ॥ होने पर दृश् धातु से टक् और सक प्रत्यय होते चकार से क्विप् प्रत्यय भी होता है। दृग् दृश और दृक्ष से परे सर्वनाम को आकार हो जाता है ॥६७१ ॥ दृशिर् — देखना । तमित्र पश्यति अथवा स इव दृश्यते । टक् प्रत्यय से 'तत् दृश् अ' तत् को आकार होकर तादृश बना, क्विप् में तादृश और सक् में कानुबंध होकर 'छशोश्च' सूत्र १२२ से श् को घ् होकर 'षढोक: से' सूत्र ११९ से ष को क् होकर 'नामिकरपरः' इत्यादि सूत्र से क् से परे स को होकर 'कषयोगेशः' नियम से क्ष होकर तादृक्ष बना । दोनों को लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में तादृशः तादृक् तादृशः बनेंगे। ऐसे ही यत् से यादृशः आदि एतत् से एतादृशः आदि बनेंगे । दृग् दृश् और दृक्ष के आने पर इदं को 'ई हा जाता है ||६७२ ॥ इदं इव पश्यति — ईदृश: ईदृक् ईदृक्ष: । दृग आदि के आने पर किं को 'की' आदेश होता है ||६७३ ॥ किमिव पश्यति कीदृशः कीदृक् कीदृक्षः । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३४१ __अदोमूः ।।६७४॥ दृगादिषु अदस् अमूर्भवति। अमुभिव पश्यतोति अमूदृश: अभूदृक्षः अमूदृक् । दग्दशदक्षेषु समानस्य स्यः ॥६७५ ॥ दुगादिषु परेषु समानस्य सभावो भवति । समानमिव पश्यतीति सदृश: । सदृक्षः । सदृक् । नाम्न्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये ॥६७६ ।। अजातौ नाम्नि उपपदे धातोणिनिर्भवति ताच्छील्येर्थे तच्छब्देन धात्वर्थो गृह्यते। उष्णं भोक्तुं शीलमस्य उष्णभोजी । धर्ममवभासितुं शीलमस्य धर्ममवभास्यत इति एवं शील: धर्मावभासी । प्रियवादी। प्रियवादिनी। कर्तर्युपमाने ॥६७७ ।। कर्तृवाचिनि उपमाने उपपदे धातोणिनिर्भवति। उष्ट्र इस क्रोशतीति उष्ट्रक्रोशी। ध्वांक्षरावी। हंसगाभिनी। खताभीक्ष्ण्ययोश्च ।।६७८ ॥ व्रताभीक्ष्ण्ययोरर्थयोर्धातोणिनिर्भवति । व्रतं शास्त्रविहितो नियमः। आभीक्ष्ण्यं पौन:पुन्यं । अश्राद्धभोजी । स्थण्डिलशायी। क्षीरपायिणः उशीनराः । सौवीरपायिणो बाह्निकाः । मनः पुंवच्चात्र ॥६७९॥ । कर्मण्युपपदे मन्यतेणिनिर्भवति उपपदस्य पुंवद्भवति यथासम्भवं । पटुमानी । पट्वीमात्मानं मन्यते । पटुमानिनी। दृग् आदि के आने पर अदस् को 'अम्' आदेश होता है ॥६७४ ॥ अमुम् इव पश्यति अमूदृशः इत्यादि। दृग् दृश और दृक्ष के आने पर समान को 'स' आदेश होता है ।।६७५ ॥ समानमिव पश्यति सदृशः इत्यादि । जाति से भिन्न नाम उपपद में होने पर तत्शील अर्थ में धातु से णिन् प्रत्यय होता है ॥६७६ ॥ तत् शब्द से धातु अर्थ लिया जाता है। उष्णं भोक्तुं शीलम् अस्य-उष्ण खाने का है स्वभाव जिसका—उष्ण भुज् से णिन् होकर उष्णभोजिन् सि विभक्ति में उष्णभोजी बना। धर्मावभासी, प्रियवादी, प्रियवादिनी इत्यादि बनेंगे। कर्तावाची उपमान उपपद में होने पर धातु से णिन् प्रत्यय होता है ॥६७७ ।। उष्ट्र इव क्रोशति इति = उष्ट्र क्रोशी, ध्वाक्षरावी, हंस-गामिनी इत्यादि। व्रत और आभीक्ष्य अर्थ में धातु से णिन् प्रत्यय होता है ॥६७८ ॥ शास्त्र विहित नियम को व्रत कहते हैं। पुन: पुन: को आभीक्ष्य कहते हैं। श्राद्धे भोक्तुं शीलमस्य न अश्राद्ध भोजी स्थण्डिल शेते स्थंडिलशायी इत्यादि। कर्म उपपद में होने पर मनु धातु से णिन् प्रत्यय होता है और यथा-संभव उपपपद को पुंषद् भाव हो जाता है ॥६७९ ॥ पटुम् आत्मानं मन्यते--पटुमानी, पदवीम् आत्मानं मन्यते काचित् सी = पटुमानिनी यहाँ पद्वी को पुंवद् भाव हो गया है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ कातन्त्ररूपमाला खचात्मने ॥६८० ॥ कर्मण्युपपदे आत्मार्थे मन्यतेणिनिर्भवति खश्च प्रत्यय: पुंवच्च । विदुषीमिव आत्मानं मन्यते विद्वन्मानिनी । पटुमिवात्मानं मन्यते पटुमन्यः। करणेऽतीते यजः ॥६८१॥ करणे उपपदे यजेणिन् भवति अतीतेऽर्थे । अग्निष्टोमेन इष्टवान् अग्निष्टोमयाजी । वाजपेययाजी। कर्मणि हनः कुत्सायाम्॥६८२ ।। कर्मण्युपपद हन्तेणिनिर्भवति अतीते काले वर्तमानात् कुत्सायां । पितृघाती । मातुलघाती । स्विप ब्रह्मभ्रणवृत्रेषु ।।६८३ ॥ ब्रह्मादिषूपपदेष्वतीते हन्तेः क्विप् भवति । ब्रह्माणं हन्तिस्म ब्रह्महा। भ्रूणहा । वृत्रहा । कृञः सुपुण्यपापकर्ममन्त्रपदेषु ॥६८४ ।। एतेषूपपदेषु कृय: विवप् भवति अतीते । सुष्टु करोतिस्म सुकृत् । पुण्यकृत् । पापकृत् । कर्मकृत् । मन्त्रकृत् । पदकृत् । सोमे सुजः ॥६८५ ।। सोमे उपपदे सुजः स्विप भवति अतीते । सोमं सुनोतिस्म सोमसुत् । कर्म उपपद में होने पर आला अय में मनु कानुले पित्यय होता है और 'ख' प्रत्यय होता है पुंवद् भी होता है ॥६८० ।। विदुषीमिव आत्मानं मन्यते विद्वन्मानिनी पटुमन्यः । करण उपपद में होने पर अतीत अर्थ में यज् से णिन् प्रत्यय होता है ॥६८१ ॥ अग्निष्टोमेन इष्टवान्-अग्निष्टोमयाजी, वाजपेययाजी । कर्म उपपद में होने पर अतीत काल में वर्तमान कुत्सा अर्थ में हन् धातु से णिन् प्रत्यय होता है ।।६८२ ।। ___पितरम् हन्ति इति—पितृ धाती, "हस्य हंतेधिरिणिचो:" ३६७ सूत्र से ह को ध होकर 'हन्तेस्त:' सूत्र ५६० से नकार को तकार हुआ है। ऐसे मातुलघाती गुरुघाती आदि बनते हैं। ब्रह्म भ्रूण और वृत्र उपपद में होने पर अतीत काल में हन से क्विप होता है ६८३ ॥ __ब्रह्माणं हंतिस्म ब्रह्महन् बना लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में ब्रह्महा बनेमा। ऐसे ही भ्रूणहा, वृतहा। सु, पुण्य, पाप, कर्म, मंत्र और पद उपपद में रहने पर अतीत काल में कृ धातु से क्विप होता है ॥६८४ ।। सुष्टु करोतिस्म सुकृत् “धातोस्तोऽन्तः पानुबंधे" सूत्र ५२९ से पानुबंध कृदन्त प्रत्यय के आने पर ह्रस्वान्त धातु के अंत में तकार का आगम हो जाता है। अत: क से तकार का आगम होकर 'कृत्' बन जाता है। ऐसे ही पुण्यकृत् पापकृत् आदि। सोम उपपद में अतीत अर्थ में 'कृ' से क्विप होता है ॥६८५ ॥ सोमं सुनोतिस्म-सोमसुत् । तकार का आगम हुआ है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त: ३४३ चेरग्नौ ।।६८६ ।। अग्नावुपपदे चिनोते: क्विप् भवति अतीते। अग्नि चिनोतिस्म अग्निचित् । विक्रिय इन कुत्सायाम्॥६८७॥ । विक्रीणातेरतीते कुत्सायां इन् भवति । सोमं विक्रीणीतेस्म सोमविक्रयो। डुक्री द्रव्यविनिमये। दशेः क्वनिप्॥६८८॥ कर्मण्युपपदे दृशेः क्वनिप जाहिरातीते । मेरं परमशिरम ल्वा । सहराज्ञोर्युधः ॥६८९ ॥ सहराज्ञोरुपपदयो: युधः क्वनिम् भवति अतीते । युध सम्प्रहारे सह युध्यतेस्म सहयुध्वा । राजानं युध्यतेस्म राजयुध्वा । कृञ्च६९० ।। सहराज्ञोरुपपदयोः कृत्र: क्वनिप् भवति अतीते । सहकृत्वा । राजकृत्वा । सप्तमीपञ्चम्यन्ते जनेर्डः ॥६९१ ।। सप्तम्यन्ते पञ्चम्यन्ते उपपदे जनेझै भवति अतीते। जले जातं जलज । सरसिज संस्कारात् जातं संस्कारजे । बुद्धिजं । एवं पंकेज । नोरेज । अन्यत्रापि च ॥६९२॥ अन्यस्मिन्नप्युपपदे जनेर्डा भवति अतीते । न जात: अज: । द्वाभ्यां जाते द्विजः । अभिज: । अग्रजः । अनुज: पुमांसमनुजात:। अग्नि शब्द उपपद में होने पर चिञ् धातु से क्विप होता है ॥६८६ ।। अग्नि चिनोतिस्म-अग्निचित् । विक्रीणाति धातु से कुत्सा अर्थ में 'इन्' प्रत्यय होता है ॥६८७ ॥ अतीत काल में सोमं विक्रीणीतैस्म सोपविक्रयित् = सोमविक्रयी बना। कर्म उपपद में होने पर अतीत अर्थ में दृश् धातु से क्वनिप् प्रत्यय होता है ॥६८८ ॥ मेरुं पश्यतिस्म मेरु दृश्वन् = मेरुदृश्वा बना। सह और राजन् के उपपद में अतीत में युध् से क्वनिप् होता है ॥६८९ ॥ युध-प्रहार करना । सह युध्यते स्म सहयुध्वन् = सहयुध्वा । राजानं युध्यते स्म = राजयुवा। सह राजा के उपपद में कृज् धातु से अतीत में क्वनिप, प्रत्यय होता है ॥६९० ॥ सहकृत्वा, राजकृत्वा। सप्तम्यंत और पंचम्यंत उपपद में होने पर अतीत में 'जनि' से 'उ' प्रत्यय होता है ॥६९१ ॥ जले जात–जलजं डानुबंध से अन् का लोप होकर बना है। मरसिज, संस्कार बुद्धिर्ज इत्यादि । अन्य के उपपद में भी अतीत अर्थ में जन् धातु से 'ड' प्रत्यय होता है ॥६९२ ॥ न जात: = अज; द्वाभ्यांजातः द्विज: अभिज: अग्रज: इत्यादि । पुमांसम्-अनुजायतेस्म-अनुजातः । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ कातन्त्ररूपमाला वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ । धातोस्तदातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविध निरुक्तम्॥१॥ वर्णागमो गवेन्द्रादौ सिंहे वर्णविपर्ययः । षोडशादौ विकारः स्याद्वर्णनाश: पृषोदरे ॥२॥ वर्णलिकानाशयां बहोशितये न । योगः स उच्यते प्राज्ञैर्मयूरभ्रमरादिषु ॥३॥ मह्यां रौतीति मयूर: । भ्रम रौतीति भ्रमरः । व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोरिति न्यायात् पुंसोऽऽशब्दलोप इति सूत्रेण अ-शब्दलोप: । संयोगान्तस्य लोप इति सलोप: । पुमनुजः । स्त्र्यनुजः । निष्ठा ॥६९३ ॥ धातोर्निष्ठाप्रत्ययो भवति अतीते काले। तक्तवन्तू निष्ठा ।।६९४ ।। तक्तवन्तू निष्ठासंज्ञौ भवत: । न युवर्णवृतां कानुबन्धे ॥६९५ ॥ श्रयतेस्वर्णान्तस्य वृ दन्तस्य च नेड् भवति कानुबन्धेऽसार्वधातुके । श्रित: श्रितवान् । युत: युतवान् । भूत: भूतवान् । वृतः वृतवान् । रान्निष्ठातो नोऽपमच्छिमदिख्याध्याभ्यः ।।६९६ ॥ श्लोकार्थ वर्ण का आगम, वर्ण विपर्यय, वर्ण का विकार वर्ण का नाश और धातु का उसके अर्थ के अतिशय के साथ योग होना यह पाँच प्रकार का निरुक्त कहलाता है ॥१ ।। मवेन्द्र आदि में वर्ण का आगम हुआ है मो+इन्द्र 'अव:स्वरे' सूत्र से ओ को अव आगम हुआ है अत: गवेन्द्रः बना है। 'सिंह' शब्द में वर्ण का विपर्यय हुआ है हिंस से 'सिंह' बना है । षोडश में-षष् दश से विकार होकर षोडश बना है । पृषोदर में वर्ण का नाश हुआ है ॥२ ॥ वर्ण विकार और नाश से धातु में जो अतिशय आता है उसे योग कहते हैं यह मयूर भ्रमर आदि शब्दों में हुआ है ऐसा विद्वानों का कहना है ॥३ ॥ मह्या रौति मयूरः, भ्रमन् रौति इति भ्रमरः । 'व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभो: इस न्याय से पुमन्स् के अन् शब्द का लोप होकर 'संयोगान्तस्य लोप:' सूत्र से संयोगी सकार का लोप होकर 'पुमनुजः' बना। ऐसे स्त्रियं अनुजात:-स्त्यनुजः। अतीत काल में धातु से निष्ठ प्रत्यय होते हैं ॥६९३ ।। क्त और क्तवन्तु निष्ठा संज्ञक होते हैं ।।६९४ ॥ कानुबंध असार्वधातुक प्रत्यय के आने पर श्रिब् उवर्णांत और शृङ् वृञ् ऋदन्त धातु से इट् नहीं होता है ।।६९५ ॥ तक्तवन्तु में कानुबन्ध हुआ है । श्रित: श्रितवान् । युत: युतवान् भूत: भूतवान् वृतः । वृतवन्त की लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में वृत्तवान् बना ऐसे ही सर्वत्र समझना। __पृ मूर्छि ख्या, मदि और ध्या को छोड़कर रेफ से परे निष्ठा के तकार को नकार हो जाता है ।।६९६ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३४५ रेफात्परस्य निष्ठातकारस्य नकारो भवति नत प्रमर्छिमदिख्याध्याभ्यः 1 श हिंसायां। शीर्ण: शीर्णवान् । कीर्णः कीर्णवान् । गीर्ण: गीर्णवान् । प्रतिषेधः किम् ! पृ पूर्त: पूर्तवान् । मुर्छा मोह समुच्छाययोः । मूर्त: मूर्तवान् । मत: न डीवीदनुबन्धवेटामपतिनिष्कुपोरिति इप्रतिषेधः । ख्यात: । ध्यातः । निष्ठेटीनः॥६९७ ॥ निष्ठायामिटि परे इनो लोपो भवति। चोर्यतेस्म चोरित: चोरितवान् । कारित: कारितवान् ।। क्षुधिवसोश्चेति वर्तते। निष्ठायाच॥६९८ ॥ क्षुधिवसोनिष्ठायां वा नेट् भवति । लभो विमोहने ॥६९९॥ विमोहनेऽर्थे लुभो निष्ठानां वा नेट् भवति । क्षुधितः क्षुधितवान् । उषित: उषितवान् । लुभ गाध्ये लुभित: लुभितवान् । लुब्धः लुब्धवान् । पूजक्लिशोर्वा ॥७०० ।। पूषः दिलशच निष्ठायामिड् वा भवति । पूतः पूतवान् । पवितः पवितवान् । क्लिश् विवाधने । क्लिष्ट: क्लिष्टवान् । क्लिशित: क्लिशितवान्। न हीश्रीदनबन्धवेटामपतिनिष्कुषोः ॥७०१॥ डीङ श्वयतेरीदनुबन्धस्य व वेटस्य निष्ठायां नेड् भवति अपतिनिष्कुषोः । श-हिंसा करना “प्रदन्तेरगुणे" सूत्र से 'इर्' होकर 'इरूरोरीरूरौ' सूत्र से दीर्घ होकर नकार को णकार होकर शीर्ण: शीर्णवान् बना है। __ ऐसे ही कृ गृ में कीर्ण: गीर्णः इत्यादि। उपर्युक्त धातुओं का निषेध क्यों किया है ? पू-पूर्त:पूर्तवान् बनेगा। मूर्च्छ से मूर्त:, मूर्तवान् बनेगा, मद से मत्त: “न डीश्वीदनुबंध" इत्यादि ७०१ सूत्र से इट् का निषेध होकर ख्यात: ध्यात: बनता है। निष्ठा प्रत्यय के परे इद के आने पर इन् का लोप हो जाता है ॥६९७ ॥ चोर्यते स्म---चोरित: चोरितवान् । कारित: कारितवान् । 'क्षुधिवसोश' सूत्र अनुवृत्ति में चला आ क्षुध और वस से निष्ठा प्रत्यय के आने पर इद् विकल्प से होता है ॥६९८ ॥ विमोहन अर्थ में लभ से निष्ठा प्रत्यय के आने पर विकल्प से इट् होता है ॥६९९ ।। क्षुधित: क्षुधितवान् । वस को संप्रसारण होकर उषित: उषितवान् । लुभ्--द्धि करना । लुभित: लुभितवान् । इट् के अभाव में-लुब्धः लुब्धवान्। पू और क्लिश, से निष्ठा में इट् विकल्प से होता है ॥७०० ॥ पूत: पूतवान्, पवित: पवितवान् । क्लिश-क्लिष्ट: क्लिष्वान् 'छशोच्च' सूत्र से श्, को होकर “तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्ग:" सूत्र से टवर्ग होकर क्लिष्टः बना है। इट में क्लिशित: क्लिशितवान्। पति, निष्कुष को छोड़कर डीङ् श्वि और ईकारानुबंध से निष्ठा प्रत्यय के आने पर विकल्प से इट् होता है 1१७०१ ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ कातन्त्ररूपमाला ल्वाद्योदनुबन्धाच्च ॥७०२ ॥ लूआदिभ्य ओदनुबन्धेभ्यश्च परस्य निष्ठातकारस्य नकारो भवति । डीङ् विहायसा गतौ । डोन: डीनवान्। टुओवि गतिवृद्धयोः । तद्दीर्घमन्त्यम् ॥७०३ ॥ तत्सम्प्रसारणमन्त्यं चेद्दीर्घमापद्यते । शूनः शूनवान्। दीप्तः दीप्तवान् । ओलजी ओलस्जी व्रीडायां । लज्जतेस्म अन्तरङ्गत्वात् चजो कमौ धुटि चानुबन्धयोरिति जकारस्य गकारः । लग्न: लग्नवान् । धुटि खनिसनिजनाम् ॥७०४ ॥ एषां पञ्चमान्तस्य आकारों भवति घुटि परे । खतिः । सातः जातः । जातवान् । वेट:- गुहू संवरणे । ढे ढलोपो दीर्घक्षोपधायाः । गुढः गूढवान् । दादस्य च ||७०५ ॥ दकारात्परस्य निष्ठातकारस्य दस्यं च नकारो भवति । आदनुबन्धाश्च ॥७०६ ॥ आकारादनुबन्धाद्धातोर्नेड् भवति निष्ठायां ञिमिदा स्नेहने। मिन्त्रः मित्रवान् । क्लिटू आर्दीभावे । क्लिक: क्लिन्नवान् | आतोऽन्तस्थासंयुक्तात् ॥७०७ ॥ अन्तस्थासंयुक्तादाकारात्परस्य निष्ठातकारस्य नकारो भवति । ग्लै । हर्षक्षये । ग्लान: ग्लानवान् । म्लै मात्रविनामे | म्लानः 1 श्रा पाके । श्राण। द्रा कुत्सायां गतौ । विद्राणः विद्राणवान् । लूज आदि से और ओकारानुबन्ध धातु से परे निष्ठा के तकार को नकार होता है ॥७०२ ॥ डीड्- आकाश में गमन करना। डीयते स्म इति डोन: डीनवान् हुओश्वि-गमन और बढ़ना । दुओ का अनुबन्ध है श्वित तवन्त् है । वह यदि संप्रसारण है तो अन्त्य में दीर्घ हो जाता है ॥७०३ ॥ fig उपधा सहित व को उ होकर दीर्घ होकर शूनः शूनवान् । दीप्तः दीप्तवान् । ओलजी – लज्जा करना । लज्जते स्म “चजो: कमी घुटि धानुबंधयोः " ५४२ सूत्र से जकार को गकार होकर लग्न: लग्नवान् । खन् सन् जन् के पंचम अक्षर को छुट् के आने पर आकार हो जाता है | ७०४ ॥ खात; खातवान्, सात: सातवान् । जात: जातवान् । गुहू — ढकना 'होढ:' १४६ सूत्र से ह् को दू होकर आगे के तवर्ग को ह होकर "ढे ढलोपो दीर्घचोपधायाः" सूत्र १४७ से ढकार का लोप होकर पूर्व को दीर्घ होकर गूढः गूढवान् । दकार से परे निष्ठा के तकार और दकार दोनों को नकार हो जाता है ॥७०५ ॥ आकार अनुबंध धातु से निष्ठा प्रत्यय आने पर इट् नहीं होता है ॥७०६ ॥ ञिमिदा - स्नेह करना | मित्र: मिन्नवान् । क्लिदू- गीला होना- क्लिन्न: क्लिन्नवान् । अन्तस्थ संयुक्त आकार से परे निष्ठा के तकार को नकार हो जाता है ॥७०७ ॥ ग्लै---- हर्ष क्षय होना, ग्लान: ग्लानवान् "संध्यक्षर धातु आकारांत हो जाते हैं" म्लै- म्लान होना — प्लान: श्रा – पकाना श्राण; द्रा-कुत्सित गमन करना — द्राणः विद्राणवान् इत्यादि । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त: ३४७ खश्चः कश्च ।।७०८॥ बचे: परस्य निष्ठातकारस्य नकारो भवति कश्चान्तादेशः। तृश्शू छेदने । सम्प्रसारणं । वृक्णः वृक्णवान्। क्षैशषिपचां मकवाः ॥७०९॥ एभ्यो निष्ठातकारस्य यथासंख्य मकवा भवन्ति । झै जै बै क्षये । क्षाम: क्षामवान् । शुष्क: । पक्कः । वनतितनोत्यादिप्रतिषिद्धेटां धुटि पञ्चमोऽच्चान्तः ।।७१०।।* बनतेस्तनोत्यादेः प्रतिषिद्धेटश पञ्चमस्य लोपो भवति धुट्यगुणे पञ्चमे च । आकारस्य अद् भवति । वन षण संभक्तौ । वत: 1 तत: । हत: । यत: । रत: 1 नत: । गत: । गतवान् । जपिवमिभ्यामिड् वा ॥७११॥ जपिवमिभ्यामिड् वा भवति निष्ठायां । जप विमानसे च । जप्त; जप्तवान् । जपित; जपितवान् । वान्तः । वान्तवान् वमित: वनितवान् । व्याभ्यां श्वसः ।।७१२॥ व्याभ्यां परस्य श्वस इड् वा भवति निष्ठायां । विश्वस्त: । विश्वसित: । विश्वस्तवान् विश्वसितवान् । आश्वस्त: आश्वस्तवान् । आश्वसित: आश्वसितवान् । भावादिकर्मणोर्वा ।।७१३॥ __ आदनुबन्धाद्धातो व आदिक्रियायाश्च इड् वा भवति निष्ठायां । व्रश्च् धातु से परे निष्ठा के तकार को नकार होता है और अन्त को ककार आदेश होता है ॥७०८॥ वधू-छेदना संप्रसारण हुआ है 'संयोगादेलोप:' से शकार का लोप होकर वृक्ण: वृक्णवान् । ? शुष और पच् से परे निष्ठा के तकार को क्रम से म, क और व आदेश होता है ॥७०९ ॥ ई जै पै—क्षय होना । क्षामः क्षामवान् । शुष्कः पक्वः 'चवर्गस्य किरसवणे' सूत्र से चवर्ग को कवर्ग हुआ है। वन तनु आदि से और इट् निषिद्ध धातु से धुट् अगुण और पंचम अक्षर प्रत्यय के आने पर पंचम अक्षर का लोप हो जाता है और आकार को अत् होता है ॥७१० ॥ वन षण-संभक्ति । वन् के नकार का लोप होकर वतः, तन् से ततः, हन से हतः यम् रम् नम् गम् से यत: रत: नत: गत: गतवान् बना। जप और वम् से परे निष्ठा के आने पर विकल्प से इट् होता है ॥७११ ॥ जप—मन में जपना, जप्त; जपित:, वम् वान्त: वमितः । वि आ से परे श्वस् धातु से निष्ठा के आने पर विकल्प से इट् होता है ॥७१२ ॥ विश्वस्त; विश्वसितः । आश्वस्त: आश्वसित: इत्यादि। आकारानुबंध धातु से निष्ठा के आने पर भाव और आदि क्रिया में विकल्प से इट् होता है ७१३॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ कातन्त्ररूपमाला शीपषिक्ष्विदिस्विदिमिदां निष्ठासेट् ॥७१४ ॥ ___शीङादीनां निष्ठा सेट् गुणी भवति । शयितः शयितवान् । पवितः पवितवान् । बिधुषा प्रागल्भ्ये । धर्षित: धर्षितवान् । प्रक्ष्वेदित: प्रदिगामस्येदिन, शानिन्न । प्रगति रविनः । मितान् । स्फायः स्फीः ।।७१५ ।।। स्फाय: स्फीरादेशो भवति निष्ठायो । स्फायी ओप्यायो वृद्धौ । स्फीत: स्फीतवान् । भावादिकर्मणोर्वोदुपधात् ।।७१६ ॥ उदुपधाद्धातोर्निष्ठा सेट् गुणी भवति वा भावे आदिक्रियायाश्च । द्योतितमनेन द्युतितमनेन । प्रद्योतितः प्रद्युतितः। यपि चादो जग्धिः ।।७१७॥ तकारादौ अगुणे यपि च परे अदेग्धिर्भवति जग्धं अद्यते स्म निष्ठाक्तः । द्यतिस्यमास्थां त्यगुणे ॥७१८ ॥ एषां तकारादावगुणे प्रत्यये परे इड् भवति । दो अवखण्डने । दितवान् । अवसित; । माङ् माने । मितः । स्थित: स्थितवान् । वा छाशोः ॥७१९॥ छाशोस्तकारादावगुणे इड् वा भवति । छो छेदने । अवच्छित: अवच्छात: । शो तनूकरणे निशित: निशातः । __ शीङ् पूछ धृष् क्ष्विद् खिद् मिद् धातु को निष्ठा के आने पर इट् सहित को गुण होता है ॥७१४ ॥ शी इन गुण होकर ऑयत: शयितवान् । पवितः धर्षितः प्रक्ष्वेदितः, धृष्टः, प्रविण्णः, प्रस्वेदित; प्रस्वित्र, प्रमेदितः प्रमिन्तः। निष्ठा के आने पर स्फाय को 'स्फी' आदेश होता है ॥७१५ ॥ स्फायी ओप्यायी-वृद्धिंगत होना । स्फीत: स्फीतवान् । उकार उपधावाली धातु से भाव और आदि क्रिया में निष्ठा के आने पर इट सहित को गुण विकल्प से होता है ।।७१६ ॥ द्युत् उकार उपधावाली धातु है। द्योतितं द्युतितम् । प्रद्योतित: प्रद्युतितः । तकारादि अगुण और यप् प्रत्यय के आने पर अद् को जग्ध होता है ॥७१७ ॥ निष्ठा के तकार को ध होकर जग्धः जग्धवान् । दो, षो, माङ् और स्था से नकारादि अगुण प्रत्यय के आने पर इट् होता है ।१७१८ ॥ दित: सित:, मित: स्थित: स्थितवान् । छो और शो धातु से तकारादि अगुण विभक्ति के आने पर विकल्प से इट् होता है ॥७१९ ॥ छो–छेदना, अवच्छित: अवच्छात:, शो—पतला करना । निशित: निशातः । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त: दधातेर्हिः ||७२० ॥ दधातेर्हिर्भवति तकारादावगुणे । अभिहितः । अभिहितवान् । स्वरान्तादुपसर्गात्तः ॥७२१ ॥ स्वरान्तादुपसर्गात्परस्य दासंज्ञकस्य तो भवति तकारादावगुणे । प्रत्तं प्रत्तवान् । नित्तं नित्तवान् । दद्दोऽथः ॥ ७२२ ॥ अधेटो दासंज्ञकस्य दद्भभवति तकारादावगुणे । दत्तः दत्तवान् । दत्त्वा दत्तिः । धाव् गति शुद्धयोः । छ्वो: शूठौ । अवर्णादूठो वृद्धिः ||७२३ ॥ अवर्णात्परस्य ऊठो वृद्धिर्भवति । धौतः । आदिकर्मणि क्तः कर्त्तरि च ॥७२४ ॥ आदिक्रियाणां कर्त्तरि च क्तो भवेदिति वेदितव्यः । प्रकृतः कटं भवान् । प्रकृंतः कटो भवता । सुप्तो भवान् । प्रसुप्तं भवता । प्रशब्दः आदिक्रियाद्योतकः । ३४९ गत्यर्थाकर्मकश्लिषशीस्थासवसजनरुहजीर्यतिभ्यश्च ॥७२५ ।। गत्यर्थेभ्य: अकर्मकेभ्यः श्लिषादिभ्यश्च कर्त्तरि क्तो भवति । गतो ग्रामं भवान् । ग्रामो भवता प्राप्तः । ग्रामं भवान् प्राप्तः । प्राप्तो ग्रामो भवता । गतोऽयं गतमनेन । प्राप्तोऽयं प्राप्तमनेन । अकर्मकात् । शयितो भवान् शयितं भवता । श्लिषादयः सोपसर्गाः सकर्मका: आश्लिष्टो गुरुं भवान् । आश्लिष्टो गुरुर्भवता 'धा' धातु को 'हि' आदेश हो जाता है ।।७२० ॥ तकारादि अगुण विभक्ति के आने पर अभिहितः अभिहितवान् । स्वरांत उपसर्ग से परे दा संज्ञक धातु को तकारादि अगुण विभक्ति के आने पर 'त्' हो जाता है । ७२९ ॥ प्र दात = प्रत्तं प्रत्तवान् नित्तं नित्तवान् । धेट् को छोड़कर दा संज्ञक को तकारादि अगुण विभक्ति के आने पर 'इद्' आदेश हो जाता है ॥ १२२ ॥ धा ॐ = धौतः धौतवान् । दत्तः दत्तवान् । दत्त्वा दत्तिः । धाव्-गमन करना शुद्ध होना । धाव् त 'छ्वोः शूठौ पश्चमे च' ६६१ सूत्र से व् को ऊ होकर अवर्ण से परे 'ऊ' को वृद्धि हो जाती है ॥७२३ ॥ आदिक्रिया और कर्ता में 'क्त' प्रत्यय होता है ॥७२४ ॥ प्रकृतः कटं भवान् — आपने चटाई बनाना आरम्भ किया। प्रकृतः कटः भवता- आपने चटाई बनाई। सुप्तः भवान् प्रसुप्तं भवता । यहाँ 'प्र' शब्द आदि क्रिया का द्योतक है । गत्यर्थ, अकर्मक और श्लिषादि धातु से कर्ता में 'क्त' प्रत्यय होता है ॥७२५ ॥ गतः प्राप्तः भवान् ग्रामं प्राप्तः भवता ग्रामः प्राप्तः अयं गतः अनेन गतम् । इत्यादि । अकर्मक Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० कातन्त्ररूपमाला श्लिप आलिङ्गने। अधियित: खट्वां भवान् । अधिशयिता खट्वा भवता । उपस्थितो गुरुं भवान् । उपस्थितो गुरुर्भवता । उपसितो गुरुं भवान् । उपासितो गुरुर्भवता । वस निवासे । अनृषितो गुरुं भवान्। अनूषितो गुरुर्भवता । अनुजातो बुधं चन्द्रमा: अनुजातो बुधश्चन्द्रमसा 1 आरूढो वृक्ष कपि: आरूढो वृक्ष: कपिना । जृषुझ्षु वयोहानौ । अनुजीर्णो वृषली भन । अनुजीर्णा कृपली भजता क्तोऽधिकरणे च ध्रौव्यगतिप्रत्यवसादनार्थेभ्यः ॥७२६ ॥ धुवस्य भावो धौव्यं प्रत्यवसादनं भोजनं । धौव्यार्थेभ्यः गत्यर्थेभ्य: प्रत्यवसादनार्थेभ्यश्च तो भवति अधिकरणे इदमेषामासितं । इदमासितमेभिः । अत्रासितोऽयं । इदमेषां यातं । इदं । तैर्यातं । ग्रामं ते याताः । इदमेषां भुक्तं । इदं तैर्युक्तं । ओदनं ते भुक्ताः । इदमेषां पीतं । पयस्तै: पीतं । पयस्ते पीता; । पीत पयः । ज्यनुबन्धमतिबुद्धिपूजार्थेभ्यः क्तः ॥७२७ ॥ मतिरिच्छा बुद्धिर्ज्ञानं पूजा सत्कार: । ज्यनुबन्धमतिबुद्धिपूजार्थेभ्य: क्तो भवति वर्तमानकाले भावे कर्मणि कर्तरि च यथासम्भवं । जिमिदा स्नेहने। मिन्नः । स्वित्रः । दिवण्णः । राजा मत: । सतामिष्ट: बुद्धौ राज्ञां बुद्धः । राज्ञा ज्ञात: । पूज पूजायां । राज्ञां पूजितः । सतामर्चितः । नपुंसके भावे क्तः ।।७२८ ॥ भावे तो भवति नपुंसके । उपासितमत्र । सुजल्पितं । कुमारस्य शक्ति । आस् उपवेशने । आसितं पुत्रस्य एधित । युट् च ।।७२९॥ भावे नपुंसके युट् च भवति । भवनं । पचनं । यजनं । वसनं । देवनं । तोदनं । रोदनं । करणं । मनन । इत्यादि सर्वमवगन्तव्यं । से-शयितः भवान्, शयितं भवता । श्लिषादि धातु उपसर्ग सहित सकर्मक कहलाती हैं । आश्लिष्टः गुरुं भवान्, आश्लिष्ट: गुरु: भवता इत्यादि । धौव्यार्थक, गत्यर्थक और भोजनार्थक प्रत्यवसादनार्थक धातु से अधिकरण अर्थ में 'क्त' प्रत्यय होता है ।।७२६ ॥ ध्रुव के भाव को धौव्य कहते हैं। भोजन को प्रत्यवसादन कहते हैं। आस् धातु से—आसितं, इदं एषां आसितं इदं आसितं एभिः अर्थात् यह यहाँ बैठा है। इत्यादि।। जि अनुबंधधातु से, मत्तिबुद्धि पूजार्थ वाले धातु से 'क्त' प्रत्यय होता है ॥७२७ ॥ यथा सम्भव वर्तमान काल में भाव, कर्म और कर्ता में क्त प्रत्यय होता है । मति—इच्छा, बुद्धि-ज्ञानं, पूजा-सत्कार । जिमिदा-स्नेह करना । 'दाद्दस्य च' ७०५ सूत्र से तकार के आने पर दकार और तकार दोनों को नकार हो जाता है। मिन्नः, स्विनः शिवण्णः, मनुङ्-मत: ७१० सूत्र से पंचम अक्षर का लोप हुआ है । इषु-इच्छाया इष्टः, बुध-बुद्धः पूजित: अर्चित: । सताम् अर्चित: सज्जनों से पूजा गया। नपंसकलिंग में भाव में 'क्त' प्रत्यय होता है ॥७२८ ॥ आस्-उपासितम् अत्र । सुजल्पितम् । शयितं कुमारस्य, कुमार का सोना। एधितम् इत्यादि । भाव में नपुंसक लिंग में 'युद' भी होता है ।।७२९ ।। 'युवुलामनाकान्ता:' ५५९३ सूत्र से यु को 'अन' आदेश होकर अन विकरण और 'अनिचविकरणे' से गुण होकर— भवनं पचनं यजनं इत्यादि । ऐसे ही सभी में समझ लेना : Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिष्वा क्यः ॥७३० ॥ आक्वेः कोऽर्थ: क्विपमभिव्याप्य इत्यर्थः । तच्छीलादिषु कर्तृषु अत: परे केचित्प्रत्यया वेदितव्याः । तृन् ।।७३१॥ तच्छीलादिषु धातोस्तृन् भवति वदिता जनापवादान मूर्खः । मण्डयित्तार: श्राविष्ठायिना: । अधीतृ ज्ञानं । भाज्यलुकृञ्भूसहिरुचिकृतिवृधिचरिप्रजनापत्रपनामिष्णुच् ।।७३२॥ एभ्यः इष्णुच् भवति तच्छीलादिषु । श्राजिष्णुः । अलरिष्णुः । भविष्णुः । सहिष्णुः । रोचिष्णुः वतिष्णुः । वर्धिष्णुः । चरिष्णुः । प्रजनिष्णु: । त्रपूर्ण लज्जायां । अपत्रपिष्णुः । इनन्तेभ्य: । धारयिष्णुः । मदिपतिपचामुदि ॥७३३॥ उद्युपपदेभ्य एभ्य इष्णुच्भवति तच्छीलादिषु । उन्मदिष्णुः । उत्पतिष्णुः । उत्पचिष्णुः । जिभुवोः ष्णुक् ।।७३४ ।। आभ्यां ष्णुग्भवति तच्छीलादिषु । जिष्णुः । भूष्णुः । धिमण्डिचलिशब्दार्थेभ्यो युः ॥७३५ ॥ एभ्यो युर्भवति तच्छीलादिषु । कुप क्रुध रुष रोपे । कोपन: । क्रोधन: । रोषणः । एते क्रुध्याः । मण्ड्य र्थात् । मडि भूषायां । मण्डनः । भूष अलङ्कारे । भूषणः । चल्पर्थात् । चल कल्पने । चलनः । दुवे कपि चलने । वेपन: । कम्पन: 1 शब्दार्थात् । खण: भाषण; । क्विप् पर्यंत तच्छील, तद्धर्म, तत्साधुकारि अर्थ में प्रत्यय होते हैं ।१७३० ॥ सूत्र में 'आ स्वे:' का क्या अर्थ है ? विवप् को व्याप्त करके है अर्थात् इससे आगे तत्स्वभाव आदि कर्ता अर्थ में कुछ प्रत्यय जानना चाहिये। तत्स्वभाव आदि अर्थ में धातु से तन् प्रत्यय होता है ७३१ ।। बदिता, मुण्डयिता, अधीतृ ज्ञानं इत्यादि । भ्राजि, अलंकृ, भू सहि रुचि वृति वृधि चरि प्रजन, अपत्रप और इन्नत से तत्स्वभाव आदि अर्थ में इष्णुच् प्रत्यय होता है ॥७३२ ।। होकर भ्राज् इष्णु = भ्राजिष्णुः, अलंकरिष्णुः भविष्णुः सहिष्णु: रोचिष्णुः वर्तिष्णु: वर्धिष्णु: चरिष्णुः प्रजनिष्णुः अपत्रपिष्णुः । इनंत से-धारयिष्णुः कारयिष्णुः आदि । उत् उपपद होने पर मद, पत, पचधातु से इष्णच प्रत्यय होता है ॥७३३ ॥ तत्स्वभाव आदि अर्थ में । उन्मदिष्णु: उत्पतिष्ण: उत्पचिष्णुः ।। तत्स्वभाव आदि अर्थ में जि और भू से 'ष्णुक् प्रत्यय होता है ॥७३४ ॥ जिष्णु: भूष्णुः । तत्स्वभाव आदि अर्थ में क्रुध, मण्डु चल, शब्द इन अर्थ वाले धातु से 'यु' प्रत्यय होता है ॥७३५ ॥ 'युवुलामनाकान्ताः' ५५९ सूत्र से यु को 'अन' होकर रूप बनेंगे। क्रुध् कुप् रूप रोष अर्थ में हैं कोपन: क्रोधन: रोषणः । मण्डन अर्थ में-मडि-भूषायां-मण्डन:, भूष-अलंकारे भूषणः चल अर्थ में—चन कंपने-चलनः, वेपनः, कम्पनः । शब्द अर्थ से...रवण: भाषण: । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ कातन्त्ररूपमाला रुचादेश्च व्यञ्जनादेः ॥७३६ ॥ व्यञ्जनादेश्च रुचादेर्गणात् युर्भवति तच्छीलादिषु । रोचनः । लोचनः । वर्तन: । वर्द्धनः । दोपन: । ततो यातेर्वरः ॥७३७॥ ताप्रायिवान्ताद्याधरी भवति हादिषु । त्यगिति इति यलोपश्च । यायावरः । कसिपिसिभासीशस्थाप्रमदां च ॥७३८॥ एषां वरो भवति तच्छीलादिषु । घोषवत्योश्च कृति ।।७३९॥ घोषवति तौ च कृति नेड् भवति कस्वरः । पेस्वरः । भास्वर:। ईश्वरः । स्थावरः । प्रमद्वरः । सनन्ताशंसिभिक्षामुः ॥७४०॥ सनन्तस्याशंसेभिक्षेश्च उर्भवति तच्छीलादिषु । बुभूषुः । पिपासुः । बुभुक्षुः । चिकीषुः । शंस-स्तुती च। आशंसुः । भिक्ष याञ्चायां । भिक्षुः । . उणादयो भूतेऽपि ।।७४१ ॥ उणादयः प्रत्यया वर्तमाने भूतेऽपि भवन्ति । कृवापाजिमीस्वदिसाध्यशूदुषणिजनिचरिचटिभ्य उण् ।७४२ ।। एभ्यो धातुभ्य उण् प्रत्ययो भवति । णकार इद्वद्भाव: । करोतीति कारु वा गतिगन्धनयो: । वातीति वायुः । पायुः जायुः । मी हिंसायां । मायुः स्वद आस्वादने । स्वादुः । साथ् संसिद्धौ साध्यतीति साधुः । व्यञ्जनादि और रुचादि गण से तत्स्वभाव आदि अर्थ में 'यु' प्रत्यय होता है ।१७३६ ॥ रोचन: लोचन: वर्तन: वर्द्धन: दीपन: इत्यादि। चेक्रीयितान्त से तत्स्वभावादि अर्थ यात् से वर प्रत्यय होता है ।।७३७ ॥ यायावरः । 'यस्यानिनि' इत्यादि सूत्र से यकार का लोप हुआ है । कस् पिस् भास् ईश स्था और प्रमद से तत्स्वभावादि अर्थ में 'वर' प्रत्यय होता है ।।७३८ ॥ घोषवान् से परे कृदन्त प्रत्यय के आने पर इद् नहीं होता है ||७३९ ॥ कस्वर: पस्वर: भास्वर: ईश्वर: स्थावर: प्रमदूरः । सन्नत, आशंसि और भिक्षा से तत्स्वभावादि अर्थ में 'उ' प्रत्यय होता है ॥७४० ॥ भवितुम् इच्छु: बुभूषुः सब सनत के पिछले सूत्र लगेंगे। पिपासु: बुभुक्षुः चिकीर्षुः । शंस्-स्तुति अर्थ में है आशंसुः भिक्ष-याचा करना भिक्षुः। उण आदि प्रत्यय वर्तमान और भूत में भी होते हैं ॥७४१ ॥ कृ, वा, पा, जि, मी, स्वदि साधि अशूङ् ह, षणि, जनि, चरि और चट् से 'उण' प्रत्यय होता है ॥७४२ ॥ णकारानुबंध इद् वत् भाव के लिये है । करोति इति कारु: वातीति वायुः पायुः जायु: मायु: स्वादुः साधु: अश्नुः, दारु: सानुः जानुः चारु: चादुः । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३५३ अशू व्याप्तौ । अश्नुते इति अश्नुः । दृ कि विदारणे । दृणातौति दारुः । पणु दाने । सनोतीति । सानुः । अनि प्रादुर्भाव । जायत इहि जानु । यर गतिमामयः । चरतीति चारु: । चट विगतौ । चटतीति चाटुः । 'सर्वधातुभ्य अस्' भनु ज्ञाने । स गतौ । तिज निशाने । रुजो भङ्गे । मन: । सर: । तेज: । रोगः। भविष्यति गम्यादयः ।।७४३ ।।। औणादिका गभीत्येवमादयः भविष्यति भवन्ति । भविष्यत्कालवृत्तिभ्यः गमादिभ्यः इनादयः स्युरित्यर्थः। गमेरिन्णिनौ च ॥७४४ ॥ गम्लु गतावित्येतस्माद्धातोरिन्णिनौ भवतः । ग्रामं गमिष्यतीति ग्रामं गमी । ग्राम गामी । भवतेश्च ॥७४५ ।। भू सत्तायां इत्येतस्माद्धातोरिन्गिनौ भवत: भविष्यकाले । भविष्यतीति भवी भावी। इत्यादि सर्वमुणादिषु वेदितव्यम् । वुण्तुमौ क्रियायां क्रियार्थायाम् ॥७४६ ।। क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे धातोर्पण्तुमौ भवतः भविष्यदर्थे वर्तमानात् । पाचको व्रजति । पक्तुं व्रजति । पक्ष्यामि इति व्रजतीत्यर्थ: । एवं गन्तुं दातुं पातुं धरितुं तरितुं योक्तुं भोक्तुं स्रष्टुं द्रष्टुं प्रष्टुं । सहिवहोरोदवर्णस्य ।।७४७ ।। सहिवहोरवर्णस्य ओत्वं भवति धुटि परे। सोढुं । बोढुं । 'सर्वधातुभ्यः अस्' इस सूत्र से सभी धातु से अस् प्रत्यय होता है। मनुज्ञाने—मनस् = मनः, स्-सरस् = सर; तिज—निशाने—तेजस् = तेजः, रुज से रोगः । औणादिक गमी आदि भविष्यत् काल में होते हैं ॥७४३ ।। भविष्यत्कालवर्ती गमादि से इन् आदि प्रत्यय होते हैं। गम् धातु से इन् णिन् प्रत्यय होते हैं ।।७४४ ॥ ग्रामं गमिष्यति इति ममी, गामी, ग्रामं गमी । इन् गमिन् णिन् से गामिन् बना है। भू धातु से भविष्यकाल में इन् णिन् प्रत्यय होते हैं ७४५ ॥ भविष्यति इति भविन भाविन् । भवी भावी । उणादि प्रत्ययों में सभी को समझ लेना चाहिये। क्रिया और क्रिया का अर्थ उपपद में होने पर भविष्यत् अर्थ में वर्तमान धातु से 'वुण' और 'तुम्' प्रत्यय होते हैं ।।७४६ ॥ पच् 'युवुलामनाकान्ता' सूत्र ५५९ से वुण को 'अक' होकर णानुबंध से वृद्धि होकर पाचकः कारक: इत्यादिक बनेंगे तुम् प्रत्यय से—पहुं व्रजति अर्थात् पकायेगा इसलिये जाता है । गन्तुं दातुं पातुं आदि बनेंगे। सह वह के अवर्ण को धुट के आने पर 'ओ' हो जाता है ॥७४७ ॥ 'होढः' सूत्र से ह को द होकर तुं को दूं होकर मोढुं वोढुं बना है । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ कातन्त्ररूपमाला शन्त्रानौ स्यसहितौ शेषे च ।। ७४८ ॥ क्रियार्थायां क्रियायामुपपदे भविष्यदर्थे वर्तमानाद्धतो: स्थेन सहितौ शवानौ शानशौ भवतः । करिष्यामि इति व्रजति कटं करिष्यन् व्रजति । कटं करिष्यमाणो व्रजति । शेषे च करिष्यतीति करिष्यन् करिष्यमाणः । यक्ष्यन् यक्ष्यमाणः । पदरुजविशस्पृशो वा घञ् ।। ७४९ ॥ एषां घञ् भवति वा । पादः । वेशः । स्पर्शः । उच समवाये औक: । भावे ॥७५० ।। सर्वस्माद्धातोर्घञ् भवति । पाकः । यागः । योगः । त्यज हानौ । त्यागः । भोगः । भागः । पार: । भावः । इत्यादि ॥ ।। ७५ ।। इन्धेः पञ्चमस्य लोपो भवति भावकरणयो– विहिते घत्रि परे । ञिइन्धी दीप्तौ । इन्धनं एधः ।। रञ्जेर्भावकरणयोः ।।७५२ ।। रञ्जेर्भावकरणविहिते त्रि परे पञ्चमो लोप्यो भवति । रञ्ज सगे । रञ्जनं रागः । उपसर्गादसुदुभ्यां लभेः प्राग् भात् खल्घञोः ॥७५३ ॥ सुदुर्वर्जितादुपसर्गात्परस्य लभेर्भात् प्राङ् मकारागमो भवति खल्घञोः परतः । क्रिया है प्रयोजन जिसका ऐसा जो क्रियावाचक पद वह उपपद में होने पर भविष्यत् अर्थ में वर्तमान धातु से 'स्य' सहित शन्तृङ् और आनश् प्रत्यय होते हैं ||७४८ ॥ शन्तृङ् का अन्तु और आनश का आन रहता है । कृ स्य अन्त् 'अन् विकरण: कर्तरि से अनू होकर 'अनि च विकरणे' से गुण होकर करिष्यन्त् बना है असंध्यक्षरयोरस्य तौतल्लोपश्च २६' सूत्र से ष्य के अकार का लोप हुआ है । पुनः लिंग संज्ञा होकर सिविभक्ति में करिष्यन् बना है। 'आन्मोन्त आने' सूत्र ४९८ से आन के आने पर आत्मने पद में अकारांत से मकार का आगम होता है अत: 'करिष्यमाण:' बना । कटं करिष्यमाणः वजति — कट को बनाएगा इसलिये जाता है। यज् से — यक्ष्यन् यक्ष्यमाणः । पद रुज विश् और स्पृश से विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है ॥ ७४९ ॥ पाद: रोग: वेश: स्पर्श: उच- समवाय अर्थ में है उससे ओक: बनता है I सभी धातु पच् से पाक: योग: भोगः इत्यादि । से भाव में घञ् होता है ||७५० ॥ भाव और करण में घञ् प्रत्यय के आने पर इन्धू के पञ्चम अक्षर का लोप हो जाता है ॥७५१ ॥ ञिइन्धी- दीप्त होना इन्धनं– एधः । 'से भाव करण में घञ् के आने पर पंचम का लोप हो जाता है ॥७५२ ॥ रञ्ज रञ्ज – रंगना रञ्जनं— रागः । सुदुर् को छोड़कर अन्य उपसर्ग से परे खल् और घञ् प्रत्यय के आने पर लभ के 'भ' से पहले मकार का आगम हो जाता है ॥७५३ ॥ डुलभष्- - प्राप्त करना । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३५५ उपसर्गाणां घजि बहुलम् ।।७५४।। उपसर्गाणां दीघों भवति बहुलं घजि परे डुलभ प्राप्तौं । उपलम्भ: उपालम्भः । प्रलम्भः पालम्भ: । असुदुर्व्यामिति कि । सुलभ: दुर्लभः ।। अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्।।७५५ ॥ कर्तृवर्जिते कारके भावे च संज्ञायां घञ् भवति । दीयते अस्मादिति दाय: । चीयतेऽस्मादिति चाय: । एवं विधातः । अस–क्षेपणे प्रास्यते अस्मादिति । प्रास: । आहारः । विहरन्यस्मिन्निति वा विहारः । भुज्यते इति भोगः। स्वरवदगमिग्रहामल्॥७५६ ॥ स्वरान्तादमिग्रहिभ्यश्च अल् भवति भावे । भूयते भवनं वा भवः । भयनं भयः । जय जयः । वरणं वरः । दरणं दरः । गमनं गम: । ग्रहणं ग्रहः ।। ट्वनुबन्धादथुः ॥७५७ ।। स्वमुबार पुदि । दुई दिने । वेपथुः । दुदु उपतापे । दवथुः । टुवेपृ । वेपनं वेपथुः । टुणदि समृद्धौ । नन्दथुः टुवम् उद्गिरणे । वमथुः । टु ओश्वि गतिवृदयोः । श्वयथुः । ड्वनुबन्धात्रिमक्तेन निर्वृत्ते ।।७५८ ॥ ड्वनुबन्धाद्धातोस्तेमग्भवति तेन धात्वर्थेन निर्वृत्ते । पाकेन निर्वृतं पवित्रमं । एवं कारणेन निर्वृत्तं कृत्रिम। याचिविछिपछियजिस्वपिरक्षियतां नङ्॥७५९ ॥ एभ्यो नङ् भवति भावे। याच्चा। छ्वोः शूठौ इति शकारः। विश्नः । प्रश्नः । यज्ञ: । स्वप्नः । रक्षण: । यती प्रयत्ले । प्रयत्म: । घञ् प्रत्यय के आने पर बहुलता से उपसर्ग को दीर्घ हो जाता है ।।७५४ ॥ उपलम्भः उपालम्भः प्रलम्भः प्रालम्भः । सुषर् को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? सुलभ: दुर्लभः । इनमें मकार आगम और दीर्घ नहीं हुआ है। कर्त वर्जित कारक और भाव में संज्ञा अर्थ में घब् प्रत्यय होता है ॥७५५ ॥ दीयते अस्मात् इति दाय: चीयते-चाय: हन् से विधातः अस्-प्रास: हू-आहारः विहार: भोग; इत्यादि। स्वरांत से और वु, गम, ग्रह धातु से भाव में 'अल्' प्रत्यय होता है ॥७५६ ॥ भूयते भवनं वा भव:, भय: जयन-जय: वर: दरः गमः ग्रहः । टु अनुबन्ध धातु से भाव में 'अथु' प्रत्यय होता है ॥७५७ ॥ टु वेष-वेपथुः टुदु—उपतापे—दवथुः कंपशुः टुणदि-समृद्धौ-नंदथुः टुवमु-उद्गिरणेवमथुः टुओश्चि, गति वृद्धयोः वयथुः । इ अनुबंध धातु से निवृत्त अर्थ में "त्रिमा प्रत्यय होता है ॥७५८ ॥ पाकेन निवृत्तः पवित्रम 'चवर्गस्यकिरसवर्णे' से क् हुआ है। कारकेष्ण निवृत्त: कृत्रिम बना । याच विछ प्रच्छ यज् स्वप् रक्ष और यत् से भाव में 'न' होता है ।७५९ ॥ याचा वन 'छ्वौः शूठो पंचमे च' सूत्र ६६१ से छकार को शकार होकर विश्नः प्रश्न: यज् से न को ब होकर 'जबोज:' नियम से यज्ञः स्वप्नः रक्ष्णः प्रयत्नः । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ कातन्त्ररूपमाला उपसर्गे दः किः ॥७६०॥ उपसर्गे उपपदे दासंज्ञकात्किर्भवति भावे । आलोपोऽसार्वधातुके इत्याकारलोप: । आदिः । आधिः । व्याधिः । सन्धिः । निधिः। कर्मण्यधिकरणे च ॥७६१ ॥ कर्मण्युपपदे दासंज्ञकात्किर्भवति अधिकरणे च । बाला धीयन्तेऽस्मित्रिति बालधिः । एवं जलधिः । वारिधि: । अब्धिः । वार्धि: । अम्भोधिः । कर्मव्यतिहारे णच खियाम्॥७६२ ।। क्रियाव्यतिहारे वर्तमानाद्धातो: भावे णच् भवति स्त्रियां । तत्र न वृध्यागम: किन्तु वृद्धिरादौ सणि इति वृद्धिः । क्रियाव्यतिहारे का आह्वाने रोदने च । पुन: पुन: व्यवक्रोशनं व्यवक्रोश: । व्यवक्रोश एवं व्यावक्रोशी । हसि विहसने । पुन: पुन: व्यवहस्यते व्यवहासः । व्यवहास एव व्यवहासी । अभिविधौ भावे इनण्॥७६३॥ अभिविधिरिति कोऽर्थः । अभिव्याप्ते: साकल्येन क्रियासंबन्ध इत्यर्थः । अभिविधौ गम्यमाने धातोरिनण् भवति भावे स्वार्थे अण् भवति । कुट कौटिल्ये । संकुटनं संकोटिनं । संकोटिनमेव सांकोटिनं वर्तते । एवं सांराविणम् । सांहासिनं वर्तते । षानुबन्धभिदादिभ्यस्त्वङ्॥७६४॥ उपसर्ग उपपद में होने पर दा संज्ञक से भाव में 'कि' प्रत्यय होता है ॥७६० ॥ 'आलोपोऽसार्वधातुके' सूत्र से आकार का लोप हो गया आ ‘दा' इ= आदि: आधि: वि आ धा इ=व्याधिः सन्धि: निधि: 1 कर्म उपपद में होने पर दा संज्ञक से अधिकरण अर्थ में 'कि' प्रत्यय होता है ।।७६१ ॥ बाला धीयते अस्मिन् इति बालधि: जलधि: वारिधि: अप् धा इ= अब्धि: वार्षिः अम्भोधि: इत्यादि। क्रिया व्यतिहार अर्थ में वर्तमान धातु से भाव में स्त्रीलिंग में 'णच्' प्रत्यय होता है ॥७६२ ॥ उसमें वृद्धि का आगम नहीं होता है किन्तु वृद्धिरादौसणे' सूत्र से वृद्धि होती है क्रु” धातु-आह्वानन करने और रोने अर्थ में है। पुनः पुनः व्यवक्रोशनं व्यवक्रोश: । व्यवक्रोश एवं व्यावक्रोशी । हस हंसना पुनः पुन: व्यवहस्यते व्यवहास: व्यवहास एव व्यावहासी बना है। अभिविधि अर्थ में धातु से भाव में इनण् और स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है ॥७६३ ॥ अभिविधि किसे कहते हैं ? अभिव्याप्ति को कहते हैं अभिव्याप्ति से संपूर्णतया क्रिया का संबंध होना । कुटकौटिल्ये संकुटनं---संकोटिनं, संकोटिनमेव-सांकोटिनं संराव—साराविणं संहास से-साहासिन। षानुबंध से और भिदादि से भाव में स्त्रीलिंग में 'अङ्' प्रत्यय होता है ॥७६४ ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त: ३५७ षानुबन्धेभ्योभिदादिभ्यश्च भावे अझ् भवति स्त्रियां। कृप कृपायां। कृप सामथ्ये । कृपा । व्यथदुःखभयचलनयोः । व्यथा । व्यध ताडने व्यधा । छिदिर् छिदा । गुहू संवरणे । गुहा । स्मृह ईप्सायां स्पहाः। आतश्चोपसर्गे ॥७६५॥ उपसर्गे उपपदे आकारान्ताद्धातोरङ्भवति स्त्रियां । सन्ध्या । संस्था । उपधा । अन्तर्धा । रोगाख्यायां खुत्र ॥७६६ ॥ रोगाख्यायां धातोर्वञ् भवति स्त्रियां । प्रवाहिका। प्रछर्दिका । संज्ञायां च ॥७६७ ॥ संज्ञायाञ्च धातोर्दुञ् भवति स्त्रियां । भञ्जो आमर्दने । उद्दालपुष्पाणि भज्यन्ते यस्यां क्रीडायां सा उद्दालपुष्पभञ्जिका। एवं शालपुष्पप्रवाहिका।। प्रश्नाख्यानयोरिज्युञ् च वा॥७६८ ॥ प्रश्ने आख्याने अवगम्यमाने धातोरिन् भवति वुश्च भवति । वाग्रहणात् यथाप्राप्तं च । त्वं का कारिमकाषीं: कां कारिकां का क्रियां का कृत्यां । अहं सर्वां कारिमकार्ष सर्वा कारिका सर्वां क्रियां सर्वा कृत्यां। एवं त्वं कां कारणामकार्षीः । त्वं का पाचिकामपाक्षी; । कां पक्ति । नव्यन्याक्रोशे ॥७६९॥ नयुपपदे आक्रोशे गम्यमाने धातोरनिर्भवति। अकरणिस्ते वृषल भूयात् । जीव प्राणधारणे। एवमजीवनिः । जन जनने अजननी: अप्राणनीः । कृप—कृपा और सामर्थ्य में है कृप् अ 'स्त्रियामादा' से 'आ' प्रत्यय होकर कृपा, व्यथा, व्यधा, विदा भिदा, गुहा ! स्मृह—स्पृहा। उपसर्ग उपपद में रहने पर आकारांत धातु से स्त्रीलिंगा में 'अङ् होता है ॥७६५ ॥ संध्या, संस्था, अंतर्धा, उपधा आदि । रोग वाचक धातु से स्त्रीलिंग में वुजू होता है ॥७६६ ॥ प्रवाहिका, प्रछर्दिका। संज्ञा अर्थ में धातु से स्त्रीलिंग में वुञ् प्रत्यय होता है ॥७६७ ।। बुञ् को अक होकर "उद्दालपुष्प तोड़े जाते हैं जिस क्रीड़ा में वह उद्दालपुष्य भञ्जिका है" भ-आमर्दन करना । शालपुष्प प्रवाहिका । प्रश्न और आख्यान अर्थ में धातु से इन और उञ् प्रत्यय होते हैं १७६८ ॥ वा ग्रहण करने से यथाप्राप्त होते हैं । कृ से इञ् होकर कारि बन कर रूप चलेंगे वुञ् को अक होकर कारिका बनेंगे। त्वं कां कारिमकार्षी: कां कारिका का क्रियां का कृत्यां । तुमने क्या कार्य किया, किस कार्य को, क्रिया को, किस कृत्य को किया । ऐसे मैने सभी कार्य किये इत्यादि । नब् उपपद में होने पर आक्रोश अर्थ में धातु से 'अनि' प्रत्यय होता है ॥७६९ ॥ अकरणि: जीव धातु से--अजीवनि: अजननि: अप्राणनिः । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ युट्च ||७७० ॥ नपुंसके भावे युट् भवति । गमनं । इस हसने । हसनं । शयनं । यजनं । करणाधिकरणयोश्च ।। ७७९ ।। करणेऽधिकरणे च युट् भवति । ओवश्च च्छेदने इध्मानि प्रकर्षेण वृश्च्यन्ते अनेन अस्मिन्निति वा इध्मप्रव्रश्चनः । गौ: दुह्यते अनयाऽस्यामिति गोदोहनी सत्तूनि धीयन्ते सक्तुधानी स्थानं । आसनं । यानं । यजनं । कातन्त्ररूपमाला करणाधिकरणयोश्च पुंसि संज्ञायां घो भवति । पुंसि संज्ञायां धः ॥७७२ ॥ छादेर्घे स्मन्त्रन्क्विप्सु च ॥७७३ ॥ छादे: ह्रस्वो भवति इस् इन् त्रन् क्विप् एषु परतः । छद षद् संवरणे । उर: छाद्यते अनेनेति उरश्छदः । एवं दन्तच्छदः । छद्म । अर्चिशुचिरुचिहुसृपिछादिछर्दिभ्य इस् ॥७७४ ।। एभ्य इस् भवति । अर्चिः । शोचिः 1 शेचिः । हविः । सर्पिः । छदिः । छर्द वमने । छर्दिः । सर्वधातुभ्यो मन् ॥ ७७५ ॥ छदिगमिपदिनीभ्यस्त्रन् ॥७७६ ॥ एभ्यः परः त्रन् प्रत्ययो भवति । छाद्यते अनेनेति छत्रं । क्विप् । तनुच्छत् । कुर्वन्ति अनेनेति करः । शृण्वन्त्यनेनेति श्रवः । लीङ् श्लेषणे । लीयन्ते अस्मिन्निति लयः । भाव अर्थ में नपुंसकलिंग में 'युट्' होता है ||७७० || हसनं इत्यादियु को अन हुआ है। करण और अधिकरण अर्थ में 'युट' होता है ॥७७१ ॥ ओ बधू - छेदना । इध्यानि प्रकर्षेण वृश्च्यंते अनेन अस्मिन्निति वा इध्म प्रवृश्चनः । गो दुही जाती है जिसके द्वारा अथवा जिसमें वह — गोदोहनी । सतूनि धीयंते अस्यां सक्तुधानी स्था अन= स्थानं, आसनं यानं यजनं । करण अधिकरण में संज्ञा अर्थ में पुल्लिंग से 'घ' प्रत्यय होता है ॥७७२ ॥ घ इस् इन् त्रन् क्विप् प्रत्यय के आने पर 'छाद को ह्रस्व होता है ॥७७३॥ छद - संवरण करना । उर: छाद्यते अनेनेति - उरश्छदः दन्तच्छदः । छअन् = छद्य । अर्च, शुच् रुच् हु, सुप् छाद् और छर्दि से 'इस्' प्रत्यय होता है || ७७४ ॥ अर्चिस् रोचिस् शोचिस् हविस् मर्फिस् छदिस् छर्दिस् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में अर्चि रोचिः शोचिः आदि बनेंगे 1 सभी धातुओं से 'अन्' प्रत्यय होता है ॥७७५ ॥ छद् गम् पद और नी से 'जन्' प्रत्यय होता है ||७७६ ॥ छाद्यते अनेन इति छ । क्विप्— तनुं छादयति इति तनुच्छत् । 'घ' प्रत्यय से — कुर्वति अनेनेति करः शृण्वत्यनेनेति श्रवः । लीड्-श्लेषण करना लीयते अस्मिन्निति लय: 1 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त: ३५९ ईषहुःसुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल् ।।७७७॥ कृच्छू दुःखं दुरोऽर्थः । अकृच्छ्रे सुखं सोरर्थः । एष्पपदेषु कृच्छाकृच्छार्थेषु खल भवति भावे कर्मणि कर्तरि च । ईपदप्रयासेन क्रियत इति ईषत्कर: कटो भवता । दुष्कर: । सुकरः । ईषद्बोधं काव्यं । दुर्बोधं व्याकरणं । सुबोधं अध्यात्म । कतृकर्मणोश्च भूकत्रोः ।।७७८ ॥ ईषदादिषूपपदेषु आभ्यां कर्तृकर्मणोः खल् भवति । ईषदादयस्य भवनं ईषदाढ्यंभवं । भवता दुराढ्यंभवं । भवता स्वायंभवं । ईषदाढ्यः क्रियते ईषदाड्यंकरो भवान् । दुराढ्यङ्करः । स्वायंकरः ।। आढ्यो य्वदरिद्रातेः ।।७७९ ।। ईषदादिषूपपदेषु आकारान्तेभ्यो युर्भवति अदरिद्राते ।। ईषत्पान: सोमो भवता । दुष्पान: । सुपानः । ईषद्यान: । दर्यान; सुयानः । ईषद्दाना । दुर्दाना । सुदाना ।। अलंखल्वोः प्रतिषेधयोः क्त्वा वा ।।७८० ।। अलं खलु शब्दयोः प्रतिषेधार्थयोरुपपदयोर्धातो: क्त्वा वा भवति । अलंकृत्वागच्छति । खलुकृत्वा । अलंभुक्त्वा । खलुभुक्त्वा । अलङ्करणेन । खलुकरणेन । अल भोजनेन । खलुभोजनेन । क्त्वामसन्ध्यक्षरान्तोऽव्ययं ॥७८१ ॥ क्त्वामकारसन्ध्यक्षरान्ताश्च कृत्संभवा अव्ययानि भवन्ति । अव्ययाच्चेति विभक्तीनां लुक एककर्तृकयोः पूर्वकाले ॥७८२ ॥ ईषत् दुर् और सु उपपद में रहने पर कृच्छ्र अकृच्छ्र अर्थ में 'खल्' प्रत्यय होता है ॥७७७ ॥ कृच्छ्र--दुःख, अकृच्छु–सुख, ईषत्—बिना प्रयास के । यह 'खल्' प्रत्यय भाव, कर्म और कर्ता में होता है। ईषत् अप्रयासेन क्रियते इति ईषत्करः कट: दुष्करः सुकरः । ईघद् बोध-काव्यं, दुर्बोधं—व्याकरणं सुबोधम् अध्यात्म। ईषत् दुर सु उपपद में होने पर भू कृ धातु से कर्ता और कर्म में 'खल' प्रत्यय होता है ॥७७८ ॥ ईषद् आदयस्य भवन = ईषद् आढ्यं भवं दुरायं भवं स्वायंभवं 1 ईपदाढ्य: क्रियते = ईषदाढ्यंकर: भवत्ता दुराढ्यंकर: स्वायंकर: । खानुबंध से अकारांत से परे अनुस्वार का आगम होता है । ईषदादि उपपद में होने पर दरिद्रा को छोड़कर आकारांत से 'यु' होता है ॥७७९ ।। ईषत्पान: यु को 'अन' हुआ है । दुष्पान: सुपान: ईषद्यान: ईषद्दान: इत्यादि। अलं और खलु ये प्रतिषेध अर्थ वाले शब्द उपपद में होने पर धातु से 'कृत्वा' प्रत्यय विकल्प से होता है ॥७८० ॥ __ अलंकृत्वा, खलुकृत्वा, अलंभूक्त्वा खलु भुक्त्वा । पक्ष मों- अलंकरणेन, खलुकरणेन, अलंभोजनेन खलु भोजनेन। क्त्वा नकार संध्यक्षरान्त कृत् प्रत्यय से बने शब्द अव्यय होते हैं ॥७८१ ॥ 'अव्ययाच्च' इस सूत्र से विभक्तियों का लोप हो जाता है। एक कर्तृक दो धात्वर्थ के मध्य में पूर्व क्रिया के काल में वर्तमान धातु से 'क्त्वा' प्रत्यय होता है ।१७८२ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० कातन्त्ररूपमाला एकंकर्तृकयोर्धात्वर्थयोर्मध्ये पूर्वक्रियाकाले वर्त्तमानाद्धातोः क्त्वा भवति । भुक्त्वा व्रजति । स्नात्वा भुङ्क्ते । गत्वा गृह्णाति । गुणी क्त्वा सेरुदादिक्षुधक्लिशकुशकुषगृधमृडमृदवदवसग्रहां ॥७८३ ॥ अरुदादिक्षुधादीनां च क्त्वा सेड् गुणी भवति । उदनुबन्धपूक्लिशां क्त्वि ॥ ७८४ ॥ उदनुबन्धापुत्रः क्लिशश्च इड् वा भवति क्त्वाप्रत्यये परे । देवनं पूर्व पश्चात्किचिदिति देवित्वा द्यूत्वा । वृधु । वर्धनं पश्चात्किचिदिति वर्धित्वा वृध्वा । स्रंस् स् अवस्रंसने संसित्वा स्रस्त्वा । श्रंसित्वा । भ्रस्त्वा पवित्वा । पूत्वा । क्लेशित्वा । क्लिष्ट्वा । व्यञ्जनादेर्व्युपधस्यावो वा ॥ ७८५ ॥ उश्च इश्च वी। वी उपधे यस्यासौ व्युपधः व्यञ्जनादेरुकारइकारोपधस्यावकारान्तस्य धातोः क्त्वा सेद् गुणी भवति । द्योतित्वा द्युतित्वा । लेखित्वा लिखित्वा । तृषिमृषिकृषिवञ्चिलुञ्च्यतां च ॥७८६ ॥ एषां क्त्वा सेट् गुणी भवति वा । त्रिवृषा पिपासायां । तर्षित्वा तृषित्वा । मृष सहने च । मर्षित्वा षित्वा । कृष विलेखने। कर्षित्वा । कृषित्वा । वञ्च प्रलंभने । वञ्चित्वा । लु इति सौत्रो धातुः । अर्त्तित्वाऋतित्वा । अपनयने । लुचित्वा ऋत शफान्तानां चानुषङ्गिणां ॥७॥ इसमें कानुबंध होता है। भुज् त्वा 'चवर्गस्य किरलवर्णे' सूत्र से कवर्ग होकर भुक्त्वा व्रजति — खाकर के जाता है। यहाँ खाने और जाने को क्रिया का कर्ता एक है। इसे अधूरी क्रिया भी कहते हैं । स्नात्वा । भुङ्क्ते । रुदादि क्षुध क्लिश कुश् कुष् गृध मृड, मृद वद वस ग्रह धातु को छोड़कर क्त्वा प्रत्यय के आने पर इट् सहित धातु गुणी होती हैं ॥७८३ ॥ उदनुबंध, पू और क्लिश धातु से क्त्वा प्रत्यय के आने पर इट् विकल्प से होता है ॥ ७८४ ॥ देवनं पूर्वं पश्चात् किंचित् इति देवित्वा इट् के अभाव में — द्यूत्वा । नृधु - वर्धित्वा वृध्वा, संसित्वा त्रस्त्वा, अंसित्वा भ्रस्त्वा, पवित्वा, पूत्वा क्लेशित्वा क्लिष्ट्वा । व्यंजनादि धातु, उकार इकार उपधावाली, एवं यकारान्त रहित धातुयें क्त्वा प्रत्यय आने पर इटू सहित विकल्प से गुणी होती हैं ||७८५ ॥ सूत्र में 'व्युपधस्य' पद है उसका अर्थ उश्च इश्च उ और इ को 'वमुवर्ण' से उ को व होकर इ मिलकर 'वि' द्विवचन में 'वी' बनेगा। वी उपधा में हैं जिसके उसे व्युपधा कहते हैं। जैसे धुत लिख । द्योतित्वा लेखित्वा लिखित्वा । तृप् मृष् कृष् वञ्च् लुञ्च् ऋत् धातुयें क्त्वा प्रत्यय में इट् गुणी विकल्प से होती हैं ॥७८६ ॥ बितृषा - प्यास लगना । तर्षित्वा गुण के अभाव में – तृषित्वा मर्षित्वा मृषित्वा कर्षित्वा कृषित्वा । चित्वा, लुञ्चित्वा । ऋत धातु सूत्र में है अतित्वा, ऋतित्वा । थकारान्त फकारान्त अनुषंग सहित धातु को क्त्वा के आने पर इट् सहित गुण विकल्प से होता है ॥ ७८७ ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३६१ थान्तानां फान्तानां चानुषङ्गिणां क्त्वा सेट् गुणी भवति वा । श्रन्य ग्रन्थ सन्दर्भे । श्रन्थित्वा ग्रन्थित्वा । श्रथित्वा प्रथित्वा । गुफ गुम्फ दुभी ग्रन्थे। गुम्फित्वा । गुफित्वा । जान्तनशामनिटां ॥७८८ ॥ जान्तनशामनिटां चानुषङ्गिणां क्त्वा गुणीभवति वा । षञ्ज सङ्गे । संक्त्वा सक्त्वा । रञ्ज रागे । रक्त्वा । रंक्त्वा । भजो आमर्दने । क्त्वा भक्त्वा । ष्वञ्ज परिष्वङ्गे । स्वक्त्वा वक्त्वा । मस्जिनशोधुटि ॥ ७८९ ॥ मस्जिनशी स्वरात्परो कारागमो भवति धुटि परे । दुमस्जो शुद्धों मंक्त्वा मक्त्वा । णश अदर्शने । नंष्ट्वा नष्ट्वा । रुदादिभ्यक्ष इड् वा भवति । नशित्वा । ॥७९० ॥ इज्जति जहातेरिद् भवति क्त्वा प्रत्यये । हित्वा । समासे भाविन्यनञः क्त्वो यप् ॥७९१ ॥ अनञः क्त्वान्तेन समासे भाविनि क्त्वाप्रत्ययस्य यपादेशो भवति अभिभूय । अभिभवनं पूर्वं पश्चात्किचिदिति । अभिभूय स्थितं । विजित्य प्रस्तुत्य । अधीत्य । उपेत्य । I मीनात्यादिदादीनामाः ॥७९२ ॥ मीनातिमिनोतिदीङयं दामामायति पिबति स्थास्यति जहातीनामाकारो भवति यपि परे । मी हिंसायां प्रमाय । डुमिङ् प्रक्षेपणे । परिमाय दीङ् क्षये । दीड् अनादरे । प्रदाय । दामादीनामां बाधनार्थ । आदाय | निमाय । प्रगाय । प्रपाय । प्रस्थाय अवसाय । विहाय श्रं ग्रंथ -- संदर्भ । श्रंथित्वा ग्रंथित्वा गुण के अभाव में अनुषंग का लोप होता है । श्रथित्वा ग्रथित्वा । गुम्फू गुम्फित्वा, गुफित्वा । कारान्त नश अनिट् अनुषंग सहित को क्त्वा इट् सहित में गुण विकल्प से होता है ! ७८८ ॥ सञ्ज— संगे— संक्त्वा सक्त्वा रख— रंगना रंक्त्वा रक्त्वा, भञ्ज – भक्त्वा भक्त्वा स्वऊस्वक्त्वा स्वक्त्वा । मस्जि नश् को स्वर से परे घुट् विभक्ति के आने पर नकार का आगम होता है ॥७८९ ॥ दुमरुजो — शुद्ध होना। मंक्त्वा मक्त्वा 'सकार का संयोगादेर्लोपः' से लोप होकर ज को ग् क् हो जाता है। णश्― नष्ट होना नंष्ट्वा नष्ट्वा । रुदादि गण से इट् विकल्प से होता है नशित्वा । ओहाक् को इत् हो जाता है ॥ ७९० ॥ प्रत्यय के आने पर । हित्वा । नञ् रहित क्त्वा प्रत्ययान्त समास में भविष्यत् अर्थ में 'क्त्वा' को 'थप्' आदेश हो जाता है ||७९१ ॥ अभि- भूत्वा = अभिभूय अभिभवनं पूर्वं पश्चात् किंचिदिति । अभिभूय स्थितं जि- क्त्वा को यप् = विजित्स ' धातोस्तोन्त: पानुबंधे' सूत्र ५२९ से ह्रस्वान्त से तकार का आगम होता है । प्रस्तुत्य अधीत्य, उपेत्य निकृत्य इत्यादि । मीङ् आदि धातु को यप् प्रत्यय के आने पर आकार हो जाता है ॥ ७९२ ॥ “दा मा गायति पिबति" इत्यादि को यप् के आने पर आकार होता है। मोड-हिंसा - प्रमाय Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ कातन्त्ररूपमाला यपि च ॥७९३ ॥ बनतितनोत्यादिप्रतिषिद्धेटां पञ्चमो लोप्यो भवति आतश्च अद्भवति, यथासम्भवं धुट्यगुणे यपि च परे । प्रवत्य प्रतत्य प्रमत्य प्रहत्य । वा मः॥७९४॥ प्रतिषिद्धेटा मकारो लोप्यो भवति वा यपि च परे । प्रणत्य प्रणम्य आगत्य आगम्य । ये वा ॥७९५॥ खनि बनि सनि जनामन्तस्य आकारो भवति यकारे वा । खन खनने । प्रखाय प्रखन्य प्रवाय प्रवन्य । षणु दाने । प्रसाय । प्रसन्य । जनी प्रादुर्भावे । प्रजाय प्रजन्य। लघुपूर्वो यपि ॥७९६ ॥ लघुपूर्व इन् अय् भवति यपि च परे । प्रशमय्य प्रगमय्य । गण् संख्याने विगणय्य । णम् चाभीक्ष्ण्ये द्विश्च पदं ॥७९७ ॥ एककर्तृकयो: पूर्वकाले वर्तमानाद्धातोर्णम् क्वा च आभीक्ष्ण्ये पदं च द्विर्भवति । भोज भोज बजति । भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति । पांच पांच भुंक्ते । पक्त्वा पक्त्वा भुङ्क्ते । दायं दायं तुष्यति । दत्वा दत्वा तुष्यति । पायं पायं तृष्यति । पीत्वा पीत्वा तृष्यति । कर्मण्याक्रोशे कृत्रः खमिञ्।।७९८ ।। कर्मण्युपपदे कृत्रः खमिञ् भवति आक्रोशे गम्यमाने । चौरंकारमाक्रोशति । अंधकार निरीक्ष्यते । बधिरंकारं शृणोति । पहुंकारं गच्छति । डुमिङ्-प्रक्षेपण करना परिमाय, दीङ्क्षय होना----दीड्-अनादर करना प्रदाय, दामा आदि के ईकार को बाधित करने के लिये यह सूत्र है 'आदाय' निमाय, प्रगाय प्रपाय, प्रस्थाय अवसाय विहाय। वन तन आदि और इट् प्रतिषिद्ध धातु के पंचम अक्षर का लोप हो जाता है और आकार को अकार हो जाता है ॥७९३॥ यथासंभव धुट् अगुण और यप् के आने पर । वन्---प्रवत्य प्रतत्य प्रमत्य प्रहत्य । निषिद्ध इट् धातु के मकार का लोप विकल्प से होता है ॥७९४ ॥ यप के आने पर । णम्-प्रणत्य प्रणम्य, आगल्य आगम्य। खन्वन् सन् जन् के अंत को यकार के आने पर विकल्प से आकार हो जाता है ॥७९५ ॥ खन्-खोदना-प्रखाय प्रखन्य, प्रवाय प्रवन्य, प्रसाय प्रसन्य प्रजाय प्रजन्य । या के आने पर लघु पूर्व इन् को अय हो जाता है ।।७९६ ।। गम-प्रगमय्य प्रशमय्य । गण–संख्या करना प्रगणय्य । एक कर्तृक दो धातु के पूर्व काल में वर्तमान धातु से णम् और क्त्वा प्रत्यय होते हैं और पुन: पुन: में पद को द्वित्व. हो जाता है ।।७९७ ॥ भोजं भोजं ब्रजति णम् हुआ है ये अव्ययान्त पद हो गये हैं भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति । दायं दायं इत्यादि। कर्म उपपद में रहने पर आक्रोश अर्थ में 'कृ' धातु से 'खमिञ्' प्रत्यय होता है ॥७९८ ॥ चौरकारम् अंधंकारं वधिरंकारं शृणोति । इत्यादि । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३६३ कृदन्तः विदो ॥७९९ ॥ यावदित्यनिर्दिष्टवाची यावदित्युपपदे विन्दतेर्जीवतेश्च णम् भवति । यावद्वेदं भुङ्क्ते । यावन्तं लभते तावन्तं भुङ्क्ते इत्यर्थः । यावज्जीवमधीते । यावन्तं जीवति तावन्तं अधीते इत्यर्थः । कर्म्मणि चोपमाने ॥८०० ॥ उपमाने कर्त्तरि कर्मणि चोपपदे धातोर्णम् भवति । चुडक इव नष्टः । चूडकनाशं नष्टः । गुरुरिव अभवत् गुरुभावमभवत् । रत्नमिव निहितं रत्ननिधाय निहितं । निमूलसमूलयोः कषः ||८०१ ॥ निमूलसमूलयोः कर्मणोरुपपदयोः कषतेर्णम् भवति । निमूलकाएं कषति निमूलं कषतीत्यर्थः । समूलका कषति समूलं कषतीत्यर्थः । अभ्रकाषं कषति अभ्रकषतीत्यर्थः । ओदनमिव पक्कः ओदनपाकं पक्कः । इत्यादि प्रयोगादनुसर्त्तव्यम् । स्त्रियां क्तिः ||८०२ ॥ धातोर्भावे क्तिर्भवति स्त्रियां । घोषवत्योश्च कृतीति नेट् । भूयते भवनं वा भूतिः । नवनं नुतिः । स्तवनं स्तुतिः । वर्धनं वृद्धिः । धारणं धृतिः । वर्त्तनं वृत्तिः । यजनं इष्टिः । श्रु विश्रवणे श्रवणं श्रुतिः । बुध अवगमने बोधनं बुद्धिः । कारणं कृति भ्रमु अवस्थाने भ्रमणं, पचमोपधाया धुटि चागुणे इति उपधाया दीर्घः भ्रान्तिः । ऋल्यादिभ्योऽपृणातेः क्तेः ॥८०३ ॥ पृणातिवर्जितादृकारान्ताल्ल्वादिभ्यश्च परस्य क्र्तेत्रकारो भवति । कृ विक्षेपे करणं कीर्यत इति वा कीर्णि: । गरणं गीर्णिः । लवनं लूनिः । पृणातेस्तु उरोष्ट्योपधस्य च पृ पालनपूरणयोः पूरणं पूर्तिः । मरणं मूर्तिः । 'यावत्' पद के उपपद में रहने पर विन्द और जीव् से णम् प्रत्यय होता है ॥७९९ ॥ यावद् वेदु भुंक्ते- जितना मिलता है उतना खाता है यह अर्थ हैं। यावज्जीवं अधीते - जब तक जीता है तब तक पढ़ता है । उपमान अर्थवाले कर्ता और कर्म उपपद में होने पर धातु से णम् प्रत्यय होता है ||८०० ॥ चूडक इव नष्ट:- चूड़कनाशं नष्टः । गुरुः इव अभवत् गुरुभावं अभवत्। रत्नमिव निहितं -- रत्ननिधायं निहितं । निमूल और समूल कर्म उपपद में होने पर कष् धातु से णम् प्रत्यय होता है ॥८०१ ॥ निमूलका - निमूलं कषति ऐसा अर्थ हैं। समूलकाषं कषति - समूलं कषति । अभ्रकाषं कषति । ओदनमिव पक्व: ओदनपार्क पक्वः । इत्यादि प्रयोग से अनुसरण करना चाहिये । धातु से भाव अर्थ में स्त्रीलिंग में 'क्ति' प्रत्यय होता है ॥८०२ ॥ “घोषवत्योश्च कृतीतिनेट्” इस नियम से इद् नहीं होता है। भूयते भवनं वा भूति: 1 कानुबंध हो गया है। नवनं—नुतिः स्तवनं स्तुतिः वर्धनं वृद्धिः धृतिः वृत्तिः यज् – इष्टिः श्रुतिः बुधः बुद्धि, कृतिः 'पंचमोपधाया धुटि चागुणे' सूत्र से उपधा को दीर्घ होने से भ्रान्तिः । पृ वर्जित ऋकारान्त और लु आदि से परे क्ति को नकार हो जाता है ॥ ८०३ ॥ -विक्षेपण करना- करणं कीर्यते इति वा कीर्णिः 'ऋदन्ते- रगुणे' से इर् होकर 'इरूरो- रीरूरौ' सूत्र से दीर्घ होकर बना है। ऐसे ही गरणं गीर्णि, लवनं लूनिः । पृ - पालन पूरणयो: 'उरोष्ठ्योपधस्य Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ कातन्त्ररूपमाला हाज्याग्लाभ्यश्च ।।८०४॥ एभ्यो धातुभ्यश्च परस्य क्ते: नकारो भवति स्त्रियां । ओहाक् त्यागे हानं हानि: । ज्या वयोहानौ ज्यानं ज्यानिः । ग्लानं ग्लानिः । संपदादिभ्यः क्विम् ।।८०५॥ संपदादिभ्यः क्विम् भवति भावे स्त्रियां। पद गती संपद्यते संपदनं वा संपत् । षद्लु विशरणगत्यक्सादनेषु ।। संसदनं संसत् । परिषदनं परिषत् । जयजोः क्यप्॥८०६ ॥ आभ्यां भावे स्त्रियां क्यब् भवति । ब्रज् गतौ प्रव्रजनं प्रवज्या इज्या। श च ।।८०७॥ कृवो भावे शो भवति क्या क्तिश्च स्त्रियां। क्रीयते करणं वा यणाशिषोयें इति इकारागम: क्रिया धातोस्तोन्त: पानुबन्धे कृत्वा कृतिः । शंसिप्रत्ययादः ।।८०८॥. शंसे: प्रत्ययान्ताद्धातो वे अप्रत्ययो भवति स्त्रियां शंसु विस्तुतौ प्रशंसनं प्रशस्यते इति वा प्रशंसा । प्रत्ययान्तात् बुभूषणं बुभूष्यत् इति वा बुभूषा । वच परिभाषणे विवक्षणं विवक्षा । विधित्सनं विधित्सा। पिपतिषणं पिपतिया। पिपासनं पिपासा । बोभूयनं बोभूया। कण्डूमात्रविकर्षणे। स्वार्थेयण् । कण्ड्वादेर्यण् कण्डूयनं कण्डूया। च' सूत्र ३९७ से ऋदंत को अगुण प्रत्यय आने पर उर् हो जाता है और “नामिनोवोरकु व्यंजने" सूत्र से उर को दीर्घ होकर 'पूर्ति:' बना हे ही मृड् हो पूर्ति: पना . हा ज्या और ग्ला से परे क्ति के तकार को नकार हो जाता है ॥८०४ ॥ ओहाक्-त्यागे—हानं हानि:, ज्या-क्योहानौ ज्यानं ज्यानिः, ग्लानं ग्लानिः । संपद् आदि से भाव में स्त्रीलिंग में क्विा होता है ।।८०५ ॥ पद-गमन करना संपद्यते संपदनं वा संपत् । षद्ल-विशरणगति अवसादन अर्थ में है । संसदनं संसत् । परिषदनं परिषत् । व्रज् यज् से भाव में स्त्रीलिंग में क्या होता है ॥८०६ ॥ प्रवजनं--प्रव्रज्या, यजन इज्या। 'खियां आदा' सूत्र से आ प्रत्यय होता है। कृ धातु से भाव में स्त्रीलिंग में 'श' क्यप और क्ति प्रत्यय होते हैं ॥८०७॥ क्रियते करणं वा 'यणाशिषोर्ये सूत्र से इकार का आगम होकर 'श' प्रत्यय से क्रिया बना, यहाँ 'स्त्रिया मादा' सूत्र से 'आ' प्रत्यय हुआ है। आगे 'धात्तोस्तोन्त: पानुबंधे' सूत्र से क्यप् प्रत्यय में पानु बंध होने से हस्वांत धातु से तकार का आगम होकर कृत्य आ प्रत्यय होकर 'कृत्या' बना है । क्ति से कृतिः बना है। शंस और प्रत्ययांत धातु से भाव में स्त्रीलिंग में 'अ' प्रत्यय होता है ।।८०८ ॥ शंसु-स्तुति करना । प्रशंसनं प्रशस्यते इति वा प्रशंसा “स्त्रियामादा" सूत्र से 'आ' प्रत्यय हुआ है। प्रत्ययान्तसे—बुभूषणं बुभूष्यो इति वा बुभूषा। वच-परिभाषण करना। विवक्षणं--विवक्षा। विधित्सनं विधित्सा। पतितुम् इच्छति पिपतिषति पिपतिषणं पिपतिषा। पिपासनं पिपासा । योभूयनं बोभूया। कण्डूञ्–गात्र विकर्षण करना। स्वार्थ में यण् प्रत्यय हुआ है 'कण्ड्वादेर्यण' कण्डूयनं कण्डूया । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्तः ३६५ गुरोश्च निष्ठायां सेटः ।।८०९।। निष्ठायां सेट: मुरुमतो धातोरप्रत्ययो भवति स्त्रियां । ईह चेष्टायां ईहनं ईह्यत इति वा ईहा । ईक्ष दर्शन इक्षणं । ईक्षा । एवं सर्वमवगन्तव्यम् । भावसेनत्रिविद्येन वादिपर्वतवत्रिणा। कृताया रूपमालायां कृदन्तः पर्यपूर्यत ॥१॥ मन्दबुद्धिप्रबोधार्थ भावसेनमुनीश्वरः॥ कातन्त्ररूपमालाख्यां वृत्तिं व्यररचत्सुधीः ।२।। क्षीणेऽनुग्रहकारिता समजने सौजन्यमात्माधिके । सन्मानं नुतभावसेन मुनिये त्रैविधदेवे मयि ॥३॥ सिद्धान्तोऽयमथापि यः स्वधिषणागोंद्धत: केवलम्॥ संस्पर्द्धत तदीयगर्वकुहरे वज्रायते भवचः ।।४ ।। इति कातन्त्रस्य रूपमाला प्रक्रिया समाप्ता। अत्र उपयुक्ता: श्लोकाः। आख्यातं श्रीमदाद्याहत्प्रभोर्जेजीयते भुवि। यत्प्रसादाद् व्याकरणं भवेत् सर्वार्थसाधकं ॥१॥ निष्ठा प्रत्यय के आने पर इट् सहित दीर्घवाले धातु से स्त्रीलिंग में 'अ' प्रत्यय होता है ॥८०९॥ ईह चेष्टा करना, ईहर्न ईह्यते इति वा ईह-अ 'स्त्रियामादा' से आ प्रत्यय होकर 'ईहा' । ईश्-देखना-ईक्षणं—ईक्षा । इसी प्रकार से सभी को समझ लेना चाहिये । इस प्रकार से कृदन्त प्रकरण समाप्त हुआ। श्लोकार्थ वादिगण रूपी पर्वतों के लिये वज्र के सदृश ऐसे श्रीमान् भावसेन त्रिविद्य मुनिराज ने इस कातंत्र व्याकरण की 'रूपमाला' नामक टीका में कृदन्त प्रकरण पूरा किया है ॥१॥ मंदबुद्धि शिष्यों को प्रबोध कराने के लिए बुद्धिमान् श्री भावसेन मुनीश्वर ने कातंत्ररूपमाला नाम की वृत्ति को रचा है ॥२॥ अन्य जनों के द्वारा संस्तुत मुझ भावसेन विद्यदेव का तो यह सिद्धांत है कि अपने से हीन जनों पर अनुग्रह किया जाय, समारजनों पर सौजन्य किया जाय और अपने से अधिकजनों में सम्मान प्रदर्शित किया जाय ॥३॥ यद्यपि यह सिद्धांत है फिर भी जो अपनी बुद्धि के गर्व से उद्धत है और केवल हम जैसों के साथ मात्र स्पर्धा या ईर्ष्या करते हैं उनके गर्व रूपी पर्वत को नष्ट करने के लिये मेरे बचन वज्र के सदृश आचरण करते हैं ॥४॥ इस प्रकार कातंत्र व्याकरण की रूपमाला नाम की प्रक्रिया समाप्त हुई। यहाँ उपयुक्त श्लोक और हैं। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानन्यरूपमाला अकारादिहसीमानं वर्णाम्नायं वितन्वता। ऋषभेणार्हताद्येन स्वनामाख्यातमादितः ।।२।। तथाहि, अ एव स्वार्थिकेणाऽका तादृग् ऋ ऋषभाभिधा । तदादिर्हावधिः पाठोकारादिहसीमकः ।।३।। अ: स्वरे कश वर्येषु रादिर्य: स तु हान्वितः । अकारादिहसीमाख्ये पाठेऽहं मंगलं पदं ॥४॥ यत्राहपदसंदर्भाद् वर्णाम्मायः प्रतिष्ठितः । तस्मै कौमारशब्दानुशासनाय नमोनमः ॥५॥ बाल्या कुमार्या प्रथमं सरस्वत्याप्यधिष्ठितं । अहं पदं संस्मरंत्या तत् कौमारमधीयते ॥६॥ कुमार्या अपि भारत्या अङ्गन्यासेप्ययं क्रमः । अकारादिहपर्यंतस्ततः कौमारमित्यदः ।।७।। इति भद्रं भूयात् । श्लोकार्थ— श्रीमान् प्रथम तीर्थङ्कर अर्हत प्रभु का यह आख्यात व्याकरण पृथ्वी तल पर विशेषरूप से जयशील होता है। जिसके प्रसाद से यह व्याकरण संपूर्ण अर्थ को सिद्ध करने वाली होवे ॥१॥ अकार को आदि में लेकर 'ह' सीमा पर्यंत वर्गों के समुदाय को कहते हुये श्रीमान् आदिप्रभु ऋषभदेव अर्हत् परमेष्ठी ने आदि में अपने नाम का आख्यात किया है ॥२॥ अर्थात् अर्हत् में वर्गों के समुदाय का प्रथम अक्षर 'अ' प्रथम है और वर्णों का अंतिम अक्षर 'ह' अंत में है। इसलिये आदि में आदिनाथ भगवान् ने 'अर्हत्' इस पद से अपने नाम को प्रगट किया है। तथाहि श्लोकार्थ—स्वार्थिक में अण अक से 'अ' ही है और उसी प्रकार ऋ से ऋषभ नाम आता है। उसको आदि में करके 'हे' पर्यंत जो पाठ है वह आकारादि से ह की सीमा तक है अर्थात् अकार आदि में है और हकार अंत में है ॥३॥ ___स्वर में 'अ' वर्गों में क है और र को आदि में करके जो है वह 'ह' से सहित है । अकार को आदि में लेकर 'ह' पर्यंत पाठ में 'अर्ह पद है वह मंगलभूत पद है ॥ ४ ॥ जहाँ पर 'अर्ह' पद के संदर्भ से वर्गों का समुदाय प्रतिष्ठित है उस कौमार शब्दानुशासन नाम की व्याकरण को बारंबार नमस्कार होवे ॥५॥ . ब्राह्मी और कुमारी ने प्रथम ही सरस्वती से भी अधिष्ठित 'अर्ह' पद का संस्मरण करते हुये इस "कौमार' व्याकरण का अध्ययन किया है ॥६ ।। कुमारी और भारती के अंग न्यास में भी अकार को आदि में करके हकार पर्यत यह क्रम है अत: इस व्याकरण का नाम 'कौमार' व्याकरण है । ७ ।। समाप्त इति भद्रं भूयात् । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवादकर्त्री की प्रशस्ति शंभुच्छंद महावीर वीर सन्मति भगवन् हे वर्धमान त्रिशलानंदन । हे धर्मतीर्थकर्ता तुमको, है मेरा कोटि कोटि वंदन ॥ हे मंगलकर्ता लोकोत्तम, हे शरणागत रक्षक निरुपम । इस कलियुग के भी अंतिम तक, तव अविच्छिन्न शासन अनुपम ॥१ ॥ श्री कुन्दकुन्द गुरुदेव मुनि को मेरा शत शत है प्रणाम । हैं मूलसंघ में कुन्दकुन्द आम्याय सभी संघ में ललाम ॥ उसमें सरस्वती गच्छ माना, गण कहलाता है बलात्कार | इनमें हो चुके मुनी जितने, उन सबको मेरा नमस्कार ॥२ ॥ कलिकाल प्रभाव दलित करने, उत्पन्न हुये इक सूरिवर्य । चारित्रचक्रवर्ती गुरूवर, श्रीशांतिसागराचार्यवर्य || इन परम्परा में देश भूषणाचार्य मुनी जग में विश्रुत। उन आद्यगुरु के प्रसाद से, पाया व्याकरणज्ञान अद्भुत ॥३ ॥ श्री शांतिसिंधु के पट्टशिष्य, गुरू वीरसागराचार्य यती । वे मेरे आर्यादीक्षागुरू उनसे ही हुई मैं ज्ञानमती || वीराब्द चौबिस सौ निन्यानवे, है शरदपूर्णिमा आश्विन में । कातंत्र रूपमाला का यह अनुवाद पूर्ण किया शुभदिन में ॥ ४ ॥ इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में आर्यखंड में कर्मभूमि । भारत की राजधानी मानी यह इंद्रप्रस्थ उत्तम भूमि ॥ महावीर प्रभू के शुभ पच्चीस शतक निर्वाण महोत्सव में । मैं भी संघ सहित यहाँ आई, जिनधर्म उद्योत रुची मन में ॥५ ॥ दोहा - यह हिन्दी अनुवाद युत्, सरल व्याकरण मान । पढ़ें पढ़ावें सर्वजन, बने श्रेष्ठ विद्वान् ॥ ६ ॥ आगम के सूत्रार्थ को, करें आर्ष अनुकूल । निज पर को संतुष्ट कर प्राप्त करें भव कूल ॥ ७ ॥ यावत् जिन आगम यहाँ, जग में करे प्रकाश । तावत् यह व्याकरण कृति, करे सुज्ञान विकास ॥८ ॥ * वर्धतां जिनशासनम्* १. ईस्वी सन् १९७३ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भू सत्तायां एधङ् वृद्धौ डुपचषुञ् पाके पिंधु गत्यां षिधू शास्त्रे मांगल्ये च णीङ् प्रापणे संस् भ्रस् अवासने ध्वंस् गतौ च ग्रथि वकि कौटिल्ये टुनदि समृद्धी वदि अभिवादनस्तुत्योः दंश दशने षज्ज स्वंगे वंज परिष्वंगे रज रागे ष्ठिवु क्षिवु निरसने क्लमु ग्लानी चमु छमु जमु जिमु अदने क्रमु पादविक्षेपे षु त्रु द्रु गु ऋच्छ गम्ल स पृ गतौ इषु इच्छायां यमु उपरमे पा पाने घा गंधोपादाने घ्मा शब्दाग्निसंयोगयोः स्था गतिनिवृत्ती म्ना अभ्यासे दाण् दाने दृशिर प्रेक्षणे प्रापणे परिशिष्ट भ्वादिगण की धातुयें परस्मैपदी आत्मनेपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी उभयपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी भवति एधते पचति, पचते सेधति सिद्ध्यति नयति नयते स्रंसते, धंसते ध्वंसते ग्रन्थते, बंकते नंदति वंदते दशति सजति परिष्वजते रंजति निष्ठीवति क्लामति आचामति क्रामति गच्छति इच्छति यच्छति पिबति जिघ्रति धमति तिष्ठति मनति प्रयच्छति पश्यति ऋच्छति Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिक्षित ३६९ स धावति शीयते सीदति एति अधीते वदति खजति ऋ स गती शल शातने षद्लु विशरणमत्यवसादनेषु इण मतौ इक् स्मरणे इङ् अध्ययने वद व्यक्तायां वाचि धज ध्वज वज व्रज गतौ वर ईप्सायां चर गतिभक्षणयोः फल निष्यत्तौ शल वल्ल आशुगतौ रद विलेखने गद् व्यक्तायां वाचि अट पट इट किट कट गतौ ये तंतुसंताने अव रक्ष पालने तथू त्वष तनुकरणे मुष स्तेये कुष निष्कर्षे खगे हसने रगे शंकायां कगे बोचिते वह परिकल्पने रह त्यागे दुवमुद्गिरणे क्रमु पादविक्षेप चमु छमु जमु जिमु झमु अदने । व्यय क्षये (गतौ-पाणिनी) अय वयमय पय तय चयरयणय गतौ कण निमीलने रमु क्रोडायां णमु प्रह्णत्वे शब्दे च परस्मैपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदं परस्मैपदा आत्मनेपदा परस्मैपदा आत्मनेपदी आत्मनेपदी चरति फलति शलति रदति गदति अटति वयति अवति, रक्षति तक्षति, त्वक्षति मुष्णाति कुषति खगति रगति कगति वहति रहति वमति क्रमति चमति, जिमति व्ययति अयते कणति रमते नमति Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० कातन्त्ररूपमाला रिशति, रुशति आक्रोशति विशति त्विषति कृषति आश्लिषति देष्टि द्विष्टे दहति द्योतते, शोभते, रोचते आह्वयति भजति भजते श्रयति श्रयते क्षिपति क्षालयति अर्हति रिश रुश हिंसायां क्रुश आह्वाने गाने रोदने च लिश विच्छ गतौ क्रुश ह्वरणदीप्तयो: विश प्रवेशने त्विष दीप्तौ कृष विलेखने श्लिष् आलिंगने द्विषु अप्रीती दह भस्मीकरणे धुत शुभ रुच दीप्तौ हृञ् स्पर्धायां वाचि भज श्रिङ्ग सेवायां क्षिप् क्षान्तौ क्षल शौचे अर्ह पूजायां ठौक तौक गतौ भ्राज् भ्राष दीप्तौ दीप दीप्तों भाष व्यक्तायां वाचि जीव प्राणधारणे स्फुट परिहासे नट अवस्यंदने कुट छेदने ग्रस कवलग्रहणे पट वट ग्रन्थे राज दीप्तौ भ्रासृट् भ्राट् ग्लास्ट दीप्तौ कास भास दीप्तौ बिइन्धिदीप्तौ तु प्लवनतरणयोः भज श्रीङ् सेवायां त्रपूष् लज्जाय आत्मनेपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी उभयपदी गरसगटी परस्मैपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी उभयपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी उभयपदी आत्मनेपदी ठौकते भ्राजते भ्राषते दीपते भाषते जीवति स्फुटति नटति कुटति असति पठति राजति, राजते भासते, 'भ्राजते, भ्लासते कासते, भासते इन्धते तरति भजति, श्रयति त्रपते Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रन्थ ग्रन्थ दम्भू दभे दुव बीजसंताने यज् देवपूजासंगतिकरणदानेषु वस निवासे लट् सप्तमी (विधिलिङ्) पंचमी (लोद) ह्यस्तनी (लङ) अद्यतनी (लुङ्) परोक्षा (लिट्) श्रस्तनी (लूट) आशी: (आशीर्लिङ्) भविष्यती (लृट्) भवति भवसि भवापि भवेत् भवेः भवेयम् भू सत्तायां - होना परस्मैपदी धातु वर्तमान (लट्) भवतः भवन: भवावः भवेताम् भवेतम् भवेव अभवत् अभवः भवतु भवतात् भव, भवतात् भवानि अभवम् अभूत् अभूः अभूवम् बभूव बभूविथ बभूव भविता भवितासि भवितास्मि भूयात् भूया: परिशिष्ट आत्मनेपदी आत्मनेपदी भूयासम् भविष्यति भविष्यसि आत्मनेपदी उभयपदी परस्मैपदी भवताम् भवतम् भवाव अभवताम् अभवतम् अभवाव अभूताम् अभूतम् अभूव बभूवतुः बभूवथुः बभूविव भवितारौ भवितास्थः भवितास्वः भूयास्ताम् भूयास्तम् भूयास्व भविष्यतः भविष्यथः श्रन्यते, ग्रन्थते वपति यजति, यजते वसति भवन्ति भवथ भवामः भवेयुः भवेत भवेम भवन्तु भवत भवाम अभवन् अभवत अभवाम अभूवन् अभूत अभूम बभूवुः बभूव बभूविम भवितारः भवितास्थ भवितास्मः भूयासुः भूयास्त भूयास्म भविष्यन्ति भविष्यथ ३७१ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ कातन्त्ररूपमाला किया गया क्रियातिपत्ति (ल) भविष्यामि अभविष्यत् अभविष्यः अभविष्यम् भविष्याः अभविष्यताम् अभविष्यतम् अभविष्याव भविष्याम: अभविष्यन् अभविष्यत अभविष्याम एथ् वृद्धौ बढ़ना-आत्मनेपदी धातु वर्तमान (लुट्) एधते एधेते एघसे एधते एधवे एधामहे सप्तमी एधेत एधेथाः एधेथे एधावहे एधेयाताम् एधेयाथान् एधेवहि एधेताम् एघेथाम् एधावहै पंचमी एधेय एधताम् एचस्व एधेरन् एर्ध्वम् एधेमहि एधन्ताम् एधध्वम् एधामहै ऐधन्त एधे ह्यस्तनी ऐधेताम् ऐधेथाम् ऐधध्वम् ऐधावहि अद्यतनी ऐथिषाताम् परोक्षा (१) ऐधत ऐधेथाः ऐधे ऐधिष्ट ऐश्चिष्ता: ऐधिषि एधाञ्चक्रे एधाञ्चकृषे एधाञ्चक्रे एधामास एधामासिथ एधामास एधांबभूव एघांबभूविश्व एधांबभूव ऐधामहि ऐधिषत ऐधिवम् ऐधिष्महि एघाञ्चक्रिरे एश्वाञ्चकृदवे एधाञ्चकृमहे एधामासुः एधामास एधामास्म एधांबभूवुः एधांबभूव एधांबभूविम ऐधिषाथाम् ऐधिष्वहि एधानकाते एधाञ्चक्राथे एधाश्चकृवहे एधामासतुः एधामासथुः एधामास्व एधांबभूवतुः एथांबभूवथुः एधांबभूविव परोक्षा (२) परोक्षा (३) Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३७३ अत्ति शेते बवीति, ब्रूते अस्ति रोदिति स्वपिति श्वसिति प्राणिति जक्षिति सूते हन्ति आचष्टे अदादिगण की धातुयें परस्मैपदी आत्मनेपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी उभयपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी उभयपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी एरस्मैपदी अद् प्सा भक्षणे शीङ् स्वप्ने बूज व्यक्तायां वाचि असु भुवि रुदिर अश्रुविमोचने जिष्वप् शये श्वस प्राणने प्राण श्वसने जक्ष भक्षहसनयोः पूङ् प्राणिगर्भविमोचने हन हिंसागत्योः चक्ष व्यक्तायां वाचि ईश् ऐश्वयें शासु अनुशिष्टौ दीघीङ् दीप्तिदेवनयोः वेवीङ् वेतनातुल्ये ईड्स्तुती णु स्तुती स्तुञ् स्तुती ऊर्गुज् आच्छादने विद् ज्ञाने प्सा भक्षणे रा ला आदाने द्विष् अप्रीती इण् गतौ दुह प्रपूरणे लिह आस्वादने उष दाहे विद् ज्ञाने जाग्र निदाक्षये वश कांती ख्या प्रकथने शास्ति आदीधीते वेतीते नौति स्तौति, स्तुते प्रोणति, प्रोणुते वेत्ति प्साति राति, लाति एति दोग्धि, दुग्धे लेदि, लीढे वेत्ति जागर्ति वष्टि ख्याति Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ कातन्त्ररूपमाला जुहोति हु दानादनयोः ओहाङ् गती आङ् मारे शब्दे च डुधाञ् डुभृञ् धारणपोषणयोः डुधाञ् डुभृञ् धारणपोषणयोः ओहाक् त्यागे ह्री लज्जायां ऋ स गती घु पालनपूरणयोः णिजिर् शौचपोषणयोः लिदिर अथवभावे विषलू घ्याप्ती बिभी भये जिहीते मिमीते दधाति, धते बिभर्ति, बिभृते जहाति जिहेति इयर्ति, ससर्त पिपति नेनेक्ति वेवेक्ति वेवेष्टि बिभेति दिवु क्रीडाविजिगीषा धूङ् प्राणिप्रसवे णस्व बंधने जिमिदा स्नेहने शो तनूकरणे छो छेदने षो अंतकर्मणि दो अवखंडने शम् दम् उपशमे तमु कांक्षायां श्रम तपसि खेदे च भ्रम अनवस्थाने क्षमूष सहने क्लमु ग्लानी मदी हर्षे जनी प्रादुर्भाव व्यध ताड़ने शिष्ल जुहोत्यादिगण की धातुयें परस्मैपदी आत्मनेपदी आत्मनेपदी उभयपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपटी परस्मैपदी परस्मैपदी दिवादिगण की धातुयें परस्मैपदी आत्मनेपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी परस्मैपदी दीव्यति सूयते संनह्यति, संनह्यते प्रमेद्यति श्यति छ्यति स्यति द्यति शाम्यति, दाम्यति ताम्यति श्राम्यति भाम्यति क्षाम्यति क्लाम्यति माद्यति जायते विध्यति शिष्यति Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुष तुष्टों पुष पुष्टौ शुष शोषणे असु क्षेपणे तृप प्रीणने पद गौ षुञ् अभिषवे अशूङ् व्याप्तों चिञ् चयने श्रु श्रवणे तुद् व्यथने मृङ् प्राणत्यागे मुच्लृ मोक्षणे लुप्लुच् छेदने विद्व् लाभे लिप उपदेहे पिचिर क्षरणे कॄ विक्षेपे गृ निगरणे व्यच् व्याजीकरणे प्रच्छ जीप्सायां भ्रस्ज् पाके स्पृश संस्पर्शने मृश आमर्शने रूधिर, आवरणे भुज पालनाभ्यवहारयोः भुज अशन अर्थ में युजिर् योगे परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी स्वादिगण की धातुयें परस्मैपदी आत्मनेपदी परिशिष्ट उभयपदी परस्मैपदी तुदादिगण की धातुयें परस्मैपदी आत्मनेपदी उभयपदी उभयपदी उभयपदी उभयपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी रुधादिगण की धातुयें उभयपदी उभयपदी आत्मनेपदी उभयपदी तुष्यति पुष्यति शुष्यति अस्यति तृप्यति पद्यते सुनोति अश्नुते चिनोति, चिनुते शृणोति तुदति म्रियते मुञ्चति, मुञ्चते लुभ्यति, लुभ्यते, लुम्पति लुम्पते विन्दति, विन्दते लिम्पति लिम्पते सिञ्चति सिचते किरति गिरति विचति पृच्छति भृञ्जति भृञ्जते स्पृशति भृशति रुणद्धि रुन्थे भुनक्ति, मुङ्क्ते भुङ्क्ते युनक्ति, युङ्क्ते ३७५ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ भिदिर् विदारणे छिदिर् द्विधाकरणे पिष्लृ संचूर्णने हिंसू हिंसायां तन, विस्तारे मनुङ् अवबोधने डुकृञ् करणे डुक्रीञ् द्रव्यविनिमये वृञ् संभक्तौ गृहञ् उपादाने ज्या वयोहान पूञ् पवने लूञ् छेदने ज्ञा अवबोधने वध संयमने चुर स्तेये मत्रि गुप्त भाषणे वृञ् आवरणे गुड़ सजि पल रक्षणे अर्च पूजायां क्षल् शौचे कथ वाक्यप्रबन्धे तर्ज भर्त्स संतर्जने चिति स्मृत्यां पीड गहने मील निमेषणे स्फुट परिहासे लक्ष दर्शनांकनयोः गण परिसंख्याने भक्ष अदने कातन्त्ररूपमाला परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी तनादिगण की धातुयें परस्मैपदी आत्मनेपदी उभयपदी क्रयादिगण की धातुयें परस्मैपदी आत्मनेपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी उभयपदी परस्मैपदी चुरादिगण की धातुयें परस्मैपदी आत्मनेपदी उभयपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी भिनत्ति छिनत्ति पिनष्टि हिनस्ति तनोति मनुते करोति, कुरुते क्रीणाति वृणीते गृह्णाति गृह्णीते जीन्नाति पुनाति लुनाति जानाति, जानीते बमारि चोरयति मन्त्रयते वारयति, वारयते गुण्डयति, सञ्जयति, पालयति अर्चयति क्षालयति कथयति तर्जयति भर्त्सयति चिन्तयति पीडयति मीलयति स्फुटयति लक्षयति गणयति भक्षयति Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : घट चलने छद षद संवरणे तुल उन्माने मूल रोहणे ज्ञ मानुबंधे चूर्ण संकोचने पूज पूजायां लुण्ट स्तेये मडि भूषायां हर्षे च तत्र कुटुंब धारणे वञ्च प्रलंभने चर्च अध्ययने धुषिर् शब्दे भूष अलंकारे मुच् प्रमोचने पूरी आप्यायने कल गतौ संख्याने च मह पूजायां स्पृह ईप्सायां गवेष मार्गणे मृग अन्वेषणे स्थूल परिबृंहणे अर्थ उपयाचायां मूत्र प्रस्रवणे पार तीर समाप्ती चित्र विचित्रीकरणे छिद्र कर्णभेदे अन्य दृष्ट्युपसंहारे दण्ड निपातने सुख दुःख तत्क्रिययोः रस आस्वादन स्नेहनयोः वर्ण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचने पर्णहरितभावे परिशिष्ट परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी एण्टी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी आत्मनेपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी परस्मैपदी घटयति छादयति तोलयति मूलयति ज्ञपयति चूर्णयति पूजयति यति मण्डयति तन्त्रयति वञ्चयति चर्चयति घोषयति भूषयति मोचयति पूरयति कलयति महयति स्पृहयति गवेषयति मृगयते स्थूलयति अर्थयति मूत्रयति पारयति तीरयति चित्रयति छिद्रयति अंधयति दण्डयति सुखयति, दुःखयति रसयति वर्णयति पर्णयति ३७७ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ कातन्त्ररूपमाला अघ पापकरणे राध साध संसिद्धो अघयति आराधयति साधयति भ्वादि० दिया. वष्टि तुदा० पृच्छति वे तंतुसंताने व्यध ताड़ने वश कांती व्यच् व्याजीकरणे प्रच्छ जीप्सायां भ्रस्ज् पाके पिष्ल संचूर्णने विष्ल व्याप्ती शिष्टु पुष तुषु तुष्टी शुष् शोषणे असु क्षेपणे परस्मैपदी परस्मैपदी संमिश्रित परस्मैपदी वयति परस्मैपदी विध्यति परस्मैपदी परस्मैपदी विचति परस्मैपदी उभयपदी भृञ्जति, भृञ्जते परस्मैपदी पिनष्टि परस्मैपदी वेवेष्टि परस्मैपदी शिष्यति परस्मैपदी तुष्यति पुष्यति परस्मैपदी शुष्यति परस्मैपदी अस्यति परस्मैपदी ख्याति परस्मैपदी स्पृशति परस्मैपदी मृशति परस्मैपदी तृप्यति उभयपदी भजति, भजते. श्रयति, श्रयते परस्मैपदी क्षालयति परस्मैपदी कथयति परस्मैपदी तर्जयति परस्मैपदी भसयति परस्मैपदी अर्हति आत्मनेपदी दौकते आत्मनेपदी प्राजते भ्राषते आत्मनेपदी परस्मैपदी जीवति परस्मैपदी चिंतयति आत्मनेपदी पद्यते तुदा० तुदा० रुथा० रुघा० दिवा० दिवा० दिवा० दिवा० अदान ख्या स्पृश संस्पर्शने मृश् आमर्शन तृप प्रीणने भज श्रिब् सेवायां तुदा० दि० चुरा० चुरा० चुरा० चुरा० क्षल शौचे कथ वाक्यप्रबन्धे तर्ज भर्त्स संतर्जने तर्ज भर्स संतर्जने अर्ह पूजायां ढौक तौक गतौ भ्राज् भाष दीप्तौं भाष व्यक्तायां वाचि जीव प्राणधारणे चिति स्मृत्यां पद गती भ्वा० भ्वा० भ्वा० भाषते भ्वा० भवा० Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातंत्ररूपमाला-सूत्रावली अकारादि सूत्र सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक अनुनासिका डवणनमा: १५ अन्त:स्था यरलवा: अनतिक्रमयन्विश्लेषयेत् २३ अवर्ण इवणे ए अज्ञस्य ऊहिन्याम् ४३ अव: स्वरे अज्ञेन्द्रयोर्नित्यम् ५४ अयादीनां यव लोप: पदान्ते न वा अनुपदिष्ठाच ६६ लोपे तु प्रकृतिः अन्त्यात्पूर्व उपधा ७९ अनुस्वारहीनम् अघोषस्थेषु शवसेषु वा लोपम् २८ १०२ अघोषक्तोश्न अपरो लोप्योऽन्यस्वरे यं वा २८ १०६ अहोऽरेफे अहरादीनां पत्यादिषु ११७ अघोष प्रथमः १२१ अस्वरे १२४ अकारे लोपम् अकारो दीर्घ घोषवत्ति १४० अल्पादेर्वा १५७ अन्नेरमोकार: १६५ अस्त्रियां टा ना अनन्तो घुटि १८६ अधुट स्वरे लोएम् १८७ अनेकाक्षरयोस्त्वसंयोगाद्यवौ १९० अग्निवच्छसि अझै १९१ अम्शसोरा २०७ अम्शसोरादिलॊपम् २२९ अकारादसम्बुद्धौ मुश्च २३६ अन्यादेस्तु तुः २४१ अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामनन्तष्टादौ २४९ अवमसंयोगादनोऽलो अघोषे प्रथम: पोऽलुप्तवच्च पूर्वविधौ २५० अनुषङ्गश्चाक्रुञ्चेत् २६२ अञ्चेरलोप: पूर्वस्य च दीर्घः २६३ अदञ्चो दस्य बहुलम् ८४ अन्त्वसन्तस्य चाधातोस्सौ २७७ अभ्यस्तादन्तिरनकारः वस्तादान्तरनकार ९३ २८५ अर्वनर्वन्तिरसावनञ् २९५ अष्टन: सर्वासु १०२ ३०२ अद् व्यञ्जनेऽनक् १०४ ३०८ अघुदस्वरादौ सेकस्यापि वन् सेर्व अदस: पदे म: ३२५ शब्दस्योत्वम् १०९ अदोमुश्च १११ ३२८ अदसश्च ३२९ अनडुहश्न ३३७ अपश्च ११८ ३३८ अपां भेदः ११८ ३३९ अह्नः स: १२५ ३४३ अमौ चाम् १२८ ३४९ अत् पञ्चम्यद्वित्वे ३५७ १६७ ११० Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० कातन्त्ररूपमाला ४४९ १८६ १९९ २३ २०० पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक अध्ययाच्च १३४ ३६७ अव्ययसर्वनाम्न: स्वरादन्त्याअदूरे एनोऽपञ्चम्या दिग्वाचिन: १३८ ३८३ त्पूर्वोऽक्क; ३६८ अधिशीङ्स्थासां कर्म १४८ ___ ४१६ अत्यादयः कान्त्योर्थ द्वितीयया १५२ ४२४ अवादय: क्रुष्टाद्यर्थे तृतीयया १५२ ४२५ अष्टन: कपालेषु हविषि १५५ ४३४ अल्पस्वरतरं तत्र पूर्वम् १५९ ४४२ अव्ययीभावादकारान्ताद्विअन्यस्माल्लुक १६१ ४५१ भक्तीनामपञ्चम्या: । १६१ अनव्ययविसृष्टस्तु सकारं अधुट स्वरतद्धिते ये १७९ ५०४ कपवर्गयो: ४७२ असन्तमायामेधास्राभ्यो अन्तस्थो डे पों: १८२ ५१३ वा विन १८० ५०६ अत् कुव च ५२८ अभूतदावे कृष्वांस्तषु अथ त्यादयो विभक्तयः विकारात् च्चि: १९१ प्रदर्श्यन्ते १ अथ परस्मैपदानि १९७ अन् विकरण: कतरि २२ अनि च विकरणे अर पूर्वे द्वे च सन्ध्यक्षरे गुणः १९९ र असम्भस्योरस्य दी अस्मद्युत्तमः २०० २८ तल्लोपश्च अस्य वमोदीर्घः २९ अड्धात्वादिय॑स्तन्यद्यअनिदनुबन्धानाम तनीक्रियातिपत्तिषु २०६ गुणेऽनुषड्न लोप: ५६ अतें: ऋच्छ: २१३ अदादेलुग्विकरणस्य ७६ अघोषेष्वशिटांप्रथमः २१४ अदोट ९१ अवर्णस्याकारः २१६ अयीयें २१७ __ ९३ अस्तेरादेः २१८ अस्ते: सौः २१८ ९८ अस्ते: २१८ अस्तेदिस्योः २१८ १०२ अस्ते: २१९ १०३ अस्तेभूरसार्वधातुके २१९ १०४ अभ्यस्तानामाकारस्य २३० १५८ अदाब दाधौ दा २३१ १६३ अभ्यस्तानामुसि २३२ १६७ अभ्यास्यादि व्यञ्जनमवशेष्यम २३३ १७१ अर्तिपिपयोश्च २३३ १७५ अभ्यासस्यासवणे २३४ १७६ अभ्यस्तस्य चोपधाया नामिनः अशनार्थे भुजा २४० २०३ स्वरे गुणिनि सार्वधातुक अस्योपधाया दीपों अनिडेकस्वरादातः २४८ २३३ वृद्धिर्नामिनामिनिचट्सु २२२ अद्यतनीक्रियातपत्त्योगी वा २४९ अस्य च दीर्घः २५० २४५ अदेर्धस्तृ सनद्यतन्योः २६२ अर्तिसत्योरणि २५५ २६४ अस्यतेस्थोन्त: २५५ २६८ २१६ ९७ २३५ २३६ a Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३८१ २७५ २९३ ४१८ xx पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक अणऽसुवचिख्यातिलिपिसिचिह्नः २५५ २६७ अणि वचेरोदुपधायाः २५५ २६९ अद्यतन्यां च २५६ २७१ अदितदिनुदिक्षुदिस्विद्यतिविद्यतिविन्दतिवित्ति अलोपे समानस्य सन्वल्लघुनीनि छिदिभिदिहदिशदिसदिपदिस्कन्दि चण्प रे २६३ २९६ खिदेर्दात् २५८ २८० असु भुवौ च परस्मै २६८ ३११ अन उस्सिजअस्यैकव्यञ्जनमध्येनादेशादेः भ्यस्तविदादिभ्योऽभुवः २३२ १६६ परोक्षायां २६८ ३१३ अट्युत्तमे वा २६९ अभ्यस्तस्य च २७३ ३३१ अस्यादेः सर्वत्र ३३४ अस्यादेः सर्वत्र ३३९ अश्नोतेच २७५ ३४० अस्य च लोप: ૨૮૬ ३७८ अनिटि सनि २९० अतोन्तोऽनुस्वारोऽनुनासि अभ्यासाच्च कान्तस्य ४१५ अतोन्तोऽनुस्वारोऽनुनासिअय॑ट्यश्नात्यूर्युसूचिसूत्रि कान्तस्य २९३ ४१९ मूत्रिभ्यश्च २९४ ४२२ अयीयें २९४ अभ्यस्तस्य चोपधाया नामिन: स्वरे अर्तिहीब्लीरीक्नुयीमाटयादन्तानामन्त: गुणिनि सार्वधातुके ४३५ पो यलोपो गुणश्च नरामिनाम् ३०१ ४५१ अनुपसर्गा वा ३०३ ४५९ अभूत तद्भावेकृभ्वस्तिषु अर्य: स्वामिवैश्ये ३१५ ५१९ विकाराच्चिव: ३०७ ४८५ अजयं संगते ३१५ ५२१ अमावस्या वा ३२१ ५५७ अच् पचादिभ्यश्च ३२२ ५६२ अवे हुषोः ३२४ ५७२ अर्हश्च ३२७ ५९७ असूर्योग्रयोदशः ६२२ अन्यतोऽपि च ६३६ अपात्क्लेश तमसो: ३३४ ६३८ अमनुष्यकर्तृकेऽपि च ३३४ ६४१ अनसि डच अतो मन् क्वनिप्वनिविचः । ३३७ ६५४ अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते ३३७ ६५५ अदोऽनन्ने ३३९ ६६६ अदोमू: ६७४ अन्यत्रापि च ३४३ ६९२ अवर्णादूठो वृद्धिः ७२३ अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् ३५५ ५५ अभिविधौ भावे इनण् ३५६ ७६३ अर्चिशुचिरुचिहुसृपिछादि अलंखल्चो: प्रतिषेधयो: छर्दिभ्य इस् ३५८ ७७४ क्त्वा वा ७८० आकारादि सूत्र आभ्योभ्यामेव-मेव स्वरे २९ १०८ आङ्माभ्यां नित्यम् ३२ १२३ आमन्त्रणेच ३५ १३२ आमन्त्रणे सि: सम्बुद्धि २९७ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ कातन्त्ररूपमाला ५४ २०९ २०० २३२ पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक आमि च नः ३९ १४७ आमि विदेरेव २७४ आधातोरघुत् ४३ १६० आ सौ सिलोपश्च आ च न सम्बुद्धौ १९६ आ श्रद्धा आगम उदनुबन्ध: स्वरादन्त्यात्पर: ८७ २७३ आमि चतुरः १०४ ३१२ आन् शस: ३५२ आत्वं व्यञ्जनादौ १२९ ३५२ आमन्त्रणात् ३६४ आख्यातस्य चान्त्यस्वरात् १३५ आकारो महत्त: कार्यस्तुल्याधिकरणे । आरुत्तरे च वृद्धि: १६८ ४७५ पदे १६४ ४६१ आद्यादिभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यश्च १८५ ५२५ आख्याताच्च तमादय: १८९ ५४४ आशी: आत्मनेपदानि भावकर्मणोः ३० आते आथे इति च २०२ आदातामाथामादेरि: २०६ ४५ आत्मने चानकारात् २१४ आकारस्योसि २२६ १३७ आकारस्योसि १६८ आत्वं वा हौ २३३ १७४ आन व्यञ्जनान्ताद्धौ २४४ आलोपोऽसार्वधातुके २४८, २५६ २७० आम: कृअनुप्रयुज्यते २६८ आकारादट औ २७१ ३२३ आशीरद्यतन्योश्च ३४५ आशिषि च परस्मै ३५५ आशिस्येकारः २७९ ३५७ आचिरिच्यादन्तानाम् ३६४ आत्मनेपदे वा २८४ ३६९ आत्मेच्छायां यिन् ३०४ ४६७ आय्यन्ताच्च ४७२ आनोऽत्रात्मने ३११ ४९७ आत्खनोरिच्च ३१४ ५१४ आन्मोन्त आने ३११ ४९८ आसुयुव पिरपिलपित्रपिदभिचमा आशिष्यकः ३२५ ५८२ च ५४८ आतोऽनुपसर्गात्क: ३२६ ५८७ आङि ताच्छील्ये ३२७ आत्मोदरकुक्षिषु भृब: खि: ३३० ६१४ आ सर्वनाम्नः ३४० ६७१ आदनुबन्धाच्च ३४६ ७०६ आतोऽन्तस्था संयुक्तात् ७०७ आदिकर्मणि क्त: कर्तरि च ३४९ ७२४ आतचोपसर्ग ३५७ ७६५ आढ़योबदरिद्रातेः ३५९ ७७९ इकारादि सूत्र इरुरोरीरूरौ ११२ इन टा १३८ इदुदग्नि: १६१ इरेदुरोज्जरिस १६३ इन्हपूषार्यम्णां शौच २४७ इदमो डियन्तु: २८२ इदमियमयं पुसि ३०५ इरुरोरीरूरौ १२० इदं नपुंसकेऽपि व १२५ ३४४ इसुस् दोषां घोषवति र: ३४५ २८३ ३० ४३ १०३ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३८३ १७० १९६ २८७ पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक इचिपूर्वपदस्याकारः १५८ ४३१ इववर्णयोलोप: स्वरे प्रयये इवर्णावर्णयोर्लोप: स्वरे प्रत्येय १६९ ४७९ ये च ४७९ इणतः १७२ ४९० इदमो हः १८६ ५२६ इदमोद्यधुनादानीम् इदम: समरम् ३ इदं कि यः कार्य: १८९ ५४३ इदमः ५५८ इ-व्यजादेसभयम् २०३ इणश्च १४० इरन्यगुणे २३९ इडागमोऽसार्वधातुकस्यादि इणिस्थादापिबतिभूभ्यः व्यञ्जनादेरयकारादेः २४७ २२७ सिच: परस्मै २४७ इणो गाः २४८ २३२ इकोऽपि २४८ इवर्णादश्चिश्रिडील् शीङ २४९ २३७ इवणों यमसवणे न च परो लोप्य: १३ इटश्चेटि २५१ २४९ इरनुबन्धाद्वा २६० इटो दी? ग्रहेरपरोक्षायाम् २९० इन्यसमानलोपोपधाया इटि च २७१ ३२६ ह्रस्वश्चणि २९४ इजात्मनेपदे प्रथमैकवचने २८२ ३५९ इवस्तलोप: २८२ ३६० इबन्तर्धभ्रस्जदम्भुधियूर्णभर इन्कारित धात्वर्थे ४४१ ज्ञपिसनितनिपतिदरिद्रांवा २८८ ३८८ इनि लिङ्गस्यानेकाक्षरस्यान्तस्य इस्तम्बशकृतो: ब्रीहिवत्सयोः ३३० ६१० स्वरादेलोप: ४४२ इदमी: ३४० ६७२ इज्जहाते: क्त्वि ३६१ ७९० ईकारादि सूत्र ईदूतोरियुवौ स्वरे १८९ ईदृतौ स्वाख्यौ नदी २२६ ईकारान्तात्सिः ६४ २२७ ईङ्योर्वा ईकारे स्त्रीकृतेऽलोप्यः १३६ ३७३ ईप्सितं च रक्षार्थानाम् ४०१ ईयस्तु हिते १७७ ४९८ ईषदसमाप्तौ कल्पदेश्यदेशीया: १८९ ५४६ ईश: से २२२ १२३ ईड्जनो: स्ध्वे च २२४१३१ ईषदुःसुषुकृच्छ्राच्छ्रार्थेषु खल् ३५९ ७७७ उकारादि सूत्र उवणे ओ ३० उमकारयोर्मध्ये २८ १०४ उदङ्ठदीचिः ८६ २६९ उशनस्युरुदंसोऽनेहसां सावनन्तः१०८ ३१८ उत्वं मात् १११ ३२६ उपान्वध्याङ्वस: ४१७ उवर्णस्यौत्वमापाद्यं १६८ ४७६ उपमाने वतिः १७८ ५०१ २९९ ६४ ७४ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ कातन्त्ररूपमाला सूत्र २८८ ३८९ ५१२ पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक उभयाधुच १८७ ५३७ उतो वृद्धिव्यञ्जनादौ गुणिनि उभयेषामीकारो व्यञ्जनादावदः २२९ १५७ सार्वधातुके २२५ १३२ उकारलोपो वमोर्वा २३७ १९१ उकाराच्च २४२ २१९ उतोयुरुणुस्नुक्षुहुव: २५७ २७४ उपविद जागृभ्यो वा २७४ ३३५ उपसर्गात्सुनोतिसुवतिस्यत्तिस्तौतिस्तो उवर्णान्ताच्च २८६ ३८१ भतीनामडन्तरोपि २८३ ३६५ उवर्णस्य जान्तस्थापवर्गउरोष्ठ्योपधस्य च २८९ ३९७ परस्यावणे उपमानादाचारे ४७० उदौद्भ्यां कृधः स्वरवत् ३१४ उपसर्या काल्याप्रजने ३१५ ५२० उवर्णादावश्यके ३२० ५४९ उपसर्गे चातो ङ ३२३ ५६७ उषिघिनीणोश्च ३२५ ५७८ उरोविहायसोरुरविही च ६३३ उणादया भूतेऽपि ३५२ ७४१ उपसर्गादसुदु लभे प्राग् भात् उपसर्गाणां धनि बहुलम् ३५५ ७५४ खल्यो : ३५४ ७५३ उपसर्गे दः कि: ३५६ ७६० उदनुबन्धपूक्लिशां क्त्वि ३६० ७८४ ऊकारादि सूत्र ऊष्पाणः शवसहा: १७ ऊय नवयसटौ च १९२ ५६१ ऊोतेर्गुणः २२५ १३३ ऋकारादि सूत्र कारलकारौ च ५ ऋति ऋतोलोंपो वा ऋवणे अर् ३१ ऋणप्रवसनवत्सतरकम्बलदशानामृणेऽरो ऋते च तृतीयासमासे ३५ दीर्घः ऋदन्तात्सपूर्वः १९८ ऋषिभ्योऽण १६९ क्रवर्णस्याकारः २३४ १७७ ऋदन्तस्येरगुणे २३९ १९९ ऋतोऽवृबृजः २५९ २८२ ऋदन्तानां च २५९ २८३ ऋवर्णस्याकार: २६८ ३०८ ऋदन्तानां च . २७० ३२१ ऋच्छ ऋत: २७५ ३४१ ऋकारे च २७६ अन्तश्च संयोगादेः २७७ ३४९ ऋधिज्ञ पोरीरीती २८९ ३९३ ऋदन्तस्येरगुणे २९१ ४०६ ऋत ईदन्तश्चिचेक्रीयिऋमतो री: २९५ ४२९ तयित्नायिषु ३०८ अन्तईदन्तश्चिचेक्रीयितयिन्नायिषु २९५ ४८७ ऋतो लुत् ४९० - ऋदुपधाच्चाकृपिते: ३१७ ५३० ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् ध्यण ३१८ ऋत्विग्दधृक्स्रग्दिगुष्णिहश्च ३३९ ६६८ ऋल्वादिभ्योऽपृणातेः क्तेः ३६३। ८०३ ३४ ५४ ४८१ ५४१ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र X ११ सूत्र एकारादीनि सन्ध्यक्षराणि एवे चानियोगे नित्यम्, एदोत्परः पदान्ते लोप मकारः एककर्तृकयोः पूर्वकाले एतस्य चान्वादेशे द्वितीयायां चैन: ९५ एषां विभक्तावन्तलोपः १६ ३५९ १२८ एकद्रवादिस्तु लुप्यते एतेर्येन्यम् ऐ आयू ओकारे ओ औंकारे च ओष्ठौत्वोः समासे वा ओदन्ता अइउआ निपाता: स्वरे प्रकृत्या औ आबू औरिम् औ तस्माज्जरशसोः औत्वश्च अं इत्यनुस्वारः अः इति विसर्जनीयः १७२ १२७ १४ ११ १२ १७ १४ ५९ १०२ ३०६ ७ ६ परिशिष्ट एकारादि सूत्र क इति जिह्वामूलीय: ६ ४६ कतेश्च जस् शसोर्लुक् कवर्गप्रथमः शषसेसु द्वितीयो वा ८१ कर्तरि च १४२ ९ एकारे ऐ ऐकारे च ३९ ए अय् ५७ एषसपरो व्यञ्जने लोप्यः ७८२ एक द्वौ बहून् २८९ एबहुत्वे वी ३५१ एत्वमस्थानिनि ४८८ एवमेवाद्यतनी १४१ एजे: खश् ऐकारादि सूत्र ४९ ओकारादि सूत्र ४० ओमि च ४२ ओ अव् ओसि च ६१ ओतायित्रायिपरे स्वरवत् औकारादि सूत्र ५१ औंकारः पूर्वं २११ औरीम् ३०३ औ सौ ४७६ अंकारादि सूत्र २१ अः कारादि सूत्र १८ ककारादि सूत्र १९ कखयोर्जिह्वामूलीयं न वा १७४ कषयोगे क्षः २५७ कर्मप्रवचनीयैश्च ३९४ करोतेः प्रतियत्ले पृष्ठ सूत्रक्रमांक ११ ૧૪ ३१. ३४ १११ १२९ १९६ ३३० १२ १४ ३८ ३०६ ૪૪ ७० १०५ ३८५ २७ ८० १३९ १४७ ३७ ४८ ११८ १२८ ३२७ ३५२ ६ ६१६ ४१ ५० १४६ ४७५ १६२ २३७ ३१४ ९८ २५६ ३८५ ४१० Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ कातन्त्ररूपमाला E४० ३२५ सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रयांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक कर्तृकर्मणोः कृति नित्यम् १४७ ४१२ कर्मधारयसंज्ञे तु पुंवद्धावो कर्मधारय संज्ञे तु पुवंदावो विधीयते १६४ विधीयते ४३२ कवचोष्णे ४६६ कतिपयात्कतेश्च १८२ ५१५ कर्तरि रुचादिअनुबन्धेभ्यः २०२ ३६ करोते: २४२ २०७ करोतेर्नित्यम् २०८ कवर्गस्य चवर्ग: २६२ २९३ कमेरिनिङ् कारितम् ३०३ ४६२ कर्तुरायिस्सलोपश्च ४७१ कष्टकक्षसत्रहमनाय पापे क्रमणे ३०६ ४७८ कण्डवादिभ्यो यन् ३०७ ४८३ कत्तारे कृत् ३१० ४९४ कर्मण्यण ५८४ कर्मणि भजो विण् ३३५ कर्मण्युपमानेत्यदादौ कर्तर्युपमाने ३४१ ६७७ दृशष्टक्सको च ३४० ६७० करणेऽतीते यजः ३४२ ६८१ कर्मणि हन: कुत्सायाम् ३४२ ६८२ कसिपिसिभासीशस्था प्रमदां च ३५२ ।। ७३८ कर्मण्यधिकरणे च ३५६ ७६१ कर्मव्यतिहारे णच स्त्रियाम् ३५६ ७६२ करणाधिकरणयोश्च ३५८ ७७१ कतृकर्मणोश्च भूकृषोः ७७८ कर्मण्याक्रोशे वृजः खमित्र ३६२ ७९८ कर्मणि चोपमाने ८०० कादीनि व्यञ्जनानि ४ ११ कालभावयोः सप्तमी १४८ ४१५ का क्वीषदर्थेऽक्षे ४६५ कार्याबवावादेशावोकारौकाले किंसर्वयदेकान्येभ्य एव दा १८६ ५२९ कारयोरपि १६८ ওও काले १९८ १८ कारितस्यानामिडिबकरणे २४६ २२३ काम्य च ४६९ किमो डियन्तुः २८३ किं कः १०३ ३०४ किम: ५२७ किमो डियन्तु ५५७ किं की: ३४० ६७३ कुत्सितेऽङ्गे १४२ ३९२ कुञ्जादेरायनण् स्मृत: ४८६ कुर्वादेर्यण १७० ४८५ कुलादीनः १७४ ४९५ कुत्सितवृत्तेर्नाम्न: पाश: १८९ ५४७ कुमारशीर्षयोणिन् क्रुधिमण्डिचलिशब्दार्थेभ्यो युः ३५१ ७३५ कूल उद्रुजोहो: ६२५ कृत्तद्धितसमासाश्च १५१ ४२३ कृञोऽसुटः ३१० कृत् ३१० ४९३ कृत्ययुटोऽन्यत्राणि ३१४ ५१० कृषिमजा वा ३१७ ५३५ कृष्टपच्यकुप्यसंज्ञायाम् ३१८ ५४० कृत्रो हेतुताच्छील्यानुम्येष्व शब्दश्लोक- कृष: सुपुण्यपापकर्ममंत्रपदेषु ६८४ कलहगाथावरचाटुसूत्रमन्त्रपदेषु ३२९ ६०७ कृत्रश्च ९२ १८६ १९१ १७१ २६८ ३४२ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३८७ सत्र कोः कत् पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक कृयापाजिमीस्वदिसाध्यशूद के प्रत्यये स्वीकृताकारपरे षणिजनिचरिचटिभ्य उण ३५२ ७४२ पूर्वोऽकार इकारम् ३७१ के यण् वच्च योक्तवजनम् ३१२ ५०२ क्रोष्टुः ऋत उत्सम्बुद्धौ शसि ४६४ व्यञ्जने नपुंसके च २०१ क्रियाभावो धातुः १९८ १६ क्रम: परस्मै २११ यादीनां विकरणस्य २४३ २१२ क्रव्ये च ६६७ क्यन्सुकानौ परोक्षावच्च ३१२ ५०१ क्त्वाभसन्ध्यक्षरान्तोऽव्ययं ३५९ ७८१ क्विम् ३३७ ६५६ क्विप् ब्रह्मभ्रणवृत्रेषु ३४२ ६८३ तक्तवन्तू निष्ठा ३४४ ६९४ तोऽधिकरणे च धौव्यगतिप्रत्यवसाद नार्थेभ्यः ३५० ७२६ खकारादि सूत्र खश्चात्मने ३४२ ६८० ग-कारादि सूत्र गव्यूतिरध्वमाने १६ ६० गमिस्थमा छ: २१२ गमहनजनखनघसामुपधायाः गत्यर्थास्कौटिल्ये च २९२ ४१४ स्वरादावनन्यगुणे २२१ ११३ गमहनविंदविशदृशां वा ५०४ गस्थकः ३२५ ५७९ गष्टक् ३२७ ममश्च ६३२ गत्यर्थाकर्मकश्लिषशीङ्स्थासवस गमेरिणिनौ च ३५३ ७४४ जनसहजीर्यतिभ्यश्च ३४९ ७२५ गुणोतिसंयोगाद्यो: २१३ ७१ गुप्तिज्किद्भ्यः सन् २८५ ३७२ गुपादेश्व २८५ ३७३ गुणश्चक्रीयिते २९२ ४१० गुपूधूपविच्छपनेराय: ३०७ ४८४ गुणोक्त्वा सेडरुद्रादिक्षुधक्लिशगुरोश्च निष्ठायां सेट: ३६५ ८०९ कुशकुषगृधमृडमृदवदवसग्रहां ३६० ७८३ गेहे त्वक ३२४ ५७६ गोर इति वा प्रकृतिः गोरौ घुटि २०६ गोश्च ५८ २०८ गोरप्रधानस्यान्तस्य ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिव्यचिपच्छिस्त्रियामादादीनां च १५३ ४२६ वश्चिभ्रस्जीनामगुणे २४३ २१४ पहिस्वपिप्रच्छा सनि ४०४ प्रहिगुहो: सनि महोऽपिप्रतिभ्यां वा ३१७ ५३२ ग्रहादेर्णिन् ३२२ ५६४ ग्रह ३२४ ५७४ ग्लास्नावनवमश्च ४६० गत्यर्थ-कर्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यो चेष्टायामनध्वनि १४० ३८६ ५२ ४०८ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ कातन्त्ररूपमाला २१२ ३८ घ-कारादि सूत्र सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक घ्यण्यावश्यक ५४४ घढधमेभ्यस्तथोघोऽध: २२७ १४३ घजीन्ये: ३५४ ७५१ घामोरी २९३ ४१७ घुटि चासम्बुद्धौ १७७ धुटि त्वैः ४८ १८० घुरि च १९५ घुट् स्वरे नुः ३२२ घोषवन्तोऽन्ये १४ घोषवति लोपम् २९ ११० घोषवत्स्वरेषु ३० ११३ घोषवत्योश्च कृति ३५२ ७३९ प्रो जिघ्रः ङ कारादि सूत्र अणना हस्वोपधा स्वरे द्वि: २३ ८० इसिरात् ३८. १४४ ङस् स्य: १४५ इसि: स्मात् १५४ 'असिङसोरलोपश्च ४५ १६९ इसिङसोरुमः १८२ वन्ति यैयास्यास्याम् ५९ २१४ डात् २६४ डिस्मिन् १५६ डिरौ सपूर्व: ४५ १७१ डेर्य: ४५ १६८ डेन गुण: ३११ ४९९ च कारादि सूत्र चवर्गदृगादीनां च ८० २५४ चतुरो वा शब्दस्योत्वम् १०४ ३१० चौ चावर्णस्य ईत्वम् ३०७ ४८६ चक्षङ् ख्याञ् २२२ १२१ चवर्गस्य किरसवणे २३४ १८० घण् परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु २६२ २९२ वकास कास्प्रत्ययान्तेभ्य आम् चरफलोरुच्च परस्यास्य ४२८ परोक्षायाम् २७७ ____३५१ चर्करीताद्वा ४३२ चरेराङ्गि चागुरौ ३१४ ५१६ चजो: कगौ धुट्यानुबन्धयोः ३१८ ५४२ चक्षिङः ख्या ३२७ ५९२ चरेष्टः ३२८ ६०४ च्चौऽचावर्णस्य ईत्वम् १९२ ५६० च्छ्वो: शूठौ पञ्चमे च ३३८ चादियोगे च १३३ ३६५ चाय, पचेक्रोयिते ४२५ चित्याग्निचित्ये च ५५६ चुरादेश्च २४५ २२० चे: किर्वा २७६ ३४४ चे किर्वा ४०५ चेक्रीयितान्तात् २९२ ४११ चेक्रीयिते च ४२३ चेन्नौ ३४३६८६ चं शे ७८ २९५ ३२१ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र छशोश्च छदिगमिपदिनीभ्यस्वन् छादेर्घे स्मन्त्रन्क्विप्सु च जझञशकारेषु ञकारम् ज: सर्व इ जशसौ नपुंसके जक्षादिश्च जनिवध्योश्च जनिजृष्क्नस्ररञ्जोऽमन्ताश्च जा जनेर्विकरणे जिह्वामूलीयोपध्मानीयौ च जपिवमिभ्यामिड् वा जुहोत्यादेश्च जुहोतेः सार्वधातुके टठयोः षकारम् द्वनुबन्धादथुः टादौ भाषितपुंस्कं पुंवद्वा टेठे वा षम् टौसोरन: ञ्यनुबन्धमतिबुद्धि पूजार्थेभ्य: क्तः ३५० ढणेषु णाम् डानुबन्धेऽन्त्यस्वरादेर्लोपः डुधाञ्हस्व: ढे ढलोपो दीर्घशोपधायाः पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र २२२ १२२ छशोच ३५८ ३५८ ७७६ छवोः शूठौ पञ्चमे च ७७३ ज कारादि सूत्र २५ ८८ जसि ३५ ४० १५२ जरा जरः स्वरे वा ६१ ७० २३८ जशरसो शि: ७० २२० १०९ जहातेर्वा २३३ २८२ ३६२ जपादीनां च २९४ ३०२ ४५६ ज्वलव्हलालनमोनुपसर्गा वा ३०२ २३६ ३६१ २७ ३०१ ३४७ ३५१ २२८ २२९ २२९ २८७ २४ ३५५ ७४ २७ १०३ परिशिष्ट छ कारादि सूत्र २५ ९१ २३० २२८ १८७ जान्तनशामनिटां ९९ जिघ्रतेर्वा ७११ जिभुवोः ष्णुक् १४८ जुहोत्यादीनां सार्वधातुके १५५ जेर्गि: सन्परोक्षयोः अकारादि सूत्र ७२७ ट कारादि सूत्र ८२ टग्लक्षणो जायापत्योः ७५७ दादौ स्वरे वा २५२ टात् सुप्तादिर्वा ९६ टौसोरे ३०७ ड कारादि सूत्र ९० ज्वनुबन्धात्त्रिमक्तेन निर्वृत्ते २८१ डानुबन्धे ऽन्त्यस्वरादेर्लोपः १६० डोऽसंज्ञायामपि ढ - कारादि सूत्र १४७ पृष्ठ सूत्रक्रमांक २४४ २८९ ३३४ ५६ ८९ ५९ ३८९ ३५५ १८२ ३३३ २१६ ३९२ १३१ २१८ २३९ १७२ ४२७ ४५८ ७८८ ४५३ ७३४ १५० ३८२ ६४० २०२ २७६ २१३ १७५८ ५१० ६३४ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० कातन्त्ररूपमाला सूत्र २८८ १०४ ण कारादि सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक ण्य गर्गाद: १७० ४८३ ण्युट च ३२५ णम् चाभीक्ष्ण्ये टिश्च पदं १६२ १९७ णो नः २०९ तकारादि सूत्र तत्र चतुर्दशादौ स्वराः ३ २ तथयो: सकारम् तस्मात्परा विभक्तयः ___ ३३ १२६ तस्य च तवर्गश्चदवर्गयोगे चटवर्गों २९२ तस्माद् भिस्भिर् ३०९ तव मम इसि १३० ३५८ तत्स्था लोप्या विभक्तयः ४२१ तत्पुरुषावभौ १५६ ४३५ तथा द्विगो: १६२ ४५५ तत्र जातस्तत आगतो वा १७८ ४९९ तत्वौ भावे १७८ ५०२ तदस्यास्तीति मन्त्वन्विनिन् १८० ५०५ तसोन तृतीयो मत्वर्थे १८१ ५०७ तदस्य संजातं तारकादेरितच् १८१ ५०८ तवर्गस्य षटवट्टवर्ग: १८२ तत्रेदमिः १८५ ५२१ तहो: कु: १८५ ५२३ तत्सन्निधौ बुव आहः २१५ ८५ तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्ग: २२२ ११८ तथोश्च दधाते: २३० १६१ तनादेशः २४२ तस्मानागमः परादिरन्तश्चेत्संयोग: २७५ ३४२ तनोतेरनिटि वा तस्य लुग्वा २९६ . ४३१ तव्यानीयौ ५०७ तत्यांगनाम चेत् ३१६ ५२४ तस्य तेन समास: ३१६ ५२५ तद्यदाधन्तानन्तकारबहुवाहहर्दिवाविभा तद्दीर्घमन्त्यम् ३४६७०३ निशाप्रभाभाश्चित्रकर्तृनान्दीकिंलिपिलिबिबलिभक्ति- तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिष्वा क्षेत्रजंघाधनुररु:संख्यासु च ३२९ ६०८ क्वे: ७३० ततो यातेर्वरः ३५२ ७३७ त्यदादीनामविभक्ती १७२ त्वन्मदोरेकत्वे १२८ ३४६ त्वमहं सो सविभक्त्योः १२८ ३४७ त्वन्मदोकत्वे तेमे त्वामा तु विषिपुष्यतिकृषिश्लिष्यतिद्विषिपिधे द्वितीयायां १३२ ३६२ विषिशिषिशुषितुषिदुषे: धात् २५३ २५८ तादर्थे १४३ ३९८ तासां स्वसंज्ञाभिः कालविशेष: २७८ तिर्यङ् तिरश्चि ८६ २७० तिष्ठतेरित् ३०१ ४५२ तुभ्यं मह्यं जय १२९ ३५५ तुदभादिभ्य ईकारे १३६ ३७४ तुल्यार्थे षष्ठी च ३९५ तुमर्थाच्च भाववाचिन: १४४ ३९९ तुदादेरनि २३८ १९५ तुन्दशोकयो: परिमृजापनुदोः ३२६ ५८९ तृतीयादौ तु परादि: ३९ १४८ तृतीया सहयोगे ३९० ३९० १२ ३५४ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३९१ GET १८५ ३६० पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक तृतीयादेढिधभान्तस्य तृन् ३५१ ७३१ घातोरादिचतुर्थत्वं स्वोः २२७ १४४ तृषिमृषिकृषिवञ्चिलुच्यतां च ३६० ७८६ तृफलभजत्रपन्थिदम्भीनां च ३२० तेषां द्वौ द्वावन्योऽन्यस्य सवौँ ३ ते वर्गा: पञ्च पश्च पञ्च १२ तेभ्य एव हकार: पूर्वचतुर्थं न वा २१ ७३ ते थे वा सम् ९७ तेर्विशतेरपि १८३ ५१७ तेषु त्वेतदकारताम् ५२२ ते धातवः २२१ ते धातवः २८५ ३७६ ते कृत्या: ५०८ तौर स्वरे १४ वयश्च १७३ थ कारादि सूत्र थल्याहे: २१५ ८६ थलि च सेटिं २६९ थल्कारात् २७६ ३४६ थफान्तानां चानुषङ्गिणां ७८७ द कारादि सूत्र दश समाना: ३ ३ दंशिषञ्जिष्वञ्जिरञ्जी नामनि ५७ दहिदिहिदुहिमिहिरिहिरुहिलिहि दयायासच २७८ ३५२ लुहिनहिवहेहत्ि २५४ २५९ दरिद्रातेरसार्वधातुके २८९ ३९१ दम्भेस्सनि २८९ ३९५ दम्भेरिच्च दधातेहिः ३४९ ७२० दद्दोऽधः ३४९ ७२२ दादेहस्य ग: ११३ ३३२ दाणो यच्छ २१२ दास्त्योरेभ्यासलोपश्च २१८ ९९ दादेघ: १४२ दामागायति पिबति स्थास्यति जहातीनामीकारो दास्त्योरेभ्यासलोपश्च २३१ व्यञ्जनादौ २३१ १६४ दास्वान्साब्हा-मीदवांश्च ३१३ ५०६ दादानीमा तदः स्मृती १८७ ५३२ दाइस्य च ३४६ दिव उद्व्यञ्जने १०५ ३१६ दिव: कर्म च १४१ ३८९ दिगितरातेंन्यैश्च ४०३ दिवादेर्यन् २३५ १८२ दिहिलिहिश्लिषिश्वसिव्यधती दीर्घात्पदान्ताद्वा ३२ १२२ एश्यातां च ३२४ ५७३ दीर्धमामिसनौ दीर्घमामिसनौ १७० - दीधीवेव्योरिवर्णयकारयोः २२४ दीधीवेव्योश्च २२४ १३० दीर्घा लघोरस्वरादीनाम् २६२ २९५ दीपजनबुधपूरितायिष्यायिभ्यो वा २८२ ३६१ दीर्घोऽनागमस्य २९२ दीर्घस्योपपदस्थानव्ययस्य दुहः कोघश्च ६५१ खानुबन्धे ३३१ ६१८ दृग्दृशक्षेषु समानस्य स. ३४१ दृश्यार्थश्वानालोचने १३३ ३६६ दृशे: पश्य: २१३ ६९ २८९ २२७ ७०५ १४५ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ कातन्त्ररूपमाला ३२ १९० २१५ ३४८ ७१८ सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक दृशे; क्वनिप् ३४३ ६८८. देववातयोरापे: ३३० ६१३ दोऽद्वेमः १०३ ३०६ इनकमु योगांधून, वापि द्वन्द्वैकत्वम् १६२ ४५४ यो भवेत् १५९ ४४१ द्वयमभ्यस्तम् २२९ १५३ द्विचनमनौ १८ ६२ द्विर्भावं स्वरपरच्छकार: १२० द्वितीया तृतीयाभ्याम् वा ६१ २१७ द्वितीयैनेन १३८ ३८२ द्वित्रिभ्यां धमणेधा च १८८ ५४२ द्वित्रिचतुर्यः सुच ५५१ द्वित्रिभ्यामय १९० ५५४ द्वित्वबहुत्वयोश्च परस्मै ८२ द्विवचनमनभ्यासस्यैद्वितीयचतुर्थयोः प्रथमतृतीयौ २३० १५९ कस्वरस्याद्यस्य २२८ १४९ द्वेस्तीयः १८२ __ ५११ द्यतिस्यमास्था त्यगुणे द्यादीनि क्रियातिपत्तिः १९७ ११ ध कारादि सूत्र धनुर्दण्डत्सरुलाङ्गलांकुशयष्टि ध्मो धमः २१२ तोमरेषुग्रहेर्वा ३२८ ५९९ ध्याप्यो: ३३८ ६५८ धातुविभक्तिवर्जमर्थवल्लिङ्गम् ३३ १२५ धातोस्तृशब्दस्यार् ५५ २०० धात्वादेष: स: २०९ ५४ धातोश्च २६३ धातोर्वा तुमन्तादिच्छातनै धातोर्यशब्दश्चक्रीयितं ककर्तृकात् २८६ ३८० क्रियासमभिहारे २९२ धातोश्च हेतौ ३०० ४४७ धातो: ३१० ४९२ धातोस्तोन्त: पानुबन्धे ३१६ ५२९ धुड्यञ्जनमनन्तस्थानुनासिकम् २२ घुटां तृतीयश्चतुर्थेषु ७७ धुटि बहुत्वे त्वे १४३ धुट्स्वराघुटि नुः २४० घुटां तृतीयः ८८ २७५ धुटि हन्ते: सार्वधातुके २२१ ११२ धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु २२२ धुटच धुटि २५० २४७ धृत्र: प्रहरणे दादण्डसूत्रयोः धुटि खनि सनिजनाम् ३४६ ७०४ धेदृशिधाध्मः श: न कारादि सूत्र न व्यञ्जने स्वराः सन्धेया: १६ ५८ नसाकोऽदस: नृन: पे वा २४ ८४ न शादीन् शषसस्थे १०१ न विसर्जनीयलोपै पुन: सन्धिः २९ १०७ न स्यादि भे ११६ न सखिष्टादावग्निः ४८ १८१ न बहुस्वराणाम् २२० नद्या ऐ आसासाम् ६३ २२२ न नामि दीर्घम् ६४ नपुंसकात्स्यमोलोपो न च तदुक्तं ७२ २४५ न संयोगान्तावलुप्तवश्च पूर्वविधौ ८९ २७८ २९८ ७५ ૨૨ ३२७ ३२३ २२५ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३९३ १५९ १४ Xo सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक न सम्बुद्धौ ९६ २९१ न शुन: १०१ २९८ न रेफस्य घोषवति १०४ ३११ न पादादौ १३२ ३६३ नदाद्यञ्च वाख्यंसन्तृसखिनान्तेभ्य न यनभ्यां १३६ ३७६ १३६ ३७२ नम: स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषट्योगे । न निष्ठादिषु १४८ ४१३ चतुर्थी १४३ ३९७ न नरनारायणादिषु ४४४ न सूत्रे क्वचित् १६३ ४५७ नस्य तत्पुरुषे लोप्य: ९६४ ४६२ नोतिपिव्यधिसचिसहितनिरुहिषु क्विबन्तेषु नस्तु क्वचित् १७३ ४९२ प्रादिकारकाणाम् १६७ ४७१ न य्वोः पदाधोवृद्धिरागमः १९३ ५६४ नवपराण्यात्मने रणकारानुबन्धचेक्रीयतयोः २०२ ३३ नमामास्मयोगे २०८ ५० नहेर्द्ध: २५८ २७८. न नबदरा: संयोगादयोऽये २६३ ३०० न शासृनुबन्धानाम् ३६४ ३०१ न वाश्व्योरगुणे च २७२ ३२८ न व्ययते: परोक्षायाम् २७३ ३३० न तिबनुन्थगणसंख्यैकस्वरोक्तेषु २९६ ४३४ न ऋतः २९८ ४३९ न रात् २९९ ४४० न हलिकल्यो: २९९ ४४३ न स्वरादेः ३०० न कमभ्यमि चम: ४६१ न लोपश्च ३०५ ४७४ नमस्तपोवरिवसश्च यिन् ខ្ញុំង៤ ४८२ न कवर्गादिव्रज्यजाम् ३१९ ५४३ न सेटोऽमन्तस्यावमिकमिचमाम् ३२२ ५६१ नन्द्यादेर्यु: ३२२ तिखनिरञ्जिभ्य एव शिल्पिनि नग्नपलितप्रियान्धस्थूलशुभगाढ्येष्वभूततद्भाषे वुस् ५७७ कृष: ख्युट करणे ३३५ ६४४ नयुवर्णवृतां कानुबन्धे ३४४ ६९५ न डीवीदनुबन्धवेटामनपुंसके भावे क्तः ३५० ७२८ पतिनिष्कुषोः ३४५७०१ नञ्यन्याक्रोशे ३५७ ७६९ नज्यन्याक्रोशे ३५७ ७६९ नामिपरो रम् १११ नामिकरपरः प्रत्ययविकारागमस्थ: सि: नामिन: स्वरे ७२ २४६ षं नुविसर्जनीयवान्तरोऽपि ३९ १५० नाम्यन्तचतुरां वा ७३ २४८ नाझे: पूजायां ८३ २६५ नान्तस्य चोपधाया: १०२ ३०१ नान्तात् स्त्रीकारे नित्य पवमसंयोगादनोऽलोनान्तसंख्यास्वस्त्रादिभ्यो न १३७ ३७९ पोऽलुप्तवन्ध पूर्वविधौ १३७ ३७७ नाम्नां समासे युक्तार्थ: ४२० नावस्तायें विषाध्ये तुलया सम्मितेऽपि च नाम्नि प्रयुज्यमानेऽपि प्रथम: १९९ २१ तत्र साधौ य: १७७ ४९७ नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः २०१ ३२ नाम्यन्तानां यणायियित्राशीश्चिचेक्रीयितेषु नामिनश्चोपधाया लघो: २१९ १०६ ये दीर्घ: २०९ ५३ ३२४ WWW. १५० Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ कातन्त्ररूपमाला २८७ २३९ FREE पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक नाम्यन्तानां यणायियत्राशिश्चिचेक्रीयितेषु नामिनोवोर कुर्छरोर्व्यञ्जने २३५ १८३ दीर्घ: २३१ १६२ नाम्यन्तानां यणायिन्नाशीश्च्चिना यादेः २४३ २११ चेक्रीयितेषु दीर्घः २३७ १९२ नाम्यादेर्मुरुमतोऽनृच्छ: २६७ ३०६ नाम्यन्ताद्धातोराशीरद्यतनीपरोक्षासु । नाम्यन्तानामनिटाम् ३८४ थो ढः नामि व्यञ्जनान्तादायेरादेः ३०५ ४७३ नाम्नि वदः क्यप् च ३१५ ५२२ नाम्युपधात्त्री का झां कः ३२२ ५६५ नामि स्थल ३२६ ५८८ नाडीकरमुष्टिपाणिनासिकासुध्मश्च ३३१ ६१९ नाम्नितृभृवृजिधारितपिदमिसहां नाम्न्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये ३४१ ६७६ संज्ञायाम् ३३३ ६३१ नित्यं सन्ध्यक्षराणि दीर्घाणि १० नियोडिराम् ५१ निर्धारणे च १४६ ४०७ निमित्तात्कर्मणि १४९ निरादयो निर्गमनाद्यर्थे पञ्चम्या १५३ ४२८ नित्यं शतादेः १८३ निजिविजिविषां गुण: सार्वधातुके २३४ १७९ नुः स्वादेः २३७ १८९ नि:प्राभ्यां युजे: शक्ये ५४६ निमूलसमूलयोः कष: ३६३ ८०१ निष्ठा ३४४ ६९३ सिटेटीन: निष्ठायाश्च ३४५ ६९८ । नृपा नृतेश्चक्रीयिते ४३० नृतेश्चक्रीयिते २९८ ४३८ नेतौ ६७ नेज्वदिटः २८४ ३७० नैकतरस्य ७१ २४३ नोऽन्तशछयो: शकारमनुस्वारनोतो वः ८५ २६८ पूर्वम् ८१ नोच विकरणादसंयोगात् २०८ ५२ नोर्वकारो विकरणस्य २३७ १९० नोच विकरणादसंयोगात् २३८ १९४ नोर्विकरणादसंयोगात् २३८ १९३ पकारादि सत्र १६० ४४६ पर्यपाङ्योगे पञ्चमी ४०२ पण्यावद्यवर्या पदपक्ष्ययोश्च ३१७ विक्रेयगर्हयानिरोधेषु ३१५ ५१७ परिचाय्योपचाय्यावग्नौ ३२० ५५५ पञ्चमोपधाया थुटि चागुणे ६५९ पदरुजविशस्पृशो वा घञ् ३५४ ७४९ पाधोर्मानसामिधेन्योः ३२० ५५० पार्श्वपृष्ठादौ करणे ३२८ पाणिवताडघौ शिल्पिनि ३३५ ६४३ पुरोऽग्रतोऽमेषु सत्तें: पूर्योभ्यास: २२९ १५१ पूर्व कर्तरि ३२९ ६०६ पूक्लिशोर्वा ३४५ ७०० परो दीर्घः प इत्युपध्मानीय: ६ २० पञ्चमे पञ्चमांस्तृतीयानवा २० २९५ १९३ ३२९ ६०५ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३९५ ४६७ १८४ ५२० ५५३ १९५ २०५ २५० २७० २४५ पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक पररूपं तकारो लचटवर्गेषु ७४ पदान्ते धुटां प्रथम: २२ ७६ पफरुपध्मानीयं न वा १०० पञ्चादौ घुट् ४३ १५९ पतिरसमासे ४९ १८४ पन्थिमन्थिऋभुक्षीणां सौ १८५ पदान्ते धुटां प्रथमः २०७ २५ पर्यादयोग्लानद्यर्थे चतुर्थ्या १५३ ४२७ पदे तुल्याधिकरणे विज्ञेयः पथि च १६६ कर्मधारयः १५४ ४३१ पञ्चम्यास्तस् परादेरेवि १८८ ५३८ परिमाणे तयट् १९० पञ्चमी ४ परोक्षा १९६ पञ्चम्यनुमती ४२ पचिवचिसिचिरुचिमुश्चात् २४४ परोक्षा २६७ ३०४ परोक्षायां च । २६८ ३१२ परोक्षायामिन्धिश्रन्थिन्थि परोक्षायामभ्यासस्योभयेषाम् २७१ ३२२ दम्धीनामगुणे ३१९ परोक्षायामगुणे २७४ ३३७ पपयायाधुमि बापूर्ण ३५८ पग गतौ प्वादीनां हस्वः २१८ पात्पदं समासान्तः ९४ २८७ पुंसोऽशब्दलोपः ३३० पुंवद्धाषितपुंस्कानूङ पूरण्यादिषु स्त्रियां पुष्यतिष्ययोर्नक्षत्रे १७४ ४९६ तुल्याधिकरणे ४५८ पुरुषे तु विभाषया १६६ ४६८ पुषादिद्युतादिलकारानु बन्धार्तिसति । पुषादिद्युतादिलकारानुबन्धार्तिसर्ति शास्तिभ्यश्च परस्मै २५४ २६३ शास्तिभ्यश्च परस्मै ३०८ ४८८ पुंसि संज्ञायां घः ३५८ ७७२ पूर्वो हस्वे: ६ पूर्वपरयोरोपलब्धौ पदम् ४० १५१ पूर्ववाच्यं भवेद्यस्य सोव्ययीभाव पूर्वपूर्वतरयो; पर उदारी च इष्यते १६० ४४७ संवत्सरे १८७ ५३४ पूर्वादेरेघुस् १८७ ५३६ पूर्ववत्सनन्तात् २८५ 399 पूजस्तु न स्यात् २९० ४०३ प: पिब: २१२ पृथक्नानाविनाभिस्तृतीया वा १४५ ४०४ फ कारादि सूत्र फलेमलरज: सुग्रहे ३३० ६१२ . प्रकारादि सूत्र प्रत्यये पञ्चमे पश्चमानित्यम् २० ७० प्रशान: शादीन् २४ ८५ प्रथमाविभक्तिलिङ्गार्थवचने ३४ १२७ प्रकृतिश्च स्वरान्तस्य १५१ ४२२ प्रकारवचने तु था ५३९ प्रकृष्टे तमतररूपाः प्रसु तवृत्तेर्मयट् ५६३ प्रत्ययः परः १९८ ६३ १८८ १८९ ५४५ १९२ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ कातन्त्ररूपमाला प्रच्छादीनां परोक्षायाम् घुस्रुसृत्वां साधुकारिणि प्रादय उपसर्गाः क्रियायोगे प्रेदाज्ञः प्रोपाभ्यामारम्भे १८ बहुवचनममी बाह्लादेश्च विधीयते ब्रुव ईड् वचनादिः बुवो वचि: २१५ ८४ २१५ २५५ २७९ २६७ भगो अघोभ्यां वा भगवदधवतोश्च भवतेरः भयार्तिपेघेषु कृत्रः भविष्यति गम्यादयः भ्यस् भ्यम् भाव कर्मणोच भावकर्मणो कृत्यक्तखलाः भावादिकर्मणो पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक २७२ ३२९ प्रवचर्चिरुचियाचियजित्यजाम् ३१९ ५४५ ३२५ ५८३ प्रश्नाख्यानयोरिचुञ् च वा ३५७ ७६८ २०२ ३४ प्राडोर्नियोऽसंमतानित्ययो: ३२६ ५९० स्वरवत् ___३२० ५५१ २११ ६१ ब-कारादि सूत्र ६५ बह्वल्पार्थात्कारकाच्छस्वा मङ्गले १७३ ४९१ गम्यमाने ५४९ ८१ छ वस्त्यादीनामडादय: पञ्च २१५ ९४ बुवो बचिः २७९ ३५६ भकारादि सूत्र १०९ भवतो वादेरुत्वं सम्बुद्धी २८४ भवतेः सिज्लुकि ર૪૭ २२९ ३०५ भविष्यति भविष्यन्त्याशी: ३३२ ६२९ श्वस्तन्यः २७८ ७४३ भवतेश्च ३५३ ७४५ १२९ ३५६ भाषदीपजीवमीलपीडकणवण२८२ ३६३ भणश्रणमणहेठलुपां वा २६४ ३०२ ५०९ भावे भुवः ३१६ ५२६ ३४७ ७१३ भावादिकर्मणोर्वोदुपधात् ३४८ ७१६ ७५० भसैस्वा ३७ १४१ २३२ १६९ भिद्योध्यौ नदे ३१८ ५३८ २७४ ३३८ भुव: सिज्लुकि २४८ २३० २४८ २३१ भुजोऽन्ने ३१९ ३३५ ६४५ भूरवर्षाभूरपुन : १८९ ५४८ भूतकरणवत्यश्च २४७ २२५ भूप्राप्तौ । २४९ ३२९ ६०९ भृग्वत्र्यङ्गि रस्कुत्सवसिस्ट २२९ १५६ गोतमेभ्यश्च ४८२ २५४ २६१ भृजादीनां : ३९४ ५३१ भाज्यलकृजभूसहिरुचिवृतिवृधि६८ २३५ चरिप्रजनापत्रपेनामिष्णु च ३५१ ७३२ ३५३ भावे ५४७ १९३ २०६ भियो वा भीहीभृहुवां तिवच्च भुवो वोन्त: परोक्षाद्यपत्तन्योः भुव: खिष्णुखुकौ कर्तरि भूतपूर्व वृत्ते म्नश्चर भूतकरणवत्यश्च भूतौ कर्मशब्दे धृहाङ्माडामित् भृजादीनां ष: भृञोऽसंझायाम् धूर्धातुवत् २४० १६९ ३१७ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र मनसः सस्य च मनोरनुस्वारो घुटि मनोः षण्ष्यौ मदिपतिपचामुदि मातुः पितर्यरच मास्मयोगे ह्यस्तनी च मान्बधदान्शान्यो दीर्घश्चाभ्यासस्य मितनखपरिमाणेषु पच: मुहादीनां वा मृजो मार्जि: मोऽनुस्वारं व्यञ्जने नो मनः यवलेषु वा यत्क्रियते तत्कर्म यतोऽपैति भयमादत्ते तदपादानम् यच्चार्चितं द्वयोः यण् च प्रकीर्तितः इवर्णस्यासंयोगपूर्व स्यानेकाक्षरस्य यणि वा यमिरमिनम्यादन्तानां पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र ९ ८१ १७३ ३५६ १६० २०८ २८६ ३३२ ११३ ३१७ २५ २१२ २६ १३८ १४४ १५९ १७९ २३२ २३७ परिशिष्ट म कारादि सूत्र सिरन्तश्च २५२ यस्याननि २९२ यदि चादो जग्धिः ३४८ वोर्व्यञ्जने ये २९७ याकारौ स्त्रीकृतौ ह्रस्वौ क्वचित् १६६ याम्सोरियमिसौ यावति विन्दजीवो: २०५ ३६३ पृष्ठ सूत्रक्रमांक १८ मन्यकर्मणि चानादरेऽप्राणिनि १४१ ३४१ ३६१ १९१ २५१ ३०२ २३६ ३६१ २९ मणीवादीनां वा २५८ ४९३. मनः पुंवच्चात्र ५३ स्रिशोधुटि ४४५ मात्रद् ४९ मायोगे ऽद्यतनी मानुबन्धानां ह्रस्वः मिदे: ३७२ ६२४ मीनात्यादिदादीनामा: ३३३ मुचादेरागमो नकार: ५३६ स्वरादनि विकरणे ९१ मोनो धातोः ६७ यकारादि सूत्र ९४ ३८१ यत्तदेतेभ्यो डावन्तुः यस्मै दित्सा रोचते - धारयते वा तत्सम्प्रदानं य आधारस्तदधिकरणम् ४०० ४४३ यदुगवादितः ५०३ यत्तदेतद्द्भ्योडावन्तु यणाशिषोयें १७० यन्योकारस्य १८८ यणाशिषोयें यमिमदिगदां त्वनुपसर्गे २५३ य इवर्णस्य ४१३ यमो ऽपरिवेषणे ७१७ यपि च ४३६ वोर्व्यञ्जनेऽये ४६९ या शब्दस्य च सप्तम्याः ४१ याचिविछिप्रछियजिस्वपिर ७९९ क्षियतां न २३९ ३३८ ९१ ३९७ ३५५ ६३ ३८७ ६७९ ७८९ ५५५ २५१ ४५५ १८४ ७९२ १९७ ६६० २८० १४३ ३९६ १४८ ४१४ १७८ ५०० १९१ ५५६ २३४ १७८ २३६ १८५ २३९ १९८ ३१४ ५१५ २७१ ३२५ ३०३ ४६४ ३६२ ७९३ ३१२ ५०३ २०४ ४० ७५९ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ सू विलोपे च चेक्रीयित: युजेरसमासे नुर्पुटि युष्मदस्मदोः पदं पदात्षष्ठीचतुर्थी द्वितीयासु वन युटु च यूयं वयं जसि ये च ये वा यः करोति स कर्ता राजसूयश्च रात्रिष्ठातो नोऽपमूर्च्छिमदि १३१ ३६० युजिरुजिरञ्जिमुजिभजिभञ्जिसञ्जित्यजिभ्रस्जियजियुग्यं च पत्रे मस्जिसृजिनिजिविजिष्वञ्जर्जात् २६० २८९ युवुलामनाकान्ता ३५८ ७२९ युट् च १२८ ३५० येन क्रियते तत्करणम् २४२ २०९ ये वा ३६२ ७९५ योऽनुबन्धोऽप्रयोगी १३८ ३८० रकारादि सूत्र १३ ४६ रऋतस्तद्धिते ये ३० १०५ १८६ २११ ३०२ रमृवर्णः प्रकृतिरनामिपरोऽपि र: सुपि रथारेतेत् रजेरिनिमृगरमणार्थे वा रझेरिनि मृगरमणे राधिरुधि भिक्षुधिवन्धिशुधिसिध्यतिबुध्यतियुधिव्यधिसाधेर्धात् ख्याध्माभ्यः रिरोरी च लुकि रुदादिभ्यश्च रुधादेविकरणान्तस्य लोप: रूढादण् रेफाक्रान्तस्य द्वित्वमशिटो वा पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र २९६ रेफसोर्विसर्जनीयः रोरे लोपं स्वरश्च पूर्वो दीर्घः ८७ लम्लुवर्णः ललाटे तपः ૨૪૪ २९७ २१९ कातन्त्ररूपमाला २४० १६८ २६० २८८ ३२० ९ ३५ ३१ ४३३ यिन्यवर्णस्य २७२ युवावो द्विवाचिषु युधिक्रियाव्यतिहारी इच् युष्मदि मध्यमः १३ ३३२ १६ ११४ रषृवर्णेभ्यो नो णमन्त्यः स्वरहयक ३१३ वर्गपवर्गान्तरोऽपि ५३१ रसकारयोर्विसृष्टः ५८ रशब्द ऋतो लबोर्व्यञ्जनादेः ४५७ रज्जेर्भावकरणयोः राधोहिंसायाम् राजिभ्राजिभ्रासिभ्लासीनां वा ५५३ राल्लोप्या ६९६ दृशिस्पृशिमृशिदंशे: शात् ४३७ रुद्रादेः सार्वधातुके १०७ रुदादेश पृष्ठ सूत्रक्रमांक ३०४ ४६८ १२८ ३४८ १५८ ४३८ २०० २७ ३१८ ५३९ ३२१ ५५९ ३५० ७७० १४१ ३८८ २९३ ४२० ३४ १२९ रिशिरुशिकुशिलिशिविशिदिशि २०२ रुचादेन व्यञ्जनादेः ४७८ रूढानां बहुत्वेऽस्त्रियामपत्य ३२ प्रत्ययस्य १३० है. ११९ रोगाख्यायां बुञ् ४७ लक्षेरोमोऽन्तश्च ६२३ लघुपूर्वोटः पि ३७ १९९ ३००. ३५४ २६९ २७० ३३८ २२० ३५२ ५१ २५३ २५६ २१९ १०५ १०८ ७३६ १६९ ५७ ३५७ ૬૭ ३६२ १३९ २५ ४४६ ७५२ ३१७ ३१८ ६६३ ४८० २०५ ७६६ २३४ ७९६ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३९९ - ११ २४ ४५० - १३ .-.. - --.. २६ - -- सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र म झूम यांचा ल्वाधोनुबन्धाच्च ३४६ ७०२ लानुनासिकेष्वपीच्छन्त्यन्ये २१ ७२ लिङ्गान्तनकारस्य १७९ लुग्लोपे न प्रत्यकृतम् ४७ १७५ लुप्तोषधस्य च २२१ ११४ लुभो विमोहने ३४५ लवणे अल् ३६ ले लम् लोकोपचारादग्रहणसिद्धिः २२ लोपोऽभ्यस्तादन्तिनः २२० ११० लोपे च दिस्योः २२७ १४५ लोपोऽभ्यस्तादन्तिन: २२९ १५४ लोप: सप्तम्यां जहाते: २३३ १७३ लोप: पिबतेरीच्चाभ्यासस्य ३०१ वकारादिसूत्र वर्गाणां प्रथमद्वितीया:शषसाश्चाधोषाः ५ १३ वमुवर्णः वर्गप्रथमा: पदान्ता:स्वरघोषवत्सु वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकार तृतीयान् ६८ न वा वर्गे तद्वर्गपंचमं वा । ९३ वर्गे वर्गान्तः ८१ वरुणेन्द्रमृडभवशर्वरूद्रादान् १३७ ३७८ वर्तमाना वदवजरलन्तानां च २५१ २४८ वसतिघसे: सात् २८७ ३८५ वनतितनीत्यादिप्रतिषिद्धेटांधुटि वशिस्रसिध्वंसिसिकसिपतिपञ्चमोऽच्चात; २९० ३९९ पदिस्कन्दामन्तो नी २९३ वर्तमाने शन्तुडानशावप्रथमैकाधि वमोश्च करणामन्त्रितयोः __ ४९५ वदे: ख: प्रियवशयोः बह्यं करणे ३१५ ५१८ वहश ३३६ वहलिहाभूलिहपरन्तपेरंमदाश्च ३३२ ६२६ व क्वों ३३७ ६५७ वहे पञ्चम्या भ्रंशे: ६६४ वनतितनोत्यादिप्रतिषिद्धेटांधुटिपञ्वाम्शसौः ६५ २३२ चमोऽच्चान्तः ३४७ वा विरामे २४२ वा बिरामे २४२ वाम्या: १०५ ३१५ वाहेशब्दस्यौत्वं ३३४ वा स्त्रीकारे ३४० वा नपुंसके १२४ ३४२ वा नौ द्वित्वे १३२ ३६१ वा तृतीयासप्तम्योः १६१ ४५० वाणपत्ये १६८ ४७३ वारस्य संख्यायाः कृत्वसुन् ५५० वा स्वरे २४० २०० वा परोक्षायाम् २७३ वागल्भक्लीबहोढेभ्यः ३०६ ४७७ वाष्पोष्मफेनमुमति ३०६ ४७९ वा स्वरे ३२३ ५६६ वा ज्वलादिदुनीभुवो ण: ३२३ ५७० वा छाशो: ३४८ ७१९ वा म: ३६२ ७९४ विराम वा ९२ विसर्जनीयञ्चे छे वा शम् २७ ९५ ३१३ ३१० ६२७ ६४९ ७१ ८० १२२ १९० Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातन्त्ररूपमाला ४४० २२६ सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक विभाष्येते पूर्वादे: ४२ १५८ विरामव्यज्जनादिष्वनकुत्राहिविरामव्यज्जनादिबुक्तं नपुंसकात्स्य वन्सीनां च ३२० मोर्लोपेऽपि ३४१ विभक्तेश्चपूर्वइष्यते ३६९ विशेषणे १४२ ३९३ विदिक तथा १५८ विशत्यादेस्तम १८३ ५१६ विध्यादिषु सप्तमी च २०४ ३९ विद आम् कृशम्य वा १३५ विदादेर्वा विध्वरुस्तिलेषु तुदः ६२० विहङ्गतुरङ्गभुजङ्गाश्च विट् कमिगमिखनिसनिजनाम् ३३६ ६५२ विड्वनोरा: ६५३ विक्रिय इन् कुत्सायाम् ३४३ ६८७ वुण् तृचौ ५५८ उषिधिनीणोश्च १२५ ५७८, वुण नमो क्रियायां कियार्थायाम ३५३ ७४६ वृद्धिरादौ सणे १६८ १६८ वृङ् बृजोश्च २९१ ४०७ वृदृजुषीणशासुलुगुहां क्यप् ५२८ वेत्ते व २२६ १३९ वेजश वयिः २७१ ३२७ वेत्तेः शन्सुर्वन्सुः ३१२ ५०० वौ नीपूभ्यां कल्कमुञ्जयो: ३१७ ५३४ व्रताभीक्षण्ययोच ३४१ ६७८ ३४७ ७०८ ब्रजयजोः क्यप् ३६४ ८०६ व्यञ्जनमस्वरं परवर्ण नयेत् २५ व्यञ्जनाच्च ४७ १७८ व्यञ्जने चैषां नि: १८८ व्यञ्जनान्नोऽनुषङ्गः ८१ व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः १५४ ४३० व्यञ्जनादिस्योः व्यञ्जनादीनां सेटामनेदनुबन्धह्मयन्तकण- व्यापरिभ्यो रम: २५३ २५४ क्षणश्वसवधां वा २५१ २५० व्यञ्जनान्तानामनिटाम् २५८ २८१ व्यादभ्यां वस: ३४७ ७१२ व्यञ्जनादेर्युपधस्यावो वा ३६० ७८५ ५० २२१ १७६ २१२ सकारादि सूत्र सम्बुद्धौ च २४ सख्युश्च १८३ सम्बुद्धौ च २१६ सम्बुद्धौ हस्वः ४४८ सणो लोप: स्वरे बहुत्वे २५३ सम्बुद्धावुभयोहस्वः - ३८४ सति च ४२९ सहस्य सो बहुव्रीहौ वा समान; सवणे दीर्धीभवति परश्चलोपम् सखिपत्योर्डि ४८ सर्वनाम्नस्तु ससवोह्रस्वपूर्वाश्च ६० स नपुंसकलिङ्गः स्यात् १६० सन्ध्यक्षराणामिदुतौ ह्रस्वादेशे ७८ सर्वोभयाभिपरिभिस्तसन्तै: १३९ सप्तम्यास्तत्पुरुषे कृति बहुलम् १५४ २२८ ६४ २५३ २५७ ४१८ १४९ १५७ ४३७ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र समं भूमिपदात्योः सर्वनाम्नः संज्ञाविषयेस्त्रियां विहितत्वात् सप्तमी १७२ १९५ २०५ २१३ सप्तम्यां च २१६ सम्प्रसारणं स्वतोन्तस्थानिमित्ता: २१७ २२६ सोग - त्यर्त्तिदृशाम् सम्प्रसारणंस्वृतोऽन्तस्थानिमित्ता: २४४ सर्णानिटः शिङन्तान्नाप्युपधाददृशः २५३ सर्वत्रात्मने २६८ सनि चानिटि २८५ २८७ सस्यसेऽसार्वधातुकेतः सत्यार्थवेदानामन्त आप्कारिते २९९ ३२० ३२६ ३३६ समर्थनाशिषौश्च सदेः सीदः चिकुण्डपः कृतौ समि ख्यः सहः छन्दसि सत्सूद्विषदुहयुजविदभिदजिनीराजामुपसर्गेऽप्यनुपसर्गेऽपि नताशंसिभिक्षामुः सर्वधातुभ्यो मन् संयोगान्तस्य लोपः संख्याया: ष्णान्ताया: संख्या पूर्वी द्विगुरितिज्ञेयः संख्यायाः पूरणे डम संख्याया अवयवान्ते तयट् संज्ञायां च सान्तमहतो नपधायाः पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र १६२ सामाकम् सार्वधातुकवत् ३३९ ३५२ ३५८ ८९. १०१ परिशिष्ट १५५ १८१ १९० ३५.७ ९३ १३० ३१० ४५२ समासान्तर्गतानां वाराजादी नामदन्तता ४८९ सद्यआद्या निपात्यन्ते ३ सम्प्रति वर्त्तमाना ४३ सर्त्तेर्धात्रः ७५ सर्वेषामात्मने सार्वधातुकेऽनुत्तमे ८८ पञ्चम्याः ९६ सस्य ह्यस्तन्यांदीतः सपरस्वराया: सम्प्रसारणमन्त २५५ सन्यवर्णस्य ३०९ सन्ध्यक्षरे च ३७५ सनि मिमीमादार भलभशकपतप ३८६ दाभिस् स्वरस्य १६३ १८७ १९८ २१३ १३८ स्थायाः २४३ २१५ सन्ध्यक्षरान्तानामाकारो ऽविकरणे २५२ २६३ २७१ ४४४ सप्तम्युक्तमुपदम् ५५२ समाझे स्रुवः ५९१ सर्वकूलाभ्रकरीषेषु कष: ६४७ सहेष्वो ढः सप्तमी पञ्चम्यन्तेजनेर्ड: पृष्ठ सूत्रक्रमांक २१५ २२३ २८७ ३१६ ३२४ ३३२ ३३६ ३४३ ३४३ ६६९ सहराज्ञोर्युधः ७४० सहिवहोरोदवर्णस्य ३५३ ७७५ समासे भाविन्यनञः क्त्वो यप् ३६१ २६० संयोगादेर्बुटः ८८ ३०० संयोगादेर्घुट ४३३ संज्ञापूरणीकोपधास्तुन ५०९ संख्यायाः प्रकारे धा ५५२ संयोगादेर्थुटः १०६ १६३ १८८ ४०१ ३३१ ७६७ संपदादिभ्यः क्विप् ३६४ २८६ सावाँ सिलोपन ११० ३५९ सार्वधातुके यण् २०१ ४९६ सान्नाय्यनिकाय्यौ हविर्निवासयोः ३२० ४५६ ५३३ १९ ७२ ८७ १२७ २१३ २५२ २९७ ३२४ ३८७ ५२३ ५७१ ६२८ ६४९ ६९१ ६८९ ७४७ ७९१ २७४ २७४ ४५९ ५४० ६२१ ८०५ ३२४ ३१ ५५४ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ४०२ सूत्र साहिसातवेद्युदे जिचेतिधारिपारिलिम्पिविदां त्वनुपसर्गे सिचो धकारे सिचि परस्मैस्वरान्तानाम् सिद्धिरिज्वणानुबन्धे सुधी: सुट् भूषणे सम्पर्युपात् सुरासी ध्वोः पिबते: सूर्यरुच्याव्यथाः कर्त्तरि सृवृभृस्रुगुस्तु श्रु व एवपरोक्षायाम् सेट्सु त्रा सोऽपदान्ते ऽरेफप्रकृत्योरपि सौ च मघवान्मघवा वा सौ. नुः स्वरोऽवर्णवर्जी नामि स्मृत्यर्थकर्मणि स्मै सर्वनाम्नः पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र ३२३ २४९ २५६ ३१० ५२ २७७ ३२७ ३१८ स्वरादीनां वृद्धिरादेः स्वरादाविवर्णो वर्णान्तस्य धातोरियुव स्थानिवदादेश: स्वराद्रुधादेः परो नशब्दः स्थादोरिरद्यतन्यामात्मने स्थादोश्च २६९ २५८ २४१ १०० ११४ ४ कातन्त्ररूपमाला १४६ १६५ स्यसहितानित्यादीनि भविष्यन्ती १९६ २०७ २१५ २१८ २४० ५६९ सिजग्रतन्याम् २३८ सिंचः २७३ सिजाशिवोश्चात्मने सिद्धो वर्णसमाम्नाय : स्वस्रादीनां च स्त्रीनदीवत् स्त्र्याख्याविव वामि स्थूलदूरयुवक्षिप्रक्षुद्राणामन्तस्थादेलोंपो गुणश्च नामिनाम् १७१ स्वामीश्वराधिपत्तिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूतैः षष्ठी च स्वरेऽक्षरविपर्ययः २४७ २५० २५९ ४९१ सुरामि सर्वतः ४१ १९२ सुविनिर्दुः स्वपिसूतिसमानाम् १६२ ३४७ सुखादीनि वेदयते ५९१ सूतेः पञ्चम्याम् ३०६ २२० ५३७ सृजिदृशोरागमो ऽकारः स्वरात्परो धुटि गुणवृद्धिस्थाने १४७ ४१ ५६ २०३ स्त्रियामादा ६५ २३० स्त्री च ६६ २३३ स्वरे ह्रस्वो नपुंसके स्वादिधुटि पदान्तवत् २५४ ३१६ सवृशृस्तुद्रसुत्र एवपरोक्षायाम् २७७ २७७ सोऽपदान्ते २४१ २०५ सोमे सूत्र ३४२ २९७ सौ सः ११० ३३५ सी वा २२४ ११ ८ स्वस्येरेरिणीरिषु ४०९ स्वरजी यवकारावनादिस्थौ लोप्यौ १५३ व्यञ्जने २९९ स्यात् ४०६ नान्यस्य पदस्यार्थे बहुवीहि: ४६३ स्त्र्यस्त्र्यादेरेयण ८३ १०१ ६५ ७१ ११२ १३६ स्यातां यदिपदेद्वेयदि वास्यु हन्यपि १० स्मेनातीते ४८ स्थस्तिष्ठः पृष्ठ सूत्रक्रमांक २ स्वपिवचिजादीनांयण् परोक्षाशी: षु स्को: संयोगाद्योरन्ते च २०१ स्वरादेशः परनिमित्तकः २४१ पूर्वविधि प्रतिस्थानिवत् २४९ २५० २४२ स्थादोच स्वरतिसूतिसूयत्यूदनुबन्धाच्च २५७ २७६ स्तुसुधूञ्भ्यः परस्मै १६ ६० १५७ १७१ २०३ २१२ २१७ २२१ २४६ २५७ २५८ १ २२६ २४६ २८४ १५५ ४५.३ ४८० १११ २६० ३५० २०४ ६८५ ३२३ १२८ ३८ ५६ २१५ २३१ २४४ ३३१ ३७५ ४३६ ४८७ ३८ ६६ ९५ ११७ २२४ २७५ २७९ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसर ४०३ २९९ ३०२ ३६३ २६६ ३०३ सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक स्पृशमृशकृशतृपिट्ट स्मृशादीनां वा २८६ पिसृपिभ्यो वा २५९ २८५ स्वरादेर्द्वितीयस्य स्यसिजाशी: श्वस्तनीषुभावकर्मार्थासु स्मिफवश्कृगृदृधृ स्वरहनग्रहदृशामिडिज्वद्वा २८३ ३६६ प्रच्छा सनि २८५ ३७४ स्वरान्तानां सनि २८७ ३८३ स्तौतीनन्तयोरेव पणि २८८ ३९० स्तौतीनन्तयोरेव पणि २९० ४०२ स्वपिस्यमिव्येबां चेक्रीयिते २९४ ४२१ स्मिजिक्रीडामिनि ४५४ स्खदिरवपरिभ्यां च ४६५ स्वराद्य: ३१४ __ ५११ स्वरवृद्गमिग्रहामल ३२४ स्तम्बकर्णयोः रमिजपोः ३२८ ६०० स्पृशोऽनुदके स्फाय फी: ३४८ ७१५ स्वरान्तादुपसर्गात्तः ३४९ ७२१ स्वरवृदृगमिग्रहामल ३५५ ७५६ स्त्रियां क्ति: ८०२ शकारादि सूत्र शसिसस्य च नः ३६ १३७ शसोऽकारसचनोऽस्त्रियाम् शदेः शीयः २१३ ७३ शदेरनि २१३ ७४ शमादीनां दी| यनि २३६ १८६ शासिवसिघसीनां च २५५ शमोऽदर्शने ४६३ शब्नादीन् करोति ४८१ शकिसहिपवर्गान्ताच्च ३१४ ५१३ शंपूर्वेभ्य: संज्ञायाम् ३२८ शन्त्रानौ स्यसहितौ शेषे च ७४८ श च ८०७ शंसिप्रत्ययादः ८०८ शासे रि दुपधाया शासिवासिंघसीनां च २२३ १२५ अण्व्यञ्जनयोः शाशास्तेश्च २२३ १२६ शासेरिदुपधाया अण् व्यञ्जनयोः २५५ २६५ शाच्छासाह्वाट्यावेषामिनि ४४८ शिडिति शादयः शि चौ वा २५ ८९ शि ट् परोधोषः २६४ शिट् परोऽघोषः २७७ ३४८ श्वितादीनां ह्रस्वः ३०९ शी सार्वधातुके ७८ शीलिकामिभक्षाचरिभ्यो णः ३२६ शीडोऽधिकरणे च ३२८ ६०२ शुनीस्तनमुञ्जनकूलास्यपुष्पेषु शे षे से वा वा पररूपम् ३३१ ६१७ शेषा: कर्मकरण सम्प्रदानापादान शेषात्कर्तरि परस्मैपदम् १९८ २० स्वाम्यायधिकरणेषु १३५ शेतेरिरन्तरादिः २१४ शीङ् पूङ् धृषिक्ष्विदि श्रद्धाया: सिलोषम् स्विदिमिदा निष्ठासेट ३४८ ७१४ श्वयुवमघोनां च २९६ वस्तनी १९६ ८ श्वयते २७३ ३३२ श्रिद्रसुकभिकारितान्ते श्रिव्यविमविह्वरित्वरामुपधयो ३३८ ६३२ भ्यश्चण कतरि २६२ २९१ श्रु व: शृ चे २०८ असिध्वसोश्च ३२१ १० ३०३ २१४ २८ ३६ ८० Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ कातन्त्ररूपमाला २११ ३५६ ८७ षकारादि सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक सूत्र पृष्ठ सूत्रक्रमांक षडो णो ने १०७ ३१७ षष्ठी हेतुप्रयोगे १४६ ४०८ षष्ट्याद्यतत्परात् १८३ ५१९ षष् उत्वम् १८८ षडाद्याः सार्वधातुकम् १९७ १२ षढो: क; से २२२ ष्ठिबुक्लमाचामामनि ५९ षानुबन्धभिदादिभ्यस्त्वङ् ७६४ हकारादि सूत्र हललाङ्गलयोरीषायामस्य लोपः ९ २८ हस्तनी १९६ हन्तेजों हो २२१ १५५ हस्तगां न २२५ १३४ २५६ २७२ हनुदन्तात्स्ये २८० ३५८ हस्य हन्तेर्षि रि नि चोः २८४ ३६७ हनिमन्यतेत्ि २८४ ३६८ हन्तेर्वधिराशिषि २८४ ३७१ हनस्त च ३१६ ५२७ हन्तेस्त: ५६० हरतेतिनाथयोः पशो ६११ हन्तेः कर्मण्याशीर्गत्योः ३३४ ६३७ हस्तिबाहुकपाटेषु शक्ती ३३५ ६४२ हस्वनदीश्रद्धाभ्य: सिलोपम् १३४ ह्रस्वोऽम्बार्थानाम् हस्वच इवति २२१ ह्रस्वस्य दीर्धता ४७० ह्रस्वाच्चानिरः २५० २४३ हशष छान्तेजादीनां ड: २७१ ह चतुर्थान्तस्य धातोस्तृतीयादे हनेहेर्घिरुपधालोपे ९८ २९३ रादिचतुर्थत्वमकृतवत् २९० हशषछान्तेजादीनां डः १०६ २७१ हस्तिपुरुषादण च ५६२ ह्रस्वारुषोमोन्तः ६१५ हाज्याग्लाभ्यश ८०४ हावामश्च ५८५ ह्वयतेर्नित्यम् ३०१ ४४१ हिंसानामज्वरि ४११ हुधुड्भ्यां हेधिः २१६ ८९ हन्मासदोषपूषां शसादौ स्वरे वा ९८ होऽच् वयोऽनुद्यमनयोः ३२७ ५९५ हेत्वथें १४२ ३९१ हेतौ च ४०५ हेरकारादहन्तेः २०५ ४४ हो ढः २२८ १४६ हो जः २२९ हो च २१६ ९० हः कालब्रीयोः ५८२ क्ष त्र ज्ञादिसत्र क्षत्रादियः १७३ ४९४ क्षेमप्रियमद्रेष्कण्च ६३० क्षैशुषिपामकवा: ३४७ ७०९ त्रिचतुरोः स्त्रियां तिसृत्रीणि त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमाः १९७ १५ चतसृ विभक्ती २२३ वेस्तु च १८२ ५१२ : सप्तम्या: १८५ ५२४ २४५ २१९ कातन्त्ररूपमाला की सूत्रावली समाप्त १९२ १५२ ३२५ ६३ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट कातन्त्ररूपमाला में प्रयुक्त कतिपय परिभाषाओं की सूची परिभाषा वर्णग्रहणे सवर्णग्रहणं कारग्रहणे केवलग्रहणं । पूर्वव्यञ्जनमुपरि परव्यञ्जनमधः । जलतुम्बिकान्यायेन रेफस्योर्ध्वगमनं । एकदेशविकृतिमन यवत्। यल्लक्षणेनानुत्पन्नं तत्सर्वं निपातनात् सिद्धं । दूरादाबाने गाने रोदने च प्लुतास्ते लोकत: सिद्धाः । असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे। अन्तरङ्गे कायें कृति सति बहिरङ्ग कार्यमसिद्धं भवति । सकृद्वाधितो विधिर्वाधित एवा सत्पुरुषवत् । उभयविकल्पे त्रिरूपम् । एकदेशविकृतमनन्यवत् । यथा कर्णपुच्छादिस्वाङ्गेषु भिन्नेषु सत्सु । श्वा न गर्दभः किन्तु, श्वा श्चैव । शन्तृडन्तक्विन्तौ धातुत्वं न त्यजतः । इत्येतदुपलक्षणम् । उपलक्षणं किं स्वस्य स्वसदृशस्य च ग्राहकं । यथा सर्पिः काकेभ्यो रक्षति । तपरकरणमसन्देहाथ । प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणमिति न्यायात् । सर्वविधिभ्यो लोपविधिर्बलवान् । अन्तरङ्गबहिरङ्गयोरन्तरङ्गो विधिर्बलवान् । अल्पाश्रितमन्तरङ्गं । बलाश्रितं बहिरङ्ग । सिद्धे सत्यारम्भो नियमाय । सामान्यविशेषयोर्विशेषो विधिर्बलवान् । प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणं न याति इति न्यायात् । क्विप् सर्वापहारिलोपः। ८३-८४ मित्रवदागमः शत्रुवदादेशः । अथवा प्रकृतिप्रत्ययोरनुपघाती आगम उच्यते। लवर्णतवर्गलसा दन्त्याः । सन्निपातलक्षणविधिरनिमित्तद्विघातस्य । यो यमाश्रित्य समुत्पन्न: स तं प्रति सत्रिपात: । निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः । १०९ उक्तार्थानामप्रयोगः । १५४ अव्यायनां पूर्वनिपातः । १५८ अव्ययानां स्वपदविग्रहो नास्ति । १६० लक्षणसूत्रमन्तरेण लोकप्रसिद्धशब्दरूपोच्चारणं निपातनं । १८७ पूर्वोक्तपरोक्तयोः परोक्तो विधिर्बलवान् । २२१ ८७ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ कातन्त्ररूपमाला पृष्ठ परिभाषा वर्णटवर्गरषामूर्धन्याः । सावकाशानवकाशयोरनवकाशो विधिर्बलवान् । लोपस्वरादेशयोः स्वरादेशो विधिर्बलवान् । त्रिषु व्यञ्जनेषु संयुज्यमानेषु सजातीयानामेकव्यञ्जनलोपः । अन्तरङ्गबहिरङ्गो विधिर्बलवान् । प्रकृति आश्रितमन्तरङ्ग प्रत्याश्रितं बहिरङ्गम्। नत्रा निर्दिष्ट्रमनित्यत्वात्। संयोगविसर्गानुस्वारपरो ह्रस्वोऽपि गुरुः स्यात् । आगमादेशयोरागमो विधिर्बलवान् । यस्य स्थाने यो विधीयते स स्थानीव भवति आदेशः । २२२ २२७ २३१ २४४ २५४ २६० २६३ २६७ २९६ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४०७ ३६६ ३६५ १७ ३०५ २०१ ३६५ २८६ १९४ १५० २२ कातन्त्ररूपमाला के श्लोकों की अकारादि क्रम से सूची श्लोक पृष्ठ श्लोक अ एवस्वार्थकनेणाऽका। ३६६ अकारादिहसीमानं। अज्ञानतिमिरान्धस्य । २ अदीपों दीर्घता याति अवीलक्ष्मीतरीतन्त्री आख्यातं श्रीमदाद्याहत् आदिलोपोऽन्त्यलोपश्च इषदर्थे क्रियायोगे ऋदवृबृजोपि वा दीघों २६१ ऋढय़ां सनीङ वा एकमात्रो भवेद्धस्वो १९ ओजसोप्यरसोर्नित्यं अ: स्वरे कश्च वग्र्येषु ३६६ कुमार्या अपि भारत्या क्रमेण वैपरीत्येन ३ क्रियापदं कर्तृपदेन युक्तं क्वचित्प्रवृत्ति: क्वचिदप्रवृत्ति: १३५ क्षीणेऽनुग्रहकारिता समजने गुरुभक्त्या वयं सार्द्ध गपो बधेश्च निन्दायां चकारबहुलो द्वन्द्वः चतुःषष्टिः कला: स्त्रीणां चर्मणि द्वीपिनं हन्ति १४९ चशे व्यर्थमिदं सूत्रं जिज्ञासावज्ञयोरेव २८६ तन्न युक्तं यत: केकी तुम्बुरुं तृणकाष्ठं च १० तेन दीव्यति संसृष्टं तेन ब्राह्मयै गर चात्रभाकामाचे नमस्तस्यै सरस्वत्यै १ नमो वृषभसेनादि नित्यात्वतां स्वरात्रानां २६९ परत: केचिदिच्छन्ति पदयोस्तु पदानां वा १५० पान्तु वो नेमिनाथस्य पृथु मृदुं दृढं चैव ३०० प्रपराऽपसमन्ववनिर् प्रकाशितं शीघ्र १६७ ब्राम्या कुमार्या बहुव्रीह्यव्ययीभावी १६७ भगवानीश्वरो भूयात् भावसेनत्रिविद्येन ३६५ भावसेनत्रिविद्येन भावसनावावधान भावसेनत्रिविद्येन १९३ मन्दबुद्धिप्रबोधार्थं मही मन्दाकिनी गौरी ६५ मृगी वनचरी देवी मुक्तौ चित्तत्वमध्येति मुष्टिव्याकरणं मूढ धीरत्वं न जानासि यजों वयो वहश्चैव यत्रार्हपदसंदर्भाद् ३६६ यद्वदन्त्यधियः केचित् यनिमित्तमुपादाय रागान्नक्षत्रयोगाच्च रोदितिः स्वपित्तिश्चैव २१९ लक्षणवीप्सेत्थंभूते लज्जासत्तास्थितिजागरणं २०१ वर्धमानकुमारे वर्णागमो गवेन्द्रादौ ३४४ वर्णागमो वर्णविपर्यपश्च १९४ १७५ १९४ ur १५० २०२ ३६६ ३६५ ६५ १६७ १४९ २७२ १९४ १७४ १३९ १६७ ३४४ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 कातन्त्ररूपमाला पृष्ठ 150 184 142 श्लोक वर्णविकारनाशाभ्यां विभक्तयो द्वितीयाद्या वीरो विश्वेश्वरो देवो शुचि भूमिगतं तोय सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सन्मात्रं भावलिङ्गं स्यात् सम्बोधने तूशनसस्त्रिरूपं सर्वकर्मविनिर्मुक्त स्वसातिस्रश्चतसश्च सामान्यशास्त्रतो नूनं सिद्धांतोऽयमथापि यः स्वाधिषणा पृष्ठ श्लोक 344 बस्तुवाचीनि नामानि 151 विभक्तिसंज्ञा विज्ञेया 133 वीरं प्रणम्य सर्वज्ञ 75 शिखया बटुमद्राक्षीत् 134 सन्धिर्नाम समासच 201 संप्रदानमपादाने 108 संयनाय श्रतं धत्ते 195 सर्वज्ञं तमहं वंदे 69 स्वसा नप्ता च नेष्टा च 72 सार्व तीर्थकराख्यानं 365 हने: सिच्यात्मने दृष्टः 149 57 247 284