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________________ कातन्त्ररूपमाला *टादौ स्वरे वा ॥२०२॥ क्रोष्टशब्दस्य ऋत उर्वा भवति टादौ स्वरे परे । इति द्वितीयविकल्प: । इति उभयविकल्पे रूप्यं । बहुक्रोष्टुना, बहुक्रोष्टवा, बहुक्रोष्ट्रा । बहुक्रोष्टुभ्यां । बहुक्रोष्टुभिः । इत्यादि । सम्बोधने । हे बहुक्रोष्टु हे बहुक्रोष्टो। हे बहुक्रोष्टुनी । हे बहुक्रोष्ट्रनि । इत्यादि । ऋकार लकार लूकारान्ता एकारान्ताश्चाप्रसिद्धाः ।। ऐकारान्ता नपुंसकलिङ्गो अतिरैशब्दः । तस्य हस्वत्वे सन्ध्यक्षराणामिदतौ हस्वादेशे ॥२५३॥ सन्ध्यक्षराणां ह्रस्वादेशे सति इदुतौ भवतः । तपरकरणमसन्देहाथ । इति एकारस्यैकारस्य च ह्रस्व इकार: । ओकारस्यौकारस्य च ह्रस्व उकार:। अतिरि । नामिनः स्वरे इति नुरागमः। अतिरिणी । अतिरीणि । पुनरपि । टादौ स्वरे भाषितपुंस्कं पुंवा इति विकल्पेन पुंवद्धावः। यत्र पुंवद्रावस्तत्र सुरैशब्दवत् । अतिरिणा, अतिराया। व्यञ्जनादौ प्रत्यये परे रैरिति आत्वं । कुत: ? एकदेशविकृतमनन्यवत् इति न्यायात् । अतिराभ्यां । अतिराभिः । अतिरिणे. अतिराये। अतिराभ्यां । अतिराभ्यः । इत्यादि । इति ऐकारान्ता: । ओकारान्तो नपुंसकलिङ्गचित्रगोशब्दः । तत्र ओकारस्य हस्व उकार: । मृदुशब्दवत् । चित्रगु । बहु क्रोष्ट शब्द है। “क्रोष्टुः ऋत उत्. संबुद्धौ शसि व्यञ्जने नपुंसके च” इस २०१वें सूत्र से नपुंसक लिंग में, क्रोष्ट के ऋकार को उकार हो जाता है अतः । बहु क्रोष्टु बहुक्रोष्टुनी बहुक्रोष्ट्रनि "टादौ भाषितपुंस्कं पुंवद्वा" इस २५२वें सूत्र से टा आदि स्वर वाली विभक्ति के आने पर विकल्प से पुंवद्भाव हुआ। इस एक विकल्प से पुंबद्भाव हुआ । इस एक विकल्प से दो रूप बनेंगे। पुन: *टा आदि स्वरवाली विभक्ति के आने पर क्रोष्ट शब्द के ऋकार को विकल्प से उकार हो जाता है ॥२०२॥ यह दूसरा विकल्प हुआ । इस प्रकार से दो विकल्प से तीन रूप बनेंगे अर्थात् एक बार उकारांत शब्द को पुल्लिंगवत् करने से भानु के समान रूप चलेंगे। दूसरी बार 'खलपु' के समान, तीसरी बार पितृवत् रूप चलेंगे। यथा ऋकारान्त, लकारांत, लकारांन एवं एकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। ऐकारांत नपुंसक लिंग अतिरै शब्द है । 'स्वरो हस्वो नपुंसके' इस २४४वें सूत्र से ह्रस्व प्राप्त था— संध्यक्षर को ह्रस्व आदेश करने पर ह्रस्व इकार और उकार हो जाता है ॥२५३ ॥ इत् उत् में त् शब्द से हस्व ही लेना । इसमें सन्देह को दूर करने के लिये हो त् शब्द है इसलिये ए ऐ को ह्रस्व इकार और ओ और को हस्व उकार हो गया। अत: अतिरि बना । यह अतिरि शब्द वारिवत् चलेगा। अत: 'नामिन: स्वरे' से नु का आगम हो जावेगा और टा आदि विभक्ति के आने पर "टादौ स्वरे भाषितपुंस्कं पुंवद्वा” इस सूत्र से विकल्प से पुंवद् भाव होने से 'रे' शब्दवत् रूप चलेंगे। यंजन वाली विभक्ति के आने पर '' सूत्र से आकार हो जाता है। प्रश्न यह होता है कि जब अतिरि शब्द में नहीं है तब यह सूत्र कैसे लगा ? तो “एकदेशविकृतमनन्यवत्" इस न्याय से एक देश विकृत होने से कुछ अन्तर नहीं पड़ता है अत: x यह सूत्र पहले आ चुका है।
SR No.090251
Book TitleKatantra Roopmala
Original Sutra AuthorSharvavarma Acharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size10 MB
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