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तद्धित
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प्रहणात्तस्येति पष्ठ्यन्तानाम्नः परो वाप एतस्मिन्नर्थे इकण् प्रत्ययो भवति 1 प्रष्टस्य वाप: प्राष्टिकं क्षेत्रं । वाप इति कोऽर्थ: ? क्षेत्रं । कुम्भस्य वाप: कौम्भिकमित्यादि।
नावस्तायें विषाध्ये तुलया सम्मितेऽपि च तत्र साधौ यः ।।४९७ ॥
नावस्तृतीयान्तात्तार्येऽर्थे विषातृतीयान्ताद्ध्येऽथें तुलया तृतीयान्तात्सम्मितेऽर्थेऽपि च तत्रेति सप्तम्यन्तात्साधावर्थे य: प्रत्ययो भवति । नावा तार्यमिदं नाव्यं । विषेण वध्यो विष्य: । तुलया सम्मितं तुल्यं । कर्मणि साघु: कर्मण्यः । अपि चेति वचनाद् गिरिणा तुल्यो हस्ती गिरितुल्यः । तुल्य: सदृश: कुशलो योग्यो हितश्चेति साधुरुच्यते।
ईयस्तु हिते।।४९८॥ हितार्थे ईय: प्रत्ययो भवति । वत्सेभ्यो हितो वत्सीयो गोधुक् । एवमश्वीय: । जनकेभ्यो हितो जनकीय: । जननीय: । त्वदीयः । मदीयः । युष्मदीयः । इदमीय: ।
आयुध अर्थ में इकणचक्र आयुधं अस्य इति चाक्रिकः । इत्यादि।
क्रीतादे: इस प्रकार से ग्रहण करने से षष्ठ्यंत नाम से परे वाप:-बोना इस अर्थ में इकण् प्रत्यय हो जाता है। प्रष्टस्य वाप: प्राष्टिक क्षेत्रं । वाप: शब्द का क्या अर्थ है ? 'खेत' जिसमें अनाज बोया जाता है। कुंभस्य वाप: कौंभिकं इत्यादि-अर्थात् एक घड़े भर बीज बोया ।
उपर्युक्त प्रकरण में सभी उदाहरण के शब्दों में हिन्दी में कुछ कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं सारे के सारे रूप मूल संस्कृत में देख लेना चाहिये।
नाव शब्द से तिरने अर्थ में, विष से वध्य अर्थ में, तुला से संमित अर्थ में, तत्र से साधु अर्थ में 'य' प्रत्यय होता है ॥४९७ ॥
"तृतीयान्त नाव शब्द से तैरने अर्थ में, तृतीयान्त विष शब्द से वध्य अर्थ में, तृतीयान्त तुला शब्द से मापने अर्थ में, 'तत्र' इस सप्तम्यंत शब्द से साधु अर्थ में 'य' प्रत्यय होता है । नावा तार्यमिदं नौ+टा "तत्स्था लोप्या विभक्तयः” सूत्र से विभक्ति का लोप होकर 'औं' को आव् होकर 'नाव्य' बना “कृत्तद्धितसमासाच" सूत्र से लिंग होकर 'सि' विभक्ति में 'नाव्यं' बना । ऐसे ही विषेणवध्यः विष +टा विभक्ति का लोप, “इवर्णावर्णयोर्लोप: स्वरे प्रत्यये ये च" सूत्र से अकार का लोप, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में "विष्यः' बना, तुलया: सम्मितः, तुला+टा विभक्ति का लोप, आकार का लोप, लिंग संज्ञा होकर "तुल्य' बना, कर्मणि साधु कर्मन् + डि विभक्ति का लोप, नकार को णकार, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति से 'कर्मण्य:' बना । सूत्र में 'अपि च वचन है उससे और भी रूप बन जाते हैं। जैसे--गिरिणा तुल्या हस्ती 'गिरि + टा' तुल्य+सि विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'गिरितुल्यः' बना। यहाँ साधु शब्द से तुल्य, सदृश, कुशल, योग्य और हित शब्द लिये जाते हैं।
हित अर्थ में 'ईय' प्रत्यय होता है ॥४९८ ॥ वत्सेभ्यो हित, वत्स + भ्यस, विभक्ति का लोप होकर "इवर्णावर्णयोलोप:" इत्यादि सूत्र से अकार का लोप होकर लिंग संज्ञा हई. पनः सि विभक्ति में 'वत्सीयः' बना। वत्सीय:-गोधक = ग्वाला । ऐसे ही अश्वेभ्यो हित:= अश्वीयः जनकेभ्यो हितः = जनकीयः, जननीभ्यो हित: = जननीय; तुभ्यं हित:, मां हित: युष्मद् + भ्यस् अस्मद् + ध्यस, विभक्तियों का लोप होकर “त्वमदोरेकत्वे" ....सूत्र से एकवचन में 'त्वत् मत्' आदेश होकर तीसरा अक्षर होकर त्वदीयः, मदीय: बना। बहुवचन में अस्मभ्यं हित; 'अस्मदीयः युष्मभ्यं हित: 'युष्मदीया बना ।