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कातन्त्ररूपमाला
- - . आमन्त्रणे सि: सम्बुद्धिः ।।१३३ ।। आमंत्रणार्थे विहित: सि: सम्बुद्धिसंज्ञो भवति ॥
हस्वनदीश्रद्धाभ्यः सिर्लोपम् ।।१३४ ।। ह्रस्वनदोश्रद्धाभ्य: पर: संबुद्धिसंज्ञक: सिलोपमापद्यते । कैश्चिदामन्त्रणाभिव्यक्तये अहो हे भी शब्दा: प्राक्प्रयोज्यन्ते । हे पुरुष । द्विवचनबहुवचनयोः पूर्ववत् । हे पुरुषौ । हे पुरुषाः । तथैव कर्मविवक्षायाम् ।।
शेषाः कर्मकरणसंप्रदानापादानस्वाम्यायधिकरणेषु ।।१३५ ।। शेषा द्वितीयाद्या: षड् विभक्तयः कर्मादिषु षट्सु कारकेषु यथासंख्यं भवन्ति । इति कर्मणि द्वितीया । पुरुष अम् इति स्थिते।
अकारे लोपम् ।।१३६ ॥ लिङ्गान्तोऽकारो लोपमापद्यते सामान्ये अकारे परे 1 पुरुषम् । द्विवचने सन्धिः । पुरुषौ । बहुत्वे-पुरुष अस इति स्थिते।
शशि सस्य च नः ॥१३७॥ शसि परे लिङ्गान्तोऽकारो दीर्घमापद्यते सस्य च नो गवति । पुन: सवणे दीर्घः । पुरुषान् । तथैव करणविवक्षायाम् ॥ शेषा: कमेत्यादिना करणे तृतीया । पुरुष टा इति स्थिते ।
इन टा॥१३८॥
आमंत्रण में 'सि' की संबुद्धि संज्ञा है ॥१३३ ॥ ह्रस्व स्वर नदी और श्रद्धा से परे 'सि' विभक्ति का लोप हो जाता है ॥१३४ ॥
ह्रस्व स्वर से परे नदी संज्ञक एवं श्रद्धा संज्ञक शब्दों से परे 'सि' विभक्ति का लोप हो जाता है। कोई-कोई जना आमंत्रण अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों से पहले अहो, हे, भो शब्दों का प्रयोग करते हैं। अत:-हे पुरुष ! द्विवचन और बहुवचन पूर्ववत् ही होते हैं। हे पुरुषो, हे पुरुषाः ।
कर्म की विवक्षा होने पर
शेष छहों विभक्तियाँ क्रम से कर्म, करण, संप्रदान, अपादान स्वामी आदि और अधिकरण अथों में होती हैं ॥१३५ ॥
शेष द्वितीया आदि छहों विभक्तियाँ कर्म आदि छह कारकों में होती हैं। इस प्रकार से कर्म अर्थ में द्वितीया विभक्ति आई। पुरुष + अम्।
__ अकार के आने पर लोप हो जाता है ॥१३६ ॥ सामान्य अकार के आने पर लिंगांत अकार का लोप हो जाता है। पुरुष+ अम् = पुरुषम् । द्विवचन में सन्धि-पुरुषौ । पुरुष + शस् हैं । 'शानुबंध होकर पुरुष + अस् है । बहुवचन में शस् के आने पर अकार दीर्घ होकर स् को न हो जाता है ॥१३७ ।। पुरुषा+ अन् सवर्ण को दीर्घ होकर पुरुषान् । करण अर्थ की विवक्षा में-तृतीया विभक्ति आई तो पुरुष + टा
अकारान्त लिंग से परे 'टा' को 'इन' आदेश हो जाता है ॥१३८ ॥
१. शब्दान्त इत्यर्थः।