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कातन्त्ररूपमाला
वत्तेः शन्तुर्वन्सुः ।।५०० ॥ विद: परस्य शन्तुर्वन्सुर्भवति । विद्वान् विद्वान्सौ ।
क्वन्सुकानौ परोक्षावच्च ।।५०१ ।। धातोः परोक्षास्वरूपौ क्वन्सुकानौ भवतः ॥ क्वन्सु परस्मै कान आत्मनेपदं भवति ।
के यण्वच्च योक्तवर्जनम् ।।५०२ ।। कानुबन्धे कृति परे यण्वकार्य भवति योक्तं वर्जयित्वा । इति न गुणः । बभूवान् बभूवान्सौ बभूवान्स:। एधाञ्चक्रिवान्। एधाञ्चक्राण:। अत्र नाम्यादेर्गुरुमत इत्यादिना आम: कृञ् प्रयुज्यते इत्यनुप्रयोग: । पेचिवान् पेचान: । चक्रिवान् चक्राणः।।
खोळञ्जनेऽये ॥५०३ ।। धातोर्यकारवकारयोलोपो भवति यकारवर्जिते कृति व्यञ्जने परे । क्नूयी शब्दे । चुक्न्हावान् । मायी विधूनने । चक्ष्मावान् । दिव् क्रीडादौ । दिदिवान् । पिवु तन्तुसन्ताने । सिषिवान् । ष्ठिवु क्षिषु निरसने। तिष्ठिवान् । विक्षिवान्।
कर्मणि प्रयोग में—वाच्य के समान तीनों लिंग और एक द्वि बहुवचन भी होते हैं। यथा--पच्यमान: औदन: पच्यमानौ ओदनौ, पच्यमाना: ओदना: । क्रियमाणः ।।
विद् के परे शन्तु को वन्स आदेश हो जाता है ।।५०० ॥ अत: विद्वन्स् बना । लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्ति में विद्वान् विद्वांसौ विद्वान्सः ।
धातु से परोक्षा अर्थ में क्वंसु कान प्रत्यय होते हैं ॥५०१ ॥ क्वन्सु परस्मैपद में एवं कान प्रत्यय आत्मनेपद में होता है। कानुबन्ध कृत् प्रत्यय के आने पर योक्त को छोड़कर यणवत् कार्य होता है ॥५०२ ॥
इससे गुण नहीं होता है। भू क्वन्स में वन्स रहता है। 'चण परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' २९२ सूत्र से द्वित्त्र होकर भू भू वन्स् । 'पूर्वोभ्यास:१५१ सूत्र से अभ्यास संज्ञा होकर 'भवतेरः' इस ३०५वें सूत्र से अभ्यास को अकार होता है। "द्वितीयचतुर्थयो: प्रथमतृतीयौं” १५१ सूत्र से तृतीय अक्षर होकर बभूवन्स् बना ‘कृतद्धितसमासाश्च' सूत्र से लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'बभूवान्' ऐसे ही एध धातु से आम् कृ का प्रयोग होकर 'कान' प्रत्यय होकर एधाञ्चक्राण; । यहाँ पर 'नाग्न्यादेमुरुमतः' इत्यादि सूत्र से आम् से कृ धातु का प्रयोग होता है। पेचिवन्स् पेचान बनकर लिंग संज्ञा होकर और सि विभक्ति आने पर पेचिवान् पेचान: । चक्रिवान् । चक्राणः ।
क्यो—शब्द करना । क्यूय क्नूय् वन्स् न का लोप होकर 'कवर्गस्य चवर्ग:' २९३ सूत्र से चवर्ग होकर २९४ सूत्र से ह्रस्व होकर चुक्न्य् वन्स् रहा।
यकार वर्जित कृत्प्रत्यय के आने पर धातु के यकार वकार का लोप हो जाता है ॥५०३ ॥
यकार का लोप होकर चूक्नूवन्स् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'चुक्नूवान्' बना।
क्ष्मायी-कॅपना। उपर्युक्त सूत्र से यकार का लोप होकर चक्ष्मावान् बना । दिद-क्रीड़ा आदि । दिदिवान् ।
पिवु–सिषिवान् । तिष्ठिवान् चिश्क्षिवान् । गम् वन्स् द्वित्व होकर गम् गम् वन्स् कवर्ग को