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________________ २५४ कातन्त्ररूपमाला दहिदिहिदुहिमिहिरिहिरुहिलिहिलुहिनहिवहेर्हात्॥२५९ ।। एभ्यः परमसार्वधातुकमनिड् भवति । अधुक्षत् अधुक्षतां अधुक्षन् । दिह उपचये। अधिक्षत् । अनिटामिति किं ? कुष नि: अकोए । असोभि असोधि । शिताविति किं ? अभुक्त अभुक्षातां अभुक्षत । अभुक्था: अभुक्षाथां अभुग्ध्वं । अभुक्षि अभुक्ष्वहि अभुक्ष्महि । नाम्युपधादिति किं ? दह भस्मीकरणे। अधाक्षीत् । प्रकृत्याश्रितमन्तरङ्गं प्रत्यायाश्रितं बहिरङ्गं । “अन्तरङ्गबहिरङ्गयोरन्तरङ्गो विधिर्बलवान् । इति धत्वं चतुर्थत्वं च । अदाग्धां अधाक्षुः । अधाक्षी: अदाग्धं अदाग्ध । अधाक्षं अधाक्ष्व अधाक्ष्म । अदृश इति किं ? दृशिर् प्रेक्षणे। सृजिदशोरागमोऽकार: स्वरात्परो धुटि गुणवृद्धिस्थाने ।।२६०॥ सृजिदृशोः स्वरात्परोऽकारागमो भवति गुणवृद्धिस्थाने धुटि परे । अद्राक्षीत् अद्राष्टां अद्राक्षुः । भृजादीनां षः ।।२६१ ।।। भृजादीनां षो भवति धुट्यन्ते च । सृज विसर्गे । असाक्षीत् असाष्टां अस्राक्षुः । इति भ्वादिः ।। । अथ अदादिगण अदेर्घस्लू सनद्यतन्योः ॥२६२ ।। अदेर्धस्तृ आदेशो भवति सनद्यतन्योः परत:। __दह दिह दुह् मिह रिह रुह लिह लुह् न वह इन हकारांत धातुओं को असार्वधातुक में इट् नहीं होता है ॥२५९ ॥ __ अदुह् स् त् = अधुक्षत् । दिह उपचय अर्थ में है। अधिक्षत् । इट् रहित हो ऐसा क्यों कहा ? कुष निष्कर्ष अर्थ में है। अकोषीत् । शिडन्त हो ऐसा क्यों कहा ? भुज-पालन करने और भोजन करने में है। अभुक्त अभुक्षातां अभुक्षत । नामि उपधा से हो ऐसा क्यों कहा ? दह, भस्म करने अर्थ में है। अधाक्षीत् बना । 'प्रकृति से आश्रित कार्य अन्तरंग कार्य है एवं प्रत्यय के आश्रित कार्य बहिरंग कार्य है एवं अंतरंग और बहिरंग विधि में अंतरंग विधि बलवान होती है। इसलिये द को चतुर्थ अक्षर 'ध' हो गया है । अदाग्धां अधाक्षुः । दृश् को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? दृशिर-देखना। सृज और दृश के स्वर से परे धुट् के आने पर गुणवृद्धि के स्थान में अकार का आगम हो जाता है ॥२६०॥ अद्राक्षीत् अद्राष्टां अद्राक्षुः । धुट के अन्त में आने पर भृज् आदि के अन्त को षकार हो जाता है ॥२६१ ॥ सृज् धातु विसर्ग अर्थ में है। अस्राक्षीत् अस्राष्टां अस्राक्षुः । इस प्रकार से भ्वादिगण में अद्यतनी प्रकरण समाप्त हुआ। अथ अदादि गण प्रारम्भ होता है। सन् और अद्यतनी में अद् को घस्लु आदेश हो जाता है ॥२६२ ॥ पुषादिगण, धुतादि गण, लकारानुबंध, ऋ सृ और शास् धातु से ।
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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